Wednesday, 22 October 2025

तेघड़ा विधानसभा: एनडीए के लिए आसान नहीं होगा बिहार के मास्को के किले को भेद पाना

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                                तेघड़ा विधानसभा: 

                 एनडीए: बहुत कठिन है डगर पनघट की 

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पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सीपीआई उम्मीदवार राम रतन सिंह को आसान जीत मिली, उन्हीं कारणों से, जिन कारणों से लोकसभाा-चुनाव, 2019 में गिरिराज सिंह को अप्रत्याशित एवं आसान जीत मिली। लेकिन, प्रस्तावित विधानसभा चुनाव का परिदृश्य कुछ अलग है। इस बार सीपीआई के लिए इस सीट को निकालना आसान नहीं होने जा रहा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सीपीआई इस सीट को शर्तिया लूज़ कर रही है। 

विधानसभा चुनाव,2020:

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जहाँ पिछली बार यह लड़ाई महज एनडीए बनाम् यूपीए की नहीं थी, वरन् पिछड़ा बनाम् अगड़ा की भी थी और इस लड़ाई में धानुक जाति से आने वाले एनडीए उम्मीदवार वीरेन्द्र महतो पर स्वाभाविक बढ़त भूमिहार जाति से आने वाले महागठबंधन के उम्मीदवार रामरतन सिंह को मिली। ध्यातव्य है कि वीरेन्द्र महतो निर्वर्तमान विधायक थे और पाँच साल के दौरान क्षेत्र से उनका कोई नाता नहीं रहा। स्थानीय जनता से डिस्कनेक्ट, अगड़ा-विरोधी छवि और आमजन के बीच अलोकप्रियता की क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ी। इसका लाभ पिछले चुनाव में सीपीआई उम्मीदवार को मिला। यद्यपि इस चुनाव में पूर्व भाजपा-विधायक ललन कुँवर भी लोजपा-उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में थे और अपने क्षेत्र के भूमिहारों और विधायक के रूप में लोकप्रिय छवि का लाभ भी उन्हें मिला, तथापि क़रीब 29 हज़ार वोटों के साथ वे महज़ अपनी उपस्थिति  दर्ज करवा पाने में सफल रहे। उस समय यह मुक़ाबला त्रिकोणीय रहा, यद्यपि दबंग भूमिहारों के एक तबका इस बात को लेकर आशंकित था कि कहीं भूमिहार वोट में बिखराव का लाभ वीरेन्द्र महतो को न मिले और एक बार फिर से वीरेन्द्र महतो चुनाव जीत न जाएँ। इस स्थिति को टालने के लिए उन्होंने रामरतन सिंह के लिए वोट किया।  साथ ही, उस बार जनता में रामरतन सिंह के प्रति सहानुभूति भी रही। उनकी सादगी और ईमानदारी ने जनता को इस बात के लिए विवश किया कि वे उन्हें एक मौका दें। 

बदला हुआ चुनावी परिदृश्य:

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इस बार तेघड़ा विधानसभा का चुनावी परिदृश्य कुछ अलग है। इस बार यह सीट भाजपा के खाते में गया है, और भाजपा ने यहाँ से भूमिहार जाति के पूर्व विधान-पार्षद रजनीश कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। इतना ही नहीं, इस बार उनके प्रति वैसी सहानुभूति भी नहीं, जिसका लाभ पिछली बार उन्हें मिल। इस दृष्टि से देखा जाए, तो इस बार मुक़ाबला ज़ोरदार होने जा रहा है और इस मुक़ाबले में निर्वर्तमान विधायक रामरतन सिंह के पास वह स्वाभाविक बढ़त नहीं है जो पिछले बार थी। 


आसान नहीं रजनीश की राह:

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लेकिन, इस बार एनडीए-सह-भाजपा उम्मीदवार की राह भी आसान नहीं है। यह क्षेत्र बिहार के मास्को एवं लेनिनग्राड के रूप में जाना जाता है। इससे इतर, उनके समक्ष आंतरिक स्तर पर भी ऐसी चुनौतियाँ मौजूद हैं जिनसे पार पाए बिना उनके लिए चुनावी वैतरणी पार करना मुश्किल है। ये चुनौतियाँ निम्न हैं:

1. एनडीए-सह-भाजपा के उम्मीदवार रजनीश कुमार बाहरी उम्मीदवार हैं और इसका ख़ामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ सकता है। 

2. रजनीश कुमार को भीतरघात का सामना भी करना पड़ सकता है क्योंकि उनके जीतने का मतलब है उनके समकक्षों: ललन कुँवर और केशव शांडिल्य, जिनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ हैं, के लिए भविष्य की मुश्किलों का बढ़ना। ये कभी नहीं चाहेंगे कि रजनीश कुमार को जीतें। इस स्थिति में वे या तो उदासीन होंगे, या फिर अन्दर ही अन्दर भीतरघात करेंगे।

3. रजनीश कुमार के सामने एक चुनौती जदयू के सहयोग और समर्थन को सुनिश्चित करने की है। चूँकि यह सीट जदयू के कोटे में थी और इस बार भाजपा के कोटे में आयी है, इसीलिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर जदयू में आक्रोश है। आक्रोश का एक कारण यह भी है कि पिछली बार लोजपा के सहारे जदयू के खेल को बिगाड़ने में ललन भाजपा के ललन कुँवर और उनके सहयोगी भाजपाइयों की अहम् भूमिका रही है।

4. इतना ही नहीं, इस बार जिस तरीक़े से मुख्यमंत्री पद हेतु नीतीश कुमार और जदयू की दावेदारी को ख़ारिज करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है, उससे नीतीश कुमार और उनके समर्थकों में गहरा आक्रोश है। आशंका इस बात की है कि कहीं जदयू भाजपा  और उसके समर्थक भाजपा और लोजपा के लिए वही भूमिका न निभाएँ, जो भूमिका पिछले चुनाव में जदयू के लिए लोजपा ने निभायी थी।

5. इसका एक महत्वपूर्ण आयाम जातीय भी है। धानुक, कोईरी और कुर्मी पारम्परिक रूप से सीपीआई के वोटर रहे हैं और सीपीआई उनके लिए संघर्ष करती रही है। यही कारण है कि सीपीआई सामान्य भूमिहार मतदाताओं के आँखों की किरकिरी बनी रही और उन्होंने (कैडर को छोड़कर) उसकी तुलना काँग्रेस को और अब भाजपा को प्राथमिकता दी। लेकिन, नीतीश फ़ैक्टर और प्रदीप राय प्रकरण के कारण धानुकों, जिनकी इस विधानसभा क्षेत्र में ठीक-ठाक आबादी है, की सीपीआई से दूरी बढ़ी और वे जदयू और अपने स्वजातीय उम्मीदवार वीरेन्द्र महतो के पक्ष में मज़बूती से खड़े हुए। लेकिन, अब उन्हें यह डर है कि रजनीश की जीत की स्थिति में उनकी जाति को दुबारा इस क्षेत्र का नेतृत्व करने का मौक़ा न मिले। इसीलिए भविष्य की संभावनाओं को खुला रखने और नीतीश के मुख्यमंत्रित्व की संभावनाओं को बनाये रखने के लिए वे यहाँ भाजपा उम्मीदवार के विरूद्ध जा सकते हैं। पूर्व विधान पार्षद और पूर्व जदयू ज़िलाध्यक्ष भूमिपाल राय या रूबल राय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और रजनीश की उम्मीदवारी के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।


मुश्किलें बढ़ेंगी सीपीआई की:

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उपरोक्त परिदृश्य में यद्यपि सीपीआई बढ़त की स्थिति में दिख रही है, तथापि सतर्कता अपेक्षित है, अन्यथा अति-आत्मविश्वास भारी पड़ सकता है और इसकी बड़ी कीमत उसे चुकानी पड़ सकती है। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों के दौरान क्षेत्र में माननीय विधायक की सक्रियता रही है और वे जनता के सुख-दुःख में भागीदार भी रहे हैं, तथापि कुछ बातें सीपीआई उम्मीदवार के विरोध में भी जाती हैं:

1. वे उतने व्यवहार कुशल और मिलनसार नहीं हैं, जितने होने की अपेक्षा किसी जन-प्रतिनिधि से की जाती है। सार्वजनिक अवसरों पर उन्होंने अपनी उपस्थिति सुनिश्चित की है, लेकिन पब्लिक अपीयरेंस के दौरान वे आमलोगों से बहुत मिलते-जुलते नहीं दिखते हैं।  इसके उलट, वे सॉलिट्यूड वाली मनोदशा में बने रहते हैं। इसीलिए आमजन इनके साथ सहज नहीं महसूस करते।

2. एक जन-प्रतिनिधि से हम यह भी अपेक्षा करते हैं कि वे चढ़कर काम करवाए और इसके लिए प्रशासन पर दबाव निर्मित करें। सीपीआई के उम्मीदवार इस मामले में भी कमजोर दिखते हैं।

3. सीपीआई उम्मीदवार के सामने एक चुनौती पार्टी में विद्यमान आन्तरिक मतभेदों की भी है। कहीं-न-कहीं रामरतन सिंह की उम्मीदवारी को लेकर मतभेद, तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र में अंचल कार्यालयों के बीच मतभेद और वर्चस्व की टकराहट ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनसे प्रभावी तरीके से निपटने की अपेक्षा उनसे की जाती है। शायद इस दिशा में प्रभावी प्रगति भी हुई है, पर गठबंधन के स्तर पर चुनौतियाँ अब भी मौजूद हैं।

4. सीपीआई उम्मीदवार के सामने एक चुनौती महागठबंधन के सहयोगियों को भी साधने की है। बछवाड़ा में जिस तरह कॉन्ग्रेस और सीपीआई उम्मीदवार आमने-सामने हैं और जिस तरीके से उनके बीच कटुता बढ़ रही है, उसका ख़ामियाजा तेघड़ा और बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र में महागठबंधन उम्मीदवारों की संभावनाओं पर पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में तेघड़ा में सीपीआई के लिए कांग्रेस के सहयोग को सुनिश्चित करना आसान नहीं होने जा रहा है। कायदे से सीपीआई और कांग्रेस को चाहिए कि बछवाड़ा के तनाव को बछवाड़ा तक सीमित रखे और जहाँ महागठबंधन के एक ही उम्मीदवार हों, वहाँ आपसी सहयोग एवं समन्वय को सुनिश्चित किया जा सके। इस स्थिति में डैमेज को मिनिमाइज किया जा सकता है। इस मसले पर शीर्ष नेतृत्व को हस्तक्षेप करना चाहिए और तनाव को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन यह तभी सम्भव है जब कांग्रेस और सीपीआई, दोनों बछवाड़ा के सन्दर्भ में एक दूसरे की मजबूरी को समझें।

5. इसके अलावा, भाजपा और रजनीश की उम्मीदवारी ने उनके समक्ष जो मुश्किलें खड़ी की हैं, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। ध्यातव्य है कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भले ही सीपीआई करीब 48 हजार वोटों से जीती हो, पर लोजपा और जदयू को कुल मिलाकर 67 हजार से अधिक वोट मिले। इस तरह वास्तविक अन्तर 48 हजार का न रहकर 18 हजार का रह जाता है, और उसमें जब इंपैक्ट को न्यूट्रलाइज करें, तो यह अन्तर और भी सिमट जाता है। 


6. इतना ही नहीं, सीपीआई उम्मीदवार के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि एनडीए और उनके प्रत्याशी के पास न केवल पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं, वरन् चुनाव जीतने के लिए वे पानी की तरह पैसे बहाने और साम-दाम-दण्ड-भेद की रणनीति अपनाने में माहिर हैं। इसके अतिरिक्त, उनके पास बेहतर चुनावी प्रबंधन है, सटीक एवं प्रभावी चुनावी रणनीति है, और है हिटलर के प्रचार-मंत्री डॉ. गोबल्स वाली प्रोपगेंडा-मशीनरी, जिसकी बदौलत वे फ़िज़ाँ को बदलने में समर्थ हैं। इस कार्य में सहयोग के लिए उनके पास गोदी मीडिया का बिना शर्त समर्थन है और समर्पित कैडरों की टोली भी। इस कार्य में सहयोग के लिए चुनाव आयोग से लेकर प्रशासनिक मशीनरी तक का सहयोग उनके लिए उपलब्ध है। इससे मुकाबला कर पाना सीपीआई और उनके उम्मीदवार के लिए आसान नहीं होगा। जहाँ उन्हें संसाधनों की  किल्लत का सामना करना पड़ रहा है, वहीं एनडीए को पानी की तरह पैसा बहाने और उस पैसे की बदौलत कार्यकर्ताओं एवं मतदाताओं की निष्ठा को खरीदने में महारत हासिल है। आज के राजनीतिक परिदृश्य में वे नैरेटिव बनाने में माहिर हैं और उनके चुनावी नैरेटिव से मुकाबला कर पाना उनके विरोधियों के लिए आसान नहीं होता। 

बढ़त की स्थिति में सीपीआई:

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इन सबके बीच राहत की बात यह है कि भाजपा के आंतरिक मतभेदों और एनडीए गठबंधन के अंतर्विरोधों के बीच रजनीश का बाहरी होना दबाव को कम कर रहा है। इतना ही नहीं, सीपीआई उम्मीदवार का बीहट से होना और एक लंबे अन्तराल के बाद बीहट का तेघड़ा की राजनीतिक राजधानी के रूप में उभरना भी उनके पक्ष में जाएगा। इसके अतिरिक्त, सूरजभान सिंह, जो इस क्षेत्र के सांसद भी रहे हैं, का राजद से जुड़ना भी कोई के लिए राहत वाली बात है। ध्यातव्य है कि मधुरापुर सूरजभान सिंह का ननिहाल है और दुल्लापुर ससुराल। पारंपरिक रूप से मधुरापुर वामपंथ का गढ़ रहा है जिस गढ़ को तोड़ने में सूरजभान सिंह की भूमिका अहम् एवं निर्णायक रही है। ऐसी स्थिति में सूरजभान सिंह के समर्थन का लाभ भी वर्तमान विधायक को मिल सकता है और यह भूमिहार मतदाताओं के छिटकने की प्रक्रिया को अवरुद्ध करेगा। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रक्षा जाना चाहिए कि तेघड़ा विधान में मुसलमानों की आबादी करीब 38 हजार है, जबकि भूमिहारों की आबादी करीब 45-50 हज़ार। इसके अलावा, यादव की आबादी भी करीब 4 प्रतिशत अर्थात् 11 हज़ार के आसपास है। 


पिछले विधानसभा चुनाव के परिणामों के संकेत:

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विधानसभा चुनाव, 2010 में सीपीआई के उम्मीदवार राम रतन सिंह को उस समय भी 33 हज़ार मत मिले थे जब जमशेद अशरफ ने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में करीब साढ़े 21 हज़ार मत हासिल किए थे और एलजेपी प्रत्याशी के रूप में खड़े खाँटी वामपंथी प्रदीप राय को करीब 18 हज़ार मत हासिल हुए थे। इसी प्रकार वर्ष 2015 में भी सीपीआई उम्मीदवार को करीब 26 हज़ार मत प्राप्त हुए थे, उस स्थिति में जब सीपीआई अकेले चुनाव लड़ी थी और सीपीआई उम्मीदवार राम रतन सिंह के ग्रामीण राम लखन सिंह ने भाजपा उम्मीदवार के रूप में करीब 53 हजार मत हासिल किए थे। कहने का तात्पर्य यह है कि करीब 65-70 हज़ार वोटों के साथ सीपीआई उम्मीदवार बढ़त की स्थिति में दिख रहे हैं। अब ये तो आनेवाला समय बताएगा कि वे अपनी इस बढ़त को कहाँ तक कायम रख पाते हैं?

कुल-मिलाकर कहें, तो सीपीआई उम्मीदवार को अति-आत्मविश्वास से बचना होगा और सतर्कता बरतते हुए अपनी बढ़त को बनाए रखने की कोशिश करनी होगी, अन्यथा दुर्घटना की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।