भारत की बलूचिस्तान-नीति
बलूचिस्तान-समस्या:
अफगानिस्तान और ईरान से लगा बलूचिस्तान पाकिस्तान के चार प्रशासनिक प्रांतों में सबसे बड़ा प्रांत है, जिसकी आबादी बहुत कम है। बलूचिस्तान प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध होने के बावजूद गरीब है। ग्वादर बंदरगाह बलूचिस्तान में ही है जिसे चीन बना रहा है। अप्रवासियों और इस्लामी विचारधारा वालों की वजह से आर्थिक तौर पर हाशिए पर धकेल दिए जाने के डर से बलूची राष्ट्रवाद को रह-रह कर हवा मिलती रही है। यहाँ पर बलूच राष्ट्रीयता को लेकर अलग अलग गुटों के आंदोलन चल रहे हैं और इस क्रम में इस आन्दोलन को कुचलने के लिए पाकिस्तानी सेना बलूचियों के मानवाधिकारों का जमकर उल्लंघन कर रही है।
कश्मीर से तुलना:
पाकिस्तान बलूचिस्तान के मसले को कश्मीर के मसले से भिन्न मान रहा है। उसकी दृष्टि में बलूचिस्तान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विवादास्पद मसला नहीं है, जबकि कश्मीर आरम्भ से ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विवादास्पद मसला रहा है। लेकिन, बलूचिस्तान की स्थिति कश्मीर से मिलती-जुलती है। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की तरह बलूचिस्तान के खान भी अपनी स्वतंत्र पहचान को बनाये रखना चाहते थे और इस बाबत उन्होंने 11 अगस्त को अपनी आजादी की घोषणा भी की थी। लेकिन, बलूचिस्तान का मसाला कश्मीर से इस मायने में अलग है कि पाकिस्तान ने सैन्य दबाव के जरिये बलूचिस्तान को जबरन पाकिस्तान में मिलाया और कश्मीर पर पाकिस्तानी कबायली हमले ने भारत के लिए ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित की जिसने कश्मीर के भारत में विलय के मार्ग को प्रशस्त किया। इस क्रम में आक्रामक पकिस्तान से बचने के लिए कश्मीर रियासत को भारतीय मदद की ज़रुरत थी जिसके लिए भारत ने विलय की शर्त रखी और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने उस शर्त को स्वीकार किया।
भारत-विभाजन के समय ब्रिटिश भारत में बलूचिस्तान के अर्ध-स्वायत्तशासी शासक कलात के खान ने बलूचिस्तान के लिए आजादी चुनी। कलात के खान ने बलूची जनमानस की नुमाइंदगी करते हुए बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करने से साफ इंकार कर दिया था। लेकिन, आमतौर से माना जाता है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने अंतिम स्वाधीन बलूच शासक मीर अहमद यार खान को पाकिस्तान में शामिल होने के समझौते पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया था। मार्च,1948 में बलूचिस्तान की आजादी की घोषणा(11 अगस्त) को दरकिनार करते हुए माउंटबेटन और पाकिस्तानी नेताओं ने 1948 में बलूचिस्तान के निजाम अली खान पर दबाव डालकर इस रियासत का पाकिस्तान में जबरन विलय कर दिया। अली खान ने बलोच संसद से अनुमति नहीं ली थी और दस्तावेजों पर दस्तखत कर दिए थे। बलूच इस निर्णय को अवैधानिक मानते हैं, तभी से राष्ट्रवादी बलोच पाकिस्तान की गुलामी से मुक्त होने के लिए संघर्ष छेड़े हुए हैं।
शर्म-अल-शेख और बलूचिस्तान:
जुलाई,2009 में शर्म अल शेख(मिस्र) से पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री गिलानी ने जब यह कहा कि बलूचिस्तान और अन्य इलाकों में ख़तरों को लेकर पाकिस्तान के पास कुछ सूचनाएँ हैं; तो तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अगर पाकिस्तान के पास बलूचिस्तान में भारत की संलिप्तता के सबूत हैं, तो इस मसले पर भारत बातचीत के लिए तैयार है और पाकिस्तान इस सन्दर्भ में सबूत उपलब्ध कराये। साझा बयान में बलूचिस्तान के ज़िक्र पर भारत में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और यह कहा गया कि साझा बयान में बलूचिस्तान के ज़िक्र एक तरह से भारत के द्वारा बलूची विद्रोही गतिविधियों में भारत की संलिप्तता के पाकिस्तानी आरोप की स्वीकृति है। इसके विपरीत भारत की विदेश-नीति घोषित तौर पर यही रही है कि भारत किसी मुल्क के आतंरिक मामलों में दखल नहीं देता है।
भारत की बलूचिस्तान-नीति में बदलाव:
भले ही पाकिस्तान बलूचिस्तान के मामले में भारत पर हस्तक्षेप और विद्रोही बलूचियों को समर्थन का आरोप लगता रहा हो; पर अबतक भारत बलूचिस्तान की समस्या में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप से परहेज़ करता रहा था। लेकिन, मई,2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(NDA) के सत्तारूढ़ होने के बाद भारत की बलूचिस्तान-नीति में परिवर्तन दिखता है। सन् 2014 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने के ठीक पहले अजीत डोभाल ने रक्षात्मक के बजाय आक्रामक पाकिस्तान-नीति का संकेत दिया और कहा कि अगर पाकिस्तान ने कश्मीर उग्रवादियों को शह देना नहीं बंद किया, तो बलूचिस्तान खोने के लिए तैयार रहे। डोभाल ने कहा था कि भारत के “रक्षात्मक-आक्रमण” के बचाव में पाकिस्तान को परमाणु हथियार से कोई मदद नहीं मिलेगी। दूसरे शब्दों में कहें, तो उन्होंने “पाकिस्तान की कमजोरियों पर काम करने” की तरफ इशारा किया। उस समय से ही इस विचार को हवा मिलने लगी कि भारत कश्मीर में पाकिस्तान के छद्म युद्ध का जैसे को तैसा की तर्ज पर जवाब देने के लिए बूलचिस्चान के नस्ली-राष्ट्रवादी अलगाववाद को बढ़ावा दे सकता है। इसे अंततः पुष्ट किया अगस्त,2016 में प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन ने।
अगस्त,2016 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लालकिले की प्राचीर से दिए अपने संबोधन में बलूचिस्तान में मानवाधिकार-उल्लंघन पर चिंता प्रदर्शित की। इस जिक्र को बलुचिस्तान की आजादी की लड़ाई को अप्रत्यक्ष भारतीय समर्थन के तौर पर देखा जा रहा है जो भारत की क्षेत्रीय नीति में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है। बलूच नेता ब्राह्मदघ बगूती के साथ-साथ अमेरिकी स्थित गिलगित-बल्तिस्तान नेशनल काँग्रेस ने बलूचिस्तान में मानवाधिकार-हनन का मामला उठाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री का आभार व्यक्त किया।
पाकिस्तान की प्रतिक्रिया:
पाकिस्तान के विदेश मंत्री सरताज अज़ीज़ ने कहा है कि बलूचिस्तान पाकिस्तान का अभिन्न अंग हैं। उनके अनुसार पाकिस्तान एक लम्बे समय से भारत पर यह आरोप लगा रहा है कि वह पाकिस्तान के आतंरिक मामले में दखल दे रहा है और बलूची उग्रवादियों को उसका समर्थन मिल रहा है। उनके अनुसार भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान ने पाकिस्तान की बात को सही साबित कर दिया है कि भारत अपने खुफिया संगठन रॉ के ज़रिये वहाँ आतंकवाद पैदा कर रहा है।
चीनी प्रतिक्रिया:
बलूचिस्तान के मसले पर भारत के इस बदले हुए रूख से चीन चिंतित है। उसका यह कहना है किभारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा बलूचिस्तान का ज़िक्र चिंता का विषय है। साथ ही, वह इसे 46 अरब डॉलर लागत वाले चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर में बाधा के रूप में देख रहा है।उसने भारत के द्वारा अशांत बलूचिस्तान प्रांत में सरकार-विरोधी तत्वों का इस्तेमाल इस परियोजना को अवरुद्ध करने के लिए किये जाने की आशंका प्रदर्शित की और ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के साथ मिलकर कार्यवाही की चेतावनी दी। ध्यातव्य है कि यह परियोजना बलूचिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह को चीन के सबसे बड़े प्रांत शिनजियांग से जोड़ती है और यह परियोजना पाकिस्तानी निययंत्रण वाले कश्मीर के हिस्से गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरती है जिसे भारत अपना अभिन्न अंग मानता है और इसीलिए इस परियोजना को लेकर उसे आपत्ति है। साथ ही, चीन भारत के अमेरिका से बढ़ते सैन्य-संबंध और दक्षिण चीन-सागर पर इसके रुख में बदलाव को खतरे की घंटी के रूप में देख रहा है।
भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध पर असर:
दरअसल भारत की पाकिस्तान-नीति अबतक समस्या का तार्किक समाधान प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ रही है जिसने भारतीय नेतृत्व को फ्रस्ट्रेट किया है और हालिय बदलाव इसी फ्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति है। ऐसी स्थिति में, जब एक तरीका काम नहीं कर रहा है, दूसरे तरीके को अपनाना स्वाभाविक ही है; पर प्रश्न यह उठता है कि इस दूसरे तरीके को अपनाने के लिए लागत-लाभ विश्लेषण अपेक्षित है। प्रकारांतर से यह भारत की ओर से पाकिस्तान को चेतावनी है कि अगर उसने समय रहते कश्मीर मामले में दखल देना और सीमा-पार आतंकवाद को समर्थन देना बंद नहीं किया, तो भारत भी पकिस्तान की राह पर चलकर पाकिस्तान के लिए परेशानियाँ उत्पन्न कर सकता है।दरअसल आज भारत की पाकिस्तान-नीति पाकिस्तान से सम्बंधित मामलों के विशेषज्ञों के हाथ में न होकर उन लोगों के हाथ में है जिनकी पहचान हार्डलाइनर के रूप में रही है। इसलिए भी कि भाजपा का सम्बन्ध जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ता है और वह जिस दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, पाकिस्तान के प्रति आक्रामक नीति उसके राष्ट्रवादी एजेंडे में फिट बैठती है। यह देश के भीतर राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारने में सहायक है जो आनेवाले चुनावों में उसकी राजनीतिक सम्भावना को बल प्रदान करेगा।
लेकिन, ऐसा लगता है कि बलूचिस्तान नीति की समीक्षा के क्रम में भारत से यहीं पर चूक हुई। वह यह नहीं समझ पाया कि उसकी बदली हुई रणनीति उसे कहीं नहीं ले जाने वाली है। इससे मसला नहीं सुलझने वाला है। इसके उलट इससे भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध की जटिलता और बढ़ेगी तथा द्विपक्षीय सम्बन्ध और ख़राब होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे को उकसाने के बजाय अपने अंदरूनी मसलों पर ध्यान दें।
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत की बढ़ती मुश्किलें:
पाकिस्तान लंबे समय से कहता रहा है कि बलूचिस्तान की अशांति के पीछे भारत का हाथ है, मगर भारत इससे इंकार करता रहा है। लेकिन, भारत के इस बदले हुए रूख ने कुछ समय के लिएपाकिस्तान को भले चौंकाया हो, पर खुद भारत के लिए परेशानी में डालने वाला है क्योंकि:
1. इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय बिरादिरी में कश्मीर के मसले पर भारत का नैतिक पक्ष कमजोर हुआ है और पाकिस्तान की स्थिति मज़बूत हुई है।
2. इससे पकिस्तान के इस दुष्प्रचार को बल मिलेगा कि भारत उसके आतंरिक मामलों में दखल दे रहा है और बलूचिस्तान में उपद्रव के पीछे उसका हाथ है।
3. अब पाकिस्तान खुलकर जम्मू एवं कश्मीर में आतंकियों को समर्थन देगा और भारत-पाक के बीच संवाद की संभावना घटेगी।
4. भारत इसके अंतरराष्ट्रीय परिणामों के मद्देनजर भी संयम बरतता रहा है। बलूची राष्ट्रवाद से ईरान को भी खतरा है, इसीलिए वह नहीं चाहेगा कि भारत इस मामले में उलझे; और अगर ऐसा होता है, तो इसका असर भारत-ईरान सम्बन्ध पर भी पर सकता है। इतना ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर आतंकवाद के खिलाफ भारत ने जो अभियान चला रखा है, वह अभियान भी कमजोर पड़ेगा।
5. अगर भारत बलूच अलगाववादियों को मदद देता है तो पाकिस्तान कश्मीरी जिहादियों को दी जा रही अपनी मदद बढ़ा देगा। हो सकता है कि भारत बलूचिस्तान में अराजकता पैदा कर दे लेकिन इससे कश्मीर में दर्द ही बढ़ेगा, शांति नहीं आएगी।
6. दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में इससे दोनों देशों के बीच दुश्मनी बढ़ेगी और इसका प्रतिकूल असर भारत एवं पाकिस्तान की आर्थिक प्रगति पर पड़ेगा। एक बड़ी आर्थिक शक्ति होने के नाते भारत को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी जिससे निश्चय ही वह बचना चाहेगा।
विश्लेषण:
अब समस्या यह है कि न तो पाकिस्तान की सरकार और न ही वहाँ की सिविल सोसाइटी बलोच लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन पर कुछ भी बोलने के लिए तैयार है। पाकिस्तान को भी इस बात को समझना होगा कि आज के दौर में निरंतर मानवाधिकार-उल्लंघन से सम्बंधित मसले को आतंरिक मामलों तक सीमित नहीं रह गए हैं, चाहे बात कश्मीर की हो या फिर बलूचिस्तान की। इसी प्रकार भारत को इस बात को समझना होगा कि बलूचिस्तान 1971 ई. का पूर्वी पाकिस्तान नहीं है। आज भारत और पाकिस्तान, दोनों परमाणु-शक्ति संपन्न देश हैं। इसीलिए न तो भारत पाकिस्तान से पाक-अधिकृत कश्मीर हासिल कर पाने की स्थिति में है और न ही बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलगा पाने की स्थिति में।इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देंगे। इस सन्दर्भ में दोनों ही देशों पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बना रहेगा। इतना ही नहीं, बलूचिस्तान की सामरिक अवस्थिति भी इसकी इजाजत नहीं देती है। 1970 के दशक के पश्चिमी पाकिस्तान(अब पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) भारत के दो छोर पर थे। साथ ही, पूर्वी पाकिस्तान तीन ओर से भारत से घिरा था जिसके कारण पाकिस्तान की तुलना में भारत की सामरिक अवस्थिति और रणनीतिक स्थिति काफी मज़बूत थी। इसके विपरीत बलूचिस्तान भारत से काफी दूर है। इसलिए भारत अधिक-से-अधिक बलूच विद्रोहियों को नैतिक समर्थन दे सकता है और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उनसे सम्बंधित मसलों को उठा सकता है, लेकिन इससे अधिक कुछ कर पाना भारत के लिए संभव नहीं होगा। इसिलिए ऐसा कहा जाता है कि भारत बलूचिस्तान में गड़बड़ पैदा कर सकता है, लेकिन उसे अलग नहीं करा सकता।
इतना ही नहीं, भारत को अबतक के अनुभवों से सीख भी लेनी चाहिए। इससे पहले भारतबांग्लादेश और श्रीलंका के मामले में सैन्य-हस्तक्षेप कर चुका है और उसकी परिणति भी देख चुका है। यहाँ तक कि मधेशियों के सन्दर्भ में नेपाल और नशीद के सन्दर्भ में मालदीव के सन्दर्भ में भारत ने जो रूख अपनाया, उसकी परिणति आज इसके सामने है, लेकिन ऐसा लगता है कि शायद यह सबक लेने के लिए तैयार नहीं है।
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