Saturday 14 April 2018

हाँ, अब हम पुरुष नहीं रहे, लिंग में तब्दील हो चुके हैं हम भी!



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     हाँ, अब हम पुरुष नहीं रहे,
  लिंग में तब्दील हो चुके हैं हम भी!
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निर्भया! कौन कहता है कि
तुम मार दी गयी?
निर्भया, कौन कहता है कि
तुम्हारे साथ बलात्कार हुआ?
दरअसल तुम नियति हो
उस स्त्री की,
बार-बार बलत्कृत होना ही
जिसकी नियति है!
दरअसल तुम नियति हो
उस स्त्री की,
जो कभी दिल्ली में हमारी पुरुषवादी पाशविक मानसिकता का शिकार होती है,
तो कभी कठुआ में’
जो कभी उन्नाव में स्त्री होने की पीड़ा को भुगत रही है,
तो कभी सासाराम में या सूरत में!
सरकारें किसी की हो,
काँग्रेस गठबंधन की या फिर भाजपा की;
स्त्री-सशक्तीकरण को चुनावी टकसाल में ढ़ालने वाले
नीतीश की हो, या फिर
योगी की, या भोगी की!
सत्ता के शीर्ष पर मौनमोहन सिंह हों, या फिर
उनके मौन का मजाक उड़ाने वाले
हर-हर मोदी, घर-घर मोदी!
बस फर्क यह आया है कि
पहले तुम्हारे साथ होने वाले अपराध के लिए
जिम्मेवार लोगों को सजा दिलाने के लिए
सड़कों पर निकला करते थे हम
तिरंगे के साथ,
पर अब उन अपराधियों को सजा से बचाने के लिए
निकला करते हैं हम
तिरंगे के साथ!
अब तुमसे हमारी सहानुभूति नहीं,
तुम्हारा हिन्दू या मुसलमान होना यह निर्धारित करता है कि
तुम्हें न्याय मिलेगा अथवा नहीं,
तुम्हें सहानुभूति मिलेगी या नहीं?
मैनें तो समझा था
कि स्त्री हो तुम,
स्त्री होने की अस्मिता है तुम्हारी; पर
शायद मैं गलत था,
या फिर गलत ही बताया गया मुझे,
या फिर यह कहूँ कि
समय ने गलत साबित कर दिया मुझे?
स्वामी चिन्मयानन्द के खिलाफ बलात्कार के मामले की वापसी,
सेंगर को संरक्षण,
सरकार के प्रतिनिधि लाल सिंह और चन्द्र प्रकाश गंगा की ढीठता,
भक्तों की उत्तेजना,
अन्ध-विरोधियों का उत्साह,
यह सब बतलाता है:
“स्त्री हो तुम, और
स्त्री होने की पीड़ा को को झेलने को अभिशप्त भी!
नहीं! नहीं! स्त्री नहीं,
योनि हो तुम,
लिंग के प्रति निरीह समर्पण हो तुम्हारा, अन्यथा
इसी तरह चिन्न-भिन्न होती रहोगी तुम, और
इसी तरह छिन्न-भिन्न होती रहेगी तुम्हारी योनि!”
और यह भी,
कि नपुंसकता घर कर गयी है हमारे भीतर,
कि हम तब्दील हो चुके हैं दो पैर वाले जानवर के रूप में!
नहीं, नहीं, जानवर भी हम से बेहतर हैं,
हमने तो पशुता की हद भी पार कर दी,
हम मर चुके हैं,
जिन्दा लाश में तब्दील हो चुके हैं,
क्योंकि
संवेदनाएँ हमारी मर चुकी हैं,
अहसास हमारे कुंद हो चुके हैं!
हाँ, अब हम पुरुष नहीं रहे,
लिंग में तब्दील हो चुके हैं हम भी!
आओ, तुम भी थूको हम पर,
और, आनेवाला इतिहास भी थूकेगा हम पर!
हाँ! निर्भया! तुम मरकर भी अमर हो, और
हम जिन्दा रहते हुए भी मर चुके हैं!
शायद इसीलिए अहसास है मुझे:
“मर रहा हूँ मैं!”
टूटते सपने,
उखड़ती साँसें,
सूनी आँखें,
बोझिल कदम,
सब संकेत दे रहे हैं कि
मर रहा हूँ मैं,
नहीं, नहीं
मर रहा है एक लिंग,
इस संतुष्टि के साथ,
कि न तो मैं गुनाहगार हूँ,
और न ही गुनाहगारों के सतह खड़ा हूँ:
पर बेचैनी भी है
गहरे कहीं अन्दर,
कि युग की जिम्मेवारियों से मैं कैसे मुकर सकता हूँ,
कैसे मुकर सकता हूँ मैं युग की जिम्मेवारियों से ...........







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