आधार बनाम् निजता विवाद
प्रमुख आयाम
1.
आधार अधिनियम और निजता
2.
विवाद क्या है?
3.
चुनौती का आधार
4.
नौ सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन
5.
केंद्र सरकार का रूख
6.
संवैधानिक पीठ का निर्णय
7.
फैसले का असर
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भारत
सरकार के द्वारा ऐसे समय में सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से लेकर पैनकार्ड और
बैंक अकाउंट को अनिवार्यतः आधार से जोड़ने की दिशा में पहल की जा रही है, जब अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,
ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस और चीन में आधार जैसी
परियोजना को यह कहते हुए रोक दिया गया कि यह योजना व्यक्ति की निजता का और
नागरिकों के मानवाधिकार का उल्लंघन करती हैI वस्तुतः
सरकार के द्वारा चलाये जा रही कल्याणकारी योजनाओं और सब्सिडी-कार्यक्रमों को
आधार से सम्बद्ध कर सरकार वांछित और लक्षित लाभार्थियों की पहचान कर
सब्सिडी के दुरूपयोग पर रोक लगाना चाहती है, ताकि सब्सिडी के दबाव को कम किया जा सके। आयकर रिटर्न के लिए आधार की अनिवार्यता और ऐसा न
होने की स्थिति में पैन को रद्द करने के प्रावधान के जरिये सरकार व्यक्ति के बैंक खातों
तक अपनी पहुँच आसान बनाना चाहती है, ताकि आर्थिक लेन-देन की
पारदर्शिता और इसकी निगरानी को सुनिश्चित कर सरकार अघोषित आय का पता लगाया जा सके
और कर-चोरी रोकी जा सके। साथ ही, सभी
वर्तमान बैंक खाताधारकों को पहले दिसम्बर,2018 तक और अब मार्च,2018 तक आधार नंबर जमा कराने को कहा गया है। जिस-जिस वित्तीय काम में पहले केवल पैन नंबर
देना पर्याप्त था, वहाँ-वहाँ
अब आधार नंबर भी जरूरी बना दिया गया है। इसके पीछे सरकार का अपना तर्क है, वह यह कि पैन कार्ड नकली भी बन जाते हैं, जबकि आधार कार्ड में संबंधित
व्यक्ति का बायोमीट्रिक ब्योरा आ जाने के कारण उसके लिए दूसरा आधार कार्ड बनवाना
संभव नहीं होता। लेकिन, ऐसी अनिवार्यता तब तो और भी चिंताजनक
हो जाती है, जब देश की आबादी का एक हिस्सा अब भी आधार कार्ड
से वंचित हो।
आधार अधिनियम और निजता:
ऐसा नहीं कि आधार अधिनियम निजता को लेकर संवेदनशील नहीं है।
इसमें निजता की रक्षा के लिए की प्रावधान किये गए हैं जिन्हें निम्न परिप्रेक्ष्य
में देखा जा सकता है:
1. आधार-प्रमाणीकरण हेतु सहमति अपेक्षित: आधार-प्रमाणीकरण को इच्छुक
किसी संस्था या व्यक्ति के द्वारा सम्बद्ध व्यक्ति की सहमति प्राप्त करनी होगी और
इससे सम्बंधित दस्तावेज UIDA प्राधिकरण के समक्ष प्रस्तुत
करना होगा।
2. भिन्न उद्देश्यों से इस्तेमाल नहीं: आधार-प्रमाणीकरण को इच्छुक
व्यक्ति या एजेंसी के द्वारा प्राप्त आधार-सूचनाओं का इस्तेमाल उन्हीं उद्देश्यों
से करना होगा जिसके सन्दर्भ में सहमति प्राप्त की गयी है।
3. बायोमेट्रिक जानकारियों को शेयर करने की अनुमति
नहीं: किसी भी स्थिति में
किसी भी व्यक्ति के फिंगरप्रिंट, आँख की पुतलियों के स्कैन और अन्य बायोमेट्रिक जानकारियों को शेयर करने की अनुमति
नहीं होगी। किसी भी व्यक्ति के बायोमेट्रिक इनफार्मेशन का इस्तेमाल केवल आधार
पंजीकरण और प्रमाणीकरण के लिए किया जाएगा, अन्य किसी भी
उद्देश्य से इसका इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। इस अधिनियम की धारा 29(4) के अनुसार, इन सूचनाओं को न तो किसी के साथ
शेयर किया जाएगा और न ही अधिनियम में उल्लिखित उद्देश्यों से भिन्न उद्देश्यों से
इसका सार्वजानिक प्रदर्शन किया जाएगा।
4. दस्तावेजों को सुरक्षित रखा जाना: इस सन्दर्भ में UIDA के द्वारा आधार-प्रमाणीकरण से सम्बंधित किसी एजेंसी के आग्रह, आग्रह के समय और इस आग्रह पर UIDA के रेस्पोंस का
रिकॉर्ड सुरक्षित रखा जाएगा, लेकिन सुरक्षित दस्तावेज में
आधार-प्रमाणीकरण के उद्देश्यों का लेखा-जोखा सुरक्षित नहीं रखा जाएगा।
5. केवल राष्ट्रीय सुरक्षा और न्यायालय के आदेश के अनुपालन के लिए सम्बंधित सूचनाओं का प्रकाशन: इन सूचनाओं का केवल दो उद्देश्यों से प्रकाशन
संभव है: राष्ट्रीय सुरक्षा और न्यायालय के आदेश के पालन के लिए। इस अधिनियम की धारा 33 राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव के स्तर के अधिकारी के निर्देश पर आधार नंबर, बायोमेट्रिक सूचनायें, डेमोग्राफिक सूचनायें और
फोटोग्राफ से सम्बंधित सूचनाओं के प्रकाशन की अनुमति देती है; लेकिन ऐसे किसी भी निर्देश की समीक्षा कैबिनेट सचिव, कानूनी मामलों के सचिव और इलेक्ट्रॉनिक्स एवं इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी
मामलों से सम्बंधित सचिव से निर्मित ओवरसाइट समिति के द्वारा किया जाएगा और ऐसा
कोई भी निर्देश छह महीनों के लिए प्रभावी होगा। इसी प्रकार कोर्ट के आदेश पर केवल आधार नंबर, डेमोग्राफिक सूचनायें और फोटोग्राफ से सम्बंधित सूचनायें
सार्वजानिक की जा सकती हैं; न कि बायोमेट्रिक सूचनायें।
6. अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति में
सजा का प्रावधान: अगर
कोई भी अधिकारी केंद्रीकृत डाटाबेस तक अनधिकृत रूप से पहुँचाने की कोशिश करता है,
या फिर इसमें संग्रहित सूचनाओं को लीक करता है, तो उसे न्यूनतम 10 लाख रुपये आर्थिक जुर्माने और तीन साल तक कैद की सजा दी जा सकती है इसी प्रकार अगर आधार-प्रमाणीकरण को इच्छुक कम्पनियाँ या व्यक्ति
नियमों का अनुपालन नहीं करते हैं, तो व्यक्ति की स्थिति में 10 हज़ार रुपये
आर्थिक जुर्माने, कम्पनी की स्थिति में एक लाख रुपये
जुर्माने, या एक साल तक कैद, या फिर
दोनों की सज़ा सुनाई जा सकती है।
7. शिकायत UIDA या फिर उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति के द्वारा
ही: कोई
भी न्यायालय UIDA या फिर इसके द्वारा अधिकृत
व्यक्ति से भीं व्यक्ति के द्वारा की गयी शिकायत को ही संज्ञान में लेगा। प्रभावित व्यक्ति को शिकायत दर्ज करवाने की अनुमति नहीं होगी।
विवाद क्या है?
यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर अर्थात् आधार कार्ड
योजना की वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। इन
याचिकाओं में सर्वप्रमुख दलील है आधार से निजता के अधिकार के हनन की।
याचिकाकर्ताओं ने आधार के लिए बायोमेट्रिक जानकारी लेने को निजता का हनन बताया, जबकि सरकार की दलील थी कि
निजता का अधिकार अपने आप में मौलिक अधिकार नहीं है। अगर इसे मौलिक अधिकार मान लिया
जाए, तो व्यवस्था-संचालन में व्यावहारिक समस्यायें खड़ी हो
जायेंगी।
इस सन्दर्भ में समस्या यह थी कि आरम्भ में एम. पी. शर्मा वाद,1954 में 8 सदस्यीय संवैधानिक पीठ
और खड़क
सिंह वाद,1962 में 6 जजों की पीठ ने अपने फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं माना था। केंद्र सरकार भी इसी आधार
पर निजता के अधिकार को मूलाधिकार माने क्जाने का विरोध कर रही थी। आगे चलकर 1970 के दशक में सुप्रीम
कोर्ट की दो
सदस्यीय बेंच और पाँच सदस्यीय बेंच ने अपने कई फैसलों में निजता के अधिकार को मूलभूत अधिकार बताया था, लेकिन यह अपेक्षाकृत छोटी बेंच थी। ऐसे में
सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि पहले इस बात का निर्णय हो कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या
नहीं। इसके बाद आधार योजना की वैधता पर सुनवाई होगी।
चुनौती का आधार:
इसी
पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार के इस निर्देश को सुप्रीम कोर्ट में निजता के अधिकार
के उल्लंघन के आधार पर चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने कहा कि निजता का अधिकार अनु. 21 के द्वारा प्रदत्त जीवन
के अधिकार, जो सर्वाधिक
महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है, के अंतर्गत समाहित है। याचिका में कहा गया कि आधार योजना से नागरिकों
के मौलिक अधिकारों का हनन होता है क्योंकि आधार बनवाने में आँखों की
पुतलियों के स्कैन और फिंगर-प्रिंट के आधार पर बहुत ही संवेदनशील और निजी जानकारियाँ जुटाई जाती हैं जिसके कारण इनके जरिए लोगों की निगरानी की जा सकती है। इस
मामले के मुख्य याचिकाकर्ताओं में कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के.
एस. पुट्टास्वामी, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग
की पहली अध्यक्ष औप मैग्सेसे अवार्ड विजेता शांता सिन्हा और नारीवादी शोधकर्ता
कल्याणी सेन मेनन शामिल हैं। ध्यातव्य है कि आधार एक विशिष्ट पहचान संख्या होती है
जो मूलतर: वह 16 अंकों की होती है, जिसमें चार अंक छुपे हुए
होते हैं और इसीलिए इसे 12 अंकों वाली विशिष्ट पहचान संख्या के रूप में जाना जाता
हैI
याचिकाकर्ताओं
ने आधार को निजता के अधिकार के प्रतिकूल मानते हुए इसे अनिवार्य बनाये जाने का
विरोध किया और अपने पक्ष में तर्क देते हुए कहा:
1. सरकार किसी भी स्कीम के लिए लोगों को अपनी बायोमीट्रिक जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है।
2. तकनीकी प्रगति को देखते हुए आज के दौर में
प्राइवेसी के अधिकार और इसकी रुपरेखा पर नए सिरे से गौर करने की जरुरत है।
उनकी
दृष्टि में आधार के सन्दर्भ में उठते सवाल का सम्बन्ध मात्र आधार से संलग्न आँकड़ों
की सुरक्षा तक सीमित नहीं हैं, वरन् यह नागरिक-स्वतंत्रता और व्यक्ति की निजता तक विस्तृत विषय है। इसे
निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. सरकार की मंशा को लेकर संदेह: यद्यपि अदालत ने यह स्पष्ट
किया कि उसके फैसले से आयकर कानून में हुए संशोधन और इसकी धारा 139AA की संवैधानिक वैधता पर कोई आँच नहीं आयेगी, तथापि
फिलहाल इस पर आंशिक रोक जारी रहेगी और सरकार के द्वारा कुछ खास सेवाओं के अलावा नागरिकों के लिए आधार
कार्ड अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए। सितम्बर,2013 सुप्रीम
कोर्ट ने किसी भी व्यक्ति को आधार कार्ड नहीं धारण करने के कारण किसी भी सेवा से
वंचित नहीं किया जाएगा। अगस्त,2015
में सुप्रीम कोर्ट ने खाद्यान्न-सब्सिडी, किरोसीन-सब्सिडी और
एलपीजी सब्सिडी के लिए आधार के इस्तेमाल की अनुमति देते हुए एक बार फिर से यह स्पष्ट किया कि नागरिकों के लिए किसी भी सेवा का
लाभार्थी होने के लिए आधार कार्ड प्रस्तुत करना अनिवार्य नहीं होगा और केंद्र सरकार को यह निर्देश दिया कि इस सन्दर्भ में इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया और प्रिंट मीडिया के माध्यम से सभी लोगों तक सूचनायें पहुँचाई जायें। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कहा
कि नागरिकों
के लिए आधार कार्ड प्राप्त करना अनिवार्य नहीं होगा। अक्टूबर,2015 में मनरेगा, सामाजिक सुरक्षा (पेंशन) योजना,
जनधन और प्रोविडेंट फण्ड हेतु आधार के इस्तेमाल की अनुमति देते हुए
एक बार फिर से यह स्पष्ट किया कि आधार कार्ड स्कीम स्वैच्छिक है और इसे किसी भी
स्थिति में तबतक अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है जबतक इस मसले का कोर्ट के द्वारा
अंतिम रूप से निपटारा नहीं कर दिया जाता है। इसके
बावजूद सरकार के द्वारा इन
निर्देशों की अनदेखी, यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहीं-न-कहीं इसके प्रति नरम रूख अपनाया, करते हुए आधार के दायरा का निरंतर विस्तार उसकी मंशा को लेकर संदेह को जन्म देता है। आधार अधिनियम की धारा 7 निश्चित सब्सिडियों, लाभों और सेवाओं के लिए
आधार-पहचान को अनिवार्य बनाती है, यद्यपि इस
अधिनियम में यह स्पष्ट किया गया है कि आधार का इस्तेमाल नागरिकता के प्रूफ के रूप
में नहीं किया जाएगा।
2. पारदर्शिता को लेकर सरकार का दोहरा रवैया: विडंबना यह है कि एक ओर सरकार
पारदर्शिता का हवाला देकर आधार की अनिवार्यता के दायरे का विस्तार कर रही है,
दूसरी ओर सरकार राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी चंदे के सन्दर्भ
में पारदर्शिता के प्रावधान का निरंतर विरोध कर रही है।
3. व्यक्ति की निजता खतरे में: आधार से व्यक्ति की निजता के
अधिकार का मामला भी जुड़ा है। आधार कार्ड बनाते समय रिकार्ड की गयी तमाम
गोपनीय जानकारियों के दुरूपयोग के मामले सामने आये हैं और खुद सरकार भी ऐसे दुरूपयोग की आशंका से इनकार करने
की स्थिति में नहीं है। लोगों की निजी जानकारियाँ लाभ के
उद्देश्य से किसी कंपनी अथवा व्यक्ति के साथ साझा की जा सकती हैं, या
फिर बेची जा सकती हैं और जब तक लोगों को इस बात की समझ आएगी, तब तक उनके
सभी आँकड़े कंपनियों के पास जा चुके होंगे।
4. निजता के उल्लंघन के विरुद्ध कार्रवाई हेतु पहल
के लिए प्रभावित व्यक्ति अधिकृत नहीं: अगर किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन होता है,
तो वह स्वयं कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है। आधार अधिनियम की धारा 47 के तहत् यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया(UIDA) ही ऐसी चोरी का आपराधिक मामला
दर्ज करवा सकती है।
5. आधार-प्रमाणीकरण के उद्देश्यों का लेखा-जोखा
सुरक्षित दस्तावेज का
हिस्सा नहीं: सवाल यह उठता है कि अगर सुरक्षित दस्तावेजों में आधार-प्रमाणीकरण के
उद्देश्यों का लेखा-जोखा नहीं रखा जाएगा, तो फिर इस बात का निर्धारण कैसे होगा कि किस
उद्देश्य से दस्तावेज-प्रमाणीकरण हेतु प्रस्तुत किया गया और उसका इस्तेमाल उसी
उद्देश्य से हुआ, या फिर भिन्न उद्देश्य से।
नौ सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन:
शुरू
में जुलाई,2017 में
उपरोक्त याचिका पर सुनवाई करते हुए तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कहा था कि आधार
से जुडे सारे मुद्दों पर वृहद पीठ को ही निर्णय करना चाहिए और इन्हीं सुझावों के
आलोक में मुख्य न्यायाधीश के द्वारा इस मामले की सुनवाई के लिये पाँच सदस्यीय
संविधान पीठ का गठन किया गया जिसने इस मसले को विचार के लिए नौ सदस्यीय
संविधान-पीठ को सौंपने का निर्णय लिया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सन् 1954 और 1962 के फैसलों के आलोक में आधार और
इससे निजता को खतरे के प्रश्न पर विचार के लिए मुख्य न्यायाधीश जे. एस. खेहर की
अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन किया गया।
संविधान पीठ के समक्ष विचारणीय सवाल था कि क्या निजता के अधिकार को संविधान के तहत्
एक मौलिक अधिकार घोषित किया जा सकता है।
केंद्र सरकार का रूख:
इस नसले पर केंद्र सरकार का रुख याचिकाकर्ताओं से भिन्न रहा। आधार मामले में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने जस्टिस
ए. के. सिकरी और अशोक भूषण की बेंच के सामने कहा था कि “नागरिकों को उनके शरीर पर संपूर्ण अधिकार नहीं है, प्राइवेसी का तर्क बोगस हैI” उसी प्रकार सुप्रीम
कोर्ट में अटार्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने दलील दी थी कि निजता का अधिकार मौलिक
अधिकारों के दायरे में नहीं आ सकता क्योंकि वृहद पीठ के फैसले हैं कि यह सिर्फ न्यायिक व्यवस्थाओं
के माध्यम से विकसित एक सामान्य कानूनी अधिकार है। उनका
मानना था कि चूँकि निजता का अधिकार अमीरों की कल्पना है जो बहुसंख्यक जनता की आकांक्षाओं और ज़रूरतों से
काफी अलग है, इसीलिए
राज्य कल्याणकारी
योजनाओं के तहत् मिलने वाले हक के लिए निजता का अधिकार छोड़ा जा सकता है। केंद्र सरकार ने निजता के अधिकार के उल्लंघन के
आलोक में आधार के विरोध में दिए जा रहे तर्कों को खारिज करते हुए कहा:
1. इस मामले में केंद्र सरकार ने 1954 में 8 जजों की पीठ के फैसले और 1962 में 6 जजों की पीठ के फैसले का संदर्भ देते हुए कहा है कि निजता का अधिकार मूलभूत अधिकार नहीं है। इसी बहस में यह भी आया कि चूँकि ‘निजता’ को अबतक पूरी तरह से परिभाषित नहीं किया गया
है, इसीलिए यह एक अनिश्चित और
अविकसित अधिकार है और इसे मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता हैI केंद्र का यह भी कहना था कि निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्ज़ा देना कभी
संविधान-निर्माताओं का उद्देश्य नहीं रहा।
2. केंद्र सरकार ने निजता
के अधिकार को अनु. 21 के विरोध में रखकर देखते हुए कहा कि निजता का हर पहलू मौलिक अधिकार का
दर्जा नहीं पा सकता। निजता का अधिकार जीवन के अधिकार के सामने कोई
महत्व नहीं रखता
है। अगर इस
मामले में कोई भी टकराव होता है, तो जीवन का अधिकार ही ऊपर
रहेगा। केंद्र का कहना था कि आधार कार्ड, गरीबों के जीवन के अधिकार जैसे भोजन के अधिकार
और आश्रय के अधिकार से जुड़ा हुआ है। अगर
इससे कुछ लोगों का प्राइवेसी का अधिकार प्रभावित हो रहा है, तो
दूसरी तरफ यह बड़ी संख्या में लोगों के जीवन के अधिकार को सुनिश्चित भी कर रहा है।
3. आधार स्कीम की रेगुलेटरी अथॉरिटी UIDA ने भी कहा है कि:
a. निजता का अधिकार मूल अधिकार नहीं है, और
b. नागरिकों से एकत्रित उनके निजी डेटा की सुरक्षा के
पर्याप्त उपाय मौजूद हैं।
4. इस मसले पर सरकार
ने सुप्रीम कोर्ट से यह अपेक्षा की कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं, इस मसले को विचार के लिए बड़े
संवैधानिक बेंच को सौंपा जाय।
इस मसले पर केंद्र
सरकार की दुविधा का
अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर वह आधार मामले में निजता के अधिकार को
मूल अधिकार मानने से इन्कार कर रही थी, दूसरी ओर
व्हाट्स एप्प मामले में निजता के अधिकार को अनु. 21 से अभिन्न बतला रही थी।
संवैधानिक पीठ का निर्णय:
आधार वाद,2017 के नाम से जाने जानेवाले इस मामले में मुख्य
न्यायाधीश जे. एस. खेहर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संवैधानिक
पीठ ने सन् 1954 और 1962 के फैसलों के आलोक में आधार और
इससे निजता को खतरे के प्रश्न पर विचार करते हुए आम
सहमति से दिए गए अपने फैसले में कहा कि “निजता
का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत् जीवन
एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ पूरे भाग तीन का स्वाभाविक अंग है।”; यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने
यह स्वीकार किया कि “निजता का अधिकार इतना संपूर्ण नहीं हो सकता कि ये सरकार को इस
पर कानून बनाने से रोके।” इस क्रम में उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि निजता का नकारात्मक पहलू सरकार को लोगों के जीवन और उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में घुसपैठ
करने से रोकता है, जबकि सकारात्मक पहलू राज्य पर यह जवाबदेही डालता है कि वह अपने
नागरिकों की निजता के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास करे। अदालत
ने यह भी स्पष्ट किया कि वह न तो संविधान में संशोधन कर रही है और न ही विधायिका की भूमिका को हड़प रही है। वह केवल निजी अधिकारों की सुरक्षा कर रही है।
इस
तरह इस फैसले के जरिये एक ओर गरिमामय जीवन के अधिकार के अंतर्गत निजता का
अधिकार समाहित हुआ
जिसने इसे न्यायालय में वाद-योग्य बनाया, दूसरी ओर
न्यायपालिका और विधायिका के बीच संतुलन को भी बनाये रखने की कोशिश की गयी। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट इसके क्रियान्वयन से जुड़ी हुई व्यावहारिक
समस्याओं से भी वाकिफ थी। उसने अपनी टिप्पणियों के जरिये इस और इशारा भी किया कि “मौजूदा प्रौद्योगिकी के दौर में निजता के
संरक्षण की अवधारणा 'एक
हारी हुई लड़ाई' है।” सर्वोच्च न्यायालय ने निजता की विस्तृत व्याख्या
से तो परहेज़ किया, लेकिन जीवन-शैली को निजता का मूल
तत्व बतलाते
हुए कहा कि इसके मूल में निजी अंतरंगता, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, यौन-सम्बन्ध, लैंगिक रुझान और प्रजनन शामिल हैं।
फैसले का असर:
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निजता के अधिकार को अनु.
21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखे जाने का तत्काल असर यह पड़ेगा कि अब
इससे सम्बंधित मामले को अनु. 32 के अंतर्गत संवैधानिक संरक्षण प्राप्त होगा। इसलिए अब निजता के अधिकार
के उल्लंघन की स्थिति में अनुच्छेद 32 के अंतर्गत
मौलिक अधिकारों के हनन होने पर व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट अथवा अनुच्छेद 226 के अंतर्गत हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। इसका सबसे बड़ा असर यह होगा
कि भविष्य में सरकार के किसी भी नियम कानून को इस आधार पर कोर्ट में चुनौती दी जा
सकेगी कि वह निजता के अधिकार का हनन कर रहा है।
यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए, कि अन्य मौलिक अधिकारों की तरह
निजता का अधिकार भी पूर्ण एवं निरपेक्ष नहीं है, इस बात का
स्पष्ट संकेत दे दिया कि प्रत्येक मूल अधिकारों के तरह यह भी आत्यंतिक नहीं होगा
और इस पर भी युक्तियुक्त प्रतिबंध आरोपित किये जा सकेंगे। लेकिन, इस फैसले के जरिये न्यायपालिका ने दो बातें स्पष्ट कर दीं:
a. विधायिका युक्तियुक्त, ऋजु और न्यायसंगत विधि के
द्वारा निजता के अधिकार पर प्रतिबंध आरोपित करने के लिए स्वतंत्र होगी।
b. न्यायालय के पास इस बात की जाँच करने का पूर्ण
अधिकार होगा कि विधायिका द्वारा निर्मित विधि युक्तियुक्त, ऋजुपूर्ण तथा न्यायसंगत है,
अथवा नहीं। अगर निजता पर अधिकार पर रोक हेतु निर्मित विधि यदि
नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विरूद्ध हो, तो भी
न्यायपालिका उस विधि को शून्य घोषित कर सकती है।
लेकिन, इस निर्णय का आधार को अनिवार्य बनाने की परियोजना
पर कोई असर पडेगा, यह कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि इस सन्दर्भ में मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास लंबित है और
जल्दबाजी में कोई भी निष्कर्ष निकालने के बजाय आधार मामले में सुप्रीम कोर्ट के
निर्णय की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। लेकिन, इस फैसले का इतना तो असर होगा ही
कि बायोमेट्रिक सूचनाओं की सुरक्षा अब सरकार की जवाबदेही बन जायेगी।
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