लोकतान्त्रिक
राजनीति और वंशवाद
प्रमुख आयाम
1.
लोकतान्त्रिक
राजनीति और वंशवाद
2.
वंशवादी
राजनीति से आशय
3.
भारतीय
राजनीति में वंशवाद
4.
राजनीति
और राजनीतिक दलों में परिवारों का वर्चस्व
5.
मौजूदा लोकसभा में वंशवाद की स्थिति
6.
भारत
में वंशवादी राजनीति पर कंचन चंद्रा का अध्ययन
7.
वंशवादी
राजनीति की जड़ों के गहराने के कारण
8. वंशवादी राजनीति के परिणाम
9. वंशवादी राजनीति का दूसरा पहलू
10. निष्कर्ष
|
भारतीय राजनीति में वंशवाद की जड़ें काफी
गहरी हैं। और भारतीय राजनीति की ही बात क्यों की जाय और भारतीय राजनीति तक ही
क्यों रहा जाय, वंशवाद तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति में अपनी गहरी जड़ें
जमा चुका है। भारत में नेहरू-गाँधी परिवार, नेपाल में कोइराला परिवार, बांग्लादेश
में शेख मुजीब परिवार एवं शेख जियाउर्रहमान परिवार, श्रीलंका में भंडारनायके
परिवार एवं जयवर्द्धने परिवार और पाकिस्तान में भुट्टो परिवार एवं नवाज़ शरीफ
परिवार के राजनीतिक दबदबे को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। एशिया से बाहर दुनिया
के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में भी कैनेडी-परिवार, बुश-परिवार, और क्लिंटन-परिवार
का बढ़ता राजनीतिक दबदबा वंशवादी राजनीति की संभावनाओं को बल प्रदान कर रहा है। हाल ही में टाइम
पत्रिका ने अमेरिका की ‘वंशवादी राजनीति की ओर इशारा करते हुए लिखा कि अमेरिकी
मतदाताओं के द्वारा भी ऐसे लोगों को अपने प्रतिनिधि के रूप में चुना जाता रहा है,
जो किसी-न-किसी स्थापित परिवार से आते हैं और ऐसे प्रतिनिधियों की
संख्या दस प्रतिशत के आसपास रही है। इंग्लैंड में राजनीतिक वंशवाद इसलिए नहीं उपजा,
क्योंकि लोगों ने अब तक मजबूती से संवैधानिक राजतन्त्र के जरिये
राजशाही को सँभाल रखा है। स्पष्ट है कि वंशवादी राजनीति भारत या एशिया तक ही सीमित
नहीं है, वरन् यह तो तकरीबन पूरी दुनिया में फैली हुई है।
वंशवादी राजनीति से आशय:
लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक व्यवस्था के
अंतर्गत वंशवादी राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, परिवारवाद एवं वंशवाद
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सच है। जब राजनीति में वंशवाद की चर्चा होती है, तो
इससे आशय होता है किसी व्यक्ति का सिर्फ इसलिए राजनीति में आना, कि उसके परिवार के
लोग राजनीति में हैं। लेकिन, भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति के सन्दर्भ में समस्या
सिर्फ इतनी नहीं है। यहाँ कई राजनीतिक दल ऐसे हैं जहाँ शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर
भी वंशवाद है और शीर्ष स्तर पर दलीय नेतृत्व का हस्तांतरण भी एक ही परिवार की एक पीढ़ी
से दूसरी पीढ़ी के हाथों होता है।
भारतीय राजनीति में वंशवाद:
भारतीय राजनीति में वंशवाद आज़ादी के पूर्व से ही देखने को मिलने लगता
है, पर इसका वीभत्स रूप आजादी के बाद प्रकट होता है। इसकी शुरुआत काँग्रेस से हुई और मोतीलाल नेहरु से लेकर जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गाँधी तक ने
राजनीति में भागीदारी के लिए अपनी आनेवाली पीढ़ी को सजग रूप से प्रमोट करने की
कोशिश की। इसका परिणाम यह हुआ कि वंशवाद काँग्रेस के मूल चरित्र का हिस्सा बन गया
और 1990 के दशक तक आते-आते काँग्रेस नेहरु-गाँधी परिवार के संरक्षण के बिना अपने
अस्तित्व की परिकल्पना तक कर पाने में असमर्थ हो गयी। वर्तमान में नेहरु-गाँधी
परिवार की पाँचवीं पीढ़ी राजनीति में सक्रिय है। आजादी के बाद करीब 38 वर्षों तक
सत्ता की बागडोर प्रत्यक्ष रूप से इस परिवार के हाथों में रही हैं और लगभग डेढ़
दशकों तक इसने परदे के पीछे रहकर सत्ता की बागडोर थामी है। इन सत्तर वर्षों के
दौरान काँग्रेस पर इस परिवार की पकड़ मज़बूत होती चली गयी और आज इस परिवार के बिना
इस पार्टी की कल्पना नहीं की जा सकती है। आज नेहरु-गाँधी परिवार काँग्रेस को एकजुट
रखने के लिए उसी प्रकार अपरिहार्य है, जिस प्रकार भाजपा को एकजुट रखने के लिए संघ
परिवार।
भले ही वंशवाद की
शुरुआत काँग्रेस से हुई हो और काँग्रेस वंशवाद का पर्याय प्रतीत हो, पर वंशवाद केवल काँग्रेस तक सीमित नहीं है।
काँग्रेस और भाजपा, दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियाँ परिवारवाद से बुरी तरह प्रभावित
हैं, बस फर्क यह है कि:
1. काँग्रेस में शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर वंशवाद की समस्या है, भाजपा
में नहीं।
2. काँग्रेस की तुलना में भाजपा में वंशवाद का असर कम है।
लेकिन, इसका महत्वपूर्ण कारण यह नहीं है कि भाजपा वंशवादी राजनीति के विरोध में
है, वरन् यह कि काँग्रेस की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं और यह 132 साल पुरानी पार्टी
है, जबकि भाजपा के गठन हुए अभी पचास साल भी नहीं हुए हैं है।
3. दोनों दलों की प्रकृति में अंतर भी इसका एक
महत्वपूर्ण कारण है। वर्तमान में नेहरु-गाँधी परिवार काँग्रेस को एकजुट रखे हुए है
और काँग्रेसियों में डर है कि अगर यह न रहे, तो काँग्रेस की एकजुटता मुश्किल होगी
और यह बिखर जायेगी। इसके विपरीत भाजपा में यह भूमिका संघ-परिवार अर्थात् राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ निभाती है।
इसका अपवाद कुछ
हद तक वामपंथियों को माना जा सकता है। उनके अलावा कोई भी दल इससे अछूता
नहीं है। यहाँ तक कि क्षेत्रीय एवं स्थानीय दलों
भी इसकी गिरफ्त में हैं। अधिकतर स्थानीय एवं क्षेत्रीय दलों ने और विशेष रूप से 1990
के दशक में सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों ने इसे
अपनाते हुए उत्कर्ष पर पहुँचा दिया। सत्ता में आकर इन्होंने तो सारी हदें
पार कर दीं। कुछ समय पहले तक तृणमूल काँग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को इससे अछूता
माना जाता था; पर अब ममता बनर्जी जहाँ अपने भतीजे को प्रमोट करने में लगी हैं, तो
मायावती अपने भाई को। यहाँ तक कि जिस लोहिया ने
राजनीति में वंशवाद के खिलाफ जीवन भर संघर्ष किया, उनके नाम पर राजनीति करने वाले
समाजवादी भी वंशवाद के इस रोग से अछूते नहीं रहे। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता
है। इन
सबने वंशवाद को राजनीतिक भ्रष्टाचार और जातिवाद के
पर्याय में तब्दील कर दिया। लेकिन, इसका मतलब यह न निकला जाय कि जिन
राजनीतिक दलों ने वंशवाद को प्रोत्साहन नहीं दिया है, वे दूध के धुले हैं। वंशवाद
को लेकर उनके मानदंड भी दोहरे हैं। उन्हें काँग्रेस और क्षेत्रीय दलों का वंशवाद
तो नज़र आता, पर अपना वंशवाद नहीं।
राजनीति और राजनीतिक दलों में
परिवारों का वर्चस्व:
भारतीय राजनीति में वंशवाद केवल नेहरु-गाँधी परिवार तक सीमित नहीं है।
उत्तरप्रदेश में मुलायम-परिवार एवं कल्याण सिंह परिवार, उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड में
बहुगुणा-परिवार, बिहार में लालू-परिवार एवं रामविलास पासवान परिवार, झारखण्ड में
सोरेन परिवार, मध्यप्रदेश-राजस्थान में सिंधिया-परिवार, हरियाणा में चौटाला-परिवार
एवं हुड्डा-परिवार, पंजाब में बादल-परिवार, कश्मीर में अब्दुल्ला-परिवार एवं सईद-परिवार,
ओड़ीसा में पटनायक-परिवार, आँध्रप्रदेश में रामाराव-परिवार, महाराष्ट्र में
ठाकरे-परिवार एवं शरद पवार परिवार, कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार, तमिलनाडु में
करूणानिधि-परिवार एवं मारन-परिवार आदि इसके उदाहरण हैं।
यहाँ तक कि कई राजनीतिक दल पारिवारिक
संपत्ति की तरह संचालित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए काँग्रेस(नेहरु-गाँधी
परिवार), नेशनल कांफ्रेंस(अब्दुल्ला-परिवार), पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(मुफ़्ती-परिवार),
अकाली दल (बादल-परिवार), समाजवादी पार्टी(मुलायम-परिवार), भारतीय राष्ट्रीय लोकदल
(चौटाला-परिवार), राष्ट्रीय जनता दल(लालू-परिवार), लोक जनशक्ति पार्टी
(पासवान-परिवार), बीजू जनता दल(पटनायक-परिवार), तेलगु देशम(नायडू-परिवार), जनता
दल-सेक्युलर (देवगौड़ा परिवार), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम(करूणानिधि-परिवार),
शिवसेना(ठाकरे-परिवार), नेशनलिस्ट काँग्रेस पार्टी(शरद पवार परिवार) आदि को लिया
जा सकता है। इन तमाम राजनीतिक दलों का संचालन प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियों की तरह
हो रहा है। यहाँ तक कि वंशवादी राजनीति का विरोध करने वाली भाजपा भी वंशवाद के इस
रोग से मुक्त नहीं है। वहाँ भी राजस्थान में सिंधिया परिवार, हिमाचल प्रदेश में
धूमल परिवार, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह परिवार एवं राजनाथ सिंह परिवार, और
झारखण्ड में सिन्हा परिवार की दूसरी या तीसरी पीढ़ी राजनीति में सक्रिय हो चुकी है।
इसके अलावा उसने भी नेहरु-गाँधी परिवार, शास्त्री-परिवार, बहुगुणा-परिवार को
प्रोत्साहित किया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो वामपंथी दलों को अपवादस्वरूप छोड़
दिया जाय, तो भारत के अधिकांश राजनीतिक दल इसकी चपेट में आ चुके हैं। शायद यही
कारण है कि पश्चिम बंगाल में वंशवाद नहीं पनपा क्योंकि वहाँ 35 वर्षों
तक वामपंथियों की हुकूमत थी।
मौजूदा लोकसभा में
वंशवाद की स्थिति:
वंशवाद की जड़ें भारतीय राजनीति में कितनी गहरी हो
चुकी हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी ने पाँचों सांसद मुलायम
सिंह परिवार से चुने गये और लोजपा के छह में से तीन सांसद राम विलास पासवान के
परिवार से। एक आँकड़ें के मुताबिक संसद में इस
समय 36 राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि मौजूद हैं, जिनमें से 13
राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि राजनीतिक परिवारों की है। सोलहवीं लोकसभा में काँग्रेस के निर्वाचित 44
प्रतिनिधियों में 48% सांसद और काँग्रेस के
वंशवाद के विरोध में खड़ी भाजपा के 15% सांसद राजनीतिक
परिवारों की पृष्ठभूमि से आये हैं।
भारत
में वंशवादी राजनीति पर कंचन चंद्रा का अध्ययन:
तमाम सर्वे और
अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि पिछली संसद के मुक़ाबले नई संसद में ऐसे सांसदों
की संख्या में कमी आई है जिनका ताल्लुक राजनीतिक घरानों से है। भारत में वंशवादी
राजनीति पर किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि वर्तमान संसद में ऐसे सांसदों की
संख्या में दो प्रतिशत और सरकार में ऐसे मंत्रियों की संख्या में 12 प्रतिशत की कमी आई है। न्यूयॉर्क
यूनिवर्सिटी की कंचन चंद्रा का अध्ययन भारत को जापान, आइसलैंड और आयरलैंड जैसे देशों की पाँत में
ले जाकर खड़ा कर देता है जहाँ वंशवाद कई दूसरे
लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा है
और 2009 में यह निर्वाचित सांसदों के एक-तिहाई से
लेकर एक-चौथाई हिस्से तक है। इसकी तुलना
में यूके, बेल्जियम, इजरायल, अमेरिका, नॉर्वे और कनाडा में राजनीतिक परिवारों की
पृष्ठभूमि वाले निर्वाचित सांसदों की तादाद (1-11)% के बीच है। कंचन चन्द्रा की रिपोर्ट इस ओर इशारा
करती है कि:
1. सन् 2014
में सोलहवीं लोकसभा के दौरान राजनीतिक परिवारों की
पृष्ठभूमि से आनेवाले निर्वाचित सांसदों का प्रतिशत 2009
के 29% से गिरकर 21% रह
गई है, हालाँकि अंग्रेजी अख़बार 'द हिंदू' के मुताबिक वर्तमान संसद में ऐसे सांसदों की संख्या 130 है जो करीब-करीब
24% है।
2. वर्तमान सरकार में 24 प्रतिशत
मंत्री राजनीतिक घरानों से ताल्लुक़ रखते हैं, जबकि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में यह संख्या 36 प्रतिशत
है।
3. संसद में कम-से-कम एक सीट रखने वाले 36
राजनीतिक दलों में से 13 राजनीतिक दलों अर्थात्
लगभग 36% राजनीतिक दलों के
नेता राजनीतिक घरानों से ताल्लुक़ रखते हैं। इसके अलावा 10 अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं के ऐसे
पारिवारिक सदस्य हैं, जिन्होंने उनके बाद राजनीति में प्रवेश किया है। इससे संसद में परिवार-आधारित राजनीतिक दलों की तादाद 23 अर्थात् 64% के स्तर पर पहुँच जाती है।
4. वंशवाद
की पकड़ सिर्फ लोकसभा तक सीमित नहीं है, वरन् विधानसभाओं
पर भी उनकी वैसी ही मज़बूत पकड़ है।
5. कंचन
चंद्रा इस बात की ओर ध्यान दिलाती हैं कि उन
पार्टियों में भी, जहाँ ऊँचे पदों पर
वंशवादी राजनेता कम हैं, उनके परिवार के सदस्यों के राजनीति
में आने की प्रवृत्ति कहीं ज्यादा है। यहाँ तक कि
वंशवादी राजनीति का विरोध करने वाले भी अपने प्रभाव वाले इलाकों में अपने
सगे-संबंधियों को राजनीति में प्रमोट करने से परहेज नहीं करते हैं।
वंशवादी राजनीति को पीछे
धकेलने में सोशल मीडिया और पिछले आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी, जो काँग्रेस की तुलना में वंशवाद की और अपेक्षाकृत
कम रुझान प्रदर्शित करती है, की भारी जीत की
भूमिका भी रही है। इसीलिए कई लोग यह उम्मीद कर रहे हैं कि सोशल मीडिया के
प्रसार और भारतीय युवाओं के शेष दुनिया के साथ बढ़ाते हुए जुड़ाव के साथ भारतीय जनता
की सामंती मानसिकता में बदलाव आयेगा और यह वंशवादी राजनीति के पतन के मार्ग को
प्रशस्त करेगा।
लेकिन, यह गिरावट कंचन चन्द्र को आश्वस्त नहीं कर पाती क्योंकि भाजपा भले ही काँग्रेस की
तुलना में कम वंशवादी हो, पर अधिकांश दलों के साथ उसका भी नजरिया वंशवादी
राजनीतिज्ञों के लिए अनुकूल हैं। उनकी इस आशंका की पुष्टि सेंटर फ़ॉर
स्टडी ऑफ़ डेवेलपिंग सोसायटीज़ (CSDS) के द्वारा वर्ष 2011 में युवा मतदाताओं पर करवाये गये सर्वे से भी होती है जिसके अनुसार सामान्यतया
वंशवादी राजनीति की मुख़ालफत के बावजूद (18-30) वर्ष की उम्र वाले युवा मतदाताओं को राजनीतिक घराने से युवा उम्मीदवार की
स्थिति में उनके लिए मतदान और उनके समर्थन से परहेज़ नहीं होता। इसी प्रकार सन्
2014 का एक अध्ययन बतलाता है कि 46 प्रतिशत भारतीयों को
वंशवादी राजनीति से कोई परहेज नहीं है।
वंशवादी राजनीति की जड़ों के
गहराने के कारण:
वंशवादी राजनीति को एक ओर भारतीय
उपमहाद्वीप में विद्यमान सामंती सामाजिक संरचना और
यहाँ के लोगों की सामंती मानसिकता से
जोड़कर देखा जा सकता है, दूसरी ओर इस उपमहाद्वीप में वोटरों
की अशिक्षित पृष्ठभूमि से। इसकी पृष्ठभूमि में मुद्दे कहीं पीछे छुट जाते हैं और व्यक्ति एवं व्यक्तित्व का आकर्षण मतदाताओं पर
कहीं भारी पड़ता है। इतना ही नहीं, भारतीय राजनीतिक दलों की संरचना और इसके
प्रकार्यण पर गौर करें, तो इनमें राजनीतिक दलों की सांगठनिक
संरचना से लेकर प्रकार्यण एवं निर्णयन तक के स्तर पर आतंरिक लोकतंत्र का अभाव, व्यक्ति एवं
व्यक्तित्व-केन्द्रित राजनीति और पार्टी-नेतृत्व की पकड़ को मज़बूत करने वाले एवं
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को बाधित करने वाले दल-बदल
क़ानून कहीं-न-कहीं वंशवादी राजनीति की संभावनाओं को बल प्रदान करते हैं।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि एक ऐसे देश में जहाँ की
चुनाव-प्रक्रिया अत्यंत खर्चीली हो चुकी है और राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या
अत्यंत गहन है, राजनीतिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि
व्यापक सहज स्वीकार्यता के जरिये न केवल राजनीति में आनेवाली पीढ़ी के
प्रवेश को आसान बना देती है, वरन् संसाधनों की
उपलब्धता से लेकर राजनीतिक दलों की उम्मीदवारी तक सुनिश्चित करती हुए
सफलता की संभावना को काफी बढ़ा देती है। ऐसी स्थिति में कोई भी राजनीतिक दल अपने
वरिष्ठ नेताओं को नाराज कर अपनी राजनीतिक संभावनाओं को प्रतिकूलतः प्रभावित नहीं
होने देना चाहता है। इसके उलट उसकी रुचि उनकी राजनीतिक
पूँजी को भुनाने में रहती है। अगर ऐसा नहीं होता, तो वंशवाद के विरोध
में खड़ी भाजपा में महज इसकी स्थापना के 45 साल के भीतर राजनीतिज्ञों की तीसरी और
चौथी पीढी दस्तक नहीं दे रही होती।
राजनीतिशास्त्री पैट्रिक फ्रेंच के अध्ययन
के अनुसार भारत में पंद्रहवीं लोकसभा के दौरान तकरीबन 28% सांसद वंशानुगत पृष्ठभूमि
से आते थे। राजनीतिक विश्लेषक मार्क टुली ने इसे
एक विशिष्ट प्रकार की मानसिकता से सम्बद्ध कर देखा है जो इंग्लॅण्ड से आयातित
सामंती परंपरा की देन है। उनका कहना है कि आज राजनीतिक परिवारों से
सम्बद्ध युवाओं की ओर आम लोग उसी तरह आकृष्ट होते हैं और उनसे उसी तरह उम्मीदें
जोड़ लेते हैं जिस तरह राजशाही के दौर में राजकुमारों और राजकुमारियों से। यह
स्वाभाविक है क्योंकि भारत की जनता को अपनी हर
समस्या के हल के लिए मुक्तिदाता की तलाश होती है और वह खुद को इसकी छत्रछाया में
सुरक्षित महसूस करती है। यही कारण है कि इसने महानायकत्व को
महिमा-मंडित किया है। यही कारण है कि राजनीतिक वंशों और उनके करीबी नातेदारों से
लोगों का भावनात्मक लगाव हो जाता है। इस रूप में सामंती मानसिकता वंशवाद को ऊर्जा देती है। इसी
दिशा में संकेत फिलीपींस के मनीला स्थित एशियन
इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट पालिसी सेंटर के द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में मिलता है जो
कहता है कि एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों
के कारण राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा मिलता है।
प्रोफ़ेसर
चंद्रा का कहना है कि वंशवादी राजनीति का संबंध
राजसत्ता से होने वाले फ़ायदे से भी है क्योंकि यह राजनीतिक विरासत में
उस नेटवर्क को उपलब्ध कराती है जो पार्टी संगठन के लिए स्थानापन्न होता है और जो चुनाव जिताने में मददगार होता है। राजनीति
में प्रवेश हेतु अर्हता के अभाव और राजनीति
के एक पेशे में तब्दील होते चले जाने की ओर इशारा करती हुई प्रोफेसर चंद्रा
कहती हैं, “अच्छी योग्यता रखने वाले कुछ लोगों को छोड़ दें,
तो राजनीतिक परिवारों से आने वाले 20 या 30
साल की उम्र के लोगों के राजनीति में प्रवेश के बाद बेहतर ओहदा,
ताकत और कमाई होने की क्षमता कहीं ज्यादा होती है, बनिस्पत इसके कि वो बिजनेस, बैंकिंग, प्रशासनिक सेवा या किसी और पेशे में जाते।” स्पष्ट
है कि राजनीति में वंशवाद को इसलिए भी प्रोत्साहन मिला कि राजनीति पेशे में तब्दील हो गयी, एक ऐसे पेशे
में, जिसमें लाभ की तुलना में जोखिम की संभावना अपेक्षाकृत कम है, जो तमाम लाभकारी
सुविधाओं को उपलब्ध करवा पाने में सक्षम है, जिसमें भविष्य का आश्वासन है और जिसमे
पद है, पैसा है, रूतबा है।
साथ ही, लोकतंत्र
में वंशवाद का तब तक कोई स्थान नहीं हो सकता जब तक कि इसे चलाने वाली आम जनता की निगाहों
में उस वंश की साख शंका से परे न हो। इस साख का सीधा संबंध उसके पुरखों
के राष्ट्र के प्रति समर्पण या कुर्बानियों से रहा है। नवजात लोकतंत्र से लेकर
प्राचीन स्थापित लोकतंत्र में भी वंशवादी राजनीति की जड़ें इन्हीं मूल कारकों से
जुड़ी हुई हैं।
वंशवादी राजनीति के परिणाम:
यदि परिवारवादी एवं
वंशवादी राजनीति के दुष्परिणामों पर गौर करें, तो यह राजनीति में योग्यता एवं
प्रतिभा को हाशिये पर पहुँचा देता है और ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति को महज
इसीलिए राजनीतिक नेतृत्व का अवसर प्राप्त होता है कि वह एक ऐसे विशिष्ट राजनीतिक
परिवार से आता है जिसका किसी क्षेत्र-विशेष एवं दल-विशेष की राजनीति में दबदबा है।
फलतः योग्य एवं प्रतिभावान लोगों का राजनीति में
प्रवेश मुश्किल होता है। इसके कारण मुद्दों
की अहमियत कम हो जाती है और इसके सापेक्ष व्यक्ति
एवं व्यक्तित्व की अहमियत बढ़ जाती है। साथ ही, राजनीति में जाति, धर्म,
क्षेत्र और भाषा जैसे कारकों की भूमिका बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त यह कहीं-न-कहीं राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या को भी गहन बनाता
है। इसीलिए इसके बारे में यह कहा जाता है कि यह लोकतंत्र
को भी कमजोर करता है।
अमरीकी शोधकर्ता पॉल आर.
ब्रास साठ के दशक में उत्तर प्रदेश सरकार में
भ्रष्टाचार पर गहन शोध करते हुए इस नतीजे पर पहुँचे कि मंत्रियों ने जिलों में
अपने गुटों को ताकत देने के लिए ऊपर से नीचे की ओर सरकारी भ्रष्टाचार को फैलाया। नेहरू के
निजी सचिव ने लिखा है कि नेहरू ने भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई
की मज़बूत एवं प्रभावी व्यवस्था इसलिए नहीं की कि उनकी यह सोच थी कि इससे शासन का
मनोबल टूटेगा।
वंशवादी राजनीति का
दूसरा पहलू:
भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद
के प्रश्न पर विचार करने के क्रम में निम्न पहलुओं को भी ध्यान में रखे जाने की
ज़रुरत है:
11.
भारत में लगभग
हर क्षेत्र में भाई-भतीजावाद,
परिवारवाद और वंशवाद की समस्या विद्यमान है। यह एक ऐसा
सच है जिससे हम नज़रें नहीं चुरा सकते हैं।
12.
क्या किसी को सिर्फ
इसीलिए राजनीति में आने से परहेज करना चाहिए कि वह राजनीतिक परिवार की पृष्ठभूमि
से आता है, या फिर उसे अपने बच्चों को राजनीति में आने से सिर्फ इसलिए रोकना चाहिए
कि वह स्वयं राजनीति में है? क्या यह सच नहीं कि हर माता-पिता को
अपने बच्चे के कैरियर की चिंता होती है और वह अपने बच्चे के लिए सुरक्षित कैरियर
को सुनिश्चित करने की कोशिश करता है? हाँ, यह अवश्य है कि इसके लिए अनुचित तरीके
का इस्तेमाल न हो।
13.
राजनीतिक-पारिवारिक
पृष्ठभूमि का होने आरंभिक बढ़त तो प्रदान कर सकता है, लेकिन यह राजनीति में सफलता
की गारंटी नहीं है। इस पर
अंतिम रूप से जनता मुहर लगाती है और लोकतंत्र में जनता के विवेक पर भरोसा किया
जाना चाहिए। जनता इतनी शिक्षित, सक्षम एवं जागरूक हो कि वह अपने हित-अहित को पहचान
सके और उसके अनुरूप सही निर्णय ले सके। इसीलिए पारिवारिक पृष्ठभूमि अनुकूल परिस्थितियाँ
तो प्रदान कर सकती है, लेकिन सफलता नहीं सुनिश्चित कर सकती। सफलता तो अंततः क़ाबिलियत पर ही निर्भर करती है। उदाहरण
के रूप में तेलगु देशम, शिवसेना और अन्नाद्रमुक को लिया जा सकता है। यदि तेलगु देशम आन्ध्र में और अन्नाद्रमुक
तमिलनाडु में सत्ता में है तो इसलिए कि उसे चंद्रबाबू नायडू एवं जयललिता का सक्षम
नेतृत्व मिला औरर अगर महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की चमक फीकी पड़ती
दिखाई पड़ रही है, तो इसीलिए कि उसे बाल ठाकरे जैसा सक्षम नेतृत्व नहीं मिल पा रहा
है। यदि वंशवाद ही अंतिम सत्य होता, तो सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के रहते हुए सोलहवीं
लोकसभा में काँग्रेस 44 सीटों पर नहीं सिमट गयी होती।
निष्कर्ष:
उपरोक्त विश्लेषणों से यह स्पष्ट है कि
वंशवाद की जड़ें भारत के ज़्यादातर राजनीतिक दलों के अंदर कहीं गहरे तक जड़ें जमाई
हुई हैं। और, भारतीय राजनीति में परिवारवाद एवं
वंशवाद तबतक फलता-फूलता रहेगा, जब तक कि इसका विरोध भीतर से न हो। साथ ही, इसके लिए
भारतीय जनता सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से जागरूक
होना होगा, ताकि वह राजनीतिक दलों एवं उसके नेतृत्व के खेल को समझने की
स्थिति में हो और इसके शिकंजे से मुक्त होने के लिए खुलकर इसके विरोध में सामने आये।
इसका एक तरीका राजनीतिक दलों के भीतर आतंरिक
लोकतंत्र को सुनिश्चित करना है, लेकिन यह तबतक संभव नहीं है जबतक चुनाव आयोग इसके लिए राजनीतिक दलों को बाध्य न करे और
उसे इसके लिए शक्ति-संपन्न न बनाया जाय। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान
में रखने की ज़रुरत है कि वंशवाद के सहारे काँग्रेस के वंशवाद से मुकाबला नहीं किया
जा सकता है और काँग्रेसी-विरोधी गैर-काँग्रेसी दल ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं।
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