समान नागरिक संहिता
प्रमुख आयाम
1. समान नागरिक संहिता
से आशय
2. औपनिवेशिक शासन के
दौरान प्रचलित वैयक्तिक विधि
3. संविधान सभा की बहस
और समान नागरिक संहिता
4. भारतीय संविधान और
समान नागरिक संहिता
5. आज़ाद भारत में
वैयक्तिक विधि के मानकीकरण की दिशा में पहल
6. पक्ष में तर्क
7. विपक्ष में तर्क
8. समान नागरिक
संहिता: मूल समस्या
9. समान नागरिक संहिता
का प्रश्न बहुत व्यावहारिक नहीं
10.
समान नागरिक संहिता का दायरा
11.
सुप्रीम कोर्ट और समान नागरिक संहिता:
a. शाहबानो केस,1985
से अबतक
b. सरला
मुद्गल वाद,1995
12.
समान नागरिक संहिता का भविष्य
13.
समान नागरिक संहिता का रोडमैप
|
समान नागरिक संहिता से आशय:
विधि
संहिताएँ दो तरह की होती हैं: नागरिक संहिता (Civil Code) और अपराध संहिता (Criminal Code) । नागरिक
संहिता से आशय है विवाह, तलाक़,गुज़ारा भत्ता, दत्तक-ग्रहण और उत्तराधिकार
से संबंधित विधि से। इस आलोक में समान नागरिक संहिता से आशय है
देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान वैयक्तिक विधि से, ताकि
विवाह, तलाक़, गुज़ारा-भत्ता, उत्तराधिकार
एवं दत्तक-ग्रहण के संदर्भ में देश के सभी नागरिक एक समान वैयक्तिक विधि से शासित
हों। इससे भिन्न अपराध संहिता का संबंध आपराधिक गतिविधियों से जुड़ता है।
ऐसा माना जाता है कि अपराध राज्य के विरूद्ध होते हैं, इसीलिए इसमें राज्य एक
पक्षकार होता है। इस संदर्भ में देखा जाय, तो भारत
में अपराध संहिता का मानकीकरण हो चुका है, लेकिन वैयक्तिक विधियाँ अब भी धर्मवार प्रचलित हैं। वर्तमान
में गोवा देश का एकमात्र राज्य है जहाँ पुर्तगाली विरासत के
कारण गोवा सिविल कोड के रूप में समान नागरिक संहिता विद्यमान है।
औपनिवेशिक शासन के दौरान प्रचलित वैयक्तिक विधि:
औपनिवेशिक
शासन के दौरान भारतीय सामाजिक परिदृश्य की विविधता और जटिलता को समझने की कोशिश की गई
और उसी के अनुरूप औपनिवेशिक विधि संहिता और उसके व्यवहार के डिजाईन को
निर्धारित करने का प्रयास किया गया। आरम्भ में 1772 में
वारेन हेस्टिंग्ज़ के द्वारा विवाह, उत्तराधिकार
और अन्य धार्मिक मामलों में मुसलमानों के संदर्भ
में क़ुरान और हिन्दुओं के संदर्भ में विभिन्न धर्मशास्त्रों को ध्यान
में रखने के निर्देश दिए गए। फिर गवर्नर जनरल कार्नवालिस के समय 1790 में
बंगाल में त्रि-स्तरीय कोर्ट व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश जजों
को सहायता प्रदान करने के लिए क़ाज़ी और मुफ़्ती को भी शामिल किया गया। मुसलमानों
के संदर्भ में इस्लामिक क़ानून के अनुसार फ़ैसला दिया
जाता था और इनकी सलाह कोर्ट के लिए बाध्यकारी होती
थी। आख़िरकार 1817 में
कोर्ट को क़ाज़ी और मुफ़्ती की सलाह की बाध्यकारिता से उसे मुक्त किया गया।
जब भारत
में अंग्रेज़ों ने "विधि के शासन" की संकल्पना को
इंट्रोड्यूस किया और उसके अनुरूप 1860 में भारतीय विधि संहिता
का निर्माण किया, तो मुस्लिम
पर्सनल लॉ को छुआ तक नहीं गया। लेकिन, व्यवहार में पुराने
रीति-रिवाज, जिन्होंने क़ानून जैसी
प्रभाविता हासिल कर ली थी, कई बार
इन पर भारी पड़ते थे। पुराने रीति-रिवाजों के
अनुसार "किसी महिला द्वारा उपहार या उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त सम्पत्ति
उसकी नहीं है। इसीलिए उसे उस सम्पत्ति के अंतिम पुरूष उत्तराधिकारी को सौंप दिया
जाना चाहिए।" चूँकि ऐसे रीति-रिवाज मुस्लिम महिला को उसके
सम्पत्ति-अधिकार से वंचित करते हैं, इसीलिए मुसलमानों का यह मानना था कि उन पर केवल इस्लामी क़ानून ही
लागू हों। इसी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के
मार्ग को प्रशस्त किया।
कहा जाता
है कि 1937 के पहले तक हिन्दू और मुसलमान,
दोनों समान रूप से हिन्दू सिविल संहिता का अनुपालन करते थे, पर उसके बाद अंग्रेज़ों ने फूट डालो और विभाजन
करो की नीति के तहत् मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत)
एप्लीकेशन एक्ट,
1937 के तहत् मुसलमानों पर शरीयत को आरोपित किया,
लेकिन यह वैकल्पिक एवं ऐच्छिक था। यह सच है कि इस
अधिनियम ने पूर्ववर्ती
विधानों के उन सारे प्रावधानों को हटाया जो इस्लामी क़ानून की अनदेखी करते थे, लेकिन यह सभी मुसलमानों पर लागू होने की बजाय केवल उन मुसलमानों पर
लागू होता था जो इस संदर्भ में अपनी इच्छा प्रकट करते
थे। स्पष्ट है कि मुसलमानों के महज़ एक छोटे से हिस्सों के सन्दर्भ में ये बातें
लागू होती थीं। उन्हें भी यह विकल्प था कि वे कूची(Cutchi)
मेमन्स एक्ट,1920 और मोहम्मडन इनहेरिटेंस एक्ट,1897
के रूप में इस्लामी विधि के
विकल्प को अपना सकें। इस रूप में यह इस बात का खंडन
करता है कि यह अधिनियम भारतीयों को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित करता है।
संविधान सभा की बहस और समान नागरिक संहिता:
धर्मनिरपेक्षता
के आदर्शों से प्रेरित राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व ने अलग-अलग
वैयक्तिक विधि के प्रचलन को राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में अवरोध के रूप में पहचानते
हुए समान नागरिक संहिता की आवश्यकता महसूस की। कमलादेवी
चट्टोपाध्याय और सरोजनी नायडू के नेतृत्व में ऑल
इंडिया वीमेंस लीग ने ऐसी संहिता के निर्माण के लिए दबाव बनाया। इसी दबाव का परिणाम था कि
संविधान सभा में इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया गया। संविधान सभा के मुसलमान
नेताओं के साथ-साथ हिन्दू नेताओं के एक तबके ने इसका विरोध किया। लेकिन, राष्ट्रीय एकीकरण और लैंगिक समानता के मद्देनज़र के. टी. शाह के नेतृत्व में कुछ
सदस्यों के एक समूह ने इस संहिता की ज़ोरदार वकालत की।
ऐसा नहीं
कि संविधान-निर्माता मूलाधिकार और हिन्दुओं एवं मुसलमानों की
वैयक्तिक विधि के बीच के टकराव से वाक़िफ़ नहीं थे।
उन्हें पता था कि उन्हें अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित करनी होंगीं। उन्होंने इनमें
मूलाधिकारों को प्राथमिकता दी भी, जिसकी दिशा में संकेत करते
हुए संविधान सभा की बहस में के• एम• मुंशी
ने कहा था कि समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि उन्होंने
पहले ही मूलाधिकारों के पक्ष में वोट कर दिया है। इससे
भी एक क़दम आगे बढ़कर डॉ. अम्बेडकर और मीनू
मसानी के नेतृत्व में मौलिक अधिकार समिति के कई सदस्यों ने इसे
मूलाधिकारों की श्रेणी में रखे जाने के लिए अभियान चलाया।
लेकिन, संविधान सभा ने अंततः
तदयुगीन परिस्थितियों के मद्देनज़र देश की विविधता का सम्मान करते हुए समान
नागरिक संहिता को संविधान के ज़रिए आरोपित करने और इसे न्यायपालिका
का संरक्षण प्रदान करने से परहेज़ किया।
उन्होंने इसके निर्माण की दिशा में एकबारगी पहल करने की बजाय इसे राज्य के
नीति-निदेशक तत्व के अंतर्गत स्थान दिया।
भारतीय संविधान और समान नागरिक संहिता:
भारतीय
संविधान का अनुच्छेद 44 राज्य से
यह अपेक्षा करता है कि वह समस्त भारतीय राज्य-क्षेत्र में रहने वाले
सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता का निर्माण करे जो बिना किसी विभेद के
सभी नागरिकों समान रूप से लागू हो। अनु.
37 में पहले ही यह
स्पष्ट किया जा चुका है कि इस खंड में शामिल
प्रावधान न्यायालय में वाद-योग्य नहीं हैं। आज
यह भारतीय संविधान के सर्वाधिक विवादास्पद मुद्दा बन चुका है और इसके विवादास्पद होने का कारण है इसे धर्म से जोड़ कर देखा जाना
और इसका राजनीतिकरण। लेकिन, संविधान के लागू होने के 66 वर्ष बाद भी समान नागरिक
संहिता का निर्माण संभव नहीं हो सका।
आज़ाद भारत में वैयक्तिक विधि के मानकीकरण की
दिशा में पहल:
आज़ादी
से पहले ही काँग्रेस की राष्ट्रीय सरकार के द्वारा मुस्लिम
पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट,1937 के ज़रिए अभिजातवर्गीय मुसलमानों और पसमांदा
मुसलमानों (कारीगर) के लिए एकीकृत शरीयत क़ानून की दिशा में पहल की गई
जो इन दोनों पर समान रूप से लागू होते थे। अब तक अभिजातवर्गीय मुसलमान शरीयत
क़ानून को फॉलो करते थे, जबकि
पसमांदा मुसलमान अपने रीति-रिवाजों का अनुकरण करते थे जिनमें पर्याप्त भिन्नतायें
मौजूद थीं।
1950 के दशक में जब हिन्दू कोड
बिल को लेकर बहस जारी थी, उस समय तत्कालीन
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने समान नागरिक संहिता को नागरिकों हेतु पूर्ण राष्ट्रीय
पहचान सुनिश्चित करने की दिशा में पहले महत्वपूर्ण क़दम के रूप में देखा। आज़ादी के बाद 1950 के दशक
में राज्य ने जान-बूझकर समान नागरिक संहिता की
बजाय क्रमिक एवं चरणबद्ध तरीक़े से वैयक्तिक विधि को तर्कसंगत बनाने और उसे अपडेट
करने की दिशा में पहल की, ताकि धार्मिक समुदाय विशेष के प्रतिरोध को न्यूनतम स्तर पर रखा जा
सके। अबतक की पहलों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. 1955
में हिन्दू वैयक्तिक विधि के संहिताकरण के ज़रिए
बहुविवाह सहित विवाह, तलाक़, सम्पत्ति और उत्तराधिकार से
संबंधित विभेदकारी प्रावधानों को समाप्त किया गया, जो हिन्दुओं के अलावा
बौद्ध, जैन और सिखों पर भी लागू होते
थे। लेकिन, इनका
पितृसत्तात्मक स्वरूप बना रहा।
2. इसी
प्रकार ईसाई और पारसी धर्म से संबंधित वैयक्तिक विधि को भी अपडेट किया जा
चुका है, यद्यपि
इनके संदर्भ में भी तत्संबंधित धर्म से सम्बंधित वैयक्तिक विधि ही प्रभावी है।
3. 2001 में तलाक़ के संदर्भ में
ईसाई महिलाओं और पुरूषों को एक समान अधिकार प्रदान
किए गए। 2005 में हिन्दु उत्तराधिकार क़ानून में संशोधन करते
हुए सभी बेटियों को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहउत्तराधिकार प्रदान
किया और कृष्य भूमि में भी समान अधिकार प्रदान किया।
लेकिन, इस दौरान कई ऐसी पहलें भी
की गई जिन्हें प्रतिगामी कहा जा
सकता है। उदाहरण के लिए:
1. 1976
में विशेष विवाह अधिनियम (सभी भारतीयों के लिए समान विवाह संहिता)
में प्रतिगामी संशोधन करते हुए यह प्रावधान किया
गया कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत वैवाहिक संबंध में बँधने वाले लोग
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा शासित होते रहेंगे।
2. इसके
विपरीत भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम का विभेदकारी प्रावधान ईसाइयों
को धार्मिक और चैरिटेबल ट्रस्ट को सम्पत्ति वसीयत करने से रोकता है।
पक्ष में तर्क:
वैयक्तिक
विधि का प्रश्न व्यक्ति के मूलभूत संवैधानिक अधिकारों के
साथ-साथ एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष अपेक्षाओं से जाकर
जुड़ता है। संविधान-निर्माताओं की यह अपेक्षा थी कि:
a. वैयक्तिक
विधि नागरिकों को जाति या समुदाय के आधार पर विभाजित नहीं कर सकें और
b. समय के
साथ जाति, धर्म एवं नृजातीयता पर
आधारित पृथक-पृथक पहचान एकल राष्ट्रीय पहचान में समेकित हो सके।
इसी आलोक
में समान नागरिक संहिता के पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं:
1. भारत
जैसे नृजातीय बहुल एवं बहुसामुदायिक समाज में जहाँ धर्मनिरपेक्ष
संविधान विद्यमान है, वहाँ जाति, धर्म और समुदाय के आधार
पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा कोई भी
भेदभाव न केवल राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर प्रश्न लगाता है, वरन् राष्ट्रीय
एकीकरण की प्रक्रिया को अवरूद्ध भी करती है।
2. बढती
शिक्षा, माइग्रेशन
और सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता (mobility)
के साथ वर्ण, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्र से
परे जाकर विवाह एवं विवाह-विच्छेद अब आम होते जा रहे हैं। इसके विपरीत पारंपरिक
वैयक्तिक क़ानून इसी रूढिबद्ध सामाजिक व्यवस्था को संरक्षण प्रदान
करते हैं। ये बहुजातीय एवं बहुसांस्कृतिक समाज की वास्तविकताओं एवं आकांक्षाओं
का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में
अगर समान नागरिक संहिता का निर्माण नहीं होता है, तो यह सामाजिक बिखराव (social breakdown) और कलह
की स्थिति को जन्म देगा।
3. पिछले
ढाई दशकों के दौरान उदारीकरण और वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में समावेशन, सशक्तीकरण
और आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर भारतीय समाज की ज़रूरतें भी बदली हैं और
इससे लोगों की अपेक्षाएँ भी। साथ ही, इस पर वैश्विक आकांक्षाओं का दबाव भी बढ़ता चला जा रहा है जिस दबाव
की अनदेखी मुश्किल है। आने वाले समय में भारतीय नागरिकों की ग्लोबल पहचान विकसित
हो, इसके लिए
आवश्यक है कि पहले इनकी राष्ट्रीय पहचान विकसित हो जो धर्म, संप्रदाय, जाति
और नृजाति पर आधारित पहचान की प्रमुखता की स्थिति में मुश्किल है।
4. इसकी
पृष्ठभूमि में एक ओर वर्ण, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र और लिंग के
पारम्परिक अवरोध ध्वस्त हो रहे हैं, दूसरी ओर लम्बे समय से शोषित, उत्पीड़ित
एवं वंचित समूह अपने बुनियादी मानवाधिकारों को लेकर कहीं अधिक सजग और संवेदनशील हो रहा
है तथा नागरिक के रूप में समान अधिकारों के प्रश्न पर अब वह समझौता करने
के लिए तैयार नहीं है। इस पृष्ठभूमि में भारतीय समाज पहले की तुलना
में कहीं अधिक अधिकार सजग समाज के रूप में उभरा है और इसकी यह अधिकार-सजगता इसे
विभेद के विरूद्ध खड़ा होने के लिए उत्प्रेरित कर रही है। इसीलिए वह पारंपरिक अवरोधों
को चुनौती देता हुआ पुराने और निरंतर अप्रासंगिक होते चले जा रही सामाजिक व्यवस्था
को चुनौती दे रहा है।
5. आज हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई
और अन्य धर्म से जुड़े कई वैयक्तिक क़ानूनों को समकालीन सामाजिक जीवन की
वास्तविकता और संवैधानिक सिद्धांतों एवं मूल्यों के अनुरूप ढाले जाने की आवश्यकता है।
इन्हें उन जनजातीय रीति-रिवाजों और धार्मिक व्यवहारों के संदर्भ में भी समान रूप
से लागू किया जाए जिन्हें संविधान का संरक्षण प्राप्त है।
6. यह सच है
कि जन्म-दर नियंत्रण, गर्भपात और दत्तक-ग्रहण
नियमन भावनात्मक मुद्दे हैं जिन्हें सावधानी पूर्वक सुलझाया जाना चाहिए, लेकिन यह सुनिश्चित किया
जाय कि ये जाति एवं समुदाय के अंधआस्था पर आधारित न हों और ग़ैर-विभेदकारी हों।
7. 1955-56 में
हिन्दू वैयक्तिक विधि को संहिताबद्ध करने की कोशिश तो की गई, पर इस दिशा में अभी लम्बी
दूरी तय करने की ज़रूरत है। आज आवश्यकता इस बात की है कि अप्रासंगिक
हो चुकी हिन्दू अविभाजित परिवार की संकल्पना, जो कर-वंचितों के लिए
स्वर्ग हैं, को
समाप्त किया जाय।
8. इस्लाम
स्त्री और पुरूष के बीच विभेद नहीं करता है। क़ुरान दोनों के
साथ एक समान व्यवहार करता है, फिर भी उलेमाओं
की पुरूष प्रभुत्ववादी सोच ने वैयक्तिक विधि के संबंध में मुस्लिम महिलाओं के साथ
न्याय नहीं होने दिया और उन्हें उन संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा जो
अन्य धर्म की उनकी महिला समकक्षियों को सहज ही उपलब्ध है।
विरोध में तर्क:
समान
नागरिक संहिता के विरोध का प्रश्न पर्याप्त सामाजिक और सांस्कृतिक
वैविध्य को धारण करने वाले समाज की अपने वैविध्य को सहेजने की चिंता और इसके प्रति
उसकी संवेदनशीलता से जाकर जुड़ता है। यह कुठाराघात है उन
तानों-बानों पर, जो
विविधता को सहेजते हुए भी एकता के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में
देखें, तो ऐसी
कोई भी संहिता "विविधता में एकता" की मूलभूत संकल्पना को ही ख़तरे में डालेगी
जो इसकी विशिष्ट पहचान है। इसके विरोध में निम्न तर्क दिए झा सकते हैं:
1. अल्पसंख्यक
मुसलमानों में यह भ्रम है कि समान नागरिक संहिता का मतलब मुसलमानों पर हिंदू
विधियों को थोपना है. इसीलिए वे इसे अपने धार्मिक मामलों में
हस्तक्षेप मान रहे हैं और इसका विरोध कर रहे हैं।
2. मुसलमानों
के विरोध के मूल में मौजूद है उनका अशिक्षित होना।
अशिक्षित होने के कारण न तो वे समान नागरिक संहिता को समझने की स्थिति में हैं और न
कट्टरपंथी उलेमा, जिन्हें इस संहिता में
इस्लामिक समाज पर अपने प्रभुत्व की समाप्ति का खतरा नज़र आ
रहा है, उन्हें
इसका मतलब समझने दे रहे हैं। ये मुश्किलें तबतक आने की सम्भावना है जबतक
अल्पसंख्यक मुसलमानों को अशिक्षा की ज़द और कट्टरपंथी उलेमाओं के प्रभाव से बाहर
नहीं निकाला जाता है.
3. आज रूढ़िवादी
हिन्दू भी समान नागरिक संहिता का विरोध करेंगे क्योंकि यह हिन्दू
महिलाओं को सशक्त बनाएगी जो परिवार और समाज के
पितृसत्तात्मक ढाँचे और उस पर पुरूषों के वर्चस्व को कमज़ोर करेगी।
साथ ही, अविभाजित
हिन्दू परिवार जैसी संकल्पना की समाप्ति कर-वंचना की संभावनाओं को सीमित करेगी।
समान नागरिक संहिता: मूल समस्या :
मूल
समस्या यह है कि मुसलमानों
के संदर्भ में अबतक न तो उनकी वैयक्तिक विधि को
अपडेट किया गया है और न ही अधिकांश मुसलमान इसे अपडेट करने या इसकी जगह समान
नागरिक संहिता को स्वीकार करने के लिए तैयार ही है। वे इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि बहुविवाह वाला प्रावधान उस दौर के मध्य-पूर्व की वास्तविकता
का प्रतिनिधित्व करता है जब वहाँ अल्प-जनसंख्या
और अल्प-जनघनत्व की स्थिति थी, न कि आज के भारत की वास्तविकता का, जो जनाधिक्य की चुनौती का सामना कर रहा है। इतना
ही नहीं, क़ुरान
बहुविवाह को प्रोत्साहन नहीं देता है, वरन् वह विशेष
परिस्थितियों में एक से अधिक विवाह की सशर्त अनुमति देता है।
क़ुरान के इस विशेष प्रावधान का मुस्लिम धर्मगुरुओं और उलेमाओं ने सामान्यीकरण
करते हुए इसकी मनमानी व्याख्या की है, जो ग़लत है।
इसी
प्रकार यह धारणा ग़लत है कि बहुविवाह का प्रचलन सिर्फ़ मुसलमानों में है। हाल
में 1974 की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया
है जो इस बात का संकेत करता है कि बहुविवाह का प्रचलन
मुसलमानों (5.6%) की तुलना में हिन्दुओं (5.8%) में ज़्यादा है। अगर
निरपेक्ष संख्या की दृष्टि से देखा जाय, तो उस समय बहुविवाह करने वाले हिन्दुओं की संख्या मुसलमानों की तुलना
में पाँच गुनी थी। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के द्वारा करवाया
गया सर्वेक्षण यह बतलाता है कि:
1. 91% मुस्लिम महिलाएँ बहुविवाह
के विरूद्ध हैं और
2. 90% से अधिक मुस्लिम महिलाएँ
एकल विवाह से सम्बद्ध हैं।
3. हाँ, यह ज़रूर है कि वे समान
नागरिक संहिता की बजाय मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार चाहती हैं।
इस
संहिता को अनु. 25,
अनु. 26 और अनु. 29-30 के विरोध में माना जाना
भी उचित नहीं है। धर्म एवं अंत:करण की स्वतंत्रता का इससे कोई लेना-देना है। अगर
ऐसा नहीं होता, तो
बाल-विवाह पर रोक लगाने वाला शारदा क़ानून, मुस्लिम
पर्सनल लॉ द्वारा बाल-विवाह की मंजूरी के बावजूद हिन्दू और मुसलमान, दोनों पर
समान रूप से लागू नहीं होता।
इसी
प्रकार यह स्थिति अत्यंत विडम्बनापूर्ण है कि दत्तक-ग्रहण
पर समान नागरिक संहिता के अभाव के कारण भारतीय मुसलमान एवं ईसाई वैधानिक रूप से
किसी को दत्तक के रूप में अपना नहीं सकते हैं।
यह धारणा अत्यंत
भ्रामक है कि वैयक्तिक विधि से जुड़ी हुई यह समस्या केवल मुसलमानों के साथ है:
1. जहाँ ईसाई
दम्पत्ति को तलाक़ के पूर्व दो वर्ष की अवधि न्यायिक रूप से अलग रहकर
गुज़ारनी होती है, जबकि
हिन्दुओं एवं अन्य ग़ैर-ईसाइयों के लिए यह अवधि सालभर की है।
2. इसी
प्रकार गुजरात
में "मैत्री क़रार" का प्रचलन है।
इसके तहत् शादी-शुदा स्त्री-पुरूष स्वेच्छा से इस घोषणा के साथ एक-दूसरे का
पार्टनर बनना स्वीकार करते हैं कि उन्हें अपने पार्टनर के शादीशुदा होने की
जानकारी है। वैधानिक स्वरूप वाले इस करार में पुरूष पार्टनर यह घोषणा करता है कि
वह अपने महिला पार्टनर की देखभाल करेगा एवं उसे वित्तीय समर्थन देगा। इसी प्रकार
भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में न तो खाप पंचायतों को और न ही उलेमाओं द्वारा
जारी फ़तवे को भारतीय नागरिक एवं आपराधिक संहिता की अनदेखी की अनुमति दी जा सकती
है।
समान नागरिक संहिता का प्रश्न बहुत व्यावहारिक
नहीं:
हिन्दुओं, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के पर्सनल
लॉ का तुलनात्मक अध्ययन यह बतलाता है कि "इनमें इतनी विविधता
है और इसके अनुपालन हेतु इतना कट्टरताजन्य उत्साह है कि वे किसी प्रकार की समरूपता
(Uniformity) की अनुमति नहीं देते
हैं। इस वैविध्य को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. भारत में
विभिन्न धर्म के अनुयायी रहते आए हैं और वे अपने-अपने
धर्म की वैयक्तिक संहिताओं से परिचालित रहे हैं और यहाँ
तक कि एक ही धर्म में अलग-अलग समूहों के लिए अलग-अलग वैयक्तिक विधि का प्रचलन रहा है।
2. यहाँ तक
कि "हिन्दू संहिता में ही इतनी विविधता है कि समान हिन्दू संहिता
की परिकल्पना नहीं की जा सकती है।" इस
विविधता के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 पर्याप्त गुंजाइश छोड़ता है। वे अगर चाहें, तो अग्नि के सात फेरों के
ज़रिए या संबंधियों के सामने विवाह की घोषणा, रिंग-सेरोमनी या फिर जय़माला के ज़रिए विवाह-बंधन में बँध सकते हैं।
विवाह तभी वैध माना जाएगा जब विवाह में अपनाए गए रीति-रिवाज दोनों पक्षों में से
किसी एक पक्ष से सम्बद्ध हों, अन्यथा विवाह अवैध माना जाएगा।
3. मुस्लिम
विधि में विवाह के लिए किसी प्रकार के रीति-रिवाज (rituals, ceremonies) निर्धारित नहीं हैं, पर सुन्नी और
शिया में विवाह के अलग-अलग तरीक़े अपनाए जाते हैं।
अब
प्रश्न यह उठता है कि
1. क्या ऐसी
समान नागरिक संहिता का निर्माण संभव है जो सभी
समुदायों के लिए स्वीकार्य हो?
2. विशेष
विवाह अधिनियम,1954 के रूप
में वैकल्पिक नागरिक संहिता मौजूद है जो भारतीय उत्तराधिकार
अधिनियम,1925 के साथ
पढ़े जाने पर उन लोगों के लिए विवाह, तलाक, गुज़ारा
और उत्तराधिकार के संदर्भ में अच्छा लीगल फ़्रेमवर्क उपलब्ध कराता है जो धर्म
आधारित क़ानूनों से बचना चाहते हैं ।
समान नागरिक संहिता का दायरा:
यहाँ इस
बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि समान
नागरिक संहिता में वैयक्तिक जीवन के सारे पहलुओं को समाहित करना न तो व्यावहारिक
है और न ही संभव। ऐसी स्थिति में:
1. जिन
मामलों का संहिता में उल्लेख नहीं है, उन मामलों में तत्संबंधित धर्म के पर्सनल लॉ प्रभावी हो सकते हैं।
2. समान
नागरिक संहिता को पर्सनल लॉ के उन पहलुओं में छेड़छाड़ से परहेज़ करना चाहिए जिनका
संबंध रीति-रिवाजों से जाकर जुड़ता है।
3. इसे
अधिकार संबंधी मुद्दों पर फ़ोकस करना चाहिए।
वैकल्पिक
रहकर यह तेजी से उभर रही सामाजिक वास्तविकताओं में आनेवाले बदलावों के साथ सामाजिक
सम्बंधों का तादात्म्य स्थापित करेगा और स्वतंत्र रूप से चयन का
विकल्प उपलब्ध कराएगा।
इसी आलोक
में बी• जी• वर्गीज़
ने सुझाव दिया है कि "समान नागरिक संहिता विभिन्न
धर्मों के पर्सनल लॉ की अच्छाइयों का समवेत रूप न हो क्योंकि यह विवाद की ओर
ले जाएगा। इससे बेहतर है कि इसके निर्माण की ज़िम्मेवारी
विधि आयोग जैसी किसी विशेषज्ञ संस्था को सौंपी
जानी चाहिए जो विशेषज्ञों एवं विभिन्न हित-समूहों के परामर्श से पारिवारिक
संबंधों को शासित करने वाले सिटीज़न चार्टर के रूप में इसे
अंतिम रूप दे।"
इस
सन्दर्भ में उन्होंने गोवा समान नागरिक संहिता का उदाहरण दिया जो विभिन्न
धर्मों की वैयक्तिक संहिताओं के साथ सहअस्तित्वमान है। यह लोगों को विकल्प ही नहीं उपलब्ध करवा रहा है वरन् कई
संदर्भों में उसके पूरक की भूमिका में मौजूद है। और इस बात को रेखांकित करता है कि
समान नागरिक संहिता और वैयक्तिक विधि एक-दूसरे के विकल्प नहीं उपलब्ध करवाते हैं।
साथ ही, इनमें से
किसी को दूसरे की क़ीमत पर हासिल नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम
कोर्ट और समान नागरिक संहिता
1. शाहबानो केस,1985 से अबतक: सन् 1985
का शाहबानो केस मुस्लिम पर्सनल लॉ और समान नागरिक संहिता के भविष्य
के लिए एक महत्वपूर्ण दिशानिर्देशों सिद्ध हुआ। शाहबानो मध्य प्रदेश की एक महिला
थी जिसे उसके पति मोहम्मद अहमद खान ने तलाक़ देते हुए घर से बेदख़ल कर दिया। साथ
ही, उसने गुज़ारा भत्ता देने से भी इन्कार किया। शाहबानो ने
पति द्वारा गुज़ारा भत्ता दिए जाने से इन्कार के ख़िलाफ़ अपील की, तो सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए उसके पति ने कहा कि "उसने
इस्लामी क़ानून का पालन करते हुए शरीयत की मान्यताओं के अनुरूप तलाक़ दिया है,
इसीलिए वह शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं
है।"
सुप्रीम कोर्ट ने 23 अप्रैल 1985 को उसके पति के तर्कों को ख़ारिज करते
हुए कहा:
a. कोर्ट ने पत्नी, बच्चों और अभिभावकों
के गुज़ारा भत्ता से संबंधित आपराधिक प्रक्रिया संहिता की
धारा 125 का हवाला देते हुए उसके पति को निर्देश दिया कि वह शाहबानों को गुज़ारा भत्ता
दे।
b. अब तक समान नागरिक संहिता के निर्माण न
होने पर खेद ज़ाहिर किया।
2. मुस्लिम महिला (तलाक़ पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम,1986: 1986
में राजीव गाँधी की सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में मुस्लिम
महिला (तलाक़ पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय को पलट दिया। तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को अपनाते हुए
यह प्रावधान किया कि:
a. मुस्लिम महिलाएँ मुस्लिम पर्सनल लॉ के
प्रावधानों के अनुरूप केवल इद्दत की अवधि (तलाक़ के बाद नब्बे दिनों तक) के दौरान
ही गुज़ारा भत्ते की हक़दार होंगीं।
b. इस अधिनियम के ज़रिए मुस्लिम महिलाओं को
आपराधिक प्रक्रिया संहिता के गुज़ारा भत्ता सम्बंधी प्रावधानों के दायरे से बाहर कर दिया गया।
राजीव गाँधी की सरकार के
इस निर्णय के विरोध में आरिफ़ मोहम्मद खान ने मंत्रिपरिषद से इस्तीफ़ा दिया और
समान नागरिक संहिता की माँग की ताकि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित किया
जा सके।
3. डेनियल लतीफ़ी बनाम् भारत संघ वाद,2001: सन् 2001 में डेनियल लतीफ़ी बनाम् भारत संघ वाद में
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस रुख की पुष्टि तो की, पर इस निर्णय के जरिये 1985 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले और 1986
के अधिनियम के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गयी:
a. 1986
के अधिनियम की वैधानिकता को वहाँ तक स्वीकार किया जहाँ तक यह गुज़ारा भत्ता की अवधि को इद्दत तक सीमित करता है।
b. इसने यह स्पष्ट किया कि गुज़ारे की राशि
"समुचित और पर्याप्त" होनी चाहिए ताकि
उससे उनके जीवन-काल की ज़रूरतें पूरी हो सकें।
4. गीता हरिहरन बनाम आरबीआई वाद,1999: 1999 में गीता हरिहरन बनाम आरबीआई वाद में हिन्दू
माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट,1956 तथा द गार्जियन
कॉन्सटीट्यूशन एंड वार्ड्स एक्ट के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को अनु. 14
के आधार पर चुनौती दी गई। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा कि
बच्चों का हित सर्वोपरि है और विद्यमान
कानून इस पहलू की अनदेखी नहीं कर सकता है।
5. 2015
में ही सुप्रीम कोर्ट ने चर्च कोर्ट को मान्यता प्रदान करने के प्रश्न पर विचार करते हुए सख्त टिप्पणी की और कहा कि क्या वर्तमान परिस्थितियों में भारत
धर्मनिरपेक्ष बना रह पायेगा?
6. सरला मुद्गल वाद,1995: आगे चलकर सरला मुद्गल वाद,1995 काफ़ी चर्चित हुआ जिसमें वैधानिक
सुधारों के ज़रिए बहुविवाह को प्रचलन से बाहर करने की बात की गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह निर्देश दिया कि:
1.
वह अनुच्छेद
44 पर नया दृष्टिकोण अपनाए और सभी
नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता का निर्माण करे।
2.
अपने निर्णय में सर्वोच्च
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि सभ्य समाज में धर्म और
वैयक्तिक विधि में कोई संबंध नहीं होता है।
3.
समान नागरिक संहिता के
निर्माण से अनुच्छेद 25, अनुच्छेद
26 और अनुच्छेद 27 के द्वारा संरक्षित
मूल अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है;
इसीलिए विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता,
दत्तक-ग्रहण, उत्तराधिकार आदि से संबंधित
सामाजिक प्रक्रियाओं को विधि बनाकर विनियमित किया जाना चाहिए।
4.
खंडपीठ के एक सदस्य आर. एन.
सहाय ने चरणबद्ध तरीके से समान नागरिक संहिता के निर्माण की दिशा में संकेत करते
हुए कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय की वैयक्तिक विधि को तर्कसंगत बनाकर इस दिशा में
प्रयास किया जा सकता है।
5.
खंडपीठ के एक सदस्य
न्यायमूर्ति बेग ने यह स्पष्ट किया कि विवाह तलाक और उत्तराधिकार जैसे विषय
वैयक्तिक धर्म के विषय नहीं हैं. यह कहना तर्क-विरुद्ध
होगा कि विवाह तलाक और उत्तराधिकार के जो नियम किसी हिंदू-सिख कुटुंब के लिए
न्यायपूर्ण हैं, वही
नियम किसी अन्य कुटुंब के लिए अन्यायपूर्ण हैं, सिर्फ
इसलिए कि वह किसी अन्य धर्म को मानता है। अगर ऐसा
होता, तो इसके दुरूपयोग को रोकने
के लिए कई इस्लामिक देशों ने इसे संहिताबद्ध नहीं किया होता। साथ ही, तुर्की और ईरान के अतिरिक्त कईं अन्य मुस्लिम देशों ने मुस्लिम
पर्सनल लॉ के कई पहलुओं को शिथिल करते हुए आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष विधि को नहीं
अपनाया होता।
6.
सुप्रीम कोर्ट का मानना है
कि वैधानिक सुधारों के ज़रिए समाज के लिए समान नागरिक संहिता की ओर
बढ़ना आसान हो पाएगा। यहाँ पर यह स्पष्ट करना
आवश्यक प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने एकाधिक अवसरों पर कहा है कि धर्म से
संबंधित मूलाधिकार अपने दायरे में एक से अधिक पत्नी रखने के अधिकार को समाहित नहीं
करता है।
समान नागरिक संहिता का भविष्य:
जिस तरह
से पिछले कुछ दशकों के दौरान दक्षिणपंथी हिन्दुत्व का
उभार देखने को मिल रहा है और इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय समाज एवं राजनीति
में जिस प्रकार कम्युनल लाइन पर ध्रुवीकरण देखने
को मिल रहा है, उसमें
समान नागरिक संहिता के निर्माण की राह और मुश्किल होगी। दूसरी तरफ़ जिस तरह से मुस्लिम
महिलाओं की ओर से समान नागरिक संहिता के निर्माण के लिए दबाव बढ़ रहा
है और उन्हें जिस तरह नारीवादियों का समर्थन मिल रहा
है, उसको
देखकर लगता है कि आने वाले समय में इसको लेकर मुश्किलें बढ़ेंगीं।
अब अगर
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो ऐसी संहिता के निर्माण के लिए भारत
के धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को आगे आना होगा। भाजपा जैसे
दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के लिए ऐसी संहिता का निर्माण मुश्किल होगा क्योंकि उनकी
इस कोशिश को उनके हिन्दुत्ववादी पूर्वाग्रह और मुस्लिम- विरोध से जोड़कर देखते हुए
साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश होगी जिसके राष्ट्रीय एकीकरण के साथ-साथ राष्ट्रीय
एकता एवं अखंडता के मद्देनज़र गंभीर निहितार्थ हो सकते हैं।
समान नागरिक संहिता का रोडमैप:
अब
प्रश्न उठता है कि अगर इस संहिता का निर्माण होना है, तो उसके लिए क्या रोडमैप हो
सकता है? इस रोडमैप को निम्न
संदर्भों में देखा जा सकता है:
1. कोई
ज़रूरी नहीं कि समान नागरिक संहिता का निर्माण हो ही। इसका एक विकल्प
मुस्लिम पर्सनल लॉ का आधुनिकीकरण करते हुए उसे अपडेट किया
जाय। यह समान नागरिक संहिता के निर्माण का अनिवार्य पूर्व-चरण भी हो सकता है।
2. दूसरे
चरण में अंतर्धार्मिक मामलों में इस संहिता को अनिवार्य बनाया
जा सकता है।
3. तीसरे
चरण में इस संहिता को वैकल्पिक बनाया जा सकता है और लोगों
को इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
4. अंतिम
चरण में इस संहिता को अनिवार्य बनाया जा सकता है।
लेकिन, इस बात को ध्यान में रखने
की ज़रूरत है कि महज़ क़ानून बना देने मात्र से न तो उसे प्रभावी बनाया जा सकता है
और न ही उसके अनुपालन को सुनिश्चित किया जा सकता है। इन दोनों के लिए आवश्यकता
एक ऐसे माहौल के निर्माण की है जिसमें इसकी व्यापक स्वीकार्यता सुनिश्चित की जा
सके। इसके लिए समेकित नज़रिए को अपनाने की ज़रूरत होगी। इसीलिए उपरोक्त
पहलों को निम्न क़दमों के ज़रिये समर्थन दिए जाने की ज़रुरत होगी:
1. सबसे
पहले उदार मुस्लिम बुद्धिजीवियों को सामने लाकर मुस्लिम
समाज में उन्हें समान नागरिक संहिता हेतु उपयुक्त
माहौल के निर्माण की ज़िम्मेवारी सौंपनी होगी। ऐसी स्थिति
में समान नागरिक संहिता को लेकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रतिरोध को सीमित किया जा
सकता है और राष्ट्रीय हितों के संरक्षण को भी सुनिश्चित किया जा सकता है।
2. इस कार्य
में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया, बेहतर
एवं प्रभावी पहुँच के कारण विशेष रूप से इलेक्ट्रानिक
मीडिया के सहयोग और उसकी सकारात्मक भूमिका सुनिश्चित करनी होगी। इसके ज़रिए समान
नागरिक संहिता से जुड़े हुए भ्रमों को दूर करना संभव हो
सकेगा।
यह
समेकित नज़रिया ही समान नागरिक संहिता के निर्माण के मार्ग को प्रशस्त करेगा।
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