अनुच्छेद
35A विवाद
प्रमुख आयाम
1. अनु. 35A और भारतीय संविधान
2. अनु. 35A: संविधान-संशोधन की पृष्ठभूमि
3. प्रमुख प्रावधान
4. हाल में चर्चा में बने रहने के कारण
5. अनुच्छेद 35A की संवैधानिकता को चुनौती
6. अनु. 35A के मसले पर
स्थानीय विरोध
7. समाधान और निष्कर्ष
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अनु. 35A और भारतीय संविधान:
भारत के संविधान
में अनु. 370 का उल्लेख तो मिलता है, पर अनु. 35 A का नहीं। संविधान-सभा से लेकर संसद की किसी भी कार्यवाही में न तो
अनुच्छेद 35A के संविधान का हिस्सा बनने का उल्लेख
मिलता है और न ही इसके लिए किसी संविधान-संशोधन का। 14 मई,1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र
प्रसाद के द्वारा अनु. 370 के अधीन रहते हुए जारी
आदेश के जरिये भारत के संविधान
में एक नया अनुच्छेद 35A
जोड़ा गया जो एक प्रकार से
संविधान-संशोधन है। लेकिन,
इस सन्दर्भ में संविधान-संशोधन के लिए अनुच्छेद 368
में विहित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। इतना ही नहीं, कायदे से जब भी संविधान में संशोधन कर
कोई नया अनुच्छेद जोड़ा जाता है, तो उसे उचित जगह पर उस अनुच्छेद के बाद जोड़ा जाता
है जिससे प्रत्यक्षतः या परोक्षतः वह संबंद्ध होता है और उसे अंग्रेजी के कैपिटल
लैटर के जरिये व्यक्त किया जाता है। इस दृष्टि से
अनु. 35 A को अनु. 35 और अनु. 36 के बीच में होना चाहिए, लेकिन इसे संविधान के
मुख्य भाग में शामिल करने के बजाय परिशिष्ट (Appendix) के अंतर्गत स्थान दिया गया। शायद यही कारण है कि
हाल में इस मसले के चर्चा में आने के पहले तक अधिकांश लोगों को और यहाँ तक कि
राजनीतिक विश्लेषकों को भी इस अनुच्छेद के बारे में जानकारी तक नहीं थी।
अनु. 35A: संशोधन की पृष्ठभूमि:
अनु. 35A की पृष्ठभूमि को
1920 के दशक के मध्य तक तैयार होते हुए देखा जा सकता है जब पंजाबियों के कश्मीर की ओर तेजी से पलायन ने कहीं-न-कहीं कश्मीरी पंडितों को चिंतित किया और अपनी पहचान को खतरे में पड़ते देख
उन्होंने महाराजा हरि सिंह से अपने संरक्षण की गुहार लगाई। इसी आलोक में 1927 में
महाराजा हरि सिंह ने एक आदेश जारी कर बाहरी लोगों के राज्य में जमीन खरीदने और
राज्य सरकार की नौकरियों में आवेदन करने पर रोक लगा दी थी। बाद में, 1932 में एक और आदेश जारी किया गया, जिसके तहत 'विदेशियों' के जमीन
खरीदने में कुछ रियायतें भी दी गईं, लेकिन मोटे तौर पर 1927 का आदेश लागू होता रहा।
जब देश आज़ाद हुआ और इसका नया संविधान
बना; तो सन् 1948 में जिन शर्तों पर कश्मीर का
भारत संघ में विलय हुआ, उसने इस संभावना को पुष्ट किया और इसके मद्देनज़र अनु. 370
के तहत् जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ के अंतर्गत विशेष दर्ज़ा प्रदान किया गया। इसके तहत् जम्मू-कश्मीर
के मामले में भारत सरकार सिर्फ रक्षा, विदेश नीति, वित्त और संचार जैसे
मामलों में ही दखल दे सकती है, राज्य की नागरिकता और अन्य मौलिक अधिकार राज्य के
अधिकार-क्षेत्र में है। आगे चलकर इसी के आलोक में अनु. 35A
को अंतिम रूप दिया गया।
अनुच्छेद 35A के प्रमुख प्रावधान:
स्पष्ट है कि
भारतीय संविधान में अनु. 35A शामिल करते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य के विधान-मंडल को
कुछ विशिष्ट शक्तियों से लैस करने का उद्देश्य
कश्मीरियत की विशिष्ट पहचान को मान्यता प्रदान करना और इसके संरक्षण को सुनिश्चित
करना था। इसके लिए इस अनुच्छेद के जरिये राज्य
विधान-मंडल को इस बात के लिए अधिकृत किया
गया है कि वह 'स्थायी नागरिक' की परिभाषा तय कर सके और उन्हें
चिन्हित करते हुए विशेषाधिकार प्रदान कर सके। इसी पृष्ठभूमि
में जब सन् 1956 में जम्मू-कश्मीर का संविधान तैयार हुआ, तो उसमें उस व्यक्ति को राज्य का स्थायी नागरिक माना गया जो:
1. 14 मई,1954 को राज्य का नागरिक रहा हो, या फिर
2. उससे
पहले के 10 सालों से राज्य में रह रहा हो, और उसने वहाँ संपत्ति हासिल की हो।
जम्मू कश्मीर की
विधानसभा ने इन्हीं प्रावधानों के तहत् यहाँ के लोगों को विशेषाधिकार प्रदान करते हुए उनके अधिकारों के संरक्षण
के लिए निम्न प्रावधान किये गए:
1.
यह अनुच्छेद
राज्य सरकार को जम्मू-कश्मीर में विवाह कर बसने
वाली महिलाओं और अन्य भारतीय नागरिकों के साथ भी जम्मू-कश्मीर सरकार अनुच्छेद 35A की आड़ लेकर भेदभाव करता है। इसीलिए यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद
14 द्वारा
प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
2.
अगर
जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर लेती है, तो उसे बाहरी माना जाएगा, उसके सारे अधिकार खत्म हो जायेंगे, और उसका एवं उसके वंशजों का कश्मीर में उसकी
संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा। लेकिन, यदि कश्मीर में
रहने वाला कोई युवक देश के किसी भी हिस्से की लड़की से शादी करता है, तो वह लड़की कश्मीर
की स्थायी निवासी मान ली जाएगी। उस गैर-कश्मीरी लड़की से शादी करने
वाले कश्मीरी पुरुष के बच्चों को स्थायी नागरिक का दर्जा और तमाम अधिकार मिलते
हैं।
3.
इस धारा की वजह से किसी भी दूसरे राज्य का नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो
संपत्ति खरीद सकता है और न ही वहाँ का स्थायी नागरिक बनकर रह सकता है। मतलब वह वहाँ स्थाई रूप
से नहीं बस सकता है।
4.
इतना ही नहीं, बाहर के लोग
न तो राज्य सरकार की स्कीमों का लाभ उठा सकते हैं, न इनके बच्चे यहाँ व्यावसायिक
शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थानों में दाखिला ले सकते हैं और न ही राज्य-सरकार एवं
राज्य-प्रशासन के अधीन नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं।
5. वे संसदीय
चुनावों में तो भाग ले सकते हैं, लेकिन विधानसभा या
स्थानीय निकायों के चुनाव में वोट डालने और भाग लेने की उन्हें अनुमति नहीं है।
स्पष्ट है कि अनु. 35A के तहत् जम्मू-कश्मीर की
सरकार को अपने यहाँ रह रहे लोगों के एक समूह को भारतीय संविधान के अनुच्छेद (11-35) के द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों
के दायरे से बाहर रखने की छूट देता है। इसीलिए जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र (JKSC) ने
भी संविधान में निहित अनुच्छेद 35A को सुप्रीम कोर्ट में
चुनौती दी है।
हाल में चर्चा में बने रहने के कारण:
1. चारू वाली खन्ना का मसला: हाल में अचानक
से अनु. 35 A चर्चा के केंद्र में आ गया, जबकि अभीतक इसकी जानकारी तक किसी को नहीं
थी। ताज़ा मामला जम्मू की चारू वली खन्ना का
है जिन्हें उनकी पुश्तैनी जायदाद से इसलिए बेदखल कर दिया गया क्योंकि उन्होंने राज्य के
बाहर शादी कर ली। उन्होंने अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायपालिका की शरण ली।
2. पकिस्तान से आये शरणार्थियों का मामला: मसला
केवल एक चारू खन्ना का नहीं है। समस्या यह भी है कि 1947 में हुए बँटवारे
के दौरान पकिस्तान से भारत आनेवाले लाखों लोग भारत के विभिन्न हिस्सों में बस गए और धीरे-धीरे मुख्यधारा
का हिस्सा बनते चले गए। लेकिन, इनमें जो लोग जम्मू-कश्मीर के विभिन्न इलाकों में
आकर बसे, उन लोगों की चौथी-पाँचवी पीढ़ी अनु. 35A के तहत् जम्मू-कश्मीर
विधानसभा के द्वारा किये गए प्रावधानों के कारण आज
भी शरणार्थी की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त हैं और तमाम मौलिक अधिकारों से सिर्फ इसलिए
वंचित हैं कि जम्मू-कश्मीर राज्य
इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता। कश्मीर में बसने वाले
ऐसे परिवारों की संख्या करीब-करीब पौने छह हज़ार (5764) थी, जो भारतीय
नागरिक तो बन गए, लेकिन कश्मीर के डोमिसाइल नहीं हो सके। विडम्बना
यह है कि छह दशक से अधिक समय
बीत जाने
के बाद
भी जम्मू-कश्मीर में गैर-स्थायी नागरिक
(Non-PRC) के रूप में जी रही इनकी चौथी और पाँचवीं पीढ़ी को
लोकसभा के चुनावों में तो वोट डालने की अनुमति है, पर न
तो इन्हें विधानसभा-चुनावों के लिए मताधिकार प्राप्त है और न ही स्थानीय
निकाय-चुनावों के लिए। ये न तो सरकारी
नौकरी के लिए आवेदन
कर सकते
हैं और न ही इनके बच्चे
यहाँ व्यावसायिक शिक्षा में
दाखिला ले सकते हैं।
जम्मू-कश्मीर सरकार ने अनुच्छेद 35A
के जरिए इन सभी भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी प्रमाण-पत्र से वंचित कर
दिया। इन वंचितों में 80 फीसद लोग पिछड़े और दलित समुदाय से हैं।
3. वाल्मीकि समाज का मसला: इतना
ही नहीं, 1957 में कश्मीरियों को सफाई कर्मचारियों
की जरूरत पड़ी और इसके लिए राज्य-कैबिनेट के फैसले के बाद पंजाब
से वाल्मीकि समाज के 200
परिवारों को लाकर राज्य में बसाया गया, इस
शर्त के साथ कि वो केवल सफाई कर्मचारी की ही नौकरी करेंगे। आज उनके बच्चे योग्य
होने के बावजूद सफाई कर्मचारी को छोड़ राज्य-सरकार और राज्य-प्रशासन के अधीन अन्य
कोई भी नौकरी नहीं पा सकते। ऐसे में इस अनुच्छेद
का हटना न केवल इन लोगों को मुख्यधारा में शामिल करेगा, वरन् कश्मीर को भी भारत की
मुख्यधारा में शामिल होने के मार्ग को प्रशस्त करेगा।
स्पष्ट है कि अनु. 35 A जम्मू-कश्मीर में रह रहे पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों,
वाल्मीकि समाजियों, गोरखाओं सहित लाखों लोगों
को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर रहा है। इसी आलोक में दिल्ली स्थित एक गैर-सरकारी संगठन ‘‘वी द
सिटीजन्स’’ ने भी
अनुच्छेद 35A की संवैधानिकता को चुनौती दे रखी है जिसे प्रधान
न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने वृहद पीठ के पास भेज दिया गया।
अनुच्छेद 35A को चुनौती:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमे अनु. 35A की
संवैधानिकता का प्रश्न उभरकर सामने आया है। चारू वली खन्ना ने इस आधार पर अनुच्छेद
35A और जम्मू-कश्मीर में लागू संविधान की धारा छह (राज्य
के स्थायी निवासियों से संबंधित) को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है कि चूँकि यह
अनुच्छेद संविधान-प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है, इसलिए इसे खारिज किया जाना चाहिए। इस याचिका में उन कानूनों को चुनौती दी गयी है जो ये प्रावधान करते हैं कि:
1.
अगर कोई
महिला जम्मू-कश्मीर के बाहर के व्यक्ति से शादी करती है, तो वह संपत्ति के अधिकार के साथ ही राज्य में रोजगार के अवसरों से भी वंचित
हो जाती है।
2.
राज्य की इस तरह की महिला को संपत्ति के अधिकार से वंचित करने वाला
प्रावधान उसके बेटे पर भी लागू होता है।
‘वी द सिटीजन्स’ की याचिका में यह जम्मू-कश्मीर में
लागू अनु.
35A को असंवैधानिक घोषित करते
हुए इसे
समाप्त करने
की माँग
की गई है और कहा गया
कि राज्य
सरकार इस आर्टिकल को हटाए जाने
के खिलाफ
है। याचिका में कहा गया था कि राज्य को
विशेष स्वायत्त दर्जा प्रदान करने वाले अनुच्छेद 35A और अनुच्छेद 370
की आड़ में राज्य सरकार गैर-निवासियों के साथ भेदभाव कर रही है। इसमें कहा
गया है कि:
3.
इनका यह मानना है कि अनु. 35 A का जम्मू-कश्मीर के स्टेट सब्जेक्ट कानून से कोई लेना-देना नहीं है। स्टेट सब्जेक्ट कानून महाराजा हरिसिंह ने 1927 और 1932
में लागू किया था, जो जम्मू-कश्मीर के लोगों
के अधिकारों का एक हिस्सा बन चुका है, जिसकी भारतीय संविधान
में पूरी गांरटी है।
4.
अनु. 370 के तहत् भारत संघ के
अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को जो विशेष दर्जा मिला है और इसके प्रावधानों के अंतर्गत
रहते हुए अनु. 35A के तहत् जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को जो
विशेषाधिकार प्रदान किये गए हैं एवं उन्हें संरक्षण प्रदान किया गया है, वह शेष भारत के लोगों के साथ भेदभाव करता है और
इसीलिए संविधान-प्रदत्त समानता के अधिकार का
उल्लंघन करता है।
5.
इनका कहना है कि राष्ट्रपति
के आदेश के जरिये भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान
को संशोधित करना है और यह अधिकार सिर्फ भारतीय संसद को है। इसलिए 1954 का राष्ट्रपति का आदेश पूरी तरह से असंवैधानिक है।
6.
अनुच्छेद 370 के खंड (3) में,
जिसके तहत् राष्ट्रपति के बनाए हुए कानून के लिए जम्मू-कश्मीर
संविधान सभा से अनुमति लेना आवश्यक था, उस पर अमल नहीं किया गया और यह
प्रावधान भी 26 जनवरी, 1957 को कानूनी
दायरे से गायब हो चुका था, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में नए
संविधान के लागू होने के साथ संविधान सभा का अस्तित्व समाप्त हो गया।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 35A सैंविधानिकता और इस बहाने अनुच्छेद 370 एवं इसके द्वारा
प्रदत्त जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की समीक्षा की जा रही है। लेकिन, जम्मू-कश्मीर सरकार ने
कोर्ट में इस याचिका का विरोध
करते हुए कहा है कि 2002 में इस मुद्दे पर हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था, जिससे यह मामला निपट
गया था। 30 अक्टूबर,2017 को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने
अनुच्छेद 35A पर होने वाली सुनवाई केंद्र की ओर से अटॉर्नी
जनरल के द्वारा अतिरिक्त समय की माँग पर तीन महीनों के लिए टाल
दी।
अनु. 35A के
मसले पर स्थानीय विरोध:
जिस तरीके से समान नागरिक संहिता और ट्रिपल तलक के मसले की तरह
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए अनु. 35A के मसले का इस्तेमाल हो रहा है
और इसकी पृष्ठभूमि में इस मसले का राजनीतिकरण करते हुए इसे जम्मू-कश्मीर के विशेष
दर्जे के विरोध के साधन में तब्दील किया जा रहा है, उसकी जम्मू-कश्मीर में व्यापक
प्रतिक्रिया हुई है। उन्हें लगता है कि अनुच्छेद 35A के खिलाफ याचिका
मुस्लिम-बहुल राज्य की आबादी की संरचना को बदलने की योजना का हिस्सा भर है। उनकी
इस आशंका को इस मसले पर केंद्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ दल भाजपा के नेताओं और इसके
मातृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS) के आक्रामक रवैये से भी बल मिला है। जम्मू कश्मीर के तीन अलगाववादी नेताओं: सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और मोहम्मद यासिन मलिक ने
संयुक्त बयान में लोगों से अनुरोध किया कि राज्य-सूची के विषयों से छेड़छाड़ फिलीस्तीन
जैसी स्थिति पैदा करेगा। इसीलिए यदि सुप्रीम कोर्ट राज्य
के लोगों के हितों और आकांक्षा के खिलाफ कोई फैसला देता है, तो वे लोग एक जनआंदोलन शुरू करें. अलगाववादी
संगठन हुर्रियत ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
अनुच्छेद 35A के खिलाफ जाता है, तो घाटी
में इसके खिलाफ विद्रोह किया जाएगा। यद्यपि पूर्व मुख्यमंत्री उमर
अब्दुल्ला ने यह कहते हुए अलगाववादियों की आलोचना की: “अलगाववादी नेताओं को धारा 35A के बारे में बात करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि
वे भारत के संविधान में विश्वास नहीं रखते हैं।”; तथापि उनका मानना है कि धारा 35A को रद्द करने से सिर्फ कश्मीर घाटी में ही नहीं, वरन्
जम्मू एवं लद्दाख में भी स्थानीय लोग नौकरियों एवं छात्रवृत्ति से वंचित होंगे।” उन्होंने व्यावहारिक समस्या की ओर इशारा करते हुए कहा, “यदि अनु. 35A से छेड़छाड़ किया जाता है, तो बाहरी लोग नौकरियों को हासिल
करेंगे और स्थानीय कार्यालयों में स्थानीय लोगों की भाषा को समझने वाला कोई नहीं
रहेगा।” उन्होंने इस बात
को दुष्प्रचार बतलाते
हुए ख़ारिज
किया कि राज्य की कोई महिला
राज्य के बाहर शादी
करती है,
तो इस धारा की वजह से वह राज्य
में संपत्ति का अधिकार
खो देगी।” नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और
भूतपूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला तो यहाँ तक कह चुके हैं कि “अगर 35A हटाया जाता है, तो राज्य में बड़ा विद्रोह होगा।” शायद यही कारण है कि राज्य
की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने चेतावनी भरे लहजे में कहा: “अगर राज्य के कानूनों
से छेड़छाड़ हुई तो कश्मीर में तिरंगा थामने वाला कोई नहीं होगा।”
समाधान और निष्कर्ष:
उपरोक्त तथ्यों
के आलोक में देखें, तो अनु. 35A का प्रश्न भारतीय
संविधान के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के विशिष्ट दर्जे के प्रश्न से सम्बद्ध
हो चुका है। आज अनु. 370 और जम्मू-कश्मीर को विशिष्ट दर्जे का प्रश्न बाबरी
मस्जिद-राम जन्म-भूमि एवं समान नागरिक संहिता(UCC) के साथ संबद्ध होता हुआ इस बात
का संकेत करने वाले बैरोमीटर में तब्दील हो चुका है कि यह भारत में अल्पसंख्यक
मुसलमान एवं उनके हित कितने सुरक्षित हैं। इस
प्रश्न पर दक्षिणपंथी राजनीति की सक्रियता और उसके द्वारा जम्मू-कश्मीर के
भीतर-बाहर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए इस मसले के इस्तेमाल
ने इस प्रश्न को कहीं अधिक जटिल बना दिया है, और वह भी ऐसे समय में जम्मू-कश्मीर के लोगों में अलगाव की भावना एक बार फिर से
जोर पकड़ रही है और उसकी स्थिति तेज़ी से बिगड़ती जा रही है। इसीलिए इस
मसले की संवेदनशीलता को देखते हुए यह सुनिश्चित
किया जाय कि अनु. 35 A और अनु. 370 पर कोई आँच न आये क्योंकि एक ओर यह उन शर्तों
का उल्लंघन और कश्मीरी आवाम के साथ धोखा होगा जिन शर्तों पर कश्मीर का भारत में
विलय हुआ था, दूसरी ओर इसके कारण कश्मीरियत भी खतरे में पड़ सकती है। स्पष्ट
है कि ऐसी स्थिति में अनु. 370 और अनु. 35 से कोई भी छेड़-छाड़ खतरनाक साबित हो सकता
है, चाहे यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के कारण ही क्यों न हो। शायद यही कारण है
कि अबतक सुप्रीम कोर्ट ने अनु. 370 और विशेष दर्जे के मसले पर उलझने से परहेज़ किया
है। कम-से-कम अभी तो इसके लिए स्थिति अनुकूल नहीं
ही है, इसीलिए इस प्रश्न को तबतक टाला जाना चाहिए जबतक स्थितियाँ अनुकूल नहीं हो
जातीं।
जहाँ तक अनु. 35A की असंवैधानिकता का प्रश्न है,
तो इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जो लोग राष्ट्रपतीय आदेश के जरिये
अनु. 35A के सृजन को आधार बनाकर इसकी संवैधानिकता को चुनौती दे रहे हैं और सुप्रीम
कोर्ट से इस असंवैधानिक घोषित किये जाने की माँग कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि
अनु. 370 को इसी राष्ट्रपतीय आदेश के जरिये संविधान में रहते हुए भी लगभग
निष्प्रभावी बना दिया गया और आज भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधान जम्मू-कश्मीर
पर लागू किये जा चुके हैं। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या वे उन तमाम
संशोधनों को असंवैधानिक मानने और जम्मू-कश्मीर के लोगों को अनु. 370 द्वारा
प्रदत्त अधिकारों को वापस करने के लिए चल रहे अभियान का समर्थन करते हैं।
लेकिन, किसी भी आधुनिक एवं सभ्य समाज में मानवाधिकार के प्रश्न की
भी लम्बे समय तक अनदेखी नहीं की जा सकती है, इसलिए इस प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ने
के बजाय इसका हल ढूँढा जाना चाहिए। चूँकि ये लोग कश्मीर में रच-बस गए
हैं और वहाँ के जीवन से अभिन्न हो चुके हैं, इसीलिए इनकी माँगों और इनके अधिकारों
के प्रश्न पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए इनके संरक्षण की दिशा में पहल की जाय
और यह पहल कश्मीरी आवाम एवं उनके नुमाइन्दों की ओर
से हो। इसके लिए वहाँ उपयुक्त माहौल सृजित
किये जायें और वहाँ की सिविल सोसाइटी एवं राजनीतिक नुमाइन्दों की मदद ली जाए। इस सन्दर्भ में एक अच्छी बात यह है
कि अभी केंद्र में भाजपा गठबंधन की सरकार है और राज्य में भी भाजपा पीडीपी के
नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में शामिल है। ऐसी स्थिति में एक संभावना यह बनती है कि
बिना अनु. 35A के साथ छेड़-छाड़ किये पाकिस्तान से आये इन शरणार्थियों और वाल्मीकि
समाजियों की समस्या का राजनीतिक समाधान ढूँढा जाय, ताकि इनके मानवाधिकार की
समस्याओं का हल भी मिल जाय और कश्मीरी आवाम तक इसका गलत सन्देश भी न जाय। लेकिन, यह प्रक्रिया पूरी तरह से आतंरिक होनी चाहिए
और इस दिशा में पहल वहाँ की सिविल सोसाइटी और राजनीतिक दलों के द्वारा की जाय।
अनु. 370 को इसी राष्ट्रपतीय आदेश के जरिये संविधान में रहते हुए भी लगभग निष्प्रभावी बना दिया गया और आज भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू किये जा चुके हैं
ReplyDeleteIf it is like that, then why everywhere it is mentioned that, central government policy is effective regarding defence, finance, communication and foreign affairs in J&K.
I think we should mention here that what other provisions are effective in J&K
Very interesting
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