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अप्रासंगिक गाँधी! अप्रासंगिक गाँधीवाद!
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"बापू! तुम तो मुझे याद करोगे नहीं और ऐसा कोई कारण नहीं कि मैं तुम्हें याद करूँ। फिर भी, जब इतने लोगों को याद करते देखा, तो मुझसे रहा नहीं गया। लेकिन, सोचा कि मैं कम-से-कम तुम्हें याद नहीं करूँगा, और चाहे जो कर लूँ। इसलिए मैंने ठान लिया कि मैं आज तुमसे मिले बिना नहीं रहूँगा।"
बस, फिर क्या था! ठान के निकल पड़ा बापू की खोज में। सुना था कि बापू, आधुनिक मशीनी सभ्यता के विरोधी थे। ये बातें अगर पूरी तरह से सच न भी हो, तो कम-से-कम ये तो सच है कि बापू अम्बानी-अडानी वाली मशीनी सभ्यता के घनघोर आलोचक थे जो श्रम की बजाय पूँजी पर आधारित हो। इसलिए निष्कर्ष निकाला कि बापू शहर में मिलने से तो रहे। इसलिए चल पड़ा गाँवों की ओर, क्योंकि बापू कहा करते थे कि "भारत की आत्मा गाँवों में रहती है(अगर रहती भी हो, तो यह बापू ही जानें)।" मेरे हिसाब से तो यह आजकल गुजरात में रहती है क्योंकि पूरे भारत पर गुजरात का भूत सिर चढ़कर बोल रहा है। लेकिन, मैंने भी यह ठान लिया कि बापू को गाँवों में ही ढ़ूँढ़ूँगा। पर, यात्रा तो आख़िर शहर से ही शुरू होनी थी। इसलिए बापू के जन्मदिन पर होनेवाली भीड़-भाड़ के मद्देनज़र दो दिन पहले ही घर (दिल्ली) से चल पड़ा गाँवों की ओर। घर से निकलते ही सबसे पहली चीज़ जो देखी, बापू के सपनों के भारत के लोग, क्या हिन्दू-क्या मुसलमान, सड़क पर तलवार, भाले और बर्छी के साथ घूम रहे हैं सर्वधर्मसमभाव का संदेश देते हुए, लेकिन इससे पहले कि मैं ख़ुश होता, एक आवाज़ सुनाई पड़ी: "एकोSहं द्वितीया नास्ति!" और, फिर यह आवाज़ गूँज में और गूँज अनुगूँज में तब्दील होती चली गई। मुझे लग गया कि बापू और उनकी अहिंसा के लिए कम-से-कम यहाँ जगह नहीं। फिर, मेरी नज़र पार्कों में गाँधी जयन्ती मनाते युवाओं पर पड़ी। देखा कि किस तरह सुधीर कक्कड़ ने गाँधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग को गली-मुहल्लों के इन युवाओं तक पहुँचा दिया है। बुझे मन से फिर बढ़ चला मैं आगे की ओर। सफ़ेद लिबास में मँडराते एक झुण्ड पर नजर पड़ी। तेज़ी से लपका मैं उस तरफ़, इस अपेक्षा के साथ कि शायद गाँधी यहीं कहीं मिल जायें क्योंकि वे भी तो स्वच्छता की बात करते थे। पर, करीब पहुँचकर निराशा हाथ लगी। न कहीं गाँधी दिखे और न ही उनकी आत्मा। हठात् दिनकर याद आये:
जिसका हृदय उतना मलिन, जितना कि शीर्ष वलक्ष है
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज पूरे देश की!
फिर, कुछ देर रूककर देखने पर माजरा समझ में आने लगा कि सफ़ेद कपड़े पहनने मात्र से कोई स्वच्छ नहीं हो जाता। वह बदन भी स्वच्छ होना चाहिए जिस पर सफ़ेद लिबास पड़ा है और बदन की स्वच्छता का मतलब है आत्मा की स्वच्छता। तभी नज़र पड़ी बैनर में मौजूद बापू के चश्मे पर, जिसके एक शीशे पर 'स्वच्छ' लिखा था और दूसरे पर 'भारत'! मतलब जो स्वच्छ था, वह भारत नहीं था और जो भारत था, वह स्वच्छ नहीं था।
ख़ैर, अपनी ऊर्जा समेटते हुए सोचा कि चला जाय 24, अकबर रोड। शायद गाँधी वहाँ मिल जायें। काँग्रेस से बड़ा पुराना याराना रहा है गाँधी का, पर वहाँ गाँधी के नाम पर कोई और ही बैठा था। फिर, याद आया कि अब तो बीजेपी नई काँग्रेस बन चुकी है। शायद गाँधी वहाँ मिल जायेँ। क्या पता गुजराती अध्यक्ष, गुजराती प्रदानमंत्री और बनिया संस्कृति का आकर्षण गाँधी को वहाँ खींच ले गया हो। पर, गांधी 11, अशोक रोड में भी नहीं मिले। अब मैं हिम्मत हारने लगा था। सोच लिया कि गाँधी की तलाश में अब ज्यादा नहीं भटकूँगा। अपनी यात्रा के अंतिम चरण में पहुँचा साबरमती आश्रम। वहाँ पहुँचकर देखा कि गाँधी की जगह उनके वेश में कोई और बैठा हुआ है। एक ओर नमो-नमो का जाप और दूसरी ओर खादी की डील करते कॉर्पोरेट। सोचा, अब गाँधी ही नहीं, गाँधी की खादी भी आम लोगों से दूर होने वाली है। अंत में, भटकता हुआ मैं पहुँचा गाँवों की ओर। पर, यह क्या? मैला आँचल के बावनदास की तड़पती हुई आत्मा ने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया और फिर यह आवाज़ सुनाई पड़ने लगी:" मेरीगंज में जुलूस हो रहा है। पूर्णियाँ में जुलूम हो रहा है। पूरे देश में जुलूम हो रहा है। भारतमाता जार-बेजार रो रही हैं। भारतमाता जार-बेजार रो रही हैं। फिर, आगे बढ़ने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी और गाँधी को कोसता मैं उलटे पाँव लौट पड़ा:"यही है तेरे सपनों का भारत!यही है तेरे सपनों का भारत!"
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अलविदा गाँधी! अलविदा शास्त्री! अलविदा गाँधीवाद!
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नहीं, नहीं, नहीं!
गाँधी तो मर चुके,
गाँधीवाद वेंटिलेटर पर है,
गाँधीवाद के बहाने गाँधी को हर पल मत मारो!
उसे मरने दो,
हाँ, उसे मरने दो।
वर्तमान पीढ़ी को गाँधी की ज़रूरत नहीं,
भावी पीढ़ी को भी नहीं ही होगी!
हमें न तो गाँधी की ज़रूरत है और
न ही ज़रूरत है गाँधीवाद की।
हम तो बदला लेने में विश्वास करते हैं,
नया भारत, मज़बूत भारत
पूरे विश्वास के साथ चीन बनने की राह पर अग्रसर।
गाँधी ने तो इसे भारत बनाना चाहा,
पर हमें चीन बनना है।
हाँ, हमें चीन बनना है,
भारत नहीं!
और, ध्यान रखना,
अगर चीन नहीं बन सका, तो
पाकिस्तान बनकर तो दिखाऊँगा ही।
अलविदा गाँधी!
अलविदा गाँधीवाद!
छब्बीस जनवरी,
तीस जनवरी,
पंद्रह अगस्त और
दो अक्टूबर को भी मत आना;
हाँ, मत आना, मत आना, मत आना;
हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है,
नहीं है, नहीं है, नहीं है!
जब गाँधी ही नहीं,
गाँधीवाद ही नहीं, तो
'गुदड़ी के लाल' की क्या ज़रूरत?
शास्त्री, तुम भी नहीं!
भाँड़ में जायें जवान,
भाँड़ में जायें किसान!
अप्रासंगिक गाँधी! अप्रासंगिक गाँधीवाद!
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"बापू! तुम तो मुझे याद करोगे नहीं और ऐसा कोई कारण नहीं कि मैं तुम्हें याद करूँ। फिर भी, जब इतने लोगों को याद करते देखा, तो मुझसे रहा नहीं गया। लेकिन, सोचा कि मैं कम-से-कम तुम्हें याद नहीं करूँगा, और चाहे जो कर लूँ। इसलिए मैंने ठान लिया कि मैं आज तुमसे मिले बिना नहीं रहूँगा।"
बस, फिर क्या था! ठान के निकल पड़ा बापू की खोज में। सुना था कि बापू, आधुनिक मशीनी सभ्यता के विरोधी थे। ये बातें अगर पूरी तरह से सच न भी हो, तो कम-से-कम ये तो सच है कि बापू अम्बानी-अडानी वाली मशीनी सभ्यता के घनघोर आलोचक थे जो श्रम की बजाय पूँजी पर आधारित हो। इसलिए निष्कर्ष निकाला कि बापू शहर में मिलने से तो रहे। इसलिए चल पड़ा गाँवों की ओर, क्योंकि बापू कहा करते थे कि "भारत की आत्मा गाँवों में रहती है(अगर रहती भी हो, तो यह बापू ही जानें)।" मेरे हिसाब से तो यह आजकल गुजरात में रहती है क्योंकि पूरे भारत पर गुजरात का भूत सिर चढ़कर बोल रहा है। लेकिन, मैंने भी यह ठान लिया कि बापू को गाँवों में ही ढ़ूँढ़ूँगा। पर, यात्रा तो आख़िर शहर से ही शुरू होनी थी। इसलिए बापू के जन्मदिन पर होनेवाली भीड़-भाड़ के मद्देनज़र दो दिन पहले ही घर (दिल्ली) से चल पड़ा गाँवों की ओर। घर से निकलते ही सबसे पहली चीज़ जो देखी, बापू के सपनों के भारत के लोग, क्या हिन्दू-क्या मुसलमान, सड़क पर तलवार, भाले और बर्छी के साथ घूम रहे हैं सर्वधर्मसमभाव का संदेश देते हुए, लेकिन इससे पहले कि मैं ख़ुश होता, एक आवाज़ सुनाई पड़ी: "एकोSहं द्वितीया नास्ति!" और, फिर यह आवाज़ गूँज में और गूँज अनुगूँज में तब्दील होती चली गई। मुझे लग गया कि बापू और उनकी अहिंसा के लिए कम-से-कम यहाँ जगह नहीं। फिर, मेरी नज़र पार्कों में गाँधी जयन्ती मनाते युवाओं पर पड़ी। देखा कि किस तरह सुधीर कक्कड़ ने गाँधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग को गली-मुहल्लों के इन युवाओं तक पहुँचा दिया है। बुझे मन से फिर बढ़ चला मैं आगे की ओर। सफ़ेद लिबास में मँडराते एक झुण्ड पर नजर पड़ी। तेज़ी से लपका मैं उस तरफ़, इस अपेक्षा के साथ कि शायद गाँधी यहीं कहीं मिल जायें क्योंकि वे भी तो स्वच्छता की बात करते थे। पर, करीब पहुँचकर निराशा हाथ लगी। न कहीं गाँधी दिखे और न ही उनकी आत्मा। हठात् दिनकर याद आये:
जिसका हृदय उतना मलिन, जितना कि शीर्ष वलक्ष है
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज पूरे देश की!
फिर, कुछ देर रूककर देखने पर माजरा समझ में आने लगा कि सफ़ेद कपड़े पहनने मात्र से कोई स्वच्छ नहीं हो जाता। वह बदन भी स्वच्छ होना चाहिए जिस पर सफ़ेद लिबास पड़ा है और बदन की स्वच्छता का मतलब है आत्मा की स्वच्छता। तभी नज़र पड़ी बैनर में मौजूद बापू के चश्मे पर, जिसके एक शीशे पर 'स्वच्छ' लिखा था और दूसरे पर 'भारत'! मतलब जो स्वच्छ था, वह भारत नहीं था और जो भारत था, वह स्वच्छ नहीं था।
ख़ैर, अपनी ऊर्जा समेटते हुए सोचा कि चला जाय 24, अकबर रोड। शायद गाँधी वहाँ मिल जायें। काँग्रेस से बड़ा पुराना याराना रहा है गाँधी का, पर वहाँ गाँधी के नाम पर कोई और ही बैठा था। फिर, याद आया कि अब तो बीजेपी नई काँग्रेस बन चुकी है। शायद गाँधी वहाँ मिल जायेँ। क्या पता गुजराती अध्यक्ष, गुजराती प्रदानमंत्री और बनिया संस्कृति का आकर्षण गाँधी को वहाँ खींच ले गया हो। पर, गांधी 11, अशोक रोड में भी नहीं मिले। अब मैं हिम्मत हारने लगा था। सोच लिया कि गाँधी की तलाश में अब ज्यादा नहीं भटकूँगा। अपनी यात्रा के अंतिम चरण में पहुँचा साबरमती आश्रम। वहाँ पहुँचकर देखा कि गाँधी की जगह उनके वेश में कोई और बैठा हुआ है। एक ओर नमो-नमो का जाप और दूसरी ओर खादी की डील करते कॉर्पोरेट। सोचा, अब गाँधी ही नहीं, गाँधी की खादी भी आम लोगों से दूर होने वाली है। अंत में, भटकता हुआ मैं पहुँचा गाँवों की ओर। पर, यह क्या? मैला आँचल के बावनदास की तड़पती हुई आत्मा ने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया और फिर यह आवाज़ सुनाई पड़ने लगी:" मेरीगंज में जुलूस हो रहा है। पूर्णियाँ में जुलूम हो रहा है। पूरे देश में जुलूम हो रहा है। भारतमाता जार-बेजार रो रही हैं। भारतमाता जार-बेजार रो रही हैं। फिर, आगे बढ़ने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी और गाँधी को कोसता मैं उलटे पाँव लौट पड़ा:"यही है तेरे सपनों का भारत!यही है तेरे सपनों का भारत!"
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अलविदा गाँधी! अलविदा शास्त्री! अलविदा गाँधीवाद!
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नहीं, नहीं, नहीं!
गाँधी तो मर चुके,
गाँधीवाद वेंटिलेटर पर है,
गाँधीवाद के बहाने गाँधी को हर पल मत मारो!
उसे मरने दो,
हाँ, उसे मरने दो।
वर्तमान पीढ़ी को गाँधी की ज़रूरत नहीं,
भावी पीढ़ी को भी नहीं ही होगी!
हमें न तो गाँधी की ज़रूरत है और
न ही ज़रूरत है गाँधीवाद की।
हम तो बदला लेने में विश्वास करते हैं,
नया भारत, मज़बूत भारत
पूरे विश्वास के साथ चीन बनने की राह पर अग्रसर।
गाँधी ने तो इसे भारत बनाना चाहा,
पर हमें चीन बनना है।
हाँ, हमें चीन बनना है,
भारत नहीं!
और, ध्यान रखना,
अगर चीन नहीं बन सका, तो
पाकिस्तान बनकर तो दिखाऊँगा ही।
अलविदा गाँधी!
अलविदा गाँधीवाद!
छब्बीस जनवरी,
तीस जनवरी,
पंद्रह अगस्त और
दो अक्टूबर को भी मत आना;
हाँ, मत आना, मत आना, मत आना;
हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है,
नहीं है, नहीं है, नहीं है!
जब गाँधी ही नहीं,
गाँधीवाद ही नहीं, तो
'गुदड़ी के लाल' की क्या ज़रूरत?
शास्त्री, तुम भी नहीं!
भाँड़ में जायें जवान,
भाँड़ में जायें किसान!
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