Tuesday, 3 October 2017

रोहिंग्या-समस्या पार्ट वन: शरणार्थियों के सन्दर्भ में भारतीय नीति के विशेष सन्दर्भ में

                  शरणार्थी समस्या और भारत 
दुनिया में लगभग 6.56 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें या तो जबरन उनके देश से निकाल दिया गया है या फिर ऐसी परिस्थितियाँ सृजित की गयी हैं कि उन्हें देश छोड़ देना पड़े। इनमें महज एक तिहाई लोगों अर्थात् लगभग 2.25 करोड़ लोगों को औपचारिक रूप से शरणार्थी माना गया है। इसके अलावा किसी भी प्रकार की राष्ट्रीयता से वंचित करीब एक करोड़ राष्ट्र-विहीन लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की बुनियादी सुविधाओं को हासिल करने के लिए तरस रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) की रिपोर्ट के अनुसार संघर्ष और उत्पीड़न के कारण हर मिनट औसतन 20 लोग अपने घरों से बेघर किए जा रहे हैं। बहुतेरे शरणार्थी विदेश नीति के नियम कायदों में उलझकर रह जाते हैं और संकीर्ण घरेलू राजनीति के चलते कई बार उन पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसके चलते भारत, नेपाल और श्रीलंका ने भारी संख्या में शरणार्थियों को शरण देने का जिम्मा उठाया है।

अवैध प्रवासियों और शरणार्थियों का फर्क:
ऐसे लोग, जो सामान्यतः आर्थिक बेहतरी के लिए बिना वैध दस्तावेज के एक देश से दूसरे देश जाते हैं, अवैध प्रवासी कहलाते हैंइससे भिन्न, जो लोग युद्ध या शत्रुतापूर्ण दमन एवं उत्पीड़न से बचने के लिए एक देश से दूसरे देश की ओर रूख करते हैं, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के तहत् रिफ्यूजी मानते हुए संरक्षण प्रदान किया गया है। ऐसे मामले में वैध दस्तावेजों का अभाव उन्हें रिफ्यूजी के दर्जे से वंचित नहीं करता है। स्पष्ट है कि अवैध घुसपैठिये और शरणार्थी में अंतर है। 
इस अंतर को बंगलादेशियों और रोहिंग्याओं के परिप्रेक्ष्य में बेहतर तरीके से समझा जा सकता हैजहाँ बंगलादेशी नागरिक अवैध घुसपैठिये हैं जो आर्थिक अवसरों की तलाश में बेहतर आजीविका हेतु भारत पहुँचे हैं, वहीं रोहिंग्याओं की स्थिति इनसे भिन्न है। रोहिंग्या मुसलमान स्वेच्छा से बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में भारत नहीं पहुँचे हैं, वरन् म्यांमार में राज्य, सेना और राज्य एवं सेना समर्थित बहुसंख्यक बौद्धों के द्वारा धार्मिक एवं नृजातीय आधार पर उनके साथ होनेवाले भेदभाव तथा दमन एवं उत्पीड़न ने उन्हें म्यांमार छोड़ने और भारत की शरण लेने के लिए विवश किया हैदूसरे शब्दों में कहें, तो अपनी जान-माल की चिंता ने उन्हें म्यांमार छोड़ने के लिए विवश किया है। इसीलिए तकनीकी रूप से वे शरणार्थी हों अथवा नहीं, पर व्यावहारिक रूप से वे शरणार्थी की श्रेणी में आते हैं।    

भारत में शरणार्थी-समस्या:
भारत के विशेष सन्दर्भ में देखा जाए, तो इसे आजाद होते ही शरणार्थी समस्या से जूझना पड़ा। सांप्रदायिक तनाव और विभाजन ने ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित की जिनमें अपनी जान बचने के लिए हिन्दुओं को पूर्वी एवं पश्चिमी पकिस्तान से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। उसके बाद 1950 के दशक में एक बार फिर से यह समस्या तब उत्पन्न हुई जब चीन के तिब्बत पर हमले के चीनी दमन एवं उत्पीड़न से बचने के लिए तिब्बतियों ने भारत में शरण ली जिसके कारण अबतक भारत-चीन द्विपक्षीय सम्बन्ध वापस पटरी पर नहीं आ पाया है। एक बार फिर से यह संकट 1970 के दशक के आरम्भ में गहराया जब चुनावी जीत के बावजूद शेख मुजीबुर्रहमान और पूर्वी पकिस्तान की जनता को सत्ता में भागीदारी से वंचित रखने के लिए पूर्वी पकिस्तान में पाकिस्तानी सेना ने भयंकर दमन-चक्र चलाया जिससे बचने के लिए वहाँ के लोगों को भारत की शरण लेनी पड़ी। शरणार्थियों की बढ़ती हुई संख्या एवं इसके कारण उत्पन्न दबाव ने भारत को हस्तक्षेप के लिए विवश किया और अंततः इसकी परिणति पृथक बांग्लादेश के रूप में स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के रूप में हुई। एक बार फिर से यह संकट 1980 के दशक में श्रीलंका में गहराते तमिल-सिंहली विवाद के कारण उत्पन्न हुआ जिसने भारत को 1987 में श्रीलंकाई तमिल-समस्या में हस्तक्षेप के लिए विवश किया और इसकी परिणति लिट्टे-भारत शत्रुता के रूप में हुई। समय-समय पर यह समस्या नेपाल की ओर से भी उठता रहा और अब म्यांमार की ओर से रोहिंग्या-समस्या के रूप में यह हमारे सामने है।
एक अनुमान के मुताबिक आजादी के बाद से अबतक पड़ोसी देशों से करीब चार करोड़ शरणार्थी भारत की सीमा लाँघ चुके हैं। UNHRC की रिपोर्ट के अनुसार अभी करीब दो लाख शरणार्थी भारत में रहते हैं, जिनमें सिर्फ 30 हजार शरणार्थी ही पंजीकृत हैं। यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि अनौपचारिक आकलन के मुताबिक भारत के विभिन्न हिस्सों में अवैध रूप से करीब ढ़ाई करोड़ बंगलादेशी रह रहे हैं जो न केवल देश में कानून एवं व्यवस्था, वरन् आतंरिक सुरक्षा के लिए भी चुनौती बने हुए हैं। वर्तमान में शरणार्थी समस्या रोहिंग्याओं के कारण एक बार फिर से चर्चा में है।

शरणार्थियों के सन्दर्भ में भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्व:
यद्यपि भारत ने अबतक शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र प्रसंविदा,1951 पर हस्ताक्षर नहीं किया है, तथापि इसने बहुत-सी मानवाधिकार संधियों पर हस्ताक्षर किया है जो किसी-न-किसी रूप में शरणार्थियों को संरक्षण प्रदान करता है। इसलिए इन प्रसंविदाओं के जरिये शरणार्थियों के सन्दर्भ में भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का निर्धारण होता है। सबसे पहले, भारत ने मानवाधिकारों पर सार्वभौम घोषणा(UDHR),1948 पर हस्ताक्षर किया है जो उत्पीड़न से बचने के लिए शरण प्राप्त करने के अधिकार की चर्चा मानवाधिकार के रूप में करता है। यह नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा(ICCPR),1966 का हस्ताक्षरकर्ता भी है जो बिना समुचित प्रक्रिया को अपनाये रिफ्यूजी के निष्कासन पर रोक लगाता है। इसी प्रकार भारत ने बच्चों के अधिकारों पर प्रसंविदा(CRC),1989 पर भी हस्ताक्षर किया है जो शरण प्राप्त करने के बच्चों के अधिकार को मान्यता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा(ICESCR); सभी प्रकार के नस्लीय विभेद-उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा(ICERD); और महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के विभेद-उन्मूलन पर प्रसंविदा(CEDAW) भी हस्ताक्षरकर्ता होने के कारण भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्व का निर्धारण करते हैं। स्पष्ट है कि ये सारे प्रसंविदायें प्रत्यक्षतः या परोक्षतः शरण लेने के अधिकार को मान्यता प्रदान करती हैं, शरणार्थियों को संरक्षण प्रदान करती हैं और उन्हें जबरन वापस भेजने की संभावनाओं का निषेध करती हैं। लेकिन, इसे जमीनी धरातल पर उतारने के लिए स्थानीय स्तर पर विधायी पहल की ज़रुरत थी जो अबतक संभव नहीं हो पाया है। इतना ही नहीं, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय संविधान का अनु. 21 भारतीय नागरिकों के साथ-साथ विदेशियों को भी प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है और राज्य से सभी के लिए सुरक्षित जीवन सुनिश्चित करने की अपेक्षा करता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी खुदीराम चकमा बनाम् अरुणाचल प्रदेश राज्य वाद और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम् अरुणाचल प्रदेश राज्य वाद में शरणार्थी सुरक्षा के महत्व पर जोर देते हुए व्यवस्था दी कि चकमा शरणार्थियों को मार दिए जाने या भेदभाव की संभावना को देखते हुए प्रत्यावर्तित नहीं किया जा सकता।
भारत की शरणार्थी नीति:
भारतीय कानून ‘रिफ्यूजी’ शब्द के उल्लेख से परहेज करता है, लेकिन तिब्बतियों और तमिलों शरणार्थियों के मसलों के साथ-साथ कार्यपालिका के आदेशों से इस बात का संकेत मिलता है कि सरकार इन्हें शरण-योग्य समूह के रूप में देखती है भारत शरणार्थियों की पहचान एवं पंजीकरण का समर्थन करता है और समय-समय पर इसने शरणार्थियों के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित करने साथ मानवीय रूख अपनाते हुए इन्हें शरण भी दी है। यह शरणार्थियों की पहचान और पंजीकरण का समर्थन तो करता है, लेकिन यह शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र प्रसंविदा,1951 पर हस्ताक्षर से इन्कार करता रहा है। इस मसले पर अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं को स्वीकारने से परहेज करते हुए भी इसने विदेशी अधिनियम एवं पासपोर्ट अधिनियम जैसे घरेलू कानूनों से छूट देते हुए उत्पीड़ित समुदाय के लोगों को शरण लेने की अनुमति दी है। 2012 में भारत की शरणार्थी नीति में परिवर्तन आया और इसने रोहिंग्या सहित उन लोगों के लिए लॉन्ग-टर्म वीजा जारी करना शुरू किया जिसे इसने खुद या रिफ्यूजियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त(UNHCR) ने रिफ्यूजी का दर्ज़ा दे रखा है 
शरणार्थियों की वापसी के सन्दर्भ में वैधानिक स्थिति:
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत प्रिन्सपुल ऑफ़ रिफ़ाउलमेंट (Principle of Non-Refoulement), जो अंतर्राष्ट्रीय रिफ्यूजी कानून की आधारशिला है, से बंधा हुआ है जो रिफ्यूजी को जबरन ऐसे देश भेजे जाने से संरक्षण प्रदान करता है जहाँ उसे उत्पीड़न का शिकार होना पड़ सकता है; लेकिन यह सिद्धांत भारत पर इसलिए लागू नहीं होता है कि इसने संयुक्त राष्ट्र रिफ्यूजी कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है लेकिन, व्यावहारिक धरातल पर शरणार्थियों से सम्बंधित इस मान्यता की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता है UNHCR की कार्यकारी समिति के सदस्य के रूप में भारत ने इसके प्रति निरंतर अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की हैयहाँ तक कि हाल में जुलाई,2017 में पहले ‘रिफ्यूजी पर वैश्विक प्रभाव की ओर विमर्श’ के क्रम में भी भारत ने सदस्य देशों से रिफ्यूजी कन्वेंशन को पुनर्परिभाषित करने और प्रिन्सपुल ऑफ़ रिफ़ाउलमेंट (Principle of Non-Refoulement) को डायल्यूट करने से बचने की सलाह दी। इसीलिए भारत का यह तर्क स्वतः कमजोर पड़ जाता है कि उसने अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है।
जहाँ तक शरणार्थियों के प्रत्यार्पण या उनकी जबरन वापसी का प्रश्न है, भारतीय शरणार्थी कानून सरकार को प्रत्यावर्तन का सीमित अधिकार देता है। विदेशी अधिनियम, 1946 के जरिए अवैध घुसपैठियों से निपटनेके लिए कठोर प्रावधान किये गए हैं। इसके तहत् किसी भी अपंजीकृत शरणार्थी को राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन, भारत सार्क एडिशनल टेररिज्म प्रोटोकॉल(SATP) के आर्टिकल 17 पर सहमत है जिसमें कहा गया है कि कोई भी सदस्य देश किसी ऐसे शरणार्थी को प्रत्यावर्तित नहीं करेगा जिस पर उसकी जाति, समुदाय, धर्म या राष्ट्रीयता के आधार पर मुकदमा चलाया जा रहा है, या सजा दी जा रही है।
अबतक के भारतीय अनुभव:
स्पष्ट है कि अगर राज्य के पास समुचित कारण मौजूद है और उसे लगता है कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है, तो वैसी स्थिति में रिफ्यूजी की मर्जी के विरुद्ध भी उन्हें प्रत्यर्पित किया जा सकता है, या वापस भेजा जा सकता है लेकिन, इस सन्दर्भ में वर्तमान भारतीय कानून वापसी की प्रक्रिया निर्धारित नहीं करता है। विदेशी अधिनियम,1946 केंद्र सरकार को विदेशियों को वापस भेजने के लिए अधिकृत करता है और इस अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत केंद्र सरकार विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय को अपनी शक्तियाँ हस्तांतरित कर सकता है। व्यवहार में श्रीलंकाई रिफ्यूजियों के मामले में सरकार ने स्वैच्छिक प्रत्यार्पण के सिद्धांत को अपनाया था और UNHCR को इस बात की जाँच-पड़ताल की अनुमति दी कि प्रत्येक व्यक्ति के साक्षात्कार के जरिये वह स्वैच्छिक प्रत्यार्पण के संदर्भ में आश्वस्त हो सके और यह सुनिश्चित कर सके कि वे स्वेच्छा से वापस जा रहे हैं, न कि दबाव में। जहाँ तक भारत में रह रहे शरणार्थियों से राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे और इसे सुनिश्चित करने का प्रश्न है, तो श्रीलंकाई रिफ्यूजी के मामल में भारत ने एक स्क्रीनिंग मैकेनिज्म विकसित किया था ताकि उन लोगों की पहचान की जा सके जिनके लिट्टे के साथ सम्बन्ध थे या फिर जिनका आपराधिक रिकॉर्ड रहा था और उन्हें विशेष कैंप में रखा गया था ताकि उनकी बेहतर निगरानी सुनिश्चित की जा सके। अफ़ग़ानिस्तान या इराक जैसे अन्य देशों के रिफ्यूजी के सन्दर्भ में नियमित तौर पर पुलिस-सत्यापन की प्रक्रिया अपनाई गयी है। स्पष्ट है कि शरणार्थियों के सन्दर्भ में भारत ने अबतक संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हुए मानवीय रवैया अपनाया है। साथ ही इस बात को भी सुनिश्चित किया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा इससे किसी भी रूप में प्रतिकूलतः प्रभावित न हो।
रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति भारत का रूख:
भारत सरकार ने अगस्त,2017 में संसद को यह सूचित किया कि वर्तमान में भारत के विभिन्न हिस्सों में करीब 40 हज़ार रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। सरकार के अनुसार मौजूदा आँकड़ों के हिसाब से भारत में अभी 14 हजार रोहिंग्या हैं, जो UNHRC से रजिस्टर्ड हैं। मार्च,2017 में शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ने यह अनुमान लगाया कि भारत में लगभग 14 हज़ार रोहिंग्या शरणार्थी मौजूद हैं, जिनमें से अधिकांश 2012 में फैले सांप्रदायिक दंगे की पृष्ठभूमि में सुरक्षाबलों और बौद्ध अतिवादियों के अत्याचारों से जान बचाकर समुद्री रास्ते, बांग्लादेश की सीमा और भारत-म्यांमार सीमा से घुसपैठ कर भारत पहुँचे हैं। इनमें  सबसे ज्यादा लगभग 10,000 रोहिंग्या शरणार्थी जम्मू कश्मीर में रह रहे हैं।
भारत सरकार इन्हें अवैध घुसपैठिये के रूप में देखती है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा इन्हें शरणार्थी बताये जाने पर उसे आपत्ति है। उसने इन रोहिंग्या शरणार्थियों को देश से बाहर निकालने और वापस म्यांमार भेजने का फ़ैसला किया है जो पिछले कई सालों से यहाँ शरण लिए हुए हैं। रिपोर्ट में यह कहा गया है कि सरकार गृह मंत्रालय फॉरेनर्स एक्ट के तहत इन्हें वापस भेजेगी, जिसकी रणनीति और रूपरेखा केंद्रीय गृह मंत्रालय के सचिव राजीव महर्षि की अध्यक्षता में तैयार की जा चुकी है। जुलाई,2017 में केंद्र ने राज्य सरकारों से इन अवैध अप्रवासियों की पहचान और उन्हें वापस म्यांमार भेजने के लिए जिला स्तर पर टास्क फोर्स के गठन के निर्देश भी दिए हैं।
यह फैसला ऐसे समय में लिया गया है जब म्यांमार से हज़ारों रोहिंग्या मुसलमान म्यांमारी सेना के द्वारा धार्मिक एवं नृजातीय आधार पर की गयी शत्रुतापूर्ण कार्रवाई से अपनी जान बचाकर बांग्लादेश सीमा की ओर भाग रहे हैं इतना ही नहीं, उसने रोहिंग्या विद्रोहियों के ख़िलाफ़ म्यांमार-सुरक्षाबलों की कार्रवाई का भी समर्थन किया हैयहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि भारत को कुछ हज़ार रोहिंग्या शरणार्थियों से ही दिक्कत क्यों है, जबकि म्यांमार में सैन्य-तंत्र के द्वारा लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को कुचलने के लिए की गयी कार्रवाई के दौरान दमन एवं उत्पीड़न से बचने के लिए वहाँ के हज़ारों नागरिकों और राजनीतिक नेताओं ने भारत में शरण ली थी बौद्ध धार्मिक गुरू दलाई लामा सहित हजारों तिब्बती शरणार्थी हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तरांचल में कई दशकों से रह रहे हैं भूटानी और नेपाली नागरिकों के लिए भारत के दरवाज़े खुले हैं लाखों नेपाली नागरिक भारत में रहते हैं और यहाँ काम करते हैं श्रीलंकाई गृहयुद्ध के दौरान लाखों तमिलों ने भारत में शरण ली थी

सुप्रीम कोर्ट और रोहिंग्या-समस्या:
सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध दो रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करते हुए उससे इस मामले में हस्तक्षेप करने और उन्हें वापस भेजने से सरकार को रोकने की अपील की है। याचिका में केंद्र सरकार की उस अधिसूचना को चुनौती दी गई है जिसमें सभी रोहिंग्याओं की पहचान करके उन्हें म्यांमार भेजने का आदेश दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी जनहित याचिका, जिस पर अब तीन अक्टूबर को विचार किया जाना है, के साथ पश्चिम बंगाल राज्य बाल-अधिकार संरक्षण आयोग की उस याचिका को भी सम्बद्ध कर दिया जिसमें यह तर्क दिया गया कि:
1.  भारत सरकार का यह कदम बिना किसी विभेद के सभी रोहिंग्या शरणार्थियों को संदेह के आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताता है और उनके आतंकी संगठनों से सम्बन्ध की बात करता है।
2.  म्यांमार में रोहिंग्याओं को सुनियोजित तरीके से यातना दी जा रही है और मारा जा रहा है। ऐसी स्थिति में उनकी वापसी उनके जीवन को खतरे में डालेगी। इनका कहना है कि इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी उन्हें दुनिया का सर्वाधिक उत्पीड़ित समुदाय बताया है।
3.  सरकार का यह कदम भारतीय संविधान के अनु. 21 के तहत् नागरिकों और विदेशियों, दोनों को बिना किसी विभेद के प्रदत्त जीवन के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन है। इसीलिए अनु. 32 के तहत् इन्होंने सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकारों के संरक्षण की अपील की।  
4.  याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि वे शरणार्थियों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी UNHCR के पास शरणार्थी के तौर पर 2016 में पंजीकृत हुए थे और उन्हें शरणार्थी पहचान-पत्र भी दिया गया है। इसलिए सरकार का यह कदम इस सन्दर्भ में उसके अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों की भी उपेक्षा करता है क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय संधियों का भी उल्लंघन होगा।

सरकार का पक्ष:


सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के आलोक में दायर हलफनामे में सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए अपने इस निर्णय का बचाव कियाअपने पक्ष में सरकार ने निम्न तर्क दिए:

1.  सरकार का मानना है कि मानवाधिकार का हवाला देकर अवैध प्रवासियों को रिफ्यूजी बनाने की गलती नहीं की जानी चाहिए क्योंकि रिफ्यूजी स्टेटस प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है और इन लोगों ने यह प्रक्रिया पूरी नहीं की है। उन्होंने कहा, “रोहिंग्या शरणार्थी नहीं हैं। न ही उन्होंने शरण के लिए आवेदन किया है और न ही वे उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद यहाँ ये हैं। इसीलिए वे अवैध प्रवासी हैं।”

2.  शरणार्थियों को जबरन वापस न भेजे जाने का सिद्धांत उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने वैधानिक प्रक्रिया के तहत् भारत में शरण ले रखा है यहाँ तक कि जो अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा किसी देश के द्वारा शरणार्थियों को जबरन वापस भेजे जाने के निर्णय के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है, वह अनुल्लंघनीय नहीं है। उसमें भी राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र अपवाद मौज़ूद हैं 
3.  सरकार का यह भी कहना है कि भारत रोहिंग्याओं को प्रत्यर्पित कर किसी भी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं करेगा क्योंकि उसने शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र संधि,1951 और शरणार्थियों के दर्जे से संबंधित प्रोटोकाल,1967 पर भारत के द्वारा हस्ताक्षर नहीं किया हैइन्हें वापस भेजने पर प्रतिबंध संबंधी प्रावधान की जिम्मेदारी 1951 की संधि के तहत् आती है। यह जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं देशों के लिए बाध्यकारी है जो इस संधि के पक्षकार हैं। इसीलिए याचिकाकर्ता इन अंतर्राष्ट्रीय संधियों और प्रोटोकॉल का सहारा नहीं ले सकते हैं।
4.  गृह मंत्रालय ने शीर्ष अदालत में दायर अपने हलफनामे में रोहिंग्याओं को गैर-कानूनी शरणार्थी बताते हुए आरोप लगाया कि इनसे राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर ख़तरा है क्योंकि सरकार को रोहिंग्या शरणार्थियों के पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों और इस्लामिक स्टेट्स से संपर्क के सन्दर्भ में पुख्ता सूचना मिली है जिसे सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उसके समक्ष कभी भी उपलब्ध कराया जा सकता है इसीलिए भारत में उनकी मौजूदगी राष्ट्र की सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा है।
5.  हलफनामे में सरकार का यह भी कहना है कि देश के किसी भी हिस्से मे रहने और बसने का मौलिक अधिकार विदेशियों (रोहिंग्याओं) को नहीं, बल्कि सिर्फ नागरिकों को प्राप्त हैं। सरकार का मानना है कि गैर-कानूनी शरणार्थी इस अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
6.  अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि पड़ोसी देशों से अवैध शरणार्थियों के भारी प्रवाह के कारण कुछ सीमावर्ती राज्यों की जनसांख्यिकी में गंभीर बदलाव आये हैं और स्थानीय स्तर पर देश के नागरिकों के लिए न केवल संसाधनों एवं बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता प्रभावित हुई है, वरन् स्थानीय स्तर पर सामाजिक-सांस्कृतिक टकराव भी बढ़ा है।
7.  केंद्र सरकार ने सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय से रोहिंग्या मुद्दे पर हस्तक्षेप करने का आग्रह करते हुए कहा कि उन्हें प्रत्यर्पित करने का निर्णय सरकार का नीतिगत फैसला है।
8.  साथ ही, हर देश की तरह भारत का भी यह अधिकार बनता है कि वह अपनी विदेश, सुरक्षा और जनसंख्या नीति के मुद्दे पर खुद फैसला करे।

सरकार के इस रुख की आलोचना:

मानवाधिकार संगठनों और सिविल सोसाइटी से जुड़े एक्टिविस्टों ने भारत में मौजूद रोहिंग्या शरणार्थियों को निर्वासित करने के फैसले को अमानवीय बताते हुए उसकी आलोचना की है। इनका कहना है कि यह भारतीय विदेश नीति के बुनियादी तत्वों से प्रस्थान है क्योंकि अबतक की सरकारों ने शरणार्थियों के सन्दर्भ में बुनियादी मानवीय सरोकारों और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच तालमेल स्थापित करते हुए संतुलन को सुनिश्चित किया है, लेकिन वर्तमान सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर अपने बुनियादी मानवीय दायित्वों से परहेज कर रही है और अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने की कोशिश कर रही है। इनके अनुसार सरकार के इस फैसले से पता चलता है कि भारत में जातीय विद्वेष और धार्मिक घृणा की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं। यद्यपि सरकार ने रोहिंग्याओं के प्रत्यार्पण के सन्दर्भ में समुचित प्रक्रिया के अनुपालन के संकेत दिए, लेकिन ‘वह प्रक्रिया क्या होगी’ इस सन्दर्भ में अस्पष्टता की स्थिति है।      
वर्तमान सरकार की रोहिंग्या-नीति को उसके हिन्दुत्ववादी एजेंडे से जोड़कर देखा जा रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भी असम में सत्तारूढ़ दल के नेतृत्व ने ऐसे ही रूख को अपनाते हुए स्पष्ट किया था कि वे केवल हिंदू शरणार्थियों को देश में आने देंगे। गैर-हिन्दू शरणार्थियों को किसी भी कीमत पर न तो भारत आने दिया जाएगा और न ही उन्हें भारत में शरण दिया जाएगा। जो गैर-हिन्दू शरणार्थी पहले से भारत में मौजूद हैं, उन्हें यहाँ से निकाल दिया जाएगा। इसीलिए रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में मौजूदा सरकार की नीति कोई हैरत की बात नहीं है।
शरणार्थी कानून समय की माँग:
भारत में शरणार्थियों के सन्दर्भ में किसी निश्चित व्यवस्था का अभाव है जिसके कारण अबतक इस मसले पर अलग-अलग विचार होता आया है, लेकिन रोहिंग्या शरणार्थियों के मसले ने एक बार फिर से राष्ट्रीय शरणार्थी नीति की आवश्यकता का अहसास करवाया है। इसकी आवश्यकता तब और बढ़ जाती है जब राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित मसले संकीर्ण नजरिये से देखे जाने लगें और राष्ट्रहित एवं राष्ट्रीय-सुरक्षा को भी भावनात्मक मुद्दों में तब्दील कर जनता को आलोड़ित किया जाने लगे। इसलिए आज भारत को ऐसी राष्ट्रीय शरणार्थी नीति की आवश्यकता है जो उत्पीड़न से भागने वाले और गरीबी से भागने वाले शरणार्थी के बीच अंतर कर सके। ऐसा कानून शरणार्थी दर्जा देने की एक न्यायसंगत औपचारिक प्रक्रिया तय करेगा (शरणार्थियों पर दक्षिण एशिया घोषणा, ईपीजी, 2004), और किसी (युद्ध अपराधी, गंभीर अपराध के दोषी) का शरणार्थी दर्जा खत्म करने को भी परिभाषित करेगा। सरकारी संस्थाओं को विकट स्थिति में डालने वाले बड़े पलायन (बांग्लादेश, 1971) जैसे हालात में जब तक प्रत्यावर्तन सामाजिक रूप से मुमकिन ना हो, व्यक्तियों की स्थिति स्पष्ट किए बिना भी रहने की अनुमति दी जा सकती है।

विश्लेषण:

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में देखें, तो कहा जा सकता है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रश्न के मानवीय एवं सामरिक निहितार्थ को ध्यान में रखते हुए अपेक्षाकृत अधिक सावधानी बरते जाने की ज़रुरत है आवश्यकता इस बात की है कि भारत सरकार इस मुद्दे की संवेदनशीलता को समझते हुए अपेक्षाकृत अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाये और अबतक के अनुभव का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा एवं मानवीय नज़रिए के बीच सामंजस्य स्थापित करे यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस निर्णय से भारत-बांग्लादेश और भारत-म्यांमार द्विपक्षीय सम्बन्धों के प्रभावित होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। साथ ही, इस निर्णय के भारत के आतंरिक परिदृश्य के साथ-साथ दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के सन्दर्भ में क्षेत्रीय सामरिक निहितार्थ भी हैं और इससे हिन्द महासागर के सामरिक संतुलन पर भी असर पर सकता है अबतक भारत ने शरणार्थियों के मसले पर जो तदर्थवादी (Adhoc) नजरिया अपनाया है, रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या ने उसकी सीमायें सामने ला दी हैं और इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी हो चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों से लेकर बंगलादेश तक इस सन्दर्भ में अपनी नाराज़गी प्रदर्शित कर चुके हैं यह नाराज़गी तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वैह्विक महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाला भारत अपनी क्षेत्रीय जिम्मेवारियों से बचने की कोशिश कर रहा है और संकीर्णतावादी नज़रिए को अपनाकर अपनी सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी के एक महत्वपूर्ण उपकरण मानवीय चेहरे के साथ समझौता कर रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सारे रोहिंग्याओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बतलाने की बजाय केस-दर-केस इस मामले में निर्णय ले और इसके लिए प्रभावी स्क्रीनिंग मैकेनिज्म का विकास किया जाय। इतना ही नहीं, इस मसले ने सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट को शरणार्थियों के सन्दर्भ वैधानिक शून्य, इसको लेकर कार्यपालिका का तदर्थवादी(Approach) नजरिया और अंतर्राष्ट्रीय संधियों के तहत् बाध्यताओं के बीच के अंतराल को भरते हुए इनके बीच सामंजस्य कायम करने का अवसर उपलब्ध करवाया है



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