नकदी-रहित
अर्थव्यवस्था (Cashless Economy)
भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी की भूमिका:
भारतीय अर्थव्यवस्था की नकदी पर
निर्भरता कहीं ज्यादा है. वर्तमान में भारतीय
अर्थव्यवस्था में 86% लेन-देन नकद होते हैं, विशेष रूप से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था,
जिसका जीडीपी में योगदान 67% एवं श्रम-बाज़ार में योगदान (85-90) प्रतिशत के बीच है
और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जो नकदी पर ही आधारित है. भारतीय जीडीपी में
ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान करीब-करीब 37% के स्तर पर है, जबकि आज भी भारत की
आधी से अधिक आबादी गाँवों में रहती है. और, इससे भी कहीं अधिक, ग्रामीण
अर्थव्यवस्था आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार (Backbone) के रूप में काम करती
है. इतना ही नहीं, लगभग 85% लोगों को मजदूरी नकद
रूप में मिलती है. यह सब इस बात को साबित करता है कि भारत की अर्थव्यवस्था
नकद पर किस प्रकार से निर्भर है।
यही कारण है कि भारत में कैश-जीडीपी अनुपात विकसित देशों के साथ-साथ इसके समकक्ष अन्य उभर
रही अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत ज्यादा है। वर्तमान में भारत में नकदी-जीडीपी
अनुपात करीब 11.8% प्रतिशत है।
यह अमेरिका, ब्रिटेन तथा यूरो क्षेत्र समेत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के
मुकाबले कहीं अधिक हैं। यहाँ तक कि एक और उभरती अर्थव्यवस्था इंडानेशिया में यह
अनुपात केवल 5% है। बड़े देशों में एक जापान ही है जहाँ यह भारत से कहीं अधिक 20.7% के स्तर पर है. जहाँ अमरीका में यह 7.9% के स्तर
पर है, वहीं यूरो ज़ोन में जीडीपी का 10.63%. जर्मनी की जीडीपी में नकदी का अनुपात 8.7% है, जबकि फ्रांस
में यह 9.4% है. चीन में यह 9.47% के स्तर पर है, तो दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन एवं इंग्लैंड जैसे देशों में (2-4)% के बीच। ध्यातव्य है कि
नकद-जीडीपी अनुपात से यह पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में कितनी नकद राशि का उपयोग
हो रहा है।
नकदी पर अति-निर्भरता के कारण:
अक्टूबर 2016 में जारी डिजिटल भुगतान पर वीजा
रिपोर्ट में नकदी की उच्च लागत को भारतीय अर्थव्यवस्था के
लिए बोझ बतलाते हुए कहा गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी का भारी मात्रा
में प्रवाह है और इसका कारण है लोगों का नकदी के प्रति प्रबल आकर्षण. इसी आकर्षण
के कारण भारतीयों के द्वारा बचत भी नकदी के रूप में की जाती है और उसका इस्तेमाल
भी नकदी के रूप में ही किया जाता है. नकदी का यह प्रयोग उन्हें टैक्स-नेटवर्क से
बाहर रखने में भी सहायक है क्योंकि नकदी लेन-देन की स्थिति में निगरानी मुश्किल हो
जाती है. इसके लिए बहुत हद तक औपचारिक वित्तीय व्यवस्था की सीमित पहुँच और उसके जरिये
वित्तीय लेन-देन की जटिलता भी जिम्मेवार
है. रिपोर्ट ने विशाल
समानांतर एवं प्रेषण-आधारित अर्थव्यवस्था(Remittances-Based
Economy), स्वीकृति
के बुनियादी ढांचे की उच्च लागत और विनियामकीय
सीमाओं को भी इसके लिए जिम्मेवार माना है. इसके अतिरिक्त वित्तीय साक्षरता पर फोकस का
अभाव एवं वित्तीय
साक्षरता के प्रति भारतीयों की उदासीनता के साथ-साथ नवोन्मेष-प्रतिरोधी
परंपरागत मानसिकता भी इसके लिए कहीं कम जिम्मेवार नहीं है. इसी
प्रकार भारत में भुगतान
के सन्दर्भ में लैंगिक असंतुलनकी स्थिति भी मौजूद है और उसकी अपनी
सीमायें हैं. इन सबने मिलकर भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी पर अतिशय निर्भरता की
स्थिति को जन्म दिया है. इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि 2015 में भारत में प्रति व्यक्ति डिजिटल भुगतान 10 के स्तर पर था,
जबकि ब्राज़ील में 163, दक्षिण कोरिया में 420 एवं स्वीडन में 429. यही कारण है किभारत में 75 लाख करोड़ के वर्तमान उपभोक्ता व्यय का
महज 5% डिजिटल भुगतान के जरिये संपन्न होता है. इसने नकदी-लागत को जीडीपी के 1.7% के उच्च स्तर पर बनाये रखा है.
नोटबंदी
और कैशलेस इकोनॉमी:
नोटबंदी से
उम्मीद की जा रही है कि यह भारतीय अर्थव्यवस्था के नकदी-रहित अर्थव्यवस्था की ओर प्रस्थान
को सुनिश्चित करेगा. यह ऐसे माहौल का निर्माण करेगा जो नकदी पर निर्भरता कम करता
हुआ लोगों को लेन-देन के नकदी-रहित विकल्पों की ओर उन्मुख करेगा। अब तो यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि नोटबंदी का वास्तविक उद्देश्य न
तो कालेधन की समस्या से निबटना है और न ही नकली नोटों एवं आतंकी गतिविधियों के
वित्तीयन की समस्या से. इसका वास्तविक और
मुख्य उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को डिजिटल अर्थव्यवस्था की ओर ले जाना है.
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि नोटबंदी के प्रश्न पर चारों तरफ से घिरती जा
रही सरकार ने अपना स्वर बदल कर अपनी ऊर्जा डिजिटल भुगतान पर फोकस करनी शुरू कर दी
है, इसीलिए अब लगातार कैशलेस इकोनॉमी की बात की जा रही है. कैशलेस इकोनॉमी भले ही
मुहावरे में अब ढला हो, पर इस दिशा में पहल पहले ही शुरू हो चुकी थी.
भारत लेस-कैश अर्थव्यवस्था की ओर
1980 के दशक में यह महसूस किया जाने लगा कि अगर बैंक-ग्राहकों को कई
प्रकार की समस्याओं से बचाना है, तो बैंकों पर से काम के बोझ को कम करना होगा और
इसके लिए आवश्यक है कि देश भर में त्वरित फण्ड-ट्रान्सफर की सुविधा उपलब्ध करवाई
जाय. उस दौर में चेक, डिमांड ड्राफ्ट या अन्य पेपर आधारित सुविधाओं का इस्तेमाल
किया जाता था जिसका मैन्युअल क्लीयरेंस होता था और इसमें एक सप्ताह से कहीं अधिक
समय लग जाता था.
इसी आलोक में 1982 में रिज़र्व बैंक ने मैगनेटिक इंक कैरेक्टर रिकॉग्निशन(MICR)
तकनीक को अपनाया गया जिससे एक
विशिष्ट फॉर्मेट में चेक को पढना एवं उसका क्लीयरेंस संभव हो सका. कंप्यूटर
मार्किंग के कारण यह प्रक्रिया आसान हुई और इसे इलेक्ट्रॉनिक भुगतान-व्यवस्था की
दिशा में पहले कदम के रूप में देखा जा सकता है. फिर बैंकिंग व्यवस्था के
कम्प्यूटरीकरण की दिशा में पहल की गयी.
फिर 1980 के दशक के मध्य में रिज़र्व बैंक के
तत्कालीन डिप्टी-गवर्नर सी. रंगराजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञ दल ने ऑटोमेटेड
टेलर मशीन(ATM) के जरिये कैश-डिलीवरी का सुझाव दिया. रिज़र्व बैंक ने इस दिशा में
चरणबद्ध तरीके से बढ़ने का निर्णय लिया. इसी आलोक में पहले अन्तःबैंक ई-अंतरण की दिशा में पहल
की गयी और क्लीयरिंग हाउस के प्रचालन को सम्बद्ध करने का प्रयास किया गया. बैंकों
के बीच फण्डों के अंतरण हेतु सुविधा-प्रदायन के लिए बैंकनेट (BANKNET) की दिशा
में पहल की गयी एवं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संदेशों के आदान-प्रदान के लिए स्विफ्ट व्यवस्था(Society for
Worldwide Interbank Financial Telecommunication) की शुरुआत की
गयी. इसी समय सी. रंगराजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञ दल ने कारोबारी समूहों के बीच
व्यापक रूप से स्वीकार्य ‘सभी बैंकों के लिए एकल क्रेडिट कार्ड’ व्यवस्था का सुझाव
दिया ताकि बेंकों पर चेक क्लीयरेंस के दबाव एवं नकदी की मांग को कम किया जा सके.
फिर, 1990 के दशक के मध्य में निजी बैंकों द्वारा एटीएम की दिशा में पहल की गयी
जिन्होंने बैंक शाखाओं की सीमितता के मद्देनज़र नए उत्पादों और ग्राहकों तक बेहतर
एवं आसान पहुँच सुनिश्चित करने के लिए तकनीक में निवेश को प्राथमिकता दी. इसी समय
रिज़र्व बैंक ने ई-ट्रान्सफर
की व्यवस्था शुरू की. 1992 के प्रतिभूति घोटाले के बाद
प्रतिभूतियों के लेन-देन के निपटारे के लिए डिलीवरी वर्सेस पेमेंट (DVP) व्यवस्था की
दिशा में पहल की. 1998-99 में विशेष रूप से किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड
इन्ट्रोड्यूस किया गया. कहा जाता है कि इसके जरिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था में
नकदी-रहित लेन-देन को प्रोत्साहित करने की भी कोशिश की गई, लेकिन इसका उद्देश्य
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नकदी-रहित लेन-देन को प्रोत्साहित करने के बजाय किसानों
की क्रयक्षमता में वृद्धि के लिए आसान
शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराना था ताकि वे किसानी से सम्बंधित अपनी ज़रुरटन को पूरा कर
सकें.
आगे रिज़र्व बैंक ने वी-सैट का इस्तेमाल करते हुए इलेक्ट्रॉनिक-लिंक्ड
बैंकों का नेटवर्क तैयार किया और इसी की पृष्ठभूमि में रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट (RTGS) और नेशनल
इलेक्ट्रॉनिक फण्ड ट्रान्सफर (NEFT) की दिशा में कदम बढ़ाया. 2004
में एटीएम से होने वाले लेन-देन को शुल्क-मुक्त किया गया. तत्कालीन गवर्नर वाय.
वी. रेड्डी ने इसे बैंकिंग व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण
कदम के रूप में देखा जहाँ मालिक और नौकर दोनों को एक ही कतार में खड़ा होना होता.
इस दौर में आकर मुद्रा और फ़ॉरेक्स, दोनों बाज़ारों में ई-क्लीयरेंस व्यवस्था को
अपनाया गया. फिर वैश्विक स्तर पर पहली बार ई-लेनदेन की सुरक्षा के मद्देनज़र भुगतान
के लिए दो चरणों वाली प्रमाणीकरण-प्रक्रिया की शुरुआत की गयी. 2008 से ई-लेनदेन में होनेवाली वृद्धि के
मद्देनज़र रिज़र्व बैंक ने खुदरा भुगतान के लिए अम्ब्रेला आर्गेनाईजेशन के रूप में नेशनल पेमेंट
कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (NPCI) को प्रोत्साहित करना शुरू किया. 2010
में तत्काल
भुगतान सेवा (IMPS: Immediate Payments Services) लांच किया गया.
आगे चलकर रुपे (RuPay) कार्ड जारी किया
गया जिसका उद्देश्य वीजा एवं मास्टर कार्ड जैसे सेवा-प्रदाताओं के भुगतान-शुल्क को
कम करना था. मार्च,2012 में नेशनल पेमेंट कॉर्पोरेशन
ऑफ़ इंडिया ने भारतीय घरेलू कार्ड स्कीम के रूप में वीजा कार्ड एवं मास्टर कार्ड के
विकल्प के रूप में डेबिट कार्ड के भारतीय वर्जन रूपे कार्ड लांच किया और मई,2014
में इसे देश को समर्पित किया. भारत अमेरिका, जापान, चीन, सिंगापुर और ब्राजील के बाद
घरेलू पेमेंट गेटवे सिस्टम को विकसित करने वाला छठा देश बना. इसे देश के भीतर सभी
प्रकार के वित्तीय लेन-देनों के लिए स्वीकार किया जाता है. इसके जरिये होने-वाले लेन-देन
के लिए SMS एलर्ट जारी किये जायेंगे. जहाँ वीजा एवं मास्टर कार्ड के जरिये
होनेवाले लेन-देन की प्रोसेसिंग देश से बाहर होती है, जबकि रूपे कार्ड के जरिये
होनेवाले लेन-देन की प्रोसेसिंग देश से भीतर. इसीलिये रूपे कार्ड के जरिये
होनेवाले लेन-देन की प्रोसेसिंग भी आसान एवं तेज होती है और उसकी लागत भी
अपेक्षाकृत कम होती है. वीजा एवं मास्टर कार्ड के सन्दर्भ में तिमाही शुल्क की भी
वसूली की जाती है, लेकिन रूपे कार्ड के सन्दर्भ में ऐसे किसी तिमाही शुल्क की
जरूरत नहीं होगी. जहां वीजा एवं मास्टर कार्ड डेबिट के साथ-साथ क्रेडिट कार्ड के
रूप में भी करता है, वहीं रूपे कार्ड केवल डेबिट कार्ड के रूप में. इसी प्रकार
अंतर्राष्ट्रीय कार्ड के लिए बैंकों को एंट्री फीस देना पड़ता है, पर रूपे के
सन्दर्भ में कोई एंट्री फीस नहीं है. रूपे कार्ड सार्वजानिक, चयनित निजी, ग्रामीण एवं सहकारी बैंकों के
द्वारा उपलब्ध कराया जाता है, लेकिन सीमित नेटवर्क वाले बैंकों के द्वारा नहीं. लेकिन, रूपे कार्ड की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं है,
यद्यपि NPCI डिस्कोवर फाइनेंसियल सर्विसेज(DFS) एवं जापान क्रेडिट ब्यूरो(JCB) के
साथ साझेदारी की कोशिश में लगा है ताकि रूपे कार्ड को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
स्वीकारा जा सके. नवम्बर,2016
तक ऐसे 29 करोड़ कार्ड जारी किये गए जिनमें 19 करोड़ कार्ड जन-धन खातों से जुड़े थे.
फरवरी,2016 में डिजिटल भुगतान को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने दो वर्षीय
कार्यवाही योजना का अनुमोदन किया. कार्ड से होने वाले लेन-देन पर कारोबारियों के
डिस्काउंट रेट का यौक्तीकरण किया गया.
फिर अप्रैल,2016 में वर्चुअल पहचान के साथ ई-ट्रांजिक्शन के लिए यूनिफाइड पेमेंट
इंटरफ़ेस(UPI) नामक एप्प जारी किया गया और विभिन्न प्रकार के
बिल-भुगतानों के लिए एकीकृत व्यवस्था के रूप में भारत बिल पेमेंट सिस्टम (BBPS)
प्रस्तावित है. इस तरह लेस कैश इकोनॉमी की दिशा
में की गयी अबतक की पहल ने कैशलेस इकॉनोमी की दिशा में पहल के लिए आधार तैयार
किया. इसी आलोक में रिज़र्व बैंक का भुगतान एवं निपटारे की व्यवस्था (RBI’s Payments and Settlements
System) से सम्बंधित विज़न-2018 यह सुनिश्चित करना चाहता है कि यूजर्स एवं सेवा-प्रदाता, दोनों के लिए
विभिन्न प्रकार के ई-भुगतान किफायती हों और पेपर-आधारित भौतिक क्लीयरिंग उपकरणों
पर निर्भरता न्यूनतम हो. स्पष्ट है कि
डिजिटल भुगतान के कारोबार को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार के द्वारा कई नीतिगत
पह्लें की गईं और कई प्रोत्साहन दिए गए, पर निर्णायक सफलता नोटबंदी को ही मिलती
दिख रही है.
एकीकृत
इंटरफ़ेसभुगतान प्रणाली(UPI)
एकीकृत इंटरफ़ेस भुगतान प्रणाली(Unified
Payments Interface System) की शुरुआत अप्रैल,2016 में की गयी. अगस्त,2016 से यह ऑपरेशनल हो चुका है. यह
ऑनलाइन भुगतान की व्यवस्था है जो स्मार्टफ़ोन के ज़रिये दो लोगों के बीच तत्काल
प्रभाव से फण्ड के ट्रान्सफर को सुनिश्चित करता है. इसका इस्तेमाल फण्ड भेजने और
फण्ड प्राप्त करने, दोनों के लिए किया जा सकता है. इसके जरिये बिलों एवं कारोबारियों का भुगतान भी संभव है
और वित्त-प्रेषण भी. स्पष्ट है कि भारत में सभी प्रकार के रिटेल भुगतान-व्यवस्था के लिए रिज़र्व बैंक और इंडियन
बैंक एसोसिएशन द्वारा स्थापित अम्ब्रेला आर्गेनाईजेशन नेशनल पेमेंट कारपोरेशन ऑफ
इंडिया(NPCI) ने इस व्यवस्था का विकास किया है.
वर्तमान में इस व्यवस्था को बैंकों तक सीमित रखा गया है, लेकिन भविष्य
में इसे आरंभिक अनुभवों के आलोक में विस्तार दिया जा सकता है. अभीतक कुल 29 बैंकों
ने इसे स्वीकार किया है. स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया और एचडीएफसी बैंक इसके दायरे से
बाहर हैं, लेकिन शीघ्र ही उनके भी इस व्यवस्था के अंतर्गत आने की उम्मीद है. वर्तमान
में इसके अंतर्गत होनेवाले भुगतान पर किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लगाया गया है,
लेकिन बैंकों को भुगतान पर शुल्क लगाने की अनुमति प्रदान की गयी है.
RTGS/NEFT से इसकी भिन्नता:
वर्तमान ऑनलाइन भुगतान व्यवस्था,चाहे वह नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फण्ड
ट्रान्सफर(NEFT) हो या रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट(RTGS) या फिर तत्काल भुगतान
सेवा(IMPS), इनमें ग्राहक को बैंक के वेबसाइट पर अपना पंजीकरण कराना होता है,
लाभान्वितों को उससे जोड़ना होता है और बैंक अकाउंट से सम्बंधित डिटेल्स को शेयर
करना होता है. साथ ही, वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत बैंकिंग ऑवर (Banking Hour) के
बाद या फिर छुट्टी के दिनों में फण्ड-ट्रान्सफर नहीं हो पाता है.
इससे भिन्न UPI के अंतर्गत विभिन्न बैंकों द्वारा ऑफ़र्ड UPI एप्प
डाउनलोड करना होता है, उसपर अपने से सम्बद्ध विशेष जानकारियाँ पंजीकृत करवानी होती
हैं और एक आभासी एड्रेस सृजित करना होता है. फिर इसके जरिये इसे प्रकार के यूनिक
एड्रेसवाले प्राप्तकर्ता के आग्रह पर एक लाख रूपये तक के फण्ड का बैंक की अनुमति
से तत्काल अंतरण किया जा सकता है. यह सुविधा सालों भर और चौबीसों घंटे उपलब्ध रहती
है. यह संभव है कि किसी व्यक्ति के पास एक से अधिक
वर्चुअल एड्रेस हों और वह विभिन्न प्रकार के लेन-देन के लिए बिना अपने बैंक खाते
तक पहुंचे एक से अधिक बैंक अकाउंट के लिए इसका इस्तेमाल करे. कोई भी कारोबारी कार्ड-रीडर जैसे इलेक्ट्रॉनिक
मशीनों के बिना भी डिजिटल लेन-देन के जरिये कारोबार कर सकने में सक्षम होगा. चूँकि ग्राहक इस एप्प का प्रयोग करते हुए केवल अपने
वर्चुअल एड्रेस को शेयर करता है, न कि बैंक खातों या फिर मोबाइल नंबर से सम्बंधित
संवेदनशील सूचनाओं को, इसीलिए यह प्राइवेसी के प्रति संवेदनशील भी है और
ऐसे लेन-देन की सुरक्षा को भी सुनिश्चित करता है.
UPI ग्राहकों को बिना अतिरिक्त बैंकिंग
सूचना के ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों ही मोड में बैंक खातों से सीधे कारोबारी को
भुगतान करने की अनुमति प्रदान करता है. इसके लिए ग्राहक को न तो क्रेडिट कार्ड डिटेल देने की
ज़रुरत होती है, न ही इंडियन फाइनेंसियल सिस्टम कोड (IFSC) और न नेट बैंकिंग या
वॉलेट पासवर्ड. अब कई बैंकों के UPI एप्प डाउनलोड के लिए उपलब्ध हैं..
UPI
के उद्देश्य:
इसके जरिये मध्यावधिक और दीर्घावधिक परिप्रेक्ष्य में देश की
अर्थव्यवस्था को नकदी-रहित अर्थव्यवस्था (Cashless Economy) की ओर ले जाना है.
इससे कैश पर भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता को कम किया जा सके और नकदी में
होनेवाली लेन-देन लागत को कम किया जा सके. साथ ही, यह चेक या डिमांड ड्राफ्ट के
जरिये होने वाले अन्य प्रकार के भौतिक स्वरुप वाले लेन-देन को भी कम कर सकेगा
जिसकी लागत अधिक होती है और जो जटिल एवं विलम्बनकारी भी होता है. इससे सभी प्रकार
के वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता आयेगी और उसकी निगरानी संभव हो सकेगी जिससे
कर-वंचना की प्रवृत्ति हतोत्साहित होगी और सरकारी राजस्व में वृद्धि सुनिश्चित की
जा सकेगी. इससे राजस्व के लिए कर की दरों पर दबाव को भी कम किया जा सकता है जिससे
आर्थिक संवृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण होगा और आर्थिक विकास को गति तो
मिलेगी ही, भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार भी होगा. वित्तीय
संस्थाओं का मानना है कि इससे उन्हें ग्राहकों के वित्तीय व्यवहार के विश्लेषण और
क्रेडिट-स्थिति के आकलन में मदद मिलेगी जिसके कारण ग्राहकों को आसानी से ऋण उपलब्ध
करवा पाना भी संभव हो सकेगा और उस ऋण से सम्बद्ध जोखिमों को भी कम-से-कम किया जा
सकेगा.
डिजिटल भुगतान पर वीजा रिपोर्ट,
अक्टूबर 2016
भुगतान-कम्पनी वीजा इंक. द्वारा “भारत में डिजिटल भुगतान की संवृद्धि को त्वरित करना: पंचवर्षीय
आउटलुक” नाम से जारी रिपोर्ट में अगले पांच वर्षों के दौरान लेस
कैश सोसाइटी की ओर भारत के संक्रमण के रास्ते में मौज़ूद चुनौतियों पर विचार करते
हुए इसके रास्ते में विद्यमान अवरोधों की पहचान की गयी है और उनसे निबटने के लिए
पंचवर्षीय रोडमैप प्रस्तुत किया गया है.
भविष्य का रोडमैप:
इस रिपोर्ट में भविष्य का रोडमैप प्रस्तुत करते हुए नकदी-लागत को जीडीपी के 1.7% के वर्तमान स्तर से 1.3% के स्तर पर
लाने की संभावना की ओर संकेत करता है. रिपोर्ट में अगले पांच वर्षों के दौरान डिजिटल उपभोक्ता व्यय को 35% के
स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा गया है और इसके लिए डिजिटल-भुगतान की व्यवस्था को प्रोत्साहित करते हुए नवोन्मेष एवं वित्तीय समावेशन को उत्प्रेरित करने की आवश्यकता पर
बल दिया गया है. इसके मद्देनज़र उपभोक्ताओं
एवं कारोबारियों को प्रोत्साहन और पॉइंट-ऑफ़-सेल टर्मिनल पर आयात कर में कमी के
साथ-साथ वित्तीय संरचना में निवेश की आवश्यकता पर
बल दिया गया है जो करीब-करीब 59 हज़ार करोड़ के वित्तीय दबाव को सृजित
करेगा. लेकिन, यह वित्तीय बोझ इससे होने वाले लाभ की तुलना में अत्यंत कम होगा.
इससे अगले पांच वर्षों के दौरान तकरीबन 70,000 करोड़ (10.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर) की
बचत की संभावना है. साथ ही, अगर भारत 2025 तक नकदी-लागत को जीडीपी के 1.3% के स्तर
पर बनाये रखने में सफल रहता है, तो भारत लगभग 4 लाख करोड़ (59.4 बिलियन अमेरिकी
डॉलर) रुपये की अतिरिक्त बचत में सक्षम होगा. इस प्रकार समुचित नीतिगत पहलों और उसका प्रभावी
क्रियान्वयन 2025 तक कुल
मिलाकर 4.7 लाख करोड़ अर्थात् लगभग 70 बिलियन की बचत को सुनिश्चित करेगा. इसकी पुष्टि 2016 में करवाए गए मूडी के विश्लेषणात्मक अध्ययन से भी
होती है. इसके अनुसार 2011-15 के दौरान डिजिटल पेमेंट के कारण 70 देशों के सकल
घरेलू उत्पाद में 296 बिलियन अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त वृद्धि हुई, जबकि भारतीय
अर्थव्यवस्था में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर की.
वैश्विक अनुभवों से सीख अपेक्षित:
अगर भारत को कैशलेस इकॉनोमी
के लक्ष्य को हासिल करना है, तो इसके लिए भारत को अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों का
लाभ उठाते हुए इंडोनेशिया एवं पोलैंड की तर्ज़ पर स्वीकृति विकास पहल (Acceptance
Development Initiative) की स्थापना करनी होगी, उरुग्वे की तर्ज़ पर डिजिटल वेतन-भुगतान को
अनिवार्य बनाना होगा और लन्दन-सिंगापुर की तर्ज़ पर व्यापक स्तर पर
व्यक्तियों द्वारा डिजिटल सरकारी भुगतान को सुनिश्चित करना होगा. इसके लिए नीतिगत, विनियामकीय और अवसंरचनात्मक
बदलावों की ज़रुरत होगी. ताकि नवीनतम तकनीकी नवोन्मेषों के समावेश के जरिये
भुगतान-व्यवस्था का आधुनिकीकरण किया जा सके और डिजिटल भुगतान उद्योग को अधिक
सुरक्षित एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक बनाया जा सके.
डिजिटल
पेमेंट सिस्टम पर मुख्यमंत्रियों
का पैनल
नकदी
लेन-देन को कम करने और डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने के उपायों पर विचार के लिए नीति आयोग ने डिजिटल पेमेंट सिस्टम पर आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों के
पैनल का गठन किया है. इस समिति में नीति आयोग के उपाध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी
अधिकारी के साथ-साथ विशेषज्ञों को भी शामिल किया
गया है. इससे अपेक्षा की गयी है कि यह डिजिटल पेमेंट सिस्टम के इस्तेमाल के
परीक्षण एवं प्रोत्साहन के प्रश्न पर विचार करेगा.यह समिति डिजिटल पेमेंट को
अपनाने और इसके तीव्र प्रसार के लिए मानकों की पहचान करेगी और इसके अनुरूप एक्शन
प्लान तैयार करेगी जिसे अगले एक साल के दौरान क्रियान्वित करते हुए लोगों में
डिजिटल पेमेंट और इसके लाभों के प्रति जागरूकता पैदा की जायेगी ताकि राष्ट्रव्यापी
स्वस्थ वित्तीय वातावरण सृजित किया जा सके और उसके विकास को सुनिश्चित किया जा
सके.इस पैनल की पहली बैठक में डेबिट काड, क्रेडिट
कार्ड,
डिजिटल वॉलेज, इंटरनेट
बैंकिंग,
यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस और बैंकिंग एप के माध्यम
से लेन-देन को बढ़ावा देने के उपायों पर विचार किया गया।
डिजिटल लेन-देन के लिए सरकार की पहल:
विमुद्रीकरण ने नकदी संकट की जिस स्थिति को जन्म दिया है, उसका
हाल-फिलहाल कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा है। इसके कारण बनते दबाव की पृष्ठभूमि में
सरकार ने अब डिजिटल लेन-देन को प्रोत्साहित करने के लिए मुख्यमंत्रियों के पैनल के
साथ होनेवाले विचार-विमर्श के आलोक में 8 दिसंबर को सरकार ने 11 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा की, जिन्हें पहली जनवरी
से लागू किया जाना है। इसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था में नकदी लेन-देन को कम-से-कम
किया जाना और इसके विकल्प के रूप में डिजिटल लेन-देन को बढ़ाना है। इसके तहत् दो
हजार रुपए तक के सभी डिजिटल लेन-देन को सेवा-कर से छूट दी गयी।
रेलवे
में ऑनलाइन लेन-देन को प्रोत्साहित करने के लिए उपनगरीय
रेलवे नेटवर्क में डिजिटल मोड से मासिकऔर सीजनल कार्ड बनवाने वाले लोगों को 0.5%
छूट देने की घोषणा की गयी। रेलवे-टिकटों की ऑनलाइन बुकिंग पर 10 लाख
रुपए का दुर्घटना बीमा कवर के साथ रेलवे कैटरिंग एवं रिटायरमेंट रूम जैसी सुविधाओं
के इस्तेमाल के लिए डिजिटल भुगतान की स्थिति में पांच फीसद छूट का प्रावधान किया
गया है।
नेशनल हाइवे के सभी टोल पर डिजिटल भुगतानकी
स्थिति में 10% छूट देने का निर्णय लिया गया है. इसी तरह पेट्रोल और डीजल के लिए
डिजिटल-भुगतानको प्रोत्साहित करने के लिए 0.75%
छूट देने की योजना बनाई गई है। सरकार का यह अनुमान है कि अगर इसे सफलतापूर्वक
कैशलेस की ओर ले जाया जा सके, तो 30% की वृद्धि के बावजूद नकदी की सालाना जरूरत दो
लाख करोड़ रुपए कम हो जाएगी।
ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल
भुगतान को प्रोत्साहित करनासर्वाधिक चुनौतीपूर्ण है. इसी
के मद्देनज़र ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल लेन-देन हेतु वित्तीय ढांचे के सृजन के
लिए एक लाख गांवों में प्वॉइंट ऑफ सेल (POS) मशीनेंलगाई जाएंगी
जहाँ क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड को स्वैप किया जा सकेगा।दसहजार
तक की आबादी वाले एक लाख गांवों में सरकारी फंड से दो प्वॉइंट ऑफ सेल (POS) मशीनें
लगाने का निर्णय लेते हुए कहा गया है कि इसके लिएकृषि साख समिति (ACC) और सहकारी
संस्थाओं (Co-operative Society) को चुना जाएगा। सरकारी क्षेत्र के बैंक यह
सुनिश्चित करेंगे कि माइक्रो, एटीएम, पीओएस टर्मिनल और मोबाइल पीओएस
का किराया 100 रुपए से ज्यादा न हो। इसके अतिरिक्त नाबार्ड के जरिए क्षेत्रीय ग्रामीण और सहकारी
बैंक चार करोड़ 32 लाख रुपे कार्ड जारी
करेंगे,
जो किसान क्रेडिट कार्ड धारक किसानों को दिया
जाएगाजिनका इस्तेमाल पीओएस, एटीएम
और माइक्रो एटीएम के जरिए किया जा सकेगा।
सरकारी क्षेत्र की बीमा
कंपनियों के पोर्टल से ऑनलाइन पॉलिसी लेने और प्रीमियम भुगतानपर10%
की छूट मिलेगी। जनरल इंश्योरेंस पर 10%
और लाइफ इंश्योरेंस पर 8% की छूट मिलेगी। केंद्रीय विभागों और सरकारी
कंपनियोंसे यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा की गयी है कि लेन-देन शुल्क और एमटीआर
भुगतान का बोझ लोगों पर न पड़े। क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड से किये जाने वाले दो हज़ार रूपये तक के
लेन-देन को न केवल दो चरणों वाली कठोर प्रमाणीकरण की प्रक्रिया से, वरन् सेवा कर
से भी छूट प्रदान की गयी है. इससे उपभोक्ता अधिकारों को भी सुनिश्चित कर पाना संभव
रहेगा क्योंकि डिजिटल होने के कारण सारे लेन-देन के साक्ष्य उपलब्ध होते हैं.
विश्लेषण:
सरकार
के द्वारा जिस आक्रामक तरीके से डिजिटल पेमेंट को प्रोत्साहित करने की कोशिश की जा
रही है और इस क्रम में नकदी की किल्लत और उसकी उपलब्धता को सुनिश्चित करने वाले
पहलू की उपेक्षा की जा रही है, वह इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि सरकार
कहीं-न-कहीं जमीनी परिस्थितियों की उपेक्षा कर रही है. उसकी यह पहल कमजोर, वंचित
एवं हाशिये पर के समूह के हितों की अनदेखी करती है. डिजिटल लेन-देन को प्रोत्साहित
करने के लिए दी जाने वाली इन लोगों को कम और पढ़े-लिखे संपन्न लोगों को कहीं ज्यादा
मिलेगा और इस तरह डिजिटल डिवाइड सामजिक-आर्थिक विषमता को गहराने में सहायक बनेगी,
वैसी स्थिति में, जब डिजिटल एवं वित्तीय साक्षरता की स्थिति भारतीय समाज, विशेषकर
ग्रामीण समाज में चिंताजनक है और वित्तीय लेन-देन भी बहुत सुरक्षित नहीं हैं. स्पष्ट है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि से आनेवाले
अभावग्रस्त और अशिक्षित लोग, जो न तो स्मार्टफोन रख सकते हैं एवं न इंटरनेट का
इस्तेमाल कर सकते,
सरकार के इन कदमों से उनके हित प्रतिकूलतः प्रभावित होंगे और उन्हें सिर्फ इसलिए
उपरोक्त सेवाओं के लिए अधिक कीमत चुकाने होगी क्योंकि वे डिजिटल भुगतान में सक्षम
नहीं हैं। यह समानता की मूलभूत संकल्पना के प्रतिकूल है.
नकदी-रहित अर्थव्यवस्था: प्रभावों
के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण
नकदी-रहित अर्थव्यवस्था के फायदे:
नकदी-रहित
अर्थव्यवस्था के अपने फायदे हैं. डिजिटल भुगतान नकदी पर निर्भरता को कम करेगा
जिससे वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकेगी नकदी-लागत भी कम
होगी. साथ ही, इसके कारण आर्थिक अपराधों और गली-मुहल्लों में होने वाली छीना-झपटी
की प्रकृति वाले अपराधों में कमी आयेगी. आनेवाले समय में यूजर्स की सुविधा और उससे सम्बंधित आंकड़ों की सुरक्षा
का प्रश्न महत्वपूर्ण होने जा रहा है.
इससे वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता आयेगी जो कराधार में विस्तार एवं कर-राजस्व में वृद्धि को सुनिश्चित करेगी. अक्सर
छोटे एवं मंझोले कारोबारी के साथ-साथ उपभोक्ता सेवा कर, बिक्री कर, वैट एवं अन्य
अप्रत्यक्ष करों व शुल्कों से बचने के लिए नकदी का इस्तेमाल करते हैं. अगर GST
व्यवस्था को सफल होना है, तो इस मानसिकता में बदलाव अपेक्षित है. कैशलेस इकोनॉमी
इस बदलाव के मार्ग को प्रशस्त करता हुआ GST व्यवस्था की सफलता का मार्ग प्रशस्त
करेगा और इसका सर्वाधिक लाभ राज्य को मिलेगा और राज्य कर की दरों में कमी के जरिये
उस लाभ को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने की कोशिश करेगा.
कैशलेस
इकोनॉमी का फायदा वित्तीय पूंजी को भी मिलने की सम्भावना है. अबतक कामकाजी वर्ग की
बचत एवं साख-संबंधी जरूरतों तक वैश्विक पूंजी की पहुँच संभव नहीं हो पाई है. लेकिन,
कैशलेस इकॉनोमी अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक लेन-देन के लिए तैयार करती हुई उसके
औपचारिकीकरण का मार्ग प्रशस्त करेगी जिससे अनौपचारिक क्षेत्र की पूंजी तक उसकी
पहुँच संभव हो पायेगी और इसका असर उसकी मौद्रिक तरलता पर पड़ेगा. इसके कारण उस
पूंजी तक पहुँच भी संभव हो पायेगी जो अबतक बैंकों की पहुँच के बाहर रहे हैं. इस
प्रकार कैशलेसनेस के कारण कामकाजी वर्ग के विशाल बाज़ार तक वैश्विक पूंजी की पहुँच का
विस्तार होगा.
स्पष्ट है कि मोबाइल वॉलेट्स और बैंकिंग एप्लीकेशन के साथ नए भुगतान
बैंक का आगमन आर्थिक लेन-देन के वित्तीय वातावरण में मूलभूत संरचनात्मक बदलाव को
संभव बनाएगा, बशर्ते सरकार द्वारा प्रभावी निगरानी सुनिश्चित करते हुए इनके बीच
पारस्परिकता सुनिश्चित की जाय. ऐसा स्थिति में बैंकों की एटीएम पर निर्भरता भी कम हो
सकेगी और इसके कारण होने वाली बचत का इस्तेमाल उन लोगों तक पहुँचने के लिए किया जा
सकेगा जो बैंकों की पहुँच से बाहर हैं.
स्पष्ट
है कि यह डिजिटल इंडिया विज़न को हासिल करने और वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया को
उत्प्रेरित करने में समर्थ है. इससे न केवल अधिक-से-अधिक लोगों को औपचारिक वित्तीय
व्यवस्था के दायरे में लाया जा सकेगा, वरन कालेधन पर आधारित अर्थव्यवस्था के आकार
को भी सीमित किया जा सकेगा जिससे संवृद्धि एवं रोजगार को प्रोत्साहन मिलेगा.
नोटबंदी और वित्तीय तकनीक फर्में:
सरकार
के इन कदमों से सबसे अधिक लाभ वित्तीय तकनीक फर्मों को मिला है जिनके ग्राहकों और
कारोबारों में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है. भारत की सबसे बड़ी मोबाइल भुगतान कम्पनी
पेटीएम के एप्प डाउनलोड में 300% एवं कारोबार में 700% की वृद्धि हुई है, जबकि
प्रतिदिन लेनदेन पचास लाख के स्तर पर पहुँच चुका है. वर्तमान में 85000 कारोबारी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं जिसे मार्च,2017
तक 50 लाख के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा गया है. पेटीएम ने इन-एप्प पॉइंट ऑफ़ सेल मशीन भी विकसित किया
है जिससे पेटीएम एप्प एवं स्मार्ट फ़ोन के बिना भी डेबिट कार्ड की सूचनाओं के जरिये
भुगतान किया जा सकता है, यद्यपि अभी इसके इस्तेमाल पर अस्थाई रूप से रोक लगी हुई
है. यद्यपि पेटीएम ने आक्रामक मार्केटिंग के जरिये इस क्षेत्र में बढ़त हासिल की
है, लेकिन धीरे-धीरे इस क्षेत्र में तेजी से प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है और उसके वर्चस्व को अन्य मोबाइल भुगतान एप्प
मोबिक्विक एवं फ्री चार्ज की ओर से चुनौती मिल रही है. इनके ग्रोथ की भी यही
स्थिति है. डिजिटल भुगतान की व्यवस्था को अपनाने के लिए मोबाइल पेमेंट फर्म ही
नहीं, वरन् भारतीय बैंक भी ऑनलाइन बैंकिंग एवं मोबाइल एप्प सेवाओं के जरिये
प्रोत्साहित कर रहे हैं.
कैशलेस इकोनॉमी की दिशा में भारतीय पहल की सीमायें:
भारत द्वारा कैशलेस इकोनॉमी की दिशा में बढ़ाये गए
इस कदम के आलोक में सरकार द्वारा रूपे (RuPay) और यूनिफाइड पेमेंट इंटरफ़ेस (UPI)
की तुलना में पेटीएम को कहीं अधिक तरजीह चिंतनीय है, जबकि भुगतान एवं मनी
ट्रान्सफर के ये प्लेटफ़ॉर्म न केवल लागत की दृष्टि से किफायती हैं, वरन् यह आर्थिक
एवं सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. इसके अतिरिक्त इससे सार्वजानिक क्षेत्र
एवं निजी क्षेत्र के सत्ताईस बैंकों के सम्बद्ध होने के कारण इनकी पहुँच भी समाज
के व्यापक हिस्से तक है. इसी आलोक में इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भुगतान
प्लेटफ़ॉर्म एवं ई-वॉलेट्स के क्षेत्र में मज़बूत खिलाड़ियों की बहुलता इनके
मनमानेपूर्ण निर्णयों से यूजर्स के हितों की रक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है.
अगर इस दिशा में बढ़ना है, तो इसके लिए आवश्यकता है डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने
के लिए प्रोत्साहन के साथ-साथ ग्राहकों के लिए भुगतान के अन्य विकल्पों की
उपलब्धता को बनाये रखने की.
कैशलेस इकोनॉमी
और कर-वंचना एवं कालाधन:
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारतीय
अर्थव्यवस्था के कैशलेस हो जाने से कर-वंचना समाप्त हो जायेगी और कालेधन की समस्या
से मुक्ति मिल जायेगी? कम-से-कम वैश्विक अनुभव तो ऐसा नहीं कहते हैं. अप्रैल,2016 में अमरीकी इंटरनल रेवेन्यू सर्विस की छपी
रिपोर्ट के अनुसार 2008 से 2010 के बीच हर साल औसतन 458
अरब डालर (भारतीय मुद्रा में करीब-करीब30-32 लाख करोड़ रुपये) की टैक्स चोरी हुई है। इसी प्रकार
फ्रांसीसी संसद की रिपोर्ट के अनुसार वहां तकरीबन 40- 60 अरब यूरो (चार लाख करोड़) की टैक्स-चोरी होती है। यही स्थिति ब्रिटेन और जापान की भी है। इस आलोक में देखें, तो यह कहा जा सकता है कि डिजिटल लेन-देन
अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता को सुनिश्चित करेगा और इस कारण टैक्स-चोरी की
प्रक्रिया पर अंकुश लगेगा, लेकिन कितना अंकुश लगेगा, यह बतला पाना अभी मुश्किल है
क्योंकि आर्थिक लेन-देन में पारदर्शिता इसका एक पहलू है, एकमात्र पहलू नहीं.
टैक्स-चोरी इस बात पर भी निर्भर करती है कि टैक्स-संरचना कैसी है और इसके कारण
टैक्स-चोरी के लाभ कितने हैं? साथ ही, कर-अनुपालन मैकेनिज्म कितना प्रभावी है
क्योंकि पकड़े जाने की संभावना इसी पर निर्भर करती है? कर-चोरी से होने वाले लाभ और
पकडे जाने पर मिलने वाले दंड के बीच अंतराल कितना है?
यहाँ पर भारत एवं विश्व में
कर-वंचना के रूझानों को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है।वैश्विक रूझान इस बात का संकेत करते हैं कि
कर-वंचना में आम लोगों की तुलना में बड़ी कंपनियों एवं कोर्पोरेट्स की भूमिका कहीं
अधिक महत्वपूर्ण है। 2015 में इंडिपेंडेंट कमीशन फॉर द रिफार्म ऑफ़ इंटरनेशनल कॉर्पोरेट
टैक्सेशन(ICRIT)ने
अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट टैक्स सिस्टम बेकार हो चुका
है।इस रिपोर्ट का कहना है कि मल्टीनेशनल
कंपनियां (MNC’s) जिस मात्रा में टैक्स चोरी करती हैं, उसका भार अंततः सामान्य
करदाताओं पर पड़ता हैक्योंकि उनके प्रति सरकारों का रवैया नरम एवं उदार है। इन मल्टीनेशनल कंपनियों के टैक्स लूट के कारण
सरकारें गरीबी-उन्मूलन सह लोक-कल्याण के कार्यक्रमों पर ख़र्च कम कर देती हैं।
जहाँ तक कालेधन का प्रश्न है, तो
इसका सम्बन्ध भी बहुत हद तक इसी से जुड़ता है. दुनिया की वे अर्थव्यवस्थाएं भी
भ्रष्टाचार एवं कालेधन की समस्या से बची नहीं हैं जिन्होंने कैशलेस इकोनॉमी की
दिशा में पहल की है।
विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक, ‘समानांतर अर्थव्यवस्था’ अमेरिका
में जीडीपी का 8.6 प्रतिशत (लगभग 1600 अरब
डॉलर); चीन में 12.7 प्रतिशत (लगभग 1400
अरब डॉलर); और जापान में 11 प्रतिशत (लगभग 480 अरब डॉलर) के स्तर पर है। हाँ, यह
ज़रूर है कि भारत में कालेधन वाली अर्थव्यवस्था का आकार(भारतीय जीडीपी के 20%)अपेक्षाकृत बड़ा है और आर्थिक लेन-देन में पारदर्शिता से इस पर कुछ हद
तक अंकुश लग सकता है, पर यह भी पूरक क़दमों पर निर्भर करेगा.
कैशलेस अर्थव्यवस्था के लिए भारत कितना तैयार
कैशलेस इकोनॉमी
(Cashless Economy) की ओर भारत के रास्ते में अवसंरचनात्मक अवरोध और कमजोर
गवर्नेंस के रूप में चुनौतियां मौजूद हैं. भारत में इलेक्ट्रॉनिक इंफ्रास्ट्रक्चरल
स्पेस अब भी अल्प-विकसित अवस्था में है और तकनीकी गवर्नेंस कमजोर है जिसके कारण
लेन-देन में नकदी के महत्वपूर्ण बने रहने की सम्भावना है.
डिजिटल लेन-देन के लिए स्मार्ट फ़ोन और इन्टरनेट
कनेक्शन अपेक्षित है. भारत में स्मार्टफ़ोन की संख्या 2016 के
अंत तक 20 करोड़
पर पहुंचने की संभावना है जो कहीं-न-कहीं इसकी सीमित उपलब्धता की दिशा में संकेत
करता है.ज़्यादातर लोग फ़ीचर फ़ोन रखते हैं. लेकिन, ऐसा
नहीं कि डिजिटल लेन-देन के लिए स्मार्ट फ़ोन अनिवार्य हो. इंटरनेट के बिना भी यूएसएसडी (Unstructured Supplementary
Service Data) के इस्तेमाल के जरियेहैश, स्टार
और नंबर डायल करडिजिटल बैंकिंग की जा सकती हैं. इन्हें क्विक कोड या फ़ीचर कोड भी
कहा जाता है.इसकी मदद से आप बिना इंटरनेट के वैप ब्राउज़िंग, प्री-पेड
कॉलबैक, मोबाइल-मनी
सर्विस इस्तेमाल कर सकते हैं.
सबसे
पहले जनसंख्या
के अनुपात में बैंक शाखाओं और एटीएम की संख्या पर विचार करें, तो
भारत में प्रति लाख आबादी पर 13.55 बैंक शाखाएँ और 20 एटीएम हैं. इसके सापेक्ष
मकाओ में 254, कनाडा में 220, रूस में 173, ब्रेल में 114 और चीन में 76 एटीएम
हैं. रूस और ब्राजील में प्रति लाख जनसँख्या पर क्रमशः 32.88 एवं 20.67 बैंक
शाखाएँ हैं. भारत में बैंकिंग शाखाओं एवं एटीएम के शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में
वितरण और लोगों तक इसकी पहुँच पर नज़र डालें, तो स्थिति विषम दिखाई
पड़ती है. यद्यपि गांवों में बैंक शाखाएं, सन् 2001 के बाद लगभग दोगुनी हो
चुकी हैं, लेकिन फिर भी 60 करोड़ से
अधिक भारतीय ऐसे शहरों या गांवों में रहते हैं, जहां बैंक की
सुविधा नहीं है। उनका रोजमर्रा का जीवन ही नकद लेन-देन पर टिका है।
देश में विभिन्न बैंकों की कुल1,38,626शाखाएं हैं जिनमें दो तिहाई शाखाएं महानगरों, शहरों एवं छोटे शहरों में
है। केवल एक तिहाई शाखाएं ग्रामीण क्षेत्रों में हैं जहां निकटतम बैंक शाखा भी कई
किलोमीटर दूर हो सकती है। देश में 5 लाख 93 हजार
गांवों में 64
हजारों गांवों की बैंक एप्रोच नहीं है।
जून,2015 में वित्तीय
समावेशन पर मध्यावधिक मार्ग पर समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के
अनुसार ग्रामीण एवं अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में प्रति एक लाख की आबादी पर जहाँ बैंक
शाखाओं की संख्या औसतन 7.8 के स्तर पर है, जबकि बड़े शहरों और मेट्रो शहरों में
18.7 के स्तर पर. विश्व बैंक के अनुसार 2014 में यह माध्यिका औसत (Median Global
Value) 13.46 है. लगभग 23 करोड़
लोग बिना बैंक खाते के आज भी है। जिन लोगों के बैंक खाते हैं, समस्या उनके साथ भी है. यह सच है कि सरकार ने जन-धन के जरिए 2014 से अबतक 25.6 करोड़ लोगों को बैंकिंग संस्थाओं से तो जोड़ा
है, पर इनमें 23% खाते
खाली हैं और परिचालन में नहीं हैं. साथ ही, जन-धन के जरिये लोगों को बैंकों से तो
जोड़ा तो गया, पर उसका मुख्य जोर खाते खोलने पर ही बना रहा. कैसे नए जोड़े गए लोगों
को बैंकिंग क्रियाकलापों के लिए प्रोत्साहित करते हुए बैंकों से जोड़े रखा जाय, इस
पहलू पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया. साथ ही, न तो बैंकिंग
व्यवस्था पर इसके कारण बढे हुए लोड की भरपाई के लिए भौतिक अवसंरचना का विस्तार
किया गया और न ही इसके अनुरूप मानव-संसाधन का. इसके अन्तर्गत डेढ
लाख पोस्ट आफिस को शामिल कर लिया जाय, तो भी लेन-देन का चौथाई नेटवर्क भी नहीं
बनता है। स्पष्ट है कि आधी भारतीय आबादी की बैंकों
तक पहुँच का न होना कैशलेस इकोनॉमी के रास्ते में महत्वपूर्ण अवरोध हैं.
यदि
ग्रामीण-शहरी इलाकों में एटीएम की स्थिति और इनके वितरणपर गौर किया
जाय, तो देश में कुल 2.15
लाख एटीएम हैंजिनमें
औसतन 40% खराब
रहते हैं। इनमें एक चौथाई से अधिक एटीएम (करीब 55,690 एटीएम)
सात महानगरों में हैं। मतलब यह कि प्रत्येक
चार में से एक एटीएम मेट्रो शहरों में है, जबकि मेट्रो एवं शहरी क्षेत्रों की बैंक
शाखाओं को 5348 लोगों को सेवाएं देनी पड़ती हैं. इसकी तुलना में एक ग्रामीण एवं
अर्द्ध-शहरी शाखाओं को 12,820 लोगों को. इसी प्रकार कुल
एटीएम के नब्बे फीसद सोलह राज्यों में हैं। केवल दस फीसद एटीएम (21,810) तेरह
राज्यों और सात केंद्रशासित प्रदेशों में हैं। पूर्वोत्तर के सात राज्यों में कुल
सिर्फ 5199
एटीएम हैं, जिनमें
से 3645
एटीएम असम में हैं। समस्या सिर्फ इतनी नहीं है. भारतीय एटीएम सुरक्षित
भी नहीं हैं. कार्ड क्लोनिंग और इसके जरिये दूसरों के खाते से अवैध
निकासी की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है. भारतीय एटीएम में जिस विंडोज XP सॉफ्टवेर
का इस्तेमाल होता है, मई,2014 से माइक्रोसॉफ्ट ने यह कहते हुए उसको अपडेट करना बंद
कर दिया है कि यह बैंकों की जिम्मेवारी है. इसके अतिरिक्त सामान्यतः विकसित देशों
के द्वारा एटीएम मशीनों को हर पांच वर्ष पर बदल दिया जाता है, जबकि भारत में दस
वर्ष से अधिक समय लग जाते हैं और पुराने एटीएम मशीनों को नष्ट करने के बजाय
दूरवर्ती क्षेत्रों में लगा दिया जाता है. इसके कारण जोखिम बढ़ जाते हैं.
जहां तक क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड और पॉइंट ऑफ़ सेल मशीनों का
प्रश्न है, तो इस समय देश में करीब 70
करोड़ डेबिट कार्ड और ढाई करोड़
क्रेडिट कार्ड हैं। क्रेडिट कार्ड-डेबिट कार्ड के ये आकंड़े भ्रामक
हैं क्योंकि क्रेडिट-डेबिट कार्ड धारण करने वाले परिवार के पास तीन-तीन या चार-चार
तक कार्ड होते हैं. इसीलिये परिवारों के सन्दर्भ में इनकी उपलब्धता सीमित है। भारत की बात छोड़ दें, अमेरिका तक में
केवल 70% लोगों के पास डेबिट या क्रेडिट
कार्ड हैं। मतलब यह कि अमरीका जैसे अति
विकसित देश में 30 प्रतिशत लोगों के पास डेबिट या क्रेडिट कार्ड
नहीं है। निश्चय ही अमेरिकी समाज का यह हिस्सा गरीब एवं
निर्धन है जिसके पास बैंक में रखने के लिए पैसा नहीं है और जिन्हें बैंकों से
क्रेडिट कार्ड की सुविधा उपलब्ध नहीं है। शायद यही कारण है कि कैशलेश अर्थव्यवस्था पर लगातार लिखने वाले
डोमनिक फ्रिस्बी इसे गरीब-विरोधी मानते हैं।दूसरी
बात यह कि उपलब्ध डेबिट कार्डों में से 92% का इस्तेमाल एटीएम से पैसा
निकालने में होता है.
जहां तक प्वाइंट
ऑफ़ सेल(POS) मशीनों का प्रश्न है,
तो इनकी संख्या महज चौदह लाख के आस-पास है. ग्रामीण एवं अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों मेंपॉइंट ऑफ़ सेल(POS) मशीनों की उपलब्धता सीमित है. जिन कारोबारियों के
पास इसकी उपलब्धता है भी, उनके द्वारा नकदी लेन-देन पर छूटें दी जाती हैं और
डिजिटल भुगतान पर अतिरिक्त शुल्क वसूला जाता है, जो डिजिटल लेन-देन को हतोत्साहित
करता है. इतना ही नहीं, भारत में दो कारणों से क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड से लेन-देन
भी सुरक्षित नहीं है: एक तो कार्ड के पीछे CVV नंबर की मौजूदगी, जिसे POS मशीनों
पर इस्तेमाल के दौरान या फिर कार्ड-चोरी की स्थिति में कोई भी देख सकता है, और
दूसरे,कई बार कार्ड को POS मशीनों के साथ कंप्यूटर से भी स्वैप किया जाना. ये
दोनों ही स्थितियां यूजर्स की वित्तीय एवं डिजिटल निरक्षरता की पृष्ठभूमि में इसके
बेजा इस्तेमाल की संभावनाओं को बल प्रदान करती हैं.
इसी आलोक में देखें, तो अर्द्ध-शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में ई-इंफ्रास्ट्रक्चर की
स्थिति चिंताजनक है. जहां भारत में इन्टरनेट की उपलब्धता 36.5% है, वहीं स्वीडन, कनाडा,
ब्रिटेन, बेल्जियम एवं फ्रांस में (84-95)% के बीच. इनफार्मेशन एंड कम्युनिकेशन
टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट रिपोर्ट,2016 में 2.69 की रेटिंग के साथ भारत 138वें स्थान
पर है, जबकि ब्रिटेन, स्वीडन, फ्रांस, बेल्जियम एवं कनाडा (8.6-7.6) की रेटिंग के
साथ शीर्ष के पच्चीस देशों में. भारत में मोबाइल टावर की कमी एवं ओवरलोडिंग के
कारण कंनेक्टिविटी की गंभीर समस्या है. साथ ही, भुगतान के दौरान इन्टरनेट ड्रिपिंग
की समस्या भी स्थिति को जटिल बनाती है. इसके अलावा केवल 22% भारतीय ही इन्टरनेट के
इस्तेमाल करते हैं. इनमें इन्टरनेट का कभी-कभार इस्तेमाल करने वाले लोग भी शामिल
हैं. इन इलाकों में जहाँ इन्टरनेट-पहुँच 36% के
स्तर पर सीमित है, वहीं स्मार्ट फोन की पहुँच 17% के स्तर पर. यद्यपि पूरे भारत को इंटरनेट से
जोड़ने के लिए चलाये जा रहे डिजिटल इंडिया अभियान के जरिये 2016
तक ढाई करोड़ लोगों को डिजिटली
साक्षर बनाने के लक्ष्य रखा गया है, पर वर्तमान में डिजिटल
साक्षरता की स्थिति दयनीय है. इंडिया लाइव स्टैट्स, 2016 के अनुसार इस समय भारत में 46.2
करोड़ लोग(34.9%) इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. इंटरनेट एंड
मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल इंटरनेट की पहुंच गांवों(9%) की तुलना शहरों(53%) में अधिक
है.
कंटेंट डिलीवरी नेटवर्क सर्विस प्रोवाइडर अकामाई
की 'स्टेट ऑफ़ द इंटरनेट - कनेक्टिविटी' रिपोर्ट के मुताबिक़, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत
और फिलिपींस 3.5 मेगा
बिट्स(bits) प्रति सेकेंड(MbPS)
ब्रॉडबैंड की औसत
स्पीड के साथ सबसे नीचे 114वें
पायदान पर खड़े ऐसे देश हैं जो 4MbPS के बेसिक स्टैंडर्ड तक नहीं
पहुँच पाए हैं. दुनिया में सबसे तेज़ औसत मोबाइल कनेक्शन स्पीड के मामले में
ब्रिटेन (27 MbPS)
में मिलेगी, जबकि भारत में औसत मोबाइल कनेक्शन स्पीड 3.2 MbPS.
इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में सबसे बेहतरीन इंटरनेट वाला देश दक्षिण कोरिया है, जहां
औसत स्पीड 29 MbPS है.
यदि इंटरनेट की
पीक स्पीड की बात करें, तो सिंगापुर 146.9 MbPS की
स्पीड के साथ शीर्ष पर है, जबकि भारत 25.5 MbPS के
साथ सूची में सबसे नीचे 104वें
पायदान पर.
समस्या केवल डिजिटल लेन-देन के लिए मौजूद इंफ्रास्ट्रक्चर की नहीं है,
समस्या गवर्नेंस से सम्बंधित भी है.
पिछले तीन वर्षों के दौरान करीब दर्ज़न भर
राज्यों में 30 ब्लैकआउट की स्थिति देखने को मिलती है जो कुल मिलाकर 250 दिनों के
आसपास है. इस ब्लैकआउट के लिए सरकार खुद जिम्मेवार है जो कभी उपद्रव, तो कभी
सांप्रदायिक हिंसा और कभी किसी अन्य कारण से इन्टरनेट ब्लैकआउट आरोपित करती है.
गवर्नेंस से ही सम्बंधित ही एक और मसला है और वह है क्रेडिट एवं डेबिट
कार्ड के सात मोबाइल वॉलेट्स के विनियामकीय मैकेनिज्म में मौजूद अंतराल को लेकर. उदाहरण के रूप में कार्ड के जरिये
लेन-देन की स्थिति में कारोबारियों और कई बार ग्राहकों से वसूले जानेवाले चार्ज के
रूप में, जिसे नियामक रिज़र्व बैंक के बजाय बैंकों के द्वारा वसूला जाता है.
एक
समस्या अंतर्सम्पर्कता (Inter-Connectivity) के अभाव के
कारण भी है. सभी प्रकार के ई-पेमेंट्स को अन्तःसेवा-प्रदाताओं के बीच संपन्न करने
की अनुमति नहीं है. वर्तमान में पेटीएम का ग्राहक किसी और सेवा-प्रदाता के ग्राहक
को भुगतान नहीं कर सकता है. यदि सरकार डिजिटल भुगतान के प्रति गंभीर है, तो इसे
टेलिकॉम कम्पनियों की तरह पेमेंट कम्पनियों के बीच पारस्परिक बनाये जाने की
आवश्यकता है, अन्यथा यह कम्पनी विशेष के विशेषाधिकार की ओर ले जाएगा जो
ग्राहक-हितों को प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा, उसका संरक्षण मुश्किल हो जाएगा और यह
आगे चलकर शुल्क-वृद्धि की पृष्ठभूमि में डिजिटल भुगतान को हतोत्साहित करेगा. दूसरी
बात, प्रतिस्पर्द्धात्मकता
का अभाव उस न्यूनतम प्रेरणा को सुनिश्चित करने वाले वातावरण के
सृजन को मुश्किल बनाएगा जो नवोन्मेष के लिए आवश्यक है. फलतः नवोन्मेष भी
हतोत्साहित होगा. तीसरी बात, यह स्थिति सिस्टेमेटिक रिस्क को
भी बढ़ाएगी क्योंकि इससे डिजिटल पेमेंट सिस्टम की एक सेवा-प्रदाता के स्वास्थ्य एवं
इलेक्ट्रॉनिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर निर्भरता बढ़ेगी और यह स्थिति पूरी अर्थव्यवस्था
के लिए ठीक नहीं होगी.
इन सबके अतिरिक्त भारत के सामने मौजूद सबसे
ज्यादा महत्वपूर्ण चुनौती है लोगों की पारंपरिक मानसिकता को बदलने और बदलाव के प्रति
उनके प्रतिरोध की. साथ ही, इस बदलाव के लिए निरक्षरता एवं डिजिटल
निरक्षरता भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है. उच्च बुज़ुर्ग, विकलांग
और अशिक्षित-अर्द्धशिक्षित जनता को मोबाइल टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करने लायक बनाना
मामूली चुनौती नहीं है. इसी आलोक में देखें, तो बड़े और मंझोले शहरों में
कारोबारी नकदी-रहित भुगतान को अपना रहे हैं, लेकिन छोटे नगरों एवं शहरों के
कारोबारी डिजिटल लेन-देन को समझ पाने की स्थिति में नहीं हैं और इसीलिए वे ऐसा
करने से हिचक रहे हैं. उनकी हिचक को बढाने में सहायक है उनकी यह धारणा कि डिजिटल
लेन-देन सुरक्षित नहीं होता है. इस पृष्ठभूमि में आनेवाले समय में मौद्रिक तरलता
के सामान्य होने की स्थिति में डिजिटल लेन-देन की प्रक्रिया में शामिल हो चुके
लोगों को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म से जोड़े रखना चुनौतीपूर्ण होने जा रहा है.
हाल में डिजिटल पेमेंट की दिशा
में जो भी पहल हुई है, वह अस्थाई प्रकृति की
है और उसका स्थायित्व इस बात पर निर्भर करता है कि इन सेवाओं को
प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा दी जाने वाली छूटें कब तक जारी रहती हैं. संभव है कि स्थिति के सामान्य होते ही लेन-देन
शुल्क, वास्तविक लेन-देन के खुलासे और उसकी निगरानी से बचने के लिए वे वापस नकदी
लेन-देन की ओर वापस लौटें.
इस
बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि एक बार इन छूटों को वापस लिए जाने के बाद
जब डिजिटल भुगतान-सेवाओं पर शुल्क आरोपित किये जाने के बाद नकदी-भुगतान की ओर वापस
लौटने का रूझान देखने को मिले. इसका असर वीजा, मास्टर कार्ड और रूपे कार्ड पर भी
पड़ने की सम्भावना है. इसीलिए इस मॉडल में स्थायित्व नहीं है. इस पृष्ठभूमि में आवश्यकता इस बात की थी कि नोटबंदी के जरिये कैशलेस
इकोनॉमी की दिशा में पहल के पहले इसके लिए अपेक्षित तैयारी की जाती।
स्पष्ट है कि कैशलेस इकोनॉमी के निर्माण की इस
प्रक्रिया में सरकार को नीतिगत पहलों और विनियमन में प्रतिस्पर्द्धा एवं नवोन्मेष
पर फोकस करना चाहिए. शायद इसीलिए रिज़र्व बैंक बैंक-केन्द्रित भुगतान-व्यवस्था को
विकसित करने की कोशिश में लगा है जहां बैंकों को ग्राहकों के खातों के लिए
प्रतिस्पर्द्धा करने की भी जरूरत नहीं है.
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कैशलेस इकोनॉमी की ओर बढ़ने के लिए समुचित
प्रतिस्पर्द्धात्मक विनियामकीय फ्रेमवर्क की उपेक्षा करते हुए सिर्फ तकनीक पर फोकस
करना सही नहीं माना जा सकता है. नीतिगत फ्रेमवर्क प्रतिस्पर्द्धा, अंतर्सम्पर्कता
(Inter-Connectivity) और उपभोक्ता-संरक्षण
पर आधारित होना चाहिए.
कैशलेस इकोनॉमी के लिए अभियान की
सफलता और अनौपचारिक क्षेत्र
सरकार ने बड़ी चालाकी से कैशलेस इकोनॉमी के लिए
अपने अभियान को भ्रष्टाचार एवं कालेधन के साथ-साथ नकली करेंसी और आतंकवाद के
वित्तीयन के खिलाफ अभियान का रूप देते हुए
इस अभियान को राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक शुचिता के नैतिक प्रश्न से जोड़ने की
कोशिश करते हुए उस इनफॉर्मल सेक्टर पर निशाना साधा है जो उसकी नज़रों में भारतीय
अर्थव्यवस्था की नकदी पर अति-निर्भरता के लिए जिम्मेवार है तथा इसके लिए भारी
जन-समर्थन को जुटाने की कोशिश की है. इस क्रम में उसने यह भुला दिया कि नकदी और कालाधन
एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं. इस अभियान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह
नकदी में लेन-देन के लिए अनौपचारिक क्षेत्र पर किस हद तक दबाव डाल पाती है और
अनौपचारिक क्षेत्र इसके लिए कहाँ तक तैयार हो पाता है.
वैश्विक रूझानों के अनुरूप नहीं:
जिस
प्रकार से कैशलेस इकोनॉमी का उन्माद (Euphoria) सृजित किया जा रहा है, वह वैश्विक
रुझानों की भी अनदेखी करता है. गूगल और बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की संयुक्त
रिपोर्टके अनुसार भारत में डिजिटल भुगतान बाजार 2020 तक
500 अरब
डॉलर का हो जाएगा जो जीडीपी का करीब 15 प्रतिशत
होगा। हाल में विमौद्रीकरण के ज़रिये देश की अर्थव्यवस्था को कैशलेस इकॉनोमी की
दिशा में ले जाने की कोशिश की जा रही है, इस तथ्य की अनदेखी करते हुए कि दुनिया के
विभिन्न हिस्सों में आर्थिक गतिविधियों में मुद्रा के चलन में लगातार वृद्धि हो
रही है। यह स्थिति स्विट्जरलैंड में भी देखी जा सकती है जहाँ 2007 से
ही करेंसी-जीडीपी अनुपात बढ़ रहा है और अमेरिका में भी, जहाँ 2000 से
ही इस रूझान को देखा जा सकता है। इसी प्रकार ड्यूश्च बैंक की रिपोर्ट के अनुसार
सितंबर,2016
में यूरो क्षेत्र में नकदी बढ़कर 1100 अरब
यूरो के स्तर पर पहुंच गयी जो 2003 के मुकाबले तीन गुना अधिक है।
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि नोटबंदी ने ई-ट्रान्सफर की प्रक्रिया को तेज करते हुए
नकदी-रहित अर्थव्यवस्था की ओर प्रस्थान की प्रक्रिया को तेज किया है. यह डिजिटल
इंडिया की संकल्पना के भी अनुरूप है, पर इसके सातत्य(Sustainability) को लेकर
प्रश्न अपनी जगह पर बने हुए हैं. इसे डिजिटल भुगतान-क्रांति की संज्ञा देना अभी
जल्दबाजी है जो ज़मीनी परिस्थितियों की अनदेखी है. यह बात इसीलिए की जा रही है कि
भारत चीन के बाद स्मार्ट फोन का दूसरा सबसे बड़ा मार्किट है और वर्तमान में भारत
में 45 करोड़ इन्टरनेट यूजर्स हैं जिसके तेजी से वृद्धि के साथ 2020 तक 70 करोड़ तक
पहुँचने की संभावना है. लेकिन, सवाल यह उठता है कि
ऐसी स्थिति में कैशलेस इकोनॉमी के भविष्य से क्या अपेक्षा की जा सकती है जब उपलब्ध
इन्टरनेट सेवाओं की गुणवत्ता और निरंतरता आश्वस्त करने के बजाय आशंकाओं को जन्म
देती है? दूसरी समस्या हैकिंग के मद्देनज़र ऑनलाइन लेन-देन की सुरक्षा का है. फिर
भी, थोड़ी देर के लिए अगर डिजिटल भुगतान क्रांति की
बात को स्वीकार भी करें, तो इसका प्रभाव शहरी भारत अर्थात् इंडिया तक कहीं अधिक
सीमित होगा.
हाँ,
यह ज़रूर है कि यह कदम आनेवाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था को डिजिटलीकरण की ओर ले
जाएगा और इससे ऑनलाइन लेन-देन बढ़ेंगे जो कराधार के विस्तार के साथ-साथ कर-राजस्व
को बढ़ने में सहायक साबित होगा. पर, कितना, यह बतला पाना मुश्किल है? लेकिन, यह
कहना कि इससे कैशलेस इकॉनोमी के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वप्न साकार हो
पायेगा, इसमें संदेह है. यह कहीं-न-कहीं भारतीय वास्तविकताओं की अनदेखी भी है.
इसका कारण यह है कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था में 86% लेन-देन नकद होते
हैं, विशेष रूप से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था जिसका जीडीपी में योगदान 67% एवं
श्रम-बाज़ार में योगदान (85-90) प्रतिशत के बीच है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था जो नकदी
पर ही आधारित होती है. लगभग 85% लोगों को मजदूरी नकद रूप में मिलती है. साथ ही, देश
में 125 करोड़ की आबादी में केवल 1.3 करोड़ लोग ही प्लास्टिक मनी का इस्तेमाल करते
हैं. खुदरा दूकानों पर उपलब्ध कार्ड-रीडरों की संख्या महज चौदह लाख हैं. इनमें भी
कई-कई दूकान कई-कई कार्ड-रीडरों का इस्तेमाल कर रहे हैं. इतना ही नहीं, भारत में
साक्षरता, डिजिटल साक्षरता और इन्टरनेट कवरेज की वर्तमान स्थिति भी इस बात का
संकेत देती है कि भारत में अभी दूर-दूर तक कैशलेस इकॉनोमी की सम्भावना नज़र नहीं
आती. इसलिए भी कि 80.8% ग्रामीण आबादी और 93% भौगोलिक क्षेत्र बैंकिंग कवरेज से
बाहर हैं. इतना ही नहीं, साइबर सुरक्षा की वर्तमान स्थिति भी इसकी अनुमति नहीं
देती. अभी कुछ दिन पहले ही बैंकों के वेबसाइट को हैक करके डाटा चुराने की ख़बरें
आईं थीं जिसके आलोक में बैंकों ने अपने ग्राहकों को अपने-अपने पासवर्ड बदलने के
सुझाव दिए थे. भारत ही नहीं, वैश्विक अनुभव भी इसके पक्ष में नहीं हैं. दुनिया में
स्वीडन एक ऐसा देश है जिसकी अर्थव्यवस्था कैशलेस इकॉनोमी का रूप ले पाई है और इसका
कारण है उसका छोटा आकार, शत-प्रतिशत इन्टरनेट कवरेज एवं वहां की जनता का इसमें
सक्षम होना. इसीलिए नकदी-रहित
अर्थव्यवस्था तक पहुँचने के लिए भारत को अभी भी लम्बी दूरी तय करनी है. आज भी भारत
की दो-तिहाई से अधिक आबादी गाँवों में रहती है और एक चौथाई आबादी निरक्षर है जहाँ
मोबाइल सेवा की गुणवत्ता न तो बहुत आश्वस्त करने वाली है और न एक बड़ी आबादी
स्मार्ट फोन हैंडल करने में समर्थ हैं. अतः इसे वैकल्पिक बनाये रखते हुए समर्थन
एवं प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है, लेकिन इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए
कि न तो यह समर्थन एवं प्रोत्साहन वंचित वर्ग में वंचना का अहसास गहराए और न ही यह
प्रक्रिया उत्पीड़नकारी हो.
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