रूपये की विनिमय दर में हालिया गिरावट
इस साल के आरम्भ से अबतक डॉलर के सापेक्ष रुपये में
लगभग 4% की गिरावट आ चुकी है और यह 68.86 रुपये के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच चुका है.
यह रुपए का अब तक का सबसे निचला स्तर
है। नोटबंदी और अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के
बाद से अबतक डॉलर के सापेक्ष रुपये के विनिमय दर में लगभग 3% की गिरावट आ चुकी है.
इसे 2014 में 2% और 2015 में 4% की गिरावट के सापेक्ष रखकर देखें, तो यह गिरावट
तीव्र दिखाई पड़ती है. लगता
नहीं कि रुपए का अवमूल्यन यहीं थम जाएगा। वैश्विक वित्तीय स्थिति पर नजर रखने वाली
कई एजेंसियों का अनुमान है कि रुपए के अवमूल्यन में गिरावट का सिलसिला अभी जारी रह
सकता है और दिसंबर के आखिर तक एक डॉलर की कीमत सत्तर रुपए तक जा सकती है।
रुपये
में गिरावट के कारण:
रुपए के लुढ़कने के घरेलू और बाहरी, दोनों तरह के कारण हैं। घरेलू
परिप्रेक्ष्य में देखें, तो गिरता हुआ रुपया विदेशी पूंजी के बहिर्प्रवाह का
भी परिणाम है. कॉर्पोरेट द्वारा उन्मत्त डॉलर (Frantic Dollar) की मांग और विनिमय दर की अस्थिरता के
मद्देनज़र आयातकों के द्वारा आक्रामक तरीके से की जाने वाली हेजिंग के साथ-साथ अनिवासी
भारतीयों की विदेशी मुद्रा जमाओं (FCNR Deposit) के विनिमय हेतु बढ़ते दबाव को भी
इसका कारण माना जा सकता है. इसकी पृष्ठभूमि में
रुपया भी उन उभर रही अर्थव्यवस्थाओं की करेंसी के क्लब में शामिल हो
चुका है जो ट्रम्प की संरक्षणवादी नीतियों के कारण आशंकित हैं और उनका मानना है की
इससे उनके यहाँ आर्थिक विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध होगी.
गिरावट
का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य:
अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव के
परिणाम के बाद से अबतक डॉलर अन्य मुद्राओं के सापेक्ष 6% तक मज़बूत हो चुका है.
इसका कारण है ट्रम्प द्वारा अधिमूल्यनकारी
नीतियों (Reflationary Policies) को
अपनाए जाने की सम्भावना, जिसका मतलब होगा अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व के द्वारा अधिक
तीव्र गति से कठोर मौद्रिक नीति का अवलंबन. साथ ही, बाज़ार का अनुमान है कि व्यापार
को लेकर ट्रम्प का रवैया अधिक संरक्षणवादी रहेगा. फलतः दिसम्बर में फ़ेडरल
रिज़र्व द्वारा नीतिगत दरों में वृद्धि की संभावना ने डॉलर को मजबूती दी है और
अमेरिकी प्रतिभूतियों में बांड्स पर बेहतर प्रतिफल की सम्भावना भी बढी है. इसने न
केवल भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर विदेशी निवेश के प्रवाह को कम किया है, वरन्
अमेरिकी डॉलर एवं अमेरिकी अर्थव्यवस्था के प्रति विदेशी निवेशकों के आकर्षण को
बढाया भी है. बचा-खुचा काम नोटबंदी ने कर दिया है.
इतना ही नहीं,
ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमेरिका के साथ-साथ वैश्विक
अर्थव्यवस्था की अनिश्चितता के बढ़ने की सम्भावना है. इसलिए भी कि इससे यूरोपीय
देशों में वैश्वीकरण-विरोधी और संरक्षणवाद की प्रबल पैरोकार दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी शक्तियों को बल मिलेगा
जो भारतीय निर्यात को प्रतिकूलतः प्रभावित करने में सक्षम है
नोटबंदी और रुपये की
गिरावट:
नोटबंदी ने न केवल आम लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी करते हुए मांग
में गिरावट की स्थिति को जन्म दिया है, वरन् भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर विदेशी निवेशकों
के मन में संशय और अनिश्चितता को भी जन्म दिया है। इसने शेयर बाजार में गिरावट की
स्थिति उत्पन्न की है जिसने विदेशी संस्थागत निवेशकों को अपना निवेश वापस लेने के
लिए उत्प्रेरित किया है। केवल नवम्बर महीने में विदेशी संस्थागत निवेशकों
ने भारतीय पूंजी-बाज़ार (स्थानीय इक्विटी एवं बांड बाज़ार) से 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर
की निकासी की है.
उधर इस अनिश्चितता
भरे माहौल ने नए विदेशी निवेश की प्रक्रिया को भी अवरुद्ध किया है. इसका एक
महत्वपूर्ण कारण अमेरिका में ब्याज दर में वृद्धि की सम्भावना भी है जिसके कारण न
केवल विदेशी निवेशकों का रूझान अमेरिका की ओर बढेगा, वरन् अमेरिकी निवेशकों का
विदेशी बाज़ारों की ओर रुझान भी कम होगा. इसके कारण निकट भविष्य में आयात के दबाव
के भी बढ़ने की संभावना है जो विनिमय दर पर दबाव को और ज्यादा बढाने का काम करेगा. उधर
इस गिरावट से लम्बे समय से दबाव झेल रहे निर्यात क्षेत्र को फायदा हो सकता था, पर
नोटबंदी के कारण होनेवाली अफरा-तफरी ने उस संभावना को भी निरस्त किया है. इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि बैंकिंग
के अलावा टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं, वित्त और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र से
सम्बंधित शेयरों में गिरावट का रूझान दिखता है.
रुपये में गिरावट और भारतीय निर्यात:
यद्यपि रुपये में गिरावट तीव्र रही है, पर निश्चित विनिमय दर अनुबंधों,
या फिर यह कह लें कि हेजिंग के कारण उन्हें अबतक इसका फायदा नहीं मिल पाया है.
वैसे भी, रुपये की विनिमय दर में उतार-चढ़ाव और निर्यात का अंतर्संबंध उतना सीधा
नहीं रहा है. रुपए की गिरावट के दौर में भी निर्यात में गिरावट के रुझान देखे जा
सकते हैं. दूसरी बात, वैश्विक संवृद्धि में गिरावट और कमोडिटी की कीमतों में
गिरावट के कारण वैश्विक व्यापार का आकार सिकुड़ता चला गया. ऐसी स्थिति में निर्यात
में तीव्र वृद्धि की अपेक्षा बेमानी होगी. यही कारण है कि WTO ने 2016 में वैश्विक
व्यापर में 1.7% की मामूली वृद्धि का अनुमान लगाया है. तीसरी बात, आयात पर
निर्भरता घटाने की कोशिशों के साथ बड़े आयातकों के व्यापार-पैटर्न में संरचनात्मक
बदलाव को नोटिस में लिया जा सकता है. इसीलिए निर्यातकों को रुपये में गिरावट के
रूप में निर्यात-रियायतों पर ध्यान देने के बजाय अपने निर्यातित उत्पादों की
समीक्षा करनी चाहिए ताकि इन्हें अधिक प्रासंगिक और आकर्षक बनाया जा सके. इसलिए भी
कि रुपये के विनिमय दर का प्रबंधन आयातकों के साथ-साथ उन घरेलू उत्पादकों के हितों
के प्रतिकूल होगा जो आयातित इनपुट का इस्तेमाल करते हैं, या फिर उस पर निर्भर हैं.
साथ ही, इसका उपभोक्ता हितों पर भी प्रतिकूल असर पडेगा. इतना ही नहीं, कमजोर रुपये
की भी अपनी सीमायें हैं. यह आयात-लागत को बढ़ाते हुए व्यापार-खाता और चालू खाता पर दबाव
को बढाने वाला भी साबित होगा और इन्फ्लेशन को बढाने वाला भी. इसी तरह यह विदेशी
निवेश और विदेशी पूंजी प्रवाह को भी प्रभावित करेगा जिनकी दिशा उस ओर होती है जहाँ
करेंसी अपेक्षाकृत अधिक स्थिर होती है क्योंकि इस गिरावट के कारण उनके निवेश में
भी गिरावट आती है.
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