Friday, 21 October 2016

आपराधिक मानहानि और सुप्रीम कोर्ट

                                 आपराधिक मानहानि
हाल में भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के खिलाफ कथित तौर पर कुछ टिप्पणियों को लेकर, राहुल पर संघ को महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराने और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पर अरुण जेटली, नितिन गडकरी एवं  कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के बेटे अमित सिब्बल के विरुद्ध टिप्पणियों को लेकर मानहानि का मुकदमा दर्ज किया गया है. इसी पृष्ठभूमि में इन तीनों ने आपराधिक मानहानि से सम्बंधित प्रावधानों के विरुद्ध याचिका दायर की जिस पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मई,2016 को अपना फैसला सुनाया.
आपराधिक मानहानि से सम्बंधित प्रावधान:
1. भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 499 आपराधिक मानहानि को परिभाषित करता है और बतलाता है कि मानहानि तभी मानी जाएगी जब आरोप लगाने के पीछे किसी की छवि को धूमिल करने का उद्देश्य हो. अगर लगाया गया आरोप सत्य तथ्यों पर आधारित हो,तो उसे मानहानि नहीं माना जाएगा.
2. भारतीय दंड संहिता  की धारा 500 के तहत दोषी पाए जाने पर 2 साल की कैद या आर्थिक जुर्माना या फिर दोनों  का प्रावधान है।
चुनौती के आधार:
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने आपराधिक मानहानि के प्रावधान को इस आधार पर चुनौती दी थी:
1. आईपीसी का यह प्रावधान संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति के मौलिक  अधिकार का     उल्लंघन करता है.
2. यह औपनिवेशिक कानून है और इसका दुरुपयोग हो रहा है। इस पर विचार करने और इसे खत्म करने की जरूरत है.
केंद्र सरकार का रूख:
केंद्र सरकार की दलील थी कि मानहानि से संबंधित कानूनी प्रावधान सही है। हर व्यक्ति को 'राइट टू लाइफ एंड लिबर्टी' मिली हुई है और यह मूल अधिकार है। राइट टू लाइफ का मतलब मान सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ जीवन जीने का अधिकार है। ऐसे में मानहानि से संबंधित कानूनी प्रावधान को बरकरार रखना जरूरी है।        

सुप्रीम कोर्ट का रूख:
उच्चतम न्यायालय ने 13 मई,2016 को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी एवं अन्य की तरफ से दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया जिसमें उपनिवेश कालखंड वाले दंडनीय प्रावधानों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की मांग की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में मानहानि से जुड़े 156 साल पुराने दंडात्मक कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी  के लिए किसी दूसरे की साख दांव पर नहीं लगाई जा सकती है। इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता  की धारा 499-500 को  संवैधानिक घोषित करते हुए उसे रद्द करने से इनकार किया.
1. कोर्ट ने राहुल गांधी, केजरीवाल, स्वामी और अन्य की याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए कहा कि मानहानि के मामलों में जारी सम्मन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना उन पर निर्भर करता है। आठ  सप्ताह के भीतर हाई कोर्ट जाने तक अंतरिम राहत जारी रहेगी जिस दौरान उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही पर रोक और अंतरिम संरक्षण प्रभावी रहेगा तथा निचली अदालत के समक्ष फौजदारी कार्यवाही स्थगित रहेगी।
2. कोर्ट ने देशभर में मजिस्ट्रेटों को निर्देश दिए हैं कि वे निजी मानहानि की शिकायतों पर सम्मन जारी करते समय बेहद सावधान रहें।
3. अगर कोई नीति किसी को पसंद नहीं है,तो उसकी आलोचना मानहानि के दायरे में नहीं है। भारतीय संविधान में सभी को बोलने और अभिव्यक्ति का अधिकार मिला है। ऐसे में आलोचना में कुछ भी गलत नहीं है।
4. लेकिन, ऐसी कोई भी आलोचना, जिससे किसी व्यक्ति विशेष के सम्मान को ठेस पहुंचता हो, वह मानहानि के दायरे में आएगी।
5. न्यायालय के इस निर्णय के बाद अब इन सभी को अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मानहानि के मामलों का सामना करना होगा।
न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति प्रफुल्ल सी पंत की दो सद्स्यीय बैंच ने  कहा कि बोलने की आजादी और प्रतिष्ठा के अधिकार, इन दोनों अधिकारों के बीच संतुलन बनाना होगा।

मानहानि से संबंधित दो दंडनीय प्रावधानों और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 199 का विश्लेषण करने वाली शीर्ष अदालत ने इन दलीलों पर सहमति नहीं जताई कि मानहानि को अपराध की श्रेणी में रखने से संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला होता है। हालांकि अदालत ने स्पष्ट किया कि मानहानि के अपराध की अपनी गंभीरता है, इसलिए मजिस्ट्रेटों को सम्मन जारी करने में अत्यधिक सावधानी बरतनी होगी। पीठ ने कहा, ‘जैसा कि हम प्रावधानों को संवैधानिक घोषित कर रहे हैं, तो हम यह भी कह रहे हैं कि याचिकाकर्ता सम्मन जारी किये जाने को उच्च न्यायालय में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 या आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत चुनौती दे सकते हैं, जैसी कि सलाह दी गयी है और वे उचित राहत मांग सकते हैं। उपरोक्त उद्देश्य के लिए हम याचिकाकर्ताओं को आठ सप्ताह का समय देते हैं।’
पीठ ने यह भी साफ किया कि अगर इनमें से किसी ने पहले ही उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है और इस अदालत में भी असफल रहे हैं, तो उन्हें मुकदमे का सामना करना होगा और कानून के अनुसार अपना बचाव पेश करना होगा।
विश्लेषण:
सर्वोच्च अदालत के फैसले पर स्वाभाविक ही तीखी प्रतिक्रिया हुई है। दुनिया के अधिकतर देशों में मानहानि के मामले को दीवानी मामले की तरह देखा जाता है। इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी विश्व भर में अधिकाधिक मान्य होते जा रहे दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक तकाजों को ध्यान में रख कर मानहानि कानून की संवैधानिकता पर विचार करेगा। लेकिन उसके फैसले ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है। गौरतलब है कि भारत में मानहानि एक आपराधिक मामला है, जिसमें दोष सिद्ध होने पर दो साल की सजा हो सकती है, इसके अलावा जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वालों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी थे। ये तीनों मानहानि के किसी न किसी मामले में आरोपी हैं, इसलिए संबंधित कानून को चुनौती देने में इनकी व्यक्तिगत दिलचस्पी भी रही होगी। पर इन याचिकाओं के बहुत पहले से भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के औचित्य पर सवाल उठते रहे हैं। इन धाराओं के तहत मानहानि को एक आपराधिक कृत्य माना गया है। यह कानून ब्रिटिश हुकूमत की देन है। आज के समय में इसे प्रासंगिक क्यों माना जाए? इस कानून को संवैधानिक ठहराने के पीछे सर्वोच्च अदालत ने खासकर दो तर्क दिए हैं। एक यह कि हमारे संविधान का अनुच्छेद इक्कीस गरिमा के साथ जीने की गारंटी देता है, इसलिए अगर किसी की प्रतिष्ठा-हानि होती है तो यह एक अपराध है। दूसरे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं हो सकती। पर ये दोनों मकसद मानहानि को दीवानी मामला मान कर भी पूरे किए जा सकते हैं। मानहानि को आपराधिक मामला मानने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार बाधित होता है, जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद उन्नीसवाँ में दी गई है। मौजूदा मानहानि कानून सरकारों, ताकतवर राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों व भ्रष्ट उद्योगपतियों को ही रास आता है, जिन्हें आलोचनाओं और खुलासों से अपने किले दरकने का भय सताता है। दूसरी तरफ इस कानून ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के काम को अनावश्यक रूप से बहुत जोखिम भरा बना रखा है। कई राज्य सरकारों का रवैया इस बात का उदाहरण है कि आलोचकों को सबक सिखाने के लिए मानहानि कानून का किस कदर दुरुपयोग होता रहा है। मसलन, जयललिता सरकार ने पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मानहानिके करीब सौ मामले दायर कर रखे हैं। यह भी गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने मानहानि कानून को ज्यों का त्यों बनाए रखने की वकालत की।सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में निचली अदालतों के जजों और सरकारी अभियोजकों को हिदायत दी है कि मानहानि के मामले में समन भेजते समय वे सावधानी बरतें। यह सलाह खुद मौजूदा कानून के दुरुपयोग की ओर संकेत करती है। दुनिया भर की मिसालों, आपराधिक मानहानि कानून के बेजा इस्तेमाल के अनुभवों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से इसकी असंगति को देखते हुए इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। अच्छा होता कि मामले को दो जजों के पीठ के बजाय संविधान पीठ को सौंपा जाता। पर संसद चाहे तो इस कानून की प्रासंगिकता या इसके प्रावधानों पर पुनर्विचार की पहल कर सकती है।

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