Sunday, 26 October 2025

त्रिकोणीय/चतुष्कोणीय मुक़ाबले में उलझा बछवाड़ा

 त्रिकोणीय/चतुष्कोणीय मुक़ाबले में उलझा बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र:

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बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र का रोचक इतिहास:

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आजादी के बाद 1952 से अबतक होने वाले 17 विधानसभा चुनावों में काँग्रेस ने आठ बार जीत हासिल की है, तो सीपीआई ने चार बार। इसके अलावा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, राजद और भाजपा ने एक-एक बार सफलता पायी है, जबकि एक बार निर्दलीय विधायक के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय को सफलता मिली है। इस दृष्टि से देखा जाय, तो बछवाड़ा विधानसभा अपने सीमा पर अवस्थित बरौनी/तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र और दलसिंह सराय/ उजियारपुर विधानसभा के रुझानों से भिन्न मिश्रित राजनीतिक रुझानों को प्रदर्शित करता रहा है।

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यादवों के राजनीतिक वर्चस्व वाला क्षेत्र:

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पिछले 12 विधानसभा चुनावों में से 11 चुनावों में यहाँ की जनता ने अपने प्रतिनिधियों रूप में यादव उम्मीदवार को चुना है। पिछले बार भी अगर भाजपा को सफलता मिली और वो भी की मार्जिनल लीड के साथ, तो इसीलिए कि विपक्ष के साथ-साथ यादव वोट भी अवधेश राय और गरीब दास के बीच बँटे। सन् 1972 से अबतक के इतिहास में सन् 2020 में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी गैर-यदुवंशी प्रत्याशी को इस क्षेत्र का नेतृत्व करने का मौका मिला। और, ऐसा भी पहली बार ही हुआ, जब दक्षिणपंथी राजनीतिक दल जनसंघ/भाजपा को इस विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सफलता मिली। 

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भविष्य की संभावना:

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अब सवाल यह उठता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में क्या इस क्षेत्र के मतदाता अवधेश राय या गरीबदास के नाम पर अन्तिम रूप से मुहर लगाकर इस बात की पुष्टि करेंगे कि इस विधानसभा क्षेत्र में यादवों का राजनीतिक दबदबा कायम रहेगा, या फिर इस बात पर मुहर लगेगी कि विधानसभा चुनाव, 2020 में इस क्षेत्र के मतदाता नई करवट ले चुके हैं और यादवों के राजनीतिक वर्चस्व के दिन अब लद चुके हैं। ये तमाम सवाल अभी भविष्य के गर्भ में हैं, और इनके जवाब के लिए हमें 14 नवम्बर का इंतजार करना होगा।

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क्या इतिहास खुद को दोहराएगा:

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बछवाड़ा विधानसभा के इतिहास बड़ा रोचक रहा है और उतना ही रोचक रहा है वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता का चुनावी राजनीति का इतिहास। पिछले छह विधानसभा चुनावों के दौरान इसने कई अपने विधायक को दुबारा मौक़ा नहीं दिया है। चुनावी राजनीति में कुछ ऐसा ही इतिहास वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता का भी रहा है। हार और जीत का एक सतत क्रम चला आ रहा है। इस दृष्टि से दोनों ही ट्रेंड इस बात का संकेत देते हैं कि सुरेन्द्र मेहता इस बार विधानसभा चुनाव हारने जा रहे हैं। पर, ट्रेंड तो बनते ही टूटने के लिए। फिर सवाल यह उठता है कि क्या सुरेन्द्र मेहता नये सिरे से इतिहास लिख पायेंगे, या फिर इतिहास अपने को दुहरायेगा, यह तो आने वाला समय बतलायेगा।

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डेमोग्राफी डिटेल्स: वोटबैंक 

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बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में तकरीबन 3,10,463 वोटर्स हैं। इनमें यादवों के वोट करीब 46 हजार (15%) हैं, जबकि कोइरी, कुर्मी एवं धानुक मतदाताओं की संख्या करीब 40 हज़ार (13%) है। भूमिहार मतदाता करीब 36 हजार (12%) हैं, तो मुस्लिम मतदाता तकरीबन 30 हजार (9%)। दलितों की आबादी करीब 52 हजार (17%) है जिनमें करीब 22-24 हजार पासवान (7-8%) हैं। इसके अलावा, 11 प्रतिशत वैश्य, (2.5-3)% ब्राह्मण, 2% राजपूत, 2% माँझी और तकरीबन 15 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियाँ हैं।

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सुरेन्द्र मेहता: बड़े रोड़े हैं इस राह पे:

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भाजपा के लिए इस बार इस सीट को निकलना आसान नहीं होगा क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी जीत 500 से भी कम वोटों से हुई थी। भाजपा-सह-एनडीए उम्मीदवार सुरेन्द्र मेहता, बिहार सरकार में खेल मंत्री, धानुक जाति से आते हैं, जबकि यह क्षेत्र यादवों के वर्चस्व वाला क्षेत्र है।

इसके अलावा, इस चुनाव में उनके समक्ष कई अन्य चुनौतियाँ भी हैं:

1. वर्तमान विधायक सुरेन्द्र मेहता के प्रति क्षेत्र में गहरा आक्रोश है। उनकी कार्यशैली से लोगों में उनके प्रति गहरी नाराजगी है। 

2. इस नाराज़गी की झलक वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में मिल चुकी है। जहाँ 2019 में गिरिराज सिंह को बेगूसराय के अन्य विधान सभा क्षेत्रों की तरह बछवाड़ा में भी भारी बढ़त मिली थी, वहीं लोकसभा चुनाव, 2024 में बछवाड़ा एकमात्र विधानसभा क्षेत्र था जहाँ वे सीपीआई उम्मीदवार अवधेश राय से करीब साढ़े 4 हज़ार वोटों से पीछे रहे। 

3. शहरी मतदाताओं की संख्या सिर्फ 1.20 प्रतिशत है, जिससे यह स्पष्ट है कि बछवाड़ा एक ग्रामीण बहुल क्षेत्र है। ध्यातव्य है कि भाजपा की जितनी पकड़ शहरी मतदाताओं पर है, उतनी ग्रामीण मतदाताओं पर नहीं। 

4. पिछले चुनाव में सुरेन्द्र मेहता को सीपीएम के रामोद कुँवर का साथ था, और इस साथ ने उनकी जीत में निर्णायक भूमिका निभायी थी। 

5. इस बार सुरेन्द्र मेहता को भाजपा के असंतुष्ट समूह की चुनौती का सामना भी करना पड़ रहा है। भारतीय जनता युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष राममूर्ति चौधरी खुलकर शत्रुघ्न कुमार के पक्ष में मैदान में उतरे हुए हैं और वो सीधे सुरेन्द्र मेहता को डैमेज कर रहे हैं।

6. वर्तमान विधायक की छवि भी अच्छी नहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि इस क्षेत्र के आपराधिक तत्वों और शराब माफिया को वर्तमान विधायक का संरक्षण है और उन लोगों के साथ इनकी साँठ-गाँठ है। 

7. यद्यपि इस बार उन्हें अरविन्द कुमार सिंह का समर्थन मिल रहा है जिनकी पत्नी को पिछले चुनाव में करीब 10 हजार वोट मिले थे, पर रामोद कुँवर इस एडवांटेज को न्यूट्रलाइज कर दे रहे हैं। एक तो वे इस क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, और दूसरे, वे भाजपा के वोटबैंक भूमिहार जाति के मतदाताओं में सेंध लगा पाने की स्थिति में हैं।

इसके अलावा, उनके दोनों विरोधी: अवधेश राय और गरीबदास की इस क्षेत्र में सक्रियता लगातार बनी रहे है। लोकसभा चुनाव के दौरान अवधेश राय स्वयं बेगूसराय लोकसभा से सीपीआई के उम्मीदवार थे और उस चुनाव में गरीबदास ने खुलकर सीपीआई उम्मीदवार का साथ दिया था। इतना ही नहीं, पिछले पाँच वर्षों के दौरान गरीबदास ने क्षेत्र में अपनी सक्रियता बनाए रखी है।

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सीपीआई: गहराते आन्तरिक मतभेद:

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संगठन और नेतृत्व में रहने के क्या फ़ायदे हैं, इसे समझना हो, तो अवधेश राय की राजनीतिक यात्रा को देखिए। लगातार हार के बावजूद वे न केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपने लिए कम्युनिस्ट पार्टी और महागठबंधन की टिकट सुनिश्चित करने की स्थिति में हैं, वरन् इसके लिए उन्होंने बिहार राज्य में सीपीआई के राजनीतिक भविष्य को भी दाँव पर लगाने से परहेज़ नहीं किया है। परिणाम यह कि बछवाड़ा होल्ड करने के चक्कर में पिछली बार सीपीआई को महज़ छह सीटों पर संतोष करना पड़ा और इस बार भी कमोबेश वैसी ही स्थिति है। आगामी चुनाव में महागठबंधन में सीपीआई के हिस्से छह सीटें आयीं, जबकि सीपीआई 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, काँग्रेस पर इस आरोप के साथ कि उसने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है, उसका उल्लंघन किया है। यहाँ तक कि उनके लिए पार्टी ने न केवल पचहत्तर साल की उम्र-सीमा को दरकिनार किया है , वरन् संगठन में रहने के बावजूद उन्हें चुनावी राजनीति में शामिल होने की अनुमति दी है।

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चौतरफ़ा घिरे अवधेश राय:

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अवधेश राय की उम्मीदवारी के प्रति सीपीआई के भीतर एक समूह में गहरा असंतोष है। उसका कहना है कि आख़िर लोकसभा से लेकर विधानसभा तक सीपीआई अवधेश राय से आगे बढ़कर क्यों नहीं सोच पा रही है और देख पा रही है? आख़िर क्यों नहीं नवीन संभावनाओं की तलाश की जा रही है? भाकपा राज्य-सचिव के पद पर कॉमरेड राम नरेश पाण्डेय की ताजपोशी और तेघड़ा एवं बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से क्रमशः राम रतन सिंह एवं अवधेश राय की उम्मीदवारी ने सीपीआई के सन्दर्भ में इस पारम्परिक धारणा को मज़बूती प्रदान की है कि वह बुजुर्गों की पार्टी है जहाँ युवाओं के लिए कोई स्थान नहीं हैँ। इसके उलट, आज की युवा पीढ़ी में ज़बर्दस्त महत्वाकांक्षा है, लेकिन उसमें धैर्य का नितान्त अभाव है। वह प्रतीक्षा करना नहीं जानती है। यह स्थिति वामपंथी दलों के भविष्य के लिए अच्छी और सुखद नहीं कही जा सकती है। 


यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उनकी उम्मीदवारी के फ़ाइनल होने के पहले से ही उनकी कार्यशैली और उनके रवैये को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं, और इसकी प्रतिक्रिया में युवा वामपंथियों में ग़रीबदास के प्रति गहरा आकर्षण और गहरी सहानुभूति देखी जा रही है। भले ही वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं, पर उनमें अन्दर-ही-अन्दर अवधेश राय के प्रति आक्रोश और गरीबदास के प्रति सॉफ़्टनेस महसूसा जा सकता है। 

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सीपीआई की बढ़ती मुश्किलें:

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वर्ष 2024 में पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान अवधेश राय की सक्रियता और बछवाड़ा विधानसभा से उनकी बढ़त उनके लिए राहत की बात है, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान गरीबदास के खुले समर्थन के बावजूद उनकी बढ़त का मार्जिन महज साढ़े चार हज़ार का होना माथे की सिलवटों को बढ़ाने के लिए काफ़ी है, जबकि क़ायदे से यह मार्जिन बढ़ा होना चाहिए था क्योंकि एक तो गृह-विधानसभा क्षेत्र होने का फ़ायदा उन्हें मिलना चाहिए था और दूसरे, पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान क़रीब चालीस हज़ार वोट हासिल करने वाले गरीबदास का खुला समर्थन उन्हें हासिल था। इतना ही नहीं, सीपीआई उम्मीदवार को कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है:

1. संसाधनों की किल्लत: अवधेश राय के समक्ष बड़ी चुनौती संसाधनों के मोर्चे पर है। वे संसाधनों के दम पर सुरेन्द्र मेहता का मुक़ाबला कर पायेंगे, इसमें सन्देह है। उनकी तुलना गरीबदास इस मोर्चे पर कहीं बेहतर स्थिति में हैं। 

2. कन्हैया फैक्टर: कन्हैया कुमार के सीपीआई को छोड़ने और काँग्रेस में शामिल होने के बाद बेगूसराय में ही नहीं, वरन् बिहार में सीपीआई की मुश्किलें बढ़ी हैं और उनके समक्ष नई चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं। कन्हैया कुमार युवा वामपंथियों को और विशेष रूप से अपने पैरेंट ऑर्गेनाइज़ेशन एआईएसएफ के साथियों को अपने साथ ले जाने में कामयाब हुए हैं। इतना ही नहीं, जो सीपीआई में बचे रह गये हैं, उनके मन में कन्हैया कुमार के प्रति गहरा आकर्षण है, और इसीलिए कन्हैया कुमार उन्हें प्रभावित करने की स्थिति में हैं। 

3. रामोद कुँवर की चुनौती: इस बार सीपीएस के रामोद कुँवर भी मैदान में डटे हुए हैं। इसके कारण लेफ़्ट माइंडेड वोट के बँटने का ख़तरा मँडरा रहा है, जो पिछले विधानसभा चुनाव में वैचारिक कारणों से रामोद कुँवर द्वारा सुरेन्द्र मेहता को समर्थन के बावजूद अवधेश राय को मिला था। ध्यातव्य है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भी सुरेन्द्र मेहता की जीत और अवधेश राय की हार में लेफ्ट बैकग्राउंड से आने वाले रामोद कुँवर (CPM) ने अहम् भूमिका निभायी थीं, और अबतक जैसी सूचना मुझे मिल पा रही है, रामोद कुँवर अवधेश राय को सुरेन्द्र मेहता से कहीं अधिक और उससे ज़्यादा डैमेज कर रहे हैं जिसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसीलिए रामोद कुँवर को हल्के में लेना सीपीआई को भारी पड़ सकता है।

4. गरीबदास का काँग्रेस उम्मीदवार होना: पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान वे महागठबंधन के एकमात्र उम्मीदवार थे, जबकि गरीबदास निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। काँग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया था। इस बार गरीबदास काँग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार हैं। युवाओं में उनके प्रति गहरा आकर्षण है और वे बदलाव के प्रतीक के रूप में देखे जा रहे हैं। साथ ही, उन्हें महागठबंधन के अन्य घटक दलों और उनके समर्थकों का भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन मिल रहा हैं।

इन तमाम चुनौतियों के बावजूद सीपीआई और अवधेश राय की दावेदारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अवधेश राय के पास न केवल लम्बा राजनीतिक अनुभव है, वरन् वे संगठन के आदमी हैं और संगठन पर उनकी मज़बूत पकड़ भी है। इतना ही नहीं, वे अपने प्रति सहानुभूति पैदा कर पाने में भी समर्थ हैं। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि परम्परागत वोटों में बिखराव के बावजूद वे पिछले विधानसभा चुनाव में महज़ साढ़े चार सौ वोटों से हारे थे और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में तमाम समीकरणों के बावजूद इस विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने गिरिराज सिंह पर बढ़त हासिल की। 

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माहौल गरीबदास के पक्ष में: 

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जहाँ तक गरीबदास की बात है, तो उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। तीनों प्रमुख उम्मीदवारों में मोमेंटम उनके पक्ष में दिखता है। वे युवा, उत्साही एवं ऊर्जावान हैं। क्षेत्र में उन्होंने अपनी सक्रियता लगातार बनाए रखी है। लोकसभा चुनाव को भी उन्होंने अवसर के रूप में भुनाया है और उसके माध्यम से जनता तक अपनी बेहतर पहुँच को सुनिश्चित करने की कोशिश की है। इस कारण से भी लोगों के मन में उनके प्रति एक सहानुभूति है। लोगों को लगता है कि जिस तरीके से उन्होंने लोकसभा चुनाव के समय अवधेश राय को सहयोग दिया और उनके लिए क्षेत्र में काम किया, इसका लाभ उन्हें मिलना चाहिए। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें वो विक्टिम नजर आते हैं और लोगों को लगता है कि अवधेश राय को उनके राह का रोड़ा बनने की बजाय उनकी मदद करनी चाहिए। बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में गरीबदास के पक्ष में इस परसेप्शन को देखा एवं महसूसा जा सकता है। और, राजनीति में परसेप्शन बहुत मायने रखता है। दरअसल राजनीति परस्पेशन का ही खेल है। 

ऐसा नहीं है कि युवा होने के कारण गरीबदास अनुभवहीन हैं। उनके पास पर्याप्त संसाधन भी है और पर्याप्त अनुभव भी। एक तो स्वर्गीय पिता रामदेव राय की राजनीतिक विरासत के रूप में नेटवर्क और संगठन उन्हें मिला है और दूसरे, अनुभव भी। ध्यातव्य है कि पिता की विधायकी अन्तिम दौर में गरीबदास ही परोक्षतः उनकी सारी राजनीतिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते थे। इसीलिए वे पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले चुनाव में अपने प्रदर्शन के सहारे उन्होंने अपनी पार्टी और उसके नेतृत्व के भरोसे को भी हासिल किया है। शायद इसीलिए उन्हें केवल पार्टी संगठन का ही साथ नहीं मिल रहा है, वरन् उनकी अपील अक्रॉस द पार्टी लाइन है और इसका उन्हें फायदा भी मिल रहा है। इसीलिए जहाँ राजनीतिक दल के रूप में राजद सीपीआई उम्मीदवार के साथ खड़ी है, वहीं व्यक्तिगत स्तर पर राजद के स्थानीय नेतृत्व का एक तबका गरीबदास के साथ खड़ा है। इसमें संसाधनों की उपलब्धता भी अहम् भूमिका निभा रही है। 

स्पष्ट है कि वर्तमान में इस विधानसभा क्षेत्र का माहौल गरीबदास के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है, लेकिन ऐसा कब तक बना रहेगा, यह बतला पाना अत्यन्त मुश्किल है। ये तो आने वाला समय बतायेगा। पर, इसका मतलब यह नहीं है कि गरीबदास के लिए आगे का रास्ता आसान होने जा रहा है। विशेष रूप से युवा जोश एवं उत्साह में बहने की बजाय उन्हें संयम से काम लेना होगा, अन्यथा उस माहौल को बदलते समय नहीं लगेगा जो अभी उनके पक्ष में लग रहा है। इसके लिए उन्हें अनावश्यक बयानबाजी और आक्रामकता से परहेज़ करना होगा, जो बढ़ते हुए राजनीतिक तापमान के कारण उनके लिए और उनके समर्थकों के लिए आसान नहीं होगा। इसीलिए उन्हें अपने समर्थकों को नियंत्रित करना होगा और उनकी उच्छृंखलता पर अंकुश लगाना ही होगा।

कारण यह कि भाजपा-विरोधी वोटों के अवधेश राय और गरीबदास के बीच बँटने के कारण एक खतरा तो अन्त-अन्त तक बना रहेगा कि कहीं इसका फायदा पिछली बार की तरह एक बार फिर से सुरेन्द्र मेहता को न मिल जाए। लेकिन, इसके लिए भाजपा को अपने अंतर्विरोधो से बाहर निकलना होगा और उस नकारात्मक माहौल से बचना होगा, जो निर्मित होता दिख रहा है। इसकी झलक 25 अक्टूबर को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के बेगूसराय दौरे में भी मिलती है जिसने भाजपा की आन्तरिक गुटबंदी को तेज करते हुए उसके अन्तर्विरोधों को सतह पर ला दिया। इसका प्रतिकूल असर बेगूसराय में भाजपा के साथ-साथ एनडीए की राजनीतिक संभावनाओं पर भी पड़ सकता है। 

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सभी पक्षों के लिए खुला है परिणाम:

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मुख्तसर यह कि बछवाड़ा के काँटे के त्रिकोणीय मुकाबले, जिसे रामोद कुँवर चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, में ऊँट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगा पाना राजनीतिक पण्डितों के लिए आसान नहीं होने जा रहा है। और, अगर सीपीआई और काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व एवं उत्साही समर्थकों ने बछवाड़ा की राजनीतिक लड़ाई को बछवाड़ा तक सीमित नहीं रखा और उसे बेगूसराय के अन्य विधानसभा क्षेत्रों तक ले जाने की कोशिश की, तो बेगूसराय में इसका प्रतिकूल असर महागठबंधन के साथ-साथ उसके दोनो प्रमुख राजनीतिक दलों: सीपीआई और काँग्रेस की राजनीतिक संभावनाओं पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में बछवाड़ा के साथ-साथ तेघड़ा, बखरी और बेगूसराय विधानसभा क्षेत्रों पर भी पड़ेगा। विशेष रूप से इनमें से दो सीटें महागठबंधन की जीती हुई सीटें हैं और दोनों ही सीटें सीपीआई के जिम्मे हैं। इसीलिए बछवाड़ा विधानसभा सीपीआई और काँग्रेस, दोनों के लिए खतरे की घंटी बनकर सामने आ रही है जिसे समय रहते मैनेज करने की जरूरत है।

बछवाड़ा विधानसभा: महागठबंधन में राड़

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    बछवाड़ा विधानसभा: महागठबंधन में राड़ 

             वामपंथी दावेदारी का औचित्य 

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बिहार विधानसभा चुनाव,2025 में बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र मुझे लोकसभा चुनाव,2019 के बेगूसराय संसदीय क्षेत्र की याद दिला रहा है। इस चुनाव में जब भी महागठबंधन की चर्चा होगी, बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर चर्चा  के बिना उस चर्चा के मुकम्मल होने की कल्पना नहीं की जा सकती, कुछ इसलिए भी कि पिछले दो विधानसभा चुनावों के दौरान सीपीआई ने हरलाखी के साथ इस सीट को हासिल करने पूरे बिहार में अपनी राजनीतिक संभावनाओं को दाँव पर लगाया है जिसके कारण बछवाड़ा सीपीआई के लिए दुखती हुई रग बन चुका है। राजद और उसके नेतृत्व ने उसे बड़ी चालाकी से काँग्रेस के साथ भिड़ाकर इसकी एवज में लेफ्ट के खाते से न केवल मटिहानी सीट छीनी, वरन् मटिहानी के बहाने पूरे लेफ्ट राजनीति के तर्कजाल को ध्वस्त करते हुए वैचारिक राजनीति के मोर्चे पर उसे उसकी बढ़त से वंचित कर दिया।

बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र का रोचक इतिहास:

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आजादी के बाद 1952 से अबतक  होने वाले 17 विधानसभा चुनावों में काँग्रेस ने आठ बार जीत हासिल की है, तो सीपीआई ने चार बार। इसके अलावा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, राजद और भाजपा ने एक-एक बार सफलता पायी है, जबकि एक बार निर्दलीय विधायक के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय को सफलता मिली है। इस दृष्टि से देखा जाय, तो बछवाड़ा विधानसभा अपने सीमा पर अवस्थित बरौनी/तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र और दलसिंह सराय/ उजियारपुर विधानसभा के रुझानों से भिन्न मिश्रित राजनीतिक रुझानों को प्रदर्शित करता रहा है।

महागठबंधन में राड़ की वजह: 

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दरअसल बछवाड़ा सीट पर सीपीआई भी दावा करती है और काँग्रेस भी। सीपीआई जहाँ इस सीट को अपना परम्परागत सीट मानती है और काँग्रेस के दावे को ख़ारिज करती है, वहीं काँग्रेस सीपीआई के इस दावे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। सीपीआई के नेताओं और समर्थकों का काँग्रेस पर यह आरोप है कि काँग्रेस गठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रही है। उनके अनुसार,  कायदे से उसे बछवाड़ा ही नहीं, जहाँ भी गठबंधन के सहयोगी दल मौजूद हैं, गठबंधन धर्म का पालन करते हुए काँग्रेस को वहाँ से अपनी दावेदारी वापस लेनी चाहिए। 

यदि इन दावों और प्रति-दावों के बीच उनके औचित्य के प्रश्न पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के परिणामों के सन्दर्भ में विचार करें, तो जहाँ काँग्रेस को यहाँ से आठ बार जीत हासिल हुई है और एक बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में काँग्रेसी रामदेव राय ने जीत हासिल की है, वहीं सीपीआई को चार बार। इस सीट पर पहली बार सीपीआई को सन् 1985 में जीत मिली जब सीपीआई के उम्मीदवार अयोध्या प्रसाद सिंह इस क्षेत्र में लाल परचम लहराया, और उसके बाद 1990 एवं 1995 में अवधेश राय को जीत हासिल हुई है। इस तरह सीपीआई ने लगातार तीन बार जीत हासिल की। बाद में, विधानस चुनाव, 2010 में एक बार फिर से अवधेश राय ने जीत हासिल की, लेकिन तब से अबतक सीपीआई इस क्षेत्र में जीत हासिल करने के लिए तरसती रही है। 

जहाँ तक काँग्रेस का प्रश्न है, तो फ़रवरी, 2005 में तीन बार के विधायक रामदेव राय को एक लम्बे अन्तराल के बाद यहाँ से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत मिली, तो नवम्बर,2005 में काँग्रेस उम्मीदवार के रूप में। वर्ष 2015 में रामदेव राय ने एक बार फिर से महागठबंधन (काँग्रेस) के उम्मीदवार के रूप चुनावी जीत हासिल की। इस प्रकार वर्ष 2000 से अबतक रामदेव राय ने दो बार काँग्रेस उम्मीदवार के रूप में और एक बार निर्दलीय के रूप में इस विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की है। 

इस तरह अगर विधानसभा चुनाव,1985, जब पहली बार यह सीट सीपीआई के कब्जे में आयी, से अबतक की बात की जाए, तो यह सीट चार बार सीपीआई के कब्जे में रही है, जबकि तीन बार काँग्रेसी रामदेव राय के क़ब्ज़े में रही है, जबकि एक-एक बार राजद और भाजपा के क़ब्ज़े में।

अगर विधानसभा चुनाव, 2000 से अबतक की बात की जाए, तो यह सीट तीन बार काँग्रेसी रामदेव राय के क़ब्ज़े में रही है, जबकि एक-एक बार राजद, सीपीआई और भाजपा के क़ब्ज़े में। 

इस दृष्टि से देखा जाए, तो बछवाड़ा के सन्दर्भ में दावेदारी के मसले पर सीपीआई और काँग्रेस दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं और इस स्थिति को निश्चित तौर पर दोनों को स्वीकारना चाहिए। इस क्षेत्र से गरीब दास के पिताजी रामदेव राय सर्वाधिक छह बार  विधायक निर्वाचित हुए, जबकि अवधेश राय तीन बार विधायक निर्वाचित हो चुके हैं। हाँ, बड़े दल के रूप में काँग्रेस से उदारता और सदाशयता की अपेक्षा जाती है और यह अपेक्षा वाज़िब भी है, पर काँग्रेस की अपनी मजबूरियाँ हैं। अगर काँग्रेस सीपीआई के दावे को स्वीकार करती है, तो उसे गरीबदास को खोना पड़ेगा जो उसके लिए दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में घाटे का सौदा होगा जिसके लिए काँग्रेस अभी तैयार नहीं हैं और न ही वह अभी इस स्थिति में हैं कि वह किसी अन्य तरीक़े से गरीबदास को कम्पनसेट करते हुए उन्हें कहीं और एडजस्ट कर सकें या इंगेज़ कर सके। इस ख़तरे का आभास उसे वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में मिल चुका है। इसीलिए सीपीआई को भी काँग्रेस की इस मजबूरी को समझना होगा, अन्यथा दोनों को इसकी क़ीमत चुकानी होगी। 

जहाँ तक गठबंधन धर्म के पालन का प्रश्न है, तो इसकी अपेक्षा काँग्रेस से ही क्यों? क्या महागठबंधन के अन्य सहयोगी दल, चाहे वे राजद हों या सीपीआई, गठबंधन धर्म का पालन कर रहे हैं। सीपीआई को महागठबंधन में 6 सीटें दी गयी, जबकि उसने 9 विधानसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार दिए हैं। अब जब आप खुद गठबन्धन धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं, तो आपको क्या हक़ है कि आप कांग्रेस पर प्रश्न उठायें? इसीलिए मैंने यह कहा कि बछवाड़ा की वस्तुस्थिति को स्वीकार कर उसे अवधेश राय और गरीबदास के हवाले कर दें और वहाँ से आगे बढ़ें। यहाँ से बाहर महागठबंधन को मजबूती दें।

सीपीआई: गहराते आन्तरिक मतभेद:

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संगठन और नेतृत्व में रहने के क्या फ़ायदे हैं, इसे समझना हो, तो अवधेश राय की राजनीतिक यात्रा को देखिए। लगातार हार के बावजूद वे न केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपने लिए कम्युनिस्ट पार्टी और महागठबंधन की टिकट सुनिश्चित करने की स्थिति में हैं, वरन् इसके लिए उन्होंने बिहार राज्य में सीपीआई के राजनीतिक भविष्य को भी दाँव पर लगाने से परहेज़ नहीं किया है। परिणाम यह कि बछवाड़ा होल्ड करने के चक्कर में पिछली बार सीपीआई को महज़ छह सीटों पर संतोष करना पड़ा और इस बार भी कमोबेश वैसी ही स्थिति है। आगामी चुनाव में महागठबंधन में सीपीआई के हिस्से छह सीटें आयीं, जबकि सीपीआई 9 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, काँग्रेस पर इस आरोप के साथ कि उसने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है, उसका उल्लंघन किया है। यहाँ तक कि उनके लिए पार्टी ने न केवल पचहत्तर साल की उम्र-सीमा को दरकिनार किया है , वरन् संगठन में रहने के बावजूद उन्हें चुनावी राजनीति में शामिल होने की अनुमति दी है।

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सीपीआई के आन्तरिक मतभेद: 

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अवधेश राय की उम्मीदवारी के प्रति सीपीआई के भीतर एक समूह में गहरा असंतोष है। उसका कहना है कि आख़िर लोकसभा से लेकर विधानसभा तक सीपीआई अवधेश राय से आगे बढ़कर क्यों नहीं सोच पा रही है और देख पा रही है? आख़िर क्यों नहीं नवीन संभावनाओं की तलाश की जा रही है? भाकपा राज्य-सचिव के पद पर कॉमरेड राम नरेश पाण्डेय की ताजपोशी और तेघड़ा एवं बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से क्रमशः राम रतन सिंह एवं अवधेश राय की उम्मीदवारी ने सीपीआई के सन्दर्भ में इस पारम्परिक धारणा को मज़बूती प्रदान की है कि वह बुजुर्गों की पार्टी है जहाँ युवाओं के लिए कोई स्थान नहीं हैँ। इसके उलट, आज की युवा पीढ़ी में ज़बर्दस्त महत्वाकांक्षा है, लेकिन उसमें धैर्य का नितान्त अभाव है। वह प्रतीक्षा करना नहीं जानती है। यह स्थिति वामपंथी दलों के भविष्य के लिए अच्छी और सुखद नहीं कही जा सकती है। 

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उनकी उम्मीदवारी के फ़ाइनल होने के पहले से ही उनकी कार्यशैली और उनके रवैये को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं, और इसकी प्रतिक्रिया में युवा वामपंथियों में ग़रीबदास के प्रति गहरा आकर्षण और गहरी सहानुभूति देखी जा रही है। भले ही वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं, पर उनमें अन्दर-ही-अन्दर अवधेश राय के प्रति आक्रोश और गरीबदास के प्रति सॉफ़्टनेस महसूसा जा सकता है। 


सभी पक्षों के लिए खुला है परिणाम:

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मुख्तसर यह कि बछवाड़ा के काँटे के त्रिकोणीय मुकाबले, जिसे रामोद कुँवर चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, में ऊँट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगा पाना राजनीतिक पण्डितों के लिए आसान नहीं होने जा रहा है। और, अगर सीपीआई और काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व एवं उत्साही समर्थकों ने बछवाड़ा की राजनीतिक लड़ाई को बछवाड़ा तक सीमित नहीं रखा और उसे बेगूसराय के अन्य विधानसभा क्षेत्रों तक ले जाने की कोशिश की, तो बेगूसराय में इसका प्रतिकूल असर महागठबंधन के साथ-साथ उसके दोनो प्रमुख राजनीतिक दलों: सीपीआई और काँग्रेस की राजनीतिक संभावनाओं पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में बछवाड़ा के साथ-साथ तेघड़ा, बखरी और बेगूसराय विधानसभा क्षेत्रों पर भी पड़ेगा। विशेष रूप से इनमें से दो सीटें महागठबंधन की जीती हुई सीटें हैं और दोनों ही सीटें सीपीआई के जिम्मे हैं। इसीलिए बछवाड़ा विधानसभा सीपीआई और काँग्रेस, दोनों के लिए खतरे की घंटी बनकर सामने आ रही है जिसे समय रहते मैनेज करने की जरूरत है।

Wednesday, 22 October 2025

तेघड़ा विधानसभा: एनडीए के लिए आसान नहीं होगा बिहार के मास्को के किले को भेद पाना

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                                तेघड़ा विधानसभा: 

                 एनडीए: बहुत कठिन है डगर पनघट की 

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पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सीपीआई उम्मीदवार राम रतन सिंह को आसान जीत मिली, उन्हीं कारणों से, जिन कारणों से लोकसभाा-चुनाव, 2019 में गिरिराज सिंह को अप्रत्याशित एवं आसान जीत मिली। लेकिन, प्रस्तावित विधानसभा चुनाव का परिदृश्य कुछ अलग है। इस बार सीपीआई के लिए इस सीट को निकालना आसान नहीं होने जा रहा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सीपीआई इस सीट को शर्तिया लूज़ कर रही है। 

विधानसभा चुनाव,2020:

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जहाँ पिछली बार यह लड़ाई महज एनडीए बनाम् यूपीए की नहीं थी, वरन् पिछड़ा बनाम् अगड़ा की भी थी और इस लड़ाई में धानुक जाति से आने वाले एनडीए उम्मीदवार वीरेन्द्र महतो पर स्वाभाविक बढ़त भूमिहार जाति से आने वाले महागठबंधन के उम्मीदवार रामरतन सिंह को मिली। ध्यातव्य है कि वीरेन्द्र महतो निर्वर्तमान विधायक थे और पाँच साल के दौरान क्षेत्र से उनका कोई नाता नहीं रहा। स्थानीय जनता से डिस्कनेक्ट, अगड़ा-विरोधी छवि और आमजन के बीच अलोकप्रियता की क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ी। इसका लाभ पिछले चुनाव में सीपीआई उम्मीदवार को मिला। यद्यपि इस चुनाव में पूर्व भाजपा-विधायक ललन कुँवर भी लोजपा-उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में थे और अपने क्षेत्र के भूमिहारों और विधायक के रूप में लोकप्रिय छवि का लाभ भी उन्हें मिला, तथापि क़रीब 29 हज़ार वोटों के साथ वे महज़ अपनी उपस्थिति  दर्ज करवा पाने में सफल रहे। उस समय यह मुक़ाबला त्रिकोणीय रहा, यद्यपि दबंग भूमिहारों के एक तबका इस बात को लेकर आशंकित था कि कहीं भूमिहार वोट में बिखराव का लाभ वीरेन्द्र महतो को न मिले और एक बार फिर से वीरेन्द्र महतो चुनाव जीत न जाएँ। इस स्थिति को टालने के लिए उन्होंने रामरतन सिंह के लिए वोट किया।  साथ ही, उस बार जनता में रामरतन सिंह के प्रति सहानुभूति भी रही। उनकी सादगी और ईमानदारी ने जनता को इस बात के लिए विवश किया कि वे उन्हें एक मौका दें। 

बदला हुआ चुनावी परिदृश्य:

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इस बार तेघड़ा विधानसभा का चुनावी परिदृश्य कुछ अलग है। इस बार यह सीट भाजपा के खाते में गया है, और भाजपा ने यहाँ से भूमिहार जाति के पूर्व विधान-पार्षद रजनीश कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। इतना ही नहीं, इस बार उनके प्रति वैसी सहानुभूति भी नहीं, जिसका लाभ पिछली बार उन्हें मिल। इस दृष्टि से देखा जाए, तो इस बार मुक़ाबला ज़ोरदार होने जा रहा है और इस मुक़ाबले में निर्वर्तमान विधायक रामरतन सिंह के पास वह स्वाभाविक बढ़त नहीं है जो पिछले बार थी। 


आसान नहीं रजनीश की राह:

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लेकिन, इस बार एनडीए-सह-भाजपा उम्मीदवार की राह भी आसान नहीं है। यह क्षेत्र बिहार के मास्को एवं लेनिनग्राड के रूप में जाना जाता है। इससे इतर, उनके समक्ष आंतरिक स्तर पर भी ऐसी चुनौतियाँ मौजूद हैं जिनसे पार पाए बिना उनके लिए चुनावी वैतरणी पार करना मुश्किल है। ये चुनौतियाँ निम्न हैं:

1. एनडीए-सह-भाजपा के उम्मीदवार रजनीश कुमार बाहरी उम्मीदवार हैं और इसका ख़ामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ सकता है। 

2. रजनीश कुमार को भीतरघात का सामना भी करना पड़ सकता है क्योंकि उनके जीतने का मतलब है उनके समकक्षों: ललन कुँवर और केशव शांडिल्य, जिनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ हैं, के लिए भविष्य की मुश्किलों का बढ़ना। ये कभी नहीं चाहेंगे कि रजनीश कुमार को जीतें। इस स्थिति में वे या तो उदासीन होंगे, या फिर अन्दर ही अन्दर भीतरघात करेंगे।

3. रजनीश कुमार के सामने एक चुनौती जदयू के सहयोग और समर्थन को सुनिश्चित करने की है। चूँकि यह सीट जदयू के कोटे में थी और इस बार भाजपा के कोटे में आयी है, इसीलिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर जदयू में आक्रोश है। आक्रोश का एक कारण यह भी है कि पिछली बार लोजपा के सहारे जदयू के खेल को बिगाड़ने में ललन भाजपा के ललन कुँवर और उनके सहयोगी भाजपाइयों की अहम् भूमिका रही है।

4. इतना ही नहीं, इस बार जिस तरीक़े से मुख्यमंत्री पद हेतु नीतीश कुमार और जदयू की दावेदारी को ख़ारिज करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है, उससे नीतीश कुमार और उनके समर्थकों में गहरा आक्रोश है। आशंका इस बात की है कि कहीं जदयू भाजपा  और उसके समर्थक भाजपा और लोजपा के लिए वही भूमिका न निभाएँ, जो भूमिका पिछले चुनाव में जदयू के लिए लोजपा ने निभायी थी।

5. इसका एक महत्वपूर्ण आयाम जातीय भी है। धानुक, कोईरी और कुर्मी पारम्परिक रूप से सीपीआई के वोटर रहे हैं और सीपीआई उनके लिए संघर्ष करती रही है। यही कारण है कि सीपीआई सामान्य भूमिहार मतदाताओं के आँखों की किरकिरी बनी रही और उन्होंने (कैडर को छोड़कर) उसकी तुलना काँग्रेस को और अब भाजपा को प्राथमिकता दी। लेकिन, नीतीश फ़ैक्टर और प्रदीप राय प्रकरण के कारण धानुकों, जिनकी इस विधानसभा क्षेत्र में ठीक-ठाक आबादी है, की सीपीआई से दूरी बढ़ी और वे जदयू और अपने स्वजातीय उम्मीदवार वीरेन्द्र महतो के पक्ष में मज़बूती से खड़े हुए। लेकिन, अब उन्हें यह डर है कि रजनीश की जीत की स्थिति में उनकी जाति को दुबारा इस क्षेत्र का नेतृत्व करने का मौक़ा न मिले। इसीलिए भविष्य की संभावनाओं को खुला रखने और नीतीश के मुख्यमंत्रित्व की संभावनाओं को बनाये रखने के लिए वे यहाँ भाजपा उम्मीदवार के विरूद्ध जा सकते हैं। पूर्व विधान पार्षद और पूर्व जदयू ज़िलाध्यक्ष भूमिपाल राय या रूबल राय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और रजनीश की उम्मीदवारी के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।


मुश्किलें बढ़ेंगी सीपीआई की:

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उपरोक्त परिदृश्य में यद्यपि सीपीआई बढ़त की स्थिति में दिख रही है, तथापि सतर्कता अपेक्षित है, अन्यथा अति-आत्मविश्वास भारी पड़ सकता है और इसकी बड़ी कीमत उसे चुकानी पड़ सकती है। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों के दौरान क्षेत्र में माननीय विधायक की सक्रियता रही है और वे जनता के सुख-दुःख में भागीदार भी रहे हैं, तथापि कुछ बातें सीपीआई उम्मीदवार के विरोध में भी जाती हैं:

1. वे उतने व्यवहार कुशल और मिलनसार नहीं हैं, जितने होने की अपेक्षा किसी जन-प्रतिनिधि से की जाती है। सार्वजनिक अवसरों पर उन्होंने अपनी उपस्थिति सुनिश्चित की है, लेकिन पब्लिक अपीयरेंस के दौरान वे आमलोगों से बहुत मिलते-जुलते नहीं दिखते हैं।  इसके उलट, वे सॉलिट्यूड वाली मनोदशा में बने रहते हैं। इसीलिए आमजन इनके साथ सहज नहीं महसूस करते।

2. एक जन-प्रतिनिधि से हम यह भी अपेक्षा करते हैं कि वे चढ़कर काम करवाए और इसके लिए प्रशासन पर दबाव निर्मित करें। सीपीआई के उम्मीदवार इस मामले में भी कमजोर दिखते हैं।

3. सीपीआई उम्मीदवार के सामने एक चुनौती पार्टी में विद्यमान आन्तरिक मतभेदों की भी है। कहीं-न-कहीं रामरतन सिंह की उम्मीदवारी को लेकर मतभेद, तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र में अंचल कार्यालयों के बीच मतभेद और वर्चस्व की टकराहट ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनसे प्रभावी तरीके से निपटने की अपेक्षा उनसे की जाती है। शायद इस दिशा में प्रभावी प्रगति भी हुई है, पर गठबंधन के स्तर पर चुनौतियाँ अब भी मौजूद हैं।

4. सीपीआई उम्मीदवार के सामने एक चुनौती महागठबंधन के सहयोगियों को भी साधने की है। बछवाड़ा में जिस तरह कॉन्ग्रेस और सीपीआई उम्मीदवार आमने-सामने हैं और जिस तरीके से उनके बीच कटुता बढ़ रही है, उसका ख़ामियाजा तेघड़ा और बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र में महागठबंधन उम्मीदवारों की संभावनाओं पर पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में तेघड़ा में सीपीआई के लिए कांग्रेस के सहयोग को सुनिश्चित करना आसान नहीं होने जा रहा है। कायदे से सीपीआई और कांग्रेस को चाहिए कि बछवाड़ा के तनाव को बछवाड़ा तक सीमित रखे और जहाँ महागठबंधन के एक ही उम्मीदवार हों, वहाँ आपसी सहयोग एवं समन्वय को सुनिश्चित किया जा सके। इस स्थिति में डैमेज को मिनिमाइज किया जा सकता है। इस मसले पर शीर्ष नेतृत्व को हस्तक्षेप करना चाहिए और तनाव को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन यह तभी सम्भव है जब कांग्रेस और सीपीआई, दोनों बछवाड़ा के सन्दर्भ में एक दूसरे की मजबूरी को समझें।

5. इसके अलावा, भाजपा और रजनीश की उम्मीदवारी ने उनके समक्ष जो मुश्किलें खड़ी की हैं, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। ध्यातव्य है कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भले ही सीपीआई करीब 48 हजार वोटों से जीती हो, पर लोजपा और जदयू को कुल मिलाकर 67 हजार से अधिक वोट मिले। इस तरह वास्तविक अन्तर 48 हजार का न रहकर 18 हजार का रह जाता है, और उसमें जब इंपैक्ट को न्यूट्रलाइज करें, तो यह अन्तर और भी सिमट जाता है। 


6. इतना ही नहीं, सीपीआई उम्मीदवार के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि एनडीए और उनके प्रत्याशी के पास न केवल पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं, वरन् चुनाव जीतने के लिए वे पानी की तरह पैसे बहाने और साम-दाम-दण्ड-भेद की रणनीति अपनाने में माहिर हैं। इसके अतिरिक्त, उनके पास बेहतर चुनावी प्रबंधन है, सटीक एवं प्रभावी चुनावी रणनीति है, और है हिटलर के प्रचार-मंत्री डॉ. गोबल्स वाली प्रोपगेंडा-मशीनरी, जिसकी बदौलत वे फ़िज़ाँ को बदलने में समर्थ हैं। इस कार्य में सहयोग के लिए उनके पास गोदी मीडिया का बिना शर्त समर्थन है और समर्पित कैडरों की टोली भी। इस कार्य में सहयोग के लिए चुनाव आयोग से लेकर प्रशासनिक मशीनरी तक का सहयोग उनके लिए उपलब्ध है। इससे मुकाबला कर पाना सीपीआई और उनके उम्मीदवार के लिए आसान नहीं होगा। जहाँ उन्हें संसाधनों की  किल्लत का सामना करना पड़ रहा है, वहीं एनडीए को पानी की तरह पैसा बहाने और उस पैसे की बदौलत कार्यकर्ताओं एवं मतदाताओं की निष्ठा को खरीदने में महारत हासिल है। आज के राजनीतिक परिदृश्य में वे नैरेटिव बनाने में माहिर हैं और उनके चुनावी नैरेटिव से मुकाबला कर पाना उनके विरोधियों के लिए आसान नहीं होता। 

बढ़त की स्थिति में सीपीआई:

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इन सबके बीच राहत की बात यह है कि भाजपा के आंतरिक मतभेदों और एनडीए गठबंधन के अंतर्विरोधों के बीच रजनीश का बाहरी होना दबाव को कम कर रहा है। इतना ही नहीं, सीपीआई उम्मीदवार का बीहट से होना और एक लंबे अन्तराल के बाद बीहट का तेघड़ा की राजनीतिक राजधानी के रूप में उभरना भी उनके पक्ष में जाएगा। इसके अतिरिक्त, सूरजभान सिंह, जो इस क्षेत्र के सांसद भी रहे हैं, का राजद से जुड़ना भी कोई के लिए राहत वाली बात है। ध्यातव्य है कि मधुरापुर सूरजभान सिंह का ननिहाल है और दुल्लापुर ससुराल। पारंपरिक रूप से मधुरापुर वामपंथ का गढ़ रहा है जिस गढ़ को तोड़ने में सूरजभान सिंह की भूमिका अहम् एवं निर्णायक रही है। ऐसी स्थिति में सूरजभान सिंह के समर्थन का लाभ भी वर्तमान विधायक को मिल सकता है और यह भूमिहार मतदाताओं के छिटकने की प्रक्रिया को अवरुद्ध करेगा। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रक्षा जाना चाहिए कि तेघड़ा विधान में मुसलमानों की आबादी करीब 38 हजार है, जबकि भूमिहारों की आबादी करीब 45-50 हज़ार। इसके अलावा, यादव की आबादी भी करीब 4 प्रतिशत अर्थात् 11 हज़ार के आसपास है। 


पिछले विधानसभा चुनाव के परिणामों के संकेत:

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विधानसभा चुनाव, 2010 में सीपीआई के उम्मीदवार राम रतन सिंह को उस समय भी 33 हज़ार मत मिले थे जब जमशेद अशरफ ने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में करीब साढ़े 21 हज़ार मत हासिल किए थे और एलजेपी प्रत्याशी के रूप में खड़े खाँटी वामपंथी प्रदीप राय को करीब 18 हज़ार मत हासिल हुए थे। इसी प्रकार वर्ष 2015 में भी सीपीआई उम्मीदवार को करीब 26 हज़ार मत प्राप्त हुए थे, उस स्थिति में जब सीपीआई अकेले चुनाव लड़ी थी और सीपीआई उम्मीदवार राम रतन सिंह के ग्रामीण राम लखन सिंह ने भाजपा उम्मीदवार के रूप में करीब 53 हजार मत हासिल किए थे। कहने का तात्पर्य यह है कि करीब 65-70 हज़ार वोटों के साथ सीपीआई उम्मीदवार बढ़त की स्थिति में दिख रहे हैं। अब ये तो आनेवाला समय बताएगा कि वे अपनी इस बढ़त को कहाँ तक कायम रख पाते हैं?

कुल-मिलाकर कहें, तो सीपीआई उम्मीदवार को अति-आत्मविश्वास से बचना होगा और सतर्कता बरतते हुए अपनी बढ़त को बनाए रखने की कोशिश करनी होगी, अन्यथा दुर्घटना की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

Friday, 26 September 2025

मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। : हजारीप्रसाद द्विवेदी

 मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी)


मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गतिहीनता औरपरमुखापेक्षिता से बचा  सकेजो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त  बना सकेजो उसके हृदय को परदु:कातर और संवेदनशील  बना सकेउसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। मैं अनुभव करता हूँ कि हमलोग एक कठिन समय के भीतर से गुज़र रहे हैं। आज नाना भाँति के संकीर्ण स्वार्थों ने मनुष्य को कुछ ऐसाअंधा बना दिया है कि जाति-धर्म-निर्विशेष मनुष्य के हित की बात सोचना असंभव सा हो गया है। ऐसा लगरहा है कि किसी विकट दुर्भाग्य के इंगित पर दलगत स्वार्थ से प्रेम ने मनुष्यता को दबोच लिया है। दुनियाछोटे-छोटे संकीर्ण स्वार्थों के आधार पर अनेक दलों में विभक्त हो गई है। अपने दल के बाहर का आदमीसंदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उसके रोने-गाने तक पर असदुद्देश्य का आरोप किया जाता है। उसके तपऔर सत्य-निष्ठा का मज़ाक उड़ाया जाता है। उसके प्रत्येक त्याग और बलिदान के कार्य में भी ‘चाल’ कासंधान पाया जाता है और अपने-अपने दलों में ऐसा करने वाला सफल नेता भी मान लिया जाता हैपरंतु मेराविश्वास है कि ऐसा करने वाला आदमी सबसे पहले अपना ही अहित करता है। बड़े-बड़े राष्ट्रनायक जबअपनी विराट अनुचरवाहिनी के साथ इस प्रकार का गंदा प्रचार करते हैंतो ऊपर-ऊपर से चाहे जितनी भीसफलता उनके पक्ष में आती हुई क्यों  दिखाई देइतिहास विधाता का निष्ठुर नियम-प्रवाह भीतर-ही-भीतरउनके स्वार्थों का उन्मूलन करता रहता है। इतिहास शक्तिशाली व्यक्तियों और राष्ट्रों की चिताभूमि कोकुचलता हुआ आगे बढ़ रहा हैफिर भी गंदे तरीक़े सुधारे नहीं गए हैंबल्कि उनको और भी कौशलपूर्ण औरप्रभावशाली बनाया जाता रहा है। जो लोग दृष्टा हैंवे इस ग़लती को समझते हैंपर उनकी बात मदमत्तव्यक्तियों की ऊँची गद्दियों तक नहीं पहुँच पाती। संसार में अच्छी बात कहने वालों की कमी नहीं हैपरंतुमनुष्य के सामाजिक संगठन में ही कहीं कुछ ऐसा बड़ा दोष हैजो मनुष्य को अच्छी बात सुनने और समझनेसे रोक रहा है। आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाएबल्कि यह है किअच्छी बात को सुनने और मानने के लिए मनुष्य को तैयार कैसे किया जाए?

इसीलिए साहित्यकार आज केवल कल्पनाविलासी बनकर नहीं रह सकता। शताब्दियों का दीर्घ अनुभव यहबताता है कि उत्तम साहित्य की सृष्टि करना ही सबसे बड़ी बात नहीं है। संपूर्ण समाज को इस प्रकार सचेतनबना देना परमावश्यक हैजो उस उत्तम रचना को अपने जीवन में उतार सके। साहित्यिक सभाएँ यह कार्य करसकती हैं। संपूर्ण जनसमाज को उत्तम साहित्य सुनाने का माध्यम बना सकती हैं। इस विशाल देश में शिक्षाकी मात्रा बहुत ही कम है। जिन देशों में शिक्षा की समस्या हल हो चुकी हैउनके साहित्यिकों की अपेक्षा यहाँके साहित्यिकों की ज़िम्मेदारी कहीं अधिक है। फिर हमने जिस भाषा के साहित्य-भंडार को भरने का व्रतलिया हैउसका महत्त्व और भी अधिक है। वह भारतवर्ष के केंद्रीय प्रदेशों की भाषा हैकई करोड़ आदमियोंकी ज्ञानपिपासा उसे शांत करनी है। इसलिए उसे संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का वाहन बनाना है।


हम लोग जब हिंदी की ‘सेवा’ करने की बात सोचते हैंतो प्रायः भूल जाते हैं कि यह लाक्षणिक प्रयोग है।हिंदी की सेवा का अर्थ है उस मानव-समाज की सेवाजिसके विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम हिंदी है।मनुष्य ही बड़ी चीज़ हैभाषा उसी की सेवा के लिए है। साहित्य सृष्टि का भी यही अर्थ है। जो साहित्य अपनेआपके लिए लिखा जाता हैउसकी क्या क़ीमत हैमैं नहीं कह सकतापरंतु जो साहित्य मनुष्य-समाज कोरोग-शोकदारिद्रय-अज्ञान तथा परमुखापेक्षिता से बचाकर उसमें आत्मबल का संचार करता हैवह निश्चयही अक्षय निधि है। उसी महत्त्वपूर्ण साहित्य को हम अपनी भाषा में ले आना चाहते हैं। मैं मनुष्य की इसअतुलनीय शक्ति पर विश्वास करता हूँ कि हम अपनी भाषा और साहित्य के द्वारा इस विषम परिस्थिति कोबदल सकेंगे।

परंतु हमें सावधानी से सोचना होगा कि हिंदी बोलने वाला जनसमुदाय क्या वस्तु है और वास्तव में वहपरिस्थिति क्या हैजिसे हम बदलना चाहते हैं। काल्पनिक प्रेत को घूँसा मारना बुद्धिमानी का काम नहीं है।नगरों और गाँवों में फैला हुआसैकड़ों जातियों और संप्रदायों में विभक्तअशिक्षादारिद्रय और रोग सेपीड़ित मानव-समाज आपके सामने उपस्थित है। भाषा और साहित्य की समस्या वस्तुतः उन्हीं की समस्याहै। क्यों ये इतने दीन-दलित हैंशताब्दियों की सामाजिकमानसिक और आध्यात्मिक ग़ुलामी के भार सेदबे हुए ये मनुष्य ही भाषा के प्रश्न हैं और संस्कृति तथा साहित्य की कसौटी हैं। जब कभी आप किसी विकटप्रश्न के समाधान का प्रयत्न कर रहे हों तो इन्हें सीधे देखें। अमेरिका में या जापान में ये समस्याएँ कैसे हलहुई हैंयह कम सोचेंकिंतु असल में ये हैं क्या और किस या किन कारणों से ये ऐसे हो गए हैंइसी कोअधिक सोचें। बड़े-बड़े विचारकों ने इस देश के जनसमुदाय के अध्ययन का प्रयत्न किया हैअब भी कर रहेहैंपर ये अध्ययन या तो इन्हें अच्छी प्रजा बनाने के उद्देश्य से किए गए हैं या वैज्ञानिक कुतूहल-निवारण केउद्देश्य से। इनको इस दृष्टि से देखना अभी बाक़ी है कि वे मनुष्य कैसे बनाए जाएँ। हमारी भाषाहमारासाहित्यहमारी राजनीतिसब कुछ का उद्देश्य यही हो सकता है कि इनको दुर्गतियों से बचाकर किस प्रकारमनुष्यता के आसन पर बैठाया जाए।


हमारा यह देश जातिभेद का देश है। करोड़ों मनुष्य अकारण अपमान के शिकार हैं। निरंतर दुर्व्यवहार पातेरहने के कारण उनके अपने मन में हीनता की गाँठ पड़ गई है। यह गाँठ जब तक नहीं निकल जाती तब एकभारतवर्ष की आत्मा सुखी नहीं रह सकती। कर्म का फल मिलता ही है। इससे बचने का उपाय नहीं है। जिनलोगों को अकारण अपमान के बंधन में डालकर हमने अपमानित किया हैवे लोग सारे संसार में हमारेअपमान के कारण बने हैं।

हमें सावधानी से उनकी वर्तमान अवस्था का कारण खोजना होगा। ये अनादिकाल से हीन नहीं समझे जातेरहे हैं। नाना प्रकार की ऐतिहासिकसामाजिकराजनीतिक और आर्थिक कारण परंपरा के भीतर से गुज़रकर भारतवर्ष की सैकड़ों जातियों वाला समाज तैयार हुआ है। इस शतच्छिद्र कलश में आध्यात्मिक रस टिकनहीं सकता। आजकल हम लोग को हिंदू-मुसलमानों की मिलन-समस्या से बुरी तरह चिंतित हैं। निःसंदेहयह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस महान प्रश्न ने हमारे समस्त जीवन को गंभीरतापूर्वक विचारने के लिएचुनौती दी है। हम अपनी भाषा के क्षेत्र में भी इस कठिन समस्या से हतबुद्धि हो रहे हैं। हमारे बड़े-बड़ेविचारकों ने प्रत्येक क्षेत्र में सुलह करने का व्रत लिया हैपरंतु मुझे ऐसा लगता है कि इससे भी कठोर समस्याका सामना हमें हिंदू-हिंदू मिलन के लिए ही करना है। अशांति के चिह्न अभी से प्रकट होने लगे हैं। जब हमभाषा या साहित्य विषयक किसी प्रश्न का समाधान करने बैठें तो केवल वर्तमान पर दृष्टि निबद्ध रखने से हमघोखा खा सकते हैं। मुझे अपनी बुद्धि या दीर्घदर्शिता का गर्व नहीं हैलेकिन जो कुछ अनुभव करता हूँउसेईमानदारी से प्रकट करने से शायद कुछ लाभ हो जाएइसी आशा से ये बातें कह रहा हूँ। सैकड़ों व्यर्थकल्पनाओं की भाँति ये अनंत वायुमंडल में विलीन हो जाएँगी। मुझे ऐसा लगता है कि ज्यों-ज्यों हमारेदेशवासियों में आत्मचेतना का संचार होता जाएगात्यों-त्यों हिंदू-समाज की भीतरी समस्याएँ उग्र रूपधारण करती जाएँगी। राजनीतिक बंधनों के दूर होते ही हमारी मानसिक या आध्यात्मिक ग़ुलामी का बंधनऔर भी कठोर प्रतीत होगा। दो-सौ वर्षों की राजनीतिक ग़ुलामी को तोड़ने में हमें जितना प्रयास करना पड़ाहैउससे कहीं अधिक प्रयास करना पड़ेगा इस सहस्त्राधिक वर्षों की सामाजिक और आध्यात्मिक ग़ुलामीकी ज़ंजीरों को तोड़ने में।


कवि ने बहुत पहले सावधान किया है, “जिसे तुमने नीचे फेंक रखा हैवह तुम्हें नीचे से जकड़कर बाँध लेगाजिसे पीछे डाल रखा हैवह पीछे खींचेगा। अज्ञान के अंधकार की आड़ में जिसे तुमने ढक रखा हैवह तुम्हारेसमस्त मंगल को ढककर घोर व्यवधान की सृष्टि करेगा। हे मेरे दुर्भाग्य ग्रस्त देशअपमान में तुम्हें समस्तअपमानितों के समान होना पड़ेगा।

शताब्दियों के विकट अपमान की प्रतिक्रिया कठोर होगी। उसके लिए हमें तैयार होना होगा। मुझे ऐसा लगताहै कि जब भाषा और साहित्य के मसले पर विचार किया जाता है तो इस तथ्य को बिल्कुल भुला दिया जाताहै। हिंदूओं की अपनी भीतरी समस्याएँ भी हैं और उन भीतरी समस्याओं के लिए जो विचार-विनिमय हुए हैंया हो रहे हैंवे नाना कारणों से संस्कृत-साहित्य से अधिक प्रभावित हुए हैं। वे किसी के प्रति घृणा याअदूरदर्शिता के कारण नहीं हुए हैं। छोटी कही जाने वाली जातियों में ऊपर उठने की आकांक्षा स्वाभाविक हैऔर उसके लिए उनका संस्कृत-साहित्य की ओर झुकना भी अस्वाभाविक नहीं है। यदि संस्कृत बहुल भाषाके व्यवहार और समस्त जातियों के ब्राह्मण या क्षत्रिय कहे जाने से सात करोड़ आदमियों में अपने को हीनसमझने की मनोवृत्ति कुछ कम होती हैतो ऐसा करना वांछनीय है या नहींयह मैं देश के नेताओं के विचारनेके लिए छोड़ देता हूँ।


एक ज़माना था जब भाषा-विज्ञान और नृतत्त्व-शास्त्र की घनिष्ठ मैत्री में विश्वास किया जाता था। मानाजाता था कि भाषा से नस्ल की पहचान होती है परंतु शीघ्र ही यह भ्रम टूट गया। देखा गया है कि ये दोनोंशास्त्र एक-दूसरे के विरुद्ध गवाही देते हैं। भारतवर्ष भाषा-विज्ञान और नृतत्त्व-शास्त्र के कलह का सबसे बड़ाअखाड़ा सिद्ध हुआ है। वर्तमान हिंदू-समाज में एक-दो नहींबल्कि दर्ज़नों ऐसी जातियाँ हैंजो अपनी मूलभाषाएँ भूल चुकी हैं और आर्यभाषा बोलती हैं। ब्राह्मण-प्रधान धर्म ने जातियों का कुछ इस प्रकार स्तर-विभाग स्वीकार किया है कि निम्न श्रेणी की जाति हमेशा अवसर पाने पर ऊँचे स्तर में जाने का प्रयत्न करतीहै। इस देश में जाने किस अनादिकाल से संस्कृत भाषा का प्राधान्य स्वीकार कर लिया गया है कि प्रत्येकनस्ल और फ़िर्के के लोग अपनी भाषा को संस्कृत श्रेणी की भाषा से बदलते रहे हैं। ग्रियर्सन ने अपने विशालसर्वे में एक भी ऐसा मामला नहीं देखाजहाँ आर्यभाषासंस्कृत श्रेणी की भाषाबोलने वाले किसीजनसमुदाय ने अन्य से अपनी भाषा बदली होयहाँ तक कि आर्यभाषा की एक बोली के बोलने वाले ने भीदूसरी बोली को स्वीकार नहीं किया है।

स्पष्ट है कि इस देश में संस्कृत-प्राधान्य कोई नई घटना नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि इस भाषा का सहारालेकर जातियाँ ऊपर उठी हैं। मैं केवल उन तथ्यों को आपके सामने रख रहा हूँजिनके आधार पर मेरी यहधारणा बनी है कि इस देश के करोड़ों मनुष्यों में आत्मचेतना भरने का काम बहुत दिन से संस्कृत भाषा करतीआई है और आगे भी करती रहेगीऐसी संभावना है। यह  समझिए कि जो लोग संस्कृत बहुल भाषा काव्यवहार कर रहे हैंवे किसी संप्रदाय के प्रति द्वेषवश और घृणावश करते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसीबेतुकी बातों पर भी आसानी से विश्वास कर लिया जाता है।


दीर्घकाल से ज्ञान के आलोक से वंचित इन मनुष्यों को हमें ज्ञान देना है। शताब्दियों से गौरव से हीन इनमनुष्यों में हमें आत्मगरिमा का संचार करना है। अकारण अपमानित इन मूक नर-कंकालों को हमें वाणी देनीहै। रोगशोकअज्ञानभूखप्यासपरमुखापेक्षिता और मूकता से इनका उद्धार करना है। साहित्य का यहीकाम है।

इससे छोटे उद्देश्य को मैं विशेष बहुमान नहीं देता। आप क्या लिखेंगेकैसे लिखेंगे और किस भाषा में लिखेंगेइन प्रश्नों का निर्माण इन्हीं की ओर देखकर कीजिए। यदि इनको मनुष्यता के ऊँचे आसन पर आप नहीं बैठासकते तो साहित्यिक भी नहीं कहे जा सकतेऔर यह कहना ही आवश्यक है कि स्वयं मनुष्य बने बिनास्वयंछोटे-छोटे तुच्छ विवादों से ऊपर उठे बिनाकोई भी व्यक्ति दूसरे को नहीं उठा सकता है। साहित्य के साधकोंको मनुष्य की सेवा करनी है तो देवता बनना होगा। नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय।


शायद मेरी ही भाँति आप भी इतना अवश्य स्वीकार करते हैं कि इस बहुधा-विभक्त जनसमुदाय को संबद्धबनाना है। यदि यह बात सत्य है तो मैं समझता हूँअभी हमने साहित्य का आरंभ ही नहीं किया है। हिंदी मेंकितने जनसमूह के परिचायक ग्रंथ हमने लिखे हैंइस विशाल मानव समाज की रीति-नीतिआचार-विचारआशा-आकांक्षाउत्थान-पतन समझने के लिए हमारी भाषा में कितनी पुस्तकें हैंइनके जीवन को सुखमयबनाने के साधनोंइनकी भूमिइनके पशुइनके विनोद-सहचरइनके पेशेइनके विश्वासइनकी नई-नईमनोवृत्तियों का हमने क्या अध्ययन प्रस्तुत किया हैकहाँ है वह सहानुभूति और दर्द का प्रमाणजिसे आपगणदेवता के सामने रख सकेंगेहिंदी की उन्नति का अर्थ उसके बोलने और समझने वालों की उन्नति है।

अपना यह देश कोई नया साहित्यिक प्रयोग करने नहीं निकला है। इसकी साहित्यिक-परंपरा अत्यंत दीर्घधारावाहिक और गंभीर है। साहित्य नाम के अंतर्गत मनुष्य जो कुछ भी सोच सकता हैउस सबका प्रयोग इसदेश में सफलतापूर्वक हो चुका है। वह अपनी भाषा का दुर्भाग्य है कि हमारी प्राचीन चिंतनराशि को उसमेंसंचित नहीं किया गया है। संस्कृतपालि और प्राकृत की बढ़िया पुस्तकों के जितने उत्तम अनुवाद अंग्रेज़ीफ़्रेंच और जर्मन आदि भाषाओं में हुए हैंउतने हिंदी में नहीं हुए। परंतु दुर्भाग्य भी लाक्षणिक प्रयोग है और यहवस्तुतः उस विशाल मानव-समाज का दुर्भाग्य हैजो भाषा के ज़रिए ही ज्ञान-अर्जन करना चाहता है याकरता है। यह विशाल साहित्य अपनी भाषाओं में यदि अनूदित होता तो हमारा साहित्यिक सहज ही उनसैकड़ों प्रकार के अपप्रचारों और हीन भावनाओं का शिकार होने से बच जाताजो आज संपूर्ण समाज कोदुर्बल और परमुखापेक्षी बना रहे हैं। विभिन्न स्वार्थ के पोषक प्रचार इस देश की अतिमात्र विशेषताओं काडंका प्रायः पीटा करते हैं।


इतिहास को कभी भौगोलिक व्याख्या के भीतर सेकभी जातिगत और कभी धर्मगत विशेषताओं के भीतर सेप्रतिफलित करके समझाया जाता है कि हिंदुस्तानी जैसे हैंउन्हें वैसा ही होना है और उसी रूप में बना रहनाही उनके लिए श्रेयस्कर है। इतिहास की जो अभद्र व्याख्या इन भिन्न-भिन्न विशेषताओं के भीतर से देखनेवाले प्रचारकों ने की हैवह हमारे रोम-रोम में व्याप्त होने लगीं हैं। अगर इस ज़हर को दूर करना है तो प्राचीनग्रंथों के देशी प्रामाणिक संस्करण और अनुवाद करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन अपनी भाषामें प्राचीन ग्रंथों को हमें सिर्फ़ इसलिए नहीं भरना है कि हमें दूसरे स्वार्थी लोगों के अपप्रचार के प्रभाव से मुक्तहोना है। विदेशी पंडितों ने अपूर्व लगन और निष्ठा के साथ हमारे प्राचीन शास्त्रों का अध्ययनमनन औरसंपादन किया है। हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिएपरंतु यह बात भूल नहीं जाना चाहिए कि अधिकांश विदेशीपंडितों के लिए हमारे प्राचीन शास्त्र नुमाइशी वस्तुओं के समान हैं। उनके प्रति उनका जो सम्मान हैउसेअंग्रेज़ी के ‘म्यूज़ियम इंटरेस्ट’ शब्द से भी समझाया जा सकता है। नुमाइश में रखी हुई चीज़ों को हम प्रशंसाऔर आदर की दृष्टि से देखते हैंपरंतु निश्चित जानते हैं कि हम अपने जीवन में उनका व्यवहार नहीं करसकते। किसी मुग़ल सम्राट का चोगा किसी प्रदर्शिनी में दिख जाए तो हम उसकी प्रशंसा चाहे जितनी करेंपर हम निश्चित जानेंगे कि उसको हमें धारण नहीं करना है। परंतु भारतीय शास्त्र हमारे देशवासियों के लिएप्रदर्शिनी की वस्तु नहीं हैंवे हमारे रक्त में मिले हुए हैं। भारतवर्ष आज भी उनकी व्यवस्था पर चलता है औरउनसे प्रेरणा पाता है। इसीलिए हमें इन ग्रंथों का अपने ढंग से संपादन करके प्रकाशन करना हैइनके ऐसेअनुवाद प्रकाशित करने हैंजो पुरानी अनुश्रुति से विच्छिन्न और असंबद्ध भी  हों और आधुनिक ज्ञान केआलोक में देख भी लिए गए हों। यह बड़ा विशाल कार्य है। संस्कृत भारतवर्ष की अपूर्व महिमाशालिनी भाषाहै। वह हज़ारों वर्षों के दीर्घकाल में और लाखों वर्गमील में फैले हुए मानव-समाज के सर्वोत्तम मस्तिष्कों मेंविहार करने वाली भाषा है। उसका साहित्य विपुल है। उसका साधन गहन है और उसका उद्देश्य साधु है। उसभाषा को हिंदी-माध्यम से समझने का प्रयत्न करना भी एक तपस्या है। उस तपस्या के लिए संयम तथाआत्मबल की आवश्यकता है। हमें अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर गंभीरतापूर्वक उसके अध्ययन में जुट जानाचाहिए। हिंदी को संस्कृत से विच्छिन्न करके देखने वाले उसकी अधिकांश महिमा से अपरिचित हैं।

महान कार्य के लिए विशाल हृदय होना चाहिए। हिंदी का साहित्य सचमुच महान कार्य हैक्योंकि उससेकरोड़ों का भला होना है। हम आजकल प्रायः गर्वपूर्वक कहा करते हैं कि हिंदी बोलने वालों की संख्याभारतवर्ष में सबसे अधिक है। मैं समझता हूँयह बात चिंता की हैक्योंकि हिंदी बोलने वाले जन-समूह कीमानसिकबौद्धिक और आध्यात्मिक भूख मिटाने का काम सहज नहीं है।


भारतवर्ष के पड़ोसी देशों में आजकल हिंदी-साहित्य पढ़ने और समझने में तीव्र लालसा जाग्रत हुई है। चीनसेमलय सेसुमात्रा सेजावा सेसमस्त एशिया से माँग  रही है। एशिया के देश अब अंग्रेज़ी पुस्तकों मेंप्राप्त सूचनाओं से संतुष्ट नहीं हैं। वे देशी दृष्टि से देशी भाषा में लिखा हुआ साहित्य खोजने लगे हैं। आगे यहजिज्ञासा और भी तीव्र होगी। मुझे चिंता होती है कि क्या हम अपने को इस उठती हुई श्रद्धा के उपयुक्त पात्रसिद्ध कर सकेंगेजिस दिन इतिहास-विधाता हमें ठेलकर विश्व-जनता के दरबार में ला पटकेंगेंउस दिनतक क्या हम इतना भी निश्चय कर सके होंगे कि हमारी भाषा कैसी होगीउसमें भिन्न-भिन्न भाषाओं केशब्दों का अनुपात क्या होगा और शब्दों के ‘शुद्ध’ और ‘गैर-शुद्ध’ उच्चारणों में से कौन-सा अपनाया जाएगा?

समूचे जनसमूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द का होना अच्छा है। इसके लिए तर्क-शास्त्रियों कीनहींऐसे सेवाभावी व्यक्तियों की आवश्यकता हैजो समस्त बाधाओं और विघ्नों को शिरसा स्वीकार करकेकाम करने में जुट जाते हैं। वे ही लोग साहित्य का भी निर्माण करते हैं और इतिहास का भी। आज कामकरना बड़ी बात है। इस देश में हिंदू हैंमुसलमान हैंस्पृश्य हैंअस्पृश्य हैंसंस्कृत हैंफ़ारसी हैंविरोधोंऔर संघर्षों की विराट वाहिनी हैपर सबके ऊपर मनुष्य है। विरोधों को दिन-रात याद करते रहने की अपेक्षाअपनी शक्ति का संबल लेकर उसकी सेवा में जुट जाना अच्छा है। जो भी भाषा आपके पास हैउससे बसमनुष्य को ऊपर उठाने का काम शुरू कर दीजिए। आपका उद्देश्य आपकी भाषा बना देगा।


अच्छी बात करने वालों की कमी इस देश में कभी नहीं रही है। आज भी बहुत ईमानदारी और सच्चाई के साथअच्छी बात करने वाले आदमी इस देश में कम नहीं हैं। उन्होंने प्रेम और भ्रातृभाव का मंत्र बताया है।आदिकाल से महापुरुषों ने प्रेम और सौहार्द का संदेश सुनाया है। कहते हैंव्यासदेव ने अंतिम जीवन मेंनिराश होकर कहा था कि मैं भुजा उठाकर चिल्ला रहा हूँ कि धर्म ही प्रधान वस्तु हैउसी से अर्थ और काम कीप्राप्ति होती हैपर मेरी कोई सुन नहीं रहा है

ऊर्ध्वबाहुविरौम्येष नैव कश्चिच्छुणोति मे।


धर्मादर्थश्च कामश्च  धर्म किं  सेव्यताम्॥

ऐसा क्यों हुआइसलिए कि समाज के ऐतिहासिक विकासआर्थिक संयोजन और सामाजिक संगठन केमूल में ही कुछ ऐसी ग़लती रह गई है कि एक दल जिसे धर्म समझता हैदूसरा उसे नहीं समझ पाता। इसवैषम्य को ध्यान में रखकर ही प्रेम सौहार्द का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। दही में जितना भी दूध डालिएदहीहोता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है।


मेरी अल्प बुद्धि में तो यही सूझता है कि समाज के नाना स्तरों के लिए अलग-अलग ढंग की भाषा होगी। नानाउद्देश्यों की सिद्धि के लिए नाना भाँति के प्रयत्न करने होंगे। सारे प्रतीयमान विरोधों का सामंजस्य एक ही बातसे होगामनुष्य का हित।

भारत के हज़ारों गाँवों और शहरों में फैली हुई सैकड़ों जातियों और उप-जातियों में विभक्त सभ्यता को नानासीढ़ियों पर खड़ी हुई यह जनता ही हमारे समस्त वक्तव्यों का लक्ष्यीभूत श्रोता है। उसका कल्याण ही साध्यहैबाक़ी सबकुछ साधन हैसंस्कृत भी और फ़ारसी भीव्याकरण भी और छंद भीसाहित्य भी और विज्ञानभीधर्म भी और ईमान भी। हमारे समस्त प्रयत्नों का एकमात्र लक्ष्य यही मनुष्य है। उसको वर्तमान दुर्गति सेबचाकर भविष्य में आत्यंतिक कल्याण की ओर उन्मुख करना ही हमारा लक्ष्य है। यही सत्य हैयही धर्म है।सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है।नारद ने शुकदेव से कहा था कि सत्य बोलना अच्छा हैपर हित बोलना और भी अच्छा है। मेरे मत से सत्य वहहैजो भूत-मात्र के आत्यंतिक कल्याण का हेतु हो


ऊर्ध्वबाहुविरौम्येष नैव कश्चिच्छुणोति मे।

धर्मादर्थश्च कामश्च  धर्म किं  सेव्यताम्॥


ऐसा क्यों हुआइसलिए कि समाज के ऐतिहासिक विकासआर्थिक संयोजन और सामाजिक संगठन केमूल में ही कुछ ऐसी ग़लती रह गई है कि एक दल जिसे धर्म समझता हैदूसरा उसे नहीं समझ पाता। इसवैषम्य को ध्यान में रखकर ही प्रेम सौहार्द का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। दही में जितना भी दूध डालिएदहीहोता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है।

मेरी अल्प बुद्धि में तो यही सूझता है कि समाज के नाना स्तरों के लिए अलग-अलग ढंग की भाषा होगी। नानाउद्देश्यों की सिद्धि के लिए नाना भाँति के प्रयत्न करने होंगे। सारे प्रतीयमान विरोधों का सामंजस्य एक ही बातसे होगामनुष्य का हित।


भारत के हज़ारों गाँवों और शहरों में फैली हुई सैकड़ों जातियों और उप-जातियों में विभक्त सभ्यता को नानासीढ़ियों पर खड़ी हुई यह जनता ही हमारे समस्त वक्तव्यों का लक्ष्यीभूत श्रोता है। उसका कल्याण ही साध्यहैबाक़ी सबकुछ साधन हैसंस्कृत भी और फ़ारसी भीव्याकरण भी और छंद भीसाहित्य भी और विज्ञानभीधर्म भी और ईमान भी। हमारे समस्त प्रयत्नों का एकमात्र लक्ष्य यही मनुष्य है। उसको वर्तमान दुर्गति सेबचाकर भविष्य में आत्यंतिक कल्याण की ओर उन्मुख करना ही हमारा लक्ष्य है। यही सत्य हैयही धर्म है।सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है।नारद ने शुकदेव से कहा था कि सत्य बोलना अच्छा हैपर हित बोलना और भी अच्छा है। मेरे मत से सत्य वहहैजो भूत-मात्र के आत्यंतिक कल्याण का हेतु हो

सत्यस्य वचनं श्रेयसत्यादपि हितं वदेत्।


यद्भूतहितमत्यंतमेतत् सत्यं मतं मम्॥

यही सर्वभूत का आत्यंतिक कल्याण साहित्य का चरम लक्ष्य है। जो साहित्य केवल कल्पना-विलास हैजोकेवल समय काटने के लिए लिखा जाता हैवह बड़ी चीज़ नहीं है। बड़ी चीज़ वह हैजो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु सामान्य धरातल से ऊपर उठाता है। मनुष्य का शरीर दुर्लभ वस्तु हैइसे पाना ही कम तप काफल नहीं हैपर इसे महान लक्ष्य की ओर उन्मुख करना और भी श्रेष्ठ कार्य है।


इधर कुछ ऐसी हवा बही है कि हर सस्ती चीज़ को साहित्य का वाहन माना जाने लगा है। इस प्रवृत्ति कोवास्तविकता’ के ग़लत नाम से पुकारा जाने लगा। तरह-तरह की दलीलें देकर यह बताने का प्रयत्न कियाजा रहा है कि मनुष्य की लालसोन्मुख वृत्तियाँ ही साहित्य के उपयुक्त वाहन हैं। मुझे किसी मनोरोग के विपक्षमें या पक्ष में कुछ भी नहीं कहना है। मुझे सिर्फ़ इतना ही कहना है कि साहित्य के उत्कर्ष या अपकर्ष के निर्णयकी एकमात्र कसौटी यही हो सकती है कि वह मनुष्य का हित साधन करता है या नहीं। जिस बात के कहने सेमनुष्य पशु-सामान्य धरातल के ऊपर नहीं उठतावह त्याज्य है। मैं उसी को सस्ती चीज़ कहता हूँ। सस्तीइसलिए कि उसके लिए किसी प्रकार के संयम या तप की ज़रूरत नहीं होती। धूल में लोटना बहुत आसान हैपरंतु धूल में लोटने से संसार का कोई बड़ा उपकार नहीं होता और  किसी प्रकार के मानसिक संयम काअभ्यास ही आवश्यक है। और जैसा कि रविंद्रनाथ ने कहा कि यदि कोई नि:संकोच धूल में लोट पड़े तो इसेहम बहुत बड़ा पुरुषार्थ नहीं कह सकते। हम इस बात को डरने योग्य भी नहीं मानेंगेपरंतु यदि दस-पाँच भलेआदमी ऊँचे गले से यही कहना शुरू कर दें कि धूल में लोटना ही उस्तादी है तो थोड़ा डरना आवश्यक होजाता है। भय का कारण इसका सस्तापन है। मनुष्य में बहुत सी आदिम मनोवृत्तियाँ हैंजो ज़रा-सा सहारापाते ही झनझना उठती हैं। अगर उनको भी साहित्य-साधना का बड़ा आदर्श कहा जाने लगे तो उस माननेऔर पालन करने वालों की कमी नहीं रहेगी। ऐसी बातों को इस प्रकार प्रोत्साहित किया जाता है कि मानोयह कोई साहस और वीरता का काम है।

पुरानी सड़ी रूढ़ियों का मैं पक्षपाती नहीं हूँपरंतु संयम और निष्ठा पुरानी रूढ़ियाँ नहीं हैं। वे मनुष्य के दीर्घआयास से उपलब्ध गुण हैं और दीर्घ आयास से ही पाए जाते हैं। इनके प्रति विद्रोह प्रगति नहीं है। आदिम युगमें मनुष्य की जो वृत्तियाँ अत्यंत प्रबल थींवे निश्चय ही अब भी हैं और प्रबल भी हैं। परंतु मनुष्य ने अपनीतपस्या से उनको अपने वश में किया है और वश में करने के कारण वह उनको सुंदर बना सका है। मनुष्य केरंगमंच पर आने के पहले प्रकृति लुढ़कती-पुढ़कती चली  रही थी। प्रत्येक कार्य अपने पूर्ववर्ती कार्य कापरिणाम है। संसार की कार्य-कारण परंपरा में कहीं फाँक नहीं थी। जो वस्तु जैसी होने को हैवह वैसीहोगी। इसी समय मनुष्य आया। उसने इस नीरंध्र ठोस कार्य-कारण परंपरा में एक फाँक का आविष्कारकिया। जो जैसा हैउसे वैसा ही मानने से उसने इंकार कर दिया। उसे उसने अपने मन के अनुकूल बनाने काप्रयत्न किया। सो मनुष्य की पूर्ववर्ती सृष्टि किसी प्रकार बनती जा रही थीमनुष्य ने उसे अपने अनुकूलबनाना चाहायहीं मनुष्य पशु से अलग हो गया। वह पशु-सामान्य धरातल से ऊपर उठा। बार-बार उसे उसीधरातल की ओर उन्मुख करना प्रगति नहींयह पीछे लौटने का काम है। मैं मानता हूँ कि  तो कभी ऐसासमय रहा हैजब लालसा को उत्तेजना देने वाला साहित्य  लिखा गया हो और  कोई ऐसा देश है जहाँ ऐसीबातें  लिखी गई होंपरंतु मेरा विश्वास है कि मनुष्य सामूहिक रूप से इस ग़लती को महसूस करेगा औरत्याग देगा। यह ठीक हैकि मनुष्य का इतिहास उसकी ग़लतियों का इतिहास हैपर यह और भी ठीक है किमनुष्य बराबर ग़लतियों पर विजय पाता आता है। लालसा को उत्तेजना देने वाला साहित्य उसकी ग़लती है।एक--एक दिन वह इस पर अवश्य विजय पाएगा।


सत्य अपना पूरा मूल्य चाहता है। उसके साथ समझौता नहीं हो सकता। साहित्य के चरम सत्य को पाने केलिए भी उसका पूरा-पूरा मूल्य चुकाना ही समीचीन है। जो लोग पद-पद पर सहज और सीधे साधनों कीदुहाई दिया करते हैंशायद किसी बड़े लक्ष्य की बात नहीं सोचते। मनुष्य को उसके उच्चतर लक्ष्य तकपहुँचाने के लिए उसके प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली वृत्तियों के साथ सुलह करने से काम नहीं चलेगा।कठोर संयम और त्याग द्वारा ही उसे बड़ा बनाया जा सकेगा। जो बात एक क्षेत्र में सत्य हैवह सभी क्षेत्रों मेंसत्य हैसाहित्य मेंभाषा मेंआचार मेंविचार मेंसर्वत्र। भाषा को ही लीजिए। मनुष्य अपने आहार औरनिद्रा के साधनों को जुटाने के लिए जिस भाषा का व्यवहार करता हैउसकी अनायास लब्ध भाषा हैपरंतुयदि उसे इस धरातल से ऊपर उठाना है तो उतने से काम नहीं चलेगा। सहज भाषा आवश्यक है। पर सहजभाषा का मतलब है सहज ही महान बनाने वाली भाषारास्ते में बटोरकर संग्रह की हुई भाषा नहीं।

सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है। सहज भाषा पाने के लिए कठोर तप आवश्यक है। जब तक आदमी सहजनहीं होता तब तक भाषा का सहज होना असंभव है। स्वदेश और विदेश के वर्तमान और अतीत के समस्तवाङ्मय का रस निचोड़ने से वह सहज भाव प्राप्त होता है। हर अदना आदमी क्या बोलता है या क्या नहींबोलताइस बात से सहज भाषा का अर्थ स्थिर नहीं किया जा सकता। क्या कहने या क्या  कहने से मनुष्यउस उच्चतर आदर्श तक पहुँच सकेगाजिसे संक्षेप में ‘मनुष्यता’ कहा जाता हैयही मुख्य बात है। सहजमनुष्य ही सहज भाषा बोल सकता है। दाता महान होने से दान महान होता है।


जिन लोगों ने गहन साधना करके अपने को सहज नहीं बना लिया हैवे सहज भाषा नहीं पा सकते। व्याकरणऔर भाषाशास्त्र के बल पर यह भाषा नहीं बनाई जा सकतीकोशों में प्रयुक्त शब्दों के अनुपात पर इसे नहींगढ़ा जा सकता। कबीरदास और तुलसीदास को यह भाषा मिली थीमहात्मा गांधी को भी यह भाषा मिलीक्योंकि वे सहज हो सके। उनमें दान करने की क्षमता थीशब्दों का हिसाब लगाने से यह दातृत्व नहीं मिलताअपन को दलित द्राक्षा के समान निचोड़कर महासहज के समर्पण कर देने से प्राप्त होता है। जो अपने कोनि:शेष भाव से दे नहीं सकावह दाता नहीं हो सकता। आप में अगर देने लायक वस्तु है तो भाषा स्वयं सहजहो जाएगी। पहले सहज भाषा बनेगीफिर उसमें देने योग्य पदार्थ भरे जाएँगे यह ग़लत रास्ता है। सही रास्तायह है कि पहले देने की क्षमता उपार्जन करोइसके लिए तप की ज़रूरत हैसाधना की ज़रूरत हैअपने कोनि:शेष भाव से दान कर देने की ज़रूरत है।

हिंदी साधारण जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआ था और जब तक वह अपने कोजनता के काम की चीज़ बनाए रहेगीजनचित्त में आत्म-बल का संचार करती रहेगीतब तक उसे किसी सेडर नहीं है। वह अपने आपकी भीतरी अपराजेय शक्ति के बल पर बड़ी हुई हैलोक-सेवा के महान व्रत केकारण बड़ी हुई है और यदि अपनी मूल शक्ति के स्रोत को भूल नहीं गई तो निस्संदेह अधिकाधिकशक्तिशाली होती जाएगी। उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। वह विरोधों और संघर्षों के बीच हीपली है। उसे जन्म के समय ही मार डालने की कोशिश की गई थीपर वह मरी नहीं हैक्योंकि उसकीजीवनी-शक्ति का अक्षय स्रोत जनचित्त है। वह किसी राजशक्ति की उँगली पकड़कर यात्रा तय करने वालीभाषा नहीं हैअपने आपकी भीतरी शक्ति से महत्त्वपूर्ण आसन अधिकार करने वाली अद्वितीय भाषा है।


शायद ही संसार में ऐसी कोई भाषा होजिसकी उन्नति में पद-पद पर इतनी बाधा पहुँचाई गई होफिर भीजो इस प्रकार अपार शक्ति संचय कर सकी हो। आज वह सैकड़ों ‘प्लेटफ़ार्मों’ सेकोड़ियों सेविद्यालयों सेऔर दर्जनों प्रेसों से नित्य मुखरित होने वाली परम शक्तिशालिनी भाषा है। उसकी जड़ जनता के हृदय में है।वह करोड़ों नर-नारियों की आशा और आकांक्षाक्षुधा और पिपासाधर्म और विज्ञान की भाषा है। हिंदीसेवा का अर्थ करोड़ों की सेवा है। इसका अवसर मिलना सौभाग्य की बात है।


मिलना सौभाग्य की बात है।

(दो)


वास्तव में हमारे अध्ययन की सामग्री प्रत्यक्ष मनुष्य है। आपने इतिहास में इसी मनुष्य की धारावाहिकजययात्रा की कहानी पढ़ी हैसाहित्य में इसी के आवेगोंउद्वेगों और उल्लासों का स्पंदन देखा हैराजनीति मेंइसकी लुका-छिपी के खेल का दर्शन किया हैअर्थशास्त्र में इसी की रीढ़ की शक्ति का अध्ययन किया है।यह मनुष्य ही वास्तविक लक्ष्य है। आप इससे सीधा संबंध जोड़ने जा रहे हैं। यह जो प्रत्यक्ष मनुष्य का पढ़नाहैवही बड़ी बात है। हमारी शिक्षा का अधिक भाग जिन सब दृष्टांतों का आश्रय लेता हैवे हमारे सामने नहींआते। हमारा इतिहास पढ़ना तब तक व्यर्थ हैजब तक हम उसे इस जीवंत मानव-प्रवाह के साथ एक करके देख सकें। हमारे देश का इतिहासयदि वह सचमुच ही हमारे देश का हैआज भी निश्चय ही हमारे घरोंमेंगाँवों मेंजातियों मेंखंडहरों में और इस देश के ज़र्रे-ज़र्रे में अपना चिह्न छोड़ता जा रहा है। जब तक देशके इन प्रत्येक कणों से हमारा प्रत्यक्ष संबंध नहीं स्थापित होता तब तक हम इतिहास का वास्तविक ज्ञान कैसेप्राप्त कर सकेंगेहममें से जो कोई भी अपने को शिक्षित समझता होउसे अपनी उच्च अट्टालिका से नीचेउतरकर अपने देश के इर्द-गिर्द फैले हुए विशाल जनसमूहविस्तृत भूखंड और सजीव चिंता-प्रवाह को हीप्रधान पाठ्य-पुस्तक बनाना होगा। पुस्तकें इसी महाग्रंथ को समझाने का साधन मानी जानी चाहिए। नोटोंऔर कुंजियों को उत्पन्न करने वाली मनोवृत्ति का निर्दयतापूर्वक दमन कर देना चाहिए। हम लोग नृतत्त्व केग्रंथ  पढ़ते हों सो बात नहीं हैकिंतु जब हम देखते हैं कि ग्रंथ पढ़ने के कारण हमारे घरों के निकट जो चमारधीवरकोढ़ीकुम्हार लोग रहते हैंउनके पूरे परिचय पाने के लिए हमारे हृदयों में ज़रा भी उत्सुकता नहींउत्पन्न होती तब अच्छी तरह समझ में  जाता है कि पुस्तकों के संबंध में हमें कितना अंध-विश्वास हो गयाहैपुस्तकों को हम कितना बड़ा समझते हैं और पुस्तकें वस्तुतः जिनकी छाया हैंउनको कितना तुच्छ मानतेहैं। यह ढंग ग़लत है। इसमें सुधार होना चाहिए। विद्या के क्षेत्र में ‘सेकेंड हैंड’ ज्ञान की प्रधानता स्थापित होनावांछनीय नहीं है। दुर्भाग्यवश अपने देश में ऐसे ही ज्ञान की प्रधानता स्थापित हो गई है। हमें यदि सचमुच कुछनया करना है तो बड़े विकट प्रयास करने पड़ेंगे। समूचे देश के मस्तिष्क में जो जड़-संस्कार पैदा कर दिए गएउनसे जूझना पड़ेगाइसका समर्थन तभी हो सकता हैजब हम दृढ़ होकर प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर हों।

आप में से अधिकांश का मार्ग शायद मातृभाषा और उसके साहित्य द्वारा देश की सेवा करना हो। यह बड़ाउत्तम मार्ग है। परंतु हमें अच्छी तरह समझ लेने की आवश्यकता है कि साहित्य-सेवा या मातृभाषा की सेवाका क्या अर्थ है। किसे सामने रखकर आप साहित्य लिखने जा रहे हैंआपके वक्तव्यों का लक्ष्यीभूत श्रोताकौन हैहिंदी भाषा कोई देवी-देवता की मूर्ति का नाम नहीं है। हिंदी की सेवा करने का अर्थ हिंदी की प्रतिमाबनाकर पूजना नहीं है। यह लाक्षणिक प्रयोग है। इसका अर्थ हैहिंदी के माध्यम द्वारा समझने वालीविशाल जनता की सेवा। कभी-कभी हम लोग इस भाषा से प्राप्त होने वाले अन्यायों से विक्षुब्ध होकर ग़लतढंग के स्वभाषा-प्रेम का परिचय देते हैं। अपनी भाषाअपनी संस्कृति और अपने साहित्य से प्रेम होना बुरीबात नहीं हैपर जो प्रेम ज्ञान द्वारा चालित और श्रद्धा द्वारा अनुगमित होता हैवही प्रेम अच्छा है। केवल ज्ञानबोझ हैकेवल श्रद्धा अंधा बना देती है। हिंदी के प्रति जो हमारा प्रेम हैवह भी ज्ञान द्वारा चालित और श्रद्धाद्वारा अनुगमित होना चाहिए। हमें ठीक-ठीक समझना चाहिए कि हिंदी की शक्ति कहाँ हैहिंदी इसलिएबड़ी नहीं है कि हममें से कुछ लोग इस भाषा में कहानी या कविता लिख लेते हैं या सभा-मंचों पर बोल लेतेहैं। नहींवह इसलिए बड़ी है कि कोटि-कोटि जनता के हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने में यह भाषा इसदेश में सबसे बड़ा साधन हो सकता है। हमारे पूर्वजों ने दीर्घकाल की तपस्या और मनन से जो ज्ञानराशिसंचित की हैउसे सुरक्षित रखने का यह सबसे मज़बूत पात्र हैअकारण और सकारण शोषित और पोषितमूढ़निर्वाक जनता तक आशा और उत्साह का संदेश इसी जीवंत और समर्थ भाषा के द्वारा पहुँचाया जासकता है। यदि देश में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को हमें जनसाधारण तक पहुँचाना है तो इसी भाषा का सहारालेकर हम यह काम कर सकते हैं। हिंदी इन्हीं संभावनाओं के कारण बड़ी है। यदि वह यह कार्य नहीं करसकती तो ‘हिंदी-हिंदी’ चिल्लाना व्यर्थ है। यदि वह यह काम कर सकती है तो उसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वलहै। यदि वह इन महान उद्देश्यों के अनुकूल है तो फिर वह इस देश में हिमालय की भाँति अचल होकर रहेगी।हिमालय की ही भाँति उन्नतउतनी ही महान हिंदी जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआथा और जब तक वह जनता के चित्त में आत्मबल संचारित करती रहेगीउसके हृदय और मस्तिष्क की भूखमिटाती रहेगीतब तक उसका जीवन सार्थक है। जो लोग इस भाषा और उसके साहित्य की सेवा करने काव्रत करने जा रहे होंउन्हें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए।


भारतवर्ष क्या हैअनादिकाल के नाना जातियाँ अपने नाना भाँति के संस्काररीति-रस्म आदि लेकर इसदेश में आती रही हैं। यहाँ भी अनेक प्रकार के मानवीय समूह विद्यमान रहे हैं। ये जातियाँ कुछ देर तकझगड़ती रही हैं और फिर रगड़-झगड़करले-देकर पास-ही-पास बस गई हैंभाइयों की तरह। इन्हीं नानाजातियोंनाना संस्कारोंनाना धर्मोंनाना रीति-रस्मों का जीवंत समन्वय यह भारतवर्ष है। विदेशी पराधीनताने इसके स्वाभाविक विकास में बाधा पहुँचाई है। उसका बाह्यरूप विचित्र-सा दिखाई दे रहा है। इसीवैचित्र्यपूर्ण जनसमूह को आशा और उत्साह का संदेश देना साहित्य-सेवा का लक्ष्य है। हज़ारों गाँवों औरशहरों में फैली हुईशताधित जातियों और उप-जातियों में विभक्तसभ्यता के नाना स्तरों पर ठिठकी हुई यहजनता ही हमारे समस्त प्रयत्नों का लक्ष्य है। इसका कल्याण ही साध्य है। बाक़ी सब कुछ साधन है। आपनेजो अपनी भाषा पर अधिकार प्राप्त किया हैवह अपने आप में अपना अंत नहीं है। वह साधन है। इसे भाषाके सहारे आपको इस जनता तक पहुँचना है। इसको निराशा और पस्त हिम्मती से बचाना आपका कर्तव्य हैपरंतु यह कोई सरल काम नहीं है। केवल कुछ अच्छा करने की इच्छा मात्र से यह काम नहीं होगा। आज कीसमस्याएँ बड़ी उलझनदार और जटिल हैं। बिजली की बत्ती मुँह से फूँककर नहीं बुझाई जाती है। यह समझनेकी ज़रूरत है कि जो दुर्गति आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैंउसका वास्तविक कारण क्या हैसाहित्य कासाधक केवल कल्पना की दुनिया में विचरण करकेकेवल ‘हाय-हाय’ को या ‘वाह-वाह’ की पुकार करकेअपने सामने की कुत्सित कुरूपता को नहीं बदल सकता। हमें उस समूची विद्या को सीखना पड़ेगाजोविश्व-रहस्य से नए-नए द्वार खोल रही हैजो प्रकृति के समस्त गुप्त भंडार पर धावा बोलने के लिएबद्धपरिकर हैजो मनुष्य को असीम सुख और समृद्धि तक ले जा सकती हैफिर हमें उस स्वार्थ-शक्ति को भीसमझना हैजो इस विद्या का ग़लत प्रयोग करने वाले मनुष्य को सर्वत्र लांछित और अपमानित कर रही है।साहित्य का कारोबार मनुष्य के समूचे जीवन को लेकर है। जो लोग आज भी यह सोचते हैं कि साहित्य केलिए कुछ ख़ास-ख़ास विषय ही पढ़ने के हैंवे बड़ी ग़लती करते हैं। आज की जनता की दुर्दशा को यदि आपसचमुच ही उखाड़ फेंकना चाहते हैं तो आप चाहे जो भी मार्ग लेंराजनीति से अलग होकर नहीं रह सकतेअर्थनीति की उपेक्षा नहीं कर सकते और विज्ञान की नई प्रवृत्तियों से अपरिचित रहकर कुछ भी नहीं करसकते। साहित्य केवल बुद्धि विलास नहीं है। वह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा करके सजीव नहीं रहसकता।

साहित्य के उपासक अपने पैर के नीचे की मिट्टी की उपेक्षा नहीं कर सकते। हम सारे बाह्य जगत को असुंदरछोड़कर सौंदर्य की सृष्टि नहीं कर सकते। सुंदरता सामंजस्य का नाम है। जिस दुनिया में छोटाई और बड़ाईमेंधनी और निर्धन मेंज्ञानी और अज्ञानी मेंआकाश-पाताल का अंतर हो वह दुनिया बाह्य सामंजस्य नहींकही जा सकती और इसलिए वह सुंदर भी नहीं है। इस बाह्य असुंदरता के ढूह में खड़े होकर आंतरिक सौंदर्यकी उपासना नहीं हो सकती। हमें उस बाह्य असौंदर्य को देखना ही पड़ेगा। निरन्ननिर्वसन जनता के बीच खड़ेहोकर आप परियों के सौंदर्य-लोक की कल्पना नहीं कर सकते। साहित्य सुंदर का उपासक हैइसलिएअसामंजस्य को दूर करने का प्रयत्न पहले करना होगाअशिक्षा और कुशिक्षा से लड़ना होगाभय औरग्लानि से लड़ना होगा। सौंदर्य और असौंदर्य का कोई समझौता नहीं हो सकता। सत्य अपना पूरा मूल्यचाहता है। उसे पाने का सीधा और एकमात्र रास्ता उसकी क़ीमत चुका देना ही है। इसके अतिरिक्त कोईदूसरा रास्ता नहीं है। हमारे देश का बाह्य रूप  तो आँखों की प्रीति देने लायक है कानों को मन को बुद्धि को। यह सचाई है।


यदि किसी देश का बाह्य रूप सम्मान योग्य तथा सुंदर नहीं बन सका है तो समझना चाहिए कि उस राष्ट्र कीआत्मा में एक उच्च जगत का निर्माण किया जाना शुरू नहीं हुआ हैअर्थात् वहाँ सच्चे साहित्य के निर्माण काश्रीगणेश नहीं हुआ है। साहित्य ही मनुष्य को भीतर से सुसंस्कृत तथा उन्नत बनाता है और तभी उसका बाह्यरूप भी साफ़ और स्वस्थ दिखाई देता है। और साथ ही बाह्य रूप के साफ़ और स्वस्थ होने से आंतरिकस्वास्थ्य का भी आरंभ होता है। दोनों ही बातें अन्योन्याश्रित हैं। जबकि हमारे देश में नाना भाँति के कुसंस्कारऔर गंदगी वर्तमान है जबकि हमारे समाज का आधा अंग पर्दे में ढका हुआ हैजब कि हमारी नब्बे फ़ीसदीजनता अज्ञान के मलबे के नीचे दबी हुई है तब हमें मानना चाहिए कि अभी दिल्ली बहुत दूर है। हम साहित्यके नाम पर जो कुछ कर रहे हैं और जो कुछ दे रहे हैंउसमें कहीं बड़ी भारी कमी रह गई है। हमारा भीतर औरबाहर आप ही साफ़-स्वस्थ नहीं है। साहित्य की साधना तब तक बाध्य ही रहेगी जब तक हम पाठकों में एकऐसी अदमनीय आकांक्षा जाग्रत  कर दें जो सारे मानव-समाज को भीतर से और बाहर से सुंदर तथा सम्मानयोग्य देखने के लिए सदा व्याकुल रहे। अगर यह आकांक्षा जागृत हो सकी तो हममें से प्रत्येक अपनी-अपनीशक्ति के अनुसार उन सामग्रियों को ज़रूर संग्रह कर लेगा जो उक्त इच्छा की पूर्ति की सहायक हैं। अगर यहआकांक्षा जाग्रत नहीं हुई तो कितनी भी विद्या क्यों  पढ़ी होवह एक जंजाल मात्र सिद्ध होगी औरदुनियादारी और चालाकी का ढकोसला ही बनी रहेगी। जो साहित्यिक-निष्ठा के साथ इच्छा को लेकर रास्तेपर निकल पड़ेगा वह स्वयं अपना रास्ता खोज निकालेगा। साधन की अल्पता से कोई महती इच्छा आज तकनहीं रुकी है। भूख होनी चाहिएएक बार भूख होने पर खाद्य-सामग्री जुट ही जाती है पर खाद्य-सामग्री के भरेरहने पर भूख नहीं लगती है। गरुड़ ने उत्पन्न होते ही कहा, “माँबहुत भूख लगती है।” माता विनता घबराकरविलाप करने लगी कि इस प्रचंड क्षुधाशाली पुत्र को अन्न कहाँ से दें। पिता कश्यप ने आश्वासन देकर कहाथा, “कोई चिंता की बात नहीं। महान् पुत्र उत्पन्न हुआ हैक्योंकि उसकी भूख महान् है।” हमारी भाषा को भीइस समय प्रचंड साहित्यिक क्षुधा वाले महान पुत्र की आवश्यकता है। जब तक हमारी मातारूपी भाषा केगर्भ से ऐसे कृती पत्र पैदा नहीं होतेतभी तक वह विनता की तरह कष्ट पा रही है। जिस दिन ऐसे पुत्र पैदाहोंगेउस दिन मातृभाषा धन्य हो जाएगी।

इस देश में हिंदू हैंमुसलमान हैंब्राह्मण हैंचांडाल हैंधनी हैंग़रीब हैंविरुद्ध संस्कारों और विरोधी स्वार्थोंकी विराट वाहिनी हैं। इसमें पद-पद पर ग़लत समझे जाने का अंदेशा हैप्रतिक्षण विरोधी स्वार्थों के संघर्ष मेंपिस जाने का डर हैसंस्कारों और भावावेशों का शिकार हो जाने का अंदेशा हैपरंतु इन समस्त विरोधों औरसंघातों से बड़ा और सबको छापकर विराज रहा है मनुष्य। इस मनुष्य की भलाई के लिए आप अपने आपकोनि:शेष भाव से देकर ही सार्थक हो सकते हैं। सारा देश आपका है। भेद और विरोध ऊपरी हैं। भीतरी मनुष्यएक हैं। इस एक को दृढ़ता के साथ पहचानने का यत्न कीजिए। जो लोग भेद-भाव को पकड़कर ही अपनारास्ता निकालना चाहते हैंवे ग़लती करते हैं। विरोधी रहे हैं तो उन्हें आगे भी बने ही रहना चाहिएयह कोईकाम की बात नहीं हुई। हमें नए सिरे से सब कुछ गढ़ना हैतोड़ना नहीं हैटूटे को जोड़ना है। भेद-भाव कीजयमाला से हम पार नहीं उतर सकते। कबीर ने हैरान होकर कहा था


कबीर इस संसार को समझाऊँ कैं बार।

पूंछ जु पकड़ें भेद काउतरा चाहै पार॥


मनुष्य एक है। उसके सुख-दुःख को समझनाउसे मनुष्यता के पवित्र आसन पर बैठाना ही हमारा कर्तव्य है।