मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा-शर्तें और कार्यावधि) बिल,
2023
प्रमुख आयाम
1.
2. विधायन
की पृष्ठभूमि
3. प्रमुख
उपबंध
4. बदलाव का असर और इसकी प्रभावशीलता
5. चुनाव
आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता पर प्रतिकूल असर
6. अन्य चुनाव-आयुक्तों की बर्खास्तगी-प्रक्रिया को लेकर दुविधा
।केन्द्र सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मसले को
अपने संवैधानिक दायित्वों के रूप में स्वीकार करने की बजाय राज्य के कार्यकारी
दायित्व (Executive Function) के रूप में देखती है, तभी तो वह नियुक्ति-प्रक्रिया पर अपने वर्चस्व को
बनाये रखना चाहती है। प्रमाण है न्यायाधीशों की नियुक्ति-प्रक्रिया से सम्बंधित
प्रस्तावित संशोधन विधेयक। ध्यातव्य है कि 10 अगस्त, 2023 को केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्री
अर्जुन राम मेघवाल ने राज्यसभा में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा-शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023 पेश किया। प्रस्तावित बिल
निर्वाचन आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा-शर्तें और कारबार का सञ्चालन)) एक्ट,
1991 की जगह लेगा। वर्तमान
में यह अधिनियम मुख्य
चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की सेवा-शर्तों एवं क्रिया-प्रणाली का नियमन तो
करता है, पर इसमें न तो अर्हताओं की चर्चा है और न ही नियुक्ति-प्रक्रिया, जो
नामों की शॉर्टलिस्टिंग से लेकर अन्तिम चयन तक की प्रक्रिया निर्धारित करे, का
विस्तृत उल्लेख। प्रस्तावित
बिल इन सारी कमियों को दूर करता है। प्रस्तावित बिल के ज़रिये 1991 के अधिनियम की कमियों को दूर करने की कोशिश की गयी है और प्रस्तावित बिल
के ज़रिये इस अधिनियम को प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। ध्यातव्य है
कि प्रस्तावित बिल की धारा 20(1) निर्वाचन आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तें और
कार्य-संचालन) एक्ट, 1991 को निरस्त करती है।
विधायन की पृष्ठभूमि:
सवाल
यह उठता है कि सरकार को इस बिल को प्रस्तावित करने की दिशा में क्यों पहल करनी
पड़ी? इस प्रश्न को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. संसदीय विधायन के ज़रिये
विद्यमान शून्य को भरने की संवैधानिक अपेक्षायें: अनु. 324(2) निर्वाचन आयोग की संरचना के साथ-साथ राष्ट्रपति द्वारा मुख्य
निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान करता है और
राष्ट्रपति से यह अपेक्षा करता है कि वे संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के
उपबंधों के अधीन रहते हुए अपने इस संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करें। संविधान
के इस निर्देश के बावजूद चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति हेतु स्पष्ट, पारदर्शी एवं निष्पक्ष
वैधानिक प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए अबतक संसद के द्वारा कोई पहल नहीं की गयी। पिछले 73 वर्षों के दौरान संसद ने अपने इस संवैधानिक
दायित्व का निर्वहन नहीं किया। इस कारण निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति और इसके लिए
अर्हता-मानदण्डों के निर्धारण के सन्दर्भ में एक शून्य सृजित हुआ जिसको यथाशीघ्र
भरा जाना अपेक्षित था। इसी शून्य ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया के
सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त किया जिसके कारण
कार्यपालिका के हाथ बँधते नज़र आये, और इसने उसे विधायी हस्तक्षेप के लिए विवश किया।
2. चुनाव आयोग अधिनियम, 1991 की सीमायें: वर्तमान
में लागू निर्वाचन आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा शर्तें और कार्य-संचालन) अधिनियम,1991
चुनाव आयुक्तों के वेतन-भत्ते एवं सेवा-शर्तों के साथ चुनाव आयोग के कारबार के
सञ्चालन से सम्बंधित प्रावधान तो करता है, पर उनकी नियुक्ति-प्रक्रिया और इसके लिए
अर्हता-मानदण्डों का निर्धारण नहीं करता है। इस अधिनियम की सीमा ने इसकी जगह ऐसे
अधिनियम का मार्ग प्रशस्त किया किया जो उपरोक्त अधिनियम के प्रावधानों के साथ-साथ
चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति एवं अर्हता-मानदण्डों से सम्बंधित प्रावधान को भी
समाहित करे।
3. मार्च,2023 में सुप्रीम
कोर्ट का फैसला: प्रस्तावित विधेयक में इसके लक्ष्यों की
घोषणा करते हुए कहा गया है कि मार्च,2023 में अनूप बरनवाल एवं अन्य बनाम् भारत संघ
मामले में सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए संसद से
कानून बनाना जरूरी हो गया था। मार्च,2023 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट
शब्दों में इस बात का ज़िक्र किया कहा कि जब तक संसद संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुरूप कानून नहीं
बनाती है, तब तक चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति उसके द्वारा
निर्दिष्ट कॉलेजियम, जिसमें प्रधानमन्त्री, मुख्या न्यायाधीश और विपक्ष के नेता
(लोकसभा) शामिल होंगे, के द्वारा की गयी अनुशंसाओं के आलोक में होगी। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद केन्द्र सरकार के पास दो
ही विकल्प बचे थे:
a. केन्द्र
सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करते हुए चयन समिति का गठन करे और भविष्य
में उसी की सिफारिश पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति हो,
या फिर
b. केन्द्र
सरकार संसदीय विधायन की दिशा में पहल करे और संसद द्वारा निर्धारित प्रक्रिया को
फॉलो करते हुए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सुनिश्चित करे।
केन्द्र सरकार ने
इसी दूसरे विकल्प को चुना।
स्पष्ट है कि कानून नहीं बनाने के एवज में केन्द्र
सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को मानने के अलावा कोई दूसरा विकल्प
नहीं रहता। ऐसे में उसे भविष्य में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाकी दो चुनाव
आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रस्तावित उस कॉलेजियम के
ज़रिये करनी पड़ती जिसका स्वरुप अराजनीतिक होता, जो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया
को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त रखती और जिसकी स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता
असंदिग्ध होती। लेकिन, ऐसी स्थिति में सरकार के लिए अपने पसन्दीदा व्यक्ति को
चुनाव आयुक्त के पद पर बैठाना और फिर उसके माध्यम से अपने राजनीतिक हितों को साधना
संभव नहीं रहा जाता।
प्रस्तावित बिल के प्रमुख उपबंध:
1. चुनाव आयोग की संरचना और
नियुक्ति-प्रक्रिया: संविधान के अनु. 324 के अनुसार, चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त
(CEC) और उतने ही अन्य चुनाव आयुक्त (EC’S) होते हैं, जितने
राष्ट्रपति तय करें। मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और अन्य चुनाव आयुक्तों(EC’S) की
नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। प्रस्तावित बिल चुनाव आयोग की संरचना को
निर्दिष्ट करता है। इसकी धारा
(3-4) में कहा गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और अन्य चुनाव आयुक्तों(EC’S) की
नियुक्ति चयन-समिति के सुझावों पर राष्ट्रपति द्वारा की
जाएगी।
2. चयन-समिति (Selection Committee): प्रस्तावित बिल की धारा 7(1) में चयन-समिति की संरचना का संकेत है। इसमें उल्लिखित
चयन-समिति में निम्न लोग शामिल होंगे:
a.
अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री,
b.
सदस्य के रूप में लोकसभा में विपक्ष
के नेता, और
c.
प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय
कैबिनेट मंत्री।
बिल में यह स्पष्टीकरण भी मौजूद है कि अगर लोकसभा में
विपक्ष के नेता के रूप में किसी को औपचारिक मान्यता नहीं दी गई है, तो ऐसी स्थिति
में लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता इस भूमिका में होगा।
3. चयन-समिति में रिक्ति या दोषपूर्ण संरचना के आधार पर
नियुक्ति को खारिज न करना: प्रस्तावित
बिल की धारा 7(2) के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति
महज इस आधार पर खारिज नहीं की जायेगी कि चयन समिति में कोई रिक्ति है या फिर उसकी
संरचना दोषपूर्ण है।
4. खोजबीन समिति (Search Committee): प्रस्तावित
बिल की धारा 6 में इस बात का उल्लेख है कि चयन-समिति की सहायता
के लिए तीन सदस्यीय खोजबीन समिति होगी। इस सर्च पैनल की
अध्यक्षता कैबिनेट सचिव करेंगे और इसमें दो अन्य सदस्य होंगे। सर्च पैनल के इन दो
सदस्यों की अर्हताओं का भी निर्धारण किया गया है:
a.
ये केन्द्र सरकार के सचिव स्तर से
नीचे के अधिकारी नहीं होंगे।
b.
उनके पास चुनाव-सञ्चालन एवं प्रबंधन
से संबंधित मामलों का ज्ञान और अनुभव होना चाहिए।
इस पैनल के द्वारा चुनाव-आयुक्त के पद पर नियुक्ति के लिए
पाँच व्यक्तियों का नाम शॉर्टलिस्ट करते हुए उस सूची को प्रधानमन्त्री की
अध्यक्षता वाली चयन समिति के पास भेजा जाएगा।
5. सर्च पैनल की अनुशंसाओं को दरकिनार करना संभव: प्रस्तावित
बिल की धारा 8(2) के अनुसार, चयन समिति उन
उम्मीदवारों के नामों पर भी विचार कर सकती है जिन्हें सर्च पैनल द्वारा तैयार सूची
में शामिल नहीं किया गया है। साथ ही, धारा 8(1) के
अनुसार, चयन समिति मुख्य चुनाव-आयुक्त या अन्य चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति के लिए
अपनी पारदर्शी प्रक्रिया का नियमन स्वयं ही करेगी।
6. अर्हता-मानदण्ड: प्रस्तावित
बिल की धारा 5 के अनुसार, ऐसा
व्यक्ति ही मुख्य चुनाव-आयुक्त और अन्य चुनाव-आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जा
सकता है:
a. जो कम-से-कम सचिव या
उसके समकक्ष स्तर का अधिकारी रहा हो,
b. जिसकी नैतिकता एवं
सत्यनिष्ठा असंदिग्ध हो, और
c. जिसके
पास चुनाव-प्रबंधन एवं सञ्चालन का अनुभव एवं समझ हो। ऐसे
व्यक्तियों के पास चुनाव-प्रबंधन और संचालन में विशेषज्ञता
होनी चाहिए।
7. कार्यावधि/कार्यकाल: सन् 1991 का एक्ट कहता है कि मुख्य चुनाव-आयुक्त या अन्य चुनाव-आयुक्त छह वर्ष की अवधि के
लिए या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, पद पर बने रहेंगे। प्रस्तावित
बिल की धारा 9(1) इस प्रावधान को बनाये रखती है। धारा 9(3) यह
स्पष्ट करती है कि अगर किसी चुनाव-आयुक्त को मुख्य
चुनाव-आयुक्त नियुक्त किया जाता है, तो भी चुनाव आयोग
में चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में उसका कार्यकाल कुल-मिलाकर छह
वर्ष से अधिक नहीं होगा।
8. पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र नहीं: प्रस्तावित
बिल की धारा 9(2) इसके अलावा, बिल के तहत् मुख्य चुनाव-आयुक्त
और अन्य चुनाव-आयुक्त पुनर्नियुक्ति के लिए
पात्र नहीं होंगे।
9. कैबिनेट सचिव के समान वेतन, भत्ते और सेवा-शर्तें: प्रस्तावित बिल की धारा 10(1) के अनुसार, मुख्य चुनाव-आयुक्त
या अन्य चुनाव-आयुक्तों के वेतन, भत्ते और अन्य सेवा-शर्तें कैबिनेट सचिव के समान
होंगे। लेकिन, धारा 10(2) में यह स्पष्ट किया गया है कि मुख्य चुनाव-आयुक्त
या अन्य चुनाव-आयुक्तों, जो इस अधिनियम के प्रारंभ होने की तारीख से ठीक पहले पद संभाल रहे हों,
के वेतन, भत्ते एवं सेवा की अन्य शर्तों में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया
जाएगा।
10.
बर्खास्तगी
और त्याग-पत्र: संविधान के अनु. 324 के तहत् मुख्य चुनाव-आयुक्त को केवल
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान तरीके से ही उसके कार्यालय से हटाया जा
सकता है। यह राष्ट्रपति के एक आदेश के माध्यम से किया जाता है जो एक ही सत्र में
संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव पर आधारित होता है। मुख्य चुनाव-आयुक्त
को पद से हटाए जाने के प्रस्ताव को विशेष बहुमत के साथ अपनाया जाना चाहिए। किसी अन्य
चुनाव-आयुक्त को केवल मुख्य चुनाव-आयुक्त के सुझावों पर ही
पद से हटाया जा सकता है। प्रस्तावित बिल की धारा 11(2) इस प्रक्रिया को बरकरार रखती
है। इसके अनुसार, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और
अन्य निर्वाचन आयुक्तों को अनु. 324(5) के क्रमशः पहले परन्तुक एवं दूसरे परन्तुक
में अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार के सिवाय नहीं हटाया जायेगा। इस बिल की धारा 11(1) 1991 के एक्ट के इस प्रावधान को बरक़रार रखती है कि मुख्य चुनाव-आयुक्त और अन्य चुनाव-आयुक्त
राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र सौंप सकते हैं।
11.
कार्य-संचालन: प्रस्तावित बिल की धारा 17(1) के अनुसार, चुनाव आयोग के सभी कार्यों को और
मुख्य चुनाव-आयुक्त एवं अन्य चुनाव-आयुक्त के बीच कार्यों के आवंटन को सर्वसम्मति से संचालित किया जाएगा। धारा 17(2) के
अनुसार, किसी भी मामले पर मुख्य चुनाव-आयुक्त(CEC)
और अन्य चुनाव-आयुक्तों(EC’s) के बीच मतभेद
की स्थिति में उसका निर्णय बहुमत के माध्यम से किया जाएगा।
बदलाव का असर और
इसकी प्रभावशीलता:
अबतक चुनाव
आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया पूरी तरह से केन्द्र सरकार के जिम्मे थी, लेकिन पहले सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से इसमें प्रमुख
विपक्षी दल के साथ-साथ न्यायपालिका को तवज्जो मिला। पर, अब
प्रस्तावित बिल के ज़रिये न्यायपालिका की भूमिका को नकारते हुए एक बार फिर से सरकार
की प्रमुखता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।
प्रस्तावित नियुक्ति-प्रक्रिया में विपक्षी दल के नेता की भूमिका सांकेतिक भर है
क्योंकि व्यावहारिक धरातल पर पूरी नियुक्ति-प्रक्रिया राजनीतिक होने की संभावना है
और इस पर सरकार का वर्चस्व पहले की तरह बना रहेगा। बस फर्क यह होगा कि विपक्षी दल के नेता की मौजूदगी के कारण
वह खतरा बना रहेगा जिसकी ओर केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त(CVC) के पद पर पी. जे. थॉमस
की नियुक्ति से सम्बंधित विवाद इशारा करता है।
चुनाव आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता पर प्रतिकूल असर:
स्पष्ट
है कि चाहे चुनाव तारीखों का ऐलान हो, या फिर चुनाव में
अधिकारियों की तैनाती का मुद्दा हो, या स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष
चुनाव की जिम्मेदारी हो, निर्वाचन आयोग की इसमें एकमात्र
अथॉरिटी है। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग की
स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है जो बहुत हद तक चुनाव
आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया में स्पष्टता, पारदर्शिता और तटस्थता से सम्बद्ध
है। लेकिन, प्रस्तावित बिल और उसके उपबंध इस
तथ्य की अनदेखी करते हैं और ऐसे प्रावधानों को लेकर उपस्थित होते हैं जो
चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया का राजनीतिकरण करते हुए कार्यपालिका के वर्चस्व
की पुनर्स्थापना के ज़रिये इसको प्रतिकूलतः प्रभावित करते हैं।
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