#65thBPSCResult:
बीपीएससी चला
यूपीएससी की राह
इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि और अंग्रेज़ी माध्यम
का बढ़ता वर्चस्व:
हाल के वर्षों में यूपीएससी से
लेकर राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं तक के रिजल्ट में इंजीनियरिंग बैकग्राउंड और अंग्रेज़ी
माध्यम के छात्रों के वर्चस्व में निरन्तर वृद्धि हुई है, और इसकी पृष्ठभूमि में
हिन्दी माध्यम के छात्र निरन्तर हाशिये पर पहुँचते चले गए। यह स्थिति बीपीएससी के रिजल्ट में भी देखी जा
सकती है। 7 दिसम्बर को जारी बिहार लोक सेवा आयोग
(BPSC) की 65वीं संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा के परिणाम में शीर्ष
के 13 स्थानों में दस स्थानों पर इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के
छात्रों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी। इनमें से 3 छात्र तो आईआईटी बैकग्राउंड से हैं।
यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि इंजीनियरिंग
पृष्ठभूमि के अधिकांश छात्र माध्यम के रूप में अंग्रेजी और वैकल्पिक विषय के रूप
में मानविकी विषय को चुनते हैं। टॉप 20 में मौजूद नौ अभ्यर्थियों ने भूगोल को और दो
अभ्यर्थियों ने अर्थशास्त्र को अपने वैकेल्पिक विषय के रूप में चुना है।
हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए
चिन्ता का विषय:
संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग तक
सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले हिन्दी माध्यम के छात्रों की कम होती भागीदारी चिन्ता
का विषय है, इन छात्रों के लिए भी और समाज एवं प्रशासन के लिए भी। आने वाले समय में यह समाज के सामने नयी
मुश्किलें खड़ी करेगा। इसके कारण हिन्दी माध्यम के छात्र भी दबाव में हैं और कोचिंग
संस्थान भी। इसलिए इन दोनों ने इस दबाव से निबटने का सुविधाजनक रास्ता ढूँढ लिया
है, और वह है सारी जिम्मेवारी को बीपीएससी या यूपीएससी के मत्थे मढ़ देना। यही कारण है कि लोक सेवा परीक्षाओं के रिजल्ट-प्रकाशन
के ठीक बाद हिन्दी माध्यम
के छात्र से लेकर कोचिंग संस्थान तक माध्यम और इसको लेकर होने वाले भेदभाव का रोना
रोने लगते हैं। हिन्दी माध्यम के प्रति जमकर प्रेम
प्रदर्शित किया जाता है और उसके खिलाफ होने वाले भेदभाव जोर-शोर से की जाती है। ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएँ निर्दोष हैं या इनमें
कोई कमी नहीं है, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस समस्या के मूल
में कहीं-न-कहीं हमारी शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षक और छात्र मौजूद हैं। लेकिन, इस से सम्बद्ध मूल प्रश्नों की
अनदेखी करते हुए इस पूरे मसले को रोमांटिसाइज़ कर दिया जाता है।
इसके कारण मूल प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, और उस पर सार्थक विचार-विमर्श संभव
नहीं हो पाता है। यह स्थिति हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए भी सुविधाजनक है, और
उन कोचिंग संस्थानों के लिए भी, जो हिन्दी माध्यम में कोचिंग उपलब्ध करवाते हैं,
पर अपनी जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।
अंग्रेजी माध्यम की ओर छात्रों एवं
अभिभावकों का बढ़ता रुझान:
सबसे पहले, मैं पिछले दो दशकों के दौरान
शिक्षा-व्यवस्था में आने वाले बदलावों की चर्चा करना चाहूँगा। इस दौरान:
1. सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था ध्वस्त होती चली गयी,
और उसकी कीमत पर निजी शिक्षण संस्थानों के विकास को प्रोत्साहित किया गया।
2. जो भी अभिभावक सक्षम थे या तमाम मुश्किलों के
बावजूद जो निजी शिक्षण-संस्थानों का खर्च वहन करने के लिए तैयार थे, उन्होंने अपने
बच्चों को सरकारी शिक्षण संस्थानों के बजाय निजी शिक्षण संस्थानों को प्राथमिकता
दी।
3. इनमें जो भी बच्चे पढ़ने में अच्छे थे, उनमें से
अधिकांश ने अंग्रेजी माध्यम की ओर रुख किया। स्वाभाविक है कि अच्छे बच्चे अंग्रेजी
माध्यम की ओर शिफ्ट करते चले गए, और हिन्दी माध्यम में छँटे हुए बच्चे रह गए। मेरा
आग्रह होगा कि मेरी इन बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए। मैं सामान्य सन्दर्भों में
बात कर रहा हूँ, विशिष्ट सन्दर्भों की नहीं।
तैयारी करने वाले बच्चों की
पृष्ठभूमि:
सामान्यतः जो अच्छे बच्चे होते हैं, उनमें से
अधिकांशतः बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग या मेडिकल की रुख करते हैं और इन्हीं में से
कुछ प्रोफेशनल डिग्री हासिल करने के बाद सिविल सेवा की तैयारी में लग जाते हैं। जो
बच्चे उधर नहीं जा पाते हैं, वे ग्रेजुएशन के बाद या तो प्रबंधन, लॉ और एकेडेमिक्स
की तरफ बढ़ जाते हैं, या फिर अंग्रेज़ी एवं मैथ्स ठीक-ठाक होने की स्थिति में बैंक
पी.ओ. और अन्य वनडे एग्जाम की तैयारी में लग जाते हैं। वही लोग सिविल सेवा की
तैयारी में लगते, जो या तो पूरी तरह से इसके प्रति प्रतिबद्ध हैं, या फिर इस दिशा
में प्रयास कर एक चांस लेना चाहते हैं। अधिकांश रिजल्ट इन्हीं के बीच से मिलता है,
विशेष रूप से प्रोफेशनल बैकग्राउंड के बच्चों के बीच से, या फिर प्रतिबद्ध बच्चों
के बीच से। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो दशकों के दौरान
शिक्षा की गुणवत्ता की दृष्टि से अन्तराल बढ़ता चला गया है और इस बढ़ते हुए अन्तराल
ने हिन्दी माध्यम के छात्रों को बैकफुट पर ले जाने का काम किया है। यहाँ तक कि अब
तो यह अन्तराल अंग्रेजी माध्यम में भी मुखर होने लगा है।
माध्यम का फर्क और माइंडसेट का
फर्क:
सिविल सेवा परीक्षा का कोई भी विश्लेषण तब अटक अधूरा है, अजब तक
हिन्दी माध्यम एवं अंग्रेजी माध्यम के बच्चों के माइंडसेट के फर्क को नहीं समझा
जाए। सामान्यतः हिन्दी माध्यम के बच्चे भावुक प्रकृति के होते हैं, विषय
के प्रति उनका नजरिया भावुक होता है और इसी बह्वुक मनःस्थिति में वे निर्णय भी
लेते हैं जो सिविल सेवा में उनकी संभावनाओं को प्रभावित करता है। इसके विपरीत, सामान्यतः अंग्रेजी माध्यम के
छात्रों का एप्रोच प्रोफेशनल होता है, विषय के प्रति भी और तैयारी के प्रति भी।
इसीलिए उनके निर्णयों में प्रोफेशनलिज्म की झलक दिखाई पड़ती है जो सफलता की सम्भावनाओं
को बाधा देती है। यह प्रोफेशनलिज्म पुस्तकों और कोचिंग संस्थानों के चयन से लेकर विषय-वस्तु
के प्रति रवैये तक में परिलक्षित होता है। यही कारण है कि मानविकी विषयों, जो उनके
लिए नया होता है, में भी मानविकी पृष्ठभूमि के छात्रों की तुलना में इंजीनियरिंग
बैकग्राउंड वाले छात्रों का प्रदर्शन बेहतर होता है, अंकों के संदर्भ में भी और
अन्तिम चयन में भी।
माइंडसेट के इसी फर्क के कारण सिविल सेवा परीक्षा
के डायनामिज्म और इसके कारण उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के प्रति हिन्दी और
अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के रेस्पोंस भी अलग-अलग होते हैं। यह फर्क उनके द्वारा
प्रश्नों को दिए गए रेस्पोंस के स्तर पर भी देखा जा सकता है।
कोचिंग संस्थानों का नजरिया:
यह पूरी चर्चा अधूरी रह जायेगी, यदि कोचिंग संस्थानों
की भूमिका पर चर्चा नहीं की जाए। आज हिंदी माध्यम के अधिकांश कोचिंग संस्थानों पर
निदा फ़ाज़ली का यह शेर लागू होता है:
कभी-कभी हमने यूँ ही अपने जी को बहलाया है;
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।
मुझे कहना तो नहीं चाहिए क्योंकि मैं खुद भी इसी
व्यवसाय से जुड़ा हूँ, पर खुद को यह कहने से रोक पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है
कि उनके टीचिंग, टीचिंग कम, क्लास-मैनेजमेंट कहीं ज्यादा
है। और, इस सन्दर्भ में अगर सही एवं उपयुक्त शब्दों का चयन करें, तो यह मदारी के
खेल’ में तब्दील हो चुका है। बच्चे भी कोचिंग में मदारी का खेल ही देखने जाते हैं,
और टीचर भी मदारी का खेल दिखाने ही जाते हैं। न बच्चों को इस बात से मतलब है कि उन्हें
जो पढ़ाया जा रहा है, वहाँ से प्रश्न कवर होते हैं या नहीं; और न ही शिक्षक को इस
बात से मतलब है। चूँकि बच्चे मज़ा लेने के लिए जाते हैं, इसीलिए शिक्षक का फोकस भी
इसी बात पर रहता है कि कैसे बच्चों को मज़ा आये। ऐसा नहीं अहि कि अंग्रेजी माध्यम की
स्थिति बहुत बेहतर है, पर चूँकि वहाँ बच्चों की गुणवत्ता अपेक्षाकृत बेहतर है और
वे अपने कैरियर को लेकर कहीं अधिक कंसर्न्ड हैं, इसीलिए वहाँ स्थिति थोड़ी-सी बेहतर
है। लेकिन, जैसे-जैसे वहाँ भी भीड़ बढ़ रही है, फर्क कम होता जा रहा है। ऐसा नहीं कि
हिन्दी माध्यम में अच्छे कोचिंग संस्थान और अच्छे शिक्षक नहीं हैं, पर उनमें से
अधिकांश या तो हाशिये पर खड़े हैं, या फिर बाज़ार के दबाव में उन्हें अपने को बदलना
पड़ रहा है।
गुणवत्ता-पूर्ण अध्ययन-सामग्री की
उपलब्धता:
अगर अध्ययन-सामग्री की दृष्टि से देखा जाए, तो हिन्दी
माध्यम की तुलना में अंग्रेजी माध्यम में गुणवत्ता-पूर्ण अध्ययन-सामग्री कहीं अधिक
सहजता एवं सरलता से उपलब्ध है। यह फर्क न्यूज-पेपर और मैगज़ीन से लेकर कोचिंग
संस्थानों द्वारा उपलब्ध करवायी जा रही अध्ययन सामग्रियों तक में देखा जा सकता है।
आज हिन्दी में द हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस सरीखे कौन-सा समाचार-पत्र उपलब्ध है
और हिन्दी समाचार-पत्रों में किसके कवरेज में इतनी गहरायी एवं व्यापकता है, इस
सवाल का जवाब कोई दे सकता है? अगर ऐसा कोई भी समाचार-पत्र हिन्दी माध्यम में
उपलब्ध नहीं है, तो क्यों और इसके लिए कौन जिम्मेवार है? इसके अतिरिक्त, अंग्रेजी
माध्यम के छात्रों के समक्ष आसानी से विकल्प उपलब्ध होते हैं जिनके कारण उपयुक्त
विकल्पों का चयन उनके लिए आसान होता है। कहीं-न-कहीं यह भी दोनों माध्यमों में
परिणामों के फर्क को जन्म दे रहा है।
सार्वजनिक क्षेत्र का बढ़ता आकर्षण:
पिछले दशक के दौरान, विशेष रूप से सन् 2008-09 की
आर्थिक मन्दी के बाद निजी क्षेत्र में रोजगार की दृष्टि से अनिश्चितता भी बढ़ी है और
वेतन एवं सुविधाओं की दृष्टि से आकर्षण भी कम हुआ है। उधर, सातवें वेतन आयोग की
सिफारिशों के लागू होने के बाद वेतन एवं सुविधाओं की दृष्टि से निजी क्षेत्र एवं
सार्वजनिक क्षेत्र का फर्क भी कम हुआ है जिसके कारण सार्वजानिक क्षेत्र ने
व्यावसायिक पृष्ठभूमि वाले छात्रों को कहीं अधिक आकर्षित किया है। फलतः सिविल सेवा
की ओर उनका रुझान बढ़ा और प्रतिस्पर्धा मुश्किल होती चली गयी।
इस पूरी चर्चा के क्रम में इस बात को ध्यान में
रखे जाने की ज़रुरत है कि अहम् माध्यम नहीं है, अहम् है सिविल सेवा परीक्षा की माँग
के अनुरूप अपने आपको ढ़ालना और उसकी ज़रूरतों को पूरा करना। इस सन्दर्भ में हिन्दी
माध्यम के छात्रों के समक्ष मुश्किलें थोड़ी ज्यादा हैं, पर ऐसा नहीं है कि अगर
नज़रिए को सकारात्मक रखा जाए और सकारात्मक नज़रिए से इन चुनौतियों से मुकाबले की
कोशिश की जाए, टिन तमाम चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। (60-62)वीं बीपीएससी
परीक्षा में हिन्दी माध्यम के डॉ. संजीव कुमार सज्जन का शीर्ष स्थान हासिल करना
इसका प्रमाण है।
वक़्त की ज़रुरत को समझें हिन्दी
माध्यम के छात्र:
आज हिन्दी माध्यम के बच्चे यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि यूपीएससी या फिर बीपीएससी उनके हिसाब से बदलने नहीं जा रही है, उन्हें इसके हिसाब से खुद को बदलना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि जहाँ वे विकल्पहीन हैं, वहीँ इन संस्थानों के पास पर्याप्त विकल्प है। जहाँ इन्हें बेहतर विकल्प दिखेगा, वे उसको प्राथमिकता के आधार पर चुनेंगे। इतना ही नहीं, उन्हें यह भी समझना होगा कि तैयारी के क्रम में मुश्किलें तो आनी ही हैं, अब चुनना उन्हें है कि वे क्लासरूम की मुश्किलों का सामना करना चाहते हैं या फिर एग्जाम-हॉल की मुश्किलों का। अगर वे क्लास रूम की मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार हैं, तो एग्जाम हॉल में मुश्किलों से वे बच भी सकेंगे और चयन की सम्भावना भी प्रबल होगी; अन्यथा रिजल्ट के बाद एक-दो दिन जम कर बीपीएससी या यूपीएससी को गाली देकर भड़ास निकाल लें, इससे न तो कुछ फर्क पड़ने वाला है और न ही रिजल्ट बदलने वाला है। अगर इन्होने खुद को नहीं बदला, तो कोचिंग संस्थान क्लास-रूम में उन बिन्दुओं की चर्चा से परहेज़ करते रहेंगे, जिनको समझने में मुश्किलें आ सकती हैं, पर जो एग्जाम की दृष्टि से उपयोगी हैं और जिनकी आपके चयन में अहम् भूमिका होगी। इसलिए हिन्दी माध्यम के छात्रों को मेरा एक ही सन्देश है: सवालों का सामना करें और अपने शिक्षकों से भी सवाल पूछें। इन सवालों के बिना न तो अपने प्रति आपकी जवाबदेही निर्धारित हो सकती है और न ही आपको पढ़ने वाले शिक्षकों की जवाबदेही; और जवाबदेही के बिना सफलता मुश्किल है। जहाँ यूपीएससी या बीपीएससी की सीमा है, वहाँ आप या हम कुछ नहीं कर सकते, पर खुद को बदलकर उस सीमा की कैजुअलिटी का शिकार होने से खुद को बचाया तो जा ही सकता है। अगर समय रहते नहीं संभले, तो आने वाले समय में बीपीएससी परीक्षा के परिणामों में हिन्दी माध्यम के छात्र भी उसी तरह से हाशिये पर पहुँचते चले जायेंगे जिस तरह यूपीएससी की परीक्षा में पिछले एक दशक के दौरान हाशिये पर पहुँचते चले गए और आज उनकी भागीदारी तीस के आसपास तक सिमट चुकी है।
(लेखक पिछले दो दशकों से सिविल सर्विसेज परीक्षाओं
की तैयारी कर रहे छात्रों की मेंटरिंग कर रहे हैं।)
नोट: इस आलेख का उद्देश्य न तो किसी को नीचा दिखाना है और न ही किसी
को आहत करना, पर सच को स्वीकारे बिना और उस पर हमला बोले बिना इस आलेख के
उद्देश्यों के साथ न्याय कर पाना संभव नहीं था। इसीलिए इस आलेख से अगर किसी की भावना को ठेस
पहुँची हो, तो लेखक क्षमाप्रार्थी है।
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