नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019
प्रमुख पहलू
1. नागरिकता
अधिनियम,1955
2. नागरिकता-संशोधन
अधिनियम,2019: विविध पहलू
a. संशोधन
की दिशा में पहल
b. प्रमुख
प्रावधान
c. नागरिकता
संशोधन विधेयक,2016 से भिन्नता
d. पक्ष
में तर्क
e. भारत की
रिफ्यूजी-नीति में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु
f.
अधिनियम के सकारात्मक पक्ष
नागरिकता अधिनियम,1955:
नागरिकता
अधिनियम,1955 आप्रवासियों को देशीयकरण के जरिये नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान
करता है, लेकिन इसके लिए आप्रवासियों को कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी। यह अधिनियम
उन शर्तों को पूरा करने की स्थिति में आप्रवासियों को देशीयकरण के जरिये नागरिकता
प्राप्ति हेतु आवेदन करने की अनुमति प्रदान करता है। अधिनियम के अनुसार, इसके लिये
अन्य बातों के अलावा:
a. उन्हें
आवेदन की तिथि से 12 महीने पहले तक भारत में निवास,
b. और
12 महीने से पहले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में बिताने
की शर्त
पूरी करनी होगी। लेकिन, मौजूदा क़ानून के तहत् भारत में अवैध तरीक़े से दाख़िल
होने वाले लोगों को नागरिकता नहीं मिल सकती है और उन्हें वापस उनके देश भेजने या
हिरासत में रखने के प्रावधान है। मतलब यह कि देशीयकरण
के द्वारा नागरिकता प्राप्त करने की सुविधा केवल वैध आप्रवासियों को दी गयी है, न
कि अवैध आप्रवासियों को। स्पष्ट है कि नागरिकता अधिनियम,1955 अवैध
प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्राप्त करने से प्रतिबंधित करता है। इसके लिए
अधिनियम के अंतर्गत अवैध आप्रवासी के रूप में ऐसे व्यक्ति को परिभाषित किया गया
है:
a. जिसने
वैध पासपोर्ट या यात्रा-दस्तावेज़ों के बिना भारत में प्रवेश किया हो, या
b. जो
अपने निर्धारित समय-सीमा से अधिक समय तक भारत में रहता है।
इसी
प्रकार पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम,1920
विदेशियों को अपने साथ पासपोर्ट रखने के लिये बाध्य करता है, जबकि विदेशी अधिनियम,1946 भारत में विदेशियों के
प्रवेश एवं प्रस्थान को नियंत्रित करता है। इसी आलोक में संशोधित अधिनियम अफगानिस्तान,
बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता और इससे
सम्बद्ध लाभों को प्रदान करने के लिये उन्हें विदेशी अधिनियम,1946 और पासपोर्ट
(भारत में प्रवेश) अधिनियम,1920 के तहत् भी छूट प्रदान करता है।
पार्ट 1: नागरिकता-संशोधन
अधिनियम: विविध पहलू
संशोधन की दिशा में पहल:
दिसम्बर,2019
में केंद्र सरकार ने भारत की नागरिकता से सम्बंधित प्रावधानों को उदार बनाने की
दिशा में पहल करते हुए नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019 को अंतिम रूप दिया। इसके पहले
भी सन् 2016 में नागरिकता-संशोधन विधेयक को पारित करवाने की कोशिश की गयी थी,
लेकिन राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण सरकार उस समय हिम्मत नहीं जुटा पायी।
लेकिन, मई,2019 में लगातार दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब रहे सत्तारूढ़ दल का
आत्मविश्वास बढ़ा है और अब वह उन एजेंडों को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने में लगी है
जिनका उल्लेख उसके घोषणा-पत्र में किया गया है। इसकी झलक पहले अनु. 370 के तहत्
जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे की वापसी, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा-प्राप्त
पूर्ण राज्य से केंद्र-शासित प्रदेश में तब्दील करने और अब नागरिकता संशोधन
अधिनियम के रूप में दिखाई पड़ती है।
प्रमुख प्रावधान:
1. देशीयकरण के जरिये भारतीय नागरिकता की प्राप्ति के प्रावधानों को
उदार बनाना: यह अधिनियम अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के उन छह
अल्पसंख्यक समुदायों: हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई एवं पारसी धर्म के लोगों, जो
वैध या अवैध रूप से भारत में प्रवेश कर गए और वर्तमान में अवैध रूप से भारत में रह
रहे है, को भारतीय नागरिकता प्रदान करने की दिशा में पहल करता है और इसके लिए
नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों को उदार बनाता है।
2. नयी कट-ऑफ
तिथि का निर्धारण: सन् 2016 में
प्रस्तुत एवं लोकसभा से पारित बिल में किसी कट-ऑफ तिथि का उल्लेख नहीं था; पर हाल
में पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम,2019 की धारा 2 में इसका निर्धारण 31
अक्टूबर,2014 के रूप में किया गया। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग दिसम्बर,2014
तक भारत आ चुके हैं, उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान की जा सकती है, बशर्ते वे
अन्य शर्तों को पूरा करते हों।
3. पासपोर्ट अधिनियम,1920 में संशोधन करते हुए उसे उदार बनाना:
प्रस्तावित अधिनियम के ज़रिये केंद्र सरकार ने पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम,1920
में संशोधन का प्रावधान करते हुए अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश: इन
तीनों देशों के अल्पसंख्यक आप्रवासियों को अधिनियम के प्रावधानों से छूट प्रदान
की। ध्यातव्य है कि पासपोर्ट अधिनियम केंद्र सरकार को इस बात के लिए अधिकृत करता
है कि वह भारत में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के सन्दर्भ में पासपोर्ट धारण करने से
सम्बंधित नियम एवं कानून बना सके और उससे सम्बंधित शर्तों या उन शर्तों से छूट से
सम्बद्ध प्रावधान कर सके।
4. विदेशी अधिनियम,1946 में संशोधन करते हुए इससे छूट प्रदान करना: इसके
लिए केंद्र सरकार के द्वारा उन्हें विदेशी अधिनियम,1946 में संशोधन करते हुए इससे छूट प्रदान की गयी है। विदेशी अधिनियम सरकार को
इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वह भारत में गैर-नागरिकों के प्रवेश के नियमन एवं
प्रतिषेध सन्दर्भ में नियम बना सके और उसके अनुरूप आदेश जारी कर सके। सरकार अगर
चाहे, तो किसी विदेशी, व्यक्ति या समूह को इस अधिनियम के प्रावधानों से छूट भी
प्रदान कर सकती है। इसी आलोक में सन् 2015 में
पाकिस्तानी एवं बांग्लादेशी नागरिकों को और सन् 2016 में अफगानिस्तानी नागरिकों को
इन प्रावधानों से छूटें दी गयीं, जिनकी वैधानिकता को अबतक कहीं भी और
किसी भी रूप में चुनौती नहीं दी गयी। सरकार का यह तर्क है कि प्रस्तावित अधिनियम
उपरोक्त दिशानिर्देशों के कारण उत्पन्न विसंगतियों को दुरूस्त करता है। साथ ही,
उपरोक्त तीनों देशों के नागरिकों को दीर्घावधिक वीजा प्रदान करने के उद्देश्य
से भी इसी प्रकार का वर्गीकरण किया गया है जिसे अबतक किसी भी रूप में चुनौती नहीं
दी गयी है।
5. समय-सीमा का पुनर्निर्धारण: यह अधिनियम तीसरी
अनुसूची में संशोधन करते हुए वैध एवं अवैध विदेशी आप्रवासियों के लिए देशीयकरण
के द्वारा नागरिकता प्राप्त करने की समय-सीमा को उदार बनता है। अब उन्हें भारत में
पिछले 14 वर्षों में 11 वर्ष की बजाय 5 वर्ष की निवास की शर्त, या फिर भारत
सरकार की सेवा में रहने की शर्त पूरी करनी होगी। सन् 2016 में प्रस्तावित बिल
में इस समय-सीमा को घटाकर 6 वर्ष किया जाना था।
6. भूतलक्षी प्रभाव से लागू: इस अधिनियम के प्रावधानों
के तहत् नागरिकता प्राप्त होने की स्थिति में सम्बंधित व्यक्ति भारत में प्रवेश की
तिथि से ही भारत का नागरिक माना जाएगा, और अवैध आप्रवासन से सम्बंधित उसके विरुद्ध
दर्ज सारे मामले वापस लिए जायेंगे एवं इससे सम्बंधित वैधानिक प्रक्रिया रोक दी
जायेगी।
7. अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों को इसके दायरे से बाहार रखना: संविधान
की छठी अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा तथा मिज़ोरम के
आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन के लिये विशेष उपबंध किये गए हैं। इसीलिए शिलॉन्ग को
छोड़कर संपूर्ण मेघालय, मिज़ोरम, असम एवं त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों को इस
अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है। दूसरे शब्दों में, इस अधिनियम के प्रावधान छठी अनुसूची के अंतर्गत
अधिसूचित असम के आदिवासी-बहुल कर्बी आंगलोंग क्षेत्र, मेघालय के गारो हिल्स
क्षेत्र, मिजोरम के चकमा जिला क्षेत्र एवं त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्र जिला के उन
क्षेत्रों में नहीं लागू नहीं होंगे।
8. इनर-लाइन परमिट व्यवस्था का सन्दर्भ: यह अधिनियम उन
क्षेत्रों में भी लागू नहीं होगा जहाँ बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के
तहत् इनर-लाइन परमिट व्यवस्था लागू है। इसके
तहत् अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं नागालैंड में भारतीयों की आवाजाही का नियमन किया
जाता है। उपरोक्त दोनों प्रावधान सन् 2016 में प्रस्तावित विधेयक में शामिल नहीं
थे, लेकिन इन्हें उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों की चिंताओं के मद्देनज़र नए विधेयक
में ज़गह दी गयी। स्पष्ट है कि फिलहाल पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों में इनर-लाइन
परमिट लागू नहीं होता है, इसीलिए इस व्यवस्था के तहत् संरक्षित राज्य: नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर तथा मिज़ोरम को इस अधिनियम के
प्रावधानों से बाहर रखा गया है। ध्यातव्य है कि मणिपुर नवीनतम राज्य है जिसे इस
अधिनियम के विधायन के क्रम में ही इनर-लाइन परमिट व्यवस्था के दायरे में लाने की
घोषणा की गयी।
9. कानून-उल्लंघन की स्थिति में ओसीआई कार्ड रद्द : नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार,
केंद्र सरकार किसी भी ओवरसीज सिटीजन ऑफ़ इण्डिया(OCI)
कार्डधारक के पंजीकरण को निम्नलिखित
आधार पर रद्द कर सकती है:
a. यदि ओसीआई
पंजीकरण में कोई धोखाधड़ी सामने आती है।
b. यदि
पंजीकरण के पाँच साल के भीतर ओसीआई कार्डधारक को दो साल या उससे अधिक समय के लिये
कारावास की सज़ा सुनाई गई है।
c. यदि
ऐसा करना भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के लिये आवश्यक हो।
प्रस्तावित विधेयक में ओसीआई कार्डधारक
के पंजीकरण को रद्द करने के लिये एक और आधार जोड़ने की बात की गई है, जिसके तहत् यदि
ओसीआई कार्डधारक अधिनियम के प्रावधानों या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किसी अन्य
कानून का उल्लंघन करता है, तो भी केंद्र के पास उस ओसीआई कार्डधारक के पंजीकरण
को रद्द करने का अधिकार होगा। ध्यातव्य है कि भारत
में दोहरी नागरिकता की सुविधा नहीं है जिसके कारण भारत आने में उन लोगों को
परेशानी होती है जो किसी अन्य देश की नागरिकता ले चुके हैं। इसी कमी को दूर करने
के लिए ओसीआई कार्ड के जरिये बीच का रास्ता निकलने का प्रयास किया गया और भारत आने
के लिए उन्हें वीजा आदि से सम्बंधित विशेष सुविधाएँ प्रदान की गयीं। इसके प्रावधान
पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन(PIO) कार्ड, जिसे सन् 2015 में समाप्त कर दिया गया, के
प्रावधानों की तुलना में कहीं अधिक उदार थे।
नागरिकता संशोधन विधेयक,2016 से भिन्नता:
नागरिकता-संशोधन
अधिनियम,2019 के प्रावधान वही नहीं हैं, जो प्रस्तावित नागरिकता-संशोधन
विधेयक,2016 के थे। अधिनियम के प्रावधान निम्न सन्दर्भों में सन् 2016 में
प्रस्तावित विधेयक से भिन्न हैं:
a. भूतलक्षी प्रभाव से लागू होने का प्रावधान,
अर्थात् प्रवेश की तारीख से भारत का नागरिक माना जाना और अवैध प्रवास के संबंध में
उनके खिलाफ सभी कानूनी कार्यवाही बंद करने से सम्बंधित प्रावधान नए हैं। ये प्रावधान
वर्ष 2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक में नहीं थे।
b. छठी अनुसूची में शामिल अधिसूचित अनुसूचित क्षेत्रों और इनर लाइन
परमिट वाले क्षेत्र पर लागू नहीं: छठी अनुसूची में शामिल अधिसूचित
अनुसूचित क्षेत्रों और इनर लाइन परमिट वाले क्षेत्र को इस अधिनियम के दायरे से
बाहर रखने के प्रावधान भी नए हैं जिनका सन् 2016 में प्रस्तावित विधेयक में उल्लेख
नहीं था।
c. पाँच वर्ष की समय-सीमा: वर्ष 2016 के विधेयक में अवैध
प्रवासियों के लिये देशीयकरण के जरिये नागरिकता हेतु 11 वर्ष की समय-सीमा को घटाकर
6 वर्ष करने का प्रावधान किया गया था,
जबकि इस अधिनियम में इसे 5 वर्ष कर दिया गया है।
पक्ष में तर्क:
इस
अधिनियम के पक्ष में केंद्र सरकार का यह कहना है कि तीनों पड़ोसी इस्लामिक देशों के
इन गैर-मुस्लिम आप्रवासियों को अपने-अपने देशों में ‘धार्मिक
भेदभाव और उत्पीड़न’ का सामना करना पड़ा है और इस उत्पीड़न ने उन्हें
अपना देश छोड़ने के लिए विवश किया है। लेकिन, भारत के विभिन्न हिस्सों में अवैध रूप
से रह-रहे इन आप्रवासियों को काफी मुश्किलातों का सामना करना पड़ रहा है और ये उन
नागरिक सुविधाओं एवं बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं जिनका इन्हें हकदार होना
चाहिए। इस कानून के समर्थकों का तर्क है कि दिसम्बर,2014 तक की डेडलाइन को इस
संदर्भ में एक आधार-रेखा मानकर सरकार ने यह तय किया कि इस अधिनियम के प्रावधानों
के तहत् भारतीय राज्य पाँच वर्षों से भारत में रह रहे इन तीन राज्यों के
गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ मुसलमानों से अलग व्यवहार करेगा और उन्हें
नागरिकता प्रदान करता हुआ उनके लिए इन अधिकारों एवं बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता
सुनिश्चित करेगा। इस रूप में इस अधिनियम के प्रावधान देश की पश्चिमी सीमाओं से
गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में आए धार्मिक उत्पीड़न
के शिकार आप्रवासियों को राहत प्रदान करेंगे।
जहाँ तक अवैध मुस्लिम-प्रवासियों की नागरिकता का प्रश्न
है, तो पाकिस्तान, बांग्लादेश, और
अफगानिस्तान, से आने वाले मुस्लिम शरणार्थियों को संशोधित नागरिकता कानून के
अंतर्गत नागरिकता इसलिए नहीं दी गई कि मुसलमान इन तीनों ही राज्यों में बहुसंख्यक
हैं और इस्लाम इन तीनों ही राज्यों का राज्य-धर्म है। ऐसे
में इन तीनों राज्यों से मुसलमानों के भारत आने का कारण बेहतर अवसरों की तलाश है,
न कि धार्मिक-उत्पीड़न। सरकार की दृष्टि में इन्हें नागरिकता न देना उचित ही है
क्योंकि कोई भी राज्य अपने आर्थिक संसाधनों एवं रोजगार-अवसरों को विदेशियों के साथ
बाँटने के लिए नागरिकता नहीं देता है।
सरकार का
यह भी कहना है कि इस अधिनियम के जरिये किसी की नागरिकता
छीनी नहीं जा रही है, वरन् उन ज़रूरतमंद आप्रवासियों को नागरिकता दी जा
रही है जो अबतक इससे वंचित रहे हैं। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस अधिनयम का
भारतीय मुसलमान नागरिकों से कोई संबंध नहीं है और ना ही यह अधिनियम उनके अधिकारों
को किसी भी तरीके से कम करता है।
केंद्र
सरकार का यह मानना है कि पड़ोसी देशों के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय से
सम्बंधित लोगों के साथ-साथ भारतीय मूल के कई लोग भारतीय मूल से अपनी सम्बद्धता के
समर्थन में साक्ष्य देने और नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत् नागरिकता पाने में
असफल रहते हैं, इसलिये उन्हें देशीयकरण द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिये
आवेदन करना पड़ता है। देशीयकरण द्वारा नागरिकता
प्राप्त करने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत लंबी एवं जटिल है। इसके कारण
उनके लिए अपने को भारतीय मूल का साबित कर पाना और इसके समर्थन में साक्ष्य दे पाना
मुश्किल होता है। फलतः वे नागरिकता हासिल कर पाने में असमर्थ रहते हैं। स्पष्ट है
कि सरकार मानवीय आधार पर इस विधायन के औचित्य को सिद्ध करना चाहती है।
केंद्र
सरकार ने इस अधिनियम के पक्ष में जो तर्क दिए हैं, उसके अलावा इस अधिनियम के पक्ष
में निम्न तर्क दिए जा रहे हैं:
1. नेहरू-लियाकत समझौता के अनुरूप: केंद्र सरकार
का यह भी तर्क है कि सन् 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौता का पाकिस्तान द्वारा
पालन नहीं किए जाने के बाद इस प्रकार के कानून को तभी लागू कर दिया जाना चाहिए था।
सरकार का यह भी कहना है कि यह गाँधी के द्वारा किये गए वादों एवं उनकी अपेक्षाओं
के अनुरूप ही है।
2. युक्तियुक्त वर्गीकरण की श्रेणी में: संशोधित नागरिकता
कानून न तो अनु. 14 में उल्लिखित विधि के समक्ष समानता के प्रावधानों का उल्लंघन
नहीं करता है, क्योंकि अनु. 14 में तार्किक आधारों पर वर्गीय विभेद की अनुमति दी
गयी है जिसे ‘युक्तियुक्त वर्गीकरण’ (Reasonable Classification) कहा गया है। संसद
के पास यह शक्ति है कि वह दो वर्गों के बीच ऐसे किसी भी भेद को तार्किक आधार पर
विधि में बदल सकें।
3. अनु. 15 और अनु. 25 का उल्लंघन नहीं: जहाँ तक अनु, 15
का प्रश्न है, तो यह केवल नागरिकों के सन्दर्भ में लागू होता है, न कि विदेशियों
के सन्दर्भ में भी। इनका यह भी कहना है कि यह कानून अनु. 25 के भी विरुद्ध नहीं
है। इनका तर्क यह है कि जातिगत भेदभावों के संवैधानिक निषेध के बावजूद जिस प्रकार
वर्णव्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सामाजिक प्रताड़ना एवं अन्याय की शिकार जातियों
के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया गया है, उसी प्रकार इन तीन देशों के
गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए भी धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर दी गयी रियायत उचित
है। इनका कहना है कि चूँकि संविधान स्वयं असमान लोगों को समान नहीं मानता है और
उनके साथ असमान व्यवहार की छूट देता है, इसलिए कानून के नजरिए से नागरिकता कानून
संविधान के विरुद्ध नहीं है।
4. अस्थायी उपबन्ध, न कि स्थायी: इस अधिनियम के
पक्ष में तर्क देते हुए कहा जा रहा है कि यह कोई स्थाई कानून नहीं है, वरन् अस्थाई
कानून है जो दिसंबर,2014 तक इन तीन इस्लामिक राज्यों से भारत आए हुए धार्मिक उत्पीड़न
के शिकार गैर-मुसलमानों को नागरिकता ने के साथ निष्प्रभावी हो जाएगा।
5. मुस्लिम आप्रवासियों के लिए वैकल्पिक रास्ते उपलब्ध: यह
अधिनियम दुनिया के किसी भी मुल्क के मुसलमान के लिए भारतीय नागरिकता पर किसी
प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाता है। पहले
की ही भाँति इन तीन पड़ोसी इस्लामिक देशों के मुसलमानों के साथ-साथ अन्य देशों से
आने वाले मुसलमानों एवं गैर-मुसलमानों को नागरिकता कानून,1955 के पुराने
प्रावधानों के तहत् ही भारतीय नागरिकता मिल सकेगी। इस प्रकार इन तीन पड़ोसी देशों
को छोड़कर बाकी देशों से आने वाले आप्रवासियों के संदर्भ में यह अधिनियम मुस्लिमों
एवं गैर-मुस्लिमों के बीच न तो किसी प्रकार का भेदभाव करता है और न ही उन्हें कोई
विशेषाधिकार प्रदान करता है।
सरकार
नागरिकता-संशोधन अधिनियम के विरोध को पूरी तरह से राजनीतिक मानती है। उसका यह तर्क
है कि एनआरसी के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद असम में शुरू हुई
प्रक्रिया का उस समय न तो अल्पसंख्यक समूहों के द्वारा विरोध किया गया था और न ही
राजनीतिक दलों के द्वारा, लेकिन अब राजनीतिक कारणों से इस मसले को तूल दिया जा रहा
है। इतना ही नहीं, सरकार का यह भी कहना है कि जब सन् 2016-17 में नागरिकता अधिनियम
से सम्बंधित नियमावली में संशोधन किया गया था, तब किसी ने इन संशोधनों का विरोध
नहीं किया, लेकिन अब जब इन संशोधनों को नागरिकता अधिनियम में शामिल किया जा रहा
है, तो इसे राजनीतिक मसला बनाकर इसका विरोध किया जा रहा है।
भारत की रिफ्यूजी-नीति में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु:
यद्यपि
भारत ने रिफ्यूजी पर अंतर्राष्ट्रीय संविदा पर हस्ताक्षर नहीं किया है, पर सन् 1959 में भारतीय संसद में तिब्बती शरणार्थियों के सन्दर्भ में
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने जो बाते कहीं, उससे
तीन बातें सामने आती हैं:
a. रिफ्यूजी
के प्रति मानवीय नज़रिया अपनाया जाएगा और उसी के अनुरूप उनका स्वागत किया जाएगा।
b. रिफ्यूजी-समस्या
द्विपक्षीय समस्या है।
c. सामान्य
स्थिति की पुनर्बहाली के पश्चात् रिफ्यूजियों को वापस अपने मूल देश लौट जाना चाहिए।
इस
परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह बिल भारत की रिफ्यूजी-नीति में महत्वपूर्ण बदलावों
की ओर इशारा करता हुआ रिफ्यूजी के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है और उसके
संरक्षण को सुनिश्चित करता है। लेकिन, बेहतर यह होता कि बिल में अल्पसंख्यकों के बजाय पीड़ित समूह की चर्चा होती,
चाहे उनका सम्बन्ध अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े या बहुसंख्यक समुदाय
से। जैसे अहमदिया को पाकिस्तान में मुसलमान ही नहीं
माना जाता है और वे वहाँ विभेद के शिकार हैं। यही
स्थिति म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की है। यह
स्थिति भारतीय संविधान की मूल भावनाओं के भी अनुरूप होती, जो
धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण का आश्वासन देता है।
अधिनियम के सकारात्मक पक्ष:
निश्चय
ही इस पहल से उन लोगों को न केवल भारत की नागरिकता मिल सकेगी जो भारत के विभिन्न
हिस्सों में अवैध घुसपैठियों वाली स्थिति में रह रहे हैं और उन बुनियादी मानवीय
सुविधाओं की उपलब्धता भी संभव हो सकेगी जिनसे वे अबतक वंचित हैं। इससे नागरिक
सुविधाओं तक ऐसे लोगों की पहुँच भी संभव हो सकेगी और उन्हें वे संवैधानिक अधिकार
भी प्राप्त हो सकेंगे जो अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है, विदेशियो को
नहींI यह इस
अधिनियम का सकारात्मक पक्ष है। निश्चय ही इससे इनके जीने की परिस्थितियाँ भी
बदलेंगी और उनमें सुधार होगा।
केंद्र सरकार
की इस बात के लिए भी तारीफ करनी होगी कि उसने पूर्वोत्तर
भारत के राज्यों एवं वहाँ के लोगों की चिंताओं के निराकरण के लिए मूल
विधेयक में कुछ बदलाव किये और छठी अनुसूची के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित क्षेत्रों
और स्वायत्त जिलों के साथ-साथ आवा-जाही हेतु इनर-लाइन परमिट की आवश्यकता वाले
क्षेत्रों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है, ताकि बढ़ते घुसपैठ की पृष्ठभूमि
में जनजातीय संस्कृति एवं पहचान पर उत्पन्न संकट की आशंकाओं को निरस्त किया जा
सके। इतना ही नहीं, मणिपुर की चिंताओं के समाधान के लिए उसे इनर-लाइन परमिट
व्यवस्था के अंतर्गत लाया गया और इस प्रकार उसे भी इस अधिनियम के दायरे से बाहर
रखा गया।
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