Thursday 2 January 2020

काँग्रेस का पुनर्जीवन: क्यों और कैसे

भले ही यह बात कितनी भी नागवार लगे, पर काँग्रेस देश की आत्मा है। काँग्रेस को बचाने की चिन्ता महज़ एक राजनीतिक दल को बचाने की चिन्ता नहीं है, वरन् एक बिन्दु पर आकर यह देश को बचाने की चिन्ता में तब्दील हो जाती है। आज काँग्रेस को देश की ज़रूरत हो अथवा नहीं और काँग्रेसियों को काँग्रेस की ज़रूरत हो अथवा नहीं, पर देश को शिद्दत से काँग्रेस की ज़रूरत है। तमाम ऊहापोहों के बीच हमें  आश्वस्त होना चाहिए कि काँग्रेस बचेगी, क्योंकि तमाम कमियों के बावजूद यह उस राजनीतिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है जिसका सम्बंध भारत एवं भारतीयता से है। इस आश्वस्ति का कारण यह भी है कि आज काँग्रेस के भीतर केवल एक व्यक्ति ऐसा हैं जो इस बात की ज़रूरत को समझ भी रहा है, और इसके लिए कोशिश भी कर रहा है; और वह व्यक्ति है राहुल गाँधी। लेकिन, यह भी सच है कि इसके लिए काँग्रेस को चापलूसों के चँगुल से बाहर निकलते हुए पार्टी के भी आंतरिक लोकतंत्र की पुनर्बहाली सुनिश्चित करनी होगी, अपने मृतप्राय संगठनों को पुनर्जीवित करना होगा, एसी कमरों एवं एसी गाड़ी से बाहर निकलकर सड़कों पर उतरते हुए संघर्ष का जज़्बा दिखलाना होगा, एसपीजी सुरक्षा की वापसी की बजाय जनता से जुड़े मसलों पर सड़कों पर आन्दोलन शुरू करना होगा और संसद के भीतर बहिष्कार एवं बहिर्गमन की नकारात्मक राजनीति को तिलांजलि देते हुए मूल मसलों पर सरकार को घेरने की कोशिश करनी होगी, ताकि उसे एक्सपोज़ किया जा सके। लेकिन, इस क्रम में उसे अपनी भूलों को भी स्वीकार करना होगा। पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि जिस दिन काँग्रेस सड़कों पर होगी, भाजपा एवं संघ की ईंट से ईंट बज जायेगी। लेकिन, इसके लिए सड़े पत्तों, जो काँग्रेस पर कुँडली मारे बैठे हैं और जिनके कारण काँग्रेस की यह दुर्गति हुई है, को झड़ना पड़ेगा और इसमें थोड़ा समय लगेगा। इस चर्चा के क्रम में काँग्रेस को वामपंथ एवं दक्षिणपंथ के साथ अपने सम्बंधों को पुनर्परिभाषित करना होगा जिसके लिए इनके साथ काँग्रेस के अबतक के सम्बंधों पर दृष्टिपात अपेक्षित है।
काँग्रेस और दक्षिणपंथ:
काँग्रेस के भीतर देखा जाय, तो दो धाराएँ गाँधीवादी दौर में प्रवाहमान रही हैं: एक धारा दक्षिणपंथियों की थी जिसे राजेंद्र प्रसाद, राजाजी और पटेल नेतृत्व प्रदान कर रहे थे, और दूसरी धारा समाजवादियों की थी जिसे अशोक मेहता, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव आदि नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। दक्षिणपंथियों की धारा गाँधी एवं गाँधीवाद के कहीं ज्यादा करीब थी। नेहरु एवं बोस वाम-रुझान वाले नेता थे, लेकिन बोस अस्थिर चित्त वाले थे और अपनी प्रकृति में भावुक थे। नेहरु का रुझान पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की ओर कहीं अधिक था और इस मायने में वे गाँधी से कहीं अधिक दूर थे। गाँधी मूलतः धार्मिक व्यक्ति थे और उनका रुझान हिंदुत्व की ओर था, पर उनके हिंदुत्व का सर्वधर्मसमभाव से मेल था। उनके द्वारा ‘रामचरित मानस’ की पंक्तियों को उद्धृत करना, राम-राज्य के प्रतीकों का इस्तेमाल आदि इस और इशारा करता है कि वे विशुद्ध वैष्णव थे और वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों में उनकी गहरी आस्था थी। उनका सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद पर गहरा प्रभाव था। शायद यही कारण है कि गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस हिन्दू संप्रदायवादियों और हिन्दू महासभा के नेताओं से दूरियाँ बनाकर नहीं चल पाई, जबकि मुस्लिम संप्रदायवादियों से दूरी बनाते हुए उसे सहज ही देखा जा सकता है। यह नेहरु का दबाव था कि सन् 1937 में संयुक्त प्रान्त में सरकार-गठन के मसले पर काँग्रेस ने कठोर रुख अपनाया और मुस्लिम लीग के प्रति समझौतावादी रुख अपनाने से इन्कार किया। लेकिन, गाँधी के रहते नेहरु का धर्मनिरपेक्षतावादी आग्रह पृष्ठभूमि में ही बना रहा और सर्वधर्मसमभाव वाली धार्मिकता काँग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के केंद्र में बनी रही।
यह राष्ट्रीय आन्दोलन का अंतिम दौर था जब 1940 के दशक के मध्य में भारतीय राजनीति के संप्रदायीकरण की तेज़ होती प्रक्रिया और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उग्र चरण में प्रवेश ने नेहरु की धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा में आने का अवसर प्रदान किया। लेकिन, यही वह दौर था जब  सीधी कार्यवाही दिवस एवं अंतरिम सरकार के अनुभव ने पटेल को दक्षिणपंथी हिंदुत्व की ओर धकेला और वे गाँधी के ‘सर्वधर्मसमभाव’ से दूर पड़ते दिखाई पड़े। लेकिन, गाँधी की हत्या ने पटेल एवं नेहरु, दोनों को एक प्लेटफ़ॉर्म पर लाकर खड़ा कर दिया और वे दोनों संघ के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी हिंदुत्व के विरुद्ध उठ खड़े हुए, लेकिन धार्मिकता एवं ‘सर्वधर्मसमभाव’ वाली धर्मनिरपेक्षता और अधार्मिक प्रकृति वाली धर्मनिरपेक्षता का फर्क बना रहा। यह द्वंद्व संविधान-सभा द्वारा निर्मित संविधान में भी दिखायी पड़ता है और काँग्रेस की प्रांतीय सरकारों के व्यवहारों में भी, जिसके विरुद्ध नेहरु अपने पत्राचारों के माध्यम से चेतावनी देते हुए दिखाई पड़ते हैं। लेकिन, विशेषकर चीनी हमले के बाद नेहरु भी कमजोर पड़े, या फिर यह कह लें कि तद्युगीन परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए नेहरु ने संघ के प्रति नरम रुख अपनाया।
बाद में, राम मनोहर लोहिया के गैर-काँग्रेसवाद ने और जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन ने संघ और दक्षिणपंथी हिन्दुत्व को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने में अहम् एवं निर्णायक भूमिका निभायी। श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इनसे लड़ने की कोशिश भी की और इस क्रम में प्रस्तावना में संशोधन करते हुए ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्द को शामिल भी किया, जिसे कुछ लोग मुस्लिम तुष्टीकरण की कोशिश के रूप में भी देखते हैं, पर उस समय वे गलत पाले में थीं। लेकिन, हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने संघ और उसके मुखिया बाला साहब देवर को घुटनों के बल रेंगने के लिए विवश कर दिया था। इसी का परिणाम था कि जनसंघ और संघ के बड़े नेता माफ़ीनामा के बाद जेल से रिहा किए गये थे। लेकिन, राजीव की एक भूल काँग्रेस पर भारी पड़ी। 1980 के दशक के मध्य में शाहबानो निर्णय की पृष्ठभूमि में सर्वोच्च अदालत के आदेश को पलटने और राम-जन्मभूमि के ताले खुलवाने के राजीव सरकार के निर्णय ने ताबूत में आखिरी कील का काम किया। आज काँग्रेस उन्हीं कुकर्मों का परिणाम भुगत रही है।
काँग्रेस और वामपंथ:
काँग्रेस एक ऐसा आन्दोलन रहा है जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन की विभिन्न धाराओं और उनके वैचारिक परिप्रेक्ष्य को अपने भीतर आत्मसात किया है। यह काँग्रेस की शक्ति भी रही है और सीमा भी। शक्ति इसलिए कि इसके कारण ही काँग्रेस वास्तविक अर्थों में समावेशी भारतीयता का प्रतिनिधित्व कर सकी और अखिल भारतीय संस्था बन सकी, और सीमा इसलिए कि इसी के कारण उन अर्थों में काँग्रेस की कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं रही जिन अर्थों में यह वाम एवं दक्षिण में दिखायी पड़ती है। यही कारण है कि काँग्रेस के दायरे में वामपंथी भी समाते हुए दिखायी पड़ जाते हैं और दक्षिणपंथी भी; और काँग्रेस इन दोनों को अपने हिसाब से ढ़ालते हुए इन दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ती रही, इन दोनों की अतिवादिता से परहेज करते हुए। आज़ादी के बाद नेहरू ने इन दोनों को राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करना चाहा, श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी, पर सफल रहे। समाजवाद की ओर वैचारिक रूझान के कारण और वैचारिक दुराग्रहों से दूर रहने के कारण नेहरू को अपेक्षाकृत उदार वामपंथ को अपने साथ इंगेज़ करने में सफलता मिली। इन उदार वामपंथी बुद्धिजीवियों ने काँग्रेस के वैचारिक आधार को निर्मित करने में अहम् भूमिका निभायी। काँग्रेस ने इन्हें सत्ता का संरक्षण प्रदान किया और बदले में इन्होंने काँग्रेस को वैचारिक-सांस्कृतिक मंच प्रदान किया। दोनों के बीच का यह रिश्ता प्रत्यक्ष से कहीं अधिक परोक्ष रहा, यद्यपि बीच-बीच में दोनों के ये रिश्ते सतह पर भी दिखते रहे। 1990 के दशक में  इस रिश्ते में दरार पड़ता दिखायी पड़ा, जब काँग्रेस ने समाजवादी चोले को उतारकर एलपीजी मॉडल को अपनाया, और वामपंथ ने काँग्रेस के विरूद्ध दक्षिणपंथ से हाथ मिलाने तक से परहेज़ नहीं किया।  इस दृष्टि से देखा जाए, तो दक्षिणपंथ के इस राजनीतिक उभार के लिए समाजवादी के साथ-साथ वामपंथी भी कहीं कम ज़िम्मेवार नहीं हैं। दक्षिणपंथ को इस बात का श्रेय देना होगा कि पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान उसने अपनी जड़ों को मज़बूती प्रदान करने के लिए वामपंथियों एवं समाजवादियों तक का बखूबी इस्तेमाल किया और इनके साथ-साथ काँग्रेस की कमज़ोरियों को भी अपने पक्ष में जमकर भुनाया। यही वह दौर है जब धर्मनिरपेक्ष की राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में तब्दील होती हुई दक्षिणपंथ के उभार का आधार तैयार करती है।
सन् 2004 में और इसके बाद यह स्थिति एक बार फिर से बदलती दिखायी पड़ती है जब काँग्रेस पूर्व की ग़लतियों से सबक़ लेती हुई एक बार फिर से समाजवादी एजेंडे के समायोजन की दिशा में पहल करती है। समायोजन की इस पहल की तार्किक परिणति सन् 2019 के लोकसभा-चुनाव के समय काँग्रेस के द्वारा जारी घोषणा-पत्र है जो पिछले तीन दशकों की भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु है जहाँ पर भारत के दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों की आर्थिक विचारधारा और उसके आर्थिक एजेंडे का फ़र्क़ स्पष्टत: सतह पर आ जाता है। इस पृष्ठभूमि में दक्षिणपंथ की विभाजनकारी मानसिकता और उसके फासीवादी तेवर ने काँग्रेस एवं वामपंथ को एक बार फिर से उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ भारत और भारतीयता को बचाने के लिए दोनों को एक दूसरे के पूरक की भूमिका निभानी होगी, अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगी। नियति भी तो इसी ओर इशारा कर रही है, अन्यथा जिस गाँधी एवं नेहरू की विरासत पर काँग्रेस और काँग्रेसी दावा करते हैं, उन पर होने वाले दक्षिणपंथी हमलों को लेकर वे मौन नहीं धारण करते और जिस गाँधी एवं नेहरू से वामपंथियों को परहेज है, उनकी रक्षा में उन वामपंथियों को आगे नहीं आना पड़ता।

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