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बेगूसराय-नामा भाग 6
बेगूसराय की बदलती हवा:
गिरिराज का पिछड़ना
चुनावी विश्लेषकों के लिए
कब्रगाह बन सकता है बेगूसराय
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गिरिराज के आगमन के साथ बदलती हवा:
पिछले दिनों गंगा से बहुत पानी गुजर चुका है। धीरे-धीरे बेगूसराय का चुनावी परिदृश्य साफ़
होता जा रहा है। गिरिराज के बेगूसराय आने के लिए राजी होने से
पहले तक मोमेंटम सीपीआई उम्मीदवार डॉ. कन्हैया कुमार के पक्ष में था, लेकिन
गिरिराज के मानने और बेगूसराय आने के बाद यह मोमेंटम गिरिराज की ओर शिफ्ट करता
दिखाई पड़ा और ऐसा लगा कि गिरिराज अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे हैं। लेकिन,
गिरिराज के पक्ष में जो मोमेंटम था, वह मोमेंटम नामांकन तक आते-आते टूटता दिखा। 6
अप्रैल को गिरिराज सिंह द्वारा राजग-गठबंधन की ओर से भाजपा-प्रत्याशी के रूप में
नामांकन दाखिल किया गया, लेकिन भीड़ न जुट पाने के कारण यह बतलाया गया कि गिरिराज
ने 5 अप्रैल को सड़क-दुर्घटना में आठ लोगों की मौत के कारण ग़मगीन माहौल को ध्यान
में रखते हुए अपने नामांकन-समारोह को सादा-साडी रखने का निर्णय लिया, जबकि सुबह तक
भाजपा नेताओं के द्वारा लोगों से यह अपील की गयी कि वे नामांकन-रैली में
अधिक-से-अधिक संख्या में शामिल हों। लेकिन, जब विरोधियों ने इसको मुद्दा बनाना
चाहा, तो यह दावा किया जाने लगा कि नामांकन के दौरान होने वाली रैली में लोग भारी
संख्या में शामिल थे। इसके बाद बेगूसराय लाइव और बेगूसराय टुडे जैसे वेबसाइट
गिरिराज के पक्ष में माहौल बनाने में जुट गए, और ऐसा लगा कि उन्होंने पेड चैनल की
भाँति गिरिराज सिंह के पक्ष में माहौल बनाने में जुट गए है, और इसके लिए उन्होंने
कन्हैया के विरुद्ध दुष्प्रचार एवं घृणा फ़ैलाने का सघन अभियान चला रखा है। सोशल
मीडिया के साथ मिलकर इसने गिरिराज को परसेप्शन की लड़ाई में आगे कर दिया। यहाँ तक
कि प्रिंट मीडिया में भी कन्हैया के स्पेस सिकुड़ता दिखाई पड़ा और गिरिराज के लिए
स्पेस बढ़ता चला गया।पिछड़ते गिरिराज:
कन्हैया के नामांकन और रोड-शो की सफलता के बाद
ऐसा लगा कि गिरिराज और उनके समर्थकों का विश्वास डोल गया। अचानक वे परिदृश्य से
गायब होते दिखे और पूरा बेगूसराय कन्हैयामय होता दिखा। लेकिन, गहराई से विचार
करें, तो गिरिराज का चुनाव-अभियान शुरू होते ही अपनी रफ़्तार खोता दिखा और इसके
कारण हैं बेगूसराय भाजपा का अंतर्कलह, गुटबाजी
के कारण गिरिराज को भाजपा के स्थानीय नेतृत्व का समुचित एवं पर्याप्त सहयोग नहीं
मिल पाना, और इसकी पृष्ठभूमि में उत्प्रेरक का काम कर रहा है उनका एर्रोगेन्स, जिसे स्थानीय नेतृत्व एवं
कार्यकर्ताओं के लिए पचा पाना आसान नहीं है। इसका कारण यह है कि:
1.
दरकता भूमिहार वोट-बैंक: गिरिराज स्थानीय नहीं है, वे बाहरी हैं। इस
बात को ध्यान में रखते हुए ही कन्हैया ने ‘नेता नहीं, बेटा’ का नारा दिया, और धीरे-धीरे
ही सही, कन्हैया का यह नारा परवान चढ़ाता दिखायी पड़ रहा है। युवा भूमिहार मतदाताओं के
बीच तो वे पहले से ही लोकप्रिय थे और उन्हें तो वे पहले से ही अपनी ओर आकृष्ट कर
रहे थे, इस नारे के सहारे उन्होंने बुजुर्गों एवं विशेष रूप से महिलाओं को अपनी ओर
खींचा। इसमें कन्हैया की निम्न वर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सहायक है, और लोगों
को लग रहा है कि एक गरीब परिवार का बच्चा उनके दुःख-दर्द को कहीं अधिक बेहतर तरीके
से समझेगा, और उनका कहीं बेहतर प्रतिनिधित्व करेगा। कुल-मिलाकर, यह कहा जा सकता है
कि कन्हैया गिरिराज की अपेक्षाओं के विरुद्ध भूमिहार वोट-बैंक में सेंध लगाने में
सफल होता दिखाई पड़ रहा है, और इसके कारण गिरिराज की चिंताओं का बढ़ना स्वाभाविक ही
है।
2.
‘बेगूसराय
के लिए बेगूसराय का उम्मीदवार’ का नारा बुलंद करते हुए स्थानीय नेतृत्व ने लम्बे
समय तक बाहरी उम्मीदवार दिए जाने का विरोध करते हुए उनके विरुद्ध सघन अभियान चलाया
है। इसीलिए स्थानीय नेतृत्व के लिए गिरिराज को
स्वीकार कर पाना मुश्किल है, क्योंकि उनकी जीत का मतलब होगा एक पीढ़ी के
राजनीतिक भविष्य पर पूर्ण विराम लग जाना।
3.
आनेवाले
समय में बेगूसराय में अगर प्रधानमन्त्री के द्वारा घोषित योजनाएँ अमल में लाई जाती
हैं, तो ठीकेदारी को लेकर टकराहटों के तेज़ होने की संभावना प्रबल होगी, और गिरिराज
के सांसद होने का मतलब होगा ठीकेदारी से सम्बंधित इन मसलों में उनका दखल, जो यहाँ
के कई लोगों के हितों को प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा। इसीलिए ऐसे लोग भले ही पार्टी
के दबाव में गिरिराज के साथ निकालें, पर वे पूरे मन से उन्हें सहयोग देंगे, इसको
लेकर आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं।
4.
गिरिराज
के रवैये से ऐसा लग रहा है कि वे उम्मीदवार कम,
केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री के रूप में कहीं अधिक पेश आ रहे हैं, और
उनका कार्यकर्ताओं से लेकर वोटर तक से मिलने का अंदाज़ वही है लोगों को खल रहा है। इसकी
प्रतिक्रिया में धीरे-धीरे वे घर बैठ रहे हैं। बलिया-दौरे के क्रम में जद(यू) के
कार्यकर्ता के साथ गिरिराज के दुर्व्यवहार,
या द क्विंट के पत्रकार के साथ दुर्व्यवहार का वायरल हुआ वीडियो इसकी पुष्टि करता
है।
5.
हाल
में बेगूसराय में बजरंग दल एवं एबीवीपी की बढ़ती
सक्रियता ने समाज में कई स्तरों पर परेशानियाँ उत्पन्न की हैं, और इनकी
गतिविधियों के कारण लोग आजिज़ आने लगे हैं। इतना ही नहीं, एक दौर में थाना और ब्लॉक
की जिस दलाली ने वामपंथ के अवसान का मार्ग प्रशस्त किया था, आज वही स्थिति बीजेपी
के छुटभैये नेताओं की है। ऐसे लोग गिरिराज सिंह की सोच के कहीं अधिक करीब हैं, और
ऐसी आशंका है कि गिरिराज की जीत ऐसे लोगों के लिए टॉनिक का काम करेगी। इसका असर
बेगूसराय के सामाजिक-धार्मिक सौहार्द्र पर पर सकता है और इन लोगों से उसे खतरा हो
सकता है।
6.
यहाँ
पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि गिरिराज नीतीश-विरोधी
खेमे से आते हैं और उन्होंने भाजपा में रहते हुए नीतीश कुमार का खुलकर
विरोध किया है। नीतीश कुमार का रवैया भी बहुत कुछ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी वाला
है और वह यह कि वे माफ़ करना नहीं जानते हैं। इसीलिए पहले तो उन्होंने भाजपा के
अपने घनिष्ठ मित्रों के माध्यम से गिरिराज सिंह को नवादा से साइडलाइन किया और फिर
बेगूसराय में लाकर मुश्किल परिस्थितियों में उलझा दिया। नीतीश कुमार की दिली इच्छा
है कि वे चुनाव हार जाएँ, और ज़रुरत पड़ने पर वे परदे के पीछे से इसे सुनिश्चित करने
का काम भी कर सकते हैं।
कन्फ्यूज्ड गिरिराज:
इतना ही नहीं, गिरिराज बेगूसराय को लेकर आरम्भ
से ही कन्फ्यूज्ड दिखे। पहले कम्युनिस्ट पार्टी से कन्हैया की उम्मीदवारी कन्फर्म
होते ही उनका विश्वास हिलाता हुआ दिखा, और वे नवादा से बेगूसराय आने को लेकर नाकर-नुकर
करते दिखे। फिर, जब वे बेगूसराय आने के लिए तैयार हुए, तो वे इस बात को लेकर
कन्फ्यूज्ड दिखे कि अपनी रणनीति का निर्धारण वे किसको ध्यान में रखकर करें:
कन्हैया को ध्यान में रखकर, या फिर तनवीर हसन को ध्यान में रखकर। उन्होंने एक ओर
कन्हैया की संभावनाओं को खारिज करते हुए तनवीर को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी
बतलाया, दूसरी ओर देशभक्ति-देशद्रोह के विमर्श से अपने चुनाव-अभियान की शुरुआत की
जो उनके मानस-पटल पर कन्हैया के खौफ को दर्शाता है। लेकिन, नामांकन तक आते-आते
उन्हें यह महसूस होने लगा कि इस राजनीतिक विमर्श में वे पिछड़ते जा रहे हैं, तो वे तनवीर
को टारगेट करते हुए उग्र हिंदुत्व के फायर-ब्रांड वाली अपनी छवि की ओर वापस लौटते
दिखे। ‘गिरिराज सिंह हिन्दुओं का शेर है’ का नारा और आज़म खान को टारगेट करने की
कोशिश इसी ओर इशारा करती है। उन्हें यह पता है कि अगर चुनाव-अभियान हिन्दू बनाम्
मुसलमान की तर्ज़ पर आगे बढ़ता है, तो इसका फायदा उन्हें और तनवीर को मिलेगा और ऐसी
स्थिति में इस सीट को निकलना उनके लिए अपेक्षाकृत आसान होगा। इसीलिए ऐसा लग रहा था
कि रामनवमी के बहाने हो सकता है कि गिरिराज इस रणनीति को अमल में लाने की दिशा में
पहल करें, पर प्रतिपक्षी कन्हैया की चाल ने उनकी एक न चलने दी। कन्हैया ने एनडीटीवी
के रवीश कुमार को दिए इंटरव्यू में इसको लेकर न केवल अपनी आशंका प्रदर्शित की,
वरन् इसको काउंटर करने की अपनी रणनीति का भी खुलासा कर दिया जिसके कारण दबाव वापस
गिरिराज एवं भाजपा की तरफ शिफ्ट करता दिखा। ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार की
गड़बड़ी बदनामी का कारण बन सकती थी और उसके परिणाम घातक हो सकते थे।
कमबैक करने में सक्षम गिरिराज:
लेकिन, इन तमाम आशंकाओं एवं कयासों के बीच इस
बात को नहीं भूलना चाहिए कि भूमिहार एवं भाजपा की जुगलबंदी को तोड़ पाना कन्हैया के
लिए आसान नहीं होने जा रहा है, क्योंकि भूमिहारों का एक बड़ा तबका वर्चस्व की राजनीति
में विश्वास करता है और उसके फ्रेमवर्क में जितना गिरिराज फिट बैठते हैं, उतना
कन्हैया नहीं; इसीलिए वह गिरिराज के पक्ष में खुलकर सामने आ चुका है। इस प्रक्रम
को कन्हैया कुमार के गाँव बीहट से लेकर रामदीरी एवं सिहमा तक देखा जा सकता है,
इसीलिए गिरिराज किसी भी समय कमबैक कर सकते हैं। वे जरूरत पड़ने पर इसके लिए पानी की
तरह पैसा भी बहा सकते हैं, देशभक्ति-देशद्रोह का उन्माद खड़ा कर सकते हैं, और हिन्दू-मुस्लिम
लाइन पर भी बढ़ सकते हैं। इतना ही नहीं, जिस तरह से बेगुसराय की सीट भाजपा और स्वयं
प्रधानमंत्री के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन गयी है, उसे देखते हुए इस बात की पूरी
संभावना है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और स्वयं प्रधानमंत्री इस बात को सुनिश्चित
करने की कोशिश करेंगे कि बेगूसराय से गिरिराज की जीत हो और कन्हैया की हार, अन्यथा
कन्हैया आने वाले समय में प्रधानमंत्री मोदी के लिए परेशानियाँ सृजित करने वाला
साबित होगा, बशर्ते वे दोबारा सरकार का नेतृत्व करें। इसीलिए अंत-अंत तक गिरिराज
को हल्के में लेना खतरे से खाली नहीं होगा।
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