Monday, 1 April 2019

बेगूसराय-नामा भाग 5 तनवीर हसन साबित हो सकते हैं डार्क हॉर्स


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बेगूसराय-नामा भाग 5
तनवीर हसन साबित हो सकते हैं डार्क हार्स!
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पिछले 68 वर्षों की संसदीय राजनीति के इतिहास में बेगूसराय को कभी राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आने का मौक़ा नहीं मिला था, लेकिन इस बार की स्थिति अलग है। इस बार बेगूसराय संसदीय क्षेत्र देश के दस सर्वाधिक चर्चित संसदीय क्षेत्रों में तब्दील हो चुका है और इसका श्रेय जाता है भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी और उनकी रणनीति को, जिन्होंने कन्हैया कुमार के बहाने लेफ्ट को टारगेट करने की कोशिश की और संयोग से कन्हैया कुमार की जन्मभूमि होने के कारण उसकी तरह बेगूसराय को भी विक्टिमाइजेशन का शिकार होना पड़ा। पिछले तीन वर्षों के दौरान मेरी तरह ही अन्य अप्रवासी बेगूसराइट्स(NRB) को भी हिकारत भारी नज़रों से देखा गया: “अच्छा, आप भी उसी बेगूसराय से हैं जहाँ से कन्हैया कुमार है!”; मानो बेगूसराय से होना कोई अपराध हो। अब यह बात अलग है कि बेगूसराय से होना हमेशा से यहाँ के लोगों के लिए गर्व का विषय रहा है और इसका इजहार करने से भी उन्हें परहेज़ नहीं रहा है। चाहे शिक्षा की बात की जाय, या बौद्धिक सक्रियता की; इतिहास, कला, साहित्य, संस्कृति एवं खेल: इन तमाम क्षेत्रों में बिहार के भीतर ही नहीं, वरन् बिहार के बाहर भी बेगूसराय की अपनी भिन्न एवं विशिष्ट पहचान रही है। इस पृष्ठभूमि में कन्हैया कुमार और बेगूसराय से उनके चुनाव लड़ने के बहाने बेगूसराय को एक बार फिर से राष्ट्रीय क्षितिज़ पर उभरने अपने धमक को महसूस कराने का मौक़ा मिला।
बेगूसराय का गरमाता चुनावी माहौल:
बेगूसराय का चुनावी माहौल अब गरमाने लगा है और यह देश के 543 लोकसभा सीटों में दस सर्वाधिक चर्चित सीटों में तब्दील हो चुका है। वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, जो बिहार के नवादा संसदीय क्षेत्र के निवर्तमान सांसद हैं और जिन्हें इस चुनाव में बेगूसराय शिफ्ट करते हुए यहाँ से एनडीए गठबंधन की ओर से भाजपा उम्मीदवार बनाया गया है, के द्वारा इस सीट से चुनाव-लड़ने में आना-कानी ने भी इसे चर्चा में बनाये रखने का काम किया और कहीं-न-कहीं इसका मनोवैज्ञानिक लाभ कन्हैया कुमार मिलता दिखा। लेकिन, अब उग्र-हिंदुत्व और उग्र-राष्ट्रवाद के फायरब्रांड के रूप में बिहार की भाजपा में अपनी भिन्न एवं विशिष्ट पहचान बनाने वाले गिरिराज पूरे दम-खम के साथ चुनावी मैदान में उतर चुके हैं। वामपंथी मोर्चे की ओर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(CPI) की ओर से घोषित उम्मीदवार कन्हैया कुमार ने तो पिछले छह महीने से इस क्षेत्र में अपना सघन जन-संपर्क अभियान चला रखा है और इसका उन्हें लाभ भी मिलता दिखा रहा है, लेकिन उनके सामने मुश्किलें खड़ी कर रहें हैं राजद उम्मीदवार एवं पिछले संसदीय चुनाव में दूसरे स्थान पर रहने वाले तनवीर हसन।
तनवीर हसन होने के अपने फायदे और नुकसान:
कन्हैया कुमार की तरह तनवीर हसन भी छात्र राजनीति से होते हुए संसदीय राजनीति में आये हैं। उनकी तुलना में कन्हैया कुमार संसदीय राजनीति के लिए नए-नवेले हैं। भले ही अपनी उम्र की तुलना में उनके पास अपेक्षाकृत अधिक अनुभव एवं परिपक्वता हो, पर तनवीर के मुकाबले उनके पास संसदीय राजनीति का अनुभव अपेक्षाकृत कम है। तनवीर की छवि भी साफ़-सुथरी है और वे कन्हैया कुमार की तरह बाहरी बनाम् भीतरी विवाद में धरती-पुत्र की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। उनकी तैयारी भी अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बेहतर है क्योंकि उनके पास राजद के रूप में एक मज़बूत दल का साथ है जिसके पास एक मज़बूत वोट-बैंक है और जिसने कुशवाहा, मुसहर एवं साहनी मतदाताओं को अपने माय(मुस्लिम+यादव) समीकरण के साथ जोड़ते हुए अपनी चुनावी संभावनाओं को बल प्रदान किया है। अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के विपरीत तनवीर हसन का राजनीतिक जीवन लो-प्रोफाइल रहा है और वे लो-प्रोफाइल जीवन जीते हुए लाइमलाइट से दूर रहे हैं जिसके अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी। इनके वोट-बैंक में सेंध लगा पाना कन्हैया के लिए आसान नहीं होने जा रहा है और बिना इसमें सेंध लगाये कन्हैया की जीत बहुत ही मुश्किल है। जिस तरह इन्हें हल्के में लिया जा रहा है, वह जमीनी हकीक़त से भिन्न है और संभव है कि गिरिराज और कन्हैया की लड़ाई में तनवीर चुनावी सफलता अपने नाम कर लें।
तनवीर के पक्ष में एक बात यह भी है कि अगर गिरिराज सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की दिशा में बढ़ते हैं, इसका लाभ उन्हें भी मिलेगा। गिरिराज के सन्दर्भ में बेगूसराय में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की सीमा यह है कि यह भूमिहार वोटों के उनके पक्ष में ध्रुवीकरण को सुनिश्चित तो करेगा, पर बिहार में जाति की राजनीति के धर्म की राजनीति के ऊपर हावी रहने के कारण इस बात की संभावना कम है कि यह उनके पक्ष में हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण को सुनिश्चित करेगा और वे इसकी बदौलत राजद के माय-समीकरण को ध्वस्त कर पायेंगे। इसके उलट यह तनवीर के पक्ष में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण को सुनिश्चित करेगा जिसका सीधा लाभ तनवीर को हो सकता है और यह राजनीति कन्हैया के मुकाबले तनवीर की राह को आसान कर सकती है, यद्यपि इस विश्लेषण की भी अपनी सीमा है जिस पर चर्चा आगे की जायेगी। इतना ही नहीं, तनवीर को काँग्रेस का साथ भी मिल रहा है और ऐसी स्थिति में उन्हें काँग्रेस के परंपरागत वोट-बैंक का लाभ मिलेगा, चाहे वह कितना भी सीमित क्यों न हो, और उन लोगों का भी जो काँग्रेस के प्रति सहानुभूति रखते हैं’। इसके अतिरिक्त तनवीर  उन सवर्ण मतदाताओं को भी एक विकल्प उपलब्ध करा रहे हैं जो न तो भाजपा के साथ जाना पसंद करते हैं और न ही कन्हैया की तथाकथित ‘देशद्रोही वाली छवि’ एवं अपनी कम्युनिस्ट-विरोधी मानसिकता के कारण कन्हैया के साथ।    
तनवीर के लिए एक्स-फैक्टर:
लेकिन, ऊपर की चर्चा के आलोक में यह निष्कर्ष निकलना कि तनवीर के लिए आगे की राह आसान होगी, भारी भूल होगी। तनवीर का राजनीतिक व्यक्तित्व, और उनकी अबतक की राजनीतिक उपलब्धि उनकी सफलता के रास्ते में रोड़ा साबित हो सकती है क्योंकि तनवीर एक खामोश राजनेता रहे हैं। एक ऐसे दौर में, जब प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति और उसके प्रति प्रतिक्रिया अपने चरम पर पहुँची, तनवीर हसन आगे आकर उस सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ खड़ा होने और उसके दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध की कोशिश करते नहीं दिखाई पड़े। उनकी छवि एक सॉफ्ट राजनेता की रही है, इसके विपरीत पिछले तीन वर्षों के दौरान देश में ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हुई जिनमें कन्हैया कुमार मोदी-विरोधी खेमे में अपनी जगह बनाते चले गए और उन्होंने खुद को मोदी-विरोध के प्रतीक में तब्दील कर लिया। उनकी यही छवि तनवीर के लिए खतरा साबित हो सकती है क्योंकि कन्हैया कुमार की रणनीति इसी के इर्द-गिर्द निर्धारित हो रही है और जिस तरीके से जाति एवं धर्म से परे हटकर युवाओं के बीच वे लोकप्रिय हो रहे हैं, वह तनवीर के माय-समीकरण के लिए खतरे की घंटी है। इस समुदाय का एक तबका, जो प्रधानमंत्री मोदी को बड़े खतरे के रूप देख रहा है और उनके विरुद्ध की लड़ाई लड़ने के लिए कन्हैया की राष्ट्रीय छवि को भुनाना चाहता है। उसे लगता है कि कन्हैया उनकी इस लड़ाई को राष्ट्रीय स्तर पर लड़ेगा और इसीलिए वह कन्हैया के हाथ को मज़बूत करना चाहता है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह समुदाय कभी कम्युनिस्ट पार्टी का वोट-बैंक हुआ करता था और कन्हैया की भी इस पर नज़र है, इसीलिए वह देश के विभिन्न हिस्से से मुस्लिम बुद्धिजीवियों एवं लोकप्रिय चेहरों को चुनाव-प्रचार से जोड़ने की कोशिश में लगा हुआ है।
अब तनवीर के साथ समस्या यह है कि उनके लिए अपने दल के सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरे लालू यादव, जो अभी जेल में हैं और जिनके सहारे इस रणनीति को काउंटर किया जा सकता है, के बिना कन्हैया की इस रणनीति को काउंटर कर पाना असंभव नहीं, तो बहुत ही मुश्किल अवश्य है। इसके अतिरिक्त, कन्हैया ने उनके माय समीकरण में सेंध लगाने के लिए ही मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे पप्पू यादव, जिनकी युवा यादवों के बीच लड़ाका छवि है और ठीक-ठाक पैठ है, को समर्थन देने की घोषणा की। दरअसल यह समर्थन देने से कहीं अधिक समर्थन लेना है और इसका उद्देश्य यादव समुदाय के युवा मतदाताओं को आकर्षित करना एवं उनके बीच पैठ बनाना है। इसके अतिरिक्त पिछले छः महीने के दौरान कन्हैया कुमार की उन क्षेत्रों में सक्रियता भी भाजपा के साथ-साथ राजद के अत्यंत पिछड़ी जाति के वोट-बैंक में सेंध लगा सकती है जो तनवीर की मुश्किलों को बढ़ाने वाला साबित होगा।   
तनवीर के लिए कन्हैया ही नहीं, गिरिराज की रणनीति भी भारी पड़ सकती है। भले ही अबतक गिरिराज यह कहते रहे हों कि उनकी सीधी लड़ाई कन्हैया कुमार से नहीं, वरन् तनवीर हसन से है, पर क्षेत्र में आते ही पिछले दो दिनों के दौरान उनका चुनावी नैरेटिव बदला है और उन्होंने चुनावी नैरेटिव देशभक्ति बनाम् देशद्रोह की ओर ले जाने की कोशिश की है जो कन्हैया कुमार की कमजोर कड़ी साबित हो सकती है। यह दर्शाता है कि कन्हैया कुमार को चाहे उनके विरोधी जितना भी नकारें, पर ज़मीनी वास्तविकता कुछ और कहती है। हो सकता है कि यह गिरिराज की चुनावी रणनीति का हिस्सा हो और आगे कन्हैया को कमजोर करने के बाद वे अपने चिर-परिचित उग्र हिंदुत्व के चुनावी नैरेटिव की तरफ वापस लौंटे, पर इसमें दो खतरे हैं: एक तो यह कि यह रणनीति गिरिराज के लिए भी काउंटर-प्रोडक्टिव साबित हो सकती है क्योंकि ऐसी स्थिति में एन्टी-भाजपा वोटों का ध्रुवीकरण कन्हैया कुमार के पक्ष में हो सकता है और तनवीर कमजोर पड़ सकते हैं; और दूसरे, फिर ऐसी स्थिति में तनवीर के वापसी मुश्किल होगी। 


1 comment:

  1. अपने पक्ष को प्रभावी तरीके से रखने में कन्हैया कुमार का कोई जोड़ नही है और उनका पक्ष हवाई नही बल्कि जमीनी है निश्चित तौर पर धर्म एवं जाति संबंधी वोट बैंक की राजनीति को अपनी प्रखर भाषणों एवं कार्यक्रमों से ध्वस्त कर पाने में वो कामयाब होंगे ।यह तब भी जब वो वोट समीकरण को अपने पक्ष में करने के लिए मेवानी,हार्दिक,जावेद अख्तर,पप्पू यादव जैसे खास सामाजिक पृष्ठभूमि वाले शख्सियतों को बेगूसराय बुलाकर एक कुशल एवं पेशेवर राजनेता होने का सबूत दे रहे हैं।

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