नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) का अपडेशन
1.
पार्ट वन: रजिस्टर-निर्माण की पृष्ठभूमि:
a.
एनआरसी की पृष्ठभूमि
b. असम में बढ़ते माइग्रेशन का जनांकिकीय संरचना पर असर
c. नृजातीय-भाषाई हिंसा के मुहाने पर खड़ा असम
2. पार्ट
टू: नागरिकता का राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC)
a. नागरिकता का राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) से आशय
b. एनआरसी
के अपडेशन की दिशा में पहल
c. सरकार
के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
d. एनआरसी
(NRC) में शामिल होने की शर्तें
e. एनआरसी
ड्राफ्ट का प्रकाशन
3. पार्ट
थ्री: अपडेटेड नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़नशिप: एक विश्लेषण
a. भारतीय
नागरिकों को भी जगह नहीं मिल पाना
b. एनआरसी
की आलोचना का आधार
c. सूची
में शामिल न हो पाने वाले लोगों के पास उपलब्ध विकल्प
d. एनआरसी
में शामिल न हो पाए लोगों का भविष्य
e. आर्थिक-राजनीतिक
निहितार्थ
f. एनआरसी
के मसले का राजनीतिकरण
g. केंद्र
सरकार की मंशा को लेकर संदेह के कारण गहराता संकट
h. सुप्रीम
कोर्ट की आड़ में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का खेल
i. संयुक्त
राष्ट्र मानवाधिकार संस्था की प्रतिक्रिया
j. तृणमूल
काँग्रेस की प्रतिक्रिया
k. काँग्रेस का रूख
l. ड्राफ्ट
पर सुप्रीम कोर्ट का रूख
m. चुनाव
आयोग का रुख
n. नृजातीय-भाषायी
टकराव तेज़ होने की संभावना
o. अवैध
बांग्लादेशी घुसपैठियों की वापसी का प्रश्न
p. बांग्लादेश-भारत
संबंधों पर असर
q. विश्लेषण और निष्कर्ष
पार्ट वन:
रजिस्टर-निर्माण की पृष्ठभूमि
19वीं सदी में औपनिवेशिक शासन ने छोटा
नागपुर(झारखण्ड) और बिहार से आदिवासी श्रमिकों और बंगाल से मुस्लिम किसानों को असम
में आकर बसने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि बागानी अर्थव्यवस्था के विकास को
प्रोत्साहित किया जा सके। स्पष्ट है कि माइग्रेशन एवं जनांकिकीय बदलाव की यह प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में ही शुरू हुई, पर आजादी के बाद
साम्प्रदायिकता एवं विभाजन की पृष्ठभूमि में माइग्रेशन की यह प्रक्रिया जारी रही। इसी
आलोक में सन् 1950 में आप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम पारित किया गया। पर, यह
बहुत प्रभावी नहीं हो सका और माइग्रेशन की प्रक्रिया निरंतर जारी रही।
एनआरसी
की पृष्ठभूमि:
1947 में बँटवारे के समय कुछ लोग असम से पूर्वी
पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनकी ज़मीन-जायदाद असम में थी और लोगों का दोनों ओर से
आना-जाना बँटवारे के बाद भी जारी रहा। इसके कारण
होने वाली परेशानियों से बचने और पाकिस्तानी नागरिकों से अलग भारतीय नागरिकों की
पहचान को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (National
Register of Citizenship) के रूप में एक ऐसे
रजिस्टर की संकल्पना सामने आयी जिसमें असम में रहने वाले सभी भारतीय नागरिकों के
नाम दर्ज हों।
कहा जाता है कि इस रजिस्टर को तैयार करने में नेहरू-लियाक़त
पैक्ट,1950 की भी महत्वपूर्ण
भूमिका थी। उस समय वैध एवं अवैध रूप से पूर्वी पाकिस्तान से असम(भारत) आने वाले
शरणार्थियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और यह सिलसिला निरंतर जारी रहा। इसीलिए इस पैक्ट के जरिये अल्पसंख्यकों के अधिकारों की
सुरक्षा के साथ-साथ रिफ्यूजी-समस्या के समाधान और उनके द्वारा परिसंपत्तियों के
निष्पादन का मार्ग प्रशस्त किया गया। इस क्रम में करीब दस लाख रिफ्यूजी
पूर्वी पकिस्तान से पश्चिम बंगाल (भारत) वापस लौटे।
1971 में बांग्लादेश मुक्ति-संग्राम की पृष्ठभूमि में
यह समस्या गहराई और इसके बाद असम में विदेशियों का मुद्दा तूल पकड़ने लगा। इसने स्थानीय असंतोष को जन्म देते हुए 1970 के
दशक के अंत में अवैध प्रवासियों के खिलाफ असम आन्दोलन को जन्म दिया। इन्हीं हालातों
में अगस्त,1985 में सन् (1979-85) के दौरान छह सालों तक चले असम आंदोलन की परिणति असम समझौते के रूप में
हुई।
असम में बढ़ते माइग्रेशन का जनांकिकीय संरचना पर असर:
माइग्रेशन
की इस प्रक्रिया ने असम में जनांकिकीय बदलावों को भी उत्प्रेरित किया। सन् (1951-2011) के दौरान असम की
कुल आबादी 80.30 लाख से बढ़कर 3.12 करोड़
पहुँच गई। हालाँकि 1951 के बाद से ही असम की आबादी में
बढ़ोतरी देखने को मिल रही थी और (1951-71) के दौरान असम में मुस्लिम-आबादी में
लगभग 51 प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन 1970 के दशक के आरंभ में बांग्लादेश-मुक्ति संग्राम ने इसे चरम् पर पहुँचा दिया। परिणामतः यह वृद्धि 1971 के बाद और भी तेज हो गयी।
इसके
सीधे असर को असम की आबादी में नृजातीय संतुलन में
होने वाले बदलावों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। (1991-2001)
के दौरान असमी-भाषी आबादी 58 प्रतिशत से घटकर 48 प्रतिशत रह गयी, जबकि बांग्लाभाषी
आबादी 21% से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गयी। 2011 के सन्दर्भ में यह आँकड़ा उपलब्ध नहीं
है, पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि असमी-भाषी आबादी 40 प्रतिशत के आसपास के
स्तर पर होगी और बांग्लाभाषी आबादी (32-33) प्रतिशत के स्तर पर। इतना ही नहीं,
(1951-2011) के दौरान असम में मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत से बढ़कर 34 प्रतिशत के
स्तर पर पहुँच चुकी है। धार्मिक एवं भाषाई
जनांकिकी में ये बदलाव बांग्लादेश के
सीमावर्ती जिलों में कहीं अधिक परिलक्षित होते हैं। सन् 2004 में भारत के गृह-मंत्री (राज्य) ने संसद से कहा कि देश में लगभग 2 करोड़
बांग्लादेशी घुसपैठिये मौजूद हैं जिनमें 57 लाख तो पश्चिम बंगाल में और 50 लाख तो
केवल असम में ही मौजूद हैं, यद्यपि बाद में राजनीतिक कारणों से उन्हें अपना बयान
वापस लेना पड़ा।
इसकी
पुष्टि इस बात से भी होती है कि विभाजन के समय बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी
पाकिस्तान) में हिन्दू आबादी 24% के स्तर पर थी, पर वर्तमान में यह घटकर 9% रह गयी
है। लेकिन, इसके लिए सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न
ही जिम्मेवार नहीं है, वरन् कुछ हद तक बेहतर
अवसरों की तलाश में होने वाला माइग्रेशन भी है।
इस आलोक में देखा जाय, तो असम के मुस्लिम-बहुल
राज्य में परिवर्तित होने की कोई संभावना तो नहीं है, पर असमियों की आशंका पूरी
तरह से निराधार तो नहीं ही है। अब समस्या यह है कि असम समझौता,1985
और बाद में 2005 में संघर्षरत छात्रों के साथ बनी सहमति के अनुसार उन लोगों की
पहचान कर उन्हें वापस बांग्लादेश भेजा जाना था, पर यह वादा वादा ही बना रहा, कभी
पूरा नहीं हुआ।
नृजातीय-भाषाई हिंसा के मुहाने पर खड़ा असम:
ऐसी स्थिति में यह अपेक्षा की जा रही थी कि
राजनीतिक नेतृत्व नृजातीय, सांस्कृतिक एवं धार्मिक टकरावों के समाधान के लिए
व्यावहारिक एवं संवेदनशील नजरिया अपनाएगा, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में शुरू होनेवाली
विवादित एवं विभाजनकारी राजनीति समय के साथ जोर पकड़ती चली गयी और इसमें सभी
राजनीतिक दलों ने अपने-अपने तरीके से योगदान दिया। 1970 एवं 1980 के दशक में बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति काँग्रेस के द्वारा अपनाये गए उदार रवैये
और उनके वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल की कोशिश ने पहले से विद्यमान असमी
एवं गैर-असमी के विभाजन को गहराने का काम किया। उदार धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील तबके ने भी इस मसले की संवेदनशीलता
को नज़रंदाज़ किया और इन सबने इसे तुष्टिकरण का रूप देते हुए मूल निवासियों की
चिंताओं की अनदेखी की। परिणामतः असम के मूल निवासियों में बढ़ते हुए
असंतोष ने असम आन्दोलन को जन्म दिया। बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरोध में होने
वाले इस आन्दोलन की प्रकृति बांग्ला-विरोधी रुझानों के बावजूद नृजातीय-भाषाई थी।
इसने माइग्रेशन और अवैध घुसपैठ के मुद्दे को तो उठाया, पर इसका समाधान प्रस्तुत कर
पाने में असफल रहा।
इसी असफलता से उपजे हुए असंतोष को भुनाते हुए
भाजपा ने असम को साम्प्रदायीकरण के रास्ते पर धकेला। इस तरह विशुद्ध भाषाई-नृजातीय
मसला सांप्रदायिक मसले में तब्दील हो गया। बंगलादेशी मुस्लिमों को घुसपैठिये के रूप में और बंगलादेशी
हिन्दू आप्रवासियों को शरणार्थी के रूप में प्रस्तुत करते
हुए भाजपा ने न केवल हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को सृजित किया, वरन् इसे संस्थागत रूप भी प्रदान किया जिसने असम-समस्या को
कहीं अधिक जटिल बना दिया। इसने असम की स्थिति को विस्फोटक बनाते हुए इसे ऐसे मोड़
पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ वह कभी भी नृजातीय-भाषाई हिंसा की आग में जल सकता है।
अब केंद्र एवं राज्य, दोनों ही स्तरों पर सरकारों में होने के कारण वह अपने एजेंडे
को वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्यवाही के जरिये जमीनी धरातल पर उतारने की कोशिशों
में लगी है।
एनआरसी को इसी पृष्ठभूमि में देखे और समझे जाने
की ज़रुरत है। साथ ही, इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि वर्तमान परिदृश्य में हिन्दू सांप्रदायिक राजनीति के द्वारा
एनआरसी का इस्तेमाल स्थानीय एवं बाहरियों के विभाजन को हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का
रूप देने के लिए किया जा रहा है, जबकि मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों के साथ-साथ
धर्मनिरपेक्ष तबकों की इसके प्रति असंतुलित प्रतिक्रिया एवं इस प्रतिक्रिया में
स्पष्टता का अभाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये भाजपा के इस काम को आसान बना रही
है। भाजपा
की भी पूरी कोशिश विपक्ष को इस रूप में प्रस्तुत करने की है, जिससे यह लगे कि
विपक्ष को राष्ट्रीय सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है और वह बांग्लादेशी घुसपैठियों के
प्रति नरम रुख अपना रहा है। लेकिन,
बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी है जो असम के मूल निवासियों की चिंताओं को समझता
हुआ इसके समाधान के मद्देनज़र NRC को तो समर्थन प्रदान कर रहा है, लेकिन उसका मानना
है कि इसका इस्तेमाल धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के लिए न हो और उन्हें समुचित
एवं पर्याप्त संरक्षण उपलब्ध हों। स्पष्ट है
कि वर्तमान में असम में जो हालात बन रहे हैं, उसमें संकीर्ण राजनीतिक लाभों के लिए
असावधानी से उठाया गया कोई भी कदम असम को नृजातीय-धार्मिक टकरावों और हिंसा की ओर
धकेल सकता है।
पार्ट टू: नागरिकता का राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC)
नागरिकता का राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) से आशय:
एनआरसी के अपडेशन की दिशा में पहल:
सन् 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय साल 1951
के नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजनशिप(NRC) को अपडेट करने का फ़ैसला किया गया
और 25 मार्च,1971 को कटऑफ तिथि के रूप में निर्धारित किया गया। ध्यातव्य है कि यह वही तारीख थी जब शेख मुजीबुर्रहमान
ने बांग्लादेश के संप्रभु होने की घोषणा की थी, हालाँकि सत्ता के हंस्तांतरण की
घोषणा 16 दिसंबर, 1971 को की गई थी। स्पष्ट है कि इस निर्णय के तहत् 25 मार्च,1971
के पहले भारत में स्वयं या अपने परिवार के रहने का प्रमाण देने वाले सभी लोगों को
भारत का नागरिक माना जाएगा और उनके नाम इस रजिस्टर में अंकित होंगे। इसका मतलब यह हुआ कि 1966-1971 के दौरान
वैध-अवैध तरीके से असम के विभिन्न हिस्सों में दाखिल उन बांग्लादेशी नागरिकों के
भी इस सूची में शामिल होने का मार्ग प्रशस्त हो गया जिनकी नागरिकता का असम समझौता
और इसके परिणामस्वरूप नागरिकता अधिनियम में शामिल की गयी धारा 6A के जरिये निषेध किया
गया है। यही कारण है कि असम समझौते के प्रावधानों के प्रतिकूल होने के कारण इस कटऑफ
तिथि ने विवाद को जन्म दिया।
ध्यातव्य है कि सन् 1985 में असम समझौते के प्रावधानों के अनुरूप नागरिकता अधिनियम,1955 में संशोधन करते हुए उसमें धारा 6A जोड़ी गयी, ताकि असम में भारतीय मूल के सभी
प्रवासियों को मान्यता दी जा सके। इसके तहत तय हुआ कि 1 जनवरी 1966 से पहले आने वाले भारतीय नागरिक माने
जायेंगे। इसके अंतर्गत उन लोगों को भारतीय मूल का माना गया, जिनके माता-पिता या
परदादा अविभाजित भारत में पैदा हुए थे और जो लोग (जनवरी,1966-मार्च
1971) के दौरान असम आये हैं, उनकी पहचान करते हुए उनके नाम
मतदाता-सूची से हटाये जायेंगे और उन्हें केंद्र सरकार के द्वारा बनाये गए क़ानूनों
के अंतर्गत शासित किया जाएगा। इसके अंतर्गत केंद्र सरकार से NRC के अपडेशन की
अपेक्षा की गयी और कहा गया कि यह प्रक्रिया दस साल के भीतर पूरी की जायेगी।
सरकार के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट
में चुनौती:
दिसंबर,2013 में जमीनी स्तर पर एनआरसी को अपडेट करने का काम शुरू हुआ, लेकिन सरकार के
इस निर्णय से असंतुष्ट और बंगलादेशी घुसपैठियों को नागरिकता दिए जाने को लेकर
आशंकित असमी संगठन के द्वारा दायर जनहित याचिका के आलोक में 2015 में सुप्रीम
कोर्ट ने इसके लिए दिसंबर,2017 तक की समय-सीमा और इससे
सम्बद्ध प्रक्रिया का निर्धारण किया। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता की
दावेदारी के लिए सोलह प्रकार के दस्तावेज़ों की सूची भी तय की। इस तरह मई,2015
में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी के अपडेशन और असम के
नागिरकों के सत्यापन का काम शुरू हुआ।
एनआरसी
(NRC) में शामिल होने की शर्तें:
एनआरसी (NRC) के
अपडेशन के क्रम में उन लोगों के नाम को शामिल किया जा रहा है जिनके या जिनके
पूर्वजों के नाम 1951 के रजिस्टर में शामिल थे।
इसके अलावा उन लोगों के नामों को भी इसमें शामिल किया जा रहा है जिनके या जिनके
पूर्वजों के नाम 24 मार्च,1971 के पहले मतदाता सूची में शामिल थे। इन दोनों स्थितियों के अलावा जिनके पास भी बारह
दूसरे प्रकार के दस्तावेज़ में से कोई भी दस्तावेज़ उपलब्ध हो, इसे नागरिकता के प्रामाणिक
दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार करते हुए उन्हें भी भारतीय नागरिक के रूप में
स्वीकारा जा रहा है और उनके नाम इस रजिस्टर में शामिल किये जा रहे हैं। इन वैध दस्तावेजों में जन्म प्रमाण-पत्र, भू-स्वामित्व से सम्बंधित दस्तावेज़, पट्टेदारी-दस्तावेज़,
शरणार्थी प्रमाण-पत्र, स्कूल-कॉलेज के
सर्टिफ़िकेट, पासपोर्ट, अदालती-दस्तावेज़
आदि भी शामिल हैं। जिनके वोटर-लिस्ट में नाम तो नहीं हैं, पर जिनके
पूर्वजों के नाम वोटर-लिस्ट में हैं, उन्हें अपने पूर्वजों के साथ रिश्तेदारी
साबित करनी होगी।
एनआरसी
ड्राफ्ट का प्रकाशन:
इसी आलोक में रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़
इंडिया ने 31 दिसम्बर,2017 और 1 जनवरी,2018 की मध्य रात्रि में इसका पहला अपडेटेड ड्राफ्ट प्रकाशित किया जिसमें 1.9
करोड़ लोगों के नाम को इस सूची में शामिल किया गया था। दिसम्बर,2017
में जारी पहले ड्राफ्ट में तो करीब-करीब आधी आबादी छूट गयी थी। 30 जुलाई,2018 को
इसका दूसरा अंतिम ड्राफ्ट प्रकाशित किया गया जिसके अंतर्गत ड्राफ्ट के अनुसार असम
की 3.29 करोड़ आबादी में से 2.89 करोड़
लोगों को असम के नागरिक के रूप में इस रजिस्टर में जगह दी गयी हैं और शेष बचे 40,07,707
लाख (असम की लगभग 10% आबादी) इसके दायरे से बाहर लोगों की नागरिकता
के दावों को विभिन्न कारणों से संदिग्ध पाया गया। इसमें 2.48 लाख लोग ऐसे हैं, जिनके मामले में अभी कोई फैसला
नहीं हो सका है, जबकि शेष वे लोग हैं जिनके आवेदन खारिज कर
दिए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आलोक में संदेहास्पद मतदाताओं (D-Voters) को
इसके अंतर्गत शामिल नहीं किया गया है और उन्हें शामिल किया जाना फॉरेनर्स
ट्रिब्यूनल के निर्णय पर निर्भर करता है। इसके अतिरिक्त
संदेहास्पद मतदाताओं की संतानों, जिन लोगों के मामले विदेशी न्यायाधिकरण में
लंबित हैं और उनकी संतानों को सूची में शामिल नहीं किया गया है। यह दूसरी बार है जब नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़नशिप बनाने का काम अंतिम चरण के
करीब पहुँचा है। इसकी अंतिम सूची 31 दिसंबर,2018 तक प्रकाशित होनी है।
पार्ट थ्री: अपडेटेड नेशनल रजिस्टर
ऑफ सिटिज़नशिप: एक विश्लेषण
भारतीय नागरिकों को भी जगह नहीं मिल पाना:
एनआरसी के अपडेशन का असम के मूल निवासियों ने भी इस आशा में स्वागत
किया कि इससे बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान संभव हो सकेगे और उन्हें निकाल-बाहर
किया जा सकेगा, जबकि बांग्लाभाषी समुदाय ने इस आशा में कि इससे बांग्लादेशी होने
के आरोप से उन्हें मुक्ति मिलेगी। ये इस बात से आहत
हैं कि असम की भाषा और संस्कृति को अपनाने के बाद भी उन्हें 'विदेशी' कहा जाता हैं। अखिल असम छात्र संघ (AASU) समेत सभी क्षेत्रीय संगठनों और दलों की नजर
में इस रजिस्टर में जगह नहीं बना पाए अधिकांश लोग विदेशी नागरिक हैं, जबकि
वास्तविकता ऐसी नहीं है। नागरिकों की तकनीकी भूल-चूक के कारण 40 लाख में बहुत-से हिंदुओं, बंगालियों, बिहारियों, पूर्वांचल के लोगों और राजस्थानियों
आदि का भी पंजीकरण नहीं हो सका है।
यह सच है कि प्रभावितों में बांग्लाभाषी मुसलमानों का अनुपात ज्यादा
है, लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल बांग्लाभाषी मुस्लिम ही इस ड्राफ्ट से बाहर रहे
हों, प्रभावितों में उनके अलावा बांग्लाभाषी हिन्दू और जनजाति-समाज के लोग भी
शामिल हैं। जिन भारतीयों के नाम इसमें शामिल नहीं हैं, उनमें बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से आकर
असम में बसने वालों की संख्या ज्यादा है। इनमें से अधिकांश के नाम न तो निर्धारित
तिथि से पहले की मतदाता-सूची में हैं और न ही इनके पास कोई निर्दिष्ट दस्तावेज़
हैं। इन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए वंशवृक्ष का विकल्प दिया गया जिसके
जरिये ये साबित कर सकते हैं कि उनके पूर्वज भारत के किसी राज्य में निवास करते थे,
लेकिन समस्या यह है कि तत्संबंधित राज्य की प्रशासनिक बेरुखी के कारण इनके द्वारा
जमा किये गए अपने मूल प्रदेश से सम्बंधित दस्तावेजों के सत्यापन संभव नहीं हो सका।
नतीजतन, इस तरह के तमाम भारतीयों के नाम सूची में शामिल होने
से रह गए। इनकी समस्या यह है कि एनआरसी से उनका बाहर रहना उनकी समस्या को और अधिक
गंभीर बनाएगा। साथ ही, इसके लिए उन्हें भाग-दौड़ करनी होगी और इस क्रम में सृजित
वित्तीय दबाव के कारण पहले से ही दयनीय उनकी आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ेगी। इसके अतिरिक्त हजारों नेपाली-भाषियों के नाम भी इस
सूची में नहीं शामिल किये गए हैं।
एनआरसी की आलोचना का आधार:
30 जुलाई,2018 को जारी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस
(एनआरसी) के फाइनल ड्राफ्ट ने लोगों की आशंकाओं को बल प्रदान करते हुए विवादों को
जन्म दिया है। इस रजिस्टर में जिन 40 लाख लोगों के नाम नहीं हैं, उनमें सेना के पूर्व अधिकारी से लेकर सरकारी
सेवा में शामिल रह चुके लोग तक शामिल हैं। इसमें उन लोगों के नाम भी शामिल नहीं
किये गए हैं जिन्होंने अपने आवेदन के साथ सभी वैध दस्तावेज उपलब्ध करवाए हैं। यह
रजिस्टर के निर्माण की प्रक्रिया में विद्यमान विसंगतियों की ओर इशारा करता है और इसके
कारण पूरी-की-पूरी प्रक्रिया ही संदेहास्पद हो जाती है। इसलिए इसकी निम्न आधारों
पर आलोचना की जा रही है:
1. अन्तर्राष्ट्रीय प्रावधानों से मेल नहीं: एनआरसी के निर्माण की प्रक्रिया में कई ऐसे प्रावधान किये गए हैं,
जो अन्तर्राष्ट्रीय प्रावधानों से मेल नहीं खाते हैं। इसके
अंतर्गत खुद की नागरिकता साबित करने की जिम्मेवारी आवेदकों पर होगी और उन्हें वैध
दस्तावेजों को रखते हुए यह साबित करना होगा कि वे या उनके पूर्वज 1951 या फिर 25
मार्च,1971 के पहले से भारत में रह रहे थे/हैं।
यह नागरिकता-निर्धारण पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के उस प्रचलन के विपरीत है जो यह
साबित करने की जिम्मेवारी सरकार पर डालती है कि अमुक व्यक्ति इस देश का नागरिक
नहीं है।
2. भारतीय नागरिकता अधिनयम,1955 से असंगत: अगर पिता की
भारतीय नागरिकता संदेहास्पद है, तो स्वाभाविक रूप से बच्चे की नागरिकता पर भी
प्रश्नचिह्न लगेगा; लेकिन समस्या यह है कि भारतीय नागरिकता अधिनयम,1955 जन्म से
नागरिकता का प्रावधान करता है और NRC की मूल अवधारणा एवं क्रियाप्रणाली इसकी
अनदेखी करती हुई वंशानुक्रम से नागरिकता का निर्धारण कराती है। इसीलिये इसके कुछ
प्रावधान नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों से टकराते हैं।
3. प्रक्रियागत
खामियाँ: एनआरसी के अपडेशन की प्रक्रिया में
स्पष्टता एवं पारदर्शिता के अभाव की बात भी सामने आयी है।
साथ ही, पूरे मामले में कई प्रक्रियागत खामियाँ भी उजागर हुई हैं जिन्हें
निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
a. इस सूची में एक लाख
से ज्यादा लोगों के नाम सिर्फ इसलिए नहीं आ सके, क्योंकि वे पड़ोसी राज्यों यथा:
बिहार, उत्तरप्रदेश एवं पश्चिम बंगाल से यहाँ आए थे और जब उनके कागजात तत्सम्बंधित्त
राज्य-सरकारों के पास भेजे गए, तो वहाँ से उनकी कोई पुष्टि
नहीं आई।
b. इसके अतिरिक्त, इस
रजिस्टर से बाहर रह गए लोगों में कई ऐसे नागरिक भी हैं जिन्हें फॉरेनर्स ट्राइब्यूनल
के द्वारा तो भारतीय नागरिक माना गया है, लेकिन एनआरसी में उनका नाम नहीं है।
c. यहाँ तक कि विधायक,
सरकारी सेवक और सेना में काम कर चुके लोगों के परिज़नों तक के नागरिकता दावों को
खारिज किया गया है।
d. इस तरह के तथ्य भी
सामने आए हैं कि अद्यतन प्रक्रिया के दौरान धर्म के अलावा उपाधि और जन्म-स्थान को देखकर भी भेदभाव किया गया
है।
e. इन 40 लाख लोगों में काफी संख्या ऐसे लोगों
की है जिनके पास आधार, पासपोर्ट और पहचान-पत्र है; लेकिन चूँकि
इन दस्तावेजों को प्रामाणिक दस्तावेज़ के रूप में नहीं स्वीकार किया गया है, इसीलिए
उनका नाम इस रजिस्टर में शामिल नहीं किया गया है। यहाँ तक कि
इनमें से कई लोगों को वैध दस्तावेजों की मौजूदगी के बावजूद अंतिम ड्राफ्ट में जगह
नहीं दी गयी है।
f.
एक ही परिवार के कुछ लोगों को तो इसके
अंतर्गत शामिल किया गया है, पर कुछ लोगों को नहीं।
4. दस्तावेजों की माँग अव्यावहारिक नज़रिए का संकेतक: इसके लिए जिन दस्तावेजों की माँग की जा रही है, भारत जैसे देश में, जहाँ
दस्तावेजों एवं उसके रखरखाव के प्रति जागरूकता का अभाव है, यह
अव्यावहारिक है।
5. सन् 2014
से सुप्रीम कोर्ट ने एक ओर इस काम की निगरानी अपने हाथ में तो ली और इसे शीघ्र
पूरा करने के लिए केंद्र सरकार एवं असम सरकार पर निरंतर दबाव बनाये रखा, लेकिन
इससे प्रभावित और इस सूची से बाहर रह गए लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए
व्यवस्थित मैकेनिज्म के विकास की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की। इसने भी स्थिति को कहीं अधिक जटिल बना दिया।
6. विवाहित मुस्लिम महिलाओं की नागरिकता को लेकर समस्या: दरअसल
समस्या उन 27 लाख विवाहित मुस्लिम महिलाओं को लेकर है जिनके पास न तो मैरिज
सर्टिफिकेट है और न ही शैक्षिक दस्तावेज़। दरअसल शादी
के बाद या किसी अन्य कारण से एक गाँव से दूसरे गाँव स्थानांतरित हुई महिलाओं के पास
किसी प्रकार का लीगेसी लिंकेज दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं था, इसीलिए इन्होंने अपने
नागरिकता-दावों के समर्थन में पंचायत के द्वारा जारी प्रमाण-पत्र सौंपा, लेकिन इन
दस्तावेजों के प्रति राज्य सरकार और एनआरसी से निर्माण से सम्बंधित एजेंसी का
रवैया नकारात्मक रहा। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी इसे
वैध दस्तावेज मानने से इंकार करते हुए इससे सम्बंधित याचिकाएँ खारिज कर दीं। बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए
पंचायतों द्वारा जारी प्रमाण-पत्र को नागरिकता के लिए वैध सहायक दस्तावेज मानने का
फैसला सुनाया, यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर सतर्कता बरतते हुए गहन
जाँच के पश्चात् स्वीकारे जाने के निर्देश दिए हैं। इसने मामले को कहीं अधिक उलझा
दिया। एनआरसी में नाम दर्ज कराने के लिए 3.20
करोड़ के दावों में से 48 लाख नागरिक ग्राम
पंचायत सचिव के प्रमाण-पत्र के आधार पर दावा कर रहे हैं जिनमें अधिकतर महिलाएँ हैं।
7. ग्राम-पंचायतों के द्वारा जारी प्रमाण-पत्रों को नहीं स्वीकार
जाना: सुप्रीम कोर्ट ने ग्राम पंचायत के द्वारा जारी प्रमाण-पत्र
दाखिल करने वाले लोगों का नाम वेरिफ़िकेशन करने के बाद एनआरसी में शामिल करने का
निर्देश दिया था, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं किया गया। क़रीब 29 लाख
लोगों ने ग्राम-पंचायत प्रमाण-पत्र दाखिल किया था, लेकिन आधे
से ज़्यादा लोगों के नाम इसके अंतर्गत शामिल नहीं किये गए।
8. पहले ड्राफ्ट में शामिल लोगों को रजिस्टर से बाहर किया जाना: पहले
ड्राफ्ट में शामिल 1.5 लाख लोगों को अंतिम ड्राफ्ट में शामिल न किये जाने को लेकर
विवाद खड़ा हो चुका है और यह मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है। इन्होंने विभिन्न जगहों पर खुद को भिन्न नामों से
प्रदर्शित किया है।
सूची में शामिल न हो पाने
वाले लोगों के पास उपलब्ध विकल्प:
एनआरसी; इसीलिए । सरकार और प्रशासन ने प्रभावितों को अपने स्तर पर आश्वस्त करने की
कोशिश करते हुए कहा है कि जिन भारतीय नागरिकों के नाम अंतिम मसौदा सूची में नहीं
हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का पर्याप्त मौका
दिया जाएगा। इसके लिए दावा और आपत्ति के विकल्प को खुला रखा गया है। केंद्रीय गृह-मंत्री
राजनाथ सिंह के निर्देश पर असम सरकार ने पुलिस को स्पष्ट निर्देश दिया है कि मसौदा
नागरिक पंजी के आधार पर न तो किसी के खिलाफ कार्रवाई की जाए, न ही उनके नाम
फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को भेजे जाएँ और न ही किसी को डिटेंशन कैंप भेजा जाए। असम
सरकार विभिन्न माध्यमों से लोगों को यह संदेश दे रही है कि यह अंतिम सूची नहीं,
सिर्फ मसौदा है।
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मसौदा सात अक्तूबर तक जनता के लिये
उपलब्ध रहेगा, ताकि वे देख सकें कि इसमे उनके नाम हैं या नहीं। राज्य सरकार ने कहा कि मसौदा में जिनके
नाम उपलब्ध नहीं होंगे, उनके द्वारा 7 अगस्त से 28 सितंबर के बीच । इन सेवा-केन्द्रों पर मौजूद अधिकारियों को
ड्राफ्ट में उनके नाम नहीं शामिल करने के कारण बतलाने होंगे और इसके बाद लोगों को
उनके दावों को दर्ज कराने के लिए एक अन्य फ़ॉर्म भरना होगा जो 30 अगस्त से 28 सितंबर तक उपलब्ध होगा। एनआरसी सेवा केंद्रों में मौजूद लोकल रजिस्ट्रार
को दावों को स्वीकार करने या ख़ारिज करने की शक्ति होगी। इन दावों के आलोक में ही एनआरसी-दस्तावेज़
को अंतिम रूप दिया जाएगा।
एनआरसी। यदि उनके दावे एक
बार फिर से खारिज कर दिए जाते हैं, तो वे ।इन लोगों
की नागरिकता से सम्बंधित मामलों पर विचार करते हुए इस बात को ध्यान में रखा जाना
चाहिए कि आधुनिक राष्ट्र माइग्रेशन एवं सांस्कृतिक फैलाव का परिणाम है और इसने एक
राष्ट्र के रूप में उसे कहीं अधिक समृद्ध बनाया है। लेकिन,
NRC की प्रक्रिया इस तथ्य की अनदेखी करती है। इसके
अतिरिक्त यदि किसी भी व्यक्ति को किसी नाम के शामिल किये जाने को लेकर किसी प्रकार
की आपत्ति है, तो वह अपनी आपत्ति दर्ज करवा सकता है।
एनआरसी
में शामिल न हो पाए लोगों का भविष्य:
ध्यातव्य है कि सन् (2005-13) के बीच 82,728 अवैध बांग्लादेशी
घुसपैठियों को निकाल-बाहर किया गया, जबकि सन् (2014-18) के दौरान यह प्रक्रिया
अवरुद्ध हुई और महज़ 1822
बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर निकाला गया। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अवैध पाए जाने की स्थिति में उनके साथ क्या किया
जाएगा: इन्हें भारत से निकाला जाएगा और अगर हाँ, तो इसकी प्रक्रिया क्या होगी; या
फिर इन्हें भारतीय कानून के मुताबिक (2-8) साल तक कैद में रखा जाएगा, या फिर इन्हें डिटेंशन
सेंटर में जगह दी जाएगी। इसका सीधा-सा जवाब यह दिया जा सकता है कि उन्हें वापस बांग्लादेश
भेज दिया जाएगा, लेकिन व्यवहार में ऐसा करना आसान नहीं है, तब तो
और भी नहीं जब बांग्लादेश एनसीआर को भारत का आतंरिक मामला बतला रहा है और जिन
लोगों के नाम इसमें नहीं है, उन्हें अपना नागरिक मानने से इन्कार किया है।
आर्थिक-राजनीतिक
निहितार्थ:
इसका आर्थिक प्रभाव भी कहीं अधिक
खतरनाक हो सकता है क्योंकि लगभग 20% बांग्लादेशी असंगठित क्षेत्र की गतिविधियों से
जुड़े हैं और ऐसी स्थिति में असंगठित क्षेत्र में कामगारों की कमी हो सकती है। जहाँ तक इसके राजनीतिक निहितार्थों का
प्रश्न है, तो लगभग 35% मुस्लिम मतदाता असम के 14 लोकसभा
सीटों में से 6 लोकसभा सीटों के परिणामों को प्रभावित करने में सक्षम हैं। इसी प्रकार लगभग 40 विधानसभा
सीटों पर बांग्लाभाषी मुस्लिम वोटरों की बहुलता है और
इनमें कम-से-कम 24 विधानसभा सीटों पर उनकी भूमिका निर्णायक
है। इससे सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र के कहीं अधिक प्रभावित होने की सम्भावना
है क्योंकि यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बल प्रदान करेगा जिससे
सांप्रदायिक-धार्मिक सौहार्द्र प्रतिकूलतः प्रभावित हो सकता है।
एनआरसी के मसले का राजनीतिकरण:
असम में जारी हुए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की खामियाँ जितनी गंभीर
हैं, उससे कहीं ज्यादा गंभीर है, इसको लेकर पैदा हो रहा विवाद: असम के लिए भी और
भारत के लिए भी, असमियों के लिए भी और बांग्लाभाषियों के लिए भी। जहाँ इस सूची में
अपना नाम नहीं दर्ज करवा पाए 40 लाख लोग अपने वर्तमान एवं भविष्य को लेकर आशंकित
हैं, वहीं राजनीतिक दल और इसके नेता भावी चुनाव के मद्देनज़र इस बहाने अपनी राजनीति
चमकाने की कोशिश में लग गए हैं ताकि अपने पक्ष में वोटों के ध्रुवीकरण को
सुनिश्चित किया जा सके।
यद्यपि केंद्र सरकार
से लेकर राज्य सरकार तक ने बारम्बार यह स्पष्ट किया है कि ड्राफ्ट एनआरसी के आधार
पर किसी को न तो डिटेंशन कैंप में भेजा जाएगा और न ही उनकी नागरिकता खारिज की
जाएगी, तथापि पक्ष और विपक्ष, दोनों ने अपने-अपने तरीके से 2019 के लोकसभा चुनाव
को ध्यान में रखते हुए इस मसले पर राजनीति शुरू कर दी है। टीआरपी के चक्कर में
मीडिया ने भी इन्हें बांग्लादेशी घुसपैठिया करार दिया है और विभिन्न हलकों से भारत
से इनके निकाल-बाहर की भी बात हो रही है। दूसरे शब्दों में कहें, तो राजनीति ने
मीडिया के साथ मिलकर इस समस्या को कहीं अधिक जटिल बना दिया है और अब इसका असर
स्थानीय स्तर पर बढ़ते हुए तनाव के रूप में भी दिख रहा है।
केंद्र
सरकार की मंशा को लेकर संदेह के कारण गहराता संकट:
केंद्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा
ने जिस तरह से नागरिकता अधिनियम में हिन्दू एवं मुस्लिम घुसपैठियों के प्रति अलग-अलग
नजरिया अपनाया है, वह उसके सांप्रदायिक पूर्वाग्रह की ओर इशारा करता है और इसका सम्बन्ध
वोटबैंक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति से जुड़ता है। इतना ही नहीं,
भाजपा ‘एक देश, एक कानून’ की बात करती है, लेकिन असम समस्या ले मामले में एक देश,
दो कानून के पक्ष में खड़ी है। दूसरे शब्दों में कहें, तो ड्राफ्ट
के राजनीतिकरण की संभावना को सिटिज़नशिप अमेंडमेंट बिल,2016 से भी बल मिला क्योंकि यह बिल धर्म के आधार पर अफगानिस्तान, पकिस्तान एवं
बांग्लादेश से आये हुए अवैध गैर-मुस्लिम घुसपैठियों के लिए नागरिकता का प्रावधान करता
है और इसके लिए अधिनियम के प्रावधानों को शिथिल करता है।
इसीलिए इस आशंका को बल मिल रही है कि एक ओर केंद्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा
एनआरसी के जरिये अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की चुनौतियों से निबटना चाहती है,
दूसरी ओर नागरिकता अधिनियम में संशोधनों के जरिये बैकडोर से बांग्लादेशी हिन्दुओं
के लिए नागरिकता के मार्ग को प्रशस्त भी करना चाहती है, ताकि इसके जरिये अपनी
हिन्दुत्ववादी पहचान को मजबूती प्रदान करते हुए असम के साथ-साथ देशभर में वोटबैंक
की राजनीति में अपनी स्थिति मज़बूत की जा सके। विरोधी दलों की इस आशंका को भाजपा
नेताओं के द्वारा की जाने वाली अनावश्यक बयानबाजी से भी बल मिल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की आड़ में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का
खेल:
अगर सिटीजनशिप एक्ट,2016
संसद में पारित हो जाता है, तो फिर
कोई भी कभी भी भारत का नागरिक बन सकता है। ऐसी
स्थिति में NRC और इसके अपडेशन का कोई मतलब नहीं रहा
जाएगा क्योंकि यह 2014 तक असम आनेवाले गैर-मुस्लिमों की भारतीय नागरिकता का मार्ग
प्रशस्त करेगा। ऐसी स्थिति में सन् 1951 या फिर 25 मार्च,1971 के पहले के डेडलाइन की कोई अहमियत अन्हीं रह जायेगी का कोई मतलब नही
रह जायेगा। एनआरसी के बाद
भी भाजपा के लिए हिंदुत्व-आधारित राजनीति का रास्ता खुला रहेगा और वह उन्हें
नागरिकता अधिनियम में संशोधन के जरिये बांग्लादेशी हिन्दुओं के लिए भारतीय
नागरिकता सुनिश्चित भी कर सकेगी और अपने हिन्दू वोटबैंक को भी सुदृढ़ कर सकेगी। साथ ही, असमी मूल के लोगों को मुस्लिम बहुसंख्यकों का
डर दिखाते हुए यह समझाने की कोशिश की जायेगी कि उनके लिए बांग्लाभाषी हिन्दुओं को
नागरिकता इन बांग्लाभाषी मुसलमानों के विरुद्ध ढ़ाल का काम करेगी और वे खुद को
सुरक्षित महसूस कर सकेंगे। कहीं-न-कहीं यह हिन्दू-अस्मिता को गहराने का कम करेगा और इसके कारण बंगाली-अस्मिता खतरे में पड़ जायेगी। इसीलिये इस आशंका को बल मिलता है कि भाजपा इस मसले पर उच्चतम न्यायालय के निर्देश का ढ़ाल के रूप
में इस्तेमाल कर रही है, यद्यपि केन्द्रीय गृह-मंत्री ने राष्ट्रीय नागरिकता
रजिस्टर के मसौदे को पूर्वाग्रह-रहित एवं निष्पक्ष बतलाते हुए कहा कि यह काम
उच्चतम न्यायालय की निगरानी में हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार
संस्था की प्रतिक्रिया:
जून,2018 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संस्था द्वारा
नियुक्त चार सदस्यीय विशेष कार्यदल ने संयुक्त रूप से एनआरसी अपडेट के नाम पर असम
में बंगाली मुसलमानों के साथ कथित भेदभाव पर गंभीर चिंता व्यक्त की।
इसने 'एनआरसी के अपडेशन की प्रक्रिया में
भाषाई अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से बांग्लाभाषी मुसलमानों के साथ भेदभाव की आशंका और इसके कारण
अंतिम रूप से एनआरसी से बाहर रह गए लोगों के भविष्य को लेकर नीतिगत स्पष्टता के
अभाव की ओर इशारा किया।
ध्यातव्य है कि पिछले आठ महीनों के दौरान सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की मूल
भावनाओं की अनदेखी करते हुए कई अधिसूचनाएँ जारी की गईं, जिनके परिणामस्वरूप अगर
किसी परिवार के एक सदस्य को फ़ॉरेनर्स ट्राइब्यूनल ने विदेशी घोषित कर दिया है, तो
वैध दस्तावेजों की मौजूदगी के बावजूद उस परिवार के अन्य लोगों के नाम एनआरसी में
नहीं शामिल किये जायेंगे। कारण यह कि ऐसे मामलों में पुलिस नागरिकता से जुड़े वैध दस्तावेजों
के बावजूद संतुष्ट नहीं होती है और ऐसे मामले को फ़ॉरेनर्स ट्राइब्यूनल्स के पास
भेज देती है।
तृणमूल
काँग्रेस की प्रतिक्रिया:
असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) में 40 लाख लोगों, जिनमें
अधिकतर बांग्लाभाषी हैं, का नाम नहीं होने के मुद्दे को अमानवीय करार देते हुए
तृणमूल काँग्रेस ने इस मुद्दे पर संशोधन-विधेयक लाने की माँग की है, ताकि लाखों
लोगों के भविष्य को सुरक्षित किया जा सके। उसे इस बात की आशंका है कि अगर इस
समस्या का जल्द समाधान नहीं निकाला गया, तो इन बांग्लाभाषियों के असम से पश्चिम
बंगाल की ओर पलायन की प्रक्रिया तेज़ होगी जो राज्य सरकार के लिए कई मुश्किलें खड़ी
करेगी। उसकी आपत्ति इस बात को लेकर भी है कि आखिर कैसे 40 लाख लोगों के सन्दर्भ
में यह प्रक्रिया महज 28
दिनों में पूरी की जायेगी। तृणमूल काँग्रेस इस मसले को
न्यायपालिका के बजाय संसद के पटल पर निपटाना चाहती है।
काँग्रेस का रूख:
काँग्रेस का यह कहना है कि सरकार के पास अभी भी
ये आँकड़े नहीं हैं कि घुसपैठियों की संख्या कितनी है। उन्होंने आरोप लगाया कि
एनआरसी मामले में सरकार का रूख कमजोर, लचर और अप्रभावी
है। असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी के संदर्भ में जो गलती हुई है, उसे देखते
हुए हमारी माँग है कि 40 लाख लोगों के
संवैधानिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हो।
ड्राफ्ट पर सुप्रीम कोर्ट का रूख:
उपरोक्त विवादों के आलोक में उच्चतम न्यायालय ने यह
स्पष्ट किया कि चूँकि अभी यह रजिस्टर महज एक मसौदे के रूप में है, इसीलिए असम के राष्ट्रीय
नागरिक रजिस्टर के मसौदे के प्रकाशन के आधार पर किसी के भी खिलाफ कोई दण्डात्मक
कार्रवाई नहीं की जा सकती है। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन
की पीठ ने केन्द्र को निर्देश दिया कि इस मसौदे के संदर्भ में दावों और आपत्तियों
के निस्तारण के लिये स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मानक संचालन-प्रक्रिया तैयार करते हुए 16 अगस्त तक
उसके समक्ष मंजूरी के लिये पेश की जाये। इस प्रक्रिया में उन सभी लोगों को समुचित
एवं पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए जिनके नाम इस सूची में शामिल नहीं है।
चुनाव
आयोग का रुख:
इस मसले पर
गृह-मंत्रालय का कहना है कि NRC की प्रक्रिया न तो किसी को विदेशी घोषित करती है
और न ही इस बात की घोषणा करती है कि अमुक व्यक्ति वोट देने के योग्य नहीं है और
इसलिए उसे मतदाता-सूची से बाहर किया जाय। लेकिन, नुख्य निर्वाचन आयुक्त का
कहना है कि केवल उन्हीं लोगों को चुनाव में भाग लेने की अनुमति दी जायेगी जो भारत
के नागरिक हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि जिनके नाम NRC की अंतिम रिपोर्ट में नहीं होंगे, वे अपने
मताधिकार के प्रयोग के लिए अर्हत नहीं होंगे। लेकिन, बाद में
चुनाव आयोग ने कहा कि वह NRC को अंतिम रूप दिए जाने की प्रतीक्षा नहीं करेगा और
जनवरी,2019 में मतदाता-सूची का प्रकाशन करेगा। ऐसी स्थिति में वे
सारे लोग अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकेंगे जिनके नाम NRC के द्वारा जारी सूची
में तो नहीं हैं, पर जिनके नाम मतदाता सूची में मौजूद हैं।
नृजातीय-भाषायी टकराव तेज़ होने की
संभावना:
असमी समाज का एक हिस्सा उग्र क्षेत्रीयतावाद को मजबूत करने में लगा है
और उसका मानना है कि असम सिर्फ असमिया लोगों के लिए होना चाहिए। इसीलिए यह
स्वाभाविक है कि असम को अवैध नागरिकों से मुक्त कराने के इस अभियान के कारण फिलहाल
लाखों भारतीय भी परेशानी में पड़ गए हैं। इस बात की प्रबल संभावना है कि आने वाले
दिनों में नागरिक पंजी प्रकाशित होने के बाद आसू समेत दूसरे क्षेत्रीय संगठन
एनआरसी के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन, इसमें शामिल न हो पाए लोगों को असम से
निकाल-बाहर करने और असम में व्यापार, नौकरी एवं संपत्ति खरीदने के
अधिकार एनआरसी में शामिल लोगों तक सीमित करने की माँग करें।
अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की वापसी का प्रश्न:
अबतक समय-समय पर
अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस भेजा जाता रहा है, पर यह प्रक्रिया बहुत
प्रभावी नहीं है क्योंकि एक तो वे स्वेच्छा से वापस जाने को राजी नहीं होते हैं,
और दूसरे अगर उन्हें किसी तरह से वापस भेज भी दिया गया, तो फिर वे या तो स्वयं
किसी दूसरे इलाके से अवैध रूप से भारतीय सीमा में वापस प्रवेश कर जानते हैं, या
फिर उन्हें बांग्लादेश बॉर्डर गार्ड के द्वारा वापस भारतीय सीमा में धकेल दिया
जाता है। इस प्रक्रिया की कोई वैधानिकता नहीं है। दूसरी
बात यह है कि मानवीय कारणों से और बांग्लादेश के मित्र देश होने के कारण कोई इनको जबरन
वापस भेजे जाने की बात नहीं करता है, फिर भी वर्तमान सरकार का फोकस ऐसे लोगों को
पुलिस नोटिस भेजने और अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के निर्देश पर है। इसको
देखते हुए इनकी वापसी की कूटनीतिक प्रक्रिया का ही विकल्प शेष रह जाता है जो जटिल
और विलम्बनकारी है।
वियना कन्वेंशन
ने इसकी जो प्रक्रिया निर्धारित की गयी है, उसके अनुसार भारत को अवैध घुसपैठिये के
रूप में पहचानने के बाद सबसे पहले बांग्लादेश के हाईकमीशन को सूचित करना होगा जो
प्रभावित व्यक्ति को कांसुलर-सुविधा उपलब्ध करवाएगा। उसके बाद एक टीम का गठन किया
जाता है जो तत्संबंधित व्यक्ति के साक्षात्कार के जरिये इस बात की जाँच करेगी कि
वास्तव में वह व्यक्ति बांग्लादेशी ही है। पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद उसके
लिए अस्थायी पासपोर्ट उपलब्ध करवाया जाएगा और तब कहीं जाकर उसकी वापसी संभव हो
सकेगी। स्पष्ट है कि यह इनकी वापसी की संभावना
को क्षीण बना देती है।
बांग्लादेश-भारत
संबंधों पर असर:
एनआरसी ने
भारत-बांग्लादेश द्विपक्षीय अम्बन्ध को भी दाँव पर लगा दिया है। इस बात की सम्भावना अत्यंत कम है कि बांग्लादेश
इन्हें अपनाएगा और अपने नागरिक के रूप में स्वीकार करेगा। ढ़ाका में चाहे जिसकी भी
सरकार हो, अगर भारत उन्हें भेजने की ज़िद करेगा, तो बांग्लादेश के साथ रिश्ते बिगड़ेंगे। शायद
इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए भारत ने बांग्लादेश की सरकार को विश्वास में लेने की
कोशिश की। उसने बांग्लादेश को NRC के लिए
अपनायी गयी प्रक्रिया एवं इसकी ज़रूरतों के बारे में ब्रीफ करते हुए बतलाया कि यह
पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निर्देशित है।
ऐसा माना जा रहा
है कि द्विपक्षीय संबंधों पर संभावित असर के मद्देनज़र भारत ने बांग्लादेश के समक्ष
यह स्पष्ट किया है कि इनकी वापसी के मसले पर कोई बातचीत नहीं हो रही है।
बांग्लादेश के राजनयिक ने इसे भारत का आंतरिक मसला बताते हुए वर्तमान स्थिति में
कुछ भी टिप्पणी करने से इन्कार कर दिया। संभव है कि इस साल के अंत में प्रस्तावित
आम चुनाव में बांग्लादेश के प्रमुख विपक्षी दल के द्वारा NRC के मसले को उठाया
जाएगा, इसीलिए भारत अवैध घुसपैठियों की वापसी के मुद्दे को उठाकर द्विपक्षीय
संबंधों के साथ-साथ सत्तारूढ़ आवामी लीग की मुश्किलें नहीं बढ़ना चाहता है क्योंकि
शेख हसीना की आवामी लीग को भारत के प्रति उदार माना जाता है और बेगम खालिदा जिया
की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी को भारत-विरोधी। इसीलिए ऐसा कोई भी संदेश भारत के
दीर्घकालिक कूटनीतिक हितों को प्रतिकूलतः प्रभावित कर सकता है।
विश्लेषण और निष्कर्ष:
स्पष्ट
है कि एनआरसी का मसला देश की सुरक्षा और मानवाधिकार से
जुड़ा हुआ है, इस तथ्य से इन्कार करना मुश्किल है, इसीलिए इस मसले पर अतिरिक्त
सतर्कता की ज़रुरत है। अच्छी बात यह है कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस मसले
पर सहमत हैं। दोनों को लगता है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या का समाधान
होना चाहिए और इसमें एनआरसी अहम् भूमिका निभा सकता है। यहाँ तक कि असमी मूल के
लोगों और बांग्लाभाषी भारतीयों को भी लगता है कि एक बार एनआरसी के तैयार हो जाने
के बाद उनकी भी आशंकाओं का निवारण हो जाएगा और वे बार-बार की परेशानियों से मुक्त
हो जायेंगे। लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि सत्तारूढ़ दल इस आम-सहमति को भी भुना पाने
की स्थिति में नहीं है। कहीं-न-कहीं सन् 2019 के पूर्वार्द्ध में प्रस्तावित
लोकसभा चुनाव इसमें अवरोध उत्पन्न कर रहा है। इसके आलोक में दोनों के अपने-अपने
पॉलिटिकल लाइन हैं, दोनों इस पर अड़े हुए हैं और इसके जरिये दोनों अपने-अपने
वोटबैंक को सँभालने की जुगुत में हैं।
समस्या यह है कि एनआरसी (NRC) बनने की प्रक्रिया में जमीनी स्तर पर होने वाली लापरवाही को
नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है और इस बात को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि इस
क्रम में राजनीतिक कारणों से कुछ विशेष समुदाय के लोगों को बाहर रखे जाने की सम्भावना
को भी नकारा नहीं जा सकता है, विशेष रूप से नागरिकता अधिनियम में प्रस्तावित
संशोधनों को ध्यान में रखते हुए। लेकिन, यह भी सच है कि एनआरसी (NRC) की जटिल एवं बिलंबनकारी ड्राफ्टिंग-प्रक्रिया के
मद्देनज़र लोगों के बाहर रहना भी बहुत अस्वाभाविक नहीं है। इसीलिए आतंरिक सुरक्षा
एवं कानून-व्यवस्था के मद्देनजर इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए सत्ता पक्ष एवं
विपक्ष, दोनों को राजनीति से परहेज़ करते हुए इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि
कैसे इस सूची से बाहर रह गए भारतीयों का इस सूची में शामिल किया जाना सुनिश्चित
किया जा सके, विशेषकर इसलिए भी कि ये हासिये पर के समूह से आते हैं जिनके पास न तो
इतने संसाधन हैं और न इतनी समझ कि वे खुद को इसमें शामिल किया जा सकना आसानी से
सुनिश्चित कर सकें, अन्यथा इनका नागरिक अधिकारों से वंचित होना एक अम्न्वीय संकट
को जन्म देगा जिसकी कीमत असम के साथ-साथ पूरे देश को चुकानी होगी। इस सन्दर्भ में
असम के भूतपूर्व मुख्यमंत्री को तरुण
गोगोई की यह सलाह उचित ही प्रतीत होती है कि सरकार इनकी आर्थिक हैसियत को ध्यान
में रखते हुए इनकी सहायता के लिए वैधनिक सहायता का मैकेनिज्म विकसित करे जो इन्हें
नागरिकता हासिल करने में मदद प्रदान करे और जिसकी मदद से ये वैधानिक दस्तावेजों के
सहारे अपनी नागरिकता बचा सकें।
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