15वें
वित्त आयोग और राजकोषीय संघवाद
(उत्तरी बनाम् दक्षिणी राज्यों के बीच विवाद)
1. राजकोषीय संघवाद
a. संसाधनों और
उत्तरदायित्व के वितरण के बीच असंतुलन
b. विभाजनीय करों में
भागीदारी से कुल केन्द्रीय कर-राजस्व में भागीदारी पर आधारित व्यवस्था की ओर
c. 14वाँ वित्त आयोग और
राजकोषीय संघवाद
2.
15वें वित्त आयोग
a. 15वें वित्त आयोग का गठन
b. वित्त आयोग की शर्तों पर विवाद
c. आधार-वर्ष में बदलाव
के पक्ष में तर्क
d. आधार-वर्ष में
परिवर्तन को लेकर दक्षिणी राज्यों की आपत्ति
e. केंद्र सरकार का रुख
f.
विवाद को उत्तरी बनाम् दक्षिणी राज्य का रूप देना
उचित नहीं
g. दक्षिणी राज्यों का
तर्क उचित नहीं
h. विश्लेषण
राजकोषीय संघवाद
संघवाद की अवधारणा संघ और राज्य के
बीच पारस्परिक सहयोग एवं समन्वय पर बल देती है। इसी तर्ज़ पर राजकोषीय संघवाद की अवधारणा राजकोषीय सन्दर्भों में केंद्र
एवं राज्य के बीच पारस्परिक सहयोग की संभावनाओं पर बल देती है। भारतीय
संविधान में इसके लिए जिस संस्थागत ढाँचे की परिकल्पना की गयी है, वह है वित्त
आयोग, जो भारत में राजकोषीय संघवाद की सबसे महत्वपूर्ण
विशेषता है और इसकी मजबूती का आधार है। इसका अनु. 280(2a) केंद्र एवं
राज्यों के बीच केन्द्रीय कर-राजस्व के क्षैतिज विभाजन और अनु. 280(2b) राज्यों के
बीच उसके उर्ध्वाधर विभाजन का उल्लेख करता है। बिबेक देबरॉय ने 1935 के भारत शासन
अधिनियम के साथ-साथ 1936 के निएमेयेर रिपोर्ट, 1948 के कृष्माचारी रिपोर्ट और
सरकार समिति के रिपोर्ट का हवाला देते हुए बतलाया है कि संवैधानिक व्यवस्था के
विकास के क्रम में दक्षता के साथ-साथ साम्यता को भी महत्व दिया गया है और इसकी झलक
वित्त आयोग के द्वारा सुझाये गए फ़ॉर्मूले में भी दिखती है।
संसाधनों और उत्तरदायित्व के वितरण के बीच असंतुलन:
भारत में संसाधनों का वितरण केंद्र के पक्ष में
है, जबकि उत्तरदायित्व राज्यों के जिम्मे है। राज्य सरकारों को जितना टैक्स एकत्र
करने का अधिकार है, उनकी जरूरतें उससे कहीं ज्यादा हैं, इसलिए संविधान में वित्त आयोग की व्यवस्था की गयी है और उससे अपेक्षा की
गयी है कि वह संसाधनों के समुचित एवं संतुलित वितरण को सुनिश्चित करेगा। स्पष्ट है
कि यहाँ पर संसाधनों एवं उत्तरदायित्व के वितरण के बीच आरम्भ से ही एक असंतुलन है
जिसे दूर करने की कोशिश समय-समय पर वित्त आयोगों के द्वारा की जाती रही है। चूँकि
अधिकांश वस्तुओं एवं सेवाओं का हस्तांतरण राज्य के बदले स्थानीय संस्थाओं के
द्वारा किया जाता है, इसीलिए हस्तांतरण के इस बहस में स्थानीय संस्थाओं हेतु
संसाधनों की उपलब्धता को भी शामिल किया जाना चाहिए।
विभाजनीय करों में भागीदारी से कुल केन्द्रीय कर-राजस्व
में भागीदारी पर आधारित व्यवस्था की ओर:
आरम्भ में केंद्र और राज्य के बीच केवल उन करों से प्राप्त राजस्व का
वितरण किया जाता था जिन्हें संविधान में केंद्र और राज्य के बीच विभाजनीय माना गया
था, लेकिन 9वें वित्त आयोग ने इस व्यवस्था की जगह एक नयी व्यवस्था अपनाने की सलाह
दी। 9वें वित्त आयोग ने यह सुझाव दिया था कि कुल केंद्रीय
कर-राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत राज्यों को दिया जाये। चूँकि एक तरफ राज्यों को
इस फॉर्मूले से फायदा हो रहा था, तो दूसरी तरफ उन्हें यह भी
लग रहा था कि कई बार केंद्र सरकार लोकलुभावन नीतियों के चलते ऐसे कई टैक्स नहीं
लगाती, जिनको राज्यों के साथ साझा करना पड़ता है, जिससे राज्यों को हानि होती है, इसलिए राज्यों ने इस
फॉर्मूले को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसके बाद केंद्र-राज्यों के बीच करों के बँटवारा
प्रतिशत आँकड़े के रूप में ही तय होने लगा। 14वाँ
वित्त आयोग और राजकोषीय संघवाद:
राजकोषीय संघवाद के इतिहास
में 14वाँ वित्त
आयोग एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु बनकर
आया क्योंकि इसने एक झटके में
केंद्रीय करों
में राज्यों की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दी, यद्यपि
यह वृद्धि
जितनी नाटकीय
दिखाती है उतनी है नहीं। इसका
कारण यह है कि इसने संसाधनों का बिना शर्त अंतरण तो बढ़ाया, पर राज्यों के प्रति
केंद्र की जिम्मेवारियों में भी कमी लाई। 2015-16 में केंद्र के सकल कर-राजस्व के
सापेक्ष राज्यों को किया गया अंतरण 2014-15 के 55% से बढ़कर 57% के स्तर पर पहुँच
गया, जबकि 2010-11 और 2011-12 में यह 60% से अधिक के स्तर पर था। यही स्थिति बहुत
कुछ बिना शर्त अंतरण के सन्दर्भ में भी देखने को मिलती है जो 2004-05 के पहले
अपेक्षाकृत ऊँचे स्तर पर था। इसीलिए 14वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं के कारण भले ही
केंद्र से राज्यों की ओर संसाधनों के हस्तांतरण में ज़बरदस्त उछाल का आभास मिलाता
है, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। इसका कारण यह भी है कि 2014-15 में ऐसा हस्तांतरण
अपेक्षाकृत निम्न स्तर पर था। इसका परिणाम यह हुआ कि केंद्र से राज्यों की ओर कुल संसाधनों के हस्तांतरण
में तो मामूली वृद्धि हुई, पर इसके इस्तेमाल की राज्यों को स्वायत्तता जरूर मिली।
15वें
वित्त आयोग का गठन
दिसम्बर,2017
में एन. के. सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग का गठन किया गया और इससे
अपेक्षा की गयी कि यह केंद्र-राज्य के बीच संसाधनों के वितरण के प्रश्न पर विचार
करेगा और एक राजकोषीय रोडमैप प्रस्तुत करेगा। इस आयोग को अक्टूबर,2019 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत
करनी है और ऐसी स्थिति में सरकार के पास इसकी अनुशंसाओं को लागू करने के लिए महज 5
महीने का समय शेष रहेगा।
ध्यातव्य है कि इसकी अनुशंसायें अप्रैल,2020-मार्च,2025 के दौरान लागू होंगी।
15वें
वित्त आयोग का गठन ऐसे समय में हुआ है जब भारत की राजकोषीय नीति से सम्बद्ध ढाँचे
में बुनियादी बदलाव परिलक्षित होते हैं। देश की विकास-संबंधी ज़रूरतों को नेतृत्व
प्रदान करने वाले योजना आयोग को नीति आयोग के द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। इसी
के साथ 2017-18 से योजनागत व्यय और गैर-योजनागत व्यय के अंतर को समाप्त कर दिया
गया। इतना ही नहीं, जुलाई,2017 में वस्तु एवं सेवा कर(GST), जिसका आधार कहीं अधिक
व्यापक है, को लागू किया गया। स्वाभाविक है कि इसका असर वित्त आयोग पर भी पड़े।
वित्त
आयोग की शर्तों पर विवाद:
15वें वित्त
आयोग के गठन और इसके टर्म्स ऑफ़ रेफ़रेंस ने नए सिरे से विवाद को जन्म दिया। इसके परिणामस्वरूप उत्तर और दक्षिण का विभाजन
गहराता नज़र आया। जहाँ उत्तर भारतीय राज्यों के इससे लाभान्वित होने की संभावना
प्रबल हो उठी, वहीँ दक्षिण भारतीय राज्यों के हित प्रतिकूलतः प्रभावित होते दिखे।
भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकारों की प्रतिक्रिया तो फिर भी संयत ही रही, पर
विपक्ष-शासित दक्षिणी राज्य कहीं अधिक मुखरता से सामने आये। अब प्रश्न यह उठता है
कि आखिर दक्षिणी भारतीय राज्यों की आपत्ति किन कारणों से है और टर्म्स ऑफ़ रेफरेंस
के विभिन्न प्रावधान किस प्रकार राजकोषीय संघवाद को प्रभावित कर रहे हैं? इन्हें
निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. 14वें
वित्त आयोग की अनुशंसाओं के केंद्र की राजकोषीय स्थिति पर प्रभाव और न्यू इंडिया
विज़न-2022 को ज़मीनी धरातल पर उतरने के लिए संसाधन संबंधी केंद्र की ज़रूरतों का
अध्ययन: वित्त आयोग को यह भी निर्देश दिया गया है कि 14वें वित्त आयोग
द्वारा राज्यों को टैक्स में ज्यादा हिस्सा मिलने के कारण केंद्र के राजकोष की
स्थिति पर प्रभाव का अध्ययन करे और इस क्रम में
भविष्य में न्यू
इंडिया-2022 के विज़न सहित राष्ट्रीय विकास एजेंडे तथा प्रतिरक्षा, सुरक्षा,
अवसंरचना और जलवायु-परिवर्तन के क्षेत्र में संसाधनों को खर्च करने की जरूरत को
ध्यान में रखता हो। ‘न्यू इंडिया,2022’ समेत
राष्ट्रीय विकास-कार्यक्रम की जरूरत के साथ इसे जोड़कर देखा जाये। इसके कारण इस
आशंका को बल मिल रहा है कि भविष्य में केन्द्रीय राजस्व में केंद्र की हिस्सेदारी
बढ़ायी जा सकती है और उसी अनुपात में राज्यों की हिस्सेदारी में कमी की जा सकती है।
अगर बिना शर्त
अंतरित राशि में कमी आती है, तो राज्य सरकारें अपनी विकास प्राथमिकताओं के
निर्धारण में समर्थ नहीं होंगी और ऐसी स्थिति में वे महज केन्द्रीय योजनाओं को
क्रियान्वित करने वाली एजेंसी में तब्दील होकर रह जायेंगी। इसके कारण सहकारी
संघवाद के प्रति केंद्र की प्रतिबद्धता एवं निष्ठा को लेकर राज्यों के मन में
सन्देह गहरा रहा है।
2. जीएसटी के कारण राज्यों को होनेवाले राजस्व घाटे की
भरपायी की केन्द्रीय गारन्टी और केन्द्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर इसके प्रभाव
का अध्ययन: इस
परिदृश्य को और अधिक जटिल बना रहा है जून,2022 तक जीएसटी के क्रियान्वयन के कारण
राज्यों को होनेवाले राजस्व घाटे की केंद्र के द्वारा भरपाई का आश्वासन, जो
करीब-करीब पन्द्रहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन की आधी अवधि को कवर
करता है। आयोग
को राजस्व में 14% की वृद्धि के साथ जीएसटी के
क्रियान्वयन के कारण राज्यों को होनेवाले राजस्व घाटे की भरपायी की गारन्टी के
कारण केन्द्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर के प्रश्न पर भी
विचार करना है। राज्यों को इसको लेकर भी आपत्तियाँ हैं और वे नहीं चाहते
कि इस प्रश्न पर वित्त आयोग कोई विचार करे।
3. जनांकिकीय आँकड़ों में बदलाव: सातवें वित्त आयोग के समय से
अबतक राजस्व-संसाधनों के वितरण के लिए 1971 की जनगणना को आधार बनाया जाता था,
लेकिन 15वें वित्त आयोग से यह अपेक्षा की गयी है कि वह इसकी जगह सन् 2011 की
जनगणना को संसाधनों के वितरण के लिए निर्धारित फार्मूला का आधार बनाये। इससे उन बारह राज्यों के लिए केन्द्रीय
राजस्व संसाधनों की उपलब्धता प्रभावित होगी जिन्होंने जनसंख्या-नियंत्रण की दिशा
में प्रभावी पहल की है क्योंकि बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों को अपेक्षाकृत अधिक
संसाधन उपलब्ध हो सकेंगे।
4. राजस्व घाटे के मद में केंद्र के द्वारा दिया जाने वाला अनुदान: राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजटीय
प्रबंधन अधिनियम,2003 के अनुसार राज्यों को 0% राजस्व-घाटे के लक्ष्य को प्राप्त
करना है। इसी को ध्यान में रखते हुए 15वें वित्त आयोग से
अपेक्षा की गयी है कि वह ऐसे अनुदानों की निरंतरता और इसके औचित्य के प्रश्न पर विचार
करे। इस बात की प्रबल सम्भावना है कि 15वाँ वित्त आयोग केन्द्रीय वित्त पर
प्रतिकूल प्रभावों के मद्देनज़र राजस्व घाटे के मद में केंद्र के द्वारा दिया जाने वाले
अनुदान को समाप्त करने का सुझाव दे।
इस प्रावधान को लेकर विपक्षी दलों के द्वारा शासित राज्यों को आशंका है कि
इस स्थिति में राजस्व घाटे के सन्दर्भ में मिलने वाला अनुदान बंद हो सकता है। यह संविधान के अनु. 275(1) एवं अनु. 280(3b) के
प्रावधानों के प्रतिकूल है क्योंकि इसका उद्देश्य उर्ध्वाधर असन्तुलन (Vertical
Imbalances) दूर करना है। जहाँ राज्य
कुल सार्वजानिक व्यय का 60% खर्च करते हैं, जबकि कुल राजस्व का महज 37% अपने स्तर
पर जुटा पाने की स्थिति में हैं।
ध्यातव्य है कि 14वें वित्त आयोग ने इस मद में आन्ध्र प्रदेश, असम,
जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, केरल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा
और पश्चिम बंगाल: देश के इन 11 राज्यों को कुल मिलाकर लगभग 1.95 लाख करोड़ का
अनुदान प्रदान किया।
5.
लोकलुभावन
मानकों पर होने वाले खर्च पर प्रभावी अंकुश लगाना: 15वें वित्त आयोग को यह जिम्मेवारी भी सौंपी गयी है कि
वह लोकलुभावन मानकों पर होने वाले खर्च पर प्रभावी अंकुश लगाने वाले राज्यों को
प्रोत्साहन देने के प्रश्न पर भी विचार करे। इसके लिए आयोग को ‘लोकलुभावन नीतियों’ (Populist
Policy) को परिभाषित करना होगा।
6.
निष्पादन-आधारित
प्रोत्साहनों की व्यवस्था: आयोग को राज्यों
के लिए कर-संजालों(Tax Net) के विस्तार, राजकोषीय
उत्तरदायित्व, स्थानीय संसाधनों को हस्तांतरण, जनांकिकी-प्रबंधन, अनुकूल
कारोबारी वातावरण को प्रोत्साहन और प्रत्यक्ष लाभ अन्तरण व्यवस्था(DBTS) से
सम्बंधित ऐसे निष्पादन-आधारित प्रोत्साहनों को भी प्रस्तावित करना है जिसकी गणना
संभव हो सके और जिसकी निगरानी की जा सके।
7.
राज्यों के द्वारा लिए
जाने वाले ऋणों पर प्रतिबन्ध आरोपित किया जाना: अनु. 293(3) के तहत् केंद्र
सरकार राज्य के द्वारा लिए जाने वाले ऋणों के प्रश्न पर अपनी सहमति देने के क्रम
में राज्यों पर जिन शर्तों को आरोपित कर सकती है, उस पर भी वित्त आयोग को
पुनर्विचार करना है। राज्यों को लगता है कि इससे अपनी मर्ज़ी से राज्यों की उधार
लेने और खर्च करने की क्षमता प्रभावित होगी। ध्यातव्य
है कि संवैधानिक उपबंधों के अनुसार अगर राज्यों के पास केंद्र का बकाया है, तो
बिना केंद्र की सहमति से उधारी नहीं जुटा सकते हैं।
आधार-वर्ष में बदलाव के पक्ष में तर्क:
सन् 1976 में
संविधान-संशोधन के जरिये 1971 की जनगणना से सम्बंधित आँकड़े को उन राज्यों को
प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए स्थिर किया गया था जिन्होंने जनसंख्या-नियंत्रण की
दिशा में प्रभावी पहल की थी। इसका उद्देश्य
जनसंख्या-नियंत्रण की दिशा में प्रभावी पहल की स्थिति में राज्यों के हितों के
संरक्षण को सुनिश्चित करना था। लेकिन, पिछले 48 वर्षों
के दौरान उसने विसंगति उत्पन्न की है। सन् 1971 में देश की जनसंख्या 55 करोड़ थी, जबकि सन् 2011 में यह 121
करोड़ के स्तर पर पहुँच गयी। इस दौरान दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से भी
कम के स्तर पर रहा, जबकि उत्तरी राज्यों में यह उच्च स्तर पर। जहाँ उत्तर भारत के
राज्यों पर जनसंख्या का दबाव कहीं अधिक है, वहीं विकास की प्रक्रिया में उत्तर
भारत के अधिकांश राज्य काफी पीछे हैं। इनमें भी
उत्तर प्रदेश और बिहार भारतीय जनसंख्या के एक-तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करता
है। स्पष्ट है कि इस दौरान
जनसंख्या में होने वाली 66 करोड़ की वृद्धि में दक्षिण भारतीय राज्यों की तुलना में
उत्तर भारतीय राज्यों की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण रही। निश्चय ही जनसंख्या-आधिक्य वाले इन राज्यों को
अपेक्षाकृत अधिक संसाधनों की ज़रूरत है, ताकि ये अपनी विशाल जनसंख्या के लिए
बुनियादी सेवाओं की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। साथ ही, संसाधनों के अभाव के कारण न केवल उत्तर भारतीय
राज्यों में सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है, वरन् इसके
कारण समग्र भारत का विकास भी प्रभावित हो रहा है। अतः आधार-वर्ष में परिवर्तन इस
असंतुलन को दूर करता हुआ इनके लिए अपेक्षाकृत अधिक संसाधनों की उपलब्धता को
सुनिश्चित करेगा।
आधार-वर्ष
में परिवर्तन को लेकर दक्षिणी राज्यों की आपत्ति:
इस
फ़ॉर्मूले के विरोध में अप्रैल,2018 में आयोजित दक्षिणी राज्यों के वित्तमंत्रियों
के सम्मलेन में जहाँ केरल, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश मुखर रहे, वहीं तमिलनाडु एवं
तेलंगाना ने इसमें शिरकत से परहेज़ किया। आगे चलकर मई,2018
में विजयवाड़ा में विपक्ष-शासित राज्यों के वित्त मंत्रियों का दूसरा सम्मलेन
आयोजित किया गया जिसमें दिल्ली, पंजाब,
पुदुचेर्री, केरल और पश्चिम बंगाल के वित्त-मंत्री शामिल हुए। राज्यों का कहना है कि 15वें वित्त आयोग का टर्म्स ऑफ़
रेफेरेंस संघ सरकार के पक्ष में है और यह वित्तीय संसाधनों के इस्तेमाल के सन्दर्भ
में राज्यों पर निर्बन्धन आरोपित करता है।
दक्षिणी राज्यों का
कहना है कि क्षेत्रीय विषमता दूर करते हुए विकास की दृष्टि से क्षेत्रीय संतुलन
कायम करने की ज़रुरत से इनकार नहीं किया जा सकता, पर प्रश्न यह उठता है कि विकास के
लिए प्रोत्साहन कहाँ है? इसीलिए आधार-वर्ष में बदलाव के पक्ष में जो तर्क दिए जा
रहे हैं, उनके औचित्य को नकारा तो नहीं जा सकता है; पर यह भी सच है कि किसी राज्य की उच्च जनसंख्या का मतलब यह है कि यह
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में प्रभावी प्रदर्शन के जरिये
जनसंख्या-वृद्धि पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगा पाने में असमर्थ है, इसीलिए ऐसे
राज्यों के पक्ष में अधिक राजस्व का हस्तांतरण का मतलब अविकास को पुरस्कृत करना
है। इसके कारण उन राज्यों के राजकोषीय हित प्रतिकूलतः
प्रभावित होंगे जिन्होंने जनांकिकी-प्रबंधन की दिशा में प्रभावी पहल करते हुए
जनसंख्या प्रतिस्थापन दर को हासिल किया है। इसीलिए इस दिशा में पहल का मतलब बेहतर
अभिशासन एवं बेहतर प्रदर्शन के लिए राज्यों को दण्डित किया जाना होगा, जो किसी भी
दृष्टि से उचित नहीं है।
अबतक वित्त
आयोग के द्वारा केन्द्रीय राजस्व के वितरण के लिए निर्धारित फॉर्मूले में सन् 1971
की जनगणना-रिपोर्ट को आधार बनाया जाता था, लेकिन 14वें वित्त आयोग ने इसमें थोड़ा परिवर्तन करते हुए इसे तार्किक बनाने की
कोशिश की। इसने 1971 की जनसंख्या के आँकड़ों का भारांश 25
प्रतिशत से घटा कर 17.5 प्रतिशत कर दिया और 2011
के जनगणना के आँकड़ों को 10 प्रतिशत भारांश
दिया था। ऐसी स्थिति में दक्षिणी राज्य जहाँ नुकसान की स्थिति में रहे, वहीं
उत्तरी राज्य फायदे की स्थिति में, क्योंकि 1971 की जनसंख्या
में दक्षिणी राज्यों का हिस्सा 24.7 प्रतिशत था जो 2011
में घट कर 20.7 प्रतिशत रह गया। पहले से ही करों से प्राप्त आय के बँटवारे में
उनकी हिस्सेदारी 6.338 प्रतिशत कम हो गई है, और इस नुकसान की
भरपाई का उनके पास कोई रास्ता नहीं है। यहाँ पर इस बात को
भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि 14वें वित्त आयोग ने राजकोषीय अनुशासन,
जिसका फायदा दक्षिण के विकसित राज्यों को मिलता था, को छोड़कर वन-क्षेत्र(Forest
Cover) को इस फ़ॉर्मूले के अंतर्गत स्थान दिया और
कहीं-न-कहीं इसका भी खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।
इतना ही नहीं, समस्या यह भी है कि केन्द्रीय राजस्व में अंशदान और हिस्सेदारी की दृष्टि से भी
असंतुलन विद्यमान है। दक्षिण भारत की 20% जनसंख्या केन्द्रीय राजस्व में 30% का योगदान
देती है और भारतीय जीडीपी के एक चौथाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है; लेकिन
केन्द्रीय राजस्व में उसकी हिस्सेदारी महज 18% के स्तर पर है, वह भी तब जब सन्
1971 (17.5% भारांश) के साथ-साथ सन् 2011 (10% भारांश) की जनगणना को भी कर-राजस्व
के वितरण का आधार बनाया गया है। ऐसी स्थिति में यदि सन् 2011 की जनगणना को राजस्व-वितरण का आधार बनाया जाता है, तो
उनकी राजस्व-हिस्सेदारी में और अधिक कमी आयेगी।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें दक्षिणी राज्यों, विशेष
रूप से गैर-भाजपा शासित राज्य-सरकारों के वित्त-मंत्रियों ने 15वें वित्त आयोग के गठन संबंधी नियम-शर्तों को लेकर चिंता जताई है। इससे दक्षिण भारत के उन राज्यों को केंद्र से प्राप्त होनेवाले
संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जहाँ राजकाज का बेहतर तरीके से संपादन हो रहा
है और जिनका प्रदर्शन बेहतर है। ऐसे राज्य पहले ही काफी नुकसान उठा चुके हैं और
अपने हिस्से का बड़ा राजस्व खो चुके हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इस
प्रावधान के जरिये उनकी कीमत पर उत्तर के राज्यों को लाभ पहुँचाने की कोशिश की जा
रही है और इस क्रम में उनके हितों की अनदेखी की जा रही है। इसके पीछे उन्हें
राजनीति लगाती है क्योंकि दक्षिण के राज्यों में कहीं भी भाजपा की सरकारें नहीं हैं,
जबकि उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में उसकी सरकारें हैं। इसीलिए विपक्षी दलों
वाली राज्य सरकारें वित्त आयोग की संदर्भ शर्तों को बदलने की जोरदार माँग कर रही
हैं और इसके लिए केंद्र सरकार पर हरसंभव दबाव बना रही है। इस प्रश्न को सुलझाना
केंद्र के लिए आसान नहीं होने जा रहा है।
केंद्र सरकार का रुख:
लेकिन, दक्षिणी राज्यों की आपत्तियों को खारिज करते नहुए
वित्त-मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया है कि 15वें वित्त आयोग के ‘टर्म्स
ऑफ रेफरेंस’ में नवीनतम जनसंख्या के आलोक में संसाधन-सम्बन्धी नवीन जरूरतों तथा
जनसंख्या-नियंत्रण की दिशा में प्रभावी पहल के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन को सुनिश्चित करने की कोशिश की गयी है। वित्त-मंत्रालय
के साथ-साथ प्रधानमंत्री कार्यालय ने ‘टर्म्स ऑफ रेफेरेंस’ के संदर्भ में वित्त
आयोग पर लग रहे तमाम आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहा कि वित्त आयोग के ‘टर्म्स ऑफ
रेफेरेंस’ में कोई गड़बड़ी नहीं है और न ही इसके जरिए किसी राज्य विशेष अथवा
क्षेत्र को केन्द्रीय राजस्व-आवंटन में कोई नुकसान होगा। प्रधानमंत्री के अनुसार, 15वें
वित्त आयोग से कहा गया है कि उन राज्यों को राजस्व में वरीयता दी जाए, जिन्होंने बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने में सफलता पाई है।
विवाद को उत्तरी बनाम् दक्षिणी राज्य का रूप देना उचित नहीं:
इस विवाद
को उत्तरी बनाम् दक्षिणी राज्य के विवाद का रूप देने के पहले दिसम्बर,2019 तक
प्रतीक्षा की जानी चाहिए, जब आयोग अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा। ऐसी स्थिति में ही राज्यों की ओर
संसाधनों के प्रवाह पर इसके वास्तविक असर का आकलन किया जा सकता है। साथ ही, जनसंख्या
के आधार-वर्ष में परिवर्तन से केवल दक्षिणी राज्य को संसाधनों का आवंटन ही नहीं
प्रभावित होगा, वरन् इसका असर
पश्चिम बंगाल, गोवा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों के लिए संसाधनों के
आवंटन पर भी पड़ेगा जिनकी जनसंख्या में 1971-2011 के दौरान कमी देखने को मिलती है।
दक्षिणी राज्यों का तर्क
उचित नहीं:
दक्षिणी
राज्यों की सरकारों का यह मानना उचित नहीं प्रतीत होता है कि जनसंख्या में कमी
उनकी नीतियों एवं कार्यक्रमों में परिवर्तन और उनके द्वारा की गयी पहलों का परिणाम
है। इसके लिए व्यक्तिगत स्तर पर किये गए प्रयास भी कहीं कम महत्वपूर्ण
नहीं हैं। इसीलिए दक्षिणी राज्यों की उपरोक्त आपत्तियों के मद्देनज़र इस विवाद पर पुनर्विचार की आवश्यकता
है। इस सन्दर्भ में दक्षिणी राज्यों का तर्क उचित
नहीं प्रतीत होता है क्योंकि:
1. जनसंख्या का पैमाना राजस्व-वितरण
का प्रमुख पैमाना नहीं: दक्षिणी
राज्यों की बातों से ऐसा लगता है कि जनसंख्या का पैमाना राज्यों के बीच
केंद्रीय राजस्व के वितरण का सर्वप्रमुख पैमाना है, जबकि ऐसा नहीं है। अगर ऐसा होता, तो महारष्ट्र उच्च जनसंख्या के बावजूद
राजस्व-हिस्सेदारी में हाशिये पर नहीं रहता।
जहाँ उत्तर प्रदेश 15.3% की जनसंख्या के साथ वितरित केन्द्रीय राजस्व का 18%
हिस्सा प्राप्त करता है, वहीं महाराष्ट्र 9.2% की जनसंख्या-हिस्सेदारी के साथ
केंद्र के द्वारा राज्यों के बीच वितरित कर-राजस्व का महज 5.5% प्राप्त करता है। वास्तविकता यह है कि आरम्भ में वित्त आयोग इसे अधिक
अहमियत देता था, पर समय के साथ इसकी अहमियत घटती चली गयी।
जहाँ पहले सात वित्त आयोगों ने अनुमोदित फॉर्मूले में
जनसंख्या के भारांश को (80-90)% के बीच बनाये रखा, लेकिन आठवें वित्त आयोग ने इसे
अचानक घटाकर 22.5% कर दिया और तब से अबतक यह (22-28)% के दायरे में ऊपर-नीचे होता
रहता है।
2. केन्द्रीय
राजस्व में राज्यों के अंशदान के सापेक्ष केन्द्रीय राजस्व में उनकी हिस्सेदारी: अगर केन्द्रीय
राजस्व में राज्यों के अंशदान के सापेक्ष केन्द्रीय राजस्व में उनकी हिस्सेदारी को
देखा जाय, तो गरीब राज्य जहाँ लाभ की स्थिति में हैं, वहीँ समृद्ध राज्य अलाभप्रद
स्थिति में। जहाँ बिहार एवं उत्तर प्रदेश को केन्द्रीय राजस्व में एक रूपये के अंशदान के
सापेक्ष क्रमशः को 4 रुपये 20 पैसे एवं 1 रुपये
79 पैसे प्राप्त होते हैं, वहीं महाराष्ट्र एवं
कर्नाटक को क्रमशः 15 पैसे एवं 47 पैसे। इसीलिए
आधार-वर्ष का अपडेशन अनिवार्यतः दक्षिणी राज्यों को अंतरित राजस्व में कमी की ओर
नहीं ले जाएगा, तबतक जबतक कि अन्य कारक प्रति-संतुलनकारी की भूमिका निभाते हैं।
3. जनसंख्या की तुलना में राजकोषीय
क्षमता-अन्तराल राजस्व-हिस्सेदारी को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक: अगर राज्यों की जनसंख्या में
हिस्सेदारी और राजस्व में हिस्सेदारी के बीच आनुपातिक सम्बन्ध का निर्वाह नहीं
दिखता है, तो इसका कारण है राजकोषीय क्षमता-अंतराल। जहाँ 2010-11 से
2012-13 तक महाराष्ट्र का प्रति व्यक्ति आय औसतन 10,309 रुपये है, वहीं उत्तर
प्रदेश का 3,381 रुपया। ध्यातव्य है कि (13-14)वें वित्त आयोगों ने राजकोषीय क्षमता(आय-दूरी)
अर्थात् उच्चतम प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य से उस राज्य के प्रति व्यक्ति
आय के अंतराल को अधिक महत्व दिया, जिसके कारण
उच्च राजकोषीय क्षमता अंतराल वाले राज्यों की राजस्व में अधिक हिस्सेदारी होती है। 14वें वित्त आयोग ने इसके भारांश को 47.5% से बढ़ाकर 50%
कर दिया। इसीलिए यह कहना कि जनसंख्या के आधार-वर्ष में परिवर्तन के कारण समृद्ध
राज्यों को फण्ड का आवंटन प्रभावित होता है, उचित नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य
में देखें, तो महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात और तमिलनाडु जैसे उच्च प्रति व्यक्ति
आय वाले राज्यों की वितरित केन्द्रीय राजस्व में हिस्सेदारी जनसंख्या में उनकी
हिस्सेदारी की तुलना में अपेक्षाकृत कम है, जबकि बिहार, झारखण्ड एवं उत्तर प्रदेश
जैसे निम्न प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों की वितरित केन्द्रीय राजस्व में
हिस्सेदारी जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक। इनमें भी महाराष्ट्र दक्षिणी राज्यों की तुलना में कहीं
अधिक प्रभावित है।
4. समृद्ध
दक्षिणी राज्यों को अपेक्षाकृत कम राजस्व का मिलना न्यायोचित है अथवा नहीं, यह एक ऐसा विषय है
जिस पर चर्चा होनी चाहिए, लेकिन इसके लिए उस फॉर्मूले
पर पुनर्विचार और उसके विश्लेषण की ज़रुरत है जिसके तहत् केन्द्रीय राजस्व का
राज्यों के बीच पुनर्वितरण किया जाता है। इसके लिए केवल जनसंख्या को
जिम्मेवार ठहराना उचित नहीं है।
5. जनसंख्या-नियंत्रण
हेतु राज्यों को प्रोत्साहन की अनदेखी नहीं: जनसंख्या-नियंत्रण
हेतु राज्यों को प्रोत्साहन देने के लिए आयोग को यह भी निर्देश दिया गया है कि
जनसंख्या प्रतिस्थापन दर को हासिल करने के लिए राज्यों के द्वारा किये जाने वाले
प्रयासों को भी संज्ञान में लिया जाय और यह सुनिश्चित किया जाय कि इसके कारण ऐसे
राज्य अलाभकारी स्थिति में न रहें। साथ ही,
उन राज्यों के लिए भी प्रोत्साहन सुनिश्चित किया जा सके जिन्होंने इस मोर्चे पर
बेहतर प्रदर्शन किया है। इसीलिए सरकार का कहना है कि उसने जनसंख्या के
अद्यतन आँकड़े और जनसंख्या-नियंत्रण के बीच संतुलन को सुनिश्चित करने की हरसंभव
कोशिश की है। स्पष्ट है कि वित्त
आयोग ने जनसंख्या प्रतिस्थापन-दर के मोर्चे पर होने वाली प्रगति को भी ध्यान में
रखा है, ताकि
6. प्रति-संतुलनकारी
तत्व मौजूद: इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि
अन्य कारक एक संतुलन को स्थापित करते हुए आते हैं। इस फ़ॉर्मूले में कई मानक
ऐसे हैं जिनके सन्दर्भ में दक्षिणी राज्य उत्तरी राज्यों की तुलना में अपेक्षाकृत
बेहतर स्थिति में हैं और ये मानक उच्च जनसंख्या के कारण उत्तर भारतीय राज्यों को
होनेवाले लाभ को प्रतिसंतुलित करने में सहायक हैं।
विश्लेषण:
दरअसल दक्षिण के राज्यों
की चिंताएँ जायज हैं, लेकिन उन्होंने इन चिंताओं के प्रदर्शन के लिए गलत मुद्दे को
चुना है। इसके लिए उन्हें जनसंख्या
के आधार-वर्ष में परिवर्तन के बजाय केन्द्रीय राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी और राजस्व-घाटे की भरपाई
हेतु दिए जाने वाले अनुदान के प्रश्न पर पुनर्विचार की सम्भावनाओं को मुद्दा बनाना चाहिए था जो संसाधनों के
इस्तेमाल के सन्दर्भ में राज्यों के लिए संसाधनों की उपलब्धता, उनकी वित्तीय एवं
नीतिगत स्वायत्तता एवं राजकोषीय संघवाद को प्रतिकूलतः प्रभावित करने में सक्षम है
और इसीलिए भारतीय संविधान की संघीय भावनाओं के प्रतिकूल है। साथ ही, इस मसले को
दक्षिणी राज्यों ने उत्तरी राज्य बनाम् दक्षिणी राज्य और उत्तरी भारत बनाम् दक्षिणी
भारत के विवाद में तब्दील करने का प्रयास किया, जबकि इस मसले को केंद्र बनाम्
राज्य के मसले के रूप में देखा जाना चाहिए था और इस मसले पर सभी राज्यों को एक
प्लेटफ़ॉर्म पर इकठ्ठा होना चाहिए था। इसके टर्म्स ऑफ़
रेफ़रेंस में कई ऐसे प्रावधान हैं जो संघीय भावनाओं के प्रतिकूल हैं और जिनको लेकर
राज्यों को आपत्ति होनी चाहिए, पर चूँकि अधिकांश राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़
दल या उसके सहयोगी की सरकारें हैं, इसीलिए उन्होंने इस मसले पर चुप्पी साध रखी है।
इन्हें निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. केन्द्रीय
राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी में कमी की संभावना: राज्यों को
अपना ध्यान उन पहलुओं पर केन्द्रित करना चाहिए जो नए भारत के निर्माण हेतु और इसके
नाम पर लोकलुभावन योजनाओं एवं कार्यक्रमों के लिए कुल राजस्व में केन्द्रीय
हिस्सेदारी को 58% के वर्तमान
स्तर से बढ़ाये जाने की बात करता है।
अगर केंद्र सरकार हेतु फिस्कल स्पेस के सृजन के लिए
केन्द्रीय राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी में कमी की जाती है और राज्यों को
राजस्व का हस्तांतरण प्रभावित होता है, तो संसाधनों के इस्तेमाल के सन्दर्भ में
राज्यों की स्वायत्ता प्रभावित होगी और उन्हें अपना फोकस केन्द्रीय योजनाओं के
क्रियान्वयन पर शिफ्ट करना होगा।
2. नियंत्रणकारी की भूमिका में
प्रोत्साहन: निष्पादन-आधारित प्रोत्साहन
की व्यवस्था राज्यों पर केंद्र के नियंत्रण को मज़बूत करेगी, इससे नीतिगत निर्णय
प्रभावित हो सकते हैं और इसीलिए इससे राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता प्रभावित होगी। यह प्रावधान समस्याजनक है क्योंकि यह राज्यों
के स्वतंत्र-निर्णयन को प्रभावित करेगा, यह अपने ही राजकोषीय मानकों (Fiscal
Prudence) के सन्दर्भ में संघ सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराता है और केंद्र एवं
राज्य के संयुक्त उत्तरदायित्व को कमजोर करता है। अगर कॉमन संसाधनों को प्रोत्साहन
के आधार पर शेयर किया जाएगा, तो फिर राजकोषीय समानता के सिद्धांतों को व्यावहारिक
रूप कैसे दिया जाएगा?
3. केंद्र अपने खर्चों को संघ सूची से
सम्बद्ध विषयों तक सीमित करे: जहाँ तक केंद्र सरकार के लिए फिस्कल स्पेस का प्रश्न है, तो 14वें वित्त आयोग का
विश्लेषण यह बतलाता है कि 2002-05 के दौरान राज्य सूची के विषयों पर केंद्र सरकार
का खर्च 14% के स्तर पर था जो 2005-11 के दौरान 20% के स्तर पर पहुँच गया और
समवर्ती सूची के विषयों के सन्दर्भ में 13% से 17% के स्तर पर। अगर केंद्र सरकार के लिए अपनी आय से इन खर्चों का वित्तीयन
मुश्किल है, तो उसके द्वारा संघ सूची से इतर विषयों में खर्च करने में परहेज़ किया
जा सकता है।
यह मानने का कोई आधार नहीं है कि राज्य सरकारें
राजकोषीय रूप से उत्तरदायी नहीं हैं। इसके विपरीत हालिया रुझान इस ओर इशारा करते
हैं कि राजकोषीय रूप से राज्य सरकारों का रवैया केन्द्र सरकार की तुलना में कहीं
अधिक रूढ़िवादी रहा है। शायद इसीलिए केंद्र सरकार की तुलना में राज्य सरकारों के
सार्वजानिक ऋण का स्तर निम्न है। इतना ही नहीं, राज्यों
ने वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता में होने वाली इस वृद्धि का फायदा उठाया और इसका
इस्तेमाल शहरी एवं ग्रामीण विकास, स्वच्छता एवं आवास सहित सामाजिक सेवा-मदों पर
कहीं अधिक किया है। लेकिन, विडंबना यह भी है कि इस क्रम में जहाँ स्वास्थ्य
एवं परिवार-कल्याण मदों में मामूली वृद्धि हुई है, वहीं शिक्षा-मदों में खर्च में
कमी का रुझान देखने को मिला है। सन् 2017 में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक फाइनेंस
एंड पॉलिसी(NIPFP) के द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार
हाल के वर्षों में राज्य सरकारों के द्वारा पूँजीगत मदों पर खर्च बढ़ाया है और विशेष
रूप से हाउसिंग एवं स्वच्छता जैसी सामाजिक सेवा-मदों की फंडिंग में वृद्धि हुई है।
सामाजिक क्षेत्रकों पर खर्च में वृद्धि की इस प्रक्रिया को विकास की प्रक्रिया में पिछड़े हुए
राज्यों के द्वारा नेतृत्व प्रदान किया जा रहा है जो इस बात की ओर इशारा करता है
कि संसाधनों की उपलब्धता बढ़ते ही इन राज्यों ने अभाव एवं गरीबी की चुनौती से
मुकाबले की दिशा में प्रभावी पहल की; यद्यपि अधिक उच्च जनसंख्या के दबाव एवं उच्च
जनसंख्या-वृद्धि दर के कारण शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी सामाजिक अवसंरचनाओं पर
प्रति व्यक्ति खर्च की दृष्टि से गरीब राज्य अब भी काफी पीछे हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए बिना शर्त संसाधनों की उपलब्धता का
प्रभावित होना सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने वाला साबित हो
सकता है। इसलिए इस बात के साक्ष्य उपलब्ध नहीं
हैं जिनके आधार पर यह साबित किया जा सके कि वित्तीय संसाधनों के प्रबंधन में
केंद्र की तुलना में राज्यों का रवैया कहीं कम उत्तरदायी है। इतना ही नहीं, एक बार फिर से क्षेत्रवाद के राजनीतिक उभार की
सम्भावना के मद्देनज़र ऐसा कोई भी कदम केंद्र एवं राज्य के बीच टकराव को उत्प्रेरित
करेगा।
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में 15वें वित्त आयोग के टर्म्स ऑफ़ रेफ़रेंस पर
विचार किया जाय, तो दो बातें कही जा सकती हैं:
1. इस विवाद का स्वरुप
राजनीतिक कहीं अधिक है, जैसा कि इसे दक्षिण के विपक्ष-शासित राज्यों के द्वारा
नेतृत्व प्रदान किया जा रहा है।
2. आयोग के लिए यह सुनिश्चित करना कहीं अधिक
महत्वपूर्ण है कि उनके लिए संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके जिन्हें इसकी
सबसे ज्यादा ज़रुरत है और वे इससे वंचित न रह सकें।
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