Sunday, 14 August 2016

"कैसी आज़ादी"

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ये कैसी आज़ादी मना रहे हो तुम?
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ये कैसी आज़ादी मना रहे हो तुम?
कब आज़ाद हुए तुम? 
क्या कहा तुमने?
१५ अगस्त १९४७ को।
हा! हा! हा! हा!
देखो,वो क्या कह रहा है?
कम्युनिस्टों ने कहा:
'आज़ादी अधूरी है।'
संघियों ने कहा:
अरे उस दिन तो तुमने नए सिरे से ग़ुलामी का पट्टा लिखा,
नेहरू-गाँधी ख़ानदान के नाम।
हा! हा! हा! हा!
अच्छा, तुम ही बतलाओ:
कब आज़ाद हुए तुम?
क्या कहा?
१९७७ में!
हा! हा! हा! हा!
देखो, वो क्या कह रहा है?
सम्पूर्ण क्रांति वालों ने कहा:
'दूसरी आज़ादी '!
कैसी आज़ादी ? 
शराब भी वही और बोतल भी वही,
बदला तो सिर्फ़ लेबल,
वो भी चंद महीनों के लिए!
फिर, बोतल भी वही,
शराब भी वही, 
और लेबल भी वही!
ग़ैर-काँग्रेसवादियों!
तुम्हारी क्या राय है,
कब आज़ाद हुए तुम?
क्या कहा?
१९८९ में।
किससे? 
काँग्रेसवाद से।
अच्छा, देखो वो क्या कह रहा है,
किसकी चँगुल में फँसे तुम?
भाजपावाद के चँगुल में।
अब बतलाओ?
(नेपथ्य से आवाज़:
'हमें चाहिए आज़ादी!')
अरे, कैसी और किससे?
जनरल बख़्शी को दो साल पहले आज़ादी मिली,
और उनके साथ-साथ उत्तर आधुनिक राष्ट्रवादियों को भी।
तो फिर, ये आवाज़ किसकी? 
भाजपा और संघ को चाहिए
आज़ादी, कांग्रेस से;
ताकि साकार हो सके स्वप्न 
'काँग्रेस-मुक्त भारत' का।
काँग्रेसियों और वामपंथियों को चाहिए
आज़ादी, संघ और उसकी विभाजनकारी मानसिकता से!
इरोम को चाहिए आज़ादी
अफस्पा से;
भारतीयों को चाहिए आज़ादी 
भूख से,
ग़रीबी से,
बेरोज़गारी से,
भ्रष्टाचार से,
जातिवाद से,
सम्प्रदायवाद से,
भ्रष्ट एवं अपराधी राजनीतिज्ञों से, 
छद्म राष्ट्रवाद से।
हमें चाहिए आज़ादी 
उस छद्म राष्ट्रवाद से,
जो 'भारतमाता की जय' में,
'वंदे मातरम्' के उद्घोष में 
देशभक्ति के प्रमाण ढूँढता है,
जो तिरंगे के आकार के आधार पर 
देशभक्ति की तीव्रता का आकलन करता है,
जो चीन और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाकर 
आत्ममुग्ध होती है, जो कश्मीर को तो बचाने की बात करती है,
पर बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलगाना चाहती है
और, जो अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और दलितों के लिए 
दोयम दर्जे की नागरिकता की प्रस्तावना करती है!
हाँ, हम आज़ाद हैं;
हाँ, आप आज़ाद हैं;
आज़ादी हमको, आपको, सबको बहुत-बहुत मुबारक हो!
पर, आज़ादी अभी अधूरी है;
आज़ादी तबतकअधूरी है
जबतक  हम इसके मायने नहीं समझ जाते,
जबतक हम दूसरों की आज़ादी का सम्मान करना नहीं सीखते,
जबतक दलितों को पेशाब पिलाया जाता है,
जबतक गाय की जान आदमी की जान से अधिक महत्वपूर्ण रहती, 
जबतक आदिवासी समाज हासिए पर की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त हैं,
जबतक हमारी माँ-बहने क्या पहनें,
हमारे भाई क्या खाएँ,
इसका निर्धारण कोई व्यक्ति, व्यक्ति-समूह और संगठन करते रहेंगे।

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