सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं आरएसएस और आईएसआईएस की तुलना के पक्ष में नहीं हूँ। साथ ही, मेरा यह मानना है कि इतिहासकार इरफ़ान हबीब को ऐसे सरलीकरण से परहेज़ करना चाहिए था। ऐसे सरलीकरण कहीं-न-कहीं संघ और भाजपा को ख़ुद को जस्टिफाइ करने का मौक़ा देते हैं। पर, अब प्रश्न उठता है कि इरफ़ान हबीब ने क्या कहा? ऐसा कहना कहाँ तक उचित है?
इरफ़ान हबीब की टिप्पणी:
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"अगर मुसलमानों को देखने/समझने के उनके तरीक़े पर विचार किया जाय , तो अक़्ल के लिहाज़ से इस्लामिक स्टेट्स और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बहुत अंतर नहीं है"
इरफ़ान हबीब की इस टिप्पणी के सावधानीपूर्वक विश्लेषण की ज़रूरत है। साथ ही, इसे संदर्भ से अलगाकर नहीं देखा जाय। उनकी टिप्पणी के हर शब्द महत्वपूर्ण हैं:
१.यहाँ संघ और आईएसआईएस की तुलना तो की जा रही है, पर सीमित संदर्भों में।
२. यह तुलना मुसलमानों के प्रति दोनों के नज़रिए के विशेष संदर्भ में की जा रही है।
३. यहाँ बतलाया जा रहा है कि दोनों अगर एक-दूसरे के क़रीब पहुँचते हैं, तो अक़्ल के संदर्भ में।
४.इस संदर्भ में दोनों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। इसस़़े इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि टिप्पणीकार दोनों के बीच के अंतर को समझ रहा है, पर उसका यह मानना है कि यह अंतर बहुत अधिक नहीं है।
क्या इरफ़ान हबीब ग़लत हैं?
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अगर संघ परिवार और आईएसआईएस की बारीकी से तुलना की जाए, तो ऊपरी स्तर पर इनमें चाहे जितनी भिन्नता हो, पर दोनों के मूल चरित्र में बहुत फ़र्क़ नहीं है। अगर मैं आस कह रहा हूँ, तो इसके पीछे पर्याप्त तर्क है:
१. दोनों ही संस्थाओं की सोच तार्किकता और बौद्धिकता का निषेध करती है तथा दोनों का ज़ोर आस्था और भावुकता पर है।
२.दोनों बहुलतावादी संस्कृति के विरूद्ध हैं और दोनों धर्म पर आधारित ऐसे राज्य के सृजन के पक्ष में हैं जिसमें धर्म आधारित क़ानून सर्वोच्च होगा।
३.हिंसा दोनों संगठनों के मूल चरित्र में है। आईएसआईएस हिंसा की चरम् िस्थति पर पहुँच चुकी है, जबकि संघ परिवार अभी हिंसा की आरंभिक अवस्था में जहाँ शस्त्र-पूजा की संस्कृति है। संघ की यह संस्कृति मालेगाँव ब्लास्ट के साथ अगले चरण में प्रवेश कर चुकी है। साथ ही, जिस तरह से संघ से जुड़े भाजपा के नेता बयानबाज़ी कर रहे हैं, वह इसकी पुष्टि के लिए काफ़ी है।
अब सीधे आपके प्रश्न पर आता हूँ:
१. क्या यह सच नहीं है कि असहिष्णुता दोनों संगठनों के मूल में है? संघ असहिष्णुता के आरंभिक छोर पर है, तो आईएसआईएस अंतिम छोर पर।
२. क्या यह सच नहीं है कि मालेगांव के बाद संघ का चरमपंथ भी हिंसा के रास्ते पर चल पड़ा है?
३. क्या यह सच नहीं कि जिस तरह आईएसआईएस पान इस्लामिज्म की संकल्पना को लेकर चल रहा है और उसके पान-इस्लामिज्म के केंद्र में सुन्नी मौजूद हैं, ठीक उसी प्रकार संघ परिवार जिस हिंदु राष्ट्र की संकल्पना से प्रेरित है , उसके केन्द्र में सवर्णों, विशेषकर ब्राह्मणों का वर्चस्व होगा । पिछड़ी जाति, दलितों, महिलाओं और अन्य धर्मावलंबियों की िस्थति वहाँ दोयम् दर्जे के नागरिक की होगी।
४.क्या यह सच नहीं है कि मोदी जी बहुमत की सरकार बनने के बाद इसका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है? इन्हें लग रहा कि बहुमत का मतलब है कुछ भी करने की आज़ादी का मिल जाना।।
इसलिए यह चिंता केवल इरफ़ान हबीब जी की नहीं है, यह चिंता बौद्धिक समूह और सभ्य समाज की है कि क्या आरएसएस को आईएसआईएस बनने की छूट दी जाए? क्या डाॅ. गोबुल्स के इन अनुयायियों को झूठ की बुनियाद पर नफरत की राजनीति करने की छूट दी जाए? हाँ, हम असहिष्णुता के विरोध में औरसहिष्णुता के पक्ष में हैं; लेकिन "असहिष्णुता के प्रति सहिष्णुता" के पक्ष में नहीं। इन लोगों ने बुद्धिजीवियों की चिंताओं के प्रति सहानुभूति और समाधान का प्रदर्शन करते हुए उन चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करने की बजाय इस पूरे-के-पूरे मसले का राजनीतिकरण करके गंध फैला रखा है।
आप उस इरफ़ान हबीब को हल्के में ले रहे हैं जिनके बिना मध्यकालीन भारतीय इतिहास की वहाँ पर परिकल्पना नहीं की जा सकती है जहाँ वह आज है, जिसने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में रहते हुए हर प्रकार के कट्टरपंथ के विरूद्ध संघर्ष किया,जिसे वहाँ पसंद नहीं किया जाता रहा और जिस पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के द्वारा कई बार शारीरिक हमले भी किए गए।
कैसी सहिष्णुता है यह?
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ये किस प्रकार की सहिष्णुता है कि असहमति-प्रदर्शन के लिए के. सुदर्शन राव के नेतृत्व वाले भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने सलाहकार पैनल को भंग कर दिया जिसमें इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर शामिल थी।
क्या यह सच नहीं है कि आज जो भी लोग इनसे असहमत हैं,उनके विरुद्ध संघ,भाजपा,केंद्र सरकार, मोदी जी और भाजपा नेताओं के साथ-साथ उनके समर्थकों ने इनके विरूद्ध चरित्र हनन अभियान चला रखा है। रोमिला थापर ने आपात काल का विरोध किया, १९८४ के सिख-विरोधी दंगे के विरूद्ध सड़कों पर उतरीं, नंदीग्राम में सीपीएम का खुलकर विरोध किया और दो-दो बार यूपीए सरकार द्वारा दिए जाने वाले पद्म सम्मान ठुकराया; फिर भी ये पूछते हैं तब क्यों नहीं किया, उस समय तो ऐसी इंटेंसिटी नहीं थी? कृष्णा सोबती ने २०१० में पद्म सम्मान लेने से इन्कार कर दिया, पर ये इन्हें कांग्रेसी/वामपंथी नज़र आते हैं और उनके इशारे पर काम करते दिखाई पड़ते हैं।
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