Friday, 2 October 2015

विचित्र दुविधा

विचित्र दुविधा
आज किसे याद करूँ :
"दादरी" तुम्हें या बापू को?
बापू, जो दूसरे नाम हैं
भारतीय संस्कृति की समन्वय और सहिष्णुता के,
हैं उसके आधुनिक संस्करण के मूर्तिमान रूप,
या फिर "दादरी" तुम्हें
जिसने पहले बापू की हत्या की
और अब आमदा हो
उन मूल्यों एवं आदर्शों की हत्या पे,
जिसे बाद में गाँधीवाद कहा गया,
जिसे गाँधी ने भारतीय संस्कृति से ग्रहण किया,
किया जिसे परिष्कृत और परिमार्जित ?
नहीं, "दादरी"
पहले तुम,
तुम इसीलिए कि
गाँधी तो मर चुके हैं,
तुमने तो उन्हें एक बार मारा था,
पर पिछले सड़सठ वर्षों से
हम सब मिलकर रोज़ मार रहे हैं उसे,
विवश कर रहे हैं उसे
घुट-घुटकर मरने के लिए,
तुमने तो हमारे काम को आसान कर दिया था।
पर, अब नहीं,
अब अहसास हो गया है
कि तुम मुझे मारना चाहते हो।
पर, "दादरी"
कैसे याद करूँ तुम्हें?
तुम तो प्रतीक हो विभाजनकारी मानसिकता के,
उस असहिष्णुता की संस्कृति के,
जो पैर पसार रही है पूरी दुनिया में
वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में,
जो ख़ाक करने की सोच रखती है
हमें और हमारी संस्कृति को,
जो लीलने को तत्पर है
गंगा-जमुनी तहज़ीब को।
अब तुम्हीं बतलाओ "दादरी"
कैसे याद करूँ तुम्हें?
तुम तो मानस संतान हो
"हिटलर" की,
ऐसी सन्तान
जो उसके पहले से विद्यमान है,
जो कभी क्रूसेड के रूप में प्रकट होती है,
तो कभी लादेन और आईएसआईएस रूप में,
कभी तुम गोधरा के रूप में प्रकट होती हो,
तो कभी सिख विरोधी दंगे के रूप में।
अरी "दादरी"
तुमने कलंकित किया है हमें
हमारी संस्कृति को,
और सबसे बढ़कर भारतीयता को।
तुमने तो
कलंकित किया है
बापू के देश को,
बापू के वेश को
और बापू की सोच को।
तुमने कलंकित किया है उस कबीर को,
जिन्होंने कहा था:
"माँस-माँस तो एक है
जस बकरी, तस गाय।"
तुम्हारी संस्कृति "भारतीय" नहीं हो सकती,
संभव नहीं इसका भारतीय होना,
तुम भला गाय और बकरी के अभेदत्व को क्या जानो?
तुम्हें तो बक़रीद पर बकरी के मारे जाने से कोफ़्त है,
दशहरे की बलि तुम्हें कहाँ याद रहती?
घर में बैठ कर मटन- चिकन खाने से तुझे परहेज़ न हो, पर
फ़ेसबुक पर अहिंसावाद के प्रति
तुम्हारी प्रतिबद्धता के आगे
गाँधी भी शर्मिंदा होते हैं।
नहीं,अब और नहीं
हमें आगे आना ही होगा,
नफरत को भुलाना ही होगा,
देश को बचाना ही होगा।

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