"अख़लाक़ मर नहीं सकता"
""दादरी में एक मुसलमान को बीफ खाने के आरोप में मारते-मारते मार डाला गया एक भीड़ के द्वारा नहीं, "जुलूस" के द्वारा। यह तो होना ही चाहिए था। बहुत पहले होना चाहिए था। झारखंड में भी हमने कोशिश की थी, पर झारखंडियों के साथ-साथ बिहारियों ने धोखा दे दिया। इन ससुरे मुसलमानों के साथ तो यही होना चाहिए। १९४७ में पाकिस्तान लेने के बाद भी भारत में डटे रहे, हम जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों ने उन्हें तुष्ट करना चाहा और आज आलम यह है कि वे भारत को पाकिस्तान बनाने पर आमदा हैं। देखो, अंतिम बार कह रहा हूँ:अगर भारत में रहना है, तो हमारी शर्तों को स्वीकार करना होगा। दोयम् दर्जे की नागरिकता स्वीकार करनी होगी। तुम क्या खाओगे और क्या नहीं खाओगे, इसे मैं निर्धारित करूँगा।""
"क्यों रवीश, इतनी हायतौबा क्यों? कहाँ थे उस समय तुम, जब कश्मीरी पंडितों के साथ ज़्यादती हुई? क्यों नहीं खड़े होते तुम, जब इस्लामी आतंकी बेवजह जान लेते हैं मासूमों की?"
यह तस्वीर है उसी भारत की, जिसका सपना कभी गाँधी और नेहरू ने देखा था और जिसका सपना देख-देख हम और आप बड़े हुए। गोडसे ने तो गाँधी को एक बार मारा था, फिर भी गाँधीवाद जीवित रहा क्योंकि हमें गाँधी नहीं, गाँधीवाद नहीं , भारतीय संस्कृति से प्यार था; पर समय के साथ हमने गाँधी को भुलाया, गाँधीवाद को भुलाया और अब हम आमदा हैं भारतीय संस्कृति को भुलाने पर। लेकिन, ध्यान रखना, इसे बदल पाना , इसकी मनमानी व्याख्या, इसे भुलाना तुम्हारे वश में नहीं।
एक व्यक्ति था अख़लाक़, पर अब वह प्रतीक में तब्दील हो चुका है तुम्हारे वहशीपन का, तुम्हारी दरिंदगी का और तुम्हारे डर का। हाँ, तुम्हें अटपटा लग रहा होगा, पर यह सच है कि वह प्रतीक है तुम्हारे डर का। वह प्रतीक है असहिष्णुता का और इस बात का कि वह भारतीय संस्कृति ख़तरे में है जिसके केन्द्र में है वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कार, सहिष्णुता और समन्वय जिसका प्राण तत्व है। तुमने अख़लाक़ को नहीं मारा, तुमने मारने की कोशिश की भारतीय संस्कृति के मूल्य को । तुमने नकारने की कोशिश की है उस बुनियाद को, जिस पर तुम खड़े होने की कोशिश कर रहे हो। ध्यान रखना कि फ़ेसबुक पर न तो इतिहास लिखे जा सकते हैं और न ही इतिहास को मिटाया जा सकता है। अरे लिखने और मिटाने की बात छोड़ दो, इतिहास समझा भी नहीं जा सकता। और, तुम तो निरे अनाड़ी ठहरे जो फ़ेसबुक पर इतिहास समझते भी हैं, लिखते भी है और मिटाते भी हैं।अरे, तुम भगत सिंह की बात करते हो, पटेल की बात करते हो, सुभाष की बात करते हो; पर ये सब तुम्हारे लिए मोहरे हैं जिनका तुम अपने तरीक़े से इस्तेमाल करना चाहते हो। न इन्हें तुम समझते हो और न ही समझना चाहते हो।बस इतना कहूँगा और इसके ज़रिए खुली चुनौती दूँगा:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजुएँ क़ातिल में है।
No comments:
Post a Comment