Friday, 26 September 2025

मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। : हजारीप्रसाद द्विवेदी

 मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी)


मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गतिहीनता औरपरमुखापेक्षिता से बचा  सकेजो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त  बना सकेजो उसके हृदय को परदु:कातर और संवेदनशील  बना सकेउसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। मैं अनुभव करता हूँ कि हमलोग एक कठिन समय के भीतर से गुज़र रहे हैं। आज नाना भाँति के संकीर्ण स्वार्थों ने मनुष्य को कुछ ऐसाअंधा बना दिया है कि जाति-धर्म-निर्विशेष मनुष्य के हित की बात सोचना असंभव सा हो गया है। ऐसा लगरहा है कि किसी विकट दुर्भाग्य के इंगित पर दलगत स्वार्थ से प्रेम ने मनुष्यता को दबोच लिया है। दुनियाछोटे-छोटे संकीर्ण स्वार्थों के आधार पर अनेक दलों में विभक्त हो गई है। अपने दल के बाहर का आदमीसंदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उसके रोने-गाने तक पर असदुद्देश्य का आरोप किया जाता है। उसके तपऔर सत्य-निष्ठा का मज़ाक उड़ाया जाता है। उसके प्रत्येक त्याग और बलिदान के कार्य में भी ‘चाल’ कासंधान पाया जाता है और अपने-अपने दलों में ऐसा करने वाला सफल नेता भी मान लिया जाता हैपरंतु मेराविश्वास है कि ऐसा करने वाला आदमी सबसे पहले अपना ही अहित करता है। बड़े-बड़े राष्ट्रनायक जबअपनी विराट अनुचरवाहिनी के साथ इस प्रकार का गंदा प्रचार करते हैंतो ऊपर-ऊपर से चाहे जितनी भीसफलता उनके पक्ष में आती हुई क्यों  दिखाई देइतिहास विधाता का निष्ठुर नियम-प्रवाह भीतर-ही-भीतरउनके स्वार्थों का उन्मूलन करता रहता है। इतिहास शक्तिशाली व्यक्तियों और राष्ट्रों की चिताभूमि कोकुचलता हुआ आगे बढ़ रहा हैफिर भी गंदे तरीक़े सुधारे नहीं गए हैंबल्कि उनको और भी कौशलपूर्ण औरप्रभावशाली बनाया जाता रहा है। जो लोग दृष्टा हैंवे इस ग़लती को समझते हैंपर उनकी बात मदमत्तव्यक्तियों की ऊँची गद्दियों तक नहीं पहुँच पाती। संसार में अच्छी बात कहने वालों की कमी नहीं हैपरंतुमनुष्य के सामाजिक संगठन में ही कहीं कुछ ऐसा बड़ा दोष हैजो मनुष्य को अच्छी बात सुनने और समझनेसे रोक रहा है। आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाएबल्कि यह है किअच्छी बात को सुनने और मानने के लिए मनुष्य को तैयार कैसे किया जाए?

इसीलिए साहित्यकार आज केवल कल्पनाविलासी बनकर नहीं रह सकता। शताब्दियों का दीर्घ अनुभव यहबताता है कि उत्तम साहित्य की सृष्टि करना ही सबसे बड़ी बात नहीं है। संपूर्ण समाज को इस प्रकार सचेतनबना देना परमावश्यक हैजो उस उत्तम रचना को अपने जीवन में उतार सके। साहित्यिक सभाएँ यह कार्य करसकती हैं। संपूर्ण जनसमाज को उत्तम साहित्य सुनाने का माध्यम बना सकती हैं। इस विशाल देश में शिक्षाकी मात्रा बहुत ही कम है। जिन देशों में शिक्षा की समस्या हल हो चुकी हैउनके साहित्यिकों की अपेक्षा यहाँके साहित्यिकों की ज़िम्मेदारी कहीं अधिक है। फिर हमने जिस भाषा के साहित्य-भंडार को भरने का व्रतलिया हैउसका महत्त्व और भी अधिक है। वह भारतवर्ष के केंद्रीय प्रदेशों की भाषा हैकई करोड़ आदमियोंकी ज्ञानपिपासा उसे शांत करनी है। इसलिए उसे संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का वाहन बनाना है।


हम लोग जब हिंदी की ‘सेवा’ करने की बात सोचते हैंतो प्रायः भूल जाते हैं कि यह लाक्षणिक प्रयोग है।हिंदी की सेवा का अर्थ है उस मानव-समाज की सेवाजिसके विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम हिंदी है।मनुष्य ही बड़ी चीज़ हैभाषा उसी की सेवा के लिए है। साहित्य सृष्टि का भी यही अर्थ है। जो साहित्य अपनेआपके लिए लिखा जाता हैउसकी क्या क़ीमत हैमैं नहीं कह सकतापरंतु जो साहित्य मनुष्य-समाज कोरोग-शोकदारिद्रय-अज्ञान तथा परमुखापेक्षिता से बचाकर उसमें आत्मबल का संचार करता हैवह निश्चयही अक्षय निधि है। उसी महत्त्वपूर्ण साहित्य को हम अपनी भाषा में ले आना चाहते हैं। मैं मनुष्य की इसअतुलनीय शक्ति पर विश्वास करता हूँ कि हम अपनी भाषा और साहित्य के द्वारा इस विषम परिस्थिति कोबदल सकेंगे।

परंतु हमें सावधानी से सोचना होगा कि हिंदी बोलने वाला जनसमुदाय क्या वस्तु है और वास्तव में वहपरिस्थिति क्या हैजिसे हम बदलना चाहते हैं। काल्पनिक प्रेत को घूँसा मारना बुद्धिमानी का काम नहीं है।नगरों और गाँवों में फैला हुआसैकड़ों जातियों और संप्रदायों में विभक्तअशिक्षादारिद्रय और रोग सेपीड़ित मानव-समाज आपके सामने उपस्थित है। भाषा और साहित्य की समस्या वस्तुतः उन्हीं की समस्याहै। क्यों ये इतने दीन-दलित हैंशताब्दियों की सामाजिकमानसिक और आध्यात्मिक ग़ुलामी के भार सेदबे हुए ये मनुष्य ही भाषा के प्रश्न हैं और संस्कृति तथा साहित्य की कसौटी हैं। जब कभी आप किसी विकटप्रश्न के समाधान का प्रयत्न कर रहे हों तो इन्हें सीधे देखें। अमेरिका में या जापान में ये समस्याएँ कैसे हलहुई हैंयह कम सोचेंकिंतु असल में ये हैं क्या और किस या किन कारणों से ये ऐसे हो गए हैंइसी कोअधिक सोचें। बड़े-बड़े विचारकों ने इस देश के जनसमुदाय के अध्ययन का प्रयत्न किया हैअब भी कर रहेहैंपर ये अध्ययन या तो इन्हें अच्छी प्रजा बनाने के उद्देश्य से किए गए हैं या वैज्ञानिक कुतूहल-निवारण केउद्देश्य से। इनको इस दृष्टि से देखना अभी बाक़ी है कि वे मनुष्य कैसे बनाए जाएँ। हमारी भाषाहमारासाहित्यहमारी राजनीतिसब कुछ का उद्देश्य यही हो सकता है कि इनको दुर्गतियों से बचाकर किस प्रकारमनुष्यता के आसन पर बैठाया जाए।


हमारा यह देश जातिभेद का देश है। करोड़ों मनुष्य अकारण अपमान के शिकार हैं। निरंतर दुर्व्यवहार पातेरहने के कारण उनके अपने मन में हीनता की गाँठ पड़ गई है। यह गाँठ जब तक नहीं निकल जाती तब एकभारतवर्ष की आत्मा सुखी नहीं रह सकती। कर्म का फल मिलता ही है। इससे बचने का उपाय नहीं है। जिनलोगों को अकारण अपमान के बंधन में डालकर हमने अपमानित किया हैवे लोग सारे संसार में हमारेअपमान के कारण बने हैं।

हमें सावधानी से उनकी वर्तमान अवस्था का कारण खोजना होगा। ये अनादिकाल से हीन नहीं समझे जातेरहे हैं। नाना प्रकार की ऐतिहासिकसामाजिकराजनीतिक और आर्थिक कारण परंपरा के भीतर से गुज़रकर भारतवर्ष की सैकड़ों जातियों वाला समाज तैयार हुआ है। इस शतच्छिद्र कलश में आध्यात्मिक रस टिकनहीं सकता। आजकल हम लोग को हिंदू-मुसलमानों की मिलन-समस्या से बुरी तरह चिंतित हैं। निःसंदेहयह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस महान प्रश्न ने हमारे समस्त जीवन को गंभीरतापूर्वक विचारने के लिएचुनौती दी है। हम अपनी भाषा के क्षेत्र में भी इस कठिन समस्या से हतबुद्धि हो रहे हैं। हमारे बड़े-बड़ेविचारकों ने प्रत्येक क्षेत्र में सुलह करने का व्रत लिया हैपरंतु मुझे ऐसा लगता है कि इससे भी कठोर समस्याका सामना हमें हिंदू-हिंदू मिलन के लिए ही करना है। अशांति के चिह्न अभी से प्रकट होने लगे हैं। जब हमभाषा या साहित्य विषयक किसी प्रश्न का समाधान करने बैठें तो केवल वर्तमान पर दृष्टि निबद्ध रखने से हमघोखा खा सकते हैं। मुझे अपनी बुद्धि या दीर्घदर्शिता का गर्व नहीं हैलेकिन जो कुछ अनुभव करता हूँउसेईमानदारी से प्रकट करने से शायद कुछ लाभ हो जाएइसी आशा से ये बातें कह रहा हूँ। सैकड़ों व्यर्थकल्पनाओं की भाँति ये अनंत वायुमंडल में विलीन हो जाएँगी। मुझे ऐसा लगता है कि ज्यों-ज्यों हमारेदेशवासियों में आत्मचेतना का संचार होता जाएगात्यों-त्यों हिंदू-समाज की भीतरी समस्याएँ उग्र रूपधारण करती जाएँगी। राजनीतिक बंधनों के दूर होते ही हमारी मानसिक या आध्यात्मिक ग़ुलामी का बंधनऔर भी कठोर प्रतीत होगा। दो-सौ वर्षों की राजनीतिक ग़ुलामी को तोड़ने में हमें जितना प्रयास करना पड़ाहैउससे कहीं अधिक प्रयास करना पड़ेगा इस सहस्त्राधिक वर्षों की सामाजिक और आध्यात्मिक ग़ुलामीकी ज़ंजीरों को तोड़ने में।


कवि ने बहुत पहले सावधान किया है, “जिसे तुमने नीचे फेंक रखा हैवह तुम्हें नीचे से जकड़कर बाँध लेगाजिसे पीछे डाल रखा हैवह पीछे खींचेगा। अज्ञान के अंधकार की आड़ में जिसे तुमने ढक रखा हैवह तुम्हारेसमस्त मंगल को ढककर घोर व्यवधान की सृष्टि करेगा। हे मेरे दुर्भाग्य ग्रस्त देशअपमान में तुम्हें समस्तअपमानितों के समान होना पड़ेगा।

शताब्दियों के विकट अपमान की प्रतिक्रिया कठोर होगी। उसके लिए हमें तैयार होना होगा। मुझे ऐसा लगताहै कि जब भाषा और साहित्य के मसले पर विचार किया जाता है तो इस तथ्य को बिल्कुल भुला दिया जाताहै। हिंदूओं की अपनी भीतरी समस्याएँ भी हैं और उन भीतरी समस्याओं के लिए जो विचार-विनिमय हुए हैंया हो रहे हैंवे नाना कारणों से संस्कृत-साहित्य से अधिक प्रभावित हुए हैं। वे किसी के प्रति घृणा याअदूरदर्शिता के कारण नहीं हुए हैं। छोटी कही जाने वाली जातियों में ऊपर उठने की आकांक्षा स्वाभाविक हैऔर उसके लिए उनका संस्कृत-साहित्य की ओर झुकना भी अस्वाभाविक नहीं है। यदि संस्कृत बहुल भाषाके व्यवहार और समस्त जातियों के ब्राह्मण या क्षत्रिय कहे जाने से सात करोड़ आदमियों में अपने को हीनसमझने की मनोवृत्ति कुछ कम होती हैतो ऐसा करना वांछनीय है या नहींयह मैं देश के नेताओं के विचारनेके लिए छोड़ देता हूँ।


एक ज़माना था जब भाषा-विज्ञान और नृतत्त्व-शास्त्र की घनिष्ठ मैत्री में विश्वास किया जाता था। मानाजाता था कि भाषा से नस्ल की पहचान होती है परंतु शीघ्र ही यह भ्रम टूट गया। देखा गया है कि ये दोनोंशास्त्र एक-दूसरे के विरुद्ध गवाही देते हैं। भारतवर्ष भाषा-विज्ञान और नृतत्त्व-शास्त्र के कलह का सबसे बड़ाअखाड़ा सिद्ध हुआ है। वर्तमान हिंदू-समाज में एक-दो नहींबल्कि दर्ज़नों ऐसी जातियाँ हैंजो अपनी मूलभाषाएँ भूल चुकी हैं और आर्यभाषा बोलती हैं। ब्राह्मण-प्रधान धर्म ने जातियों का कुछ इस प्रकार स्तर-विभाग स्वीकार किया है कि निम्न श्रेणी की जाति हमेशा अवसर पाने पर ऊँचे स्तर में जाने का प्रयत्न करतीहै। इस देश में जाने किस अनादिकाल से संस्कृत भाषा का प्राधान्य स्वीकार कर लिया गया है कि प्रत्येकनस्ल और फ़िर्के के लोग अपनी भाषा को संस्कृत श्रेणी की भाषा से बदलते रहे हैं। ग्रियर्सन ने अपने विशालसर्वे में एक भी ऐसा मामला नहीं देखाजहाँ आर्यभाषासंस्कृत श्रेणी की भाषाबोलने वाले किसीजनसमुदाय ने अन्य से अपनी भाषा बदली होयहाँ तक कि आर्यभाषा की एक बोली के बोलने वाले ने भीदूसरी बोली को स्वीकार नहीं किया है।

स्पष्ट है कि इस देश में संस्कृत-प्राधान्य कोई नई घटना नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि इस भाषा का सहारालेकर जातियाँ ऊपर उठी हैं। मैं केवल उन तथ्यों को आपके सामने रख रहा हूँजिनके आधार पर मेरी यहधारणा बनी है कि इस देश के करोड़ों मनुष्यों में आत्मचेतना भरने का काम बहुत दिन से संस्कृत भाषा करतीआई है और आगे भी करती रहेगीऐसी संभावना है। यह  समझिए कि जो लोग संस्कृत बहुल भाषा काव्यवहार कर रहे हैंवे किसी संप्रदाय के प्रति द्वेषवश और घृणावश करते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसीबेतुकी बातों पर भी आसानी से विश्वास कर लिया जाता है।


दीर्घकाल से ज्ञान के आलोक से वंचित इन मनुष्यों को हमें ज्ञान देना है। शताब्दियों से गौरव से हीन इनमनुष्यों में हमें आत्मगरिमा का संचार करना है। अकारण अपमानित इन मूक नर-कंकालों को हमें वाणी देनीहै। रोगशोकअज्ञानभूखप्यासपरमुखापेक्षिता और मूकता से इनका उद्धार करना है। साहित्य का यहीकाम है।

इससे छोटे उद्देश्य को मैं विशेष बहुमान नहीं देता। आप क्या लिखेंगेकैसे लिखेंगे और किस भाषा में लिखेंगेइन प्रश्नों का निर्माण इन्हीं की ओर देखकर कीजिए। यदि इनको मनुष्यता के ऊँचे आसन पर आप नहीं बैठासकते तो साहित्यिक भी नहीं कहे जा सकतेऔर यह कहना ही आवश्यक है कि स्वयं मनुष्य बने बिनास्वयंछोटे-छोटे तुच्छ विवादों से ऊपर उठे बिनाकोई भी व्यक्ति दूसरे को नहीं उठा सकता है। साहित्य के साधकोंको मनुष्य की सेवा करनी है तो देवता बनना होगा। नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय।


शायद मेरी ही भाँति आप भी इतना अवश्य स्वीकार करते हैं कि इस बहुधा-विभक्त जनसमुदाय को संबद्धबनाना है। यदि यह बात सत्य है तो मैं समझता हूँअभी हमने साहित्य का आरंभ ही नहीं किया है। हिंदी मेंकितने जनसमूह के परिचायक ग्रंथ हमने लिखे हैंइस विशाल मानव समाज की रीति-नीतिआचार-विचारआशा-आकांक्षाउत्थान-पतन समझने के लिए हमारी भाषा में कितनी पुस्तकें हैंइनके जीवन को सुखमयबनाने के साधनोंइनकी भूमिइनके पशुइनके विनोद-सहचरइनके पेशेइनके विश्वासइनकी नई-नईमनोवृत्तियों का हमने क्या अध्ययन प्रस्तुत किया हैकहाँ है वह सहानुभूति और दर्द का प्रमाणजिसे आपगणदेवता के सामने रख सकेंगेहिंदी की उन्नति का अर्थ उसके बोलने और समझने वालों की उन्नति है।

अपना यह देश कोई नया साहित्यिक प्रयोग करने नहीं निकला है। इसकी साहित्यिक-परंपरा अत्यंत दीर्घधारावाहिक और गंभीर है। साहित्य नाम के अंतर्गत मनुष्य जो कुछ भी सोच सकता हैउस सबका प्रयोग इसदेश में सफलतापूर्वक हो चुका है। वह अपनी भाषा का दुर्भाग्य है कि हमारी प्राचीन चिंतनराशि को उसमेंसंचित नहीं किया गया है। संस्कृतपालि और प्राकृत की बढ़िया पुस्तकों के जितने उत्तम अनुवाद अंग्रेज़ीफ़्रेंच और जर्मन आदि भाषाओं में हुए हैंउतने हिंदी में नहीं हुए। परंतु दुर्भाग्य भी लाक्षणिक प्रयोग है और यहवस्तुतः उस विशाल मानव-समाज का दुर्भाग्य हैजो भाषा के ज़रिए ही ज्ञान-अर्जन करना चाहता है याकरता है। यह विशाल साहित्य अपनी भाषाओं में यदि अनूदित होता तो हमारा साहित्यिक सहज ही उनसैकड़ों प्रकार के अपप्रचारों और हीन भावनाओं का शिकार होने से बच जाताजो आज संपूर्ण समाज कोदुर्बल और परमुखापेक्षी बना रहे हैं। विभिन्न स्वार्थ के पोषक प्रचार इस देश की अतिमात्र विशेषताओं काडंका प्रायः पीटा करते हैं।


इतिहास को कभी भौगोलिक व्याख्या के भीतर सेकभी जातिगत और कभी धर्मगत विशेषताओं के भीतर सेप्रतिफलित करके समझाया जाता है कि हिंदुस्तानी जैसे हैंउन्हें वैसा ही होना है और उसी रूप में बना रहनाही उनके लिए श्रेयस्कर है। इतिहास की जो अभद्र व्याख्या इन भिन्न-भिन्न विशेषताओं के भीतर से देखनेवाले प्रचारकों ने की हैवह हमारे रोम-रोम में व्याप्त होने लगीं हैं। अगर इस ज़हर को दूर करना है तो प्राचीनग्रंथों के देशी प्रामाणिक संस्करण और अनुवाद करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन अपनी भाषामें प्राचीन ग्रंथों को हमें सिर्फ़ इसलिए नहीं भरना है कि हमें दूसरे स्वार्थी लोगों के अपप्रचार के प्रभाव से मुक्तहोना है। विदेशी पंडितों ने अपूर्व लगन और निष्ठा के साथ हमारे प्राचीन शास्त्रों का अध्ययनमनन औरसंपादन किया है। हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिएपरंतु यह बात भूल नहीं जाना चाहिए कि अधिकांश विदेशीपंडितों के लिए हमारे प्राचीन शास्त्र नुमाइशी वस्तुओं के समान हैं। उनके प्रति उनका जो सम्मान हैउसेअंग्रेज़ी के ‘म्यूज़ियम इंटरेस्ट’ शब्द से भी समझाया जा सकता है। नुमाइश में रखी हुई चीज़ों को हम प्रशंसाऔर आदर की दृष्टि से देखते हैंपरंतु निश्चित जानते हैं कि हम अपने जीवन में उनका व्यवहार नहीं करसकते। किसी मुग़ल सम्राट का चोगा किसी प्रदर्शिनी में दिख जाए तो हम उसकी प्रशंसा चाहे जितनी करेंपर हम निश्चित जानेंगे कि उसको हमें धारण नहीं करना है। परंतु भारतीय शास्त्र हमारे देशवासियों के लिएप्रदर्शिनी की वस्तु नहीं हैंवे हमारे रक्त में मिले हुए हैं। भारतवर्ष आज भी उनकी व्यवस्था पर चलता है औरउनसे प्रेरणा पाता है। इसीलिए हमें इन ग्रंथों का अपने ढंग से संपादन करके प्रकाशन करना हैइनके ऐसेअनुवाद प्रकाशित करने हैंजो पुरानी अनुश्रुति से विच्छिन्न और असंबद्ध भी  हों और आधुनिक ज्ञान केआलोक में देख भी लिए गए हों। यह बड़ा विशाल कार्य है। संस्कृत भारतवर्ष की अपूर्व महिमाशालिनी भाषाहै। वह हज़ारों वर्षों के दीर्घकाल में और लाखों वर्गमील में फैले हुए मानव-समाज के सर्वोत्तम मस्तिष्कों मेंविहार करने वाली भाषा है। उसका साहित्य विपुल है। उसका साधन गहन है और उसका उद्देश्य साधु है। उसभाषा को हिंदी-माध्यम से समझने का प्रयत्न करना भी एक तपस्या है। उस तपस्या के लिए संयम तथाआत्मबल की आवश्यकता है। हमें अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर गंभीरतापूर्वक उसके अध्ययन में जुट जानाचाहिए। हिंदी को संस्कृत से विच्छिन्न करके देखने वाले उसकी अधिकांश महिमा से अपरिचित हैं।

महान कार्य के लिए विशाल हृदय होना चाहिए। हिंदी का साहित्य सचमुच महान कार्य हैक्योंकि उससेकरोड़ों का भला होना है। हम आजकल प्रायः गर्वपूर्वक कहा करते हैं कि हिंदी बोलने वालों की संख्याभारतवर्ष में सबसे अधिक है। मैं समझता हूँयह बात चिंता की हैक्योंकि हिंदी बोलने वाले जन-समूह कीमानसिकबौद्धिक और आध्यात्मिक भूख मिटाने का काम सहज नहीं है।


भारतवर्ष के पड़ोसी देशों में आजकल हिंदी-साहित्य पढ़ने और समझने में तीव्र लालसा जाग्रत हुई है। चीनसेमलय सेसुमात्रा सेजावा सेसमस्त एशिया से माँग  रही है। एशिया के देश अब अंग्रेज़ी पुस्तकों मेंप्राप्त सूचनाओं से संतुष्ट नहीं हैं। वे देशी दृष्टि से देशी भाषा में लिखा हुआ साहित्य खोजने लगे हैं। आगे यहजिज्ञासा और भी तीव्र होगी। मुझे चिंता होती है कि क्या हम अपने को इस उठती हुई श्रद्धा के उपयुक्त पात्रसिद्ध कर सकेंगेजिस दिन इतिहास-विधाता हमें ठेलकर विश्व-जनता के दरबार में ला पटकेंगेंउस दिनतक क्या हम इतना भी निश्चय कर सके होंगे कि हमारी भाषा कैसी होगीउसमें भिन्न-भिन्न भाषाओं केशब्दों का अनुपात क्या होगा और शब्दों के ‘शुद्ध’ और ‘गैर-शुद्ध’ उच्चारणों में से कौन-सा अपनाया जाएगा?

समूचे जनसमूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द का होना अच्छा है। इसके लिए तर्क-शास्त्रियों कीनहींऐसे सेवाभावी व्यक्तियों की आवश्यकता हैजो समस्त बाधाओं और विघ्नों को शिरसा स्वीकार करकेकाम करने में जुट जाते हैं। वे ही लोग साहित्य का भी निर्माण करते हैं और इतिहास का भी। आज कामकरना बड़ी बात है। इस देश में हिंदू हैंमुसलमान हैंस्पृश्य हैंअस्पृश्य हैंसंस्कृत हैंफ़ारसी हैंविरोधोंऔर संघर्षों की विराट वाहिनी हैपर सबके ऊपर मनुष्य है। विरोधों को दिन-रात याद करते रहने की अपेक्षाअपनी शक्ति का संबल लेकर उसकी सेवा में जुट जाना अच्छा है। जो भी भाषा आपके पास हैउससे बसमनुष्य को ऊपर उठाने का काम शुरू कर दीजिए। आपका उद्देश्य आपकी भाषा बना देगा।


अच्छी बात करने वालों की कमी इस देश में कभी नहीं रही है। आज भी बहुत ईमानदारी और सच्चाई के साथअच्छी बात करने वाले आदमी इस देश में कम नहीं हैं। उन्होंने प्रेम और भ्रातृभाव का मंत्र बताया है।आदिकाल से महापुरुषों ने प्रेम और सौहार्द का संदेश सुनाया है। कहते हैंव्यासदेव ने अंतिम जीवन मेंनिराश होकर कहा था कि मैं भुजा उठाकर चिल्ला रहा हूँ कि धर्म ही प्रधान वस्तु हैउसी से अर्थ और काम कीप्राप्ति होती हैपर मेरी कोई सुन नहीं रहा है

ऊर्ध्वबाहुविरौम्येष नैव कश्चिच्छुणोति मे।


धर्मादर्थश्च कामश्च  धर्म किं  सेव्यताम्॥

ऐसा क्यों हुआइसलिए कि समाज के ऐतिहासिक विकासआर्थिक संयोजन और सामाजिक संगठन केमूल में ही कुछ ऐसी ग़लती रह गई है कि एक दल जिसे धर्म समझता हैदूसरा उसे नहीं समझ पाता। इसवैषम्य को ध्यान में रखकर ही प्रेम सौहार्द का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। दही में जितना भी दूध डालिएदहीहोता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है।


मेरी अल्प बुद्धि में तो यही सूझता है कि समाज के नाना स्तरों के लिए अलग-अलग ढंग की भाषा होगी। नानाउद्देश्यों की सिद्धि के लिए नाना भाँति के प्रयत्न करने होंगे। सारे प्रतीयमान विरोधों का सामंजस्य एक ही बातसे होगामनुष्य का हित।

भारत के हज़ारों गाँवों और शहरों में फैली हुई सैकड़ों जातियों और उप-जातियों में विभक्त सभ्यता को नानासीढ़ियों पर खड़ी हुई यह जनता ही हमारे समस्त वक्तव्यों का लक्ष्यीभूत श्रोता है। उसका कल्याण ही साध्यहैबाक़ी सबकुछ साधन हैसंस्कृत भी और फ़ारसी भीव्याकरण भी और छंद भीसाहित्य भी और विज्ञानभीधर्म भी और ईमान भी। हमारे समस्त प्रयत्नों का एकमात्र लक्ष्य यही मनुष्य है। उसको वर्तमान दुर्गति सेबचाकर भविष्य में आत्यंतिक कल्याण की ओर उन्मुख करना ही हमारा लक्ष्य है। यही सत्य हैयही धर्म है।सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है।नारद ने शुकदेव से कहा था कि सत्य बोलना अच्छा हैपर हित बोलना और भी अच्छा है। मेरे मत से सत्य वहहैजो भूत-मात्र के आत्यंतिक कल्याण का हेतु हो


ऊर्ध्वबाहुविरौम्येष नैव कश्चिच्छुणोति मे।

धर्मादर्थश्च कामश्च  धर्म किं  सेव्यताम्॥


ऐसा क्यों हुआइसलिए कि समाज के ऐतिहासिक विकासआर्थिक संयोजन और सामाजिक संगठन केमूल में ही कुछ ऐसी ग़लती रह गई है कि एक दल जिसे धर्म समझता हैदूसरा उसे नहीं समझ पाता। इसवैषम्य को ध्यान में रखकर ही प्रेम सौहार्द का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। दही में जितना भी दूध डालिएदहीहोता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है।

मेरी अल्प बुद्धि में तो यही सूझता है कि समाज के नाना स्तरों के लिए अलग-अलग ढंग की भाषा होगी। नानाउद्देश्यों की सिद्धि के लिए नाना भाँति के प्रयत्न करने होंगे। सारे प्रतीयमान विरोधों का सामंजस्य एक ही बातसे होगामनुष्य का हित।


भारत के हज़ारों गाँवों और शहरों में फैली हुई सैकड़ों जातियों और उप-जातियों में विभक्त सभ्यता को नानासीढ़ियों पर खड़ी हुई यह जनता ही हमारे समस्त वक्तव्यों का लक्ष्यीभूत श्रोता है। उसका कल्याण ही साध्यहैबाक़ी सबकुछ साधन हैसंस्कृत भी और फ़ारसी भीव्याकरण भी और छंद भीसाहित्य भी और विज्ञानभीधर्म भी और ईमान भी। हमारे समस्त प्रयत्नों का एकमात्र लक्ष्य यही मनुष्य है। उसको वर्तमान दुर्गति सेबचाकर भविष्य में आत्यंतिक कल्याण की ओर उन्मुख करना ही हमारा लक्ष्य है। यही सत्य हैयही धर्म है।सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है।नारद ने शुकदेव से कहा था कि सत्य बोलना अच्छा हैपर हित बोलना और भी अच्छा है। मेरे मत से सत्य वहहैजो भूत-मात्र के आत्यंतिक कल्याण का हेतु हो

सत्यस्य वचनं श्रेयसत्यादपि हितं वदेत्।


यद्भूतहितमत्यंतमेतत् सत्यं मतं मम्॥

यही सर्वभूत का आत्यंतिक कल्याण साहित्य का चरम लक्ष्य है। जो साहित्य केवल कल्पना-विलास हैजोकेवल समय काटने के लिए लिखा जाता हैवह बड़ी चीज़ नहीं है। बड़ी चीज़ वह हैजो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु सामान्य धरातल से ऊपर उठाता है। मनुष्य का शरीर दुर्लभ वस्तु हैइसे पाना ही कम तप काफल नहीं हैपर इसे महान लक्ष्य की ओर उन्मुख करना और भी श्रेष्ठ कार्य है।


इधर कुछ ऐसी हवा बही है कि हर सस्ती चीज़ को साहित्य का वाहन माना जाने लगा है। इस प्रवृत्ति कोवास्तविकता’ के ग़लत नाम से पुकारा जाने लगा। तरह-तरह की दलीलें देकर यह बताने का प्रयत्न कियाजा रहा है कि मनुष्य की लालसोन्मुख वृत्तियाँ ही साहित्य के उपयुक्त वाहन हैं। मुझे किसी मनोरोग के विपक्षमें या पक्ष में कुछ भी नहीं कहना है। मुझे सिर्फ़ इतना ही कहना है कि साहित्य के उत्कर्ष या अपकर्ष के निर्णयकी एकमात्र कसौटी यही हो सकती है कि वह मनुष्य का हित साधन करता है या नहीं। जिस बात के कहने सेमनुष्य पशु-सामान्य धरातल के ऊपर नहीं उठतावह त्याज्य है। मैं उसी को सस्ती चीज़ कहता हूँ। सस्तीइसलिए कि उसके लिए किसी प्रकार के संयम या तप की ज़रूरत नहीं होती। धूल में लोटना बहुत आसान हैपरंतु धूल में लोटने से संसार का कोई बड़ा उपकार नहीं होता और  किसी प्रकार के मानसिक संयम काअभ्यास ही आवश्यक है। और जैसा कि रविंद्रनाथ ने कहा कि यदि कोई नि:संकोच धूल में लोट पड़े तो इसेहम बहुत बड़ा पुरुषार्थ नहीं कह सकते। हम इस बात को डरने योग्य भी नहीं मानेंगेपरंतु यदि दस-पाँच भलेआदमी ऊँचे गले से यही कहना शुरू कर दें कि धूल में लोटना ही उस्तादी है तो थोड़ा डरना आवश्यक होजाता है। भय का कारण इसका सस्तापन है। मनुष्य में बहुत सी आदिम मनोवृत्तियाँ हैंजो ज़रा-सा सहारापाते ही झनझना उठती हैं। अगर उनको भी साहित्य-साधना का बड़ा आदर्श कहा जाने लगे तो उस माननेऔर पालन करने वालों की कमी नहीं रहेगी। ऐसी बातों को इस प्रकार प्रोत्साहित किया जाता है कि मानोयह कोई साहस और वीरता का काम है।

पुरानी सड़ी रूढ़ियों का मैं पक्षपाती नहीं हूँपरंतु संयम और निष्ठा पुरानी रूढ़ियाँ नहीं हैं। वे मनुष्य के दीर्घआयास से उपलब्ध गुण हैं और दीर्घ आयास से ही पाए जाते हैं। इनके प्रति विद्रोह प्रगति नहीं है। आदिम युगमें मनुष्य की जो वृत्तियाँ अत्यंत प्रबल थींवे निश्चय ही अब भी हैं और प्रबल भी हैं। परंतु मनुष्य ने अपनीतपस्या से उनको अपने वश में किया है और वश में करने के कारण वह उनको सुंदर बना सका है। मनुष्य केरंगमंच पर आने के पहले प्रकृति लुढ़कती-पुढ़कती चली  रही थी। प्रत्येक कार्य अपने पूर्ववर्ती कार्य कापरिणाम है। संसार की कार्य-कारण परंपरा में कहीं फाँक नहीं थी। जो वस्तु जैसी होने को हैवह वैसीहोगी। इसी समय मनुष्य आया। उसने इस नीरंध्र ठोस कार्य-कारण परंपरा में एक फाँक का आविष्कारकिया। जो जैसा हैउसे वैसा ही मानने से उसने इंकार कर दिया। उसे उसने अपने मन के अनुकूल बनाने काप्रयत्न किया। सो मनुष्य की पूर्ववर्ती सृष्टि किसी प्रकार बनती जा रही थीमनुष्य ने उसे अपने अनुकूलबनाना चाहायहीं मनुष्य पशु से अलग हो गया। वह पशु-सामान्य धरातल से ऊपर उठा। बार-बार उसे उसीधरातल की ओर उन्मुख करना प्रगति नहींयह पीछे लौटने का काम है। मैं मानता हूँ कि  तो कभी ऐसासमय रहा हैजब लालसा को उत्तेजना देने वाला साहित्य  लिखा गया हो और  कोई ऐसा देश है जहाँ ऐसीबातें  लिखी गई होंपरंतु मेरा विश्वास है कि मनुष्य सामूहिक रूप से इस ग़लती को महसूस करेगा औरत्याग देगा। यह ठीक हैकि मनुष्य का इतिहास उसकी ग़लतियों का इतिहास हैपर यह और भी ठीक है किमनुष्य बराबर ग़लतियों पर विजय पाता आता है। लालसा को उत्तेजना देने वाला साहित्य उसकी ग़लती है।एक--एक दिन वह इस पर अवश्य विजय पाएगा।


सत्य अपना पूरा मूल्य चाहता है। उसके साथ समझौता नहीं हो सकता। साहित्य के चरम सत्य को पाने केलिए भी उसका पूरा-पूरा मूल्य चुकाना ही समीचीन है। जो लोग पद-पद पर सहज और सीधे साधनों कीदुहाई दिया करते हैंशायद किसी बड़े लक्ष्य की बात नहीं सोचते। मनुष्य को उसके उच्चतर लक्ष्य तकपहुँचाने के लिए उसके प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली वृत्तियों के साथ सुलह करने से काम नहीं चलेगा।कठोर संयम और त्याग द्वारा ही उसे बड़ा बनाया जा सकेगा। जो बात एक क्षेत्र में सत्य हैवह सभी क्षेत्रों मेंसत्य हैसाहित्य मेंभाषा मेंआचार मेंविचार मेंसर्वत्र। भाषा को ही लीजिए। मनुष्य अपने आहार औरनिद्रा के साधनों को जुटाने के लिए जिस भाषा का व्यवहार करता हैउसकी अनायास लब्ध भाषा हैपरंतुयदि उसे इस धरातल से ऊपर उठाना है तो उतने से काम नहीं चलेगा। सहज भाषा आवश्यक है। पर सहजभाषा का मतलब है सहज ही महान बनाने वाली भाषारास्ते में बटोरकर संग्रह की हुई भाषा नहीं।

सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है। सहज भाषा पाने के लिए कठोर तप आवश्यक है। जब तक आदमी सहजनहीं होता तब तक भाषा का सहज होना असंभव है। स्वदेश और विदेश के वर्तमान और अतीत के समस्तवाङ्मय का रस निचोड़ने से वह सहज भाव प्राप्त होता है। हर अदना आदमी क्या बोलता है या क्या नहींबोलताइस बात से सहज भाषा का अर्थ स्थिर नहीं किया जा सकता। क्या कहने या क्या  कहने से मनुष्यउस उच्चतर आदर्श तक पहुँच सकेगाजिसे संक्षेप में ‘मनुष्यता’ कहा जाता हैयही मुख्य बात है। सहजमनुष्य ही सहज भाषा बोल सकता है। दाता महान होने से दान महान होता है।


जिन लोगों ने गहन साधना करके अपने को सहज नहीं बना लिया हैवे सहज भाषा नहीं पा सकते। व्याकरणऔर भाषाशास्त्र के बल पर यह भाषा नहीं बनाई जा सकतीकोशों में प्रयुक्त शब्दों के अनुपात पर इसे नहींगढ़ा जा सकता। कबीरदास और तुलसीदास को यह भाषा मिली थीमहात्मा गांधी को भी यह भाषा मिलीक्योंकि वे सहज हो सके। उनमें दान करने की क्षमता थीशब्दों का हिसाब लगाने से यह दातृत्व नहीं मिलताअपन को दलित द्राक्षा के समान निचोड़कर महासहज के समर्पण कर देने से प्राप्त होता है। जो अपने कोनि:शेष भाव से दे नहीं सकावह दाता नहीं हो सकता। आप में अगर देने लायक वस्तु है तो भाषा स्वयं सहजहो जाएगी। पहले सहज भाषा बनेगीफिर उसमें देने योग्य पदार्थ भरे जाएँगे यह ग़लत रास्ता है। सही रास्तायह है कि पहले देने की क्षमता उपार्जन करोइसके लिए तप की ज़रूरत हैसाधना की ज़रूरत हैअपने कोनि:शेष भाव से दान कर देने की ज़रूरत है।

हिंदी साधारण जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआ था और जब तक वह अपने कोजनता के काम की चीज़ बनाए रहेगीजनचित्त में आत्म-बल का संचार करती रहेगीतब तक उसे किसी सेडर नहीं है। वह अपने आपकी भीतरी अपराजेय शक्ति के बल पर बड़ी हुई हैलोक-सेवा के महान व्रत केकारण बड़ी हुई है और यदि अपनी मूल शक्ति के स्रोत को भूल नहीं गई तो निस्संदेह अधिकाधिकशक्तिशाली होती जाएगी। उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। वह विरोधों और संघर्षों के बीच हीपली है। उसे जन्म के समय ही मार डालने की कोशिश की गई थीपर वह मरी नहीं हैक्योंकि उसकीजीवनी-शक्ति का अक्षय स्रोत जनचित्त है। वह किसी राजशक्ति की उँगली पकड़कर यात्रा तय करने वालीभाषा नहीं हैअपने आपकी भीतरी शक्ति से महत्त्वपूर्ण आसन अधिकार करने वाली अद्वितीय भाषा है।


शायद ही संसार में ऐसी कोई भाषा होजिसकी उन्नति में पद-पद पर इतनी बाधा पहुँचाई गई होफिर भीजो इस प्रकार अपार शक्ति संचय कर सकी हो। आज वह सैकड़ों ‘प्लेटफ़ार्मों’ सेकोड़ियों सेविद्यालयों सेऔर दर्जनों प्रेसों से नित्य मुखरित होने वाली परम शक्तिशालिनी भाषा है। उसकी जड़ जनता के हृदय में है।वह करोड़ों नर-नारियों की आशा और आकांक्षाक्षुधा और पिपासाधर्म और विज्ञान की भाषा है। हिंदीसेवा का अर्थ करोड़ों की सेवा है। इसका अवसर मिलना सौभाग्य की बात है।


मिलना सौभाग्य की बात है।

(दो)


वास्तव में हमारे अध्ययन की सामग्री प्रत्यक्ष मनुष्य है। आपने इतिहास में इसी मनुष्य की धारावाहिकजययात्रा की कहानी पढ़ी हैसाहित्य में इसी के आवेगोंउद्वेगों और उल्लासों का स्पंदन देखा हैराजनीति मेंइसकी लुका-छिपी के खेल का दर्शन किया हैअर्थशास्त्र में इसी की रीढ़ की शक्ति का अध्ययन किया है।यह मनुष्य ही वास्तविक लक्ष्य है। आप इससे सीधा संबंध जोड़ने जा रहे हैं। यह जो प्रत्यक्ष मनुष्य का पढ़नाहैवही बड़ी बात है। हमारी शिक्षा का अधिक भाग जिन सब दृष्टांतों का आश्रय लेता हैवे हमारे सामने नहींआते। हमारा इतिहास पढ़ना तब तक व्यर्थ हैजब तक हम उसे इस जीवंत मानव-प्रवाह के साथ एक करके देख सकें। हमारे देश का इतिहासयदि वह सचमुच ही हमारे देश का हैआज भी निश्चय ही हमारे घरोंमेंगाँवों मेंजातियों मेंखंडहरों में और इस देश के ज़र्रे-ज़र्रे में अपना चिह्न छोड़ता जा रहा है। जब तक देशके इन प्रत्येक कणों से हमारा प्रत्यक्ष संबंध नहीं स्थापित होता तब तक हम इतिहास का वास्तविक ज्ञान कैसेप्राप्त कर सकेंगेहममें से जो कोई भी अपने को शिक्षित समझता होउसे अपनी उच्च अट्टालिका से नीचेउतरकर अपने देश के इर्द-गिर्द फैले हुए विशाल जनसमूहविस्तृत भूखंड और सजीव चिंता-प्रवाह को हीप्रधान पाठ्य-पुस्तक बनाना होगा। पुस्तकें इसी महाग्रंथ को समझाने का साधन मानी जानी चाहिए। नोटोंऔर कुंजियों को उत्पन्न करने वाली मनोवृत्ति का निर्दयतापूर्वक दमन कर देना चाहिए। हम लोग नृतत्त्व केग्रंथ  पढ़ते हों सो बात नहीं हैकिंतु जब हम देखते हैं कि ग्रंथ पढ़ने के कारण हमारे घरों के निकट जो चमारधीवरकोढ़ीकुम्हार लोग रहते हैंउनके पूरे परिचय पाने के लिए हमारे हृदयों में ज़रा भी उत्सुकता नहींउत्पन्न होती तब अच्छी तरह समझ में  जाता है कि पुस्तकों के संबंध में हमें कितना अंध-विश्वास हो गयाहैपुस्तकों को हम कितना बड़ा समझते हैं और पुस्तकें वस्तुतः जिनकी छाया हैंउनको कितना तुच्छ मानतेहैं। यह ढंग ग़लत है। इसमें सुधार होना चाहिए। विद्या के क्षेत्र में ‘सेकेंड हैंड’ ज्ञान की प्रधानता स्थापित होनावांछनीय नहीं है। दुर्भाग्यवश अपने देश में ऐसे ही ज्ञान की प्रधानता स्थापित हो गई है। हमें यदि सचमुच कुछनया करना है तो बड़े विकट प्रयास करने पड़ेंगे। समूचे देश के मस्तिष्क में जो जड़-संस्कार पैदा कर दिए गएउनसे जूझना पड़ेगाइसका समर्थन तभी हो सकता हैजब हम दृढ़ होकर प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर हों।

आप में से अधिकांश का मार्ग शायद मातृभाषा और उसके साहित्य द्वारा देश की सेवा करना हो। यह बड़ाउत्तम मार्ग है। परंतु हमें अच्छी तरह समझ लेने की आवश्यकता है कि साहित्य-सेवा या मातृभाषा की सेवाका क्या अर्थ है। किसे सामने रखकर आप साहित्य लिखने जा रहे हैंआपके वक्तव्यों का लक्ष्यीभूत श्रोताकौन हैहिंदी भाषा कोई देवी-देवता की मूर्ति का नाम नहीं है। हिंदी की सेवा करने का अर्थ हिंदी की प्रतिमाबनाकर पूजना नहीं है। यह लाक्षणिक प्रयोग है। इसका अर्थ हैहिंदी के माध्यम द्वारा समझने वालीविशाल जनता की सेवा। कभी-कभी हम लोग इस भाषा से प्राप्त होने वाले अन्यायों से विक्षुब्ध होकर ग़लतढंग के स्वभाषा-प्रेम का परिचय देते हैं। अपनी भाषाअपनी संस्कृति और अपने साहित्य से प्रेम होना बुरीबात नहीं हैपर जो प्रेम ज्ञान द्वारा चालित और श्रद्धा द्वारा अनुगमित होता हैवही प्रेम अच्छा है। केवल ज्ञानबोझ हैकेवल श्रद्धा अंधा बना देती है। हिंदी के प्रति जो हमारा प्रेम हैवह भी ज्ञान द्वारा चालित और श्रद्धाद्वारा अनुगमित होना चाहिए। हमें ठीक-ठीक समझना चाहिए कि हिंदी की शक्ति कहाँ हैहिंदी इसलिएबड़ी नहीं है कि हममें से कुछ लोग इस भाषा में कहानी या कविता लिख लेते हैं या सभा-मंचों पर बोल लेतेहैं। नहींवह इसलिए बड़ी है कि कोटि-कोटि जनता के हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने में यह भाषा इसदेश में सबसे बड़ा साधन हो सकता है। हमारे पूर्वजों ने दीर्घकाल की तपस्या और मनन से जो ज्ञानराशिसंचित की हैउसे सुरक्षित रखने का यह सबसे मज़बूत पात्र हैअकारण और सकारण शोषित और पोषितमूढ़निर्वाक जनता तक आशा और उत्साह का संदेश इसी जीवंत और समर्थ भाषा के द्वारा पहुँचाया जासकता है। यदि देश में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को हमें जनसाधारण तक पहुँचाना है तो इसी भाषा का सहारालेकर हम यह काम कर सकते हैं। हिंदी इन्हीं संभावनाओं के कारण बड़ी है। यदि वह यह कार्य नहीं करसकती तो ‘हिंदी-हिंदी’ चिल्लाना व्यर्थ है। यदि वह यह काम कर सकती है तो उसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वलहै। यदि वह इन महान उद्देश्यों के अनुकूल है तो फिर वह इस देश में हिमालय की भाँति अचल होकर रहेगी।हिमालय की ही भाँति उन्नतउतनी ही महान हिंदी जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआथा और जब तक वह जनता के चित्त में आत्मबल संचारित करती रहेगीउसके हृदय और मस्तिष्क की भूखमिटाती रहेगीतब तक उसका जीवन सार्थक है। जो लोग इस भाषा और उसके साहित्य की सेवा करने काव्रत करने जा रहे होंउन्हें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए।


भारतवर्ष क्या हैअनादिकाल के नाना जातियाँ अपने नाना भाँति के संस्काररीति-रस्म आदि लेकर इसदेश में आती रही हैं। यहाँ भी अनेक प्रकार के मानवीय समूह विद्यमान रहे हैं। ये जातियाँ कुछ देर तकझगड़ती रही हैं और फिर रगड़-झगड़करले-देकर पास-ही-पास बस गई हैंभाइयों की तरह। इन्हीं नानाजातियोंनाना संस्कारोंनाना धर्मोंनाना रीति-रस्मों का जीवंत समन्वय यह भारतवर्ष है। विदेशी पराधीनताने इसके स्वाभाविक विकास में बाधा पहुँचाई है। उसका बाह्यरूप विचित्र-सा दिखाई दे रहा है। इसीवैचित्र्यपूर्ण जनसमूह को आशा और उत्साह का संदेश देना साहित्य-सेवा का लक्ष्य है। हज़ारों गाँवों औरशहरों में फैली हुईशताधित जातियों और उप-जातियों में विभक्तसभ्यता के नाना स्तरों पर ठिठकी हुई यहजनता ही हमारे समस्त प्रयत्नों का लक्ष्य है। इसका कल्याण ही साध्य है। बाक़ी सब कुछ साधन है। आपनेजो अपनी भाषा पर अधिकार प्राप्त किया हैवह अपने आप में अपना अंत नहीं है। वह साधन है। इसे भाषाके सहारे आपको इस जनता तक पहुँचना है। इसको निराशा और पस्त हिम्मती से बचाना आपका कर्तव्य हैपरंतु यह कोई सरल काम नहीं है। केवल कुछ अच्छा करने की इच्छा मात्र से यह काम नहीं होगा। आज कीसमस्याएँ बड़ी उलझनदार और जटिल हैं। बिजली की बत्ती मुँह से फूँककर नहीं बुझाई जाती है। यह समझनेकी ज़रूरत है कि जो दुर्गति आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैंउसका वास्तविक कारण क्या हैसाहित्य कासाधक केवल कल्पना की दुनिया में विचरण करकेकेवल ‘हाय-हाय’ को या ‘वाह-वाह’ की पुकार करकेअपने सामने की कुत्सित कुरूपता को नहीं बदल सकता। हमें उस समूची विद्या को सीखना पड़ेगाजोविश्व-रहस्य से नए-नए द्वार खोल रही हैजो प्रकृति के समस्त गुप्त भंडार पर धावा बोलने के लिएबद्धपरिकर हैजो मनुष्य को असीम सुख और समृद्धि तक ले जा सकती हैफिर हमें उस स्वार्थ-शक्ति को भीसमझना हैजो इस विद्या का ग़लत प्रयोग करने वाले मनुष्य को सर्वत्र लांछित और अपमानित कर रही है।साहित्य का कारोबार मनुष्य के समूचे जीवन को लेकर है। जो लोग आज भी यह सोचते हैं कि साहित्य केलिए कुछ ख़ास-ख़ास विषय ही पढ़ने के हैंवे बड़ी ग़लती करते हैं। आज की जनता की दुर्दशा को यदि आपसचमुच ही उखाड़ फेंकना चाहते हैं तो आप चाहे जो भी मार्ग लेंराजनीति से अलग होकर नहीं रह सकतेअर्थनीति की उपेक्षा नहीं कर सकते और विज्ञान की नई प्रवृत्तियों से अपरिचित रहकर कुछ भी नहीं करसकते। साहित्य केवल बुद्धि विलास नहीं है। वह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा करके सजीव नहीं रहसकता।

साहित्य के उपासक अपने पैर के नीचे की मिट्टी की उपेक्षा नहीं कर सकते। हम सारे बाह्य जगत को असुंदरछोड़कर सौंदर्य की सृष्टि नहीं कर सकते। सुंदरता सामंजस्य का नाम है। जिस दुनिया में छोटाई और बड़ाईमेंधनी और निर्धन मेंज्ञानी और अज्ञानी मेंआकाश-पाताल का अंतर हो वह दुनिया बाह्य सामंजस्य नहींकही जा सकती और इसलिए वह सुंदर भी नहीं है। इस बाह्य असुंदरता के ढूह में खड़े होकर आंतरिक सौंदर्यकी उपासना नहीं हो सकती। हमें उस बाह्य असौंदर्य को देखना ही पड़ेगा। निरन्ननिर्वसन जनता के बीच खड़ेहोकर आप परियों के सौंदर्य-लोक की कल्पना नहीं कर सकते। साहित्य सुंदर का उपासक हैइसलिएअसामंजस्य को दूर करने का प्रयत्न पहले करना होगाअशिक्षा और कुशिक्षा से लड़ना होगाभय औरग्लानि से लड़ना होगा। सौंदर्य और असौंदर्य का कोई समझौता नहीं हो सकता। सत्य अपना पूरा मूल्यचाहता है। उसे पाने का सीधा और एकमात्र रास्ता उसकी क़ीमत चुका देना ही है। इसके अतिरिक्त कोईदूसरा रास्ता नहीं है। हमारे देश का बाह्य रूप  तो आँखों की प्रीति देने लायक है कानों को मन को बुद्धि को। यह सचाई है।


यदि किसी देश का बाह्य रूप सम्मान योग्य तथा सुंदर नहीं बन सका है तो समझना चाहिए कि उस राष्ट्र कीआत्मा में एक उच्च जगत का निर्माण किया जाना शुरू नहीं हुआ हैअर्थात् वहाँ सच्चे साहित्य के निर्माण काश्रीगणेश नहीं हुआ है। साहित्य ही मनुष्य को भीतर से सुसंस्कृत तथा उन्नत बनाता है और तभी उसका बाह्यरूप भी साफ़ और स्वस्थ दिखाई देता है। और साथ ही बाह्य रूप के साफ़ और स्वस्थ होने से आंतरिकस्वास्थ्य का भी आरंभ होता है। दोनों ही बातें अन्योन्याश्रित हैं। जबकि हमारे देश में नाना भाँति के कुसंस्कारऔर गंदगी वर्तमान है जबकि हमारे समाज का आधा अंग पर्दे में ढका हुआ हैजब कि हमारी नब्बे फ़ीसदीजनता अज्ञान के मलबे के नीचे दबी हुई है तब हमें मानना चाहिए कि अभी दिल्ली बहुत दूर है। हम साहित्यके नाम पर जो कुछ कर रहे हैं और जो कुछ दे रहे हैंउसमें कहीं बड़ी भारी कमी रह गई है। हमारा भीतर औरबाहर आप ही साफ़-स्वस्थ नहीं है। साहित्य की साधना तब तक बाध्य ही रहेगी जब तक हम पाठकों में एकऐसी अदमनीय आकांक्षा जाग्रत  कर दें जो सारे मानव-समाज को भीतर से और बाहर से सुंदर तथा सम्मानयोग्य देखने के लिए सदा व्याकुल रहे। अगर यह आकांक्षा जागृत हो सकी तो हममें से प्रत्येक अपनी-अपनीशक्ति के अनुसार उन सामग्रियों को ज़रूर संग्रह कर लेगा जो उक्त इच्छा की पूर्ति की सहायक हैं। अगर यहआकांक्षा जाग्रत नहीं हुई तो कितनी भी विद्या क्यों  पढ़ी होवह एक जंजाल मात्र सिद्ध होगी औरदुनियादारी और चालाकी का ढकोसला ही बनी रहेगी। जो साहित्यिक-निष्ठा के साथ इच्छा को लेकर रास्तेपर निकल पड़ेगा वह स्वयं अपना रास्ता खोज निकालेगा। साधन की अल्पता से कोई महती इच्छा आज तकनहीं रुकी है। भूख होनी चाहिएएक बार भूख होने पर खाद्य-सामग्री जुट ही जाती है पर खाद्य-सामग्री के भरेरहने पर भूख नहीं लगती है। गरुड़ ने उत्पन्न होते ही कहा, “माँबहुत भूख लगती है।” माता विनता घबराकरविलाप करने लगी कि इस प्रचंड क्षुधाशाली पुत्र को अन्न कहाँ से दें। पिता कश्यप ने आश्वासन देकर कहाथा, “कोई चिंता की बात नहीं। महान् पुत्र उत्पन्न हुआ हैक्योंकि उसकी भूख महान् है।” हमारी भाषा को भीइस समय प्रचंड साहित्यिक क्षुधा वाले महान पुत्र की आवश्यकता है। जब तक हमारी मातारूपी भाषा केगर्भ से ऐसे कृती पत्र पैदा नहीं होतेतभी तक वह विनता की तरह कष्ट पा रही है। जिस दिन ऐसे पुत्र पैदाहोंगेउस दिन मातृभाषा धन्य हो जाएगी।

इस देश में हिंदू हैंमुसलमान हैंब्राह्मण हैंचांडाल हैंधनी हैंग़रीब हैंविरुद्ध संस्कारों और विरोधी स्वार्थोंकी विराट वाहिनी हैं। इसमें पद-पद पर ग़लत समझे जाने का अंदेशा हैप्रतिक्षण विरोधी स्वार्थों के संघर्ष मेंपिस जाने का डर हैसंस्कारों और भावावेशों का शिकार हो जाने का अंदेशा हैपरंतु इन समस्त विरोधों औरसंघातों से बड़ा और सबको छापकर विराज रहा है मनुष्य। इस मनुष्य की भलाई के लिए आप अपने आपकोनि:शेष भाव से देकर ही सार्थक हो सकते हैं। सारा देश आपका है। भेद और विरोध ऊपरी हैं। भीतरी मनुष्यएक हैं। इस एक को दृढ़ता के साथ पहचानने का यत्न कीजिए। जो लोग भेद-भाव को पकड़कर ही अपनारास्ता निकालना चाहते हैंवे ग़लती करते हैं। विरोधी रहे हैं तो उन्हें आगे भी बने ही रहना चाहिएयह कोईकाम की बात नहीं हुई। हमें नए सिरे से सब कुछ गढ़ना हैतोड़ना नहीं हैटूटे को जोड़ना है। भेद-भाव कीजयमाला से हम पार नहीं उतर सकते। कबीर ने हैरान होकर कहा था


कबीर इस संसार को समझाऊँ कैं बार।

पूंछ जु पकड़ें भेद काउतरा चाहै पार॥


मनुष्य एक है। उसके सुख-दुःख को समझनाउसे मनुष्यता के पवित्र आसन पर बैठाना ही हमारा कर्तव्य है।