Friday, 30 December 2022

समाजवादी राजनीति और दक्षिणपंथ का राजनीतिक उभार (जेपी का विशेष सन्दर्भ)

 

समाजवादी राजनीति और दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राजनीतिक उभार

(जयप्रकाश नारायण के विशेष सन्दर्भ में)

संघ एवं भाजपा के नेतृत्व में दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राजनीति का उभार पिछले तीन दशकों की भारतीय राजनीति के सच में तब्दील हो चुका है आज आलम यह है कि दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राजनीति मजबूती के साथ भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में न केवल स्थापित हो चुकी है, वरन् अगले तीन-चार दशकों तक भारत के राजनीतिक भविष्य के निर्धारण में इसकी भूमिका निर्णायक बने रहने की संभावना है, अब यह मायने नहीं रखता है कि वह सत्ता में है, या विपक्ष में। लेकिन, सवाल यह उठता है कि जनवरी,1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या ने जिस दक्षिणपन्थी हिन्दुत्ववादी राजनीति के उभार की प्रक्रिया को अवरुद्ध करते हुए उसे हाशिये पर पहुँचाया, आखिर कैसे उसने खुद को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में इस कदर स्थापित किया कि उसके आगे अन्य सभी राजनीतिक धाराएँ बौनी प्रतीत हो रही हैं? इस आलेख का उद्देश्य लोकनायक जयप्रकाश नारायण और उनके द्वारा आपातकाल के विरोध में शुरु किये गए सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन को केन्द्र में रखते हुए हिन्दुत्ववादी राजनीति के उभार में समाजवादियों की भूमिका का विश्लेषण करना है।    

समाजवादियों द्वारा संविधान-निर्मात्री सभा का बहिष्कार:

समाजवादियों द्वारा संविधान-निर्मात्री सभा के बहिष्कार का लाभ उसमें शामिल दक्षिणपंथियों ने जमकर उठाया। इस ओर इशारा करते हुए अपूर्वानन्द लिखते हैं, “दरअसल, 1947 में लखनऊ से अपने पिता को लिखे एक पत्र में इन्दिरा गाँधी ने खुद काँग्रेस पार्टी, पुलिस और प्रशासन पर आरएसएस की मानसिकता को हावी होते देख अपनी व्यथा व्यक्त की थी।” इतना ही नहीं, सन् 1950 में जब नया संविधान लागू हुआ, तो सोशलिस्ट पार्टी ने उसके कई प्रावधानों: राष्ट्रपति के आपातकालीन अधिकार, दो सदनों वाले विधान-मंडल, राज्यों के बनिस्बत केंद्र को अधिक शक्ति देने, राज्यों की सीमाएँ निर्धारित करने की नीति आदि पर आपत्ति प्रकट करते हुए उसकी कठोर शब्दों में आलोचना की। जुलाई,1950 में सोशलिस्ट पार्टी के मद्रास अधिवेशन में इसके प्रतिनिधियों ने दूसरी संविधान सभा के गठन तक की माँग कर डाली, ताकि एक बेहतर संविधान की रचना की जा सके। यद्यपि जयप्रकाश इस माँग से असहमत थे और उनका यह विचार था कि देश के लोग एक नयी संविधान-सभा के गठन का समर्थन नहीं करेंगे, तथापि उनका यह दृढ मत था कि विभिन्न स्थितियों से निपटने के लिए वर्तमान संविधान में व्यापक फेरबदल आवश्यक होगा। उन्होंने यह आशंका व्यक्त की, “अन्ततः संविधान मृत दस्तावेज़ साबित होगा।”

इस पूरे प्रकरण में जयप्रकाश और समाजवादियों को काँग्रेस से भिन्न लाइन लेते देखा जा सकता है। यह काँग्रेस और समाजवादियों के बीच बढ़ती दूरी की ओर इशारा करता है। आजादी के बाद इसी लाइन को फॉलो करते हुए जयप्रकाश ने यह विचार व्यक्त किया कि समाजवादियों को काँग्रेस छोड़ते हुए विपक्ष की रचनात्मक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। सन् 1948 में अपनी इसी सोच के अनुरूप उन्होंने और डॉ. लोहिया ने काँग्रेस छोड़ने का निर्णय लिया, जबकि उस समय वे काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्य थे और महात्मा गाँधी और मौलाना आज़ाद से लेकर दक्षिणपंथ की ओर रुझान रखने वाले उनके धुर विरोधी सरदार पटेल तक का यह मानना था कि समाजवादियों को काँग्रेस छोड़ने की बजाय नयी सरकार में शामिल होना चाहिए। इसके परिणामस्वरुप कंजर्वेटिव शक्तियों की मजबूती की दिशा में संकेत करते हुए समकालीन इतिहासकार बिपिन चन्द्र लिखते हैं, “समाजवादियों के इस निर्णय ने काँग्रेस के भीतर मौजूद रेडिकल प्रगतिशील शक्तियों को कमजोर किया। इसके कारण जो स्पेस सृजित हुआ, उसे संबद्ध हित-समूहों: सामन्तों एवं ज़मीन्दारों, धनी किसानों और यहाँ तक कि देसी रियासतों के राजकुमारों के द्वारा भरा गया।

पहले लोकसभा-चुनाव के बाद समाजवादियों की बदली रणनीति:

समाजवादियों को यह अपेक्षा थी कि आज़ाद भारत में होने वाले पहले संसदीय चुनाव में उन्हें काँग्रेस के विकल्प के रूप में जनता का समर्थन मिलेगा और इस समर्थन की बदौलत वे विपक्ष की सशक्त एवं प्रभावी भूमिका निभा सकेंगे। लेकिन, पहले लोकसभा-चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन: (10.59% वोट, महज 10 संसदीय सीटें) ने जेपी सहित तमाम समाजवादियों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य किया इस चुनौती से निबटने के लिए सोशलिस्ट पार्टी ने आचार्य जे. बी. कृपलानी की किसान-मजदूर प्रजा पार्टी, जिसका रुझान दक्षिणपंथ की ओर था, के साथ गठबंधन किया जिसके परिणामस्वरूप प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा: PSP) अस्तित्व में आयी। अब यह बात अलग है कि शीघ्र ही जयप्रकाश को काँग्रेस छोड़ने की गलती का अहसास हुआ, और उन्होंने काँग्रेस और तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु के संपर्क स्थापित करने की कोशिश भी की।     

गैर-काँग्रेसवाद का नारा:

दरअसल, 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध तक आते-आते डॉ. राम मनोहर लोहिया का नेहरु-विरोध और नेहरु के बहाने काँग्रेस-विरोध अपने चरम पर पहुँच गया उन्होंने विपक्ष की राजनीति की बागडोर अपने हाथों में लेते हुए गैर-काँग्रेसवाद का नारा दिया और काँग्रेस के विरुद्ध विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चे की स्थापना की दिशा में पहल की। उनकी यह पहल उनके जीते-जी अंज़ाम तक नहीं पहुँच सकी क्योंकि कुदरत ने उन्हें इतनी मोहलत नहीं दी कि वे अपने सपनों को साकार कर सकें। लेकिन, उनकी मौत के ठीक बाद गैर-काँग्रेसवाद की राजनीति ज़मीन पर उतरने लगी और फिर 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में कई राज्यों में संविद सरकारों का गठन हुआ। पर, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गैर-काँग्रेसवाद को अपनी मज़बूत एवं दमदार उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए आपातकाल-विरोधी आन्दोलन और जयप्रकाश के नेतृत्व की प्रतीक्षा करनी पड़ी। 

दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक ताकतों के विरोध का कमजोर पड़ना:

1950 के दशक में समाजवादियों ने पण्डित नेहरु और काँग्रेस पार्टी का विरोध करते हुए दक्षिणपंथी रुझान रखने वाले हिन्दू महासभा एवं जनसंघ की ओर रुझान प्रदर्शित किया यहाँ तक कि उन्होंने लोकसभा-चुनाव,1952 में फूलपुर संसदीय क्षेत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के विरुद्ध हिन्दू महासभा के उम्मीदवार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को समर्थन देने से भी परहेज़ नहीं किया साथ ही, तत्कालीन काँग्रेस सरकार की फिलिस्तीन-नीति के विरुद्ध प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने इजराइल को न केवल समर्थन दिया, वरन् इजराइल की लेबर पार्टी (मापी पार्टी) के साथ निकट सम्बन्ध भी स्थापित करने की कोशिश की, जो राष्ट्रीय आन्दोलन की वैचारिक प्रतिबद्धताओं और आदर्शों के ठीक विपरीत था इस क्रम में सितम्बर,1958 में जयप्रकाश नारायण ने इजराइल का दौरा भी किया था

सन् 1957 में सम्पन्न दूसरे लोकसभा-चुनाव और सन् 1962 में सम्पन्न तीसरे लोकसभा-चुनाव ने सोशलिस्ट पार्टी एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को पृष्ठभूमि में धकेल दिया इस समय तक आते-आते नेहरु से लोहिया की प्रतिद्वंद्विता उनसे चिढ़ के साथ-साथ व्यक्तिगत ईर्ष्या एवं वैमनस्य की हद तक पहुँच गयी। उन्हें लगने लगा कि बिना विपक्ष को एकजुट किये काँग्रेस को पराजित करना मुमकिन नहीं है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया ने गैर-काँग्रेसवाद का नारा दिया और खुद उन्हीं के शब्दों में कहें, तो काँग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए वे ‘शैतान तक से हाथ मिलाने के लिए’ तैयार हो गए। इसके फलस्वरूप सन् 1963 में सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर डॉ. लोहिया ने जनसंघ से चुनावी समझौते के ज़रिये लोकसभा-उपचुनाव में अपनी स्थिति मज़बूत करने की कोशिश की। इसका परिणाम भी सकारात्मक रहा। इस वर्ष चार संसदीय क्षेत्रों में सम्पन्न उप-चुनावों में राजकोट से स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी, अमरोहा से स्वतंत्र उम्मीदवार आचार्य कृपलानी और फर्रुखाबाद से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के डॉ. लोहिया गैर-काँग्रेसी संयुक्त मोर्चे के उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतने में सफल रहे, जबकि जौनपुर से जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय की हार हुई। इस प्रयोग की सफलता ने गैर-काँग्रेसवाद के प्रयोग को नयी धार दी। चौथे लोकसभा-चुनाव,1967 में लोहिया ने इस प्रयोग को पूरे देश में दोहराया इसका फायदा सोशलिस्टों को तो नहीं मिला, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपंथी रुझान रखने वाली स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ ने इसका पूरा-पोरा फायदा उठाया परिणामतः सोशलिस्ट पार्टी एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को पृष्ठभूमि में धकेलते हुए स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ को मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरने का मौका मिला। स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रयोग को अपेक्षित सफलता तो नहीं मिली, पर प्रान्तीय  स्तर पर 9 राज्यों में संयुक्त विधायक दल(संविद) सरकार का गठन इस ओर इशारा करता है कि प्रान्तीय राजनीति में गैर-काँग्रेसवाद के प्रयोग को ज़बरदस्त सफलता मिली और इसने प्रांतीय राजनीति में कांग्रेस के राजनीतिक प्रभुत्व के अवसान की आधारशिला तैयार की जहाँ से काँग्रेस को दोबारा सँभलने एवं वापसी करने का मौका नहीं मिला। ध्यातव्य है कि संविद सरकार में सोशलिस्टों एवं वामपंथियों के साथ-साथ जनसंघ एवं स्वतंत्र पार्टी जैसे दक्षिणपन्थी राजनीतिक दलों की सक्रिय भागीदारी रही।  

आगे चलकर, सन् 1969 में काँग्रेस के विभाजन के बाद जहाँ इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस ने समाजवादी रुझान प्रदर्शित करते हुए खुद को प्रगतिशील एवं समाजवाद के पैरोकार के रूप में प्रस्तुत किया, वहीं असंतुष्ट काँग्रेसियों के द्वारा गठित काँग्रेस (संगठन) को दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी साबित करने की कोशिश की, ताकि काँग्रेस की आन्तरिक लड़ाई को वैचारिक लड़ाई का रूप देते हुए उनके बरक्श अपनी राजनीतिक स्थिति मज़बूत की जा सके। ऐसा नहीं है कि इन्दिरा गाँधी का यह आरोप पूरी तरह से गलत था, इसमें कुछ सच्चाई भी थी, जो समय के साथ साबित होती चली गयी। आगे चलकर, काँग्रेस (संगठन) के इन नेताओं ने जनता पार्टी के गठन में नेतृत्वकारी भूमिका निभायी

लोहिया के बाद सोशलिस्ट राजनीति और जेपी:

लोहिया और जेपी समाजवाद के रास्ते पर सहयात्री हो सकते थे, लेकिन कई कारणों से दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ती गईं। सन् 1954 में ही जेपी ने खुद को सत्ता की राजनीति और सक्रिय दलगत राजनीति से अलग कर लिया था। इस प्रकार वे लम्बे समय से सक्रिय राजनीति से दूर राजनीतिक वनवास झेल रहे थे, लेकिन लोहिया की असामयिक मौत ने उन्हें विचलित किया। वे सोशलिस्ट मूवमेंट के भविष्य के साथ-साथ देश के राजनीतिक एवं आर्थिक परिदृश्य को लेकर चिन्तित हो उठे और इस सन्दर्भ में उनकी बेचैनी बढ़ती चली गयी। उधर, मार्च,1971 में होने वाले मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर से सोशलिस्टों: संसोपा एवं प्रसोपा की बुरी तरह से पराजय हुई

इस पराजय ने सोशलिस्टों को एक बार फिर से अपनी रणनीति पर विचार के लिए विवश किया उन्होंने गुजरात एवं बिहार के छात्र-आन्दोलन द्वारा सृजित परिस्थितियों और तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के साथ जेपी के अहम् के टकराव की पृष्ठभूमि में छात्र आन्दोलन को मिलने वाले जेपी के नेतृत्व का लाभ उठाते हुए संगठित होने की कोशिश की इसी पृष्ठभूमि में बिहार में उग्र एवं हिंसक होते छात्र-आन्दोलन ने जेपी को अपना राजनीतिक वनवास ख़त्म करते हुए उस राजनीतिक शून्य को भरने के लिए विवश किया जो लोहिया की मौत के कारण सृजित हुआ था। इस प्रकार जेपी का एक बार फिर से सक्रिय राजनीति में प्रवेश हुआ और फिर जो हुआ, वह इतिहास है।

काँग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की बेचैनी:

काँग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए संघ एवं जनसंघ से पॉलिटिकल अंडरस्टैंडिंग कायम करने और छात्र-आन्दोलन में उनका सहयोग हासिल करने की सोशलिस्टों की बेचैनी को इस बात से समझा जा सकता है कि पिछड़ी जातियों को केन्द्र में रखते हुए सामाजिक न्याय की जिस राजनीति को आगे बढ़ने का काम सोशलिस्टों ने किया, आरएसएस और जनसंघ, जिसका सवर्णवादी रुझान जगजाहिर है, के दबाव में सोशलिस्टों ने हरिजनों के मंदिर-प्रवेश आंदोलन को ठन्डे बस्ते में डाल दिया। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सन् 1975 में जयप्रकाश नारायण द्वारा सेना एवं पुलिस बलों से बगावत की जो अपील की गयी, वह संघ, जनसंघ और एबीवीपी की संस्कृति के कहीं अधिक अनुरूप थी और इसने इन संगठनों के चरित्र के निर्धारण में अहम् भूमिका निभायी। इसे आजादी के मुहाने पर खड़े देश में होने वाले नौसैनिक विद्रोह के मसले पर तद्युगीन राष्ट्रीय नेतृत्व के नज़रिए के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

संघ की रणनीति और जेपी:

आपातकाल-विरोधी आन्दोलन के दौरान संघ की रणनीति के तहत् जनसंघ ने पहले जनता पार्टी में शामिल होकर भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में अपनी धमाकेदार एंट्री सुनिश्चित की। कहा तो यहाँ तक जाता है कि संघ(RSS) और जनसंघ का समर्थन हासिल करने के लिए जयप्रकाश इतने बेचैन थे कि उन्होंने धर्मनिरपेक्ष ताकतों द्वारा आरएसएस की आलोचना को ख़ारिज करते हुए संघ के बचाव में अपनी साख एवं विश्वसनीयता तक को दाँव पर लगा दिया था। चूँकि उनकी इस बेचैनी को संघ और जनसंघ के लोग समझ रहे थे, इसीलिए उन्होंने रणनीति के तहत् जयप्रकाश और उनके आन्दोलन का इस्तेमाल अपनी व्यापक राजनीतिक स्वीकार्यता को सुनिश्चित करने और अपने जनाधार को मज़बूत करने के लिए किया। इसके लिए जनसंघ ने अपनी रणनीति बदलते हुए लोकसभा-चुनाव, 1977 के दौरान न तो अपने झंडे का इस्तेमाल किया और न ही अपनी कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा पर जोरदार प्रचार किया। ऐसा माना जाता है कि जेपी की शर्तों और इस आन्दोलन के प्रति जनता के बढ़ते हुए आकर्षण ने जनसंघ को इस बात के लिए विवश किया कि अगर वह इस आन्दोलन में अन्तर्निहित सम्भावनाओं का अपने लिए दोहन करना चाहता है, तो वह अपनी रणनीति बदले। इसी आलोक में जनसंघ के सभी उम्मीदवारों ने जनता पार्टी के सदस्यता फॉर्म पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कहा गया था , “मैं महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित मूल्यों और आदर्शों में पूर्ण विश्वास व्यक्त करता हूँ और समाजवादी राज्य की स्थापना के लिए खुद को समर्पित करता हूँ।” समकालीन चिन्तक अपूर्वानन्द लिखते हैं, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीतिक वैधता और सम्मान हासिल करने के लिए जेपी के आंदोलन का इस्तेमाल करना चाहता था। और, उसने इसे हासिल किया भी, जबकि वास्तविकता यह है कि जब जेपी और उनके कई सहयोगी जेल में थे, आरएसएस के प्रमुख बालासाहेब देवरस, इन्दिरा गाँधी की प्रशंसा करते हुए पत्र लिख रहे थे, उन्हें पूरा समर्थन देने का वादा कर रहे थे, और उनसे अपने संगठन पर लगाए गए प्रतिबंध को वापस लेने की गुहार लगा रहे थे।” 

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि गैर-काँग्रेसवाद के दायरे में जनसंघ को लाने की लोहिया और जयप्रकाश की ओर से जो कोशिशें हुई, उसका मधु लिमये सहित कई सोशलिस्टों ने खुलकर विरोध किया था लेकिन, काँग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की बेचैनी कुछ ऐसी थी कि न तो डॉ. लोहिया को जनसंघ से परहेज था और न ही जयप्रकाश को। वे तो काँग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, और इसीलिए डॉ. लोहिया द्वारा निर्मित दबाव के कारण संयुक्त मोर्चे में जनसंघ का भी शामिल होना संभव हो सका। 

आन्दोलन में संघ को तवज्जो देने की रणनीति का परिणाम:

स्पष्ट है कि सन् 1967 में संविद सरकार के गठन के साथ ही संघ की नकारात्मक छवि कमजोर पड़ने लगी और आपातकाल-विरोधी आन्दोलन ने इसे और अधिक तेज करते हुए उसकी व्यापक स्वीकार्यता सुनिश्चित की जेपी आन्दोलन में उनके सहयोगी और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ शरद यादव भी स्वीकार करते हैं, “जेपी द्वारा भारतीय जनसंघ की स्वीकृति ने उसकी अस्पृश्यता को समाप्त किया और आरएसएस पर महात्मा गाँधी के हत्यारे होने के लम्बे समय से चले आ रहे ठप्पे को हटाने का काम किया।” अपनी पुस्तक ‘इंडिया’ज साइलेंट रिवॉल्यूशन’ में क्रिस्टोफर ज़ैफ्रेलॉट लिखते हैं, 1970 के दशक तक विरोधी दलों में जनसंघ से जुड़ने की सीमित कोशिशें हुईं कुछ तो गैर-काँग्रेसवाद की रणनीति के फ्रेमवर्क में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने पहल की जिसके परिणामस्वरूप 1960 के दशक में हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में संविद सरकार का गठन हुआ, लेकिन वे अल्पजीवी साबित हुईं अधिकांश राजनीतिक शक्तियों के लिए जनसंघ एक सांप्रदायिक पार्टी थी जो उस धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था में फिट नहीं बैठती थी जिसे भारतीय गणतंत्र ने सन् 1950 में अपनाया था। विरोधी दलों के वैधानिक मोर्चे में संघ परिवार का पहला महत्वपूर्ण प्रवेश तब संभव हुआ जब 1970 के दशक के आरम्भ में जयप्रकाश के तथाकथित बिहार आन्दोलन की 24 सदस्यीय गवर्निंग बॉडी ‘छात्र संघर्ष समिति’(CSS) में एक-तिहाई सदस्य आरएसएस के छात्र विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से लिए गए, जबकि समाजवादियों के बीच से महज 4, गाँधीवादी तरुण शान्ति सेना से महज 2 और काँग्रेस (संगठन) से महज 2 सदस्यों को शामिल किया गया।” अपनी पुस्तक ‘जेपी टू बीजेपी’ में वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह लिखते हैं, “यह आरएसएस के प्रति जेपी के उस रुख के ठीक विपरीत था जो उन्होंने आजादी के ठीक बाद अपनाया था।” आगे वे लिखते हैं, “आरम्भ में जेपी जनसंघ के साथ काम करने से हिचक रहे थे, लेकिन गोविन्दाचार्य ने जनसंघ और सोशलिस्टों के बीच ब्रिज का काम करते हुए उनकी इस हिचक को दूर किया। ..... चूँकि एबीवीपी मज़बूत ताकत थी, इसीलिए जेपी को इस बात का भरोसा था कि एबीवीपी के समर्थन से छात्र आन्दोलन को व्यापकता एवं गहराई प्रदान की जा सकती है।” दूसरे शब्दों में कहें, तो उस दौर जेपी और आरएसएस-जनसंघ, दोनों ने एक दूसरे के इस्तेमाल की रणनीति अपनायी, और परिणाम यह बतलाते हैं कि इस क्रम में जेपी इस्तेमाल होते चले गए। रणनीति के तहत् आरएसएस ने उनका प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया और जेपी ने चाहे-अनचाहे अपना इस्तेमाल होने दिया। और, ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं था, क्योंकि जेपी अन्ततः एक व्यक्ति थे और आरएसएस ज़मीनी धरातल पर मज़बूत संगठन, जिसके अपने समर्पित कैडर थे जो ज़मीन पर अत्यंत सक्रिय थे और जिसके कई विंग थे जो अपनी मज़बूत एवं प्रभावी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी करने एवं किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। यही कारण है कि जनता पार्टी में शामिल होने के बावजूद जनसंघ से जुड़े लोगों ने संघ के प्रति अपनी निष्ठा बनाये रखी और जब उपयुक्त समय आया, तब जनता पार्टी के विखंडन को सुनिश्चित किया इसके परिणामस्वरूप ‘भारतीय जनता पार्टी’ जनसंघ के नए अवतार के रूप में सामने आया।

संघ का उभार:

1970 के दशक में जेपी ने जो प्रयोग किया, उसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनसंघ 70 संसदीय सीटों के साथ जनता पार्टी के भीतर सबसे बड़े समूह के रूप में उभरकर सामने आया भले ही गैर-काँग्रेसवाद का यह प्रयोग दीर्घकालीन सफलता हासिल करने में असफल रहा हो, पर इसने न केवल संघ और जनसंघ की पोलिटिकल मैनस्ट्रीमिंग में अहम् भूमिका निभायी, वरन् इसने ही जनसंघ/भाजपा और गैर-भाजपा विरोधी दलों के बीच ऐसी अंडरस्टैंडिंग और ऐसी केमिस्ट्री डेवेलप की जिसकी पृष्ठभूमि में सन् 1984 में दो संसदीय सीटों तक सिमट चुकी भाजपा को एक बार फिर से राजनीतिक वापसी का मौक़ा मिला। फलतः सन् 1989 में एक बार फिर से गैर-काँग्रेसवाद का जो प्रयोग हुआ, सन् 1989 में उस प्रयोग ने भाजपा को दो संसदीय सीटों से वह 89 संसदीय सीटों पर पहुँच गयी और तब से अबतक इसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा सन् 1991 में इसने 121 संसदीय सीटों पर विजय हासिल की, तो सन् 1996 में 163 संसदीय सीटों पर जीत हासिल करते हुए अपनी सरकार बनायी, अब यह बात अलग है कि वह सरकार महज 13 दिन ही टिक सकी सन् 1998 इसने 183 संसदीय सीटों पर और सन् 1999 में 189 सीटों पर जीत हासिल करते हुए लगातार छह वर्षों तक देश को नेतृत्व प्रदान किया लेकिन, सन् 2014 में गठबंधन के इस दायरे से बाहर निकलते हुए भाजपा ने 282 संसदीय सीटों पर जीत हासिल करके और सन् 2019 में 303 संसदीय सीटों पर जीत हासिल करते हुए खुद अपने ही दम पर बहुमत सरकार का गठन किया ध्यातव्य है कि सन् 1984 के बाद पहली बार किसी दल ने लोकसभा में बहुमत हासिल करते हुए अपनी सरकार बनायी

संघ की वादाखिलाफी:

दरअसल, जनसंघ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) का ही पॉलिटिकल विंग था जिसके ज़रिए संघ अपने राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रयत्नशील था, इसीलिए जनसंघ के सदस्य राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के भी सदस्य हुआ करते थे। यही कारण है कि आन्दोलन शुरू करते वक़्त जेपी ने भारतीय जनसंघ के नेताओं को इसी शर्त पर आन्दोलन में शामिल किया और अपने साथ मंच पर बिठाया कि वे संघ(RSS) की सदस्यता पूरी तरह से छोड़ देंगे। अपने आलेख ‘आरएसएस: डेप्थ एंड ब्रेअद्थ’ (2022) में देवपूर्णा महादेव लिखते हैं, “जब जनता पार्टी का गठन हो रहा था, उस समय जनसंघ से जुड़े नेताओं: अटल बिहारी बाजपेयी एवं लाल कृष्ण आडवाणी और तत्कालीन संघ प्रमुख बाला साहब देवरस ने जेपी को इस बात को लेकर आश्वस्त किया था कि जनसंघ से जुड़े नेता आरएसएस की सदस्यता छोड़ देंगे। जेपी ने उनके वादों पर भरोसा किया, लेकिन उन्होंने अपना यह वादा कभी पूरा नहीं किया और आरएसएस से अपना जुड़ाव बनाये रखा।” इसी वादे के आलोक में सन् 1978 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने यह कहते हुए जनसंघ के सदस्यों की दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के लोग एक ही साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते, इसीलिए उन्हें आरएसएस की सदस्यता छोड़नी चाहिए। लेकिन, जनसंघ के नेताओं ने ऐसा करने से मना कर दिया जिसके फलस्वरूप जनता पार्टी का अंतर्कलह गहराता चला गया। अन्ततः अपने गठन के महज दो वर्षों के भीतर जनता पार्टी की नवगठित सरकार बिखर गयी। अपने आलेख ‘भ्रम पैदा करने का नाकाम प्रयास’ में रमाशंकर सिंह इस सन्दर्भ में संघ और जनसंघ के अंतर्सम्बंधों तथा संघ की रणनीति की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक रणनीति थी और जनसंघ उस रणनीति की पूर्ति का राजनीतिक माध्यम था। संघ अपनी राजनीतिक-सामाजिक अस्पृश्यता को समाप्त करना चाहता था। इसलिये उसने योजनाबद्ध तरीके से डॉ. लोहिया की 'गैर-काँग्रेसवाद' की रणनीति और जेपी के 'सम्पूर्ण क्रान्ति' आंदोलन में जनसंघ और अपने युवा संगठन (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) को शामिल करा दिया था। संघ अपनी रणनीति में सफल रहा और जब उसका उद्देश्य पूरा हो गया, तब 'जनता पार्टी' को तोड़कर उन्होंने अपनी अलग 'भारतीय जनता पार्टी' बना ली।”

संघ की स्वीकार्यता को सुनिश्चित करने में जेपी की भूमिका:

काँग्रेस और श्रीमती इन्दिरा गाँधी की फासीवादी कार्यशैली को प्रभावी चुनौती देने और उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए जयप्रकाश को जिस प्रकार के सहयोग एवं संगठन की ज़रुरत थी, उसे उपलब्ध करवा पाने में गैर-जनसंघ विकल्प असमर्थ था। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा सहयोग एवं समर्थन उपलब्ध करवा पाने में केवल और केवल संघ एवं जनसंघ ही समर्थ था। इस ओर इशारा करते हुए समकालीन चिन्तक अपूर्वानन्द लिखते हैं, “जेपी .... अपने उद्देश्य के लिए एक सेना चाहते थे और इसे केवल आरएसएस ही प्रदान कर सकता था।” लेकिन, संघ और जनसंघ: इन दोनों को लेकर जयप्रकाश की अपनी आशंकाएँ थीं और उन आशंकाओं के निवारण के लिए जयप्रकाश ने संघ के समक्ष कुछ शर्तें रखीं जिसे उसने स्वीकार कर लिया। जैसे ही संघ की ओर से उन आशंकाओं का निवारण किया गया, जयप्रकाश को उसके साथ सहयोग से परहेज़ नहीं रह गया।

इस आलोक में आगे के घटनाक्रमों पर गौर करें, तो मार्च,1973 में ‘छात्र संघर्ष समिति’(CSS) ने जयप्रकाश, जो पहले से ही आरएसएस के संपर्क में थे, से सम्पर्क साधा और जयप्रकाश ने एम. एस. गोलवलकर की स्मृति में आयोजित शोकसभा की अध्यक्षता की। इससे पूर्व भी, जयप्रकाश सन् 1959 में संघ की एक शिविर में जा चुके थे। सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के दौर में संघ के करीब आने पर जयप्रकाश ने भारतीय जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताओं-कार्यकर्ताओं के समर्पण, ईमानदारी एवं निष्ठा को बड़े ही करीब से देखा, और इसने उन्हें गहरे स्तर पर प्रभावित भी किया। इसलिए उन्होंने संघ के अनेक कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण दायित्व भी सौंपे। अपने नेतृत्व में चल रहे छात्र एवं युवा संघर्ष वाहिनी का राष्ट्रीय संयोजक उन्होंने एबीबीपी के नेता और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष अरुण जेटली को बनाया, तो आपातकाल में सरकारी आतंक के खिलाफ जनजागरण हेतु बनी 'लोक संघर्ष समिति' का महामंत्री उन्होंने संघ के प्रचारक और जनसंघ के लोकप्रिय नेता नानाजी देशमुख को बनाया। इसके बाद नानाजी देशमुख ने बतौर उनके सहायक आन्दोलन को संगठित एवं आयोजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।” इस पूरे प्रकरण ने यह साबित कर दिया कि अब भारतीय राजनीति में जनसंघ अस्पृश्य नहीं रह गया।

इस बात पर अंतिम रूप से मुहर तब लग गयी जब जयप्रकाश इसके वार्षिकोत्सव में शामिल हुए और उसमें उन्होंने संघ की आलोचनाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया, “अगर आरएसएस फासीवादी और साम्प्रदायिक है, तो मैं भी फासीवादी और साम्प्रदायिक हूँ।” और फिर, इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है। ऐसा कर जयप्रकाश ने संघ एवं जनसंघ के साथ सहयोग के अपने निर्णय की आलोचना करने वालों को जवाब दिया था। ध्यातव्य है कि जेपी के करीबी सहयोगियों ने उन्हें उस सम्मेलन से दूर रहने की सलाह दी थी लेकिन, इस मसले पर जेपी ने उनकी एक न सुनी। उन्होंने न केवल इसमें भाग लिया, बल्कि उपरोक्त बयान भी जारी किया जिसका इस्तेमाल संघ और उसके समर्थकों द्वारा चरित्र प्रमाण-पत्र के रूप में किया जाता है

आपातकाल के बाद जेल से छूटने पर जेपी ने मुम्बई में आमसभा को सम्बोधित करते हुए कहा था, मैं आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूँ कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फ़ासिस्ट लोग हैं, साम्प्रदायिक हैं, ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं। देश के हित में ली जाने वाली किसी भी कार्ययोजना में वे लोग किसी से पीछे नहीं हैं। उन लोगों पर ऐसे आरोप लगाना उन पर कीचड़ फेंकने के नीच प्रयास मात्र हैं। जेपी आन्दोलन में संघ की भूमिका का जिक्र करते हुए दिसंबर,1976 में दि इकोनोमिस्ट लिखा, “आरएसएस विश्व का अकेला गैर-वामपंथी क्रांतिकारी संगठन है।” आगे चलकर, सन् 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद जेपी ‘भारत सेवक समाज’ द्वारा पटना में 3 नवंबर को आयोजित आरएसएस के कार्यकर्ताओं और वालंटियर्स के कैम्प में शामिल हुए और उस कैम्प को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “नए भारत के निर्माण की चुनौती को स्वीकार किये हुए इस क्रान्तिकारी संगठन से मुझे बहुत आशा है। आप में उर्जा है, निष्ठा है और आप राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं।” अब यह बात अलग है कि जेपी की यह आशा दुराशा साबित हुई। अपने इस निर्णय के कारण जेपी को अपने जीवन-काल में ही आलोचना झेलनी पड़ी और उन पर संघ को एक मंच उपलब्ध करवाने और उसे राजनीतिक स्वीकृति दिलवाने का आरोप लगा। 

आकलन गलत, न कि मंशा:

आज़ादी के बाद दक्षिणपंथ के प्रति जयप्रकाश का विरोध भले ही नरम पड़ा हो और उन्होंने ज़रुरत पड़ने पर दक्षिणपंथ के साथ सहयोग से परहेज़ नहीं किया हो, लेकिन इसके आधार पर यह कहना कि अन्तिम समय में जयप्रकाश दक्षिणपंथ एवं सांप्रदायिकता की ओर उन्मुख होते चले गए, जेपी और उनकी मूलवर्ती समाजवादी चेतना के साथ अन्याय होगा  इस पूरे प्रकरण में जेपी के पक्ष को भी सुना और समझा जाना चाहिए। साथ ही, इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आकलन का सही या गलत होना एक चीज है और मंशा का सही या गलत होना दूसरी चीज। हो सकता है कि किसी का आकलन गलत साबित हो जाए, पर इसका यह मतलब नहीं है कि उसकी मंशा भी गलत ही थी। ये बातें जेपी पर भी लागू होती हैं।

आपातकाल के दौरान जेपी ने जेल से ही बिहार के लोगों को पत्र के माध्यम से सम्बोधित किया और संघ के सहयोग से सम्बंधित अपने मकसद की ओर इशारा करते हुए लिखा, “उन्हें (आरएसएस और जनसंघ को) सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन में शामिल करके मैंने उन्हें गैर-सांप्रदायिक बनाने की कोशिश की है।” और, ऐसा नहीं है कि उनकी यह कोशिश सैद्धान्तिक धरातल और पत्र-व्यवहार तक सीमित थी। उन्होंने उसी शर्त पर बिहार आन्दोलन को नेतृत्व देना स्वीकार किया जब इसमें भाग लेने वाले राजनीतिक दल अपने-अपने झंडे और बैनर पीछे छोड़कर इसमें भाग लें। इसी आलोक में अपने नेतृत्व में संसद के सामने प्रदर्शन से ठीक पहले उन्होंने जनसंघ की एक सभा से कहा था कि उसके सदस्य भगवा टोपी नहीं पहनेंगे और न ही अपना झंडा लहराएँगे। जो कोई भी उनकी इस शर्त को स्वीकार करने के लिए तैयार था, उन्होंने उसका स्वागत करते हुए उससे हरसंभव सहयोग लिया। हाँ, यह ज़रूर है कि गैर-जनसंघ विपक्ष की अस्त-व्यस्तता एवं बिखराव के कारण कैडर-आधारित आरएसएस-जनसंघ पर उनकी निर्भरता समय के साथ बढ़ती चली गयी और वह निर्भरता उससे कहीं अधिक थी जिसका उन्होंने अनुमान लगाया था। 

इस पूरे प्रकरण में जेपी का आकलन गलत था। वे संघ एवं जनसंघ के वास्तविक चरित्र को समझ पाने और उसकी वास्तविक ताक़त का अनुमान लगा पाने में असमर्थ रहे जिसके कारण वे इस मुगालते में रहे कि अन्ततः वे आरएसएस और जनसंघ को सांप्रदायिकता से मुक्त करने में सफल होंगे। लेकिन, परिस्थितियों ने उन्हें संघ के चँगुल में फँसा दिया और इसके परिणामों ने यह सबित कर दिया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वास्तविक स्वरूप को पहचानने में जेपी ने ऐतिहासिक भूल की। उनकी इस भूल की बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ रही है, और भविष्य में इसकी कितनी कीमत कितने समय तक चुकानी पड़ेगी, इसके बारे में अभी अनुमान लगा पाना मुश्किल है। स्पष्ट है कि गाँधी-हत्या षड़यंत्र में संघ की संलिप्तता की प्रबल आशंका और इसकी पृष्ठभूमि में उस पर प्रतिबंध के बावजूद सन् 1967 में गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर संयुक्त मोर्चे में संघ को शामिल करके समाजवादियों ने जो भूल की, वह जेपी आन्दोलन के समय में दोहराई गई।

साम्प्रदायिक एजेंडे वाली संघी राजनीति के समर्थक नहीं:

यद्यपि जेपी में वैचारिक निरंतरता का अभाव था और इसीलिए उनमें वैचारिक अस्पष्टता दिखती है, तथापि उन्होंने कभी भी संघ की सांप्रदायिक एजेंडे वाली राजनीति को स्वीकार नहीं किया, तब भी नहीं जब वे संघ के करीब जाते दिखे। सही मायने में, संघ और जेपी वैचारिक धरातल पर दो भिन्न छोरों पर मौजूद थे। हिन्दुत्व के मसले पर उनकी सोच तो संघ की सोच से सीधे-सीधे टकराती है:

“जो लोग भारत को हिन्दुओं के साथ और भारतीय इतिहास को हिन्दू इतिहास के साथ सम्बद्ध करने का प्रयास करते हैं, वे भारत की महानता और भारतीय इतिहास एवं सभ्यता के महात्म्य से उसे दूर कर रहे हैं। वास्तव में ऐसे व्यक्ति स्वयं हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के दुश्मन हैं। वे न केवल महान हिन्दू धर्म को नीचा दिखाते हैं और उसकी कैथोलिकता के साथ-साथ सहिष्णुता और सौहार्द्र की भावना को नष्ट करते हैं, बल्कि वे उस राष्ट्र के ताने-बाने को भी कमजोर एवं नष्ट करते हैं, जिसमें हिन्दू बहुसंख्यक हैं।

जयप्रकाश नारायण से नजदीकी तौर पर जुड़े रामवृक्ष बेनीपुरी अपनी पुस्तक ‘जयप्रकाश की विचारधारा’ में लिखते हैं, “जो लोग हिन्दू राज्य की बात करते हुए आरएसएस में युवाओं की भर्ती कर रहे हैं, उनसे पूछिए कि अगर पहले या अभी हिन्दू राज्य नहीं था/है? ... एक व्यक्ति जो मुझसे दिल्ली आया, उसने मुझसे पूछा कि हिन्दू राज्य का मतलब राम-राज्य है। मुझसे कहा गया कि राम-राज्य की अवधारणा पर आधारित राज्य अपने पड़ोसियों का घर नहीं जला सकता। ..... आरएसएस के अंतर्गत गरीब, स्कूल एवं कॉलेज जाने वाले कुछ छात्रों समेत युवा छात्र, अल्प समय के लिए काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर और कामगारों की भर्ती की जा रही है। ये असहाय लोग इस बात से वाकिफ़ नहीं हैं कि संघ के पीछे कौन-सी शक्तियाँ काम कर रही हैं। किसी भी राजा ने देश की आजादी के लिए काम नहीं किया और इसके उलट वे अंग्रेजों के वफ़ादार बने रहे।”      

उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के मसले जो कुछ लिखा, वह  हिन्दू राष्ट्र के मसले पर संघ के रूख को खारिज करता है,

“राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लंबे संघर्ष के दौरान भारतीय राष्ट्रीयता की स्पष्ट अवधारणा उभरकर सामने आयी जो अपने स्वरुप में एकल, सामासिक एवं गैर-सांप्रदायिक है। वे सभी लोग, जो विभाजनकारी और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की बात करते थे, इसलिए राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान आकार ग्रहण करने वाले इस राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर थे। आज हम अलगाव एवं वैमनस्य पर आधारित जिस राष्ट्रवाद के बारे में सुनते हैं, वह स्वतंत्रता-संग्राम के लोकाचार और उन सभी लोगों के विश्वास के खिलाफ है जिन्होंने इसे विकसित करने में मदद की।”

इसी प्रकार साम्प्रदायिकता के मसले पर जेपी बहुत ही स्पष्ट थे। वे सभी प्रकार की साम्प्रदायिकता, चाहे वह अल्पसंख्यक समुदाय की हो या फिर बहुसंख्यक समुदाय की, के विरुद्ध थे और उसके खतरों से वाकिफ़ थे, लेकिन उन्हें इस बात को लेकर तनिक भी संदेह नहीं था कि किसी देश में बहुसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता कहीं अधिक घातक है। वे लिखते हैं:

“यद्यपि लगभग हर धार्मिक समुदाय के पास साम्प्रदायिकता का अपना अलग मॉडल था, तथापि हिन्दू साम्प्रदायिकता अन्य की तुलना में कहीं अधिक घातक थी क्योंकि हिन्दू साम्प्रदायिकता को आसानी से भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और इसके सभी विरोधों को राष्ट्र-विरोधी घोषित किया जा सकता है।”

1950 के दशक में स्वतंत्रता को अपने ‘दिल की धड़कन’ बतलाते हुए जेपी ने यह घोषणा की,

“स्वतंत्रता मेरे जीवन के प्रकाश-स्तम्भ में से एक बन गई और यह तब से बनी हुई है। ... सबसे महत्वपूर्ण इसका मतलब मानव-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, मस्तिष्क की स्वतंत्रता और आत्मा की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता मेरे जीवन का जुनून बन गया है और मैं भोजन के लिए, सुरक्षा के लिए, समृद्धि के लिए, राज्य के वैभव के लिए या किसी और चीज के लिए इससे समझौते हेतु तैयार नहीं हूँ।” इसीलिए संघ और दक्षिणपंथ के राजनीतिक उभार के लिए जयप्रकाश को जिम्मेवार मानने वाले अपूर्वानन्द लिखते हैं, “जेपी आरएसएस के उतने ही विरोधी थे, जितने इन्दिरा गाँधी।” वे यह भी लिखते हैं, जयप्रकाश के बारे में यहाँ तक कहा जाता है कि गाँधी ने एक बार उनसे कहा था कि वह, नारायण, उनके सच्चे अनुयायी थे क्योंकि वे अंग्रेजों की विरासत को नष्ट करना चाहते थे, जबकि नेहरू केवल अंग्रेजों को हटाना चाहते थे, बल्कि उनकी विरासत को आगे बढ़ाना चाहते थे।” लेकिन, जेपी ने साध्य को तवज्जो देते हुए साधन की पवित्रता के सन्दर्भ में गाँधीवादी आग्रह की अनदेखी की जिसकी कीमत उन्हें भी भुगतनी पड़ी और देश को भी। लेकिन, इतना तो स्पष्ट है कि वैचारिक धरातल पर भी जेपी का संघ और जनसंघ से दूर-दूर तक कोई मेल नहीं था

निष्कर्ष:

स्पष्ट है कि 1960 के दशक के मध्य में और यहाँ तक कि सन् 1970 के दशक के मध्य में भी जनसंघ तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य में बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं थी, लेकिन 1960 के दशक में डॉ. लोहिया और फिर 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण ने गैर-काँग्रेसवाद के नाम पर हिन्दुत्ववादी रुझान रखने वाले जनसंघ जैसे सांप्रदायिक संगठनों से समझौता करते हुए न केवल उसकी व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता का आधार तैयार किया, वरन् उसकी पोलिटिकल मेनस्ट्रीमिंग में भी अहम् भूमिका निभाते हुए भारतीय राजनीति के संप्रदायीकरण में निर्णायक भूमिका निभायी। इस सन्दर्भ में रमाशंकर सिंह लिखते हैं, “दरअसल, डॉ. लोहिया विपक्ष के बिखरे हुए वोटों को संयुक्त कर काँग्रेस को पराजित करना चाहते थे। उस समय काँग्रेस इतनी अधिक शक्तिशाली थी कि बिखरा हुआ विपक्ष उसे अपदस्थ करने की स्थिति में नहीं था। ... इसी तरह जेपी भी बिहार आंदोलन में संघ की संगठन क्षमता का उपयोग करना चाहते थे।” लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि जयप्रकाश की विचारधारा बदल गयी और अपनी जीवन के अन्तिम दौर में वे दक्षिणपंथी सम्प्रदायवाद की ओर उन्मुख हुए। दरअसल उनके उद्देश्य पाक थे। उनकी मंशा को लेकर संदेह नहीं किया जा सकता। लेकिन, उन्होंने गलत साधनों के सहारे अपने लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश की और इस क्रम में संघ के सन्दर्भ में उनका आकलन गलत साबित हुआ। अन्ततः व्यक्ति पर संगठन भारी पड़ा। इसके परिणामस्वरूप संघ की न केवल राजनीतिक-सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी, वरन् वह मज़बूत आधार तैयार हुआ जिसने संघ की राजनीति को टेकऑफ स्टेज तक पहुँचाया। इसमें जो भी थोड़ी-बहुत शंका की गुँजाइश थी, उसे सन् 1989 में राष्ट्रीय स्तर पर गैर-काँग्रेसवाद के दूसरे प्रयोग के ज़रिये जयप्रकाश के समाजवादी शिष्यों ने निरस्त कर दिया। और, 1990 के दशक में आकर हालात यहाँ तक पहुँच गए कि समाजवादियों ने दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतों की पिछलग्गू वाली भूमिका स्वीकार करते हुए उसे न केवल मुख्यधारा में ले जाकर मजबूती से स्थापित किया, वरन् अपने ही दम पर बहुमत प्राप्त करने की स्थिति में भी पहुँचाया जिसकी बदौलत आज भाजपा और संघ सत्ता के शीर्ष पर वर्चस्वशाली भूमिका में मौजूद है। विनोद कुमार लिखते हैं, “जयप्रकाश नारायण को इन्दिरा गांधी के शासन के खिलाफ अपने आंदोलन में शामिल करने के बाद आरएसएस और जनसंघ (अब भाजपा) ने जो वैधता हासिल की, उसका आज भी दोहन किया जा रहा है।” इस क्रम में इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जयप्रकाश को भी अपनी इस भूल का अहसास हुआ, लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी।

लेकिन, सवाल यह उठता है कि दक्षिणपंथ के इस उभार के लिए केवल डॉ. लोहिया और जयप्रकाश जैसे समाजवादियों को ही दोष क्यों दिया जाता है? क्यों उन्हीं की जिम्मेवारी की बात की जाती है? क्यों नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की भी चर्चा की जाती हैं जिन्होंने सन् 1963 में संघ के 3,000 स्वयंसेवकों को यूनिफ़ॉर्म में गणतंत्र-दिवस समारोह में भाग लेने की अनुमति दी? यहाँ तक कि सन् 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के आमंत्रण पर संघ के पदाधिकारियों ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में भाग लिया। इसी तरह वामपंथियों ने भी परोक्षतः जनसंघ/भाजपा से हाथ मिलाने से परहेज़ नहीं किया, सन्दर्भ चाहे सन् 1969 में संविद सरकार के गठन का हो या फिर सन् 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को भाजपा की तरह ही बाहर से समर्थन देने का। इन दोनों अवसरों पर वामपंथ और दक्षिणपंथ एक दूसरे के साथ जुगलबन्दी करते दिखाई पड़ते हैं। इतना ही नहीं, पिछले तीन दशकों के उदारवाद और नव-आर्थिक उदारवाद की विफलता ने किस प्रकार उससे मोहभंग को जन्म दिया और दक्षिणपंथ ने वैश्विक स्तर पर बेहतर रणनीति के सहारे इसे अपने पक्ष में भुनाते हुए अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूती प्रदान की, इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

स्रोत-सामग्री;

1.  Blunders of the Communists and the Socialists ; By Qurban Ali

2.  ‘India’s Silent Revolution’: Christopher Jaffrelot

3.  JP To BJP: Santosh Singh

4.  भ्रम पैदा करने का नाकाम प्रयास’: रमाशंकर सिंह

5.  जयप्रकाश नारायण की ऐतिहासिक भूल ने कैसे भाजपा के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया: विनोद कुमार

6.  In 1974, Jayaprakash Narayan Included The RSS In His Movement, India Is Still Paying The Price: Apoorvanand, Scroll.In

7.  JayPrakash Narayan Had Said, ‘If RSS Is Fascist, Then Me Too: hindi.news18.com

8.  An Intimate Look at JP That Is Largely Appreciative, Skips Over His Ideological Inconsistencies: Nilanjan Mukhopadhyay, The Wire

9.  How The RSS Betrayed JayPrakash Narayan: M.G. Devasahayam, The Wire.in

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