विधान-परिषद: औचित्य और प्रासंगिकता
(हालिया सन्दर्भ)
हालिया बिहार विधान-परिषद
चुनाव-परिणाम के रुझान:
अप्रैल,2022 में बिहार विधान-परिषद के स्थानीय संस्था कोटे की
23 सीटों के लिए चुनाव सम्पन्न हुआ जिसमें स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों
ने अपने प्रतिनिधियों को चुना। चुनाव-परिणाम एक ओर सत्तारूढ़ दल के वर्चस्व की ओर
इशारा करते हैं, दूसरी ओर धनबल के वर्चस्व के साथ-साथ जाति-विशेष के वर्चस्व की ओर।
इससे सामाजिक न्याय की राजनीति के अप्रासंगिक होने का संकेत मिलता है, तो नए समीकरण
के निर्मित होने का संकेत भी। इस चुनाव में महागठबंधन ने जाति और संप्रदाय विशेष
के दायरे में सिमटी अपनी राजनीति को विस्तार देने की कोशिश करते हुए यह संदेश देने
का प्रयास किया कि सामाजिक न्याय की राजनीति का मतलब जातिगत विद्वेष की राजनीति
नहीं होना चाहिए, वरन् यह समावेशी राजनीति और समावेशी लोकतंत्र के निर्माण में
सहायक होनी चाहिए। यद्यपि उसकी इस राजनीति की भी सीमा रही जहाँ मुसलमानों, दलितों
और अति-पिछड़ों के लिए स्पेस सृजित नहीं हो पाया, तथापि इन सीमाओं के बावजूद उसके
निर्वाचित प्रतिनिधियों का दायरा अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में कहीं अधिक
व्यापक रहा। अब यह संयोग है, या फिर प्रयोग, यह तो आने वाला समय बतलायेगा। इसके
विपरीत, भाजपा के जीते नौ उम्मीदवारों में चार वैश्य, तीन
राजपूत, एक ब्राह्मण और एक भूमिहार हैं। मतलब वहाँ पूरी तरह
से सवर्णों और वैश्यों का वर्चस्व है। जदयू की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। वहाँ भी
पाँच में से चार विधान-पार्षद या तो राजपूत हैं या फिर वैश्य, जबकि एक यादव हैं। यहाँ
पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय समाज में जाति और वर्ग भले एक
दूसरे के पर्याय न हों, पर इनमें गहरा रिश्ता है।
विधान-परिषद: औचित्य और
प्रासंगिकता:
हालिया सम्पन्न चुनाव ने एक बार फिर से विधान-परिषद के औचित्य एवं
प्रासंगिकता के प्रश्न को जन्म दिया है और इस पर नए सिरे से बहस की शुरुआत हुई है।
कारण यह कि:
1. चुनाव
में धन-बल की अहम् एवं निर्णायक भूमिका: हाल में सम्पन्न विधान-परिषद
चुनाव में उन लोगों को पार्टी की उम्मीदवारी हासिल करने के साथ-साथ जीत हासिल करने
का अवसर प्राप्त हुआ जिन्होंने चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाया। यह इस ओर
इशारा करता है कि विधान-परिषद चुनावों में धनबल की भूमिका विधानसभा और लोकसभा
चुनावों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, और अगर विधान-परिषद के चुनाव में धन-बल की
भूमिका ही अहम् एवं निर्णायक है, तो फिर इसकी ज़रुरत क्या है?
2. सामाजिक
न्याय की समावेशी राजनीति के लिए झटका: हाल में बिहार विधान-परिषद के 24 स्थानों के
लिए सम्पन्न चुनाव में 6 स्थानों पर राजपूत, 6 स्थानों पर भूमिहार, 6 स्थानों पर
वैश्य, 5 स्थानों पर यादव और एक स्थान पर ब्राह्मण निर्वाचित हुए। मतलब यह कि
अति-पिछड़े वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक विधान-परिषद चुनाव के इस परिदृश्य में हाशिये
पर हैं, जबकि विधान-परिषद से यह अपेक्षा की गयी है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था
के कारण इसमें उन सामाजिक समूहों को सहज ही प्रतिनिधित्व मिल सकेगा जिन्हें ‘फर्स्ट
पास्ट, द पोस्ट’ की व्यवस्था के कारण विधानसभा में समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व
नहीं मिल पाता है। इसलिए विधान-परिषद् का चुनाव-परिणाम सामाजिक न्याय की समावेशी
राजनीति के लिए भी ज़बरदस्त झटका है।
इस प्रवृत्ति को बिहार विधान-परिषद के
व्यापक परिप्रेक्ष्य में भी देखा
जा सकता है अगर बिहार विधान-परिषद के सदस्यों की सामजिक संरचना पर गौर करें, तो 75
सदस्यीय बिहार विधान-परिषद में 35 स्थानों पर सवर्ण (16 राजपूत, 9 भूमिहार, 8
ब्राह्मण, 2 कायस्थ) काबिज़ हैं जो बिहार की कुल आबादी में इस समूह की भागीदारी के
सापेक्ष इनके अति-प्रतिनिधित्व को दर्शाता है। इसके अलावा, 10 स्थानों पर यादव, 5
स्थानों पर कोइरी-कुर्मी और करीब 9 स्थानों पर वैश्य समुदाय के लोग काबिज़ हैं। इस
प्रकार विधान-परिषद की करीब तीन-चौथाई सीटों पर सवर्ण और मध्यवर्ती जातियों के ऐसे
लोग काबिज़ हैं जो समाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं।
कुछ ऐसी ही स्थिति राज्यसभा की भी दिखती है।
राज्यसभा में बिहार के लिए 16 सदस्यों का कोटा निर्धारित किया गया है जिनमें 4
भूमिहार, 3 राजपूत, 2 ब्राह्मण, 2 बनिया और 2 यादव हैं। इनमें जनता दल यूनाइटेड के
महेन्द्र प्रसाद सिंह की सीट हाल ही में उनकी मौत के कारण खाली हुई है, जबकि इसी
दल के शरद यादव की सदस्यता का मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
3. विधान-परिषद का डम्पिंग यार्ड में तब्दील हो जाना: दरअसल राज्यसभा और
विधान-परिषद को भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के डम्पिंग यार्ड में तब्दील कर दिया गया
है जहाँ ऐसे नेताओं को एडजस्ट किया जाता है जो या तो चुनाव में हार चुके हैं या
फिर चुनावी राजनीति में अप्रासंगिक हैं, पर जिन्हें पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का
वरदहस्त प्राप्त है। यह उच्च सदन के रूप में राज्यसभा एवं विधान परिषद् की मर्यादा एवं गरिमा के प्रतिकूल
है।
4. राज्यसभा
और विधानसभा की तुलना में शक्तिहीन: चूँकि एक संवैधानिक संस्था के रूप में विधान-परिषद
राज्यसभा और विधानसभा की तुलना में शक्तिहीन है, इसीलिए इसकी प्रासंगिकता पर
प्रश्नचिह्न लगाया जाता है।
5.
विधानसभा पर अंकुश लगा पाने में असमर्थ: विधान परिषद से यह अपेक्षा की गयी है कि अगर विधानसभा जल्दबाजी में
बिना सोचे-विचारे कोई विधेयक पारित करती है, तो वह उस पर अंकुश लगाये; लेकिन विधान
परिषद ऐसा कर पाने में भी असमर्थ है। कारण यह कि इसकी शक्तियाँ राज्यसभा की तुलना में
भी कम हैं जिसके कारण यह महज कुछ दिनों के लिए उसे विलंबित कर सकती है।
6. सम्बद्ध हित-समूहों की तुलना में
दलीय हितों का प्रतिनिधित्व: सदन के भीतर
राज्यसभा की तरह ही विधान-परिषद के सदस्यों का व्यवहार भी इन संस्थाओं की प्रासंगिकता
पर प्रश्नचिह्न लगाता है। ये सम्बद्ध
हित-समूहों का प्रतिनिधित्व करने और इसके अनुरूप आचरण करने के बजाय
दलीय हितों को प्राथमिकता देते हैं। इनका विधानमंडलीय आचरण भी इनके दलीय हितों और
संकीर्ण राजनीतिक हितों के अनुरूप होता है।
7. एक
विशेषज्ञ संस्था के रूप में अपने दायित्वों के निर्वाह में असफल: राज्यसभा की तरह ही
विधान परिषद की परिकल्पना एक विशेषज्ञ संस्था के रूप में की गयी है और इसी के
मद्देनज़र विभिन्न क्षेत्रों से सदस्यों के मनोनयन का प्रावधान रखा गया है, लेकिन
ये सदस्य इस अपेक्षा पर खरे नहीं उतरते। सामान्यतः न तो इनकी रूचि विधायी कार्यों
एवं विधायी प्रक्रिया में होती है और न ही ये अपने अनुभवों से उसमें कुछ नया जोड़
पाने की स्थिति में होते हैं।
यहाँ तक कि राज्यसभा की तरह इसके सदस्य भी राज्य के
दीर्घकालिक हितों के अनुरूप व्यवहार करने के बजाय पार्टी-लाइन के आधार पर काम करते
हैं।
8. सार्वजानिक
वित्त पर बोझ: आज विधान-परिषद को राज्यों के सार्वजानिक वित्त पर बोझ को बढ़ने वाला
मान लिया गया है।
उपरोक्त बिन्दुओं के आलोक में विचार करें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि
विधान-परिषद अनुपयोगी और अनावश्यक है, इसीलिए इसे समाप्त किया जाना चाहिए।
औचित्य एवं प्रासंगिकता बरकरार:
ऊपर जिन पहलुओं को रेखांकित करते हुए विधान-परिषद को अप्रासंगिक घोषित
किया गया है, उनमें बहुत हद तक सच्चाई है। लेकिन, वे विधान-परिषद के एक पक्ष का प्रतिनिधित्व
करते हैं और उस पक्ष का सम्बंध कहीं-न-कहीं संसदीय राजनीति में आने वाली गिरावट से
भी जाकर जुड़ता है जिसके लिए विधान-परिषद से कहीं अधिक आज का समय और आज की राजनीति
जिम्मेवार है। आवश्यकता इस बात की है कि निष्कर्ष तक पहुँचाने में जल्दबाजी करने
के बजाय इसके अन्य पहलुओं पर भी विचार किया जाए। और, यह गम्भीर विचार-विमर्श इसकी
प्रासंगिकता की ओर इशारा करता है जिसे निम्न संदर्भों में देखा जा सकता है:
1. राज्यसभा
की तुलना में विधान-परिषद् का वैशिष्ट्य: सबसे पहले आवश्यकता
इस बात की है कि राज्यसभा के सापेक्ष विधान-परिषद के वैशिष्ट्य को समझा जाए, जो
विधान-परिषद के औचित्य एवं प्रासंगिकता की ओर भी इशारा करता है। अगर राज्यसभा के
सापेक्ष विधान-परिषद की संरचना का विश्लेषण करें, तो इसमें राज्यसभा की तुलना में
कहीं अधिक विविधता है। विधान-परिषद में साहित्य, कला, विज्ञान और
समाज-सेवा ही नहीं, सहकारिता क्षेत्र से सम्बद्ध लोगों को भी मनोनीत किया जाता है।
इसके अलावा, इसमें एक निश्चित मात्रा में शिक्षक-समुदाय और स्नातकों को भी
प्रतिनिधित्व दिया गया है। साथ ही, स्थानीय संस्था के निर्वाचित प्रतिनिधियों को
भी प्रतिनिधित्व दिया गया है जो त्रिस्तरीय संघीय ढाँचे की मूल भावनाओं के अनुरूप
ही है। यद्यपि राज्यसभा के विपरीत इसकी परिकल्पना प्रत्यक्षतः स्थानीय संस्थाओं की
प्रतिनिधि संस्था के रूप में नहीं की गयी है, तथापि यह सीमित संदर्भों में ही सही,
स्थानीय संस्थाओं की आवाज़ को प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। अब यह बात अलग है कि
इसके सदस्यों के आचरण इसे पुष्ट नहीं करते, पर यह समस्या तो राज्यसभा के साथ भी है
जिसके सदस्य राज्यों के हितों के बजाय राजनीतिक दलों के हितों का प्रतिनिधित्व
करते हैं।
2. विशेषज्ञ संस्था के रूप में
विधान-परिषद की अहमियत: संसदीय
व्यवस्था में संसद और विधान-मंडल के सदस्यों से यह अपेक्षा की गयी है कि व्यापक
सामाजिक हित में वह विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मसले पर पूर्वाग्रहों से मुक्त रहते हुए तटस्थ एवं
निष्पक्ष विश्लेषण करते हुए किसी निर्णय तक पहुँचे। लेकिन, कई बार ऐसा संभव नहीं
होता है क्योंकि विधान-सभा के सदस्यों पर कई बार लोकप्रिय जनाकांक्षाओं का दबाव
होता है, तो कई बार तात्कालिकता का दबाव। कई बार दलीय राजनीति से बँधे होने के
कारण निम्न सदन के सदस्य अपने दायित्वों के निर्वाह में असफल रहते हैं। यही कारण
है कि कई बार उनके निर्णय दीर्घकालिक सामाजिक हितों पर संकीर्ण राजनीतिक हितों को
तरजीह देते हैं, जबकि व्यापक सामाजिक-राजनीतिक हितों के मद्देनज़र इस स्थिति से बचे
जाने की ज़रुरत होती है। ऐसे समय में उच्च सदन अर्थात् राज्यसभा
और विधान-परिषद की जिम्मेवारी बढ़ जाती है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि पुनर्विचार,
समीक्षा एवं सुधार के ज़रिये वह विमर्श के दायरे को विस्तार दे और बहुमत के विचारों
को उचित एवं सही मार्गदर्शन प्रदान करे। यही कारण है कि
दुनिया के जिन हिस्सों में द्वितीय सदन की अवधारणा को स्वीकारा गया है, उनका यह
मानना है कि द्वितीय सदन विधायन की प्रक्रिया में विचार-विमर्श
को गहनता प्रदान करता है। एक पर्यवेक्षक की भूमिका में यह अपने विस्तृत विवेचन के
ज़रिये असहमति एवं मतभेद प्रदर्शित करता हुआ अपने संशोधनों और परामर्श उपलब्ध
करवाता है जिसके आलोक में विधानसभा को अपने रुख पर पुनर्विचार का अवसर मिलता है। साथ
ही, इस दौरान विधायन की प्रक्रिया में विलम्ब के कारण जो अतिरिक्त समय मिलता है,
उसका इस्तेमाल सदन के बाहर भी उस मसले पर गंभीर चिन्तन और मंथन के लिए होता है
जिसके कारण उससे सम्बंधित कई अनछुए पहलू भी सामने आते हैं और उनके आलोक में विमर्श
संभव हो पाता है। अगर विधान-मण्डल द्विसदनीय नहीं होता और विधान-परिषद का अस्तित्व
नहीं होता, तो यह सब संभव नहीं हो पाता। स्पष्ट है कि एक विशेषज्ञ संस्था के रूप
में इसकी अहमियत आज भी बनी हुई है, वह इस दायित्व के निर्वहन में समर्थ है, और इसी
कारण उपयोगी एवं आवश्यक भी।
3.
सामूहिक निर्णयन की लोकतान्त्रिक संकल्पना को मजबूती प्रदान करना: कहा जाता है कि लोकतंत्र में सरकार तो बहुमत से
बनती है, पर लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह आम सहमति के आधार पर काम
करे। यह लोकतंत्र के सफल प्रकार्यण की अनिवार्य शर्त है, अन्यथा लोकतन्त्र
बहुसंख्यकवाद के उपकरण में तब्दील होकर रह जाएगा। यह तबतक सम्भव नहीं है जबतक कि विधायन
की प्रक्रिया में सरकार द्वारा विरोधी दलों को न साधा जाए। इसके लिए आम सहमति
बनानी होती है जिससे सामूहिक निर्णयन की संभावनाओं को बल मिलता है। यह लोकतन्त्र
की मूल भावनाओं एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनुरूप ही है, और इससे लोकतंत्र को
मजबूती मिलती है।
4.
विधानसभा के भंग होने पर कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण को
सुनिश्चित करना: द्वितीय सदन चाहे
जितना ही शक्तिहीन हो, पर निम्न सदन के भंग होने की स्थिति में कार्यपालिका पर
संसदीय नियंत्रण को सुनिश्चित करते हुए उसके मनमानेपन पर अंकुश लगाने में इसकी
भूमिका महत्वपूर्ण होती है। साथ ही, विधान-परिषद विधानसभाओं पर काम के बोझ को कम
करने में भी सहायक है।
5.
विधान-परिषद को पुनर्जीवित करना इसका प्रमाण: इतना ही नहीं, अगर विधान-परिषद की उपयोगिता और अहमियत
नहीं होती, तो उन राज्यों के द्वारा द्विसदनीय विधान-मण्डल और विधान-परिषद को
पुनर्जीवित करने की दिशा में पहल नहीं की जाती जिन्होंने कभी इसकी समाप्ति की दिशा
में पहल की थी। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम
बंगाल, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु के उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं।
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति में विधान-परिषद आवश्यक ही
नहीं, अपितु अपरिहार्य है। आवश्यकता है इसे और अधिक सुदृढ़ बनाये जाने की, और इसके
लिए सही मंशा से हरसंभव प्रयास की। इसका मतलब यह नहीं है कि विधान-परिषद् की जिन
कारणों से आलोचना की जाती है और उनकी उपयोगिता, महत्व एवं प्रासंगिकता पर प्रश्न
खड़े किये जाते हैं, वे मायने नहीं रखते, या फिर वे अनावश्यक और निरर्थक हैं।
लेकिन, ऊपर जिन समस्याओं की बात की गयी है और जिनके आधार पर विधान-परिषद को
अप्रासंगिक ठहराया गया है, वे समस्याएँ तो विधानसभा और लोकसभा के सन्दर्भ में भी
उभरकर सामने आ रही हैं, तो क्या लोकसभा और विधानसभा को भी भंग कर दिया जाए?
आवश्यकता सुधारों की है, न कि संस्थाओं को भंग करने की, क्योंकि अधिकांश समस्याएँ
तात्कालिक प्रकृति की होती है, जबकि संस्थाओं को बनने में दशकों का समय लग जाता है।
ऐसी स्थिति में दशकों के दौरान विकसित संस्थाओं की कीमत पर समस्या के समाधान की
तलाश उचित नहीं है, बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है। बेहतर विधायिका के निर्माण के लिए
आवश्यकता है बेहतर समाज के निर्माण की, ताकि बेहतर लोगों की उपलब्धता को सुनिश्चित
किया जा सके।
रही बात सामाजिक न्याय के प्रश्न की अनदेखी की, तो इसे हमें राजनीति
के भरोसे छोड़ना होगा और उसके प्रति आलोचनात्मक नजरिया अपनाते हुए उस पर इतना दबाव
निर्मित करना होगा ताकि वह सामाजिक न्याय के एजेंडे के प्रति संवेदनशील हो और उच्च
सदन में भी प्रतिनिधित्व के क्रम में इस बात का ध्यान रखे। लेकिन, सिर्फ राजनीतिक
दलों से ऐसी अपेक्षा ज्यादती होगी। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि वर्तमान
राजनीतिक व्यवस्था बड़े राजनीतिक दलों और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पक्ष में है। फण्डों
का प्रवाह भी इन्हीं के पक्ष में है जिसके कारण स्थानीय एवं क्षेत्रीय दलों को
फण्डिंग के स्तर पर कई सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और अपने राजनीतिक
अस्तित्व को बचाए रखने के लिए निरन्तर संघर्ष करना होता है। हाल के वर्षों में यह
समस्या कम होने के बजाय और अधिक गहन हुई है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से लेकर
लोकसभा-विधानसभा चुनाव के दौरान टिकटों की खरीद-बिक्री और राज्यसभा-विधान परिषद
में सीटों की खरीद-बिक्री के मूल में इस समस्या की मौजूदगी से इन्कार नहीं किया जा
सकता है। जब तक इस समस्या के समाधान हेतु चुनावी सुधारों की प्रभावी कार्ययोजना
प्रस्तुत नहीं की जाती है और उन्हें ज़मीनी धरातल पर क्रियान्वित नहीं किया जाता
है, तब तक इस समस्या का समाधान संभव हो पायेगा और भारतीय राजनीति एवं भारतीय
लोकतंत्र समावेशी हो पायेगा, इसमें संदेह है।
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