Monday 13 November 2017

गाँधी से गुजरते हुए

गाँधी से गुजरते हुए 
          -डाॅ. संजय सिंह(जेएनयू)
कुमार सर्वेश

प्रमुख आयाम
1.  दक्षिण अफ्रीका गाँधीवाद के लिए प्रयोगशाला के रूप में
2.  राजनीतिक विचारधारा के रूप में गाँधीवाद
3.  गरमपंथियों का प्रभाव
4.  स्वराज की संकल्पना
5.  अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना
6.  संघर्ष-तैयारी-संघर्ष की गाँधीवादी रणनीति
7.  राष्ट्रीय आन्दोलन को जनांदोलन में तब्दील कर देना
8.  गाँधीवादी आन्दोलन और इसकी लोकप्रियता
9.  गाँधीवादी आंदोलनों का मूल्यांकन


गाँधी और गाँधीवाद और कुछ नहीं, तद्युगीन परिदृश्य में आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परंपरा की पुनर्व्याख्या है जिसके केंद्र में वैष्णव धर्मं एवं वैष्णव संस्कार है, सहिष्णुता एवं समन्वय जिसका प्राण-तत्व है। गाँधी ने स्वयं इसे स्वीकारते हुए कहा है: ''गाँधीवाद जैसी कोर्इ वस्तु नहीं है... मैं इस बात का दावा नहीं करता कि मैंने किसी मौलिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। मैंने प्राचीन सिद्धान्तों को ही नए ढंग से दोहराने की चेष्टा की है।” इसी को एक ओर सर्वधर्मसमभाव के जरिये अभिव्यक्ति मिली है, तो दूसरी ओर ट्रस्टीशिप की थ्योरी के जरिये। इन दोनों के बिना उपनिवेशवाद-विरोधी मोर्चे का निर्माण संभव नहीं हो पाता और बिना इसके राष्ट्रीय आन्दोलन को जनान्दोलन के रूप में परिणत करते हुए सार्थक परिणति तक पहुँचा पाना संभव नहीं था। स्पष्ट है कि गाँधी परम्परागत अर्थ में न तो राजनीतिक चिन्तक थे और न ही सिद्धांत-निर्माता, फिर भी उन्हें इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को नयी भाषा और नया तेवर प्रदान करते हुए औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न की जिसकी उसके पास कोई काट नहीं थी।
दक्षिण अफ्रीका गाँधीवाद के लिए प्रयोगशाला के रूप में:
इस क्रम में दक्षिण अफ्रीका उसी तरह गाँधी के लिए प्रयोगशाला का काम करता है जिस प्रकार अंग्रेजों के लिए बंगाल। जिस प्रकार अंग्रेजों ने बंगाल में प्रयोग करते हुए फिर उसके अनुभवों के आलोक में उसे शेष भारत में लागू किया, ठीक उसी प्रकार गाँधी ने रंगभेद के खिलाफ अभियान के क्रम में दक्षिण अफ्रीकी ज़मीन पर विकसित जनांदोलन के साधनों को भारत में अपनाया। इस परिप्रेक्ष्य में गाँधीवाद के सन्दर्भ में दक्षिण अफ्रीका का महत्व दो सन्दर्भों में है: एक तो इसने एक प्रयोगशाला के रणनीति एवं कार्यक्रमों के स्वरुप-निर्धारण में अहम् भूमिका निभाते हुए भारत में गाँधी के प्रयोग की आधारशिलायें निर्मित की, और दूसरे दक्षिण अफ़्रीकी सफलताओं ने भारत में गाँधी को अपर लोकप्रियता प्रदान कर उनकी भावी सफलता की पृष्ठभूमि निर्मित की, जिस पर विस्तार से चर्चा पहले ही की जा चुकी है
राजनीतिक विचारधारा के रूप में गाँधीवाद:
गाँधीवाद एक सांस्कृतिक चिन्तन ही नहीं है, वरन् यह एक राजनीतिक विचारधारा भी है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में भी गाँधी ने नया कुछ नहीं दिया, वरन् भारतीय राष्ट्रवादी चिंतन परंपरा में मौजूद नरमपंथियों और गरमपंथियों की रणनीति एवं कार्यक्रमों को संश्लेषित करते हुए अपनी रणनीति एवं कार्यक्रमों का निर्धारण किया। गाँधीवादी आंदोलनों की शुरुआत पर अगर गौर करें, तो हम पाते हैं कि इसकी शुरूआत उदारवादियों की तरह प्रतिवेदन, प्रार्थना और प्रतिरोध (PPP) से होती थी और ये भी उदारवादियों की तरह ही औपनिवेशिक सत्ता पर दबाव बनाकर रियायतें प्राप्त करने में विश्वास करते थे। इस प्रकार गाँधी की रणनीति भी उदारवादियों की तरह दबाव और समझौते की रणनीति थी और इनके आन्दोलन भी उदारवादियों की तरह अहिंसक ही हुआ करते थे। लेकिन, एक सीमा के बाद अगर यह रणनीति परिणाम तक ले जा पाने में समर्थ नहीं है, तो गाँधी को आन्दोलन को संवैधानिक दायरे से बाहर ले जाकर उसे असहयोग एवं सविनय अवज्ञा का रूप देने से भी परहेज़ नहीं था। इन्होंने गरमपंथियों की तरह स्वदेशी और बहिष्कार का रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए औपनिवेशिक सत्ता के मूल पर प्रहार की रणनीति अपनायी। साथ ही, इसके जरिये स्वाबलंबन की दिशा में पहल करते हुए भारतीय जनमानस को सीधा सन्देश दिया।
गरमपंथियों का प्रभाव
गाँधी के आन्दोलन की रणनीति पर तिलक और गरमपंथियों का भी गहरा असर रहा। तिलक की तरह ही गाँधी भी अपने आन्दोलन को संवैधानिक दायरे में सीमित नहीं रखना चाहते थे, वरन् वे ज़रुरत पड़ने पर इसे संविधान और क़ानून के दायरे से बाहर ले जाने के पक्ष में भी थे। वे केवल असहयोग की बात ही नहीं करते थे, वरन् सविनय अवज्ञा की बात करते हुए गिरफ्तारी देने और जेल जाने के पक्ष में भी थे। इतना ही नहीं, तिलक की तरह गाँधी ने भी आन्दोलन के दौरान जनता को इकठ्ठा करने और राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दू धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया, अब वह चाहे राम-राज्य की संकल्पना हो या मानस की चौपाइयों को उद्धृत करना या फिर गाँधी के प्रिय भजन के रूप में ‘रघुपति राघव राजा राम’ एवं “वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे का गायन। हाँ, यह ज़रूर है तिलक वाला हिंदुत्ववादी आग्रह गाँधी में नहीं था, यद्यपि तिलक भी सांप्रदायिक नहीं थे। गाँधी का रूझान सर्वधर्मसमभाव की ओर कहीं अधिक था।
स्वराज की संकल्पना:
1905 ई. में बाल गंगाधर तिलक ने यह घोषणा की थी कि ''स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” आरम्भ में तिलक ने ‘स्वराज’ शब्द का अस्पष्टता के साथ स्वशासन के अर्थ में प्रयोग किया, लेकिन होमरूल आन्दोलन के दौरान उन्होंने स्वशासन एवं स्वराज की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए इसे न केवल आयरलैंड की तर्ज़ पर डोमिनियन स्टेटस की माँग से, वरन् क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा और भाषाई राज्यों की माँग से सम्बद्ध करके देखा। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हमारा उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना नहीं है गाँधी भी तिलक की तरह स्वराज्य की बात करते हैं, लेकिन, उनके स्वराज की संकल्पना तिलक के स्वराज से भिन्न है। सन् 1920 में गाँधी ने अपने स्वराज की तस्वीर प्रस्तुत करते हुए कहा कि ''मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की माँग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा।” स्पष्ट है कि गाँधी का स्वराज जन-प्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था है जो जन-आवश्यकताओं, उसकी अपेक्षाओं तथा जनाकांक्षाओं के अनुरूप हो। इतना ही नहीं, उनके स्वराज की संकल्पना स्थिर न होकर विकसनशील थी और गाँधी हिंसा के विरोध में होने के बावजूद तिलक की तुलना में कहीं अधिक आक्रामक थे। उन्होंने औपनिवेशिक सत्ता के प्रति अपने विरोध को असहयोग और सविनय अवज्ञा तक ले जाने का काम किया और असहयोग आन्दोलन का आह्वान करते हुए साल भर के अन्दर स्वराज्य की प्राप्ति की बात की और अगस्त,1942 में तो उन्होंने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा देते हुए ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। स्पष्ट है कि गाँधी का स्वराज आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता की माँग पर बल देता था। साथ ही, गाँधी जके स्वराज की संकल्पना कहीं अधिक व्यापक है। वे केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी पराधीनता से मुक्ति नहीं चाहते थे, वरन् सांस्कृतिक एवं नैतिक स्वाधीनता के भी पक्षधर थे। उनके स्वराज का स्वरुप कहीं अधिक मानवीय होता और यह दीन-दुखियों के पक्ष में कहीं अधिक होता क्योंकि यह आत्म-सयंम, ग्राम-राज्य एवं सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है।
अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना:
साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता पर बल देने वाले गाँधी धर्म और ईश्वर को सत्य के रूप में देखते हैं और उनकी आस्तिकता सत्य के लिए संघर्ष हेतु उन्हें प्रेरित करती है। यही उनमें सत्य के लिए आग्रह को जन्म देता है और उसे ये असत्य एवं अन्याय के खिलाफ संघर्ष के उपकरण में तब्दील आकर देते हैं। लियो टॉलस्टॉय से प्रभावित होकर गाँधी ने अहिंसा को सत्याग्रह का आधार बनाया। उन्होंने हिंसा का सहारा लेने वाले क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों के हश्र को देखा और यह भी देखा कि किस प्रकार औपनिवेशिक सत्ता एवं प्रशासन में ऐसे आंदोलनों को निर्ममतापूर्वक कुचल डाला। उन्होंने इन अनुभवों के आलोक में अपने आन्दोलन को इस परिणति से बचाने के लिए अहिंसा को सत्याग्रह का आधार बनाया और इसके जरिये राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापकता देते हुए जन-सहभागिता को विस्तार दिया।
अहिंसात्मक सत्याग्रह की यह संकल्पना दुनिया को गाँधी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन है जिसकी याद में उनके जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है और जिसे अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ अपने संघर्ष में अपनाते हुए अपने संघर्ष को सफलता के मुकाम तक पहुँचाया
गाँधी ने सत्याग्रह के लिए हड़ताल, असहयोग, सविनय अवज्ञा और उपवास या भूख-हड़ताल को साधन बनाया। असहयोग अहिंसक सत्याग्रह का एक महत्वपूर्ण साधन है। इसके तहत् आन्दोलनकारी ऐसी सरकार के साथ किसी भी प्रकार के सहयोग से इन्कार करते हैं जो भ्रष्ट है और जनाकांक्षाओंके अनुरूप काम नहीं कर रही है सविनय अवज्ञा की संकल्पना से गाँधी दक्षिण अफ्रीका में जेल-प्रवास के दौरान परिचित हुए जब उन्हें हेनरी डेविड थोरो की पुस्तक ‘ऑन सिविल डिसओबिडियेंस’ (On Civil Disobidience) पढने का अवसर मिला और इस क्रम में उनके सविनय अवज्ञा के सिद्धांत से प्रभावित होकर उन्होंने इसे सत्याग्रह की तकनीक के रूप में आजमाया इसके तहत् आन्दोलनरत् जनता अपने प्रतिरोध को असहयोग से आगे ले जाती है और अहिंसक तरीकों से सरकारी कानूनों और नीतियों को मानने से इन्कार करती हुई उसका उल्लंघन करती है यदि 1920 ई. में गाँधी ने असहयोग को आजमाया, तो 1930 ई. में सविनय अवज्ञा को जहाँ उपवास का प्रश्न है, तो यह सत्याग्रह का अंतिम उपकरण है। यह आत्मशुद्धिकरण का जरिया भी है और आत्मोत्पीड़न के जरिये अपनी वाजिब माँगों को मनवाने हेतु सरकार पर नैतिक दबाव सृजित करने का जरिया भी।
अहिंसात्मक सत्याग्रह की निष्क्रिय प्रतिरोध से भिन्नता:
गाँधी का सत्याग्रह पर जोर था उनके अनुसार सत्य की रक्षा के लिए स्वयं कष्ट सहते हुए अपने प्रतिपक्षी को अपनी बात मानने के लिए राजी कर लेना, या विवश कर देना ही सत्याग्रह है चूँकि गाँधी ने अहिंसा को इसका आधार बनाया,, इसीलिए इसे अहिंसक सत्याग्रह कहा गया गाँधी द्वारा प्रस्तुत अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना कोई मौलिक संकल्पना नहीं है यह तिलक के निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive Resistance) का ही विकसित रूप है। बस फर्क यह है कि तिलक का निष्क्रिय प्रतिरोध एक नकारात्मक संकल्पना है जिसमें प्रतिक्रिया-भाव की प्रधानता होती है और जिसे गाँधी निर्बलों का अस्त्र मानते थे, जबकि अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना एक सकारात्मक संकल्पना है जिसमें प्रतिक्रिया भाव के लिए कोई जगह नहीं होती है। साथ ही, इसके लिए आत्मबल की ज़रुरत होती है। यही कारण है कि गाँधी अहिंसक सत्याग्रह को सबलों का अस्त्र मानते थे। इसके पीछे यह सोच मौजूद है कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।
अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना कोई स्थिर संकल्पना नहीं है, वरन् निरंतर विकसनशील संकल्पना है। सन् 1906 में दक्षिण अफ्रीका में अनिवार्य पंजीकरण क़ानून के विरोध के क्रम में गाँधी ने इस संकल्पना को विकसित किया था और प्रवासी भारतीयों के अधिकारों एवं सम्मान के लिए उनके खिलाफ होनेवाले भेदभाव एवं रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के क्रम में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया था। ऊपर से गाँधी भले ही आदर्शवादी राजनीतिज्ञ लगते हों, पर अहिंसा और आंदोलनों को लेकर उनका नजरिया बहुत ही व्यावहारिक था। वे अहिंसा और कायरता में फर्क करते थे। उनका स्पष्ट रूप से यह मानना था कि जहाँ अहिंसा कायरता का रूप लेने लगे, वहाँ मैं हिंसक हो जाना पसंद करूँगा। उन्हीं के शब्दों में, “अगर केवल कायरता और हिंसा में मुझे किसी एक को चुनना पड़े, तो मैं हिंसा को चुनना पसंद करूँगा।” फरवरी,1922 में चौरी-चौरा में जब असहयोग आन्दोलन ने हिंसक रूप ग्रहण किया, तो उन्हें आन्दोलन को वापस लेने में तनिक भी देर नहीं लगी और इस सन्दर्भ में निर्णय लेते हुए न तो उन्होंने काँग्रेस की परवाह की और न ही काँग्रेस के भीतर आन्दोलन को वापस लेने के अपने निर्णय का विरोध करने वालों की परवाह की। लेकिन, समय के साथ उन्होंने यह महसूस किया कि ऐसे जनांदोलन पूरी तरह से अहिंसक हों, किसी भी जन-नेता के लिए यह सुनिश्चित कर पाना मुमकिन नहीं है क्योंकि जनता की प्रतिक्रिया बहुत हद तक स्वतः-स्फूर्त होती है और समय एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती है। उन्होंने बहुत करीब से देखा कि देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के विभिन्न हिस्सों ने कैसे उनको अपने तरीके से देखा और कैसे उनकी व्याख्या अपने तरीके से की। यही कारण है कि जब 1930-31 ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान चटगाँव, पेशावर और शोलापुर में हिंसा भड़की, तो गाँधी ने आन्दोलन को वापस लेने के बजाय जारी रखना उचित समझा। इसी प्रकार जब अगस्त,1942 ई. में ब्रिटिश दमन की पृष्ठभूमि में उनके ‘करो या मरो’ के आह्वान की परिणति भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान व्यापक हिंसा के रूप में हुई, तो अंग्रेजों ने उनपर इस हिंसा की आलोचना के लिए दबाव बनाना शुरू किया। उन्होंने अँग्रेज पत्रकार लुई फिशर के साथ साक्षात्कार के क्रम में न केवल भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान होने वाली हिंसा की आलोचना से इन्कार किया, वरन् इससे एक कदम आगे बढ़कर इसे ब्रिटिश दमन से उपजी हुई हिंसा बतलाते हुए इसे उचित ठहराया।
सन् 1917 से सन् 1947 तक अहिंसात्मक सत्याग्रह का गाँधी ने अकाट्य रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया। भारत में चंपारण सत्याग्रह के दौरान इसका राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए गाँधी ने अंग्रेज़ी सरकार के समक्ष दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न की क्योंकि उन्हें यह पता था कि अत्यंत शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता को शक्ति की बदौलत चुनौती नहीं दी जा सकती थी। अगर ऐसा किया जाता, तो ब्रिटिश सत्ता को आन्दोलन के बलपूर्वक दमन का अवसर मिल जाता और इसके आधार पर वह अपनी दमनात्मक कार्रवाईयों का औचित्य सिद्ध करने में सक्षम होती। इसके विपरीत यदि आन्दोलन का स्वरुप अहिंसक होता, तो ब्रिटिश सत्ता के सामने यह दुविधा होती कि वह आन्दोलन का दमन करे, या शांतिपूर्ण अहिंसक आन्दोलन को अनुमति प्रदान करे। यदि आन्दोलन का दमन किया जाता, तो इससे ब्रिटिश शासन के नैतिक स्वरुप पर प्रश्न उठता और यदि आन्दोलन का दमन नहीं किया जाता, तो आन्दोलन आगे बढ़ता एवं भारतीयों के मानस-पटल पर औपनिवेशिक सत्ता का जो भय विद्यमान था, वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाता और ऐसी स्थिति में औपनिवेशिक सत्ता का लम्बे समय तक बना रहना मुश्किल होता। गाँधी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिये औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष जो दुविधापूर्ण स्थिति सृजित की, अंत-अन्त तक उसकी काट नहीं ढूँढी जा सकी और अंग्रेजों को महज तीन दशक के अन्दर भारत छोड़कर जाना पड़ा।
जहाँ तक आन्दोलन की रणनीति के रूप में अहिंसात्मक सत्याग्रह का प्रश्न है, तो इसने आन्दोलन के अहिंसक स्वरुप को सुनिश्चित करते हुए इसमें महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित की। अगर आन्दोलन का स्वरुप हिंसक होता, तो शायद इनकी इस स्तर पर भागीदारी संभव नहीं हो पाती। इतना ही नहीं, किसी भी हिंसक आन्दोलन को लम्बे समय तक चलाना और उसके लिए जनता के उत्साह एवं ऊर्जा को बनाये रख पाना आसान नहीं होता। इस प्रकार अगर गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार का विस्तार संभव हो सका और इसका जनांदोलन में रूपांतरण संभव हो सका, तो इसमें सत्याग्रह की रणनीति की अहम् एवं निर्णायक भूमिका रही।
संघर्ष-तैयारी-संघर्ष की गाँधीवादी रणनीति:
इतना ही नहीं, जन-नेता होने के कारण गाँधी जनांदोलन की सीमा से वाकिफ थे। वे जानते थे कि एक समय के बाद आन्दोलन में शामिल जनता की ऊर्जा चूकने लगती है और ऐसी स्थिति में आन्दोलन बिखरने लगता है। इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि इससे पहले जनता की ऊर्जा चूकने लगे और आन्दोलन बिखरने लगे, नेतृत्व को चाहिए कि सत्ता से मोलभाव करते हुए जहाँ तक संभव हो सके, रियायतें हासिल करते हुए आन्दोलन को वापस ले ले। इससे आन्दोलनकारी जनता के मनोबल को भी बनाये रखना संभव होगा और अगले आन्दोलन के लिए बेहतर तैयारी भी संभव हो सकेगी। यही कारण है कि जब भी आन्दोलन चरम पर रहा, गाँधी ने मोलभाव करने का बेहतर समय जान सरकार से बातचीत शुरू की और इससे पहले कि आन्दोलन में बिखराव आये, उसे वापस ले लिया: जिसके कारण कुछ लोगों या समूहों को गाँधी का फैसला नागवार लगा और उन्होंने उनपर मनमाने तरीके से आन्दोलन शुरू करने एवं वापस लेने के आरोप लगाये। इस सन्दर्भ में स्वयं गाँधी ने कहा है कि “मैं एक जननेता हूँ और जननेता होने के नाते मुझे पता है कि जनता के दिमाग में क्या चल रहा है।“ आन्दोलन वापस लेने के बाद अक्सर गाँधी चरखा, छूआछूत, स्वच्छता, शिक्षा आदि से जुड़ी रचनातमक गतिविधियों में लग जाते थे, ताकि जनता की ऊर्जा को संयोजित करते हुए उसे एक बार फिर से अगले आन्दोलन के लिए तैयार किया जा सके और राष्ट्रीय चेतना का प्रचार-प्रसार करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार को भी विस्तार दिया जा सके। इसीलिए बिपनचंद्रा ने गाँधी की राष्ट्रीय आन्दोलन की रणनीति की व्याख्या संघर्ष-तैयारी-संघर्ष की रणनीति के रूप में की है। यही कारण है कि पूरे गाँधीवादी चरण के दौरान या तो आन्दोलन चल रहा होता, या फिर रचनात्मक कार्यक्रम के बहाने राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार के जरिये अगले आन्दोलन की तैयारी चल रही होती। विशेष रूप से रचनात्मक कार्यक्रमों के साथ-साथ धरना, विरोध-सभा, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, प्रभात-फेरी आदि को सफल बनाने में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण एवं निर्णायक रही
क्रम
सम्बद्ध क्षेत्र
रचनात्मक कार्यक्रम
1.

2.

3.
समाज-सुधार
आर्थिक कार्यक्रम
सांस्कृतिक कार्यक्रम 
हिन्दू-मुस्लिम एकता,महिला-उत्थान, हरिजन-उत्थान
चरखा और खादी
मूल्य, मर्यादा, नैतिकता एवं अनुशासन पर जोर, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वच्छता आदि   
राष्ट्रीय आन्दोलन को जनांदोलन में तब्दील कर देना:
यह राष्ट्रीय आन्दोलन का जुझारू तेवर और इसकी निरंतरता है जो गाँधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आन्दोलन को नरमपंथियों एवं गरमपंथियों के नेतृत्व में चलने वाले पूर्व के राष्ट्रीय आंदोलनों से अलग करती है। गाँधी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के मुद्दों और टाइमिंग का अत्यंत सावधानीपूर्वक निर्धारण करते हुए इसके अहिंसक स्वरुप को सुनिश्चित किया और इसके जरिये इसमें समाज के सभी समूहों की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए इसे जनांदोलन में तब्दील कर दिया। इसमें खिलाफत और नमक जैसे मुद्दों की अहम् एवं निर्णायक भूमिका रही। साथ ही, इन्होंने राजनीतिक को पूर्णकालिक गतिविधियों में तब्दील कर दिया। अब राष्ट्रीय आन्दोलन सालों भर चलने वाले आन्दोलन में तब्दील हो गया। यह सब संभव हो सका उन संगठनात्मक बदलावों के कारण, जिन्हें 1920 ई. में नागपुर अधिवेशन के दौरान मंजूरी दी गयी और जिनकी दिशा में 1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन के दौरान तिलक ने असफल कोशिश की थी।
गाँधीवादी आन्दोलन और इसकी लोकप्रियता :
गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार का विस्तार हुआ और इसने जनांदोलन का रूप धारण कर लिया। यह इतिहासकारों के बीच आश्चर्य का विषय है कि गाँधी लगभग तीन दशकों तक जनता के बीच लोकप्रिय बने रहे, इस तथ्य के बावज़ूद कि उनके नेतृत्व में होने वाले किसी भी आन्दोलन ने लक्ष्य हासिल करने में सफलता नहीं पायी। इस विरोधाभास की व्याख्या निम्न सन्दर्भों में की जा सकती है:
1.  गाँधी बेहतर पर्यवेक्षक (Observer) थे और उनका अनुभव-संसार भी कहीं अधिक व्यापक था। इसने गाँधी को भारतीय समाज और भारतीय जनता की मनोदशा को समझने में सक्षम बनाया। अपनी इस क्षमता और अपनी इस समझ की बदौलत न केवल गाँधी ने खुद भारतीय राजनीति के शीर्ष पर स्थापित किया, वरन् जनता की नब्ज़ पर बेहतर पकड़ के कारण यह जानने में भी सफल रहे कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है और इसने उन्हें जनता के साथ कनेक्ट करने में सक्षम बनाया। इसने ही उन्हें जननेता बनाया और उन्होंने जनता की शक्ति में अपनी आस्था प्रदर्शित की।
2.  गाँधी ने काँग्रेस का एक ऐसा राष्ट्रीय ढाँचा खड़ा किया जो सालों भर सक्रिय रहता था, जिसके माध्यम से स्थानीय स्तर पर उभर रहे नेतृत्व से भी लगातार संपर्क बनाये रखा जा सकता था और जो जनता से जुड़ी हुई चिंताओं एवं समस्याओं के प्रति सकारात्मक अनुक्रिया कर पाने में समर्थ था। और, इन सबसे महत्वपूर्ण इस संघर्ष की जो भी उपलब्धियाँ होनी थीं, उस सबका श्रेय गाँधी को ही मिलना था।
3.  गाँधी का मानना था कि जनांदोलन का विकास नैतिक संघर्ष के रूप में होना चाहिए। साथ ही, इसमें विचारधारा एवं क्रिया-प्रणाली के बीच कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए। इस आलोक में गाँधी केवल जनता की बात करते ही नहीं थे, वरन् जनता की भाषा में उन्हीं की तरह दिखते हुए उनकी बात करते थे। उनके रूप में भारतीय जनता ने एक ऐसा नेता देखा जिसकी कथनी एवं करनी में कोई अंतर नहीं है और जो सिर्फ मूल्य, नैतिकता एवं अनुशासन पर जोर ही नहीं देता है, वरन् जो उन्हें अपने जीवन में उतारता भी है। ये चीजें गाँधी को सहज ही भारतीय संस्कृति से गहरे स्तर पर सम्बद्ध कर देती थीं और उसे उनसे जुड़ाव महसूस होता था।
4.  गाँधी के रूप में लोगों ने पहली बार एक ऐसा नेतृत्व देखा जो उनके दुःख-दर्द एवं पीड़ा-वेदना को समझता भी है और उसे दूर करने को तत्पर भी है। उन्हें इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्र के हित को जनता के हित से सम्बद्ध करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को जनांदोलन में तब्दील कर दिया। यह स्वाभाविक भी था कि जब जनता खुद से जुड़े मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दे में तब्दील होते देख राष्ट्रीय आन्दोलन की ओर जनता के रुझान का बढ़ना स्वाभाविक ही था।
5.  गाँधी ने आन्दोलन के लिए मुद्दों के चयन में भी सावधानियाँ बरतीं। असहयोग के लिए खिलाफत का प्रश्न हो, या फिर सविनय अवज्ञा के लिए नमक का, या फिर भारत छोड़ो आन्दोलन के लिए ‘करो या मरो’ का: ये सारे मुद्दे जनता के बीच से उठाये गए और इनके आधार पर उन्हें इकठ्ठा करने की कोशिश की गयी।
6.  गाँधी की कार्य-शैली ने भी उन्हें जनता के बीच अपर लोकप्रियता प्रदान की। चाहे गाँधी के द्वारा बार-बार राम-राज्य का उल्लेख हो, या मानस के उद्धरणों का प्रयोग; चाहे उनके द्वारा लंगोट धारण करना हो, या फिर    रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा करना; चाहे जनता से जनता की भाषा में बात करने का हो, या फिर लोकजीवन से जुड़े प्रतीकों का प्रयोग; और इन सबसे बढ़कर गाँधी का रोमांटिक करिश्माई व्यक्तित्व एवं उनके सन्दर्भ में प्रचलित मिथक के साथ-साथ किंवदंतियाँ: इन सबने गाँधी को जीते-जी मिथक में तब्दील कर दिया और जनता उनसे जुड़ती चली गयी।
7.  गाँधी एक कुशल प्रबंधक भी थे और उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये अपने जनाधार को मजबूती प्रदान करने की कोशिश निरंतर जारी रखी। रचनात्मक कार्यक्रमों में उन्होंने महिलाओं एवं हरिजनों से जुड़े हुए मुद्दों को तरजीह दी और इन मुद्दों ने इन दोनों समूहों के बीच गाँधी की पैठ निरंतर बढ़ाई। हिन्दू-मुस्लिम एकता तो उनके एजेंडे में हमेशा से शीर्ष पर रहा है।
8.  गाँधी के नेतृत्व में चलने वाला आन्दोलन भले ही अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को हासिल कर पाने में समर्थ नहीं रहा, लेकिन उनके हर आन्दोलन के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन एक कदम आगे बढ़ा और कुछ-न-कुछ उपलब्धियाँ भी उसके नाम रही। इसी कारण गाँधी के नेतृत्व में जनता की आस्था बनी रही। अंततः उनके नेतृत्व में और उनके नक्शेकदम पर चलते हुए ही भारत को आज़ादी मिली।
आन्दोलन के विभिन्न तत्वों के आलोक में गाँधीवादी आंदोलनों का मूल्यांकन:
राष्ट्रीय राजनीति में गाँधी के आविर्भाव के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वरुप, विचारधारा, सामाजिक आधार एवं दिशा में निर्णायक परिवर्तन आता है और यह परिवर्तन राष्ट्रीय आन्दोलन को तार्किक परिणति तक पहुँचाता है। शायद यही कारण है कि सन् 1919, जबसे गाँधी का राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश होता है, से लेकर सन् 1947, जब भारत को आज़ादी मिली, तक के कालखंड को भारतीय इतिहास में राष्ट्रीय आन्दोलन का गाँधीवादी चरण माना जाता है।
यदि उद्देश्यों के आलोक में देखा जाय, तो गाँधी के नेतृत्व में चाहे क्षेत्रीय स्तर पर होने वाले आन्दोलन हों अथवा राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले आन्दोलन; उनमें उद्देश्यों के स्तर पर स्पष्टता दिखाई पड़ती है। 1920 ई. में शुरू असहयोग आन्दोलन के ले सन्दर्भ में गाँधी ने एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्ति का लक्ष्य रखा, तो 1930 के दशक के आरम्भ में शुरू होनेवाले सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति को और 1940 के दशक के आरम्भ में होनेवाले भारत छोड़ो आन्दोलन के सन्दर्भ में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ एवं इसके लिए ‘करो या मरो’; यद्यपि यह भी सच है कि अगर भारत छोड़ो आन्दोलन को छोड़ दें, तो इन उद्देश्यों को लेकर गाँधी ने आग्रहशीलता नहीं प्रदर्शित की। उन्होंने लोचशीलता प्रदर्शित करते हुए औपनिवेशिक सत्ता के साथ मोल-भाव की सम्भावना को बनाये रखा।
गाँधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को न केवल सांगठनिक ढाँचा प्रदान किया, वरन् इसके जरिये स्थानीय स्तर पर नेतृत्व के उभार की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करते हुए स्थानीय नेतृत्व एवं राष्ट्रीय नेतृत्व के बीच बेहतर तालमेल को सुनिश्चित किया। इसने काँग्रेस को सही मायने में एक अखिल भारतीय संगठन में तब्दील करते हुए अखिल भारतीय आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करने की स्थिति में ला दिया। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन का भौगोलिक आधार भी विस्तृत हुआ और सामाजिक आधार भी। अबतक बंगाल और महारष्ट्र राष्ट्रीय आन्दोलन के गढ़ रहे, लेकिन गाँधी के नेतृत्व में यह फोकस बिहार और गुजरात की ओर शिफ्ट करता दिखाई पड़ता है जन-शक्ति में उनकी आस्था और जनता की नब्ज़ पर उनकी पकड़ ने ऐसे मुद्दों को पहचानने, जो जनता के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे, और इसके आधार पर आम लोगों को संगठित करते हुए आन्दोलन की प्रभावशीलता को सुनिश्चित करने में उनकी मदद की। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि समाजवादियों और वामपंथियों के तमाम दबाव के बावजूद 1939 ई. में गाँधी किसी आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार नहीं हुए और गाँधी की मर्जी के विरुद्ध काँग्रेस ने अध्यक्ष के रूप में गाँधी द्वारा समर्थित पट्टाभिसीतारमैया के बजाय सुभाष चन्द्र बोस को चुना, फिर भी सुभाष किसी आन्दोलन को खड़ा कर पाने में असमर्थ रहे। इसी प्रकार 1942 ई. में काँग्रेस कार्यसमिति ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के गाँधी के प्रस्ताव को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं थी, तो काँग्रेस को धमकी देते हुए गाँधी ने कहा था कि ‘अगर काँग्रेस उनके प्रस्ताव का समर्थन नहीं करती है, तो वे देश के बालू से काँग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा करेंगे।’ गाँधी के दबाव में काँग्रेस कार्यकारिणी समिति को उनका प्रस्ताव पारित करना पड़ा और इसका परिणाम भारत छोड़ो आन्दोलन के रूप में हुआ जो गाँधी के नेतृत्व में होने वाले आन्दोलनों में सबसे अधिक प्रभावी एवं निर्णायक साबित हुआ। इसके अतिरिक्त, इसमें दो आंदोलनों के बीच की अवधि में चलाये जाने वाले रचनात्मक कार्यक्रमों ने भी अहम् एवं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई भर नहीं रहने दिया, वरन् सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मुक्ति की लड़ाई में तब्दील करते हुए इसमें व्यापक जन-भागीदारी को सुनिश्चित किया।
गाँधी के पहले तक राष्ट्रीय आन्दोलन में जन-भागीदारी सीमित स्तर पर था। नरमपंथियों के समय राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रकृति अगर अभिजातवर्गीय थी और उसका एजेंडा भी उसी के अनुरूप निर्धारित हुआ, तो गरमपंथियों के समय इसका आधार उच्च मध्यवर्ग तक फैला और राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रकृति अभी भी बहुत हद तक अभिजातवर्गीय ही बनी रही। इसीलिए यह औपनिवेशिक सत्ता पर एक सीमा से अधिक दबाव उत्पन्न कर पाने में असमर्थ रहा। लेकिन, गाँधी के आगमन के साथ इसकी मूल प्रकृति में भी परिवर्तन आता है और इसके एजेंडे में भी। चंपारण एवं खेड़ा के जरिये अगर किसानों को इससे जोड़ने में मदद मिली, तो अहमदाबाद के जरिये मजदूरों को। खिलाफत के मसले पर मुसलमानों को इससे जोड़ा गया, तो मंदिर-प्रवेश आंदोलनों के जरिये दलितों को। आन्दोलन के अहिंसक स्वरुप को सुनिश्चित करते हुए इसमें बच्चों, बूढ़ों एवं महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। स्पष्ट है कि गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के संगठन, विचारधारा एवं कार्यक्रम के स्तर में बुनियादी बदलाव आये और इसने राष्ट्रीय आन्दोलन की दशा एवं दिशा को परिवर्तित कर दिया।

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