प्रमुख अंश
पार्ट-1: सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय
पार्ट-2: हिंदुत्व मामले की समीक्षा नहीं
पार्ट-3: बहुमत न्यायाधीशों का पक्ष
पार्ट-4: अल्पमत न्यायाधीशों का पक्ष
पार्ट-5: फैसले का महत्व
पार्ट-6: भारतीय राजनीति में जाति एवं धर्म
फरवरी-मार्च,2017 में पाँच राज्यों में प्रस्तावित विधानसभा-चुनावों में जाति, धर्म, और सम्प्रदाय के नाम पर मतदाताओं को बाँटना और मतदाताओं से वोट देने या न देने की अपील करना राजनीतिक दलों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। कारण यह कि एक तो इस साल के आरम्भ में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में उम्मीदवारों के साथ-साथ मतदाताओं के धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट माँगना गैर-कानूनी बताया था, दूसरे अदालत के इन आदेशों के आलोक में चुनाव आयोग ने साफ कर दिया कि अगर कोई भी उम्मीदवार, उसका एजेंट या फिर उसकी सहमति से उसका प्रचारक सुप्रीम कोर्ट के आदेश या आचार-संहिता का उल्लंघन करता है, तो आयोग चुप नहीं बैठेगा और सख्त कार्रवाई करेगा। चुनावी आचार-संहिता में राजनीतिक दलों को इस बात का सख्त निर्देश दिया गया है कि
वे ऐसी बयानवाजी से सख्त परहेज़ करें जो जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के नाम पर के नाम पर समाज में नफरत फ़ैलाते हैं और जिससे सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र समाप्त होता है। हाल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश से चुनावी आदर्श आचार-संहिता और ज्यादा मजबूत हुई है।
मामला क्या था:
1987 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान बाल ठाकरे और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी सहित शिवसेना एवं भाजपा के बारह सदस्यों के खिलाफ जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123(3) के उल्लंघन से सम्बंधित मामले में बम्बई उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई। इस याचिका के जरिये तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि “उन्होंने चुनाव-प्रचार के दौरान कहा था कि महाराष्ट्र में पहला हिंदू राज्य बनेगा।” 1991-92 में इस मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने धारा 103(3) की नई व्याख्या करते हुए चुनावी भाषणों में हिंदुत्व शब्द के प्रयोग एवं उसके नाम पर वोट मांगने को चुनाव में भ्रष्ट तरीका माना था और शिवसेना एवं भाजपा के दिग्गज नेताओं सहित 10 लोगों के चुनाव रद्द किए थे। बम्बई उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए जो निर्णय सुनाया, उसे हिंदुत्व मामला के रूप में जाना गया। इस फैसले में सर्वोच्च अदालत ने मनोहर जोशी के चुनाव को वैध ठहराया था। लेकिन, इस मामले के कुछ ही महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा के अभिराम सिंह द्वारा दायर याचिका को विचार के लिए बड़े पाँच सदस्यीय संवैधानिक बेंच के पास स्थानांतरित किया, जिसे 2014 में सुन्दर लाल पटवा वाद के साथ जोड़ते हुई सात सदस्यीय संवैधानिक पीठ को सौंपा गया। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इसी याचिका पर विचार करते हुए आया जिसमें सवाल उठाया गया था कि चुनाव के दौरान उम्मीदवारों, उसके एजेंटों या फिर उन दोनों में से किसी की सहमति से उनके प्रचारकों के द्वारा मतदाताओं के धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन-प्रतिनिधित्व कानून के तहत् भ्रष्ट-आचरण है या नहीं? इस प्रश्न का सम्बन्ध जाकर जुड़ता है जन-प्रतिनिधित्व कानून(RPA),1951 की धारा-123(3) से।
जन-प्रतिनिधित्व कानून(RPA),1951: सम्बंधित उपबंध:
जन-प्रतिनिधित्व कानून(RPA),1951 की धारा-123(3) भ्रष्ट-आचरण को परिभाषित करती है। इसके प्रावधानों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. इस अधिनियम की धारा-123(3) के अनुसार चुनाव के दौरान किसी उम्मीदवार, उसके अधिकृत एजेंट या फिर इन दोनों में से किसी की सहमति से कोई भी व्यक्ति किसी मतदाता से धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय या भाषा के नाम पर अपने पक्ष में या फिर अपने उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने की अपील करता है, या फिर इन्हीं आधारों पर अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के पक्ष में मत न देने की अपील करता है जिससे अन्य उम्मीदवारों की चुनावी संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ता है, तो इसे भ्रष्ट-आचरण माना जाएगा।
2. इसी अधिनियम की धारा-123(3A) में इस बात का उल्लेख है कि यदि कोई उम्मीदवार, उसका एजेंट या फिर दोनों में से किसी की सहमति से कोई भी व्यक्ति चुनाव के दौरान मतदाताओं के बीच धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय या भाषा के नाम पर लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश करता है, उनके बीच नफरत एवं शत्रुता की भावना फैलाने की कोशिश करता है, तो उसकी यह कोशिश भ्रष्ट-आचरण कहलाएगी।
3. इसी अधिनियम की धारा-98 के अनुसार चुनावी याचिका की सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय एक आदेश जारी करेगा जिसके जरिये चुनावी याचिका को या तो ख़ारिज किया जाएगा या फिर आरोपित उम्मीदवार के निर्वाचन को रद्द घोषित करते हुए वादी या किसी अन्य उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाएगा।
4. अधिनियम की धारा 100 के तहत् ऐसे उम्मीदवार के निर्वाचन की घोषणा को रद्द किया जा सकता है जिसे भ्रष्ट-आचरण का दोषी पाया गया है।
5. इसी अधिनियम की धारा-8A के अनुसार उपरोक्त दोनों ही स्थितियों में धारा-98-99 के अंतर्गत उच्च न्यायालय के द्वारा चुनावों के दौरान भ्रष्ट-आचरण का दोषी पाए जाने पर ऐसे व्यक्ति से सम्बंधित मसले को यथाशीघ्र केंद्र द्वारा प्रतिनियुक्त अधिकारी के द्वारा राष्ट्रपति को इस प्रश्न के विनिर्धारण के लिए सौंपा जाएगा कि ऐसे व्यक्ति को कितने समय के लिए अयोग्य घोषित किया जाएगा। ऐसी कोई भी अयोग्यता न्यायालय द्वारा आदेश जारी किये जाने की तिथि से अधिकतम छह वर्षों के लिए प्रभावी होगी।
6. इसी अधिनियम की धारा-8A की उपधारा (3) के अनुसार राष्ट्रपति ऐसी किसी भी याचिका पर चुनाव आयोग से राय लेंगे और उस राय के अनुरूप निर्णय लेंगे।
स्पष्ट है कि भारत के नागरिकों के बीच धर्म, नस्ल, जाति, संप्रदाय या भाषा के आधार पर आपसी विद्वेष को बढ़ावा देना या चुनाव में खड़े प्रत्याशियों द्वारा स्वयं या अपने प्रतिनिधियों माध्यम से चुनावी नतीजों को प्रभावित करने के लिए ऐसे विवाद को हवा देना जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार ‘भ्रष्ट-आचरण’ है और इसके लिए सजा का प्रावधान किया गया है।
धारा 8 को लेकर विवाद:
इस अधिनियम की धारा 8 में 'उसका धर्म’ पदबंध का उल्लेख है जिसकी व्याख्या को लेकर अस्पष्टता की स्थिति रही है। 1996 में प्रभु मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केवल उम्मीदवारों एवं प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों के धर्म के आधार पर की जाने वाली अपील को भ्रष्ट-आचरण माना था। इसका मतलब यह हुआ कि उम्मीदवार तो ऐसी अपील नहीं कर सकता है, पर उसके समर्थन में रैली कर रहे राजनीतिक दलों के नेता ऐसा कर सकते हैं। महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि ऐसी व्याख्या राजनीतिक दलों को उनके घोषणापत्रों और चुनावी-भाषणों के माध्यम से धर्म के आधार पर चुनावी-प्रचार और अपील के लिए स्वतंत्र छोड़ देती है। स्पष्ट है कि अबतक अदालत इस धारा में उल्लिखित ‘उसका धर्म’ के दायरे में केवल उम्मीदवार और प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के धर्म को मानती रही है। मतदाताओं के धर्म को इसके दायरे से बहार माना जाता रहा है। इन्हीं विसंगतियों के आलोक में सुप्रीम कोर्ट से 'उसके धर्म’ की व्याख्या की अपेक्षा की गई। सुनवाई के दौरान संवैधानिक बेंच ने इस प्रश्न पर विचार किया कि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम धर्म के नाम पर वोट मांगने के लिए अपील करने के मामले में किसके धर्म की बात करता है: उम्मीदवार के धर्म की या उसके एजेंट के धर्म की या फिर तीसरे पक्ष के धर्म की? इसमें वोट मांगने वाले के धर्म की बात है या फिर वोटर के धर्म की बात है?
पार्ट-1
सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय
जनवरी,2017 में अभिराम सिंह बनाम् सी. डी. कोम्माचें और नारायण सिंह बनाम् सुन्दर लाल पटवा वाद में दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की संवैधानिक पीठ ने धर्म और राजनीति के पार्थक्य को सुनिश्चित करने की कोशिश की। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब अदालत ने ये बातें कही हो, पर हिंदुत्व मामला,1995 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने अस्पष्टता की जिस स्थिति को सृजित किया था, उसमें इस फैसले की ज़रुरत लम्बे समय से महसूस हो रही थी। इस फैसले में भारत के मुख्य न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने कहा कि चुनाव में उम्मीदवार, उसके एजेंट या फिर उसके समर्थकों द्वारा धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट मांगना संविधान की मूल भावना के खिलाफ प्रतिकूल है। इसीलिए ऐसी गतिविधियों के संचालन में धर्म, जो व्यक्तिगत आस्था का विषय है और जिससे न तो राज्य एवं न ही किसी अन्य व्यक्ति का कुछ लेना-देना है, के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इसी का तो निषेध धारा 123(3) के ज़रिये किया गया है।
अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय मानते हुए यह स्पष्ट किया कि कि चूँकि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष-प्रक्रिया है, इसीलिए जन-प्रतिनिधियों को भी अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए। ऐसी गतिविधियों के संचालन में धर्म, जिससे न तो राज्य एवं न ही किसी अन्य व्यक्ति का कुछ लेना-देना है, के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। कोई भी सरकार न तो खुद को धर्म-विशेष के साथ सम्बद्ध कर सकती है और न ही किसी धर्म-विशेष के साथ विशेष व्यवहार ही कर सकती है। इसी तर्क के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनाव लड़ने का अधिकार एक सांविधिक अधिकार है जिसका विनियमन जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम के द्वारा किया जाता है, जबकि धर्मनिरपेक्षता बुनियादी लक्षण। इसीलिये जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम और धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के बीच तालमेल अपेक्षित है। इसी आलोक में संविधान पीठ का मानना है कि किसी भी प्रकार के कट्टरवाद से सख्ती से निबटा जाना चाहिए, ताकि राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को संरक्षित एवं प्रोत्साहित किया जा सके। इसीलिए यदि चुनाव के दौरान कोई उम्मीदवार, उसका एजेंट या फिर उनमें से किसी की भी सहमति से कोई व्यक्ति धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर वोटरों से समर्थन एवं वोट की अपील करता है, तो इसे इस धारा के तहत् भ्रष्ट-आचरण माना जायेगा और दोष-सिद्ध होने की स्थिति में आरोपी उम्मीदवार का चुनाव रद्द किया जा सकता है। इसके लिए न्यायाधीशों ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) की व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करते हुए कहा कि इस धारा में उल्लिखित ‘उसके धर्म’, जिसे 1961 में जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन के जरिये जोड़ा गया था, के दायरे में प्रत्याशी और विरोधी के धर्म के अलावा मतदाता का धर्म भी शामिल माना जाएगा।
संवैधानिक पीठ में निर्णय को लेकर मतभेद:
सात सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने इस मामले में अपना निर्णय 4-3 के बहुमत से दिया। संवैधानिक पीठ में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी. एस. ठाकुर, न्यायमूर्ति एम. बी. लोकुर, न्यायमूर्ति एल. एन. राव एवं न्यायमूर्ति एस. ए. बोबडे का बहुमत के विचार का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जबकि अल्पमत के विचार का प्रतिनिधित्व न्यायमूर्ति यू. यू. ललित, न्यायमूर्ति ए. के. गोयल और न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ के द्वारा किया जा रहा था। बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने अपने पक्ष में तर्क देते हुए कहा:
1. अगर ‘उसका धर्म’ से आशय केवल प्रत्याशी के धर्म से लिया जाय, तो इसका मतलब होगा कि एक यहूदी उम्मीदवार तो यहूदी वोटों के लिए अपील नहीं कर सकता है, पर वह गैर-यहूदी वोटों के लिए अपील कर सकता है। इसी प्रकार इसका यह भी मतलब होगा कि कोई मुस्लिम उलेमा मुसलमानों के लिए फतवा जारी कर उससे हिंदू उम्मीदवार के पक्ष में वोट करने के लिए अपील कर सकता है और यह अपील जायज़ होगी।
2. संवैधानिक पीठ का यह भी कहना है कि जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा और नस्ल पर आधारित भाषण न केवल समाज में विभिन्न स्तरों पर ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करते हुए सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने वाले साबित होते हैं, वरन् नागरिकों के बीच अजनबीयत एवं अलगाव की भावना को आरोपित करते हुए संवैधानिक जनादेश को खतरे में डालता है।
3. इसीलिए लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती और सफलता के लिए यह आवश्यक है कि संसद, विधानमंडल एवं स्थानीय निकाय के चुनावों को धर्म, जाति, समुदाय, भाषा एवं नस्ल-आधारित संकीर्णतावादी मानसिकता के प्रभाव से मुक्त किया जाय।
4. बहुमत का मानना है कि 1961 में जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन के माध्यम से अभिव्यक्त संसद की भावना भी धारा 123(3) की व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की अपेक्षा करती है क्योंकि संसद ने वोट के लिए धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर की जाने वाली अपील पर अंकुश लगाने के लिए ही अधिनियम में संशोधन के जरिये भ्रष्ट-आचरण के दायरे को व्यापक बनाया था.
इसी आलोक में संविधान पीठ ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा मानते हुए संविधान की मूल भावना के अनुरूप धारा 123(3) की व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की है, ताकि इन विसंगतिपूर्ण स्थिति से बचते हुए धर्मनिरपेक्ष चुनाव-प्रक्रिया को सुनिश्चित किया जा सके और विभाजनकारी शक्तियों पर अंकुश लगाते हुए राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को मजबूती दी जा सके। स्पष्ट है कि इस प्रावधान का मूल उद्देश्य राजनीतिक प्रक्रिया से धर्म के अलगाव को सुनिश्चित करना है।
विभिन्न राजनीतिक दलों का पक्ष:
इस मामले में कांग्रेस का तर्क था कि किसी भी उम्मीदवार, उसके एजेंट या फिर तीसरी पार्टी द्वारा धर्म के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है। माकपा की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट मांगने पर चुनाव रद्द हो। इसके विपरीत सत्तारूढ़ दल भाजपा की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट का मतलब उम्मीदवार के धर्म से होना चाहिए। उसका मानना था कि इस प्रश्न को व्यापक नजरिये से देखने की जरूरत है क्योंकि कई राजनीतिक दलों का गठन ही भाषाई एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों को ध्यान में रखकर किया गया है। ऐसे में किसी दल या किसी उम्मीदवार और उसके समर्थक को धर्म के नाम पर वोट मांगने को पूरी तरह से कैसे रोका जा सकता है? राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं गुजरात की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यद्यपि धर्म के नाम पर वोट के लिए की गयी अपील को भ्रष्ट आचरण के रूप में स्वीकार किया, लेकिन यह दलील दी कि धर्म को चुनावी-प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। राज्य सरकारों के इस प्रतिनिधित्व के औचित्य को लेकर संवैधानिक बेंच ने आपत्ति व्यक्त की।
सिविल सोसाइटी का पक्ष:
इस पूरे प्रकरण में सिविल सोसाइटी का भी पक्ष सामने आता है, जो कहीं-न-कहीं विभाजित है। हाल ही में सोशल एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड, प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम और दिलीप सी. मंडल ने भी सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर हिंदुत्व मामले में निर्णय की समीक्षा और धर्म एवं राजनीति के पृथक्करण की गुहार लगाई थी। लेकिन, दूसरे पक्ष का मानना है कि जाति एवं धर्म के मसले को हमेशा जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता से सम्बद्ध करके देखना भी उचित नहीं है। कई बार ऐसे मसले वंचित एवं कमजोर समुदायों के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हुई किसी ज्यादती की मुखालफत या उनकी किसी न्यायोचित सामाजिक-शैक्षिक माँग से भी जुड़े हो सकते हैं, जिसकी संविधान पीठ का फैसला अनदेखी करता है। मार्क्स ने भी जब धर्म की भूमिका को वैज्ञानिक तरीके से समझाते हुए कहा कि “धर्म दमित प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है और आत्महीन स्थितियों की आत्मा है. धर्म जनता की अफीम है.”, तो उसने धर्म को बदनाम करने की बजाय उसकी इसी भूमिका की पर संकेत किया है। ऐसी स्थिति में राजनीति में जाति एवं धर्म की भूमिका के निषेध का मतलब इन समुदायों से सशक्तीकरण के एक महत्वपूर्ण उपकरण का छिन जाना भी होगा।
पार्ट -2
हिंदुत्व मामले की समीक्षा नहीं
अक्टूबर,2016 में इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की उस याचिका को ख़ारिज कर दिया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट से हिंदुत्व-मामला,1995 में दिए गए फैसले समीक्षा और उसकी दोबारा व्याख्या की अपील की गयी थी। याचिका में कहा गया है कि पिछले ढाई साल से देश में हिंदुत्व-मामला,1995 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इन आदेशों की आड़ में उन लोगों के लिए असुरक्षा का माहौल बनाया जा रहा है, जो सरकार और सत्तारूढ़ दल की नीतियों से वैचारिक असहमति रखते एवं प्रदर्शित करते हैं। पिछले ढाई साल के दौरान सत्तारूढ़ दल एवं सरकार के रवैये ने एक संकीर्ण श्रेष्ठतावादी मानसिकता के तेजी से उभार को संभव बनाया है और इसने अल्पसंख्यकों, स्वतंत्र विचारकों, नास्तिकों और उन सभी लोगों, जिनका मानना है कि संवैधानिक आदर्श लिंग, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, नस्ल, भाषा, आस्था और राजनीति से परे सभी लोगों के लिए सर्वोपरि हैं, में गहरी असुरक्षा की भावना को जन्म दिया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को ऐसे भाषण देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। अपने निर्णय में भी संवैधानिक बेंच ने यह स्पष्ट किया कि वह दिसंबर,1995 में हिंदुत्व-मामले में जस्टिस जे. एस. वर्मा के नेतृत्व वाले संवैधानिक बेंच के फैसले की समीक्षा नहीं करेगी. संवैधानिक बेंच की अध्यक्षता करते हुए मुख्य न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने कहा कि 1995 में जब तीन सदस्यीय बेंच ने इस मसले को विचारार्थ पांच सदस्यीय संवैधानिक बेंच को रेफ़र किया था और बाद में यह मसला सात सदस्यीय बेंच के पास पहुंचा, तो उस रेफरेंस में कहीं भी हिंदुत्व की पुनर्व्याख्या की अपेक्षा नहीं की गयी थी. फैसले के किसी भी हिस्से में इस बात का जिक्र नहीं है और जिस बात का जिक्र ही नहीं है, उसे हम कैसे सुन सकते हैं?
हिंदुत्व मामला,1995:
1995 में चीफ जस्टिस जे. एस. वर्मा के नेतृत्व में तीन सदस्यीय बेंच ने बाल ठाकरे और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी सहित शिवसेना एवं भाजपा के बारह सदस्यों द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव,1987 के दौरान जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123(3) के उल्लंघन से सम्बंधित मामले में बम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध याचिका की सुनवाई करते हुए जो निर्णय सुनाया, उसे हिंदुत्व मामला के रूप में जाना गया. ध्यातव्य है कि 1991-92 में इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने धारा 103(3) की नई व्याख्या करते हुए चुनावी भाषणों में हिंदुत्व शब्द के प्रयोग एवं उसके नाम पर वोट मांगने को चुनाव में भ्रष्ट तरीका माना था और शिवसेना एवं भाजपा के दिग्गज नेताओं सहित 10 लोगों के चुनाव रद्द किए थे। मनोहर जोशी वाद,1996 में दिए गए इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 123(3), धारा 123(3A) एवं धारा 100(1B) के हवाले ‘उम्मीदवार या उसके चुनाव-एजेंट से सहमति’ को ‘भ्रष्ट-आचरण’ की मूलभूत शर्त बतलाते हुए कहा कि “महत्वपूर्ण उम्मीदवार है, राजनीतिक पार्टी का मुद्दा नहीं।” इसी आलोक में अदालत ने बॉम्बे हाईकोर्ट के निर्णय को यह कहते हुए पलट दिया कि “उम्मीदवार से सम्बद्ध राजनीतिक दल के नेता के इस कथन, कि चुनाव हिंदू धर्म और हिंदुत्व के नाम पर लड़ा जा रहा है, से उम्मीदवार की सहमति साबित नहीं हो सकी है, इसीलिए इसे भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता है।” इस निर्णय में अदालत ने यह भी कहा कि “महज इस बयान, कि महाराष्ट्र में पहला हिंदू राज्य स्थापित किया जाएगा, को धर्म के नाम पर अपील का आधार नहीं माना जा सकता है। इसे अधिक-से-अधिक ऐसी आशा की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। हालांकि ऐसे बयान तिरस्कार-योग्य हो सकते हैं, पर ये इतने गंभीर नहीं हैं कि इन्हें वोट के लिए धर्म के नाम पर की जाने वाली अपील माना जाय।”
1995 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा के नेतृत्व वाले तीन सदस्यीय पीठ ने हिंदुत्व की व्याख्या करते हुए कहा था कि “ सामान्यतया हिंदू कोई धर्म नहीं है, बल्कि संस्कृति एवं जीवन-शैली का प्रतीक है। इसीलिये न तो इसे हिंदू धर्म एवं आस्था तक सीमित रखा जाना चाहिए और न ही इसे धार्मिक हिन्दू कट्टरपंथ से जोड़कर देखा जाना चाहिए।” कोर्ट का मानना था, “हिंदुत्व को केवल हिंदू धर्म की मान्यताओं के आधार पर नहीं समझा जाना चाहिए। यह भारतीय लोगों के जीवन जीने की पद्धति है। यह हो सकता है कि इन शब्दों को भाषण में इसलिए शामिल किया जाता है ताकि धर्मनिरपेक्षता का प्रचार हो।” उस समय तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा ने कहा था कि “चुनाव-अभियान के दौरान हिंदुत्व या हिंदू धर्म या एक हिंदू राज्य की मांग जैसे शब्दों के उपयोग पर कोई रोक नहीं होगी क्योंकि चूँकि 'हिंदुत्व' के नाम पर वोट मांगने से किसी उम्मीदवार को कोई फ़ायदा नहीं होता है, इसीलिये हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगना जनप्रतिनिधित्व की धारा 123(3) के तहत् भ्रष्ट आचरण नहीं है। ऐसा करने का मतलब धर्म के नाम पर वोट माँगना नहीं होगा जो धारा 123(3) के अंतर्गत प्रतिबंधित है.” इस फैसले के जरिए कोर्ट ने मनोहर जोशी के चुनाव को वैध ठहराया था, जिसे इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि “उन्होंने चुनाव-प्रचार के दौरान कहा था कि महाराष्ट्र में पहला हिंदू राज्य बनेगा।” लेकिन, इस मामले के कुछ ही महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा के अभिराम सिंह द्वारा दायर याचिका को विचार के लिए बड़े पांच सदस्यीय संवैधानिक बेंच के पास स्थानांतरित किया, जिसे 2014 में सुन्दर लाल पटवा वाद के साथ जोड़ते हुई सात सदस्यीय संवैधानिक बेंच को सौंपा गया.
हिंदुत्व मामले की विसंगतियाँ:
अगर इस निर्णय को पढ़ा जाय, तो इसकी विसंगतियां सामने आती हैं. इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व को परिभाषित करते हए इस तथ्य की अनदेखी की कि हिंदुत्व की जड़ें वी. डी. सावरकर के हिंदुत्व की उस संकल्पना में हैं जिसके अंतर्गत उन्होंने हिन्दू जाति के होने के नाते सभी प्रकार की सोच एवं गतिविधियों को शामिल किया था. इसकी बजाय उन्होंने मौलाना वहीउद्दीन खान की रचना ‘मुस्लिम्स: द नीड फॉर पॉजिटिव आउटलुक’ को आधार बनाया और उन्हें गलत तरीके से उद्धृत किया क्योंकि मौलाना ने मुश्किल से हिंदुत्व को एक मुक्ति आंदोलन के रूप में देखा गया. इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व को भारतीयकरण(Indianisation) के पर्याय के रूप में प्रस्तुत किया.
हिंदुत्व मामले में न्यायपालिका का निर्णय उचित नहीं:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल त्रुटिपूर्ण है, वरन् इसके निहितार्थ भी गंभीर हैं। यह निर्णय न केवल जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम के मूल उद्देश्यों की अनदेखी करता है, वरन् बहुलतावादी धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में भारत की संकल्पना(Idea of India) के लिए एक झटका है. संविधान सभा के साथ-साथ विभिन्न अवसरों पर संसद में होने वाली बहसों से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान का मूल चरित्र धर्मनिरपेक्ष है और धर्मनिरपेक्षता चुनावी राजनीति से पूरी तरह से धर्म को अलग करने का एक प्रयास है। जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम की ड्राफ्टिंग में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभाने वाले डॉ. आंबेडकर ने संविधान-सभा की बहस के दौरान कहा था कि “चुनावों का आयोजन उन मसलों के आधार पर किया जाना चाहिए जिनका धर्म और संस्कृति से कोई लेना-देना न हो.” अपनी बातों को आगे जारी रखते हुए उन्होंने कहा था कि “राजनीतिक दलों को ऐसे भावनात्मक मसलों पर अपील करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए जिनका लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन से सम्बन्ध नहीं जुड़ता हो.” 1964 में कुलतार सिंह बनाम् मुख्तियार सिंह वाद में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी. बी. गजेन्द्र गडकर का ऑब्जर्वेशन था कि चुनाव अभियान में धर्म, जाति या जाति के आधार पर किए गए अपील के लिए किसी भी विचलन की अनुमति लोकतांत्रिक जीवन के धर्मनिरपेक्ष वातावरण दूषित करेगी। इसी आलोक में जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में भ्रष्ट आचरण को परिभाषित करने का प्रयास किया गया. एस. आर. बोम्मई केस,1994 में न्यायमूर्ति बी. पी. जीवन रेड्डी ने यह स्पष्ट किया कि धर्म के मुद्दे पर चुनाव लड़ने का मतलब है देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे का क्षरण।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने कहीं-न-कहीं हिन्दुत्ववादी राजनीति को बल प्रदान किया. न्यायपालिका द्वारा हिन्दू धर्म एवं हिंदुत्व की उदार और सहिष्णु व्याख्या के बावजूद पिछले दो दशकों के दौरान चुनाव के समय हिंदुत्व का इस्तेमाल अनुचित राजनीतिक लाभ हासिल करने एवं सांप्रदायिकता के आरोप को ख़ारिज करने के लिए किया गया और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया। स्पष्ट है कि इसने उन लोगों का हौसला बढ़ाया जो हिंदुत्व का राजनीतिक इस्तेमाल करना चाहते हैं। यही कारण है कि इस निर्णय को न्यायपालिका के हिन्दुत्ववादी रुझानों के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए विशेषज्ञों ने हिंदुत्व को लेकर न्यायपालिका के पूर्वाग्रह की ओर इशारा किया. यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि अगर हिंदुत्व एक जीवन-पद्धति है, तो इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी, सिक्ख, बौद्ध और जैन धर्म क्या हैं? क्या यह सच नहीं है कि धर्म, चाहे कोई भी हो, अपने आप में एक जीवन-पद्धति है. ऐसी स्थिति में इस मामले को 1995 के फैसले में न्यायपालिका द्वारा की गयी भूल को सुधारने वाले अवसर के रूप में देखा जा रहा था जिसके जरिये न्यायपालिका लोकतांत्रिक नैतिकता और शालीनता के प्रश्न को केंद्र में रखते हुए भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में पवित्रता एवं सत्यनिष्ठा को मजबूती प्रदान कर सकती थी, लेकिन न्यायपालिका ने इस अवसर को गँवा दिया. संभव है कि वर्तमान राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में दक्षिणपंथी हिंदुत्व के उभार के कारण न्यायपालिका ने इस अति-संवेदनशील विषय को न छेड़ना ही उचित समझा हो. वैसे, यह मसला संदर्भित विषयों की सूची में शामिल नहीं था.
यह सच है कि अदालत का काम किसी धर्म को परिभाषित करना नहीं, वरन् यह सुनिश्चित करना है कि राज्य धार्मिक आधार पर पक्षपात या भेदभाव न करे और न किसी भी पक्ष के द्वारा चुनाव-प्रक्रिया के दौरान धर्म का अनुचित इस्तेमाल ही किया जाय। अदालत से यही चूक 1995 में हुई थी जिसे दुरुस्त किये जाने की अपेक्षा थी। लेकिन, 1995 के निर्णय की समीक्षा से इंकार कर अदालत ने पूर्व के निर्णय में उलझने से बचने की कोशिश करते हुए कम-से-कम इतना तो स्पष्ट कर दिया कि उसकी चिंता धर्म को परिभाषित करने की बजाय चुनाव की मर्यादा की रक्षा को लेकर है और इसके लिए वह इसके ग़ैर-वाजिब इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए प्रतिबद्ध है।
पार्ट -3
बहुमत न्यायाधीशों का पक्ष
बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए संसदीय एवं विधायी इतिहास का हवाला देते हुए कहा कि इनका मूल उद्देश्य सांप्रदायिक, विभाजनकारी एवं अलगाववादी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना था। इसी आलोक में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता सार्वजनिक जीवन से धर्म के पूरी तरह से बहिष्कार की मांग करती है, जिसके लिए आवश्यक है कि चुनाव जैसी धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों में धर्म जैसे व्यक्तिगत मसले के लिए न तो राज्य और न ही किसी अन्य व्यक्ति के सन्दर्भ में कोई जगह हो। अंत में बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि धारा 123(3) को केवल चुनाव में खड़े होनेवाले प्रत्याशियों तक सीमित करना लोकहित के प्रतिकूल होगा, इसीलिए ‘उसका धर्म’ को प्रत्याशियों के साथ-साथ मतदाताओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए। इसीलिए धारा 123(3) चुनाव-प्रक्रिया के दौरान इन दोनों पर लागू होगा।
बहुमत के न्यायाधीशों का यह फैसला विधियों के सोद्देश्य निर्माण के सिद्धांत पर आधारित है। इनका मानना है कि जन-प्रतिनिधित्व कानून,1951
हमें अपने लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूती प्रदान करने में सक्षम बनाता है। भारत जैसे विशाल देश में इसकी इस तरीके से व्याख्या, जो मतदाताओं की बजाय उम्मीदवारों की निर्वाचन में सहायता करता है, वास्तव में लोकहित के विरुद्ध होगी. इसीलिए अदालत को संविधान की मूल भावनाओं और संवैधानिक आदर्शों को ध्यान में रखना चाहिए और इसी के अनुरूप विधायी उपबंधों की व्याख्या करनी चाहिए ताकि राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का बहाल रखा जा सके और मजबूती प्रदान किया जा सके। चुनावी प्रक्रिया निस्संदेह राज्य की धर्मनिरपेक्ष गतिविधियाँ हैं।
हमें अपने लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूती प्रदान करने में सक्षम बनाता है। भारत जैसे विशाल देश में इसकी इस तरीके से व्याख्या, जो मतदाताओं की बजाय उम्मीदवारों की निर्वाचन में सहायता करता है, वास्तव में लोकहित के विरुद्ध होगी. इसीलिए अदालत को संविधान की मूल भावनाओं और संवैधानिक आदर्शों को ध्यान में रखना चाहिए और इसी के अनुरूप विधायी उपबंधों की व्याख्या करनी चाहिए ताकि राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का बहाल रखा जा सके और मजबूती प्रदान किया जा सके। चुनावी प्रक्रिया निस्संदेह राज्य की धर्मनिरपेक्ष गतिविधियाँ हैं।
बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों का मानना है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 325-326 सार्वभौम वयस्क मताधिकार की संकल्पना लेकर आता है और भारत के एक नागरिक के रूप में मत देने के संवैधानिक अधिकार की घोषणा करता है। मतलब यह कि सार्वभौम मताधिकार की संकल्पना को यह नागरिकता पर आधारित मानता है। इसीलिए जब हम वोट करते हैं, तो एक नागरिक के रूप में वोट करते हैं। इसी आलोक में इनकी अपेक्षा है कि एक मतदाता के रूप में भी हम सार्वभौम नागरिक के रूप में व्यवहार करें। इनका मानना है कि सार्वभौम नागरिक के रूप में हमारा व्यवहार लोकतांत्रिक सार्वजनिक क्षेत्र की संकल्पना को सुदृढ़ करेगा। लेकिन, यह संभव तब होगा, जब हम नागरिक के रूप में अपनी संकीर्ण व्यक्तिगत एवं सामूहिक पहचान को छोड़ते हुए तार्किक एवं बौद्धिक नागरिक के रूप में क्षेत्र में लोकहित में होनेवाले सार्वजानिक विचार-विमर्श में अपनी व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करें। ऐसा करने में राज्य हमारी मदद कर सकता है। वह भावनात्मक अपील पर आधारित राजनीतिक बयानबाजी पर अंकुश लगाते हुए हमें संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक विज़न के अनुरूप सच्चा नागरिक बनने के लिए प्रेरित कर सकता है।
अल्पमत पक्ष के न्यायाधीशों की तरह ही बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने भी “उसका धर्म’ की व्याख्या संसदीय बहसों के परिप्रेक्ष्य में की है, बस फर्क है तो नज़रिए का। बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने ए. के. सेन के इसी स्पीच को भारतीय दंड संहिता की धारा 153A से सम्बंधित संशोधनों के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए भिन्न निष्कर्ष निकाला है। उन्होंने तत्कालीन विधि मंत्री सेन के इस स्पीच का हवाला दिया: " मुझे लगता है कि बिना किसी अपवाद के, यह पूरे सदन की भावना है कि चुनावी सफलता के लिए संकीर्ण धार्मिक, सांप्रदायिक या भाषाई संबद्धता के आधार पर लोगों को गुमराह करने के लिए की गई किसी भी अपील के पक्ष में न तो हम हैं और न ही यह कानून।“ उनका मानना था कि इस कठिन चुनौती से मुकाबले के क्रम में हमें इस आधार पर मतदाताओं को गुमराह करने की ऐसी किसी भी कोशिश का खुलकर सार्वजानिक रूप से विरोध किया जाना चाहिए। फिर उन्होंने प्रस्तावित संशोधनों के सन्दर्भ में यह आशा व्यक्त की कि ईमानदारी से लागू किये जाने की स्थिति में ये संशोधन चुनावी राजनीति में उन संकीर्णतावादी मानसिकताओं पर काफी हद तक प्रभावी अंकुश लगा पाने में समर्थ हो सकेंगे जो हाल के दिनों में पूरे देश में उभर कर सामने आते हैं।
पार्ट -4
अल्पमत न्यायाधीशों का पक्ष
यह निर्णय जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में उल्लिखित भ्रष्ट-आचरण के दायरे का विस्तार करता है। पहले इसके दायरे में उम्मीदवारों की पहचान के आधार पर की जाने वाली अपील आती थी, पर अब मतदाताओं की पहचान को ध्यान में रखकर की जाने वाली अपील भी आएगी। निश्चय ही विभाजन और घृणा पर आधारित चुनावी राजनीति पर अंकुश लगाने का इसका उद्देश्य सराहनीय है, पर अदालत के द्वारा इस बात की अनदेखी खटकती है कि पहचान एवं पहचान-आधारित संघर्ष भारतीय लोकतंत्र की विशिष्ट पहचान है। इसीलिए अल्पमत पक्ष के तीन न्यायाधीशों ने संवैधानिक पीठ द्वारा बहुमत से लिए गए निर्णय से असहमति प्रदर्शित करते हुए कहा:
1. यह सच है कि धारा 123 (3) किसी प्रत्याशी को यह कहने और इन आधारों पर वोट मांगने या वोट न देने की अपील करने से रोकता है क्योंकि किसी प्रत्याशी से यह अपेक्षा की गयी है कि वह पूरे निर्वाचन-क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करे, न कि उसके किसी एक समूह का। लेकिन, इसी तर्क को चुनाव-प्रक्रिया में शामिल होनेवाले नागरिक-मतदाताओं के सन्दर्भ में नहीं लागू किया जा सकता है।
2. धारा 123(3) के पीछे संसद का उद्देश्य चुनाव में धर्म, जाति, समुदाय या भाषा की चर्चा को गैर-कानूनी ठहराना नहीं है। गैर-कानूनी इन मसलों पर चर्चा नहीं है क्योंकि चर्चा का मतलब इन आधारों पर वोटिंग की अपील नहीं है। गैर-कानूनी है इस आधार पर मतदाताओं से वोटिंग या वोट न करने की अपील। और, इस धारा का उद्देश्य ऐसी किसी भी अपील को हतोत्साहित करना है।
3. इनका मानना था कि संविधान कहीं भी धर्म के नाम पर होने वाली बहसों पर रोक नहीं लगाता है। इसीलिए इस मामले में कोर्ट को हस्तक्षेप करने से परहेज़ करना चाहिए और कानून बनाने का मामला संसद पर छोड़ देना चाहिए।
4. इनका मानना है कि न्यायपालिका के द्वारा ‘उसका धर्म’ की व्याख्या चुनावी राजनीति और धर्म, मूलवंश, जाति, समुदाय और भाषा पर आधारित व्यक्तिगत या सामूहिक विशेषताओं के बीच सीमा-रेखा का निर्धारण करेगी.
5. साथ ही, इसका मतलब पिछले कई दशकों से चले आ रहे कानून से प्रस्थान होगा और वह भी तब, जब अदालत के पास इसके पर्याप्त कारण मौजूद नहीं हैं.
6. इसीलिए इनका मानना था कि धारा 123 (3) में उल्लिखित ‘उसका धर्म’ को शाब्दिक परिप्रेक्ष्य में सिर्फ उम्मीदवार और उनके विरोधी के धर्म के सन्दर्भ में लिया जाय, न कि मतदाता के धर्म के सन्दर्भ में। शायद यही कारण है कि संसद ने अधिनियम में उल्लिखित भ्रष्ट-आचरण के दायरे में मतदाताओं की सामाजिक-धार्मिक-भाषिक पहचान के उल्लेख से परहेज किया।
7. इसलिए भी कि व्यापक परिप्रेक्ष्य में की गयी कोई भी व्याख्या अनुच्छेद 19(1a) द्वारा प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर सकती है.
इतना ही नहीं, इस निर्णय के साथ प्रणालीगत समस्या (methodological problem) भी है क्योंकि अदालत के निर्णय का बड़ा हिस्सा सोद्देश्य व्याख्या के लिए समर्पित है, लेकिन सोद्देश्य व्याख्या को लेकर दोनों ही पक्ष के न्यायाधीशों में मत-भिन्नता की स्थिति दोनों पक्षों को दो विपरीत निष्कर्षों पर पहुँचा देती हैं जो इस प्रणाली को ही प्रश्न के दायरे में लाकर खड़ा कर देता है। इसे 1961 में तत्कालीन विधिमंत्री के संसद में दिए गए स्पीच के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। साथ ही, सोद्देश्य व्याख्या के क्रम में संसदीय इतिहास का तो हवाला दिया गया, पर चुनाव से सम्बंधित मामलों के कानूनी एवं व्यावहारिक पहलुओं की उपेक्षा की गई। इसीलिए यह कहा गया है कि यह न्यायपालिका की शक्तियों को विस्तार देता हुआ लीगल इंटीग्रिटी का अतिक्रमण करता है।
संविधान-पीठ में मतभेद के कारण:
अल्पमत और बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों के बीच असहमति के मूल में नागरिकता की अवधारणा और पहचान के प्रतीकों के महत्व को लेकर भिन्न नज़रिया भी मौजूद है। अल्पमत पक्ष के न्यायाधीशों की दृष्टि में न तो सार्वभौमिक नागरिकता की अवधारणा जैसी कोई चीज है और न ही इसकी झलक भारतीय संविधान में ही दिखाई पड़ती है। इन्होंने देश में शासन की स्थिरता को सुनिश्चित करने की दृष्टि से भी धर्म एवं जाति से सम्बंधित मसलों को महत्वपूर्ण माना। इनका मानना है कि मनुष्य के अस्तित्व को उसके सामाजिक सन्दर्भों में ही देखा जा सकता है, न कि उससे अलगाकर. भारत में इसे धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। इसी ने डॉ. अम्बेडकर को दलितों की मुक्ति के लिए समर्पित राजनीतिक दल के रूप में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ के गठन के लिए प्रेरित किया था। स्पष्ट है कि इनकी दृष्टि में शासन तक पहुँच का मतलब ऐतिहासिक अन्याय एवं सामाजिक विषमताओं का निवारण है।
अल्पमत के न्यायाधीशों की ओर से जस्टिस चंद्रचूड़ ने तत्कालीन विधि मंत्री ए. के. सेन के स्पीच का हवाला देते हुए कहा कि "इस बिल को पेश करते हुए तत्कालीन विधि मंत्री ने जो स्पीच दिया, उस स्पीच से इसमें संदेह की गुंजाईश नहीं रह जाती है कि ‘उसका’ शब्द चुनाव में खड़े उस प्रत्याशी के धर्म, जाति, समुदाय, नस्ल या भाषा के सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है जिसके लिए वोट मांगा गया है या फिर उस उम्मीदवार के लिए, जिसे मत देने से बचने की अपील की गई है और जिसकी चुनावी सम्भावना इस अपील से प्रतिकूलतः प्रभावित हो सकती है।” ध्यातव्य है, 1961 में जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन के समय तत्कालीन विधि मंत्री ने कहा था कि "मैंने सेलेक्ट समिति में ‘उसका’ शब्द यह स्पष्ट करने के लिए जोड़ा कि इस धारा के तहत उस शरारत को रोकने की कोशिश की गयी।....सब कुछ के बावजूद अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपनी ही अन्य चीजों का प्रचार-प्रसार करना व्यक्ति का अधिकार है। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि अन्य भाषाओं का तिरस्कार या समुदायों के बीच शत्रुता पैदा करने की अनुमति दे दी जाय। आप इसे चुनावी मुद्दा नहीं बना सकते हैं।” उन्होंने कहा कि “मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि यही सुनिश्चित करना इस सदन और इस देश का उद्देश्य है और इन्हीं के अनुरूप इसे डिजाइन क्या गया है। कोई भी आदमी केवल इसलिए अपील नहीं करेगा कि वह एक विशेष भाषा बोलता है और इसी कारण उसे उनका मत हासिल होना चाहिए; या फिर वह मतदाताओं से अपने प्रतिद्वंद्वी के विरुद्ध मतदान की अपील केवल इसलिए कर सकेगा कि उसका प्रतिद्वंद्वी एक विशेष भाषा नहीं बोलता है। प्रस्तावित संशोधन के जरिये इसी संकीर्ण मानसिकता के निषेध की कोशिश की गयी है।”
भारतीय संविधान के सन्दर्भ में हालिया निर्णय:
अल्पमत के न्यायाधीशों की दृष्टि में भारतीय संविधान इस बात से बेखबर नहीं है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा सार्वजानिक क्षेत्र में धर्म, जाति, समुदाय, भाषा और नस्ल के आधार पर भेदभाव, वंचना और अन्याय का शिकार रहा है। भारतीय समाज में जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव एवं अन्याय हजारों वर्षों से होते रहे हैं। इसीलिये भारतीय संविधान न केवल जाति, धर्म और भाषा पर आधारित पहचान को मान्यता प्रदान करता है, वरन् इन सामाजिक दुर्बलताओं को स्वीकारते हुए सामाजिक न्याय की बात भी करता है। प्रमाण हैं अल्पसंख्यक एवं सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए हाशिए पर के समूहों के अधिकारों की रक्षा के लिए इसके द्वारा किये गए सुरक्षात्मक प्रावधान। धर्म, जाति, समुदाय, भाषा और नस्ल आदि से सम्बंधित मसले पर विचार-विमर्श संविधान की मूल भावनाओं के अनुरूप है और उनका संरक्षण है। साथ ही, यह वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा भी है।
संविधान इन मसलों से डील करता है और उन प्रावधानों को समाहित करता है जो इन आधारों पर आरोपित अक्षमताओं एवं विभेद का निषेध करते हैं। ये मसले अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, विशेषकर तब जब समाज का बड़ा हिस्सा इन आधारों पर आरोपित विभेद एवं पूर्वाग्रहों के कारण मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित है। उन्होंने चेतावनी दी कि इन मुद्दों पर होनेवाली चुनावी बहस पर रोक वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को सीमित करने के अलावा लोकतंत्र को भी अमूर्त और अप्रभावी बनायेगी। इसीलिए अल्पमत के न्यायाधीशों का मानना है कि वंचित एवं हाशिये पर के समूह की इस उपेक्षा, भेदभाव एवं वंचना से मुक्ति की अपेक्षा न्यायोचित है और शासन तक पहुँच इसमें सहायक है। इसीलिए संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पहचान पर आधारित ऐतिहासिक अन्याय के निवारण की जरूरत के बीच नाजुक संतुलन को बनाये रखता है।
राजनीतिक-सामाजिक लामबंदी की भूमिका:
ये संवैधानिक उपबंध जिन उद्देश्यों से किये गए, उन उद्देश्यों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने में सहायक है सामाजिक-राजनीतिक लामबंदी, जिसके जरिये हाशिये पर के समूह को समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाता है। दुसरे शब्दों में कहें, तो सामाजिक लामबंदी सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक भेदभाव एवं अन्याय का जवाब है क्योंकि राजनीतिक-सामाजिक लामबंदी लोकतांत्रिक राजनीति में न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए आवश्यक अधिकार एवं वैधता हासिल करने के संवैधानिक उपक्रम का अभिन्न अंश है। इसीलिए राजनीतिक समूहों के द्वारा समय-समय पर इन भेदभावों के विरुद्ध लोगों को लामबंद किया जाता रहा है। हाल में रोहित वेमुला कांड और ऊना-काण्ड के विरोध में होने वाली लामबंदी को इसके परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। इसीलिए उम्मीदवारों को इनकी न्यायसंगत अपेक्षाओं को संबोधित करने से नहीं रोका जाना चाहिए, ताकि इनके कारण होने वाले भेदभावों एवं वंचना को चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से समाप्त किया जा सके।
यही कारण है कि भारतीय संविधान-निर्माताओं ने ऐसे राजनीतिक दलों को चुनावी राजनीति में भाग लेने की अनुमति दी जिन्होंने खुद को विशिष्ट धार्मिक समुदाय की पहचान के साथ सम्बद्ध करके देखा। यहाँ तक कि कई राजनीतिक दल जातीय, धार्मिक, भाषाई और नस्लीय भेदभाव एवं उत्पीड़न के खिलाफ होने वाली लामबंदी के बाई-प्रोडक्ट रहे हैं। उदाहरण के लिए मुस्लिम अल्पसंख्यकों के कल्याण को ध्यान में रखकर गठित भारतीय संघ मुस्लिम लीग(IUML) और अल्पसंख्यक सिखों के कल्याण के लिए गठित अकाली दल को लिया जा सकता है। इसी प्रकार द्रविड़ मुनेत्र कड़गम(DMK) का गठन भाषाई आधार पर द्रविड़-हितों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए किया गया। दलित शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष और दलित हितों के संरक्षण के नाम पर बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों का गठन हुआ। इसीलिए इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि धर्म, जाति, भाषा और नस्ल चुनाव-अभियानों और चुनावी बहसों का हिस्सा बनते रहे हैं। चर्चा, बहस और बातचीत की संस्कृति संवैधानिक लोकतंत्र को बनाये रखने एवं उसे मजबूती प्रदान करने में सक्षम हैं और सार्वजनिक बहस में स्वतंत्र रूप से भागीदारी के नागरिक अधिकार के संरक्षण के जरिये ही समावेशन की प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है और समवेशन के अहसासों को गहराया जा सकता है। पिछले सत्तर वर्षों के दौरान विभाजनकारी प्रतीत होनेवाले राजनीतिक एजेंडे और उनके पैरोकारों के साथ बातचीत और उनके समायोजन की भारतीय राज्य की इच्छा ने न केवल भारतीय लोकतान्त्रिक राजनीति को मजबूती प्रदान की है, वरन् सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया को भी तेज किया है।
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय लोकतान्त्रिक लामबंदी को बहुत हद तक अवैधानिक ठहराकर इसकी संभावनाओं को ख़ारिज करता है। साथ ही, चुनावी राजनीति में संभावनाओं की तलाश कर रहे प्रत्याशियों को वंचित समूह की न्यायोचित चिंताओं पर बोलने से रोकता है जो कहीं-न-कहीं उनके लोकतान्त्रिक-नागरिक अधिकारों का हनन है और इससे लोकतांत्रिक तरीके से हाशिये पर के समूह की वाजिब चिंताओं का समाधान मुश्किल होगा जो अंततः लोकतंत्र, लोकतान्त्रिक व्यवस्था एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों को ही कमजोर करेगा। इससे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों की आस्था डगमगायेगी और फिर लोकतंत्र मजाक बनकर रह जाएगा। इसीलिये इनका मानना है कि चुनाव-प्रक्रिया पूर्वाग्रह एवं भेदभाव-जन्य अक्षमता के खिलाफ खड़े होने के लिए लोगों को प्रेरित करने का महत्वपूर्ण माध्यम है। साथ ही, यह महत्वपूर्ण मसलों पर रायशुमारी भी है। आलोचना और संवाद रायशुमारी की इसी प्रक्रिया का अहम् हिस्सा है। स्पष्ट है कि कानून और समाज की अंतःसम्बद्धता की गहरी समझ अल्पमत पक्ष के न्यायाधीशों में दिखती है।
इसीलिए यदि इस विमर्श का इस्तेमाल नफरत, घृणा और हिंसा फ़ैलाने या इसके लिए उकसाने के लिए किया जाता है, तो निश्चय ही इस तरह की प्रवृत्ति से मौजूदा कानूनों के तहत् सख्ती से निपटा जाना चाहिए। लेकिन, सदियों के संरचनात्मक और संस्थागत भेदभाव के बाद पहचान के विभिन्न प्रतीकों ने निश्चय ही सामाजिक प्रमुखता प्राप्त कर ली है और ऐसी स्थिति में यह निर्णय उन अल्पसंख्यकों और हाशिए पर के समूहों की आवाज को दबाने का काम करेगा जिनके साथ होनेवाले भेदभाव और जिनके हाशियेकरण एवं बहिष्करण का कारण उनकी सामाजिक पहचान है। इसीलिए अल्पमत की चिंताओं को यूँ ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह चुनावों के दौरान धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार होने वाली राजनीतिक बहसों को बाधित करेगा, जबकि यह बहस ऐसे समाज में अपरिहार्य है जहाँ धार्मिक एवं जातिगत पहचान पर आधारित ऐतिहासिक अन्याय और वंचना के शिकार सामाजिक समूह मौजूद हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाय, तो कानूनी मसले को सामाजिक सन्दर्भों में रखकर देखा जाना चाहिए.
स्पष्ट है कि अल्पमत के सदस्यों के द्वारा प्रदर्शित चिंताएं भारतीय सामाजिक वास्तविकता के प्रति संवेदनशील है। साथ ही, इस देश में राजनीतिक लामबंदी (Political Mobilizations) के इतिहास और प्रकृति के प्रति अनुक्रियाशील भी है।
अदालत को भले ही यह लगता हो कि उसने वर्तमान परिदृश्य में धारा 123(3) को एक नया अर्थ दिया है, लेकिन प्रभाव के धरातल पर नए रूप में इस धारा का क्रियान्वयन अत्यंत मुश्किल एवं अनिश्चित होगा। इस निर्णय में धार्मिक और गैर-धार्मिक अपील के बीच का अंतर बहुत स्पष्ट नहीं है। यह निर्णय इस प्रश्न को जन्म देता है कि कोई स्पीच या अपील धार्मिक अपील के रूप में प्रतिषेध के दायरे में कब आयेगी और इस आधार पर आरोपित निर्योग्यता धारा 123(3) के व्यवस्थित उल्लंघन की स्थिति में प्रभावी होगी, या फिर किसी भी एक सन्दर्भ में उल्लंघन की स्थिति में? अदालत इस तथ्य की भी अनदेखी करता है कि समस्या सिर्फ राजनीति में धर्म के नाम पर की जानेवाली अपील नहीं है, समस्या यह है कि धर्म अपने मूल रूप में ही राजनीतिक है। इसीलिए कहा जा रहा है कि यह निर्णय और अधिक अस्पष्टता एवं क्रियान्वयन संबंधी अनिश्चितता को जन्म देगा। यह निर्णय भारतीय राजनीति के साथ-साथ भारतीय समाज की वास्तविकता की भी अनदेखी करता है। आवश्यकता इस बात की भी थी कि निर्णय देते वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति की आधुनिक उदारवादी व्याख्या करने वाले कानूनों को ध्यान में रखा जाता और इसी के अनुरूप धारा 123(3) की व्याख्या की जाती, लेकिन ऐसा करने की बजाय यह निर्णय वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सन्दर्भ में इस अधिनियम की व्याख्या से बचने की कोशिश करता है। इसीलिए अगर अदालती निर्णय को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय, तो यह लोकतांत्रिक राजनीति को बाधित कर सकता है।
पार्ट -5
फैसले का महत्व
प्रश्न यह उठता है कि यह अधिनियम क्या सुनिश्चित करना चाहता है? बिना यह जाने किसी भी व्याख्या को स्वीकार करना उचित नहीं होगा। इस सन्दर्भ में देखें, तो यह अधिनियम लेवल प्लेइंग फील्ड सृजित कर चुनाव की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित करते हुए भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करना चाहता है और चाहता है भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में स्वस्थ लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकास हो। लेकिन, यह तबतक संभव नहीं है जबतक जाति, धर्म, भाषा, समुदाय और नस्ल के आधार पर की जाने वाली अपील को चुनाव-प्रक्रिया से बाहर नहीं रखा जाता है क्योंकि इस तरह की अपीलें लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विकृति उत्पन्न करती हैं। कारण यह कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सफलता और दीर्घजीविता के लिए आवश्यक है कि उन बुनियादी मसलों पर देश के नागरिकों के बीच सहमति हो जो नागरिकों को एकसाथ और एकजुट रखने में सहायक हैं। कहीं-न-कहीं ऐसे मसले और ऐसी अपीलें अपनी भावनात्मक एवं अतार्किक प्रक्कृति के कारण विभाजन एवं बिखराव उत्पन्न करती हुईं इस एकजुटता को बाधित करती हैं। साथ ही, लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सफलता इस बात पर निर्भर करती हैं कि मतदाता कहाँ तक तर्कसंगत तरीके से अपने मताधिकार के प्रयोग में सक्षम हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि न तो उम्मीदवार, न ही उसका एजेंट और न ही कोई तीसरा पक्ष उम्मीदवार या मतदाता के जाति, धर्म, सम्प्रदाय, नस्ल या भाषा के आधार पर मतदान की अपील कर सकेगा। संविधान पीठ के इस निर्णय के बाद किसी भी धर्मगुरु के द्वारा किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में मतदान की अपील की जा सकेगी क्योंकि ऐसी कोई भी अपील धारा 123(3) के प्रतिकूल होने के कारण अवैधानिक होगी। भविष्य में पहचान-आधारित राजनीति के आधार पर हासिल चुनावी जीत को मिलने वाली कानूनी चुनौतियों को उसके पाठ और संदर्भ के परिप्रेक्ष्य में देखा जाएगा। इस निर्णय ने एक बार फिर से इस बात की पुष्टि की है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का बुनियादी लक्षण है और इसकी पुष्टि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम के उपरोक्त प्रावधान से भी होती है। यह उम्मीद की जा रही है कि यह फैसला भारतीय लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को मजबूती प्रदान करेगा, विशेषकर तब जब वैश्विक स्तर पर दक्षिणपंथी कट्टरपंथी ताकतों के राजनीतिक उभार ने अल्पसंख्यकों के मन में मौजूद मनोवैज्ञानिक भय को गहराने का काम किया है। भारत इसका अपवाद नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राजनीतिक विमर्श गाय एवं राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द सिमटता हुआ दिखाई पड़ रहा है और इस स्थिति ने भारतीय समाज में सांप्रदायिक आधार पर तीव्र राजनीतिक ध्रुवीकरण को जन्म दिया है।
अपने इस निर्णय के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न, कि क्या कोई राजनीतिक दल संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की अनदेखी करते हुए हिन्दू, मुस्लिम या इस्लामी राज्य की स्थापना की बात कर सकता है, का उत्तर देने का प्रयास किया और कहा कि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की नींव की उम्मीदवार या तीसरे पक्ष किसी के द्वारा भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। जहाँ तक इस प्रश्न का सन्दर्भ है कि क्या यह निर्णय सामाजिक लामबंदी को प्रतिबंधित करता है, जैसी आशंका अल्पमत पक्ष के न्यायाधीशों ने जताई है? बहुमत के फैसले से इस बात का संकेत मिलता है कि चुनावी भाषणों में जाति, धर्म या सम्प्रदाय से सम्बंधित सभी संदर्भों को भ्रष्ट-आचरण माना जाएगा। बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी कि ऐसी कोई भी अपील वैध भी हो सकती है और ऐसी स्थिति में वैध-अवैध अपील के बीच अंतर को रेखांकित किया जाय; जबकि बहस के दौरान धर्म और जाति के वैध एवं और अवैध संदर्भों को अदालत के संज्ञान में लाते हुए कहा गया था कि "चुनावी भाषण में धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के सारे उल्लेख भ्रष्ट-आचरण के दायरे में नहीं आयेंगे। ऐसी कोई भी अपील, जो भेदभाव की समाप्ति एवं विद्यमान असंतुलन को दूर करने के आग्रह के साथ की जाती है, उस अपील का जोर धर्मनिरपेक्षता को मजबूती प्रदान करना है और इसीलिए ऐसी कोई भी अपील धर्म के नाम पर की जाने वाली अपील नहीं मानी जायेगी। अतः इसे भ्रष्ट-आचरण के दायरे में नहीं माना जाएगा।" अबतक खुद सुप्रीम कोर्ट भी इसी लाइन को फॉलो करती रही है। लेकिन, बहुमत पक्ष के न्यायाधीशों ने न तो बहस के दौरान उभरकर आने वाली इन बातों को रिकॉर्ड करने की आवश्यकता ही समझी और न ही निर्णय में इस मसले पर चर्चा ही उन्हें उचित जान पड़ी। अल्पमत पक्ष के न्यायाधीशों ने भी राजनीतिक-सामजिक लामबंदी के सन्दर्भ में इस निर्णय के औचित्य पर प्रश्न उठाते हुए ऐसे मामलों की अनदेखी की जिन्हें धर्म-जाति के वैध संदर्भों एवं राजनीतिक बयानबाजी के अवैध सन्दर्भों में उद्धृत किया गया। संक्षेप में, ऐतिहासिक दृष्टि से धर्म एवं जाति के आधार भेदभाव के शिकार लोगों के नाम पर धर्म-जाति के अवैध संदर्भों को न्यायोचित नहीं ठहराया जाना चाहिए। लेकिन, अगर सन्दर्भ सही हैं और ऐसे उल्लेखों का उद्देश्य हाशिये पर के समूह के बुनियादी अधिकारों एवं मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करना या ऐतिहासिक अन्याय का निवारण एवं संवैधानिक विसंगतियों को दूर करना है, तो इसे धर्म एवं जाति के नाम पर की जाने वाली अपील के दायरे में नहीं रखा जाएगा। संभव है कि संवैधानिक पीठ ने लक्ष्मण-रेखा के निर्धारण के काम को न्यायपालिका और न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ दिया है जिनके द्वारा विभिन्न चुनावी मामलों में इस प्रश्न पर केस-दर-केस के विशिष्ट सन्दर्भ में विचार किया जायेगा।
निश्चय ही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है। पर, व्यावहारिक रूप में इसे लागू करना आसान काम नहीं होगा क्योंकि यहाँ तो कई राजनीतिक दलों का गठन ही क्षेत्र, धर्म और नस्ल के आधार पर हुआ है। कुछ राजनीतिक दलों की स्थापना के मूल में जाति की अस्मिता रही है। दूसरी बात यह कि राजनीति में धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा और समुदाय की भूमिका केवल इस नाम पर वोटिंग के अपील तक सीमित नहीं है। विभिन्न दलों के द्वारा प्रत्याशियों के निर्धारण और टिकटों के वितरण तक में जातिगत एवं धार्मिक समीकरणों को ध्यान में रखा जाता है। इसके अलावा किसी उम्मीदवार या पार्टी-नेता का मंदिर, मस्जिद या गुरूद्वारे में जाकर पूजा-अर्चना या इबादत, जातीय-धार्मिक समारोहों के आयोजन के लिए चंदा एवं उसमें भागीदारी, पूजा-क्लबों को आर्थिक सहायता, इफ्तार-पार्टी का आयोजन एवं उसमें शरीक होना आदि ऐसे तरीके हैं जिसके बहाने किसी भी राजनीतिक दल का नेतृत्व या प्रत्याशी विभिन्न जातीय-धार्मिक समूहों को राजनीतिक सन्देश देता है और इस तरह से धर्म एवं जाति के नाम पर सियासी खेल चलते रहते हैं। तीसरी बात यह कि कानूनी प्रावधान के बावजूद चुनाव आयोग को मतदाताओं को प्रभावित करने वाले भ्रष्ट तरीकों पर अंकुश लगाने में अबतक प्रभावी सफलता नहीं मिल पाई है। चौथी बात यह कि चुनाव में धर्म और जाति के बेज़ा इस्तेमाल को महज कानून और अदालती निर्णय के सहारे नहीं रोका जा सकता है। अगर ऐसा होता, तो शायद इस पर बहुत पहले रोक लग जानी चाहिए थी। मगर, अबतक ऐसा संभव नहीं हो पाया, तो इसलिए कि इस पर अंकुश लगाने के लिए जिस सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता की जरूरत होती है, उसका भारत में नितांत अभाव है। सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता नागरिकों की ओर से उन सबूतों की उपलब्धता को सुनिश्चित करा पाने में समर्थ है जिसकी बदौलत कानूनी एवं अदालती प्रक्रिया तार्किक परिणति तक पहुँचती है और आरोपों की सिद्धि के जरिये दोषी व्यक्ति के विरुद्ध कार्रवाई संभव हो पाती है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आनेवाले समय में धर्म के नाम पर मतदाताओं को आकर्षित करने करने के लिए बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा सकता है।
पार्ट -6
भारतीय राजनीति में जाति एवं धर्म
राजनीति में जाति एवं धर्म की भूमिका भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के सबसे विकसित देश भी राजनीति में भाषा, धर्म एवं नस्ल पर आधारित वोट-बैंक की राजनीति और इसकी विभाजनकारी भूमिका से अछूते नहीं हैं। प्रमाण है हाल ही में संपन्न अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव। इस चुनाव में पूरा अमेरिकी समाज श्वेत-अश्वेत, मुसलमान-गैर मुसलमान, अफ्रीकी, एशियाई और हिस्पैनिक के नाम पर बँटा नजर आया। पड़ोसी देश पकिस्तान को देखें, तो वहाँ चुनावों के दौरान यह राजनीतिक विभाजन सिंधी, बलूची, पंजाबी और पश्तूनों के रूप में सामने आता है। वहां कई राजनीतिक दलों का गठन भी इन्हीं आधारों पर हुआ है। इसी प्रकार श्रीलंका में यह विभाजन सिंहली-गैर सिंहली और सिंहली-तमिल के रूप में सामने आता है। नेपाल में पहाड़ी-मैदानी, मधेशी, ब्राम्हण-क्षेत्री आदि के रूप में यह राजनीतिक विभाजन सामने आता है। भारत की चुनावी राजनीति में धर्म और जाति के प्रयोग की भूमिका ब्रिटिश राज में रखी गई थी जब ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के तहत् जाति और धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचक मंडल का प्रावधान किया गया। लेकिन, आजादी के बाद जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम के जरिये चुनाव में जाति और धर्म की भूमिका को सीमित करने की कोशिश की गयी। इसके बावजूद राजनीतिक दलों ने अपने राजनीतिक हितों के लिए जाति और धर्म के इस्तेमाल को जारी रखा और चुनाव आयोग इस पर अंकुश लगा पाने में असमर्थ रहा क्योंकि व्यावहारिक धरातल पर इसे साबित कर पाना मुश्किल होता है। आजादी के बाद आरंभिक चार दशकों तक जाति एवं धर्म की भूमिका नहीं रही, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है; पर ये मुद्दे कहीं-न-कहीं पृष्ठभूमि में बने रहे।
1960 के दशक में जातिवादी राजनीति को बल मिला राम मनोहर लोहिया के ‘जाति-तोड़ो आन्दोलन के नारे से। इसी की पृष्ठभूमि में बिहार में राजनीतिक वर्चस्व के लिए जातीय-संघर्ष तेज़ हुए। बिहार की राजनीति में ‘वोट और बेटी जात को’ का नारा देते हुए कांग्रेस के भीतर ही दबंग मानी जानेवाली दो अगड़ी जातियों के बीच सत्ता-संघर्ष तेज़ हुआ। 1960 के दशक के अंततक आते-आते बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का आविर्भाव हुआ जिन्होंने ‘अगड़े बनाम् पिछड़े’ का नारा दिया जिसने बिहार की प्रांतीय राजनीति में नेतृत्व की सामाजिक प्रकृति में रूपांतरण की प्रक्रिया को तेज़ किया। 1990 के दशक तक आते-आते यह प्रक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर चरम् पर पहुँच गयी और सोलहवें लोकसभा चुनाव,2014 में तो वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री तक की पिछड़ी जातीय पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए उसे भुनाने का प्रयास किया गया है। 1990 के दशक से मण्डल और मंदिर की जोर पकड़ती राजनीति के साथ जाति और धर्म राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गए। फिर, चुनावी लाभ के लिए सोशल इंजीनियरिंग जातीय गोलबंदी और जातीय समीकरण बनाने की प्रक्रिया तेज़ होती चली गयी। यद्यपि यह प्रक्रिया देशव्यापी थी, पर इसका सबसे अधिक प्रभाव बिहार और उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है। जहाँ बिहार की पूरी राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती है, वहीं उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में जाति के साथ-साथ धर्म भी है। इन सबका परिणाम यह हुआ कि बिहार की राजनीति जहाँ लालू यादव, नीतीश कुमार एवं राम विलास पासवान के इर्द-गिर्द घूमने लगी, तो उत्तर प्रदेश की राजनीति कल्याण सिंह, मुलायम सिंग और मायावती के इर्द-गिर्द. प्रांतीय नेतृत्व के स्तर से सवर्ण नेतृत्व की विदाई हो गयी और उसके स्थान पर पिछड़ी जातीय नेतृत्व का आविर्भाव हुआ। पिछड़ों की इस चुनौती ने अगड़ों को आपसी प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष को भुलाकर गोलबंद होने के लिए विवश किया। आज स्थिति यह है कि विकास की चर्चा चाहे हम जितनी कर लें, पर जाति एवं धर्म और इस पर आधारित समीकरणों को साधे बिना चुनावी जीत की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। जहाँ जाति और धर्म का कार्ड नहीं चल सकता, वहाँ भाषा और क्षेत्र का कार्ड चलाने की कोशिश की जा रही।
इसी प्रकार धर्म और संप्रदाय भारतीय राजनीति के लिए कोई नयी चीज़ नहीं हैं. इसके बीज भारतीय नवजागरण के पुनरोत्थानवादी रुझानों एवं भारतीय राष्ट्रवादियों (गरमपंथियों और क्रांन्तिकारी राष्ट्रवादियों से लेकर गाँधी तक) में निहित हिन्दुत्ववादी संभावनाओं की पृष्ठभूमि में औपनिवेशिक “फूट डालो और शासन करो” की नीति में दिखाई पड़ते हैं. इसी नीति ने 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना और 1909 में सांप्रदायिक आधार पर पृथक निर्वाचक मंडल के मार्ग को प्रशस्त किया. और फिर 1916 में हिन्दू महासभा की स्थापना के साथ प्रतिस्पर्धी धर्म एवं संप्रदाय आधारित राजनीति जोड़ पकड़ी. यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि दोनों, हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति एक-दूसरे को जस्टिफाई भी करते हैं और एक-दूसरे को मजबूती भी प्रदान करते हैं. इसे सांप्रदायिक राजनीति के पिछले सवा सौ वर्षों के इतिहास में सहज ही देखा जा सकता है जहाँ हमें ऐसे भी दृष्टान्त मिलेंगे जब कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विरुद्ध एक-दूसरे से हाथ मिलते भी देखा जा सकता है. यहाँ पर इस बात को भी स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि भले ही हिन्दू महासभा की स्थापना लीग की सांप्रदायिक राजनीति की प्रतिक्रिया में हुई हो, पर आगे चलकर इसने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विरुद्ध खुद को खड़ा करना शुरू किया. कांग्रेस ने दोनों की सांप्रदायिक राजनीति को काउंटर करने की कोशिश की, पर इस क्रम में उसका रवैया ढुल-मुल रहा. कभी उसने अहरार राष्ट्रवादियों को लीग के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश की,तो कभी उसने जामिया मिल्लिया इस्लामिया के ज़रिये अलीगढ स्कूल के सांप्रदायिक राजनीति के एजेंडे को काउंटर करना चाहा. कभी उसने उपनिवेशवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे के नाम पर लीग से हाथ मिलाया,तो कभी उसने साम्प्रदायिकता के विरोध में लीग के प्रति कड़ा रूख अपनाया. 1920 के दशक के अंत तक तो हिन्दू महासभा और कांग्रेस की दोहरी सदस्यता की स्थिति दिखाई पड़ती है और कांग्रेस ने इस स्थिति को स्वीकार किया, यद्यपि यह भी सच है कि उस समय ‘संप्रदाय’, ‘सांप्रदायिक’ और ‘साम्प्रदायिकता’ शब्द उतने अस्वीकृत भी नहीं थे जितने आज हैं. यद्यपि धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस की मुख्यधारा में हमेशा बनी रही, तथापि दक्षिणपंथ कांग्रेस के भीतर हमेशा से अपनी मज़बूत और प्रभावी उपस्थिति को दर्शाता रहा. इसी के समानान्तर अल्पसंख्यक मुसलमानों के प्रति सहानुभूति रखनेवाली एक धारा भी निरंतर सक्रिय रही और इसने कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की सहायता से अल्पसंख्यक मुसलमानों के भय के मनोविज्ञान को दूर करने की कोशिश की जो दक्षिणपंथ को नागवार लगता रहा और जिसकी व्याख्या कांग्रेस से इतर दक्षिणपंथ ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के रूप में की. दक्षिणपंथ ने कभी अल्पसंख्यकोण के भय के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश नहीं की जिसने धर्मनिरपेक्षतावादी राजनीतिक धारा को अल्पसंख्यकों की चिंताओं के प्रति अतिरिक्त सजग,संवेदनशील और सहानुभूतिशील होने के लिए विवश किया. यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें आज़ादी-पूर्व की सांप्रदायिक राजनीति की परिणति साम्प्रदायिकता एवं विभाजन की त्रासदी के रूप में हुई, लेकिन इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बावजूद हम इससे सबक लेने के लिए तैयार नहीं है. सांप्रदायिक राजनीति की इस पृष्ठभूमि को समझे बगैर आज की सांप्रदायिक राजनीति को समझना हमारे लिए मुश्किल होगा.
आजाद भारत में राजनीति में धर्म की भूमिका की बात करें, तो मुसलामानों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग जैसे राजनीतिक दल और हिन्दुओं के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) आरम्भ से ही मौजूद रहे. आजादी के पहले से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिन्दुत्ववादी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन मौजूद रहे हैं जिनका राजनीतिक समर्थन पहले जनसंघ और अब भाजपा को मिलता रहा है. पर 1990 के दशक के पहले तक ये कभी उतने प्रभावी नहीं रहे. हाँ, पंजाब में धार्मिक आधार पर अकाली दल का गठन हुआ और वहां की स्थानीय स्तर की राजनीति में वे प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा पाने में सफल रहे.
1980 के दशक के मध्य में कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता से दूर हटकर दक्षिणपंथी राजनीति की ओर उन्मुख हुई. उसने शाहबानो केस,1985 के निर्णय के साथ जाने के बजाय संसदीय प्रक्रिया के जरिये उसे पलटते हुए मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करना चाहा और इससे नाराज़ हिन्दू कट्टरपंथियों को राम-मंदिर का ताला खुलवाकर संतुष्ट करने की कोशिश की. इसने राष्ट्रीय राजनीति में धर्म की केन्द्रीय भूमिका का मार्ग प्रशस्त किया. यहीं से भाजपा ने राम-मंदिर का मुद्दा उठाया और जब 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण से सम्बंधित मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का निर्णय लिया, तो भाजपा ने राम-मंदिर के मुद्दे के साथ खुलकर सामने आई. तब से धर्म राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका में बना हुआ है.
धर्म से सम्बंधित मामलों में न्यायपालिका के हालिया निर्णय:
हाल में सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के कई ऐसे फैसले रहे हैं, जो देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को मजबूती प्रदान करने में सहायक हैं. पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने छः लेन वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण हेतु चर्च ऑफ नार्थ इंडिया की भूमि के अधिग्रहण से सम्बद्ध याचिका पर विचार करते हुए कहा था कि ‘सार्वजनिक हित’ के लिए किसी धार्मिक संस्थान की जमीन का अधिग्रहण किया जा सकता है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के तहत् जमीन के अधिग्रहण हो जाने पर याचिकाकर्ता को कुछ राहत नहीं दी जा सकती।
इस संदर्भ में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा नवी मुंबई इलाके में धार्मिक स्थलों पर बिना अनुमति के लाउडस्पीकरों के प्रयोग के कारण होनेवाले ‘ध्वनि प्रदूषण’ से सम्बद्ध याचिका पर विचार करते हुए रात दस बजे से सुबह छह बजे तक सभी प्रार्थना-स्थलों में लाउडस्पीकर के प्रयोग पर रोक लगाई और ‘गैरकानूनी ढंग से लगाए गए लाउडस्पीकरों को फौरन हटाने के निर्देश दिए। अदालत ने इन्हें ध्वनि-प्रदूषण का स्रोत मानते हुए कहा कि इससे मरीजों या बुजुर्गो को अधिक परेशानी होती है।’ इससे पूर्व भी ‘चर्च ऑफ गॉड (फुल गास्पेल) इन इंडिया वर्सेस केके आर मैजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन एंड अदर्स वाद,1999 में अदालत का कहना था, “एक सभ्य समाज में, धर्म के नाम पर ऐसी गतिविधियों को इजाजत नहीं दी जा सकती जो बूढ़े, विकलांगों, छात्रों या बच्चों के लिए नुकसानदेह हो।“ इस सन्दर्भ में न्यायालय का स्पष्ट मानना है कि “कोई धर्म यह शिक्षा नहीं देता है कि दूसरों की शांति भंग करके प्रार्थना की जाए, न वह यह कहता है कि लाउडस्पीकरों या ढोल बजाने के जरिए इस काम को किया जाए।“ ऐसे समय में जब बात बात पर आस्था की दुहाई देते हुए समाज में कलह पैदा करने की कोशिश की जा रही हो, ये सभी फैसले सुकून देने वाले हैं।
अन्त में, मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक महिला के कथित धर्मातरण के मसले पर विचार करते हुए कहा था कि बिना किसी ठोस सबूतों या दस्तावेजों के बिना आरोप लगाने से देश के धर्मनिरपेक्ष के ताने बाने पर असर पड़ सकता है। मामले को जो रंग दिया जा रहा है, उसके प्रति वह चिंतित हैं।
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