Wednesday, 29 January 2020

गाँधी और गाँधीवाद: वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

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गाँधी और गाँधीवाद: वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता ====================================
आज हम ऐस दौर में जी रहे हैं, जिसमें गाँधी को जानना और समझना किसी अपराध से कम नहीं है, मानने की तो बात ही छोड़ दें। यह अपने आप में यह बतलाने के लिए काफ़ी है कि आज हमें गाँधी की कितनी ज़रूरत है और कितनी ज़रूरत है उनको न केवल जानने और समझने की, वरन् उनको मानने की भी।
अब प्रश्न यह उठता है कि जिस गाँधीवाद के माध्यम से हम गाँधी तक पहुँच सकते हैं, वह गाँधीवाद क्या है? गाँधीवाद समय एवं परिस्थितियों के सापेक्ष विकसनशीलशील अवधारणा है, न कि स्थिर धारणा। इसके स्वरूप के निर्धारण में दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष से लेकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विभिन्न चरणों तक के दौरान प्राप्त अनुभवों की अहम् भूमिका रही। इसे गाँधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह की संकल्पना के परिप्रेक्ष्य में देखा एवं समझा जा सकता है, जिसके मूल में गौतम बुद्ध का अहिंसावाद है। जहाँ फ़रवरी,1922 में चौरी-चौरा काण्ड के बाद गाँधी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया, वहीं सन् 1931 में चटगाँव, शोलापुर एवं पेशावर की हिंसक घटनाओं के बावजूद उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को जारी रखा। आगे चलकर, सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान होनेवाली हिंसा की आलोचना करने की बजाय गाँधी ने उसे ‘ब्रिटिश दमन की प्रतिक्रिया में उपजी हुई हिंसा’ बतलाकर जस्टिफाई किया। इतना ही नहीं, गाँधी ने अहिंसा को लेकर व्यावहारिक नज़रिया अपनाते हुए कहा कि अगर अहिंसा कायरता का रूप लेने लगे, तो मैं हिंसक हो जाना पसन्द करूँगा। स्पष्ट है कि गाँधी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए शक्तिशाली ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष ऐसी नैतिक दुविधा उत्पन्न की जिसकी उसके पास कोई काट नहीं थी और इसी कारण इसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को आज़ादी की तार्किक परिणति तक पहुँचाया।
दरअसल गाँधीवाद आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिन्तन परम्परा की पुनर्व्याख्या है जिसकी ज़रूरत औपनिवेशिक शासन की पृष्ठभूमि में उसके द्वारा उत्पन्न चुनौतियों ने महसूस करवाई। इसके केन्द्र में सहिष्णुता एवं समन्वय का वह तत्व है जो वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों के प्राण-तत्व हैं। इसे ही तद्युगीन ज़रूरतों के आलोक में गौतम बुद्ध के यहाँ ‘मध्यमा प्रतिपदा’ और तुलसी के यहाँ ‘विरूद्धों के सामंजस्य’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है, और इसे ही गाँधी के यहाँ ‘सर्वधर्मसमभाव’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। इसके बिना न तो विदेशी पराधीनता के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाया जा सकता था, और न ही विविधताओं से भरे भारतीय समाज एवं संस्कृति के ताने-बानों को ही सुरक्षित रखा जा सकता था। शायद यही कारण है कि अंग्रेज़ों ने मुस्लिम एवं हिन्दू सम्प्रदायवादियों के माध्यम से उनकी इस सोच को निरन्तर चुनौती दी। इसके परिणामस्वरूप गाँधी इन दोनों के निशाने पर रहे और यहाँ तक कि गाँधी और उनके नेतृत्व वाले काँग्रेस के ख़िलाफ़ इन दोनों ने एक दूसरे हाथ तक मिलाया। गाँधी जीवनपर्यन्त इन दोनों ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, और अब जबकि वो हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनकी सोच इन ताक़तों के ख़िलाफ़ निरन्तर लड़ रही है और इनके प्रहारों का सामना कर रही है। आज भी यह सोच गाँधी और गाँधीवाद को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानती हुई उसे निरन्तर अप्रासंगिक बनाने की कोशिश में उनके चरित्र-हनन की कोशिश में लगी है। पहले इस सोच ने गाँधी की हत्या की, और अब यह सोच गाँधीवाद की हत्या पर उतारू है।
इस क्रम में यह भी जानने की आवश्यकता है कि गाँधी के लिए ‘सर्वधर्मसमभाव’ का मतलब मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं है। अगर ऐसा होता, तो राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तिम दिनों में गाँधी न तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ नोआखाली की सड़कों पर उतरते और न ही सके विरूद्ध संघर्ष करते हुए हिन्दुओं को बचाने की कोशिश करते। इसीलिए अगर हम भारत और भारतीयता से प्यार करते हैं, तो हमारी यह नैतिक ज़िम्मेवारी बनती है कि हम गाँधी और गाँधीवाद के मूल्यों को महफ़ूज़  रखें, क्योंकि ये दोनों भारत एवं भारतीयता से अभिन्न हैं। यह भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एवं गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए भी आवश्यक है, और भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की अक्षुण्णता के लिए भी आवश्यक।
इससे इतर हटकर देखें, तो पारम्परिक धारणाओं के विपरीत गाँधीवाद भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के लिए भी चुनौती बनकर आता है। उन्होंने एक ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के अहिंसक स्वरूप की परिकल्पना के जरिए राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी के मार्ग को प्रशस्त किया, दूसरी ओर इन्द्रिय-संयम एवं नैतिक शुद्धि पर बल देते हुए उनके पुरूष सहकर्मियों को इस बात को लेकर आश्वस्त किया कि महिलाएँ घर के बाहर भी सुरक्षित हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने चरखे के माध्यम से भारतीय महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के मार्ग को प्रशस्त किया। शायद इसीलिए सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी भी नारी-मुक्ति में गाँधी के अप्रतिम योगदान को रेखांकित करते हैं।
अप्रासंगिक नहीं हैं गाँधी:
आज गाँधी की  कितनी प्रासंगिकता है, इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कल तक जो लोग गाँधी का नाम तक लेना पसन्द नहीं करते थे, आज उन्हें उग्र दक्षिणपंथी हिन्दुत्व से लड़ने के लिए गाँधी की ज़रूरत शिद्दत से महसूस हो रही है। शाहीनबाग से लेकर सब्जीबाग तक, सब्जीबाग से लेकर नवाबगंज तक और नवाबगंज से लेकर शान्तिबाग तक जो लड़ाइयाँ लड़ी जा रही है, उनमें गाँधीवादी तकनीक एवं रणनीति का इस्तेमाल सरकार को दुविधा की स्थिति में डाल रहा है। यह दुविधा तब और भी बढ़ जाती है जब सरकार लड़ाई के मोर्चे पर महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में खड़ा पाती है। आरम्भ में  यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त रहा और जब इसे उकसाने की कोशिश की गयी, तो इसने हिंसक रूप भी लिया। पर, जल्द ही आन्दोलनकारियॉ की समझ में यह बात आ गयी कि यदि आन्दोलन को मज़बूती से जारी रखना है, तो उसके अहिंसक रूप को सुनिश्चित करना होगा; और आज आलम यह है कि #CAA_NPR_NRC विरोधी यह आन्दोलन पूरे भारत में फैल चुका है और यह सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए इन आन्दोलनों में इसको समर्थन एवं संस्थागत आधार प्रदान करने वाले वामपंथियों को भी गाँधी एवं गाँधीवाद की जय करते देखा जा सकता है। इस प्रकार आज पूरा भारत गाँधी एवं गाँधीवाद की जय से गुँजायमान हो उठा है।
स्पष्ट है कि अहिंसा, सर्वधर्मसमभाव एवं स्त्री-स्वत्व गाँधी और गाँधीवाद के ऐसे मूल तत्व हैं जो गाँधीवाद को जिलाए रखने में सहायक हैं और जिसके कारण गाँधीवाद की प्रासंगिकता निर्विवाद है।

Thursday, 9 January 2020

हाँ, मैं निष्पक्ष नहीं!



हाँ, मैं निष्पक्ष नहीं!
हाँ, तुम निष्पक्ष हो!
हाँ, तुम निष्पक्ष हो,
क्योंकि.....
क्योंकि.....
तुम राष्ट्र के साथ खड़े हो,
राष्ट्रवाद के साथ खड़े हो,
सरकार के साथ खड़े हो,
चाटुकार के साथ खड़े हो,
पत्तलकार के साथ खड़े हो!
शासन भी तुम्हारा है,
प्रशासन भी तुम्हारा है;
साहस भी तुम्हारा है,
दुस्साहस भी तुम्हारा है;
छल भी तुम्हारा है,
बल भी तुम्हारा है,
कल भी तुम्हारा है;
प्रेस भी तुम्हारा है,
संचार भी तुम्हारा है;
सभा भी तुम्हारी है,
प्रभा भी तुम्हारी है।
हाँ, इसीलिए तुम निष्पक्ष हो!
लेकिन,
मैं निष्पक्ष नहीं,
न हूँ, और
न ही होना चाहता।
मेरा एक पक्ष है,
मैं ही प्रतिपक्ष हूँ,
मैं ही विपक्ष हूँ!
मेरी एक दरकार है,
मेरी एक सोच है,
मेरा एक विचार है,
मेरी अपनी आस्था है,
मेरे अपने संस्कार हैं।
मैं ज़िन्दा हूँ,
क्योंकि मैं सोचता हूँ,
मैं विचारता हूँ।
सोचने में मुझे अपने होने का बोध होता है।
मेरी सोच ने,
मेरे अनुभव ने
मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचाया
कि कोई निष्पक्ष हो ही नहीं सकता,
(निष्पक्षता का भ्रम चाहे वह जितना पाल ले।)
और होने की ज़रूरत भी नहीं।
मेरी आत्मा जीवित है,
अपना ज़मीर अभी मैंने बेचा नहीं है,
इसीलिए मेरा एक पक्ष है, और
मैं पक्षधर हूँ।
इस दौर में पक्षधरता बहुत ज़रूरी है,
क्योंकि जब अधिकांश लोग
निष्पक्ष होने लगें, तो
पक्षधरता ज़रूरी हो जाती है;
इसीलिए पक्षधरता है मेरी
उनके प्रति जिनका तुम इस्तेमाल करते हो;
अब वो चाहे अल्पसंख्यक हों,
या बहुसंख्यक;
दलित हों,
या आदिवासी;
महिलाएँ हों,
या बच्चे।
मेरा तो एक पक्ष है,
शायद इसीलिए
मेरे लिए सेक्यूलर होना
सिकुलर होना नहीं,
और न ही है मुस्लिम-तुष्टिकरण का पर्याय;
मेरे लिए ‘हिन्दुइज्म’
हिन्दुत्व का पर्याय नहीं, और
न ही हिन्दू होने का मतलब
साम्प्रदायिक हो जाना है;
मेरा धर्म मुझे
प्रेम का संदेश देता है,
न कि घृणा का।;
मैं खुद को कबीर की परम्परा में पाता हूँ,
तुलसी हैं आदर्श मेरे,
गाँधी को भी जानने की कोशिश की है मैंने।
मेरे लिए ‘विकास’ का मतलब
अम्बानी-अडानी का विकास नहीं,
जिसकी क़ीमत दलितों और आदिवासियों को चुकानी पड़ती है;
मेरे लिए विकास का मतलब है
उन आँखों में आशा,
उन चेहरों पर मुस्कान,
जिसके आँसू पोंछने का सपना प्यारे बापू ने देखा था।
इसीलिए मैंने कहा
कि न तो मैं निष्पक्ष हो सकता हूँ, और
न ही निष्पक्षता का दम्भ भर सकता।
यही फ़र्क़ है मुझमें और तुममें:
तुम्हारे लिए राष्ट्र ही सब कुछ है, पर
मेरे लिए मानव सर्वोपरि है।
तुम राष्ट्र के लिए
इन्सान और इन्सानियत को दाँव पर लगा सकते हो, और
मैं इन्सान और इन्सानियत के लिए
राष्ट्र को दाँव पर लगा सकता हूँ।
तुम्हारे लिए
पश्चिम से राष्ट्र की आयातित संकल्पना मायने रखती है,
और मेरे लिए ‘वसुधैवकुटुम्बकम’ के भारतीय आदर्श;
तुम्हारे लिए एकरंगा महत्वपूर्ण है,
पर मेरे लिए तिरंगा।
हाँ, मेरा एक पक्ष है,
मैं संविधान के पक्ष में खड़ा हूँ, और
संविधान
‘हम भारत के लोग’ के पक्ष में;
इसीलिए मैं भी
‘हम भारत के लोग’ के पक्ष में खड़ा हूँ।
मेरा पक्ष प्रेम का है,
घृणा का नहीं;
समन्वय का है,
टकराव का नहीं;
समर्पण का है,
अहम् का नहीं;
इसीलिए तो मैं निष्पक्ष नहीं।
हाँ, तुम निष्पक्ष हो सकते हो,
मैं नहीं;
तुम निष्पक्षता का दम्भ भर सकते हो,
मैं नहीं।
(अजीत अंजुम सर से प्रेरित)
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Thursday, 2 January 2020

काँग्रेस का पुनर्जीवन: क्यों और कैसे

भले ही यह बात कितनी भी नागवार लगे, पर काँग्रेस देश की आत्मा है। काँग्रेस को बचाने की चिन्ता महज़ एक राजनीतिक दल को बचाने की चिन्ता नहीं है, वरन् एक बिन्दु पर आकर यह देश को बचाने की चिन्ता में तब्दील हो जाती है। आज काँग्रेस को देश की ज़रूरत हो अथवा नहीं और काँग्रेसियों को काँग्रेस की ज़रूरत हो अथवा नहीं, पर देश को शिद्दत से काँग्रेस की ज़रूरत है। तमाम ऊहापोहों के बीच हमें  आश्वस्त होना चाहिए कि काँग्रेस बचेगी, क्योंकि तमाम कमियों के बावजूद यह उस राजनीतिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है जिसका सम्बंध भारत एवं भारतीयता से है। इस आश्वस्ति का कारण यह भी है कि आज काँग्रेस के भीतर केवल एक व्यक्ति ऐसा हैं जो इस बात की ज़रूरत को समझ भी रहा है, और इसके लिए कोशिश भी कर रहा है; और वह व्यक्ति है राहुल गाँधी। लेकिन, यह भी सच है कि इसके लिए काँग्रेस को चापलूसों के चँगुल से बाहर निकलते हुए पार्टी के भी आंतरिक लोकतंत्र की पुनर्बहाली सुनिश्चित करनी होगी, अपने मृतप्राय संगठनों को पुनर्जीवित करना होगा, एसी कमरों एवं एसी गाड़ी से बाहर निकलकर सड़कों पर उतरते हुए संघर्ष का जज़्बा दिखलाना होगा, एसपीजी सुरक्षा की वापसी की बजाय जनता से जुड़े मसलों पर सड़कों पर आन्दोलन शुरू करना होगा और संसद के भीतर बहिष्कार एवं बहिर्गमन की नकारात्मक राजनीति को तिलांजलि देते हुए मूल मसलों पर सरकार को घेरने की कोशिश करनी होगी, ताकि उसे एक्सपोज़ किया जा सके। लेकिन, इस क्रम में उसे अपनी भूलों को भी स्वीकार करना होगा। पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि जिस दिन काँग्रेस सड़कों पर होगी, भाजपा एवं संघ की ईंट से ईंट बज जायेगी। लेकिन, इसके लिए सड़े पत्तों, जो काँग्रेस पर कुँडली मारे बैठे हैं और जिनके कारण काँग्रेस की यह दुर्गति हुई है, को झड़ना पड़ेगा और इसमें थोड़ा समय लगेगा। इस चर्चा के क्रम में काँग्रेस को वामपंथ एवं दक्षिणपंथ के साथ अपने सम्बंधों को पुनर्परिभाषित करना होगा जिसके लिए इनके साथ काँग्रेस के अबतक के सम्बंधों पर दृष्टिपात अपेक्षित है।
काँग्रेस और दक्षिणपंथ:
काँग्रेस के भीतर देखा जाय, तो दो धाराएँ गाँधीवादी दौर में प्रवाहमान रही हैं: एक धारा दक्षिणपंथियों की थी जिसे राजेंद्र प्रसाद, राजाजी और पटेल नेतृत्व प्रदान कर रहे थे, और दूसरी धारा समाजवादियों की थी जिसे अशोक मेहता, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव आदि नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। दक्षिणपंथियों की धारा गाँधी एवं गाँधीवाद के कहीं ज्यादा करीब थी। नेहरु एवं बोस वाम-रुझान वाले नेता थे, लेकिन बोस अस्थिर चित्त वाले थे और अपनी प्रकृति में भावुक थे। नेहरु का रुझान पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की ओर कहीं अधिक था और इस मायने में वे गाँधी से कहीं अधिक दूर थे। गाँधी मूलतः धार्मिक व्यक्ति थे और उनका रुझान हिंदुत्व की ओर था, पर उनके हिंदुत्व का सर्वधर्मसमभाव से मेल था। उनके द्वारा ‘रामचरित मानस’ की पंक्तियों को उद्धृत करना, राम-राज्य के प्रतीकों का इस्तेमाल आदि इस और इशारा करता है कि वे विशुद्ध वैष्णव थे और वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों में उनकी गहरी आस्था थी। उनका सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद पर गहरा प्रभाव था। शायद यही कारण है कि गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस हिन्दू संप्रदायवादियों और हिन्दू महासभा के नेताओं से दूरियाँ बनाकर नहीं चल पाई, जबकि मुस्लिम संप्रदायवादियों से दूरी बनाते हुए उसे सहज ही देखा जा सकता है। यह नेहरु का दबाव था कि सन् 1937 में संयुक्त प्रान्त में सरकार-गठन के मसले पर काँग्रेस ने कठोर रुख अपनाया और मुस्लिम लीग के प्रति समझौतावादी रुख अपनाने से इन्कार किया। लेकिन, गाँधी के रहते नेहरु का धर्मनिरपेक्षतावादी आग्रह पृष्ठभूमि में ही बना रहा और सर्वधर्मसमभाव वाली धार्मिकता काँग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के केंद्र में बनी रही।
यह राष्ट्रीय आन्दोलन का अंतिम दौर था जब 1940 के दशक के मध्य में भारतीय राजनीति के संप्रदायीकरण की तेज़ होती प्रक्रिया और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उग्र चरण में प्रवेश ने नेहरु की धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा में आने का अवसर प्रदान किया। लेकिन, यही वह दौर था जब  सीधी कार्यवाही दिवस एवं अंतरिम सरकार के अनुभव ने पटेल को दक्षिणपंथी हिंदुत्व की ओर धकेला और वे गाँधी के ‘सर्वधर्मसमभाव’ से दूर पड़ते दिखाई पड़े। लेकिन, गाँधी की हत्या ने पटेल एवं नेहरु, दोनों को एक प्लेटफ़ॉर्म पर लाकर खड़ा कर दिया और वे दोनों संघ के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी हिंदुत्व के विरुद्ध उठ खड़े हुए, लेकिन धार्मिकता एवं ‘सर्वधर्मसमभाव’ वाली धर्मनिरपेक्षता और अधार्मिक प्रकृति वाली धर्मनिरपेक्षता का फर्क बना रहा। यह द्वंद्व संविधान-सभा द्वारा निर्मित संविधान में भी दिखायी पड़ता है और काँग्रेस की प्रांतीय सरकारों के व्यवहारों में भी, जिसके विरुद्ध नेहरु अपने पत्राचारों के माध्यम से चेतावनी देते हुए दिखाई पड़ते हैं। लेकिन, विशेषकर चीनी हमले के बाद नेहरु भी कमजोर पड़े, या फिर यह कह लें कि तद्युगीन परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए नेहरु ने संघ के प्रति नरम रुख अपनाया।
बाद में, राम मनोहर लोहिया के गैर-काँग्रेसवाद ने और जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन ने संघ और दक्षिणपंथी हिन्दुत्व को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने में अहम् एवं निर्णायक भूमिका निभायी। श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इनसे लड़ने की कोशिश भी की और इस क्रम में प्रस्तावना में संशोधन करते हुए ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्द को शामिल भी किया, जिसे कुछ लोग मुस्लिम तुष्टीकरण की कोशिश के रूप में भी देखते हैं, पर उस समय वे गलत पाले में थीं। लेकिन, हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने संघ और उसके मुखिया बाला साहब देवर को घुटनों के बल रेंगने के लिए विवश कर दिया था। इसी का परिणाम था कि जनसंघ और संघ के बड़े नेता माफ़ीनामा के बाद जेल से रिहा किए गये थे। लेकिन, राजीव की एक भूल काँग्रेस पर भारी पड़ी। 1980 के दशक के मध्य में शाहबानो निर्णय की पृष्ठभूमि में सर्वोच्च अदालत के आदेश को पलटने और राम-जन्मभूमि के ताले खुलवाने के राजीव सरकार के निर्णय ने ताबूत में आखिरी कील का काम किया। आज काँग्रेस उन्हीं कुकर्मों का परिणाम भुगत रही है।
काँग्रेस और वामपंथ:
काँग्रेस एक ऐसा आन्दोलन रहा है जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन की विभिन्न धाराओं और उनके वैचारिक परिप्रेक्ष्य को अपने भीतर आत्मसात किया है। यह काँग्रेस की शक्ति भी रही है और सीमा भी। शक्ति इसलिए कि इसके कारण ही काँग्रेस वास्तविक अर्थों में समावेशी भारतीयता का प्रतिनिधित्व कर सकी और अखिल भारतीय संस्था बन सकी, और सीमा इसलिए कि इसी के कारण उन अर्थों में काँग्रेस की कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं रही जिन अर्थों में यह वाम एवं दक्षिण में दिखायी पड़ती है। यही कारण है कि काँग्रेस के दायरे में वामपंथी भी समाते हुए दिखायी पड़ जाते हैं और दक्षिणपंथी भी; और काँग्रेस इन दोनों को अपने हिसाब से ढ़ालते हुए इन दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ती रही, इन दोनों की अतिवादिता से परहेज करते हुए। आज़ादी के बाद नेहरू ने इन दोनों को राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करना चाहा, श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी, पर सफल रहे। समाजवाद की ओर वैचारिक रूझान के कारण और वैचारिक दुराग्रहों से दूर रहने के कारण नेहरू को अपेक्षाकृत उदार वामपंथ को अपने साथ इंगेज़ करने में सफलता मिली। इन उदार वामपंथी बुद्धिजीवियों ने काँग्रेस के वैचारिक आधार को निर्मित करने में अहम् भूमिका निभायी। काँग्रेस ने इन्हें सत्ता का संरक्षण प्रदान किया और बदले में इन्होंने काँग्रेस को वैचारिक-सांस्कृतिक मंच प्रदान किया। दोनों के बीच का यह रिश्ता प्रत्यक्ष से कहीं अधिक परोक्ष रहा, यद्यपि बीच-बीच में दोनों के ये रिश्ते सतह पर भी दिखते रहे। 1990 के दशक में  इस रिश्ते में दरार पड़ता दिखायी पड़ा, जब काँग्रेस ने समाजवादी चोले को उतारकर एलपीजी मॉडल को अपनाया, और वामपंथ ने काँग्रेस के विरूद्ध दक्षिणपंथ से हाथ मिलाने तक से परहेज़ नहीं किया।  इस दृष्टि से देखा जाए, तो दक्षिणपंथ के इस राजनीतिक उभार के लिए समाजवादी के साथ-साथ वामपंथी भी कहीं कम ज़िम्मेवार नहीं हैं। दक्षिणपंथ को इस बात का श्रेय देना होगा कि पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान उसने अपनी जड़ों को मज़बूती प्रदान करने के लिए वामपंथियों एवं समाजवादियों तक का बखूबी इस्तेमाल किया और इनके साथ-साथ काँग्रेस की कमज़ोरियों को भी अपने पक्ष में जमकर भुनाया। यही वह दौर है जब धर्मनिरपेक्ष की राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में तब्दील होती हुई दक्षिणपंथ के उभार का आधार तैयार करती है।
सन् 2004 में और इसके बाद यह स्थिति एक बार फिर से बदलती दिखायी पड़ती है जब काँग्रेस पूर्व की ग़लतियों से सबक़ लेती हुई एक बार फिर से समाजवादी एजेंडे के समायोजन की दिशा में पहल करती है। समायोजन की इस पहल की तार्किक परिणति सन् 2019 के लोकसभा-चुनाव के समय काँग्रेस के द्वारा जारी घोषणा-पत्र है जो पिछले तीन दशकों की भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु है जहाँ पर भारत के दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों की आर्थिक विचारधारा और उसके आर्थिक एजेंडे का फ़र्क़ स्पष्टत: सतह पर आ जाता है। इस पृष्ठभूमि में दक्षिणपंथ की विभाजनकारी मानसिकता और उसके फासीवादी तेवर ने काँग्रेस एवं वामपंथ को एक बार फिर से उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ भारत और भारतीयता को बचाने के लिए दोनों को एक दूसरे के पूरक की भूमिका निभानी होगी, अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगी। नियति भी तो इसी ओर इशारा कर रही है, अन्यथा जिस गाँधी एवं नेहरू की विरासत पर काँग्रेस और काँग्रेसी दावा करते हैं, उन पर होने वाले दक्षिणपंथी हमलों को लेकर वे मौन नहीं धारण करते और जिस गाँधी एवं नेहरू से वामपंथियों को परहेज है, उनकी रक्षा में उन वामपंथियों को आगे नहीं आना पड़ता।