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गाँधी और गाँधीवाद: वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता ====================================
आज हम ऐस दौर में जी रहे हैं, जिसमें गाँधी को जानना और समझना किसी अपराध से कम नहीं है, मानने की तो बात ही छोड़ दें। यह अपने आप में यह बतलाने के लिए काफ़ी है कि आज हमें गाँधी की कितनी ज़रूरत है और कितनी ज़रूरत है उनको न केवल जानने और समझने की, वरन् उनको मानने की भी।
अब प्रश्न यह उठता है कि जिस गाँधीवाद के माध्यम से हम गाँधी तक पहुँच सकते हैं, वह गाँधीवाद क्या है? गाँधीवाद समय एवं परिस्थितियों के सापेक्ष विकसनशीलशील अवधारणा है, न कि स्थिर धारणा। इसके स्वरूप के निर्धारण में दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष से लेकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विभिन्न चरणों तक के दौरान प्राप्त अनुभवों की अहम् भूमिका रही। इसे गाँधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह की संकल्पना के परिप्रेक्ष्य में देखा एवं समझा जा सकता है, जिसके मूल में गौतम बुद्ध का अहिंसावाद है। जहाँ फ़रवरी,1922 में चौरी-चौरा काण्ड के बाद गाँधी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया, वहीं सन् 1931 में चटगाँव, शोलापुर एवं पेशावर की हिंसक घटनाओं के बावजूद उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को जारी रखा। आगे चलकर, सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान होनेवाली हिंसा की आलोचना करने की बजाय गाँधी ने उसे ‘ब्रिटिश दमन की प्रतिक्रिया में उपजी हुई हिंसा’ बतलाकर जस्टिफाई किया। इतना ही नहीं, गाँधी ने अहिंसा को लेकर व्यावहारिक नज़रिया अपनाते हुए कहा कि अगर अहिंसा कायरता का रूप लेने लगे, तो मैं हिंसक हो जाना पसन्द करूँगा। स्पष्ट है कि गाँधी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए शक्तिशाली ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष ऐसी नैतिक दुविधा उत्पन्न की जिसकी उसके पास कोई काट नहीं थी और इसी कारण इसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को आज़ादी की तार्किक परिणति तक पहुँचाया।
दरअसल गाँधीवाद आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिन्तन परम्परा की पुनर्व्याख्या है जिसकी ज़रूरत औपनिवेशिक शासन की पृष्ठभूमि में उसके द्वारा उत्पन्न चुनौतियों ने महसूस करवाई। इसके केन्द्र में सहिष्णुता एवं समन्वय का वह तत्व है जो वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों के प्राण-तत्व हैं। इसे ही तद्युगीन ज़रूरतों के आलोक में गौतम बुद्ध के यहाँ ‘मध्यमा प्रतिपदा’ और तुलसी के यहाँ ‘विरूद्धों के सामंजस्य’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है, और इसे ही गाँधी के यहाँ ‘सर्वधर्मसमभाव’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। इसके बिना न तो विदेशी पराधीनता के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाया जा सकता था, और न ही विविधताओं से भरे भारतीय समाज एवं संस्कृति के ताने-बानों को ही सुरक्षित रखा जा सकता था। शायद यही कारण है कि अंग्रेज़ों ने मुस्लिम एवं हिन्दू सम्प्रदायवादियों के माध्यम से उनकी इस सोच को निरन्तर चुनौती दी। इसके परिणामस्वरूप गाँधी इन दोनों के निशाने पर रहे और यहाँ तक कि गाँधी और उनके नेतृत्व वाले काँग्रेस के ख़िलाफ़ इन दोनों ने एक दूसरे हाथ तक मिलाया। गाँधी जीवनपर्यन्त इन दोनों ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, और अब जबकि वो हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनकी सोच इन ताक़तों के ख़िलाफ़ निरन्तर लड़ रही है और इनके प्रहारों का सामना कर रही है। आज भी यह सोच गाँधी और गाँधीवाद को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानती हुई उसे निरन्तर अप्रासंगिक बनाने की कोशिश में उनके चरित्र-हनन की कोशिश में लगी है। पहले इस सोच ने गाँधी की हत्या की, और अब यह सोच गाँधीवाद की हत्या पर उतारू है।
इस क्रम में यह भी जानने की आवश्यकता है कि गाँधी के लिए ‘सर्वधर्मसमभाव’ का मतलब मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं है। अगर ऐसा होता, तो राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तिम दिनों में गाँधी न तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ नोआखाली की सड़कों पर उतरते और न ही सके विरूद्ध संघर्ष करते हुए हिन्दुओं को बचाने की कोशिश करते। इसीलिए अगर हम भारत और भारतीयता से प्यार करते हैं, तो हमारी यह नैतिक ज़िम्मेवारी बनती है कि हम गाँधी और गाँधीवाद के मूल्यों को महफ़ूज़ रखें, क्योंकि ये दोनों भारत एवं भारतीयता से अभिन्न हैं। यह भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एवं गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए भी आवश्यक है, और भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की अक्षुण्णता के लिए भी आवश्यक।
इससे इतर हटकर देखें, तो पारम्परिक धारणाओं के विपरीत गाँधीवाद भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के लिए भी चुनौती बनकर आता है। उन्होंने एक ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के अहिंसक स्वरूप की परिकल्पना के जरिए राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी के मार्ग को प्रशस्त किया, दूसरी ओर इन्द्रिय-संयम एवं नैतिक शुद्धि पर बल देते हुए उनके पुरूष सहकर्मियों को इस बात को लेकर आश्वस्त किया कि महिलाएँ घर के बाहर भी सुरक्षित हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने चरखे के माध्यम से भारतीय महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के मार्ग को प्रशस्त किया। शायद इसीलिए सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी भी नारी-मुक्ति में गाँधी के अप्रतिम योगदान को रेखांकित करते हैं।
अप्रासंगिक नहीं हैं गाँधी:
आज गाँधी की कितनी प्रासंगिकता है, इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कल तक जो लोग गाँधी का नाम तक लेना पसन्द नहीं करते थे, आज उन्हें उग्र दक्षिणपंथी हिन्दुत्व से लड़ने के लिए गाँधी की ज़रूरत शिद्दत से महसूस हो रही है। शाहीनबाग से लेकर सब्जीबाग तक, सब्जीबाग से लेकर नवाबगंज तक और नवाबगंज से लेकर शान्तिबाग तक जो लड़ाइयाँ लड़ी जा रही है, उनमें गाँधीवादी तकनीक एवं रणनीति का इस्तेमाल सरकार को दुविधा की स्थिति में डाल रहा है। यह दुविधा तब और भी बढ़ जाती है जब सरकार लड़ाई के मोर्चे पर महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में खड़ा पाती है। आरम्भ में यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त रहा और जब इसे उकसाने की कोशिश की गयी, तो इसने हिंसक रूप भी लिया। पर, जल्द ही आन्दोलनकारियॉ की समझ में यह बात आ गयी कि यदि आन्दोलन को मज़बूती से जारी रखना है, तो उसके अहिंसक रूप को सुनिश्चित करना होगा; और आज आलम यह है कि #CAA_NPR_NRC विरोधी यह आन्दोलन पूरे भारत में फैल चुका है और यह सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए इन आन्दोलनों में इसको समर्थन एवं संस्थागत आधार प्रदान करने वाले वामपंथियों को भी गाँधी एवं गाँधीवाद की जय करते देखा जा सकता है। इस प्रकार आज पूरा भारत गाँधी एवं गाँधीवाद की जय से गुँजायमान हो उठा है।
स्पष्ट है कि अहिंसा, सर्वधर्मसमभाव एवं स्त्री-स्वत्व गाँधी और गाँधीवाद के ऐसे मूल तत्व हैं जो गाँधीवाद को जिलाए रखने में सहायक हैं और जिसके कारण गाँधीवाद की प्रासंगिकता निर्विवाद है।
गाँधी और गाँधीवाद: वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता ====================================
आज हम ऐस दौर में जी रहे हैं, जिसमें गाँधी को जानना और समझना किसी अपराध से कम नहीं है, मानने की तो बात ही छोड़ दें। यह अपने आप में यह बतलाने के लिए काफ़ी है कि आज हमें गाँधी की कितनी ज़रूरत है और कितनी ज़रूरत है उनको न केवल जानने और समझने की, वरन् उनको मानने की भी।
अब प्रश्न यह उठता है कि जिस गाँधीवाद के माध्यम से हम गाँधी तक पहुँच सकते हैं, वह गाँधीवाद क्या है? गाँधीवाद समय एवं परिस्थितियों के सापेक्ष विकसनशीलशील अवधारणा है, न कि स्थिर धारणा। इसके स्वरूप के निर्धारण में दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष से लेकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विभिन्न चरणों तक के दौरान प्राप्त अनुभवों की अहम् भूमिका रही। इसे गाँधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह की संकल्पना के परिप्रेक्ष्य में देखा एवं समझा जा सकता है, जिसके मूल में गौतम बुद्ध का अहिंसावाद है। जहाँ फ़रवरी,1922 में चौरी-चौरा काण्ड के बाद गाँधी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया, वहीं सन् 1931 में चटगाँव, शोलापुर एवं पेशावर की हिंसक घटनाओं के बावजूद उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को जारी रखा। आगे चलकर, सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान होनेवाली हिंसा की आलोचना करने की बजाय गाँधी ने उसे ‘ब्रिटिश दमन की प्रतिक्रिया में उपजी हुई हिंसा’ बतलाकर जस्टिफाई किया। इतना ही नहीं, गाँधी ने अहिंसा को लेकर व्यावहारिक नज़रिया अपनाते हुए कहा कि अगर अहिंसा कायरता का रूप लेने लगे, तो मैं हिंसक हो जाना पसन्द करूँगा। स्पष्ट है कि गाँधी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए शक्तिशाली ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष ऐसी नैतिक दुविधा उत्पन्न की जिसकी उसके पास कोई काट नहीं थी और इसी कारण इसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को आज़ादी की तार्किक परिणति तक पहुँचाया।
दरअसल गाँधीवाद आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिन्तन परम्परा की पुनर्व्याख्या है जिसकी ज़रूरत औपनिवेशिक शासन की पृष्ठभूमि में उसके द्वारा उत्पन्न चुनौतियों ने महसूस करवाई। इसके केन्द्र में सहिष्णुता एवं समन्वय का वह तत्व है जो वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों के प्राण-तत्व हैं। इसे ही तद्युगीन ज़रूरतों के आलोक में गौतम बुद्ध के यहाँ ‘मध्यमा प्रतिपदा’ और तुलसी के यहाँ ‘विरूद्धों के सामंजस्य’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है, और इसे ही गाँधी के यहाँ ‘सर्वधर्मसमभाव’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। इसके बिना न तो विदेशी पराधीनता के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाया जा सकता था, और न ही विविधताओं से भरे भारतीय समाज एवं संस्कृति के ताने-बानों को ही सुरक्षित रखा जा सकता था। शायद यही कारण है कि अंग्रेज़ों ने मुस्लिम एवं हिन्दू सम्प्रदायवादियों के माध्यम से उनकी इस सोच को निरन्तर चुनौती दी। इसके परिणामस्वरूप गाँधी इन दोनों के निशाने पर रहे और यहाँ तक कि गाँधी और उनके नेतृत्व वाले काँग्रेस के ख़िलाफ़ इन दोनों ने एक दूसरे हाथ तक मिलाया। गाँधी जीवनपर्यन्त इन दोनों ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, और अब जबकि वो हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनकी सोच इन ताक़तों के ख़िलाफ़ निरन्तर लड़ रही है और इनके प्रहारों का सामना कर रही है। आज भी यह सोच गाँधी और गाँधीवाद को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानती हुई उसे निरन्तर अप्रासंगिक बनाने की कोशिश में उनके चरित्र-हनन की कोशिश में लगी है। पहले इस सोच ने गाँधी की हत्या की, और अब यह सोच गाँधीवाद की हत्या पर उतारू है।
इस क्रम में यह भी जानने की आवश्यकता है कि गाँधी के लिए ‘सर्वधर्मसमभाव’ का मतलब मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं है। अगर ऐसा होता, तो राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तिम दिनों में गाँधी न तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ नोआखाली की सड़कों पर उतरते और न ही सके विरूद्ध संघर्ष करते हुए हिन्दुओं को बचाने की कोशिश करते। इसीलिए अगर हम भारत और भारतीयता से प्यार करते हैं, तो हमारी यह नैतिक ज़िम्मेवारी बनती है कि हम गाँधी और गाँधीवाद के मूल्यों को महफ़ूज़ रखें, क्योंकि ये दोनों भारत एवं भारतीयता से अभिन्न हैं। यह भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एवं गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए भी आवश्यक है, और भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की अक्षुण्णता के लिए भी आवश्यक।
इससे इतर हटकर देखें, तो पारम्परिक धारणाओं के विपरीत गाँधीवाद भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के लिए भी चुनौती बनकर आता है। उन्होंने एक ओर राष्ट्रीय आन्दोलन के अहिंसक स्वरूप की परिकल्पना के जरिए राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी के मार्ग को प्रशस्त किया, दूसरी ओर इन्द्रिय-संयम एवं नैतिक शुद्धि पर बल देते हुए उनके पुरूष सहकर्मियों को इस बात को लेकर आश्वस्त किया कि महिलाएँ घर के बाहर भी सुरक्षित हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने चरखे के माध्यम से भारतीय महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के मार्ग को प्रशस्त किया। शायद इसीलिए सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी भी नारी-मुक्ति में गाँधी के अप्रतिम योगदान को रेखांकित करते हैं।
अप्रासंगिक नहीं हैं गाँधी:
आज गाँधी की कितनी प्रासंगिकता है, इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कल तक जो लोग गाँधी का नाम तक लेना पसन्द नहीं करते थे, आज उन्हें उग्र दक्षिणपंथी हिन्दुत्व से लड़ने के लिए गाँधी की ज़रूरत शिद्दत से महसूस हो रही है। शाहीनबाग से लेकर सब्जीबाग तक, सब्जीबाग से लेकर नवाबगंज तक और नवाबगंज से लेकर शान्तिबाग तक जो लड़ाइयाँ लड़ी जा रही है, उनमें गाँधीवादी तकनीक एवं रणनीति का इस्तेमाल सरकार को दुविधा की स्थिति में डाल रहा है। यह दुविधा तब और भी बढ़ जाती है जब सरकार लड़ाई के मोर्चे पर महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में खड़ा पाती है। आरम्भ में यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त रहा और जब इसे उकसाने की कोशिश की गयी, तो इसने हिंसक रूप भी लिया। पर, जल्द ही आन्दोलनकारियॉ की समझ में यह बात आ गयी कि यदि आन्दोलन को मज़बूती से जारी रखना है, तो उसके अहिंसक रूप को सुनिश्चित करना होगा; और आज आलम यह है कि #CAA_NPR_NRC विरोधी यह आन्दोलन पूरे भारत में फैल चुका है और यह सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए इन आन्दोलनों में इसको समर्थन एवं संस्थागत आधार प्रदान करने वाले वामपंथियों को भी गाँधी एवं गाँधीवाद की जय करते देखा जा सकता है। इस प्रकार आज पूरा भारत गाँधी एवं गाँधीवाद की जय से गुँजायमान हो उठा है।
स्पष्ट है कि अहिंसा, सर्वधर्मसमभाव एवं स्त्री-स्वत्व गाँधी और गाँधीवाद के ऐसे मूल तत्व हैं जो गाँधीवाद को जिलाए रखने में सहायक हैं और जिसके कारण गाँधीवाद की प्रासंगिकता निर्विवाद है।