त्रिपुरी संकट,1939
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा
प्रतिबंधित होने के कारण ‘इंडियन स्ट्रगल (1920-1934) ने सुभाष को अपार लोकप्रियता प्रदान की और इसकी पृष्ठभूमि में 1930
के दशक के मध्य में अपने यूरोपीय प्रवास के दौरान आज़ादी के संघर्ष
को विदेशों में फैलाने के उद्देश्य से सुभाष चंद्र बोस ने कई यूरोपीय देशों की
यात्रायें की। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें हरिपुरा अधिवेशन,1938 में गाँधी ने पटेल
के विरोध और आपत्तियों को ख़ारिज करते हुए सुभाष को काँग्रेस का अध्यक्ष बनवाया,
लेकिन सुभाष के अध्यक्षीय भाषण ने गाँधी को निराश किया। लेकिन, यह उनका उग्र
संघ-विरोधी रूख था जिसके कारण उनके संबंधों में तल्खी आई और अंततः उसकी परिणति
त्रिपुरी अधिवेशन,1939 में देखने को मिली। और फिर, उनके सम्बन्ध कभी मधुर नहीं हो
पाए।
गाँधी और सुभाष के बीच गहराते मतभेद:
1939 तक
आते-आते गाँधी को अपने और अपनी कार्यशैली
के बारे में ‘इंडियन स्ट्रगल’ में बोस के द्वारा की गयी टिप्पणियों को जानकारी मिल चुकी थी। गाँधी को जर्मनी और जापान के
दूतों के साथ सुभाष की गोपनीय मुलाकात की भी जानकारी मिली। इससे
पूर्व 1937 ई. में प्रांतीय विधानसभा चुनाव में भागीदारी और
सरकार के गठन के प्रश्न पर पटेल सहित काँग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ सुभाष
के मतभेद सामने आ चुके थे। जहाँ सुभाष
सत्ता में भागीदारी के विरोध में थे और अविलम्ब ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध छेड़े
जाने के पक्ष में थे, वहीं पटेल सत्ता में भागीदारी
के पक्ष में थे। ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध के प्रश्न पर न तो पटेल सुभाष से
सहमत थे और न ही गाँधी। राजमोहन गाँधी लिखते है कि “पटेल को यह भी लगता था कि
सुभाष बाबू गाँधी की महत्ता को कम, लगभग
नगण्य ही समझते थे।” यह मतभेद तब और गहराया जब काँग्रेस के नियमों के मुताबिक राष्ट्राध्यक्ष के कार्यालय का पता सुभाष के गृह-शहर कलकत्ता के बजाय आनंद भवन, इलाहाबाद को ही बनाये रखा
गया क्योंकि आचार्य जे. बी. कृपलानी राष्ट्राध्यक्ष,
काँग्रेस का कार्यालय मात्र एक साल के लिए कलकत्ता लाये जाने के पक्ष में नहीं थे।
त्रिपुरी तक आते-आते मतभेद का संकट में तब्दील होना:
1. दूसरा विश्वयुद्ध और राष्ट्रीय आंदोलन: 1939
में दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में गाँधी
न तो ब्रिटिश साम्राज्य की कमजोरियों का फायदा उठाने के पक्ष में थे और न ही उसके विरुद्ध
अभी किसी भी नए आन्दोलन की शुरूआत के पक्ष में थे क्योंकि इसका मतलब हिटलर और मुसोलिनी के हाथ को मज़बूत करना होता, जबकि अबतक
फासीवाद-विरोध को लेकर काँग्रेस दृढ हो चुकी थी।
2. मनपसंद अध्यक्ष के निर्वाचन का प्रश्न: द्वितीय
विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में गाँधी और उनके समर्थक उपनिवेशवाद-विरोधी
आन्दोलन के मसले पर नरम रूख रखने वाले किसी दक्षिणपंथी को राष्ट्राध्यक्ष बनवाना
चाहते थे, लेकिन यह स्थिति सुभाष को मंज़ूर नहीं थी। इसके विपरीत,
सुभाष ऐसा राष्ट्रीय अध्यक्ष चाहते थे जो ब्रिटिश साम्राज्य के संकट का फायदा उठाते
हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को जुझारूपन प्रदान करते हुए आज़ादी के आन्दोलन को गति
प्रदान करे। इसी के मद्देनज़र सुभाष या तो खुद पुनः
राष्ट्राध्यक्ष बनना चाहते थे, या फिर अपनी विचारधारा वाले किसी अन्य व्यक्ति को राष्ट्राध्यक्ष बनवाना चाहते थे।
3. सुभाष के द्वारा गाँधी के दक्षिणपंथी अनुयायियों पर अंग्रेजों के
साथ साँठ-गाँठ का आरोप:
दक्षिणपंथियों के लिए सुभाष को बर्दाश्त करना तब और भी मुश्किल हो गया जब सुभाष और
उनके समर्थकों, जो काँग्रेस के वामपंथी धड़े का प्रतिनिधित्व करते थे, ने उनपर अंग्रेजों
के साथ साँठ-गाँठ और ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर षड़यंत्र करने का आरोप लगाते हुए कहा कि इन्होंने केंद्र में वायसराय और
आर्मी चीफ के नीचे भारतीयों का संघीय मन्त्रिमण्डल बना रखा है जो अंग्रेजों के हाथ
की कठपुतली है। सुभाष के अनुसार, इस समझौते के अनुसार मंत्रियों के नाम तक तय हो चुके थे। सुभाष ने
अपनी आत्मकथा ‘द इंडियन स्ट्रगल,1920-42’ में गांधीवादियों पर आरोप
लगते हुए लिखा, “कांग्रेस के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में
अंग्रेजों के साथ किसी भी तरह के समझौते के विरोध को मज़बूत करने हेतु मैंने भरसक
प्रयत्न किए जिसकी वजह से वो गाँधीवादी चिढ़ गए थे जो बर्तानिया हुकूमत के साथ
समझौता करना चाहते थे। गाँधी और उनके अनुयायी अपने संसदीय एवं मंत्रालय के कामों
में किसी प्रकार का अड़ंगा नहीं चाहते थे।”
इस आरोप से दक्षिणपंथी कितने आहत
थे, उसका पता फरवरी,1939 में सरदार पटेल के द्वारा नेहरु
को लिखे पत्र के इस अंश से होती है: “हमारे शत्रुओं ने भी हमारी ईमानदारी का श्रेय
हमें दिया है, परन्तु हमारे अध्यक्ष ने नहीं। जो भी हो, हमें कोई संदेह नहीं है कि
हमें क्या करना है और हमने सुभाष को लिख दिया है कि हम उनकी सुविधा के अनुसार
सदस्यता छोड़ने को तैयार हैं।”
4. बिना काँग्रेस कार्यसमिति को विश्वास में लिए सुभाष के द्वारा अपने
पुनर्निर्वाचन के पक्ष में की जा रही लॉबीइंग: सुभाष स्वयं का
पुनर्निर्वाचन तो चाहते थे, पर उन्होंने कांग्रेस की कार्यकरिणी समिति के समक्ष
कभी इसका ज़िक्र नहीं किया। उधर दक्षिणपंथी काँग्रेसी सुभाष
के रवैये और उनके क्रियाकलापों से नाराज़ थे। अपनी आत्मकथा में राजेंद्र
प्रसाद ने सुभाष पर कांग्रेस के अंदर संकट उत्पन्न
करने का आरोप लगाते हुए कहा कि, “ऐसा लगता है कि यदि
अभी भी उन्होंने यह सुझाव गाँधीजी और हमारे समक्ष रखा होता, तो इस पर विचार किया
जा सकता था।” आगे उन्होंने लिखा है कि
“जब हम गाँधी से बारदोली में
मिले, तो हमने अनौपचारिक रूप से इस विषय पर पुनः चर्चा की थी जिसमें हम सबने
मौलाना आज़ाद का नाम सर्वसम्मति से अनौपचारिक तौर पर सहमति जताई थी। हमने यह बात
सुभाष चंद्र बोस को नहीं बताई थी और न ही कभी सुभाष के समक्ष इस मुद्दे को उठाया
था। परन्तु, हमने सुना था कि जहाँ भी सुभाष जाते हैं, वो ख़ुद को पुनः निर्वाचित
करवाए जाने की वकालत करते हैं।” सुभाष के द्वारा अपने पुनर्निर्वाचन के पक्ष में की जा रही लॉबीइंग ने दक्षिणपंथियों को और ज्यादा चिढ़ाने का काम किया और इस सन्दर्भ में पटेल ने अपने क्षोभ को खुलकर
प्रदर्शित किया।
5. सुभाष के द्वारा अपने पुनर्निर्वाचन को वैचारिक संघर्ष और
राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्यक्रमों के प्रश्न से जोड़ने की कोशिश: सुभाष अपने पुनर्निर्वाचन को वैचारिक संघर्ष और राष्ट्रीय आन्दोलन
के कार्यक्रमों के प्रश्न का रूप देना चाह रहे थे। उन्होंने यह घोषणा करते हुए, कि
“कांग्रेस में नरम दल और गरम दल के दोनों
गुट अब एक दूसरे के ख़िलाफ़ हैं, माँग की थी कि अब कांग्रेस को अंग्रेजी हुकूमत को
देश को पूर्णतया आज़ाद करने हेतु एक आखिरी चेतावनी दे देनी चाहिए।” लेकिन दक्षिणपंथी गाँधीवादी इससे सहमत नहीं थे। इसी आलोक में राजेंद्र
प्रसाद, सरदार पटेल, जे बी कृपालानी तथा
काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के चार अन्य सदस्यों ने साझा
बयान जारी करते हुए यह स्पष्ट किया कि, “राष्ट्राध्यक्ष के चुनावों को
विचारधारा, कार्यक्रम एवं नीति के आधार पर लड़ा जाना ग़लत है
क्योंकि अखिल भारतीय काँग्रेस समिति व कार्यकारिणी समिति के साथ-साथ काँग्रेस के
सभी अंग इन्हीं को आरम्भ से प्रतिपादित करते आ रहे हैं। साथ ही, काँग्रेस का
राष्ट्राध्यक्ष उस एक संवैधानिक प्रमुख की तरह है जो देश की एकता एवं अखंडता को
चिन्हित करता है।” स्पष्ट है कि विचारधारा और राष्ट्रीय आन्दोलन
के कार्यक्रमों के प्रश्न पर काँग्रेस के अध्यक्ष के निर्वाचन को दक्षिणपंथी राष्ट्रीय आन्दोलन की एकता एवं
साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा के मद्देनज़र सुभाष के विरोध में थे। उन्हें आशंका
थी कि यह राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाली साबित हो सकती है।
6. सुभाष का रवैया काँग्रेस की क्रियाप्रणाली के विरुद्ध: गाँधी के आने के बाद से अबतक की परिपाटी के अनुसार काँग्रेस
कार्यकारिणी समिति के पास गाँधी के द्वारा अनुशंसित नाम ही भेजे जाते थे और
सामान्यतः गाँधी के फैसले का विरोध करते हुए किसी दूसरे नाम का प्रस्ताव नहीं किया
जाता था। समिति इस अनुशंसित नाम को एक वोट से विजयी घोषित किया जाता था।
काँग्रेस के दोनों गुट आमने-सामने:
यही वह पृष्ठभूमि है
जिसमें गाँधी ने सुभाष की जगह किसी अन्य प्रभावशाली नेता को नए काँग्रेस-अध्यक्ष के
रूप में लाये जाने की योजना बनाई। नेहरु गाँधी की आरंभिक पसंद थे, पर उन्होंने
चुनाव लड़ने से मना करते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम का सुझाव दिया। पट्टाभि
सीतारमैया ने अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन नैशनल कांग्रेस वॉल्यूम-II (1935-1947) में लिखा, “सुभाष
बाबू के पुनः राष्ट्राध्यक्ष बनने में कुछ भी गलत नहीं था। लेकिन, गाँधी चाहते थे
कि साम्प्रदायिकता के उभार पर अंकुश लगाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय से मौलाना
आज़ाद का चुना जाना ही सही होगा।” लेकिन, सुभाष को मैदान
में डटे देखकर मौलाना आज़ाद ने आरंभिक स्वीकृति के बावजूद चुनाव लड़ने से मना कर
दिया। अंततः गाँधी ने पट्टाभि सीतारमैय्या को अपना उम्मीदवार बनाया। अब यह सीधे
सुभाष चंद्र बोस और सीतारमैया के मध्य का ही चुनावी मुक़ाबला बन गया था। गाँधी की
इच्छा के मद्देनज़र सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद,
और जे. बी. कृपालानी ने अबतक की काँग्रेसी परंपरा को ध्यान में रखते
हुए सुभाष से पुनर्निर्वाचन के अपने निर्णय का पुनर्विचार का अनुरोध किया। लेकिन,
सुभाष ने इनके इस आग्रह को ठुकराते हुए काँग्रेस के प्रतिनिधियों को अपनी पसंद के
अध्यक्ष चुनने का अवसर प्रदान करने का आग्रह किया। काँग्रेस कार्यकारिणी समिति में
दक्षिणपंथियों का वर्चस्व था और जनवरी,1939 में उनकी ओर से सरदार पटेल
ने यह बयान जारी करते हुए अपना इरादा स्पष्ट कर दिया कि “भले
ही सुभाष चंद्र बोस जीत जाएँ, कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति
उनकी नीतियों का पुनर्निरीक्षण करेगी और आवश्यकता हुई, तो उन नीतियों को वीटो से
रद्द कर दिया जाएगा।”
त्रिपुरी अधिवेशन में
सुभाष का रूख:
अपने अध्यक्षीय भाषण में सुभाष ने हाल
की घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि म्यूनिख समझौता,1938
जर्मनी के समक्ष फ्रांस एवं ब्रिटेन के समर्पण और यूरोप में
फ्रांसीसी प्रभुत्व की समाप्ति का संकेत लेकर आया और इससे ब्रितानी साम्राज्यवाद
की शक्ति एवं सम्मान को गहरा आघात पहुँचा है। उन्हें लगता था कि यह उचित समय है जब निष्क्रियता छोड़ते हुए काँग्रेस स्वराज
के प्रश्न को उठाते हुए इस सम्बंध में ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम दे क्योंकि:
1. संभव
है कि 1935 ई. के अधिनियम के संघ से सम्बंधित प्रावधान के लागू होने . की
प्रतीक्षा यूरोप में शांति स्थापित होने तक करनी पड़े, और
2. यह
भी संभव है कि शांति-स्थापना के बाद ब्रिटेन एक बार फिर से कठोर साम्राज्यवादी
नीति की राह पर वापस लौट जाय।
ऐसी स्थिति में इसका
मतलब होगा हाथ में आये हुए अवसर को गँवाना, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा।
इसीलिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकट का फायदा उठाते हुए उसके समक्ष अपनी माँगें
रखी जायें, और यदि निर्धारित समय-सीमा के भीतर ये
माँगें नहीं मानी जातीं, तो असहयोग और सत्याग्रह के उपाय को अजमाया
जाय। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन लम्बे समय तक
किसी भी अखिल भारतीय सत्याग्रह आन्दोलन का सामना करने की स्थिति में नहीं
है। उन्होंने गाँधी और गाँधीवादियों के इस तर्क, कि अभी भारत में सत्याग्रह के लिए
उपयुक्त परिस्थितियाँ नहीं हैं और भारत ऐसे किसी आन्दोलन के लिए अभी तैयार नहीं
है, से असहमति प्रदशित करते हुए कहा कि “मुझे इस बात का दुख है कि काँग्रेस में कुछ ऐसे निराशावादी
व्यक्ति हैं, जो यह सोचते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य
पर किसी शक्तिशाली आघात के लिए यह समय अनुकूल नहीं है।” इसके विपरीत उन्होंने:
1. आठ
प्रांतों में काँग्रेसी सरकार होने के कारण राष्ट्रीय संगठन के रूप में काँग्रेस
की शक्ति और प्रतिष्ठा में होने वाली वृद्धि,
2. देशी
रियासतों में अभूतपूर्व जन-जागरण और
3. ब्रिटिश
भारत में जनान्दोलन की प्रगति को ध्यान में रखते हुए भारतीय परिस्थितियों को अगले
आन्दोलन के लिए अत्यंत उपयुक्त पाया।
लेकिन, उन्होंने इस बात को स्वीकार
किया कि इसके लिए यथेष्ठ तैयारी करनी
होगी, पर ऐसा तबतक संभव नहीं है जबतक:
1. काँग्रेसी
कार्यकर्ता एवं नेता अपने तमाम मतभेदों को भुलाकर
अपनी सारी शक्ति एवं ऊर्जा इस संघर्ष में झोंकने के लिए तैयार नहीं हो
जाते। साथ ही, देश की सभी
साम्राज्यवाद-विरोधी शक्तियों के निकट समन्वय एवं सहयोग ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत
की आखिरी कील साबित होगा।
2. फरवरी,1938 में हरिपुरा अधिवेशन में काँग्रेस के द्वारा पारित उस प्रस्ताव में संशोधन के जरिये उन प्रतिबंधों को वापस
लेने की आवश्यकता पर बल दिया जिसके जरिये देशी रियासतों में काँग्रेस
के नाम पर होने वाली कार्रवाइयों और आंदोलनों पर प्रतिबंधित किया गया।
3. साथ
ही, देशी रियासतों में होने वाले जन-जागरण के
मददेनज़र कार्यकारिणी समिति अपने दायित्वों को स्वीकार करते हुए प्रो-एक्टिव भूमिका
निभाये और व्यवस्थित रूप से रियासतों में नागरिक
स्वतंत्रता तथा उत्तरदायित्व पूर्ण सरकार के लिए चलाये जाने वाले जन-आंदोलनों का
मार्गदर्शन एवं संचालन करे। इसके लिए उप-समिति के गठन, गाँधी के
मार्गदर्शन और आल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांफ्रेंस के सहयोग हासिल करने की दिशा में
पहल की जानी चाहिए।
4. उन्होंने
सत्ता में भागीदारी और सत्ता के लोभ के कारण पनप
रहे भ्रष्टाचार को स्वीकारते हुए उसे कठोरता से दूर करने की आवशयकता पर बल
दिया।
अंत
में, उन्होंने 1922 में गया अधिवेशन का हवाला देते हुए यह उम्मीद
जताई कि अंत-अंत तक काँग्रेस के सदस्य
विवेक से काम लेंगे और आसन्न संकट ताल जाएगा। इसी आलोक में उन्होंने गाँधी से अपील
करते हुए कहा कि “महात्मा गाँधी धी, जो हमारे हैं, राष्ट्र का मार्गदर्शन एवं सहायता कर कांग्रेस को इस उलझन से उबारें।”
त्रिपुरी,1939 में सुभाष की निर्णायक जीत:
बी. आर. टॉमलिंसन ने
कहा कि यह चुनाव वैचारिक मुद्दों पर दक्षिण बनाम् वाम, संघ-समर्थन बनाम्
संघ-विरोध, मंत्रिमंडल-समर्थन बनाम् मंत्रिमंडल-विरोध के नाम पर लड़ा गया। ऐसा लगा
कि काँग्रेस एक बार फिर से 1907 ई. के सूरत अधिवेशन और 1922 ई. के गया-अधिवेशन
वाली सतही में पहुँच चुकी है। अधिवेशन
सत्र में स्वागत समिति के अध्यक्ष सेठ गोविन्द दास ने अपने भाषण में
कांग्रेस के आंतरिक कलह पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि, “जब हमारे सिर पर दूसरे विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे हों, तब हमें एकजुट होकर रहना चाहिए नाकि अपने नेताओं पर ऊँगली उठाकर उनके
निर्णयों पर शक करना चाहिए।” दोनों पक्षों में कोई भी पीछे
हटने के लिए तैयार नहीं हुआ। अध्यक्षीय भाषण देने में असमर्थ सुभाष सबके सामने मंच
पर स्ट्रेचर पर लेटे हुए थे और सुभाष के द्वारा लिखित अध्यक्षीय भाषण मौलाना आज़ाद ने
पढ़ा था। इसमें कहा गया था, “काँग्रेस
को ब्रिटेन को 6 माह में देश छोड़ने की अंतिम चेतावनी देनी
चाहिए और ऐसा ना कर पाने पर एक राष्ट्रवयापी “पूर्ण स्वराज्य”
के लिए आंदोलन चलाया जाना चाहिए।”
अंततः आमने-सामने के इस दोतरफा
मुकाबले में सुभाष को निर्णायक जीत हासिल हुई। और वे पट्टाभि सीतारमैया को 1,377 मत के मुकाबले 1,580 मत प्राप्त कर 203 मतों से मात देने में सफल रहे। इस प्रकार
पिछले करीब-करीब दो दशकों में पहली बार किसी ने काँग्रेस के भीतर गाँधी के नेतृत्व
को चुनौती दी और गाँधी को पटखनी देने में भी कामयाब रहे। इस हार से गाँधी व्यक्तिगत तौर पर
आहत हुए और 31 जनवरी,1939 को जारी बयान में उन्होंने पट्टाभि
सीतारमैया की हार को अपनी हार की संज्ञा देते हुए कहा कि “श्री सुभाष चंद्र बोस ने अपने प्रतिद्वंद्वी डॉ० सीतारमैया पर एक निर्णायक
विजय प्राप्त की है। मुझे स्वीकार करना होगा कि शुरुआत से ही मैं निश्चित तौर पर
उसके पुनर्निर्वाचन के कुछ ऐसे कारणों की वजह से विरुद्ध था जिनके बारे में अब मैं
ज़िक्र नहीं करना चाहता। मैं उसके घोषणापत्र के
तथ्यों और तर्कों से सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है कि अपने साथियों के लिए उनके
सन्दर्भ अनुचित और महत्वहीन हैं।” लेकिन, काँग्रेस-संविधान के हिसाब से न
तो राष्ट्राध्यक्ष को हटाया जा सकता था और न ही प्रतिनिधियों के मतों को उलटाया जा
सकता था।
मतलब यह कि जीत के बावजूद सुभाष इस स्थिति में नहीं थे कि वे अपनी
नीतियों एवं कार्यक्रमों को लागू कर सकें क्योंकि इसके लिए उन्हें हर कदम पर
काँग्रेस कार्यकारिणी समिति की अनुमति लेनी पड़ती, जबकि इसके तेरह सदस्य
सुभाष के विरोध में थे और इस बात की पूरी सम्भावना थी कि वे कदम-कदम पर सुभाह्स की
नीतियों एवं कार्यक्रमों का विरोध करते। इस जीत पर गाँधी के द्वारा व्यक्त
प्रतिक्रिया से यह भी स्पष्ट हो गया कि यह मसला यहीं पर समाप्त नहीं होने जा रहा
है। उन्होंने सुभाष को जीत के लिए शुभकामनाएँ देते हुए कहा समर्थकों को सन्देश
देते हुए कहा कि “मुझे सुभाष की जीत पर ख़ुशी है। आख़िरकार सुभाष हमारे
राष्ट्र के शत्रु नहीं है। उन्होंने इस राष्ट्र के लिए काफ़ी कष्ट उठाए हैं। उनके विचार से, उनकी नीति सबसे ज़्यादा अग्रवर्ती और विनयपूर्ण है।
अल्पमत वाले उन्हें केवल शुभकामनायें ही दे सकते हैं।” राजेंद्र प्रसाद ने इस
हार को गाँधी की विचारधारा की हार मानी और उन लोगों की जीत के रूप में देखा जो
गाँधी और गाँधी की विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे। इतना ही नहीं, सीतारमैया
की इस हार ने गाँधीवादी
दक्षिणपंथियों के खेमे में भी दरार उत्पन्न कर दिए जिसका संकेत राजेंद्र बाबू की इस टिप्पणी से मिलता है: “यदि मौलाना आज़ाद लड़ने हेतु खड़े होते, तो
इसमें कोई संदेह नहीं है कि वो एक बड़े बहुमत से जीतकर वापस आते क्योंकि आम कांग्रेस कार्यकर्त्ता उनको पसंद करता और गाँधीवादी कार्यक्रम
को नहीं तोड़ता। परन्तु, वर्तमान हालात में लोग सीतारमैया में गाँधीजी का अक्स नहीं
देख सके, जिससे सीतारमैया की हार हुई और सुभाष ने बड़ी जीत
दर्ज की।” पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने एक प्रस्ताव पेश
किया जो उस कार्यकारिणी समिति में अपना विश्वास व्यक्त किया गया जिसने पिछले एक
साल के दौरान काम किया, इसके किसी भी सदस्य पर आक्षेप पर खेद जताया, राष्ट्राध्यक्ष
से गाँधी की सम्मति से कार्यकारिणी के सदस्यों को नामित करने का अनुरोध किया और गाँधी के दिशा-निर्देश में गाँधीवादी रणनीतियों
के अनुरूप भविष्य के कार्यक्रमों के निर्धारण एवं सञ्चालन का सुझाव दिया गया। पन्त
का यह प्रस्ताव पारित हुआ और इसके पारित होने का मतलब सुभाष की निर्णायक जीत का हार
में तब्दील हो जाना था।
काँग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों का इस्तीफ़ा:
जब सुभाष ने जीतने के
बाद गाँधी और गाँधीवादियों पर अंग्रेज़ों के साथ भारत में एक
केंद्रीय संघीय ढाँचे के बारे में साज़िश रचने और केंद्र में बनने वाली अपनी सरकार
के संभावित मंत्रियों की सूची तैयार करने का आरोप दोहराया, तो यह टकराव निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया। राजेंद्र प्रसाद,
कृपालानी एवं पटेल सहित तमाम गाँधीवादियों ने बयान जारी करते हुए
कहा, “सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के अधीन संघ की योजना के
खिलाफ अपना विरोध जताया है, जबकि यह एक काँग्रेस नीति है जिस पर कांग्रेस की
कार्यकारिणी समिति के लगभग सभी सदस्यों ने सहमति जताई है।” सरदार पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को लिखे पत्र में यह संकेत दिया कि “सुभाष के साथ काम करना एकदम असम्भव होगा।” लेकिन, बीमार सुभाष चाह रहे थे कि गाँधी अपनी इच्छा
के अनुसार कार्यकारिणी का गठन करें। उन्होंने इस सन्दर्भ में गाँधी से अनुरोध भी
किया और सुभाष के इस रवैये ने गाँधीवादियों को और भी उत्तेजित कर दिया। सात फरवरी,1939 को सुभाष को लिखे पत्र में सरदार पटेल ने इस समाचार
का खंडन किया कि सुभाष के निर्वाचन के तुरंत बाद उनसे नाराज़ सदस्यों ने काँग्रेस कार्यसमिति
से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने बारदोली में भी इस रिपोर्ट
का प्रतिवाद किया। मौलाना आज़ाद ने पटेल सहित कार्यसमिति के सदस्यों को संयुक्त रूप
से त्यागपत्र की सलाह दी थी, लेकिन पटेल ने यह
सोचते हुए कि निर्वाचन के तुरंत बाद त्यागपत्र के कारण गलत सन्देश जाएगा, इससे
ग़लतफ़हमी पैदा हो सकती है और यह सुभाष की उलझनें भी बढ़ाने वाला साबित हो सकता है;
इस्तीफे के पहले सुभाष को विश्वास में लेना चाहा। पटेल
ने सुभाष को सूचित करते हुए लिखा कि “हम सब त्यागपत्र देने को तैयार हैं, जैसे ही
आप हमें सूचित करते हैं कि आपको इससे कोई परेशानी नहीं होगी। यदि आप चाहते हैं कि
हम थोड़ा इंतज़ार करें, तो हम आपकी बात मानेंगे; लेकिन उतना ही जितना आपके लिए
सुविधाजनक हो। इस विषय पर अपनी इच्छा तार द्वारा सूचित करें।” सुभाष को लिखे इस
पत्र से इस बात का भी संकेत मिलता है कि सुभाष की सुविधा को ध्यान में रखते हुए
पटेल थोड़ी प्रतीक्षा करने के लिए तैयार थे, लेकिन ये चीजें भी स्पष्ट हैं कि अब
यहाँ से वापस लौटना पटेल के लिए संभव नहीं था। लेकिन,
ऐसा प्रतीत होता है कि सुभाष भी सुलह के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे। कुछ तो अपनी
अस्वस्थता के कारण और कुछ इग्नोरेंस के कारण सुभाष ने पटेल के इस पत्र
पर अपनी और से प्रतिक्रिया नहीं दी।
अंततः
22 फरवरी को वर्धा
में प्रस्तावित कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक के ठीक एक दिन पहले समिति के नब्बे
सदस्यों में से बारह प्रमुख सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया। नेहरु ने औपचारिक रूप से इस्तीफ़ा
तो नहीं दिया, पर उन्होंने अपने वक्तव्य के जरिये ऐसा माहौल सृजित किया जिसमें यह
सन्देश गया कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया है। राजेंद्र प्रसाद ने इस्तीफों का कारण देते हुए आत्मकथा में लिखा, “हम सुभाष को कार्यकारिणी समिति में अपनी
उपस्थिति से परेशान नहीं करना चाहते थे। साथ ही, यह अनुचित होता जब हम सबके सामने
सत्र में आधिकारिक प्रस्तावों का विरोध करते। हम बोस को मुक्त रूप से काम करने
देना चाहते थे और चाहते थे कि उन्हें अपने नियम बनाने चाहिए और अपने हिसाब से अपनी
कार्यकारिणी गठित करनी चाहिए। हमें लगा कि हमें लोकतांत्रिक वातावरण बनाए रखना
चाहिए।” उनका कहना था कि अंतिम क्षण तक
कार्यसमिति में बने रहना अनुचित होगा क्योंकि काँग्रेस-संविधान के अनुसार
निवर्तमान कार्यसमिति विषय-समिति का कार्यक्रम तय करती है और इस प्रक्रिया से अगले
वर्ष के लिए सुभाष को कार्यक्रम तय करने में परेशानी होती। इनका मानना था कि काँग्रेस-अध्यक्ष होने के नाते सुभाष को
अपने अनुसार काँग्रेस के अगले कार्यक्रम तय करने का अधिकार होना चाहिए
और इस समय इस्तीफे से उनके लिए ऐसा कर पाना संभव हो सकेगा।
पटेल के इस्तीफे को दुःख के साथ स्वीकार करते हुए सुभाष ने 26 फरवरी
1939 को पटेल को लिखा कि “सामान्यतया मुझे आपसे अपने निर्णय पर पुनर्विचार के लिए
कहना चाहिए था और त्रिपुरी में मिलने तक इस त्यागपत्र को रोकना चाहिए था, लेकिन
मैं जनता हूँ कि आपने खूब सोच-विचार कर निर्णय लिया है और निर्णय लेने के पहले
आपने सभी परिस्थितियों पर विचार किया होगा। यदि इस
समय मुझे जरा भी संभावना होती कि आप अपने त्यागपत्र पर पुनर्विचार करेंगे, तो मैं
आपसे इस्तीफ़ा वापस लेने की अनुनय-विनय करता; लेकिन वर्तमान परिस्थिति में औपचारिक
प्रार्थना से काम नहीं बनेगा, अतः मैं आपका त्यागपत्र बहुत दुःख के साथ स्वीकार
करता हूँ। फिर भी, मैं मानता हूँ कि आपके त्यागपत्र का मतलब मेरे कर्तव्य-पालन में
आपके सहयोग एवं सहायता वापस लेना नहीं है। यह बताना मेरे लिए ज़रूरी है
कि आपका सहयोग एवं सहायता मेरे लिए अमूल्य होंगे। मुझे आशा है और विश्वास भी कि
त्रिपुरी काँग्रेस में हमारी सहमति के बिंदु असहमति के बिंदुओं से अधिक होंगे और
भविष्य में हम दल को अधिक मज़बूत बनाये रख सकेंगे।”
सुभाष के इस्तीफे के बाद
स्थिति का बिगड़ता चला जाना:
उधर काँग्रेस के मतभेद कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे थे। शरत चन्द्र बोस ने पटेल पर सुभाष के खिलाफ अभियान चलाने का आरोप
लगाया और उन्हें “अलोकतांत्रिक” बताया। सुभाष
ने अपने भतीजे अमिय नाथ बोस को लिखे पत्र में इस स्थिति के लिए नेहरू को जिम्मेवार
ठहराया: “मुझे निजी से रुप से किसी ने इतना नुकसान नहीं
पहुँचाया है जितना मेरा नुकसान जवाहर लाल नेहरु ने किया है। यदि वह हमारे साथ होता
तो हम बहुमत से जीतते। लेकिन, त्रिपुरी में वो वयस्क रक्षक (ओल्ड गार्ड) के साथ
थे। बारह दिग्गजों की गतिविधियों से ज्यादा नुकसान नेहरु ने मेरे खिलाफ प्रचार
करके किया है।” अब सुभाष जिस मोड़ पर खड़े
थे, वहाँ पर सोशलिस्ट का भी उन्हें साथ नहीं मिला। जयप्रकाश नारायण ने यह
स्पष्ट किया कि काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) ने सुभाष को बेहतर उम्मेदवार मानते
हुए उनके लिए वोट किया, न कि लेफ़्ट विंग और राइट विंग के मध्य विवाद को ख़त्म करने
के लिए। कहीं-न-कहीं उन्होंने भी इस स्थिति के लिए सुभाष को जिम्मेवार
माना: “हमने पहले सुभाष बाबू से बयान जारी कर स्थिति साफ़ करने के लिए कहा, मगर
उनके द्वारा दिया गया बयान संतोषजनक नहीं था।” उनका भी यह मानना था
कि “गाँधी की सहमति से कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की नियुक्त से इस समस्या का
हल संभव है।”
अब सुभाष बैकफुट पर थे
और उन्होंने पत्र के जरिये काँग्रेस को गुटबाजी से बाहर निकलने हेतु आग्रह करते
हुए गाँधी से कहा कि, “आप काँग्रेस
की आत्मा हो, आपके बिना काँग्रेस कुछ नहीं कर पाएगी। अभी
द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन बहुत कमजोर है, हमें
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन जैसा एक बड़ा आन्दोलन चलाना चाहिए जिससे
आज़ादी जल्दी मिल जाएगी।” दरअसल सुभाष गाँधी और उनकी अहमियत
को समझ रहे थे और वे इस बात को जानते थे कि उनके सहयोग के बिना उनके लिए किसी भी
आन्दोलन को शुरू कर पाना और उसे सफलता की परिणति तक पहुँचा पाना उनके लिए संभव
नहीं होगा। इसीलिए वे चाहते थे कि आन्दोलन की रणनीति एवं कार्यक्रम का निर्धारण
उनके द्वारा हो और इसके अनुरूप निर्धारित आन्दोलन का नेतृत्व गाँधी करें। लेकिन,:
1.
जिस रणनीति और
कार्यक्रम में गाँधी का विश्वास नहीं था, उसके आधार पर शुरू
किये गए आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करना नैतिक दृष्टि
से गाँधी के लिए संभव नहीं था और सुभाष की ऐसी अपेक्षा किसी भी दृष्टि से उचित
नहीं कही जा सकती है।
2.
सुभाष इस बात को भी समझ
नहीं पाये कि गाँधी के लिए साध्य की पवित्रता ही महत्वपूर्ण नहीं है,
वरन् वे साधन की पवित्रता पर भी बल देते थे
और उनका मानना था कि पवित्र साधन के जरिये ही पवित्र साध्य तक पहुँचा जा सकता है।
इसके विपरीत सुभाष के लिए साध्य महत्वपूर्ण था और साधन गौण। उन्हें आजादी के लिए
हिटलर और मुसोलिनी से भी हाथ मिलाने तथा उनसे समर्थन हासिल करने से परहेज़ नहीं था।
3.
सुभाष दरअसल बंगला
भावुकता के शिकार हुए। इसी कारण उनका अपनी वाणी पर
नियंत्रण नहीं रहा और वे गाँधीवादी
दक्षिणपंथियों के सन्दर्भ में ऐसे टिप्पणी कर बैठे जिसके कारण वे अपमानित महसूस कर रहे थे।
4.
सुभाष और उनकी आशंकायें
गलत नहीं थीं, पर उनका तरीका गलत था। उनके तर्कों की अपनी
जगह पर अहमियत से इन्कार नहीं किया जा सकता, पर गाँधी और उनकी आशंकाओं को भी ख़ारिज
करना आसन नहीं था। सुभाष से चूक यहाँ पर हुई कि उन्होंने टकराव का रास्ता चुना और
एक बार उस रस्ते को चुना, तो फिर उस पर बढ़ते चले गए। वापस लौटने का विकल्प शेष
नहीं रह गया।
5.
इस प्रकरण में सुभाष के व्यक्तित्व की कमजोरियाँ भी सामने आती
हैं और वह यह कि वे अपने व्यक्तित्व की दृढ़ता
प्रदर्शित करते हुए दक्षिणपंथी गाँधीवादियों की चुनौती का मुकाबला कर पाने में
असमर्थ रहे।
इस पृष्ठभूमि में
समझौते की सम्भावना धूमिल थी। गाँधी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थे और सुभाष अपनी
इच्छा के अनुरूप कार्यसमिति के गठन से सम्बंधित गाँधीवादियों की इस चुनौती का
सामना करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसी स्थिति में सुभाष
के पास इस्तीफे के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं
रह गया। गाँधी का समर्थन न मिलने पर फरवरी,1939 में सुभाष ने यह घोषणा की थी कि “यदि वे देश के महानतम व्यक्ति का समर्थन हासिल नहीं कर सके, तो
उनकी चुनावी जीत निरर्थक है।” अंतत अप्रैल,1939 में सुभाष ने इस्तीफ़ा दे दिया और जुलाई,1939 में कलकत्ता अधिवेशन में
उनकी जगह डॉ. राजेंद्र प्रसाद नए अध्यक्ष चुने गयी।
सुभाष का निष्कासन:
त्यागपत्र देने के बाद सुभाष ने
काँग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया और देशभर में आन्दोलन एवं विद्रोह
आयोजित करने का निर्णय लिया, लेकिन उन्हें बंगाल के बाहर कोई समर्थन नहीं मिला।
सुभाष के इस रवैये ने उनके विरोधियों को उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई का
अवसर उपलब्ध करवाया। पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को यह सुझाव दिया कि “सुभाष बाबू को
अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के निर्णयों के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन और विद्रोह
आयोजित करने के उनके निर्णय के स्पष्टीकरण के लिए एक नोटिस दिया जाय क्योंकि बंगाल
काँग्रेस प्रांतीय कार्यपालिका के अध्यक्ष होने के नाते उन निर्णयों के आदर करने
और कार्यान्वयन करने को वे बाध्य हैं। जहाँ तक बंगाल प्रांतीय कार्यपालिका का
सम्बन्ध है, तो बेहतर होगा कि उसे भी ऐसा नोटिस दिया जाय। उन्होंने आपकी सलाह की
उपेक्षा की है, अनुशासन-भंग किया है। उन्हें अपना स्पष्टीकरण भेजने दीजिये, और
अगली बैठक में हम उनपर कार्रवाई करने के प्रश्न पर विचार करेंगे। इस समय हमारी ओर
से कमजोरी दिखने से अनुशासनहीनता फैलेगी और हमारा संगठन कमजोर होगा। आपने बम्बई
सरकार की मद्यनिषेध नीति पर सुभाष के बयान को देखा होगा। उन्होंने हमारे शत्रुओं
से भी बुरा व्यवहार किया है।” जब उन्होंने प्रांतीय काँग्रेस कमिटी की अनुमति के
बिना काँग्रेस वालों के सविनय अवज्ञा में भाग लेने पर रोक लगाने के बारे में अखिल
भारतीय काँग्रेस कमिटी के निर्णय का विरोध किया, तो उन्हें उनकी अनुशासनहीनता के
लिए दण्डित करते हुए काँग्रेस के सभी पदों से हटा दिया गया और तीन साल तक किसी भी
पद-ग्रहण पर रोक लगा दी। बाद में गाँधी ने दीनबंधु एंड्रयूज को लेखे पत्र में
सुभाष को ‘मेरा बेटा’ कहकर संबोधित किया और ‘परिवार का एक बिगड़ैल बच्चा’ कहा जिसको
उसके भले के लिए सबक सिखाया जाना ज़रूरी था। काँग्रेस के इसी अधिवेशन में द्वितीय
विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन के साथ हरसंभव सहयोग की बात की गयी।
मतभेद, पर मनभेद नहीं:
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि इससे गाँधी और सुभाष के
व्यक्तिगत सम्बन्ध अप्रभावित रहे। गाँधी को सुभाष की मंशा को लेकर किसी प्रकार का
संदेह नहीं था, उनकी आपत्ति सुभाष के तरीके को लेकर थी; तभी तो जब विमान दुर्घटना
में सुभाष की मृत्यु का समाचार मिला, तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि “हिंदुस्तान का
सबसे बहादुर व्यक्ति अब नहीं रहा।” सुभाष ने भी गाँधी को लेकर कभी अपना रुख मलिन
नहीं किया और उन्हें ‘बापू’ कहकर संबोधित किया। 6 जुलाई,1944 को सुभाष ने
सिंगापुर से आज़ाद हिन्द रेडियो के माध्यम से गाँधी
को संबोधित करते हुए कहा,
"भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है। राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के
इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद एवं शुभकामनायें चाहते हैं।"
पटेल ने भी उनके न रहने पर आज़ाद
हिन्द फौज जाँच एवं राहत समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार सँभाला। आजाद हिन्द फौज
में सुभाष ने नेहरु के नाम पर भी एक ब्रिगेड बनाया। स्पष्ट है कि इनके राजनीतिक
मतभेद से इनके व्यक्तिगत संबंध बहुत हद तक अप्रभावित रहे। दूसरे विश्वयुद्ध के
दौरान जापान के द्वारा बंदी बनाये गए ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को आजाद हिन्द फौज के गाँधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड के रूप में संगठित किया
गया जो इस बात को दर्शाता है कि राजनीतिक धरातल पर गाँधी एवं नेहरू से तमाम
मतभेदों के बावजूद उनके प्रति सुभाष के मन में अपार सम्मान एवं श्रद्धा का भाव था।