Saturday, 29 September 2018

समलैंगिकता के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय


समलैंगिकता के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय
आजादी एवं अधिकार कोई स्थिर संकल्पना नहीं हैं। जैसे-जैसे कोई समाज विकसित होता है, उसके लिए आजादी एवं अधिकार के मायने भी बदलते चले जाते। और, ये बदलते हुए मायने नागरिक-अधिकारों को लेकर सरकार के साथ टकराव की संभावनाओं को बल प्रदान करते हैं। यही कारण है कि पिछले कई दशकों के दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में नागरिक अधिकारों और आजादी के मायने तेजी से बदले हैं और उसकी स्वीकृति  को लेकर हमारी धारणा भी निश्चय ही इसका असर भारत पर भी पड़ा, विशेषकर पिछले तीन दशकों के दौरान। इसका परिणाम यह हुआ कि सिविल सोसाइटी की सक्रियता बढ़ती चली गयी और इसी के साथ मानवाधिकारों को लेकर उनका आन्दोलन एवं इसके द्वारा निर्मित दबाव भी। सबसे महत्वपूर्ण इसको लेकर मीडिया और बौद्धिक वर्ग का नजरिया भी सकारात्मक रहा। इसके कारण नागरिक समानता के वैश्विक अभियानों की स्वीकृति भी बढ़ी। प्रमाण है सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान निर्णय। लेकिन, यह भी सच है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बावजूद समलैंगिकों के लिए अपने अधिकारों की सामाजिक स्वीकृति और अपने सम्मान की पुनर्बहाली को सुनिश्चित कर पाने का रास्ता आसान नहीं होने जा रहा है। समलैंगिकता को लेकर समाज की सोच इतनी आसानी से नहीं बदलने जा रही है। 
धारा 377 से आशय:
इस फैसले से पहले तक आईपीसी की धारा 377 के तहत् समलैंगिक यौन-संबंधों के साथ-साथ विपरीत लिंगी यौन-सम्बन्ध की स्थिति में भी मुख-मैथुन(Oral Sex) एवं गुदा-मैथुन (Anal Sex) को भी अप्राकृतिक यौन-संबंधों की श्रेणी में रखा गया है और इसे गैर-कानूनी ठहराया गया है इस धारा के तहत् इन्हें गैर-जमानती अपराध घोषित किया गया है और इसके लिए दोषी पाए जाने पर न्यूनतम दस साल, या फिर आजीवन कैद की सजा का भी प्रावधान था इतना ही नहीं, इस कानून के तहत् किसी जानवर के साथ यौन-संबंध बनाने की स्थिति में भी न्यूनतम दस साल, या फिर आजीवन कैद की सजा एवं जुर्माने, दोनों का प्रावधान था। इसके अतिरिक्त यह अधिनियम बच्चों के साथ यौन-सम्बन्ध और असहमति के बावजूद जबरन यौन-सम्बन्ध को भी गैर-जमानती अपराध घोषित करता है।
विक्टोरियन-कालीन नैतिकता का प्रतिनिधित्व करती धारा 377:
लार्ड मैकॉले के प्रयासों के बाद 1860 में अस्तित्व में आयी भारतीय दंड संहिता(IPC) विक्टोरिया-काल की नैतिकता का प्रतिनिधित्व करती है, जो आज अप्रासंगिक हो चुकी है इसका मकसद भारतीय समाज को एक तरह की पुरुषवादी मानसिकता में जकड़ना था। अंग्रेजी राज का यह कानून समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक मानता था और इसे अपराध के दायरे में रखता था। यह जानना और भी दिलचस्प होगा कि स्वयं अंग्रेजों ने ऐसे कानूनों से बहुत पहले तौबा कर लिया, पर भारत जैसे देश ने पारम्परिक सामाजिक नैतिकता के नाम पर इसे अबतक जिलाए रखा इसकी धारा-377 के मुताबिक़, अगर कोई व्यक्ति अप्राकृतिक रूप से यौन-संबंध बनाता है, तो उसे उम्र-क़ैद या जुर्माने के साथ दस साल तक की क़ैद हो सकती है हकीकत में, भारतीय समाज में कभी भी अलग यौन-इच्छाएँ रखने वाले लोगों के खिलाफ दंड का प्रावधान नहीं था, लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय समाज पर विक्टोरियन मूल्यों को कुछ इस प्रकार से थोपा गया और उसने इसे कुछ इस प्रकार से आत्मसात कर लिया कि उसे हटाने में उसे करीब-करीब 158 साल लग गए और, यह भी कि वह इस दिशा में स्वयं पहल करने का साहस नहीं जुटा पाया इसके लिए उसे सुप्रीम कोर्ट की पहल का इंतज़ार करना पड़ा और सुप्रीम कोर्ट की इस पहल के बावजूद वह आज भी इसका प्रतिरोध कर रहा है  
समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा समलैंगिकता पर इस निर्णय का मार्ग वर्ष 2017 में ही प्रशस्त हो गया था जब सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया था, क्योंकि अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सेक्सुअलिटी एक निजी विषय है लेकिन, इस निर्णय ने इस बात को स्पष्ट कर दिया संविधान-पीठ के सामने सवाल यह था कि आईपीसी की धारा 377 संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं और इसका दायरा एकांत में व्यस्कों के बीच सहमति के संबंधों तक जाता है या नहीं। सितम्बर,2018 में दिए गए अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमानी बताते हुए कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है और समलैंगिक(LGBT) समुदाय को भी समान अधिकार है। निर्णय में साफ कहा गया है कि समलैंगिकता कोई मनोरोग नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से समाज का बड़ा हिस्सा और उसका सांस्कृतिक विमर्श इसी दृष्टिकोण से बँधा हुआ है। हकीकत में भारतीय समाज इतनी विविधता वाला रहा है कि उसने कभी यौन-रुझानों के आधार पर समाज में दंड का प्रावधान नहीं किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिकता पूरी तरह से प्राकृतिक है और इंसानी यौन-प्राथमिकताओं के विशाल दायरे का एक हिस्सा है उसने यह स्पष्ट किया कि अंतरंगता और निजता किसी की व्यक्तिगत पसंद है, इसीलिए इसमें राज्य को दख़ल नहीं देना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है और इसीलिये धारा 377 भी संविधान के द्वारा प्रत्याभूत समानता के अधिकार अनु. 14 का हनन करती है। अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 के उस अंश की संवैधानिक वैधता को खारिज कर दिया जो दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए यौन-संबंध को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में रखता है। इस फैसले में कहा गया कि लोगों की जीवन-शैली उनकी निजता और स्वतंत्रता का मामला है। अदालत का यह भी कहना है कि इस धारा का समाप्त हो जाना इस समुदाय को अब अपराधी ठहरा दिए जाने के भय से मुक्त कर देगा। 
अबतक धारा 377 के तहत् दो पुरुषों या दो महिलाओं के बीच ही नहीं, किसी पुरुष और महिला के बीच बनाए गए अप्राकृतिक यौन-संबंधों अर्थात् मुख-मैथुन (Oral Sex) एवं गुदा-मैथुन (Anal Sex) को भी अपराध की श्रेणी में ही रखा जाता था, लेकिन जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने स्पष्ट किया कि अब यौन-संबंधों के इन प्रकारों को भी अपराध नहीं माना जाएगा। स्पष्ट है कि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इन विक्टोरियन मूल्यों के लिए एक झटका है।

विभिन्न न्यायाधीशों का दृष्टिकोण:

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने की, जिसमें उनके अलावा जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, जस्टिस ए. एम. कनविलकर, जस्टिस डी. वाय. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा शामिल थे। अपने निर्णय में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने समलैंगिक लोगों के अधिकार को भारतीय संवैधानिक ढाँचे का हिस्सा बनाते हुए यह भी कहा कि ‘यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति संवैधानिक विश्वास को व्यक्त करने वाला एक दृढ़ निर्णय है’ और इससे संवैधानिक नैतिकता को मजबूती से प्रभावी बनाये जाने में मदद मिलेगी।

सबसे महत्वपूर्ण यह कि कोर्ट ने सुरेश कौशल के इस मामले में अपने ही फैसले को बदलते हुए यह फैसला सर्वसम्मति से सुनाया है। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि समलैंगिकता मानसिक विकृति नहीं है। यह अपनी इच्छा से जीवन जीने का तरीका चुनना है। अगर दो लोग स्वेच्छा से साथ रहना चाहते हैं, तो उन्हें सिर्फ सामाजिक मान्यताओं और सामाजिक अस्वीकृति का हवाला देकर ऐसा करने से न तो रोका जा सकता है और न ही उन्हें रोका जाना उचित है। संवैधानिक पीठ के अनुसार, यौनिकता का विज्ञान कहता है कि कोई व्यक्ति किसके प्रति आकर्षित होता/होती है, इस पर उस व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता। इस बारे में हुए शोध यह बताते हैं कि यौनिक अनुस्थापन जीवन में काफी शुरू में ही निर्धारित हो जाता है, इसीलिए समलैंगिकता को सहमति-पूर्ण माना जाना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया है कि:

1.  किसी व्यक्ति की पहचान को नष्ट करना उसकी गरिमा को कुचलने जैसा है। उसकी गरिमा में उसकी निजता, उसकी पसंद, उसकी बोलने की स्वतंत्रता और अन्य अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं।

2.  समाज में संविधान से रूपंतारकारी भूमिका की अपेक्षा की जाती है और इसके मद्देनज़र संविधान को जीवंत एवं प्राणवान दस्तावेज बनाने में न्यायपालिका की भूमिका है।

3.  इसी आलोक में उन्होंने ‘संवैधानिक नैतिकताके समग्रता में अनुपालन सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि ‘‘संवैधानिक नैतिकतासिर्फ संविधान के उदार शब्दों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसे एक बहुलवादी और समावेशी समाज के निर्माण के लिए उद्यत होना चाहिए

4.  उन्होंने बहुसंख्यकवाद की संकल्पना का विरोध करते हुए कहा कि “यह संविधान के सभी तीनों अंगों की जिम्मेदारी है कि वह लोकप्रिय भावना या बहुसंख्यावाद के प्रति रुझान को रोके। समरस, समरूप, विरोध-रहित मानकीकृत दर्शन को आगे बढ़ाने का कोई भी प्रयास संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करेगा। आपराधिक अभियोजन के डर से पसंद की स्वतन्त्रता का गला नहीं दबाया जा सकता।उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ‘‘संविधान सिर्फ बहुसंख्यकों के लिए नहीं है। मौलिक अधिकार ‘किसी भी व्यक्ति कोऔर ‘किसी भी नागरिकको प्राप्त है और यह अधिकार बहुसंख्यकों की अनुमति पर निर्भर नहीं है।”

मुख्य न्यायाधीश का यह भी कहना था कि समलैंगिकों के बीच सहवास को आपराधिक करार देने वाली धारा 377 कानूनी आधार पर नहीं टिक सकता क्योंकि अगर आईपीसी की धारा 375 के अनुसार, एक पुरुष और एक महिला के बीच सहमति से शारीरिक सहवास बलात्कार नहीं है और इसीलिए यह दंडनीय नहीं है, तो फिर दो समलैंगिकों (चाहे वे स्त्री हों या फिर पुरुष) के बीच आपसी सहमति से सहवास को क्यों दण्डनीय बनाया जाय। चूँकि धारा 377 दो योग्य वयस्कों के बीच सहमति और असहमति से स्थापित होने वाले यौन-संबंधों में भेद नहीं कर पाता है, इसलिए यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है और किसी की मनमानी के खिलाफ अधिकार भी इसके तहत् आता है। उन्होंने व्यक्तिगत पसंद के प्रति आदर’ को स्वतन्त्रता का आवश्यक तत्व बतलाया। इसीलिए उनका मानना है कि “व्यक्ति किसके साथ अंतरंगता रखता है, यह उसकी इच्छा पर छोड़ दिया जाय। राज्य या समाज को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।”
न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने इसे अनु. 15 के द्वारा प्रत्याभूत समानता के अधिकार के प्रतिकूल मानते हुए कहा कि:
1.  “किसी व्यक्ति का यौनिक अनुस्थापन उसकी पहचान का जन्मजात पक्ष है और उसे बदला नहीं जा सकता।”
2.  ‘‘सेक्सशब्द अनुच्छेद 15 में निषिद्ध है और यह न केवल किसी व्यक्ति की जीवशास्त्रीय गुण हैं, बल्कि इसमें उसकी ‘‘यौनिक पहचान और विशेषताभी शामिल है।”
उन्होंने इस समुदाय के लोगों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की ओर इशारा करते हुए कहा कि ‘‘LGBT समुदाय को बहुसंख्यकों द्वारा समलैंगिकता को पहचान न देने पर डर के साए में रहने को विवश किया गया इस समुदाय के सदस्यों और इनके परिवार के लोगों ने सदियों से जिस तरह का अपमान और बहिष्कार झेला है, उसके लिए इतिहास को इनसे माफी माँगनी चाहिए
निजता पर आए फैसले को धारा 377 के लिए ‘मौत का पैगाम’ बतलाते हुए  न्यायमूर्ति नरीमन नए संवैधानिक सिद्धान्तों के दूरगामी असर की ओर इशारा किया और कहा कि इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि इलाज से किसी के यौनिक अनुस्थापन को बदला जा सकता है।” जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि:
1.  'यौन-प्राथमिकताओं को धारा 377 के ज़रिए निशाना बनाया गया, लेकिन राज्य का काम किसी नागरिक की निजता में घुसपैठ करना नहीं है'
2.  LGBT समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार है, इसीलिए उनकी यौन-प्राथमिकताओं को नकारना और इसके निर्धारण के अधिकार से इनकार करना कहीं-न-कहीं उनकी निजता को ख़ारिज करना है
3.  इसे उस अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत् भी पहचान मिली है जिस पर भारत हस्ताक्षरकर्ता है; इसीलिए किसी नागरिक की निजता में हस्तक्षेप या फिर उसके अतिक्रमण का राज्य को हक नहीं है
4.  उन्होंने इसे अनु. 21 के द्वारा प्रत्याभूत गरिमामय जीवन के अधिकार से सम्बद्ध करते हुए कहा कि “धारा 377 न केवल एक अधिनियम को आपराधिक घोषित करता है, बल्कि वह एक विशेष प्रकार की पहचान को ही आपराधिक करार देता है। इसका संबंध एक ऐसे अधिकार से है जो हर मानव को मिला हुआ है और यह है गरिमा के साथ जीवन।”
स्पष्ट है कि अदालत ने धारा 377 को आंशिक रूप से इस आधार पर खारिज कर दिया कि निजी स्पेस में दो वयस्कों के बीच सहमतिपूर्ण यौन संबंध समाज के लिए न तो नुकसानदेह है और न ही संक्रामक।
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा ऐतिहासिक चूक को सुधारना:
सन् 2001 में पहली बार गैर-सरकारी संगठन नाज फाउंडेशनने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष इस मुद्दे को उठाते हुए उससे अपील की थी कि समलैंगिकता से सम्बंधित धारा 377 के प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित किया जाय। उसके बाद से अबतक समलैंगिकों और समलैंगिक अधिकारों से सम्बद्ध संगठनों एवं सोशल एक्टिविस्टों के द्वारा भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की इस धारा में बदलाव और इसके जरिये अपना हक पाने के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी। सन् 2009 में नाज फाउंडेशनके द्वारा दायर याचिका पर फैसला सुनाते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाह और जस्टिस एस. मुरलीधर ने समलैंगिकता से सम्बंधित धारा 377 के प्रावधानों की संवैधानिकता को ख़ारिज किया और इस प्रकार पहली बार समलैंगिकता आपराधिक दायरे से बाहर आयी। इस ऐतिहासिक फैसले में कहा गया कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14, अनु. 15 और अनु. 21 का उल्लंघन करती है और जीवन जीने के अधिकार पर बंदिश लगाती है
यद्यपि दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को भारतीय समाज के रूढ़िवादी तबके और उसका प्रतिनिधित्व करने वाले धार्मिक संगठनों के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी, पर इस निर्णय ने लगभग स्पष्ट कर दिया कि जीवन-शैली एवं यौन-रुझानों के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव करने वाली और उन्हें अपराधियों की श्रेणी में रखने वाली इस धारा की उम्र बहुत लंबी नहीं है क्योंकि इस फैसले ने समलैंगिकता और समलैंगिकों के मानवाधिकारों को लेकर गंभीर सामाजिक विमर्श को जन्म दिया। लेकिन, सन् 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चार साल तक चलने वाली लंबी बहस के बाद उस निर्णय को पलटते हुए अनु. 377 की संवैधानिकता को स्वीकार करते हुए इसे दोबारा अपराध की श्रेणी में रखा। इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सीमा-रखा निर्धारित करते हुए कहा कि इस धारा को समाप्त करना संसद का काम है, उसका नहीं और इसीलिए यह काम उसी को करना चाहिए। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता के मसले पर गेंद को केंद्र सरकार के पाले में डालते हुए अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को तकनीकी आधार पलटा हो, पर इसकी कीमत समलैंगिक समुदाय को चुकानी पड़ी, यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ऐसे संबंधों के विरोध में नहीं था। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने उस ऐतिहासिक अवसर को गँवा दिया जिसके जरिये एक अल्पसंख्यक समूह के मानवाधिकारों के साथ-साथ संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सकता था। लेकिन, सोशल एक्टिविस्टों ने हिम्मत हारने की बजाय सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिकाएँ दायर कीं, पर बेकार रहा। बाद में नवतेज सिंह जौहर, सुनील मेहरा, अमन नाथ, रितू डालमिया और आयशा कपूर ने इस मसले पर एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसे संविधान-पीठ के हवाले कर दिया गया। इस सन्दर्भ में एक बार फिर से आशा तब जगी जब सन् 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने सेक्सुअलिटी को निजता के अधिकार के दायरे में रखा।
बहुसंख्यक नैतिकता की जगह संवैधानिक नैतिकता को तरजीह:
कोर्ट ने इस मसले पर जनमत-संग्रह के विचार को खारिज करते हुए बहुसंख्यक नैतिकता की जगह संवैधानिक नैतिकता को तरजीह दी और भारतीय दंड संहिता की इस धारा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के द्वारा प्रत्याभूत स्वतंत्रता एवं समानता के अधिकार के प्रतिकूल माना। इस ऐतिहासिक निर्णय का एलजीबीटी ही नहीं, उदारवादी लोकतांत्रिक समाज को भी लंबे समय से इंतजार था। अदालत का कहना है कि व्यक्तिगत आज़ादी महत्वपूर्ण है और यौन अर्थ में भी अलग रुझान का सम्मान होना चाहिए। उससे भी जो महत्वपूर्ण संवैधानिक पीठ ने कही, वह यह कि बहुसंख्यकों की नैतिकता को संविधान पर थोपा नहीं जाना चाहिए। अदालत ने इस मामले में न सिर्फ संविधान में वर्णित निजता और समानता के अधिकार की नई व्याख्या की है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य कल्याण अधिनियम को भी इस संदर्भ से जोड़ा है।
केंद्र सरकार का रवैया:
इस याचिका पर विचार के क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस भेजकर इस मसले पर उसकी राय जाननी चाही, लेकिन केंद्र सरकार ने अपनी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए इस मसले पर कोई राय देने से परहेज़ किया दरअसल धारा 377 को लेकर भारत सरकार का रुख आरंभ से ही ढुलमुल रहा है जब इस मसले पर दिल्ली हाईकोर्ट के द्वारा विचार किया जा रहा था, उस समय तत्कालीन यूपीए सरकार धारा 377 के पक्ष में खड़ी थीदिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान यूपीए सरकार ने हलफनामा देकर धारा 377 को रद्द करने का विरोध किया था यूपीए सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के सम्मुख दिए गए हलफनामे में समलैंगिकता की वजह से एड्स, यौन-बीमारियों और बच्चों के यौन-शोषण की बात कही थीजब सन् 2013 में यह मसला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, तो आरम्भ में उसने यही रवैया अपनाया; परन्तु बाद में उसने इस मसले को सुप्रीम कोर्ट के ऊपर छोड़ते हुए अपनी जिम्मेवारी से परहेज़ किया।
विपक्ष में रहते हुए संघ और भाजपा ने भी समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने का विरोध करते हुए इसे अपसंस्कृति और बीमारी के तौर पर प्रचारित किया था। इन्ही विरोधाभासों की वजह से भाजपा सरकार ने इस मामले में लिखित जवाब दाखिल करने से इनकार कर दिया। उसने इस मसले को कोर्ट पर छोड़ना बेहतर समझा। लेकिन, इस मसले पर केंद्र सरकार की दुविधा को समझने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय के द्वारा तैयार उस हलफनामे को देखना होगा जिसे गृह-मंत्रालय ने अंतिम समय में खारिज़ किया। 70 पन्नों के इस हलफनामे में कहा गया था "अगर समलैंगिकता को इजाज़त दी गई, तो न केवल एचआईवी एड्स (HIV AIDS) जैसी बीमारियाँ बढ़ने की संभावना है, वरन् इसके कारण लोगों को मेंटल डिसऑर्डर का भी सामना करना पड़ेगा।” इस हलफनामे के अनुसार इसके कारण सामाजिक नैतिकता भी आहत होगी और इसके परिणामस्वरूप बड़े स्तर पर स्वास्थ्य-सम्बंधी समस्याएँ भी सामने आ सकती हैं। साथ ही, इससे परिवार जैसी संस्थाओं के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगेगा। भले ही केंद्र सरकार ने बाद में इस हलफनामे को ख़ारिज आकर दिया हो और सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकों के पक्ष में निर्णय सुनाया हो, पर यह हलफनामा और इसकी भाषा इस ओर इशारा करती है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को ज़मीनी धरातल पर उतारना कितना मुश्किल होगा। सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड़ ने 180 पेज के फैसले में अनेक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए जवाब नहीं दायर करने के लिए सरकार की आलोचना की है। दिलचस्प बात यह है कि आईपीसी में राज्यों द्वारा भी बदलाव किया जा सकता है, इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सभी राज्यों का लिखित पक्ष नहीं सुना।
निर्णय के तर्काधार:
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के कारण समलैंगिकों, जिन्हें लेस्बियन, गे, बाय-सेक्शुअल्स, ट्रांसजेंडर्स और क्वीर (LGBTQ) के रूप में भी जाना जाता है, को आज़ादी के साथ जीने का अधिकार मिलेगा इस निर्णय से पहले ही सुप्रीम कोर्ट के द्वारा जीवन-साथी चुनने के अधिकार को जीवन जीने के अधिकार के रूप में मान्यता दिया जा चुका था, लेकिन चूँकि धारा 377 प्रवर्तमान थी, इसीलिए व्यावहारिक रूप में समलैंगिकों का जीवन जीने का अधिकार सीमित होता था इसीलिए समलैंगिकों के द्वारा इस धारा को कलंक के रूप में देखा जाता है क्योंकि इसके कारण उन्हें अपराधी के रूप में देखते हुए उनके साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाता है। लेकिन, समलैंगिकता को अपराधों के दायरे से बाहर रखने का सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल समाज में उन्हें वह सम्मान दिलवाने में सहयक होगा जिसके वे हकदार हैं, वरन् उनके सशक्तीकरण में भी सहायक साबित होगा। अब वे आजादी के साथ रह सकेंगे और अपने मनपसंद व्यक्ति को जीवनसाथी के रूप में चुन सकेंगे। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय को इस निर्णय की तार्किक परिणति के रूप में देखा जा सकता है
संक्षेप में कहें, तो समलैंगिकता  से सम्बंधित अनु. 377 की समाप्ति के पक्ष में निम्न तर्क दिए जा सकते हैं:
1.  चूँकि विधि-विधान और नियम-कानून व्यक्ति और समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाए जाते हैं, इसलिए उनके हित में इन्हें बदला भी जाना चहिये
2.  साथ ही, वे उस समय विशेष की सोच का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जब इनका निर्माण हुआ था। इसीलिए समय, परिस्थितियों और परिवेश में आने वाले बदलावों के अनुरूप इसमें बदलाव अपेक्षित है, अन्यथा उनके अप्रासंगिक होने का खतरा बना रहता है। ये बातें समलैंगिकता को लेकर वैधानिक सोच पर भी लागू होती हैं।    
3.  जहाँ तक इन बदलावों की समाजिक स्वीकृति का प्रश्न है, तो इसे आधार नहीं बनाया जा सकता और न ही इसके आधार पर बदलावों की प्रक्रिया रोक दी जानी चाहिए। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि 19वीं सदी में जब सती-प्रथा पर रोक और विधवा-पुनर्विवाह की दिशा में वैधानिक पहल की जा रही थी, तब भी भारतीय समाज के रूढ़िवादी तबके ने इन प्रगतिशील पहलों का विरोध किया था, लेकिन समय के साथ समाज ने इसे स्वीकार किया और आज ये कुप्रथाएँ समाज से लगभग गायब हैं। इसीलिए जिस कानून से मानवाधिकारों का हनन होता हो, उसे सिर्फ समाज के कुछ लोगों के नजरिए के आधार पर बनाए रखना उचित नहीं है।
4.  समलैंगिकों के बीच यौन-संबंध को अपराध की श्रेणी में रखा जाना समाज के एक बड़े हिस्से के संवैधानिक और मानवाधिकारों का उल्लंघन है
5.  सामाजिक मान्यता ये है कि समलैंगिकों के बीच संबंध अप्राकृतिक हैं, लेकिन आज मेडिकल साइंस न तो इसे मानसिक विकृति के रूप में लेता है और न ही इसे बीमारी मानता है एक वर्ग के रूप में सभी महिलाएँ और पुरुष विपरीत सेक्स के व्यक्ति के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं दरअसल यह विशिष्ट प्रकार का यौन रुझान है जो व्यक्ति की इच्छा की जगह उसके जीन पर आधारित होता है और इसका पता सामान्य तौर पर एक व्यक्ति को वयस्क होने के दौरान चलता है यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसका इलाज किया जा सकता है इसीलिए इस पारंपरिक सामाजिक मान्यता को इसे अपराध घोषित किये जाने का आधार नहीं बनाया जा सकता है
6.  इस कानून की वजह से समाज का नजरिया भी ऐसे लोगों के प्रति नहीं बदल पा रहा था। इसी आलोक में इस समुदाय की शिकायत ये है कि उन्हें स्कूल से लेकर काम करने की जगह तक और यहाँ तक कि अपने घरों में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है
7.  यहाँ पर प्रश्न यह भी उठता है कि सेक्स का उद्देश्य क्या है: संतानोत्पत्ति या फिर आनंद? पारंपरिक रूप से यह धारणा रही है कि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परम्परा में सेक्स का उद्देश्य प्रमुखतः संतानोत्पत्ति को माना गया है, जबकि पश्चिमी चिंतन-परम्परा में आनन्द की प्राप्ति। सवाल यह उठता कि अगर यह सामान्यीकरण सत्य है, तो फिर वात्स्यायन को ‘कामसूत्र’ की रचना क्यों करनी पड़ी और क्यों इसकी पहचान एक क्लासिकल रचना के रूप में हैं? क्या खजुराहो भारतीय सांस्कृतिक चिंतन-परम्परा का प्रतिनिधित्व नहीं करता है जिसके भित्ति-चित्रों पर ऐसे कामुक दृश्यों का अंकन है और जो सेक्स को लेकर नवोन्मेषी दृष्टिकोण के साथ उपस्थित होता है? क्या खजुराहो की दीवारों सैप विषम-लैंगिक के साथ-साथ समलैंगिक यौन सम्बंधों को अंकित नहीं किया गया है? अगर सेक्स का उद्देश्य आनन्द की उपलब्धि है, तो हर किसी के लिए आनन्द के मायने अलग-अलग हो सकते हैं और उन्हें अपने तरीके से जीवन का आनन्द लेने की छूट होनी चाहिए। सतह ही, आनन्द की चाह प्रयोगधर्मिता एवं नवोन्मेष को जन्म देती है जिसकी छूट मिलनी चाहिए।
8.  समलैंगिकता के इस मसले पर विचार करते हुए इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पश्चिम के साथ बढ़ते संपर्क और आधुनिक ज़िंदगी में तकनीकी, वैज्ञानिक एवं चिकित्सीय प्रगति ने प्रकृति के नियम की परिभाषा को काफी बदल दिया है आज सरोगेसी, आईवीएफ, क्लोनिंग, अंडो में जेनेटिक बदलाव, स्टेम सेल रिसर्च और गर्भ-निरोध के तमाम तरीकों ने न केवल स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को पुनर्परिभाषित किया है, वरन् सेक्स के उद्देश्य को भी पुनर्परिभाषित करने में इसकी महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका रही है 
9.  पिछले कुछ दशकों के दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में समलैंगिकता को आपराधिक कृत्य मानने वाली मानसिकता में बदलाव देखने को मिलते हैं। इस समय दुनिया के कुछ ही देश, जिनका रुझान कट्टरपंथ की ओर है, हैं जहाँ इसे आपराधिक कृत्य माना जाता है। इसके विपरीत भारत की गिनती ऐसे देशों में होति है जिसका रुझान उदारवाद की ओर है। इस लिहाज से धारा 377 का हटना सिर्फ समलैंगिकता का मामला भर नहीं है, बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था को उन आधुनिक मूल्यों से जोड़ने का मामला भी है, जहाँ लोगों को निजी जीवन को किन्हीं मान्यताओं या धारणाओं की वजह से कठघरे में खड़े करने को गलत माना जाता है।
समलैंगिकता के विरुद्ध तर्क:
समलैंगिकता के पैरोकारों का तर्क है कि किसी स्त्री या पुरुष को किससे संबंध बनाना है, यह तय करना उनका व्यक्तिगत निर्णय है। उधर सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं से जुड़े लोगों का तर्क है कि ईश्वर के बनाए संसार में जो आदर्श चले आ रहे हैं, उनसे छेड़खानी करना प्रथाओं की बर्बादी और सामाजिक तानेबाने को रसातल में ले जाना है। दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग, अपोस्टोलिक चर्च संघ और दो अन्य ईसाई संस्थाओं ने समलैंगिकों के बीच सेक्स को क़ानूनी आधार दिए जाने का विरोध किया हैऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कुछ समय पहले इस मसले का विरोध किया था लेकिन अब इस संस्था ने इस मुद्दे को कोर्ट पर छोड़ दिया है इस संस्था के मुताबिक़:
1.  अगर दो वयस्कों में निजी स्थान पर आपसी सहमति से बनाया गया संबंध निजता के अधिकार के तहत आता है, तब भी इसे नैतिकता, गरिमा और स्वास्थ्य के आधार पर रोका जा सकता है
2.  इन लोगों का यह मानना है कि सामाजिक नैतिकता किसी कानून को वैधता दिलाने और उसके लिए सामाजिक स्वीकृति को सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभाती है
3.  इसका धार्मिक आधार पर भी विरोध किया जा रहा है क्योंकि कुरान, बाइबिल, अर्थशास्त्र और मनु-स्मृति जैसे धार्मिक ग्रंथ भी समलैंगिकता की निंदा करते हैं
4.  किसी भी आपराधिक कृत्य को महज़ इस आधार पर गैर-आपराधिक नहीं बनाया जा सकता है कि उसे आपसी सहमति से अंजाम दिया जा रहा हैं दुनिया में अभी भी 76 देश समलैंगिकता को एक अपराध की तरह देखते हैं

निर्णय का महत्व:

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारत अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी और फ्रांस सहित समलैंगिक संबंधों को अपराध नहीं मानने वाला 126वाँ देश बना सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के साथ ही भारत उन 125 अन्य देशों के साथ जुड़ गया, जहाँ समलैंगिकता वैध है सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारत समलैंगिक संबंधों को अपराध नहीं मानने वाला 126वाँ देश बना इंटरनेशनल लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांस एंड इंटरसेक्स एसोसिएशन के अनुसार आठ ऐसे देश हैं जहाँ समलैंगिक संबंध पर मृत्युदंड का प्रावधान है और दर्जनों ऐसे देश हैं जहाँ इस तरह के संबंधों पर कैद की सजा हो सकती हैहालाँकि दुनियाभर में अब भी 72 ऐसे देश और क्षेत्र हैं जहाँ समलैंगिक संबंध को अपराध समझा जाता है इनमें 45वें देश भी हैं जहाँ महिलाओं का आपस में यौन-संबंध बनाना गैर-कानूनी है
यह फैसला समलैंगिकों के साथ-साथ भिन्न यौन अभिरुचि वाले अन्य लोगों के लिए भी एक बड़ी राहत लेकर आया है। इस फैसले का महत्व इस बात में है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस अंश को रद्द किया जो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करती थी, उसी ने 2013 में ऐसा करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि यह काम तो संसद का है। इतना ही नहीं, उसने इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने संसद को भी अवसर दिया कि वह समाज के उस समूह के प्रति अपनी संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हुए उसके साथ पिछले डेढ़ सौ वर्षों से हो रहे अन्याय का निवारण करे, पर सुप्रीम कोर्ट की तरह संसद ने भी इस ऐतिहासिक अवसर को गँवा दिया। इस प्रकार यह फैसला न्यायपालिका के साथ-साथ संसद द्वारा ऐतिहासिक अवसरों की चूक की कुछ हद तक भरपाई करता है। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के इस फैसले के बाद तीन दशक से भी ज्यादा समय से चल रही वह कानूनी लड़ाई भी अब खत्म हो गई, जो कुछ लोगों के निजी जीवन के विकल्पों को अपराध के दायरे से बाहर रखने के लिए शुरू हुई थी। साथ ही, इसने एक नयी कानूनी लड़ाई के मार्ग को भी प्रशस्त किया है क्योंकि अब समलैंगिक विवाहों को वैधानिक स्वीकृति के प्रश्न भी उठेंगे और इसको लेकर एक नयी लड़ाई की भी शुरुआत होगी।
स्पष्ट है कि समलैंगिकता को वैधानिक स्वीकृति प्रदान कर सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर समाज की संकीर्ण सोच को बदलने की दिशा में सार्थक पहल की है, लेकिन इस फैसले का असर सिर्फ समलैंगिकता के मुद्दे तक सीमित नहीं रहेगा यह भारतीय न्यायिक प्रणाली को उन आधुनिक मूल्यों के अनुरूप करने का विषय है जो कि किसी के निजी जीवन, विचारों या विश्वास में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं देताइससे उन कानूनों को भी समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त होगा जो अनावश्यक रूप से न्यायिक और प्रशासनिक तंत्र के बोझ बने हुए हैं इस फैसले का असर भारत ही नहीं, भारत के बाहर उन तमाम देशों पर भी पड़ेगा जो भारतीय लोकतंत्र से प्रेरित होते है और जहाँ समलैंगिकता को अपराध माना जाता है।
जम्मू-कश्मीर के समलैंगिकों को इसका लाभ नहीं:
लेकिन यह फैसला जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होगा क्योंकि धारा 370 के तहत मिली छूट की वजह से आईपीसी की धाराएँ स्वत: जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होतीं यह भारत का ऐसा अकेला राज्य है जिसकी रणबीर पैनल कोड (RPC)  के रूप में अपनी अलग दंड संहिता है जिसे डोगरा वंश के शासक रणबीर सिंह ने लागू किया था और जिसके तहत् सभी तरह के अप्राकृतिक यौन-संबंध को अपराध माना जाता है ऐसी स्थिति में इस राज्य के सन्दर्भ में यह फैसला तभी प्रभावी होगा जब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा यहाँ की दण्ड विधान संहिता में संशोधन की दिशा में पहल करे जो राज्यपाल-शासन के कारण फिलहाल संभव नहीं है। इसीलिए या तो इसे प्रभावी बनाने के लिए विधानसभा के प्रभावी होने की प्रतीक्षा की जाय, या फिर राज्यपाल इस बारे में राष्ट्रपति से सिफारिश करें। यह भी संभव है कि इसके लिए जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की जाय लेकिन. वर्तमान में राज्य के धार्मिक और राजनीतिक वातावरण के मद्देनज़र ऐसा संभव नहीं लगता  
धारा 377 असंवैधानिक नहीं:
इससे पहले 17 जुलाई को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संविधान-पीठ ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए यह साफ किया था कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त किये जाने की स्थिति में अराजकता के उत्पन्न होने की सम्भावना जतायी और कहा था कि उसका फैसला दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन-संबंध तक ही सीमित रहेगा इसी आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने भिन्न यौन अभिरुचि वालों को सम्मान से जीवन जीने के अधिकार के तहत समलैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त करने के साथ धारा 377 को पूरी तौर पर खारिज नहीं किया। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि IPC की इस धारा के कुछ पहलू ज़्यों-के-त्यों बने रहेंगे, जिनके तहत् बच्चों से यौनाचार, पशुओं से यौन-संबंध स्थापित करना अथवा असहमति के बावजूद ज़बरन समान लिंग वाले व्यक्ति के साथ यौन संबंध स्थापित करना अपराध ही रहेगा
इतना ही नहीं, समलैंगिकता (Homosexuality) को कानूनी तौर पर जायज़ ठहराने वाली सुप्रीम कोर्ट की संविधान-पीठ की सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने यह भी स्पष्ट किया कि “धारा 377 के तहत जिन मामलों में अभियोजन पूरा हो चुका है और फैसला सुनाया जा चुका है, वे मामले हमारे फैसले से दोबारा नहीं खुलेंगे; लेकिन जो मामले अभी तक लंबित हैं, उनमें गुरुवार के फैसले के ज़रिये रात पाई जा सकती है
भविष्य की चुनौती:
निजता के अधिकार पर फ़ैसला आने के बाद ऐसे लोगों को आम यौन रुझान वाले लोगों की अपेक्षा अपनी क्षमताओं के मुताबिक़ सफलताएँ हासिल करने, आज़ादी से जीने और समाज द्वारा अपराधियों जैसे सुलूक से बचाने के लिए ज़्यादा सुरक्षा की जरूरत होगी। इसका अंदाज़ा सुप्रीम कोर्ट को भी था, इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने अदालती फैसले की ज़मीनी धरातल पर स्वीकार्यता को सुनिश्चित करने के लिए सरकार से यह अपेक्षा की कि वह इस बात का प्रचार-प्रसार करे कि समलैंगिकता समाज या व्यक्ति के लिए कलंक नहीं है और समलैंगिकों को भी अन्य समुदायों एक समान अधिकार हैं साथ ही, पुलिस एवं प्रशाद्सन को भी इसके प्रति संवेदनशील बनाया जाय
इसीलिए भारतीय दंड संहिता के इस 157 वर्ष पुराने प्रावधान को खत्म करना समलैंगिक समुदाय के लिए व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता और मजबूत कानूनी संरक्षण हासिल करने की दिशा में पहला, लेकिन छोटा कदम है। समलैंगिक अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वैधानिक लड़ाई तो जीती है, पर उन्हें उस मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष करना है जो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को ज़मीनी धरातल पर उतारने की राह में रोड़े के रूप में मौजूद है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कहीं-न-कहीं समाज के रूढि़वादी तबके की नाराजगी के भय से अबतक न तो किसी राजनीतिक दल ने और न ही उसके शीर्ष नेतृत्व ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया है। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे रूढ़िवादी संगठनों की दृष्टि में समलैंगिकता भारतीय समाज के अनुकूल नहीं है। इस आलोक में सुप्रीम कोर्ट की इस पहल को सामाजिक स्वीकृति का मिल पाना या नहीं मिल पाना बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि वैधानिक एवं राजनीतिक प्रतिष्ठान के साथ-साथ राज्य सुरक्षा-तंत्र सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय और इसे लागू करने के प्रति कितनी संवेदनशीलता एवं गंभीरता प्रदर्शित करते हैं।
इतना ही नहीं, समलैंगिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले इन सोशल एक्टिविस्टों को अपने वैधानिक संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए विवाह कानूनों में संशोधन के जरिये समलैंगिक विवाहों को वैधानिक मान्यता दिलाने की दिशा में पहल करनी होगी, जो आसान नहीं होगा। इतना ही नहीं, आम भारतीय नागरिक की तरह समलैंगिकों को भी उत्तराधिकार और गोद लेने के अधिकार को क़ानूनी मान्यता मिलनी चाहिए, लेकिन इसके लिए भी उन्हें लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वह धारा 377 से जुड़ी याचिकाओं से इतर फिलहाल इन मसलों पर कोई सुनवाई नहीं करेगा, तथापि इन मसलों पर संसद द्वारा पहल की स्थिति में उसके द्वारा विचार किया जा सकता है। यहाँ पर इस बात को भी याद रखना होगा कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने महज तीन वर्ष पहले अपने ऐतिहासिक निर्णय के जरिये ऐसे विवाहों को कानूनी मान्यता प्रदान की। लेकिन, भले ही इस निर्णय से समाज के नजरिए में जल्दी बदलाव की संभावना क्षीण नजर आती हो, पर इससे समाज में समलैंगिकों की वैधानिक प्रताड़ना पर रोक लगेगी, इससे इन्कार तो नहीं ही किया जा सकता है
वैसे, सुनवाई के दौरान एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने हलफनामा दाखिल कर कहा है कि केंद्र सरकार इस कानून की वैधता का फैसला पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ती है इस हलफनामे के मुताबिक समलैंगिकता को अगर अपराध की श्रेणी से हटाया जाता है, तो इसके बाद नागरिक संगठन बनाने का अधिकार या संपत्ति हस्तांतरण जैसे मुद्दों का हल निकालने के लिए केंद्र सरकार राजनीतिक पहल करेगी। यह भी कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक संबंधों को वैधानिक स्वीकृति प्रदान करने से निजता के अधिकार को मजबूती तो मिली है, लेकिन सामाजिक तौर पर इसका दूरगामी प्रभाव दिख सकता है और इससे परिवार-व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है
========================================
========================================