सड़कों पर ‘खुशहाल’ देश के बदहाल किसान
बिहार के विशेष सन्दर्भ
में न्यूनतम समार्थन मूल्य विवाद !
हर साल की तरह इस साल भी जब
मई,2018 में बिहार जाना हुआ, तो वहाँ के किसानों की की स्थिति को देखने, समझने और
महसूसने का मौक़ा मिला। इसी दौरान खेती और किसानी से जुड़े होने के अभिशाप को
भी झेलने का मौका मिला। मार्च,2013 में पिताजी के नहीं रहने के बाद अपने बँटाईदरों
को राहत देते हुए मैंने यह निर्णय लिया कि अब मालगुजारी की वसूली नकद रूप में ही
करूँगा और इसके निर्धारण के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार बनाऊँगा। यह
व्यवस्था सन् 2016 तक ठीक-ठाक चली, पर पिछले साल से इसमें समस्या आने लगी क्योंकि
पिछले दो वर्षों से गेहूँ की बाज़ार-कीमत उसके न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे चली
गयी। सन् 2017 में तो न्यूनतम समर्थन मूल्य 1625 रुपये प्रति क्विंटल की दर से ही
मालगुजारी वसूली; पर इस बार जहाँ न्यूनतम समर्थन मूल्य 1725 रुपये प्रति क्विंटल
था, वहीं बाज़ार-कीमत (1400-1450) रुपये प्रति क्विंटल के स्तर पर। अपने बँटाईदारों
की परेशानियों को समझते हुए मैंने मालगुजारी के निर्धारण की पुरानी नीति में
संशोधन करते हुए पिछले वर्ष की तरह ही 1625
रुपये प्रति क्विंटल की दर से ही मालगुजारी वसूली। फिर भी, मुझे यह लगता रहा कि
मुझे उन्हें और छूटें देनी चाहिए थी। उसी समय मैंने यह निर्णय लिया कि फुर्सत
मिलते ही बँटाईदारों की इन परेशानियों को अपने उन फेसबुक मित्रों के साथ साझा
करूँगा, पर व्यस्तता के कारण कल के पहले तक ऐसा संभव नहीं हो सका। संयोगवश कल फेसबुक
ने तीन साल पहले की एक पोस्ट की याद दिलाई जिसका विषय इससे मिलता-जुलता था। मैनें
अपने वर्तमान अनुभव के साथ इस पोस्ट को शेयर करने का निर्णय ऐसे समय में लिया जब किसानों
के द्वारा दस दिनों के गाँव-बंद का अभियान चलाया जा रहा था। इस पृष्ठभूमि में मेरे
इस पोस्ट और इसमें किसानों की इस स्थिति के लिए वर्तमान राज्य सरकार और केंद्र
सरकार की जिम्मेवारी के निर्धारण ने राजनीतिक रूप ले लिया, जिससे बचा जा सकता था,
पर ऐसा नहीं हो सका। शायद इसलिए कि मैं अराजनीतिक नहीं हूँ, और होना भी नहीं चाहता।
इस बात को स्वीकार करने में मुझे हिचक नहीं है। और, शायद हम इस दौर में जी रहे हैं
जिसमें हममें से कोई अराजनीतिक नहीं हो सकता, दावा चाहे जितना किया जाय। खैर, मैं
वापस लौटना चाहूँगा मूल मसले पर।
किसानों की मूल समस्या:
अब अगर किसानों की मूल समस्या पर विचार किया जाय, तो यह कहा जा सकता
है कि पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान खाद्यान्न फसलों की उत्पादन-लागत में जितनी
तेजी से वृद्धि हुई, उतनी तेजी से उनकी विपणन-कीमतों में नहीं, जिसके परिणामस्वरूप
किसानों का प्रॉफिट-मार्जिन कम होता चला गया। फिर भी, 21वीं सदी का पहला दशक कई
मायनों में किसानों के लिए महत्वपूर्ण रहा:
1. इस दौरान वैश्विक
स्तर पर फ़ूड-इन्फ्लेशन की स्थिति बनी रही और खाद्यान्न उत्पादों की कीमतों में इस
उछाल का लाभ कुछ हद तक भारतीय किसानों को भी मिला, यद्यपि इसका बड़ा हिस्सा
बिचौलियों के खाते गया।
2. जब सन् 2004 में मनमोहन
सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी, तो कुछ तो वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न
उत्पादों की कीमतों में उछाल के कारण और कुछ आर्थिक उदारीकरण-वैश्वीकरण की अबतक की
नीतियों की सीमाओं के अहसास के कारण किसानों की ओर थोड़ा-सा अतिरिक्त रुझान
प्रदर्शित किया। इसके परिणामस्वरूप (2004-2014) के
दौरान गेहूँ और धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 630 रुपये प्रति क्विंटल और 550 रुपए प्रति
क्विंटल से बढ़कर क्रमशः 1400 रुपये प्रति क्विंटल और 1360 रुपये प्रति क्विंटल हो
गया। मतलब यह कि इस दौरान गेहूँ और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में करीब-करीब (130-140)%
की वृद्धि हुई। पर, किसानों को इससे कुछ बेहतर कीमतें मिलीं क्योंकि बाज़ार कीमतें
इससे ज्यादा थीं।
3. इसके
अतिरिक्त जन राज्यों में धनी एवं समृद्ध किसानों की मज़बूत लोब्बेय है, वहाँ उसके
दबाव में राज्य सरकारों के द्वारा बोनस भी दिए जाते रहे हैं।
लेकिन, ये यूपीए शासन के अंतिम वर्षों तक आते-आते कुछ
तो खान-पान की आदतों में परिवर्तन और कुछ बेहतर उत्पादन के कारण माँग-आपूर्ति का
संतुलन बिगड़ा। इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न उत्पादों की कीमतों में तीव्र गिरावट
का रुझान दिखाई पड़ा और एनडीए शासन में 2015-16 तक आते-आते न्यूनतम समर्थन मूल्य पर
भी इसका असर दिखने लगा। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि सन् 2014 में बाज़ार में गेहूँ
की खरीद 1500 रूपए प्रति क्विंटल की दर पर की जा रही थी, सन् 2015 में यह गिरकर तेरह-साढ़े
तेरह सौ रूपए प्रति क्विंटल रह गयी। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि
बाज़ार-कीमतों के सन्दर्भ में न्यूनतम समर्थन मूल्य का मनोवैज्ञानिक दबाव प्रतिसंतुलित
होता चला गया। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि एनडीए शासन के पिछले चार
वर्षों के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगभग 23% की वृद्धि हुई है। साथ ही,
पिछले कुछ वर्षों के दौरान, विशेषकर भारतीय खाद्य निगम की पुनर्संरचना पर गठित
शांता कुमार पैनल की रिपोर्ट आने के बाद बोनस-विरोधी माहौल बना है। इस
संदर्भ में केन्द्र सरकार के निर्देश और उसकी ख़रीद-नीति बोनस की संभावनाओं को निरस्त
करती है। इतना ही नहीं, इस दौरान कृषि-क्षेत्र पर जलवायु-परिवर्तन
का असर भी गहराता चला गया, जिसने कृषि की अनिश्चितता और इससे सम्बद्ध जोखिम को बढ़ाने
का काम किया। उधर मनरेगा के कारण श्रम-लागत बढ़ता चला गया और इसके परिणामस्वरूप
कृषि-लागत भी।
कृषि-क्षेत्र का विरोधाभास: उत्पादक-हित बनाम् उपभोक्ता-हित
इसे किसी भी अर्थव्यवस्था का विरोधाभास ही कहेंगे कि जहाँ
विनिर्माण-क्षेत्र के उत्पादकों को अपने उत्पादन की कीमत निर्धारित करने की छूट
है, वहीं किसानों को नहीं। इसका कारण कुछ तो किसानों
का बिखराव है और कुछ राजनीतिक, क्योंकि कोई भी सरकार मज़बूत वोटबैंक होने के कारण मध्य
वर्ग के हितों के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील होती है। उसकी यही संवेदनशीलता उसे खाद्यान्न
उत्पादों की कीमतों को नियंत्रित करने हेतु पहल के लिए उत्प्रेरित करती है। इसका
महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि मध्य वर्ग राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक जागरूक और
सक्रिय होता है। ऐसी स्थिति में उसकी नाराज़गी किसी भी सरकार के लिए राजनीतिक
दृष्टि से परेशानियाँ खड़ी कर सकती है। यही कारण है कि कोई भी सरकार कृषि-उत्पादों
के सन्दर्भ में उत्पादक के बजाय उपभोक्ता हितों के संरक्षण को प्राथमिकता देती है।
ये बातें वर्तमान एनडीए सरकार पर भी लागू होती है। स्पष्ट है कि किसानों की बढ़ती
लागत और घटती क़ीमतों के विरोधाभास से मध्य वर्ग भी बेखबर है और सरकार भी। सरकार की
मुख्य चिंता वोट की है और यह मध्य वर्ग प्रमुख वोट बैंक है। वोट बैंक तो किसानों
का भी है, पर अशिक्षित होने के कारण उन्हें जाति
और धर्म के नाम पर आसानी से बहलाया-फुसलाया जा सकता है।
शहर-केन्द्रित विकास-रणनीति की ज़रुरत:
अगर मैं गलत नहीं हूँ, तो 2008-09 के आस-पास विश्व बैंक के उपाध्यक्ष
का चेन्नई आगमन हुआ था जिस दौरान उन्होंने इस बात को लेकर नाराज़गी जताई थी कि भारत
सरकार अबतक विश्व बैंक के साथ की गयी उस प्रतिबद्धता को पूरा करने को लेकर गंभीर
नहीं है जिसके तहत् अगले एक दशक के दौरान शहरी क्षेत्रो के लिए 400 मिलियन श्रमिक
उपलब्ध करवाए जाने थे। उस समय विश्व बैंक के
उपाध्यक्ष की उस फटकार के बाद तत्कालीन वित्त-मंत्री पी. चिदंबरम ने उन्हें
आश्वस्त करने की कोशिश की कि भारत इस सन्दर्भ में अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करेगा।
जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार अबनी और उसने योजना आयोग की जगह
पर नीति आयोग का गठन करते हुए अरविन्द पनगारिया को इसका उपाध्यक्ष नियुक्त किया,
तो उनका बिजनेस स्टैण्डर्ड में एक आर्टिकल छपा जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में
शहरी श्रमिकों की बढ़ती माँगों के मद्देनज़र कृषि क्षेत्र पर दबाव कम करने और इसमें
संलग्न जनसंख्या को शहरी क्षेत्र की ओर उन्मुख करने की सरकार की रणनीति का खुलासा
किया था। और, ऐसा तबतक संभव नहीं होगा जबतक किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति
बिगड़ती न चली जाए। सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की, इसी दिशा में बढ़ रही है।
फर्क बस यह है कि यूपीए के समय इसकी गति थोड़ी धीमी थी, और एनडीए के समय यह गति तेज
हो चुकी है।
सरकार की जिम्मेवारी:
अब प्रश्न यह उठता है कि अगर किसानों तक MSP का लाभ
नहीं पहुँच रहा है, तो इसके लिए जिम्मेवार कौन हैं? इस सन्दर्भ में देखें, तो अबतक
न्यूनतम समर्थन मूल्य से सम्बंधित मैकेनिज्म का समुचित विकास नहीं हो सका है। एक
तो न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति की प्रभाविता गेहूँ एवं धान जैसे कुछ खाद्यान्न
उत्पादों तक सीमित है, दूसरे इसका भी लाभ हरित क्रांति से प्रभावित और कृषि की
दृष्टि से विकसित कुछ राज्यों तक सीमित है और वह भी वहाँ के धनी एवं समृद्ध
किसानों तक सीमित। इसका कारण यह है कि भारत के अधिकांश हिस्सों में अबतक उस खरीद-तंत्र
और इसके लिए उपयुक्त संरचना का विकास नहीं हो सका है जो न्यूनतम समर्थन मूल्य को
समर्थन प्रदान करते हुए प्रभावी बना सके और इसे ज़मीनी धरातल पर उतारते हुए छोटे
एवं सीमान्त किसानों तक इसके लाभों को सुनिश्चित कर सके। दुर्भाग्य यह कि तमाम
दावों के बावजूद वर्तमान सरकार के कार्यकाल में स्थिति जस-की-तस बनी हुई है।
सन्दर्भ चाहे कृषि-विपणन की दिशा में की गयी पहलों का हो, या फिर पूर्वी भारत के
राज्यों में कृषि-विपणन ढाँचे और कृषि-अवसंरचना के विकास का। जबतक इस दिशा में
प्रभावी पहल नहीं की जाती और उस पहल के प्रभाव को ज़मीनी धरातल पर नहीं उतारा जाता,
तबतक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य दिवास्वप्न बना रहेगा। इस सन्दर्भ
में न केवल पिछली सरकारों, वरन् वर्तमान सरकारों की भी जिम्मेवारी बनती है।
केंद्र सरकार बनाम् राज्य सरकार:
कृषि राज्य-सूची का विषय है। यही कारण है कि इस सन्दर्भ
में प्राथमिक जिम्मेवारी राज्य सरकारों की बनती है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया
जा सकता। अगर बिहार के विशेष सन्दर्भ में बात करें (क्योंकि इस पोस्ट को बिहार के
बेगुसराय जिले के विशेष सन्दर्भ में लिखा गया था), तो वहाँ 2005 से अबतक प्रत्यक्षतः
या परोक्षतः नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार रही है जिसमें अधिकांश समय
तक भाजपा प्रमुख भागीदार रही है। विशेष रूप से जुलाई,2017 में महागठबंधन से अलग
होने के बाद जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में दोबारा एनडीए गठबंधन की सरकार बनी, तो
उस सरकार में नीतीश कुमार और जनता दल (यूनाइटेड) की वास्तविक स्थिति से हममें से
हर कोई परिचित है। ऐसी स्थिति में, जब केंद्र एवं राज्य में एक ही गठबंधन की सरकार
है और केन्द्रीय कृषि मंत्री भी बिहार से हैं, अगर मई,2018
के मध्य तक MSP के आधार पर किसानों से गेहूँ
की ख़रीद से सम्बंधित निर्णय नहीं लिया जा सका है, तो इसके लिए राज्य सरकार के
साथ-साथ केंद्र सरकार को जिम्मेवार नहीं माना जाय, तो किसे जिम्मेवार माना जाय?
अगर केंद्र सरकार ने सन् 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने
का आश्वासन दे रखा है और इसके मद्देनज़र पूर्वी भारत के राज्यों में खरीद-तंत्र एवं
खरीद-अवसंरचना विकसित करने की घोषणा कर रखी है, तो क्या उसकी जिम्मेवारी नहीं बनती
है कि वह ज़मीनी धरातल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति के प्रभावी क्रियान्वयन को
सुनिश्चित करे? क्या यह सच नहीं है कि किसानों की आय दिन-प्रतिदिन कम हो रही है?
हाँ, यह भी सच है कि यह स्थिति बिहार तक सीमित नहीं है। बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश:
इन सभी राज्यों में कमोबेश स्थिति एकसमान है, थोड़े
बहुत अंतर के साथ। इसीलिए मुद्दा किसानों को हाशिए पर
पहुँचाने का है, और इसके लिए हर
सरकार ज़िम्मेवार है। इस परिदृश्य में निश्चित तौर पर हमेशा वह सरकार निशाने पर
कहीं ज्यादा होगी जो सत्ता में है क्योंकि पहल करने की जिम्मेवारी उसकी है और वही
फल करने की स्थिति में है।
इसीलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार
पर खरीद न होने और इस कारन बिहार के किसानों की दुर्दशा के लिए जितना नीतीश सरकार
जिम्मेवार है, उतना ही केंद्र सरकार भी, क्योंकि जब केंद्र सरकार अपने सहयोगी दलों
के शासन वाले राज्यों में ही केन्द्रीय नीतियों, योजनाओं एवं कार्यक्रमों का
क्रियान्वयन न करवा पाने की स्थिति में है, तो उन राज्यों में उससे क्या अपेक्षा
की जा सकती है जिनमें विरोधी दलों के शासन वाली सरकारें हैं। इसीलिए न तो केंद्र
एवं राज्य में सत्तारूढ़ दल भाजपा इस ज़िम्मेदारी से बच सकती है और न ही नरेन्द्र
मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार। अगर केन्द्र एवं राज्य में एक ही गठबंधन की
सरकार होने के बावजूद समन्वय स्थापित नहीं हो पा रहा है, तो यह केन्द्र एवं राज्य, दोनों ही स्तरों पर
विद्यमान सरकारों की विफलता है।
पार्ट 2
न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति से सम्बंधित विवाद
वृद्धि की पृष्ठभूमि:
केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान जारी
पार्टी घोषणा-पत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) को आर्थिक लागत के डेढ़ गुने स्तर
पर ले जाने का वादा किया था। लेकिन, अबतक सरकार
इससे बच रही थी और इस सन्दर्भ में उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कोर्ट
को सूचित भी किया था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कृषि-उत्पादों की उत्पादन-लागत के
दोगुने के स्तर पर रखना व्यावहारिक रूप में संभव नहीं है और इस सन्दर्भ में सरकार
कोई पहल नहीं करने जा रही है। लेकिन, ज़मीनी धरातल पर
विभिन्न आर्थिक मोर्चों पर डिलीवर कर पाने में सरकार के असफल रहने और गहराते कृषि संकट की पृष्ठभूमि में
किसानों की बढ़ती हुई बदहाली के कारण न्यूनतम समर्थन
मूल्य को लागत के डेढ़ गुने स्तर पर ले जाने के लिए सरकार पर दबाव निरंतर बढ़ता चला
जा रहा था। इस दबाव ने सरकार को चुनावी वर्ष में पेश बजट में इस घोषणा के लिए विवश
किया।
किसानों की स्थिति पर NSSO का अध्ययन,दिसम्बर,2014:
वर्ष 1965 से चल रही देश की न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति के
तहत सरकार कुछ कृषि उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। न्यूनतम
समर्थन मूल्य व्यवस्था के जरिये कीमतों का नियमन करते हुए सरकार ने यह कोशिश कभी
नहीं की कि किसानों को खुले बाज़ार और मंडी में भी उचित कीमतें मिलें। दिसंबर,2014 में नेशनल सैम्पल
सर्वे ऑर्गनाइजेशन की 70वें दौर के सर्वेक्षण की रिपोर्ट में
बताया गया कि:
1. केवल 32.2 प्रतिशत
किसानों को धान के समर्थन मूल्य के बारे में और 39.2 प्रतिशत
को ही गेहूँ के समर्थन मूल्य के बारे में कोई जानकारी थी। उड़द के बारे
में तो 5.7 प्रतिशत को ही जानकारी थी।
2. अध्ययन
से यह भी पता चला कि जुलाई 2012
से जून 2013 के बीच गेहूँ बेचने वाले किसानों में
से केवल 6.8 प्रतिशत ने ही सीधे सहकारी संस्था या सरकारी
खरीद संस्था को गेहूँ बेचा, जबकि 50 प्रतिशत कृषकों ने
स्थानीय व्यापारी को और 35 प्रतिशत ने मंडी में। सरकारी खरीद
संस्था या सहकारी संस्था के हाथों धान बेचने वाले कृषकों का प्रतिशत महज 6.4 प्रतिशत था।
3. अरहर
का न्यूनतम समर्थन मूल्य तो तय होता है, पर उसे मानता कोई
नहीं। इसके
सन्दर्भ में सरकारी या सहकारी खरीद तंत्र अत्यंत
कमजोर है।
स्पष्ट है कि भारत सरकार 23 जिंसों का न्यूनतम
समर्थन मूल्य तय करती है, किंतु
खरीद-मैकेनिज्म की प्रभावित बहुत हद तक गेहूँ और चावल तक सीमित है और वह भी गेहूँ एवं चावल-उत्पादक 5-6 राज्यों तक।
बजट,2018-19 और न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP):
सरकार ने बजट,2018-19 में कहा कि दशकों
से केंद्र सरकार की कृषि नीति एवं कार्यक्रम उत्पादन-केन्द्रित रहा है, लेकिन
वर्तमान सरकार ने इसमें मूलभूत
बदलाव लाते हुए इसे
उत्पादन-केन्द्रित के बजाय आय-केन्द्रित बनाया और किसानों के लिए अधिक आय सृजित करने पर बल दिया। सरकार ने सन् 2022 तक किसानों की आय
को दोगुना करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए किसानों की आय में वृद्धि के सन्दर्भ में एक समग्रतावादी नज़रिए को
अपनाने पर भी बल दिया गया। इसके तहत्:
a.
किसानों को उसी ज़मीन
पर कम लागत पर अधिक उत्पादन करने में
सक्षम बनाया जाएगा,
b.
उनके उत्पादों के
लिए उचित एवं लाभकारी कीमत सुनिश्चित की जायेगी।
c.
साथ ही, इसके लिए किसानों
और भूमिहीन परिवारों के लिए ऑन-फार्म और नन-फार्म उत्पादक एवं लाभकारी रोजगार
सृजित करने का भी संकेत दिया गया है।
सरकार ने किसानों को तुरंत राहत देने के लिए कर्ज माफी की बजाय दूसरे
तरीकों से तत्काल और स्थाई फायदा पहुँचाने के लिए कदम उठाया है। वित्त मंत्री ने किसानों को उनके फसलों की उचित एवं लाभकारी कीमत सुनिश्चित करने के
लिए इस बजट में किसानों को लागत से डेढ़
गुना ज़्यादा दाम देने की बात सैद्धांतिक रूप से स्वीकार ली है। उनके अनुसार रबी की अधिकांश घोषित फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य
लागत से कम-से-कम डेढ़ गुना तय किया जा चुका है। बजट,2018-19 में इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए स्पष्ट शब्दों में
कहा गया है कि:
a.
अब
बची हुई अधिघोषित खरीफ फसलों के सन्दर्भ में भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को उसकी उत्पादन-लागत का डेढ़ गुना
करने की बजटीय घोषणा की गयी।
b.
इसके
अतिरिक्त किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के लिए सरकार वैकल्पिक मॉडलों पर भी विचार कर रही है। इसके लिए नीति आयोग केंद्र एवं राज्य सरकारों की सलाह से
एक मैकेनिज्म विकसित करेगा जिसके तहत् न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार कीमत के बीच के अंतर की
भरपाई सरकार के द्वारा
की जायेगी।
c.
आलू-प्याज़ और टमामटर के किसानों को नुकसान से
बचाने के लिए 500 करोड़ ‘ऑपरेशन
ग्रीन्स’ नाम की योजना बनाई गई है जो इन फसलों के किसानों को
व्यावसायिक प्रबंधन अपनाने के लिए प्रोत्साहित करेगी।
लागत के डेढ़ गुने न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) के दावे का
औचित्य:
कृषि-मंत्रालय के तहत्
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग(CACP) हर साल फसलों की लागत और न्यूतनम समर्थन मूल्य का डाटा
उपलब्ध करवाता है। इसी के द्वारा न्यूनतम
समर्थन मूल्य(MSP) की अनुशंसा की जाती है। इसकी वेबसाइट पर
गेंहूँ की उत्पादन-लागत तय करने के दो पैमाने मिले:
उत्पादन-लागत (Production Cost) और आर्थिक-लागत(Economic Cost)। उत्पादन-लागत के अंतर्गत खाद, बीज और मज़दूरी को शामिल किया
जाता है; जबकि आर्थिक लागत के अंतर्गत इसके
अतिरिक्त कोल्ड-स्टोरेज खर्च, वितरण-खर्च, मंडी-शुल्क, टैक्स, सूद,
कमीशन, प्रबंधन-शुल्क आदि
भी शामिल होते हैं। एम. एस. स्वामिनाथन आयोग ने आर्थिक लागत के
अंतर्गत ज़मीन के भाड़े को भी शामिल किये जाने की अनुशंसा की थी। इसी आलोक में स्वामीनाथन आयोग ने C-2 लागत को MSP का आधार
बनाया जाय और किसानों के लिए C-2 लागत से अधिक कीमत सुनिश्चित की जाय।
कृषि-मंत्रालय के तहत् आने वाले कृषि
लागत एवं मूल्य आयोग(CACP) की वेबसाइट पर 2018-19
के लिए एक क्विंटल गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) 1735 रुपये
निर्धारित किया गया है। इसके द्वारा गेहूँ
की उत्पादन-लागत 1256 रुपये होने का अनुमान लगाया गया है और आर्थिक लागत
2345 रुपये होने का। दोनों भाव के अनुसार 1735 रुपया कहीं से भी लागत का
डेढ़ गुना नहीं होता है। अगर MSP उत्पादन-लागत का डेढ़ गुना होता, तो इसे 1884 रुपया होना चाहिए था और अगर MSP आर्थिक-लागत का डेढ़ गुना होता, तो इसका
भाव 3517 रुपये होना चाहिए था। न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) के आधार पर
खाद्यान्नों की ख़रीद करनेवाली महत्वपूर्ण एजेंसी फूड कॉर्पोरेशन ऑफ
इंडिया(FCI) ने भी 2017-18 के लिए एक क्विंटल गेहूँ की लागत का हिसाब 2408
रुपये लगाया है। इसके वेबसाइट पर 2014-15
में एक क्विंटल गेहूँ की लागत 2015 रुपये,
2015-16 में 2127 और 2017-18 में 2408 रुपये का उल्लेख है।
इसीलिए कभी भी न्यूनतम समर्थन मूल्य ज़्यादा नहीं मिला। लेकिन, वास्तविकता ऐसी नहीं है
एमएसपी-व्यवस्था को
प्रभावी बनाने के सुझाव:
अगर सरकार वाकई
कृषि-संकट और किसानों को लेकर गंभीर है, तो उसे:
1.
न्यूनतम समर्थन मूल्य की
गणना-विधि में परिवर्तन करते हुए कृषि-उत्पादों के लिए उचित एवं लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना होगा। यह तभी संभव है जब स्वामीनाथन आयोग की
अनुशंसाओं के अनुरूप C-2 लागत पर आधारित बनाया जाय। कृषि-लागत एवं मूल्य आयोग न्यूनतम
समर्थन मूल्य के निर्धारण के क्रम में A-2 लागत की
भी चर्चा करता है और C-2 लागत की भी। A-2 लागत के अंतर्गत किसान
द्वारा नकद में भुगतान किए जाने वाले खर्चों को शामिल किया जाता है। इसके अंतर्गत बीज,
उर्वरक, खाद, रसायन,
मजदूर, बैल, मशीन और
सिंचाई खर्च और फसल की देखरेख पर आने वाली लागत शामिल है। इससे भिन्न C-2 लागत में
A-2 लागत के अलावा पारिवारिक श्रम, निवेशित
पूँजी पर ब्याज और भूमि का लगान भी शामिल है। वर्तमान
में न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के लिए A-2
लागत को आधार बनाया जाता है और इस क्रम में भूमि-किराया, उत्पादन,
प्रबंधन और रखरखाव में किसान के पारिवारिक श्रम और उद्यमिता कौशल की
अनदेखी की जाती है, जबकि कायदे से इसे इसके अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिए। अगर फसलों की लागत का अनुमान लगते हुए और कृषि-उत्पादों का
न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करते हुए इस बात को ध्यान में रखा जाता है, तो
इससे कृषि को लाभकारी पेशे में तब्दील करना संभव हो सकेगा और इससे कृषि एवं कृषकों
का कल्याण संभव हो सकेगा। इसी प्रकार इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है
कि जिस ज़मीन पर किसान खेती करता है, उसके लिए सामान्यतः वह रेंट अर्थात् किराया
नहीं देता है (अपवाद: बँटाईदार); लेकिन यदि वह उस भूमि का इस्तेमाल खुद न कर औरों
को इसका इस्तेमाल करने देता है, तो बदले में उसे किराया प्राप्त होता है।
2.
न्यूनतम समर्थन मूल्य-व्यवस्था
का विस्तार सभी फसलों के लिए सुनिश्चित किया जाए। सभी
फसलों में एमएसपी सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच समन्वित प्रयास
और लागत को वहन करने की जरूरत होगी।
3.
इसके लिए प्रभावी खरीद-नीति के समर्थन को भी सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है।
4.
न्यूनतम समर्थन मूल्य-व्यवस्था
की सीमाओं और विश्व व्यापार संगठन के फ्रंट पर कृषि-सब्सिडी के विरोध के मद्देनज़र आवश्यकता इस बात की है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और किसान को मिली कीमत में अंतर की भरपाई के लिए नकद भुगतान की
पूरक व्यवस्था को लागू किया जाय।
समर्थन मूल्य(MSP) में वृद्धि राहत
है, समस्या का समाधान नहीं:
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या न्यूनतम समर्थन
मूल्य-व्यवस्था उन समस्याओं का समाधान है जिनका सामना भारतीय किसानों को करना पर
रहा है? इस प्रश्न पर विचार के पूर्व न्यूनतम समर्थन मूल्य-व्यवस्था की निम्न
सीमाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए::
1. यद्यपि न्यूनतम
समर्थन मूल्य-नीति की घोषणा 23 फसलों के सन्दर्भ में की जाती है, लेकिन यह व्यवस्था मुख्य रूप से गेहूँ, धान और कपास जैसे दो-तीन फसलों के लिए ही प्रभावी रूप से काम कर पा रही है
2. यह व्यवस्था गेहूँ, धान और कपास-उत्पादक शीर्ष राज्यों तक ही प्रभावी
है।
3.
गेहूँ, धान और कपास
की फसलों को छोड़ बाकी फसलों की सरकारी
खरीद के लिए उपयुक्त तंत्र मौजूद नहीं है। अन्य
फसलों और अन्य राज्यों के सन्दर्भ में इसे खरीद-व्यवस्था का समर्थन प्राप्त नहीं
है।
4. यही कारण है कि इसका
लाभ सिर्फ (6-7)% किसानों तक ही सीमित है, न
कि इसका लाभ सभी किसानों को प्राप्त हो रहा है।
5. यह इस बात का संकेत है कि अगर एमएसपी-व्यवस्था सही ढंग से
लागू नहीं हो पा रही है, तो फिर इस व्यवस्था का क्या फायदा?:
इन तमाम सीमाओं के बावजूद यह स्वीकारना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य
नीति बाज़ार की कीमतों पर कुछ हद तक मनोवैज्ञानिक दबाव उत्पन्न करती हुए उसे एक
सीमा से नीचे जाने से रोकती है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों के दौरान बेह्तर उत्पादन, खान-पान की आदतों में परिवर्तन और इसके परिणामस्वरूप माँग-आपूर्ति के संतुलन के
आपूर्ति के पक्ष में रहने के कारण वैश्विक स्तर पर कीमतों
में गिरावट के रुझानों ने न्यूनतम
समर्थन मूल्य-नीति की मनोवैज्ञानिक दबाव उत्पन्न करने वाली भूमिका को
भी कुछ हद तक प्रति-संतुलित कर दिया है। इतना ही नहीं, बाज़ारवादी
शक्तियों और मुद्रास्फीतिक कारकों के साथ-साथ राजनीतिक दबावों के कारण पिछले कुछ
वर्षों के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि का रुझान भी थमता दिखायी पड़ता है। इसके विपरीत कृषि की इनपुट लागत और मनरेगा के कारण
श्रम-लागत लगातार बढ़ती चली गयी। शायद यही कारण है कि 40% किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोड़ने
के लिए तैयार हैं और यहाँ तक कि उन्हें आत्महत्या का विकल्प तक चुनना पर रहा है। इसलिए बाजार की मौजूदा स्थिति को देखते हुए किसानों द्वारा उचित एवं लाभकारी मूल्य के आश्वासन की माँग पूरी
तरह वाजिब है।
अगर किसानों के लिए उचित एवं लाभकारी मूल्य सुनिश्चित किया जाता
है, तो इसके कई फायदे हैं। यदि फसल-उत्पादन के स्तर पर ही उसके मूल्य में एक प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाती है तो
इससे किसान की आमदनी में 1.6
प्रतिशत का इजाफा होता है। इसके अलावा कृषि-उत्पादों के वास्तविक मूल्य में तेजी आने
से उत्पादकता और वृद्धि पर भी असरदार
प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह एक ओर किसानों को उत्पादन हेतु प्रोत्साहित करता है, दूसरी ओर आय
एवं बचत में वृद्धि की संभावना को जन्म
देता हुआ उन्हें निवेश में सक्षम भी बनाता है। लेकिन, यह तात्कालिक राहत है, स्थाई समाधान
नहीं।
स्थाई समाधान के लिए मूल्य से इतर कारकों पर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। भूमि-सुधार, जोतों के छोटे
आकार की चुनौती से निबटना, कृषि-सुधार, आसान शर्तों पर समुचित
एवं पर्याप्त मात्रा में ऋण की उपलब्धता, तकनीक, सिंचाई-सुविधाओं के
जरिये मानसून पर निर्भरता को कम करते हुए कृषि की अनिश्चितता को कम किया जाना,
कृषि-अवसंरचना का विकास, कृषि-विपणन, विपणन-अवसंरचना का विकास, प्रभावी पश्च-फसल
प्रबंधन और फसलों की बर्बादी को रोकना जैसे कारक ऐसे ही पहलू हैं जो किसानों की
आमदनी में वृद्धि के सन्दर्भ में शायद उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं जितने
समर्थन-मूल्य। हाँ,
यह ज़रूर है कि ये तात्कालिक राहत देने में समर्थ नहीं हैं। इन सन्दर्भों में
परिणाम पाने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है और इसके लिए बड़े स्तर पर निवेश की
ज़रुरत है।
कृषि-विपणन: कृषि-उत्पादों
की सीधी खरीद-बिक्री की सुविधा
2018-19
के बजट में इस बात की सूचना भी दी गयी कि 2017-18 की बजटीय घोषणा के अनुरूप 585 कृषि उत्पाद बाज़ार
समितियों(APMC’s) में अबतक 470 मंडियों को ई-नेम प्लेटफार्म के साथ सम्बद्ध किया जा चुका है और शेष
मंडियों को मार्च,2018 तक सम्बद्ध कर लिया जाएगा। लेकिन, समस्या
यह है कि लगभग 86% भारतीय किसान लघु एवं सीमान्त किसानों की श्रेणी में आते हैं
जिनकी कृषि मंडियों और थोक बाज़ारों तक सीधी पहुँच
नहीं है।
इसी आलोक में बजट,2018-19 में
22,000 ग्रामीण हाटों को कृषि-मंडियों के रूप में विकसित करते हुए
इन्हें ई-नेम(E-National Agricultural Market) से सम्बद्ध करने की घोषणा की गयी ताकि कृषि-उत्पादों की सीधी खरीद-बिक्री की सुविधा
उपलब्ध करवाई जा सके। साथ ही, यह भी कहा गया कि इसके लिए मनरेगा सहित अन्य सरकारी स्कीमों के अंतर्गत उपलब्ध करवाए
जानेवाले संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए भौतिक अवसंरचना के विकास को
सुनिश्चित किया जाएगा।
इन बाज़ारों में कृषि-विपणन
अवसंरचना के विकास के लिए 2000 करोड़ रुपये से निर्मित कृषि बाज़ार अवसंरचना कोष की
स्थापना
की भी घोषणा इस साल के बजट में की गयी।