Saturday, 11 February 2017

उत्तरप्रदेश:जाति और धर्म की रहेगी निर्णायक भूमिक

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी अपना आधा कार्यकाल पूरा कर चुके हैं और शायद वे अपने शासन के कठिनतम दौर में प्रवेश कर रहे हैं। अबतक उन्हें उन राज्यों में राजनीतिक लड़ाई लड़नी पड़ी जहाँ उनके राजनीतिक प्रतिद्न्द्वी के रूप में अधिकांशत: काँग्रेस मौजूद थी। उन्होंने यूपीए सरकार की अलोकप्रियता को जमकर अपने पक्ष में भुनाया। लेकिन, जहाँ कहीं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी के रूप में ग़ैर काँग्रेसी राजनीतिक दल मौजूद रहे, उन्होंने भाजपा को बुरी तरह से धोया। लेकिन, अब उन राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित है जहाँ या तो भाजपा सत्ता में है या फिर उसकी टक्कर क्षेत्रीय दलों से है। साथ ही, नोटबंदी के बाद सारे राजनीतिक समीकरण बदले हुए हैं और काँग्रेस भी खोए हुए आत्मविश्वास को हासिल करती दिख रही है। समय के साथ भाजपा से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और नोटबंदी ने इस प्रक्रिया को तेज़ किया है। फ़रवरी-मार्च,2017 में पाँच राज्यों में प्रस्तावित चुनाव के संभावित परिणामों का आकलन इसी बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य में किया जाना चाहिए।
राज्य विधानसभा चुनाव का परिदृश्य:

फ़रवरी-मार्च,2017 में पाँच राज्यों में प्रस्तावित चुनाव के दूसरे चरण का मतदान हो चुका है। सारी नज़रें उत्तर प्रदेश और पंजाब पर टिकी हुई हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा अंडरडॉग है, तो पंजाब में आप। गोवा में त्रिकोणीय मुक़ाबला है जिसमें किसको जीत मिलेगी, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है। हाँ,इतना अवश्य कहा जा सकता है कि स्ट्राँग एंटी-इनकम्बेंसी के कारण काँग्रेस एवं आप की संभावना ज़्यादा है, लेकिन मुक़ाबले का त्रिकोणीय भाजपा के लिए संभावना बनाए हुए है। उत्तराखंड में काँग्रेस और भाजपा के बीच काँटे की टक्कर है। दोनों ही दलों को बाग़ियों का सामना करना पड़ रहा है। वहाँ किसकी सरकार बनेगी, यह न केवल इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों ही दल बाग़ी-प्रभाव से कितने प्रभावी तरीक़े से निपटते हैं, वरन् इस बात पर भी कि चुनाव-परिणाम आने के बाद ये अपने बाग़ियों को कहाँ तक मैनेज कर पाते हैं। मणिपुर में तो भाजपा रेस में ही नहीं है। वैसे, एक छठा राज्य भी है तमिलनाडु, जहाँ भाजपा राज्यपाल के सहारे बिना चुनाव लड़े जीतने और सरकार बनाने की कोशिश में लगी है, ठीक अरुणाचल प्रदेश की तर्ज़ पर। इन तमाम तथ्यों के बीच पंजाब का चुनाव यदि आप के राजनीतिक भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और इससे इस बात के संकेत मिलने की संभावना है कि आप का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, वहीं उत्तर प्रदेश की स्थिति पानीपत के तृतीय युद्ध वाली है जो यह तो निर्धारित नहीं करेगा कि 2019 में प्रस्तावित लोकसभा चुनाव का परिणाम किसके पक्ष में रहेगा, पर यह निर्धारित अवश्य कर देगा कि 2019 में कौन नहीं जीतने जा रहा है?
उत्तरप्रदेश का चुनावी परिदृश्य:
आनेवाले समय में उत्तरप्रदेश विधानसभा-चुनाव भाजपा के राजनीतिक भविष्य की दिशा के निर्धारण में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभाएगा। देखना यह है कि यह दिल्ली और बिहार के रास्ते जाता है या फिर अन्य राज्यों के रास्ते, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक करिश्मा और भाजपा-अध्यक्ष अमित शाह का नेतृत्व-कौशल राजनीतिक विरोधियों को पस्त करने में कामयाब रहा। बिहार विधानसभा-चुनाव में महागठबंधन की भारी जीत ने आनेवाले समय में भाजपा के राजनीतिक विरोधियों को जीत का नुस्ख़ा उपलब्ध कराया। उसी समय इस बात के संकेत मिलने लगे कि आनेवाले समय में भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के द्वारा इसे आज़माया जाएगा।लेकिन, ज़मीनी धरातल पर चीज़ें इतनी आसान नहीं होती हैं। फिर भी, मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए काँग्रेस और समाजवादी पार्टी ने गठबंधन की दिशा में पहल कर इस मुक़ाबले को त्रिकोणीय और रोचक बना दिया। इस गठबंधन ने भाजपा के साथ-साथ बसपा के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। इससे पूर्व सपा में पारिवारिक अंतर्कलह, चाहे यह प्रायोजित हो अथवा वास्तविक (वैसे आज के परिदृश्य में मुझे यह प्रायोजित नहीं लगता), ने पिछले साढ़े चार वर्षों के कुशासन को पृष्ठभूमि में धकेलते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की जो सकारात्मक छवि निर्मित की है, वह सपा के अंतर्कलह के कारण होने वाले राजनीतिक नुक़सान पर भारी पड़ती दिख रही है और इसके कारण अखिलेश की युवाओं के बीच राजनीतिक लाइन एवं जाति से परे हटकर अपील को सहज ही नोटिस में लिया जा सकता है, यद्यपि यह अपील किस हद तक वोट में रूपांतरित होती है, इसे देखा जाना अभी शेष है। काँग्रेस के साथ गठबंधन कर अखिलेश ने एक ओर अपनी इस अपील को राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश की है, दूसरी ओर मुस्लिम वोटों को बसपा की ओर शिफ़्ट होने से भी रोकने का प्रयास किया है। इसमें सहायक है पिछले पाँच वर्षों के दौरान अखिलेश द्वारा विकास की दिशा में की गई पहल। इतना ही नहीं, काँग्रेस के साथ यह गठबंधन भाजपा के ब्राह्मण वोटबैंक में भी सेंध लगाने में सहायक है क्योंकि ब्राह्मण काँग्रेस के पारंपरिक वोटर रहे हैं और आज भी उनके बीच काँग्रेस की अच्छी पकड़ है जिसके कारण सपा के साथ गठबंधन के ज़रिए ख़ुद को राज्य की मुख्यधारा की राजनीति में लाकर काँग्रेस ब्राह्मणों को अपनी ओर खींचने में समर्थ है जो गठबंधन को मज़बूत और भाजपा को कमज़ोर कर सकता है। इसलिए भी कि उत्तरप्रदेश में काँग्रेस बिहार की तरह मृतप्राय नहीं है।ये तमम चीज़ें गठबंधन की चुनावी बढ़त की ओर इशारा कर रही हैं।
बसपा की संभावनाएँ:
जहाँ तक बसपा का प्रश्न है, तो मेरी नज़रों में बसपा अंडरडॉग है। मीडिया की अपनी मानसिकता है और कहीं-न-कहीं बसपा को लेकर उसके अपने पूर्वाग्रह हैं जिसके कारण मुख्यधारा की मीडिया में उसे ख़ारिज किया जा रहा है, इस तथ्य के बावजूद कि इसके पास दलितों का एकमुश्त वोट मौजूद है और इसके वोटर्स साइलेंट वोटर्स रहे हैं। हाल में रोहित वेमुला प्रकरण और गोरक्षा के नाम पर दलितों एवं मुसलमानों पर होने वाली ज़्यादतियों ने दोनों को एक-दूसरे के क़रीब लाते हुए भारतीय राजनीति में नवीन संभावना को जन्म दिया है। सपा के पारिवारिक अंतर्कलह और दक्षिणपंथी हिन्दुत्व के राजनीतिक उभार की पृष्ठभूमि में अगर मुसलमानों के एकमुश्त वोट बसपा के पक्ष में जायें और भाजपा-विरोधियों की नज़रों में भी बसपा ख़ुद को भाजपा के मज़बूत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे, तो बसपा को भारी बहुमत मिल सकता है। इसीलिए बसपा ख़ुद को सपा के यादववाद से त्रस्त लोगों के लिए भी ख़ुद को बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सकती है जो भाजपा की संभावनाओं को सीमित करेगा। सक्षम प्रशासक वाली मायावती की छवि भी बसपा के पक्ष में जाती है। 
भाजपा की संभावनाएँ:
जहाँ तक भाजपा का प्रश्न है, तो एक ही स्थिति है जिसमें भाजपा अंडरडॉग साबित हो सकती है और वह है कन्फ्यूजन की स्थिति में मुस्लिम वोटों का सपा एवं बसपा के बीच विभाजन, जिसकी संभावना अबतक नहीं के बराबर लग रही है। नोटबंदी ने भाजपा की संभावना को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचाया है जिसके कारण इसके पारंपरिक बनिया वोटर नाराज़ चल रहे हैं। भाजपा ने बिहार की तर्ज़ पर टिकटों का वितरण कर पार्टी के भीतर असंतोष को बढ़ाया है और इस कारण इसे बाग़ी की समस्या से जूझना पड़ रहा है। दाग़ी और बाहरी को मिलने वाले महत्व इसे अलग नुक़सान पहुँचा रहे हैं। इधर पश्चिमी उत्तरप्रदेश, जहाँ भाजपा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की संभावना के कारण भारी बढ़त की आस लगाए हुए थी, वहाँ जाटों की नाराज़गी भारी पड़ रही है। जाट वोटर्स  वापस रालोद और अजित सिंह की ओर वापस लौटते दीख रहे हैं और इसने लड़ाई में उतरने से पहले यह संकेत दिया है कि भाजपा हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। हाँ, अधिकांश सवर्ण वोटर्स अवश्य भाजपा के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं, लेकिन जब मुक़ाबला सपा और बसपा के बीच फँसता दिखेगा, बसपा उनकी स्वाभाविक पसन्द होगी। 
अंतिम नज़र:
अबतक ऐसा लग रहा था कि उत्तरप्रदेश में लड़ाई पहले और तीसरे स्थान के लिए सपा-बसपा के बीच है। भाजपा के  दूसरे स्थान पर रहने की संभावना है। लेकिन, जाटों की नाराज़गी पूरे समीकरण को बदलती दिखाई पड़ रही है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में इसने मुक़ाबले को चतुष्कोणीय बना दिया है। अब ऐसा लग रहा है कि उत्तरप्रदेश में भी भाजपा का हश्र कहीं बिहार वाला न हो। लेकिन, आगे क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि:
1. मुस्लिम वोटों का रूझान किधर रहेगा: सपा या बसपा की ओर या फिर यह बँटेगा?
2. जाटों की नाराज़गी को भाजपा कहाँ तक मैनेज करने में सफल रहती है?
3. अखिलेश कहाँ तक एक्रॉस द पार्टी लाइन और एक्रॉस द कास्ट अपील कर पाते हैं?
4. काँग्रेस और सपा अपने गठबंधन को कहाँ तक ज़मीनी  धरातल पर उतार पाते हैं और टिकटों का वितरण कितने प्रभावी तरीक़े से होता है? काँग्रेस शहरी क्षेत्र के साथ-साथ सवर्ण मतदाताओं को कहाँ तक आकर्षित कर पाती है?
कुल मिलाकर कहा जाय, तो आगे का रास्ता भाजपा के लिए आसान नहीं होने जा रहा है। विशेषकर उत्तरप्रदेश में जाति एवं धर्म की राजनीति ही निर्णायक होने जा रही है जो फ़िलहाल भाजपा के पक्ष में जाती नहीं दिख रही है। वैसे,चुनावी राजनीति में अंतिम समय में भी हवा बदल सकती है।