टैगोर: राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद
प्रमुख आयाम
1. राष्ट्रवाद
और देशभक्ति का फ़र्क
2. राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर टैगोर की दुविधा
3. टैगोर का युगीन परिदृश्य
4. राष्ट्रवाद
और टैगोर
5. राष्ट्रवाद
का विध्वंसक रूप: फासीवाद
6. समाज
को राज्य से अधिक महत्व
7. मानवता
पर देशभक्ति को तरजीह
8. राष्ट्रवाद
और भारत
9.
स्विस-मॉडल भी अनुकरणीय
नहीं
10.
आलोचना के प्रमुख आधार
11.
राष्ट्रीय आन्दोलन में टैगोर की भूमिका
12.
राष्ट्रीय
आन्दोलन को सशर्त समर्थन
राष्ट्रवाद
और देशभक्ति का फ़र्क:
दरअसल
राष्ट्रवाद एक सापेक्षिक राजनीतिक धारणा है जिसे साबित करने के लिए उनके साथ खड़े
होने और उनकी विचारधारा को स्वीकार करने की ज़रुरत होती है जो खुद को राष्ट्रवाद के
प्रवक्ता एवं राष्ट्रीय हितों के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए 1920 के दशक में जर्मनी में हिटलर ने और इटली
में मुसोलिनी ने खुद को, अपने दल को और अपने समर्थकों को राष्ट्रवादी घोषित करते
हुए उन लोगों के खिलाफ मोर्चा खोला जो उनसे असहमत थे और उनकी नीतियों की आलोचना
करते थे। इसीलिए राष्ट्रवाद की धारणा उसके विरोधियों के
उत्पीड़न के साधन में तब्दील हो गयी और इन्होंने अपने विरोधियों को देशद्रोही घोषित
किया। आज के परिदृश्य में भारत के राजनीतिक माहौल को भी
देखा जा सकता है जहाँ पूरा विमर्श देशभक्ति एवं देशद्रोह के इर्द-गिर्द केन्द्रित
है और इस विमर्श में भाजपा, उसका नेतृत्व एवं उसके समर्थक खुद को राष्ट्रवादी एवं
देशभक्त के रूप में पेश करते हुए अपने विरोधियों एवं आलोचकों से राष्ट्रवादी एवं
देशभक्त होने का प्रमाण माँग रहे हैं। इसी प्रकार वर्तमान
परिदृश्य में पाकिस्तान के राष्ट्रवाद को देखें, तो यह भारत-विरोध के धरातल पर खड़ा
है और भारत का राष्ट्रवाद पाकिस्तान एवं चीन के विरोध के धरातल पर।
लेकिन,
देशभक्ति साबित करने के लिए न तो किसी राजनीतिक दल की सदस्यता लेनी पड़ती है और न
ही प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है। यह राष्ट्रवाद की
तरह सापेक्ष अवधारणा भी नहीं है। दरअसल देशभक्ति एक
प्रकार से उस भूमि के प्रति आत्मीयता से भरे लगाव एवं कृतज्ञताबोध का परिणाम है
जिसमें हमारा जन्म हुआ है, पालन-पोषण हुआ है, और जिसके साथ हमारा भविष्य सम्बद्ध
है। यह स्वतःस्फूर्त भाव है जो हमारे भीतर छुपा हुआ है
और जिसके प्रदर्शन की ज़रुरत नहीं पड़ती है। यह सकारात्मक
अवधारणा है जिसका स्वरुप अधिक-से-अधिक रक्षात्मक होता है।
यह न तो आक्रामक होती है और न ही इसका स्वरुप उत्पीड़क होता है। इसमें दूसरे देश पर हावी होने या उसे नीचा दिखने का भाव भी
नहीं होता है। दोनों में सबसे महत्वपूर्ण फर्क यह है कि
राष्ट्रवाद इस देश के सभी नागरिकों को देशभक्त नहीं मानता है।
राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर
टैगोर की दुविधा:
राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर टैगोर की दुविधा और उनके रुख को देशभक्ति की
रूमानियत पर आधारित उनके बांग्ला उपन्यास ‘घर-बाइरे’ के परिप्रेक्ष्य में समझा जा
सकता है। इस उपन्यास का नायक निखिल प्रगतिशील सामाजिक सुधारों का समर्थक है, पर जब
मसला राष्ट्रवाद का आता है, तो उसका रुख थोड़ा नरम पड़ जाता है। इस मसले पर उसकी प्रेमिका बिमला
अपने फैसले बदलने के लिए उस पर दबाव डालती है और यहाँ तक कि उसे छोड़ कर चली जाती
है। लेकिन, प्रेमिका के दबाव के बावजूद निखिल अपने विचार नहीं बदलता और कहता है “मैं देश की सेवा करने के लिए हमेशा तैयार हूँ, लेकिन मेरी पूजा का हकदार सत्य है, जो मेरे लिए देश से भी ऊपर है। अपने देश को ईश्वर की तरह पूजने का मतलब है,
उसे अभिशाप देना।” बिमला को भी
राष्ट्रवादी भावनाओं और हिंसक गतिविधियों के बीच के सूक्ष्म सम्बन्ध-सूत्र का
अहसास होता है और इसकी पृष्ठभूमि में मोहभंग टैगोर की तरह बिमला को भी राजनीति से
उदासीन बना देता है। स्पष्ट है कि टैगोर ने इस उपन्यास के जरिये अति-राष्ट्रवाद के उन खतरों की ओर इशारा किया है
जो बुनियादी मानवीय मूल्य एवं विश्व-बंधुत्व की भावना के प्रतिकूल है।
टैगोर का युगीन परिदृश्य:
टैगोर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत औपनिवेशिक पराधीनता का शिकार था। 20वीं सदी के पहले दशक के
दौरान देश के भीतर एवं बाहर भारतीय राष्ट्रवाद ने भी क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के
उभार को देखा जिसका स्वरुप हिंसक था और जिसने कितने निर्दोषों की सिर्फ इसलिए बलि
ली क्योंकि वे अँग्रेज थे। इस स्थिति ने टैगोर को भी विचलित किया। उन्होंने महसूस
किया कि राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की
अवधारणा के मूल में घृणा है जो बुनियादी
मानवीय मूल्यों के प्रतिकूल है।
उस समय का वैश्विक परिदृश्य
तो और भी विचलित करने वाला था। उन्होंने देखा कि 17-20वीं सदी के दौरान वाणिज्यवाद
एवं औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि में पश्चिमी देशों में राष्ट्रवाद ने किस
प्रकार उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का रूप
ले लिया और इसकी पृष्ठभूमि में इसने अफ्रीकी एवं एशियाई देशों को गुलामी की ओर
धकेलते हुए मानव एवं मानवता के इतिहास को कलंकित किया। इतना ही नहीं, इसने 19वीं
सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोपीय देशों को जिस राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा की ओर
धकेला, उसकी परिणति प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में हुई। लेकिन, राष्ट्रवाद का यह
ज्वार यहीं पर नहीं थमा। यह इसके बाद भी जारी रहा और 1920 के दशक एवं इसके बाद
इसने जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फासीवाद एवं
जापान में सैन्यवाद के रूप में राजनीतिक सर्वसत्तावादी निरंकुशता को
जन्म देते हुए हिटलर एवं मुसोलिनी के राजनीतिक उभार को संभव बनाया। अंततः इसकी
परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुई।
वैचारिक धरातल पर देखें, तो पश्चिमी
राष्ट्रवाद की सीमाओं ने भी टैगोर को राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के प्रश्न
पर पुनर्विचार के लिए उत्प्रेरित किया। ध्यातव्य है कि इटली के छोटे-छोटे
नगर-राज्यों (City States) की पृष्ठभूमि में विकसित पश्चिमी
राष्ट्रवाद की संकल्पना ‘एक भाषा, एक जाति एवं एक राष्ट्र’ की संकल्पना पर आधारित
है। यह संकल्पना भारतीय परिस्थितियों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं थी
क्योंकि भारत एक बहुभाषा-भाषी देश था जहाँ विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहते आये हैं
और जहाँ पर्याप्त सांस्कृतिक वैविध्य है। ऐसी स्थिति में पश्चिमी राष्ट्रवाद की
संकल्पना भारत के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं रह जाती है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें टैगोर की राष्ट्र-विषयक् धारणा ने
आकार ग्रहण किया।
राष्ट्रवाद और टैगोर:
राष्ट्रवाद की
संकल्पना एक सांस्कृतिक संकल्पना है। इसके अनुसार समान
भौगोलिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के उस समूह को राष्ट्र कहते हैं
जो समान सांस्कृतिक विरासत धारण करते हैं और इसके कारण एक-दूसरे के साथ भावनात्मक
रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं; जिन्हें लगता है कि वे एक ही नियति से बँधे हैं, जो एकसमान
सामूहिक लक्ष्यों से प्रेरित होते हैं और उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते
हैं। लेकिन, टैगोर ने राष्ट्रवाद को देशभक्ति से भिन्न
माना।
टैगोर
ने राष्ट्रवाद की संकल्पना को यूरोपीय देन मानते
हुए इसे सांस्कृतिक की बजाय एक राजनीतिक-आर्थिक संकल्पना के रूप में
देखा। सन् 1913 में नोबल पुरस्कार
मिलने के बाद टैगोर को विश्व-भ्रमण का अवसर मिला और इसी क्रम में सन् 1917 में राष्ट्रवाद के बुखार में तड़प रहे जापान की यात्रा के दौरान उन्होंने राष्ट्रवाद की तीखी
आलोचना की थी जिसके कारण उन्हें
जापान से बगैर भाषण दिए वापस आना पड़ा। इस
यात्रा के दौरान जारी वक्तव्यों और भाषणों को सन् 2003 में
संकलित करते हुए ‘नेशनलिज्म’ के नाम से प्रकाशित किया गया। सन् 1917 की जापान-यात्रा के दौरान ‘नेशनलिज्म इन इंडिया’ नामक निबंध में टैगोर ने राष्ट्र-राज्य (Nation-State) की आलोचना करते हुए
लिखा कि “राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में
वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल प्राप्त करने का
प्रयास है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त
हुई हैं। शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने देशों में
पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को
अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे
जीवन के साथ खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद
की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को
नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसी
परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है। फलस्वरूप, समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह
नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है। दुर्बल और असंगठित पड़ोसी
राज्यों पर अधिकार करने
की कोशिश
राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इससे
पैदा हुआ
साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता
है।”
राष्ट्रवाद का विध्वंसक
रूप: फासीवाद:
फासीवाद तथा साम्यवाद की तुलना करते
हुए उन्होंने फासीवाद को साम्यवाद से कहीं अधिक
खतरनाक माना और उसे ‘असह्य निरंकुशवाद’
की संज्ञा दी, क्योंकि उस व्यवस्था में हर चीज नियंत्रित होती है। उन्होंने फासीवादियों
को राष्ट्रवाद के पागलपन का प्रतीक मानते हुए वे कहते हैं कि फासीवाद के प्रवर्तन से पहले राष्ट्रवाद आर्थिक विस्तारवाद
तथा उपनिवेशवाद से जुड़ा हुआ था। पर, बाद में मशीनीकरण के
साथ यांत्रिक सभ्यता के विकास ने राजनीतिक सर्वसत्तावाद के उदय के लिए अनुकूल
परिस्थितियाँ निर्मित की। इसके परिणामस्वरूप
एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें बहुत हद तक न तो मानवीय मूल्यों के लिए जगह रह
गयी और न ही मानवीय संवेदनाओं के लिए। इस
संदर्भ में देखें, तो टैगोर बेनितो मुसोलिनी की इस बात से बहुत हद तक सहमत प्रतीत
होते हैं कि “राष्ट्र राज्य का निर्माण नहीं
करता, अपितु राज्य द्वारा राष्ट्र का निर्माण होता है।” उन्होंने देखा कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किस
प्रकार राष्ट्रवाद ने राज्य की शक्ति को बढ़ाया और तदनुरूप राज्य के द्वारा राष्ट्रवाद
को काफी सराहा गया। इस बात की पुष्टि आज के
परिप्रेक्ष्य से भी होती है। आज भी राष्ट्र
एवं राष्ट्रवाद शासन में मौजूद लोगों के हाथों को मजबूती प्रदान करने का साधन है
और उनके द्वारा अक्सर इसका इस्तेमाल अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए
किया जाता है।
समाज को राज्य से अधिक
महत्व:
आधुनिक उदारवादी चिन्तक टैगोर
व्यक्ति-स्वातंत्र्य के प्रबल हिमायती हैं और शायद इसलिए भी उन्होंने राष्ट्रवाद
को व्यक्ति की स्वतंत्रता के रास्ते में बाधक मानते हुए उसकी आलोचना की है। वे समाज को मानवीय
विकास के लिए आवश्यक बतलाते हुए उसे
राष्ट्र की तुलना में कहीं अधिक प्रमुखता देते हैं। उनका मानना है कि जहाँ राष्ट्र व्यक्ति की
रचनात्मकता को बाधित करता है, वहीं समाज इसे प्रोत्साहित करता है।
मानवता पर देशभक्ति को
तरजीह:
टैगोर राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति को मानवता एवं विश्वबंधुत्व की
संकल्पना के प्रतिकूल मानते थे। उनका मानना था कि “देशभक्ति चहारदिवारी से बाहर के विचारों से जुड़ने की
आजादी से हमें रोकती है। साथ ही, दूसरे देशों की जनता के दुख-दर्द को समझने की
स्वतंत्रता भी सीमित कर देती है।”
उन्होंने इसके लिए अपनी आलोचना का जवाब देते हुए कहा था कि “देशभक्ति हमारा आखिरी
आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता है।” टैगोर मानवता को राष्ट्रीयता से ऊपर रखते थे और उनका टैगोर का
कहना था कि “जब तक मैं जिंदा हूँ, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूँगा।”
यही कारण है कि उन्होंने
एशिया की आजादी की हिमायत तो की, पर आज़ादी उनकी प्राथमिकता में शीर्ष पर नहीं थी। उन्होंने
नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के प्रश्न को कहीं अधिक महत्व दिया और राजनीतिक आज़ादी
के प्रश्न को उन्होंने उसकी तुलना में कहीं कम महत्व दिया। उस समय चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर भी वे
बहुत उत्साहित नहीं थे, क्योंकि उनका यह विश्वास
था कि भारत राजनीतिक आजादी से शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। उनका मानना था कि आर्थिक रूप से भारत भले ही पिछड़ा हो, पर उसे मानवीय मूल्यों की दृष्टि से पिछड़ा नहीं
होना चाहिए। उन्होंने राष्ट्र की धारणा को भारत के
साथ-साथ वैश्विक स्तर पर खारिज करने की आवश्यकता पर बल दिया और भारत से यह अपेक्षा
की कि वह पश्चिमी राष्ट्रवाद से दूर रहते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में अपनी महती
भूमिका का निर्वाह करे और पूर्व की तरह मानवीय एकता के आदर्शों को हासिल करने के
लिए समस्त विश्व का मार्गदर्शन करे।
राष्ट्रवाद और भारत:
रवींद्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के खिलाफ
थे और उन्होंने राष्ट्रवाद को बहुत बड़ा खतरा मानते हुए कहा कि यह भारत की कई समस्याओं की जड़ है। उन्होंने भारत
में राष्ट्रवाद की संभावनाओं को खारिज करते हुए इसे राष्ट्र-रहित देश माना और यूरोप से भारतीय परिस्थितियों की भिन्नता की ओर
इशारा करते हुए कहा कि भारत विभिन्न प्रजातियों का देश था और इसके सामने इन
प्रजातियों में समन्वय बनाए रखने की चुनौती थी, जबकि यूरोपीय देशों के सामने
प्रजातियों के समन्वय की ऐसी कोई चुनौती नहीं थी। इस भिन्नता के मद्देनज़र ही टैगोर
ने राष्ट्रवाद को भारतीय परिस्थितियों के प्रतिकूल
माना। उन्होंने यूरोपीय राष्ट्रों के लिए भविष्य के खतरों के रूप में
इसकी पहचान करते हुए कहा कि इस भिन्नता के बावजूद यूरोपीय राष्ट्र राष्ट्रवाद
रूपी मदिरा का सेवन कर अपनी आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक एकता को खतरे में डाल
रहे हैं और भविष्य में उन्हें भी प्रजातीय समन्वय की उन चुनौतियों का सामना करना
होगा जिसका सामना सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैविध्य के मद्देनज़र भारत को करना पड़ रहा
था। उस स्थिति में उन्हें या तो अन्य प्रजातियों के लिए अपने दरवाज़े बंद करने
होंगे, या फिर उन्हें कुचलते हुए अधीनस्थ प्रजाति का रूप देना होगा। इससे भिन्न भारतीय समाज में मौजूद आत्मसातीकरण की प्रक्रिया की ओर
इशारा करते हुए टैगोर ने बंग-भंग आन्दोलन(1905) के समय लिखे गए निबंध ‘स्वदेशी समाज’
में यह कहा कि “आर्यों ने जब भारत पर आक्रमण किया, तब किस
तरह यहाँ की स्थानीय जातियों ने उन्हें अपने भीतर समा लिया। बाद में फिर मुसलमान
आएँ, उन्हें भी इसी तरह अपना लिया गया।”
टैगोर ने एक राष्ट्र के रूप में भारत में अन्तर्निहित संभावनाओं को
खारिज करते हुए कहा कि “भारत की समस्या राजनीतिक नहीं, सामाजिक है। यहाँ राष्ट्रवाद
नहीं के बराबर है।” उन्होंने भारत की सामाजिक रूढ़ियों को राष्ट्रवाद के विकास में बाधक
मानते हुए यह कहा कि “भारत में पश्चिमी
देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक काम में अपनी रूढ़िवादिता का हवाला देने वाले लोग जब
राष्ट्रवाद की बात करें, तो वह कैसे प्रसारित होगा?” इस
सन्दर्भ में अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि “भारत में कभी सही मायने में देशभक्ति
की भावना नहीं रही। बचपन से ही मुझे
सिखाया गया था कि देश का सम्मान करना ईश्वर की पूजा और मानवता का आदर करने से
ज्यादा जरूरी है। मैंने अब उस सबक को छोड़ दिया है और
मेरा मानना है कि मेरे देशवासी अपने भारत को सही मायने में तभी आगे ला पायेंगे, जब वे अपने शिक्षकों की उस शिक्षा का विरोध करेंगे कि
देश मानवता के आदर्शों से ज्यादा बड़ा है।”
राष्ट्रवाद का
स्विस-मॉडल भी अनुकरणीय नहीं:
भारतीय समाज की बहुधार्मिकता, बहुभाषीयता
एवं बहुजातीयता को ध्यान में रखते हुए अक्सर राष्ट्रवाद के स्विस-मॉडल की
प्रासंगिकता की बात की जाती है, लेकिन टैगोर ने इसे खारिज करते हुए कहा कि “स्विटजरलैंड तथा
भारत में काफी फ़र्क एवं भिन्नताएँ हैं।
वहाँ व्यक्तियों में जातीय भेदभाव नहीं है और वे आपसी मेल-जोल रखते हैं
तथा आपस में विवाह करते हैं, क्योंकि वे अपने को एक ही रक्त के
मानते हैं। लेकिन, भारत में जन्माधिकार समान नहीं है। जातीय विभिन्नता तथा पारस्परिक भेद-भाव के कारण भारत में उस
प्रकार की राजनीतिक एकता की स्थापना करना कठिन दिखाई देता है, जो किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत आवश्यक है।” वर्ण
एवं जाति की रूढ़ियों और इसके रोटी-बेटी के संबंध पर आधारित होने के कारण भारत में
वैसी एकता मुश्किल है। इसी आलोक में टैगोर का
मानना है कि समाज द्वारा बहिष्कृत होने के भय से भारतीय डरपोक एवं कायर हो गए हैं।
ऐसी स्थिति में राजनीतिक स्वतंत्रता उस समाज
के प्रभुत्वशाली समूह के पक्ष में साबित होगी और यह एक ऐसे निरंकुश राज्य की
संभावनाओं को बल प्रदान करेगा जिसमें राजनीतिक मतभेद रखने वाले भिन्न मतों के
लोगों का जीना दूभर हो जाएगा। टैगोर की इस आशंका को आज के परिप्रेक्ष्य में देखें,
तो यह शत-प्रतिशत सत्य साबित हो रही है। इसीलिए टैगोर
का यह निष्कर्ष है कि न तो भारत में यूरोप जैसा राष्ट्रवाद है और न ही भारत
में यूरोप जैसा राष्ट्रवाद कभी पनप सकता है।
राष्ट्रवाद की आलोचना
के प्रमुख आधार:
राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के सन्दर्भ
में टैगोर की धारणा भी अल्बर्ट आइंस्टाइन से
मिलती-जुलती है। अल्बर्ट आइंस्टाइन के अनुसार, “राष्ट्रवाद
एक बचकाना बीमारी है और यह मानव जाति का चेचक है।” टैगोर विश्व-बंधुत्व
के प्रबल हिमायती थे और इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद की बजाय अन्तर्राष्ट्रवाद की
वकालत की। उन्होंने राष्ट्रवाद को इसके रास्ते में मौजूद महत्वपूर्ण अवरोध के रूप
में देखा और इसे मानव एवं मानवता के लिए खतरा बतलाया। उन्होंने तीन आधारों पर राष्ट्रवाद
की आलोचना की:
1. राष्ट्र-राज्य
की आक्रामक नीति,
2. प्रतिस्पर्धी
वाणिज्यवाद की अवधारणा, और
3. प्रजातिवाद।
उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के
स्वार्थ का ऐसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता और
आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं रह पाता है। उनकी दृष्टि में, न तो राष्ट्र की शक्ति में
वृद्धि पर कोई नियंत्रण संभव है और न ही इसके विस्तार की कोई सीमा है। उसकी इस
अनियांत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित हैं। इसीलिए यह निर्माण
का मार्ग नहीं, बल्कि विनाश का मार्ग है जो विभिन्न
मानव-समुदायों के बीच घृणा, वैमनस्य और टकराव को उत्पन्न करता है। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद
के खतरों की दिशा में संकेत करते हुए कहा कि “मानव
की सहिष्णुता तथा उसमें स्थित नैतिकताजन्य परमार्थ की भावना राष्ट्र की
स्वार्थपरायण नीति के चलते समाप्त हो जायेंगे।” उन्होंने
शोषण के अमानवीय उपकरण के रूप में राष्ट्रवाद के
इसी रूप की आलोचना की, जिसमें नृशंसता, रुग्णता तथा पृथकता दिखाई देती है। चूँकि
राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य-शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता
है, इसीलिए युद्धोन्माद को बढ़ाता हुआ राष्ट्रवाद
अपने समाज-विरोधी रूप में उपस्थित होता है। लेकिन, यह समाज का ही नहीं, व्यक्ति का
भी विरोधी है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य के
समर्थक टैगोर को राष्ट्र के समक्ष व्यक्ति एवं उसकी स्वतंत्रता का समर्पण
स्वीकार्य नहीं था। इसीलिए वे संकीर्ण राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए इसे मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं
आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा मानते हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन में
टैगोर की भूमिका:
टैगोर राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और
राष्ट्रवाद की संकल्पना के मुखर विरोधी थे, इसीलिए राष्ट्रीय आन्दोलन से उनकी दूरी
स्वाभाविक थी। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति वे उदासीन रहे। उन्होंने वैचारिक एवं सांस्कृतिक धरातल
पर विमर्श को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व को प्रभावित करते हुए उसके वैचारिक आधार को निर्मित
करने में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभायी। दिसंबर,1911 में कलकत्ता में आयोजित
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया था और इसी अधिवेशन के
दौरान उन्होंने पहली बार राष्ट्रगान गाया था। इससे पूर्व सन् 1905 में बंग-भंग आन्दोलन
का विरोध करते हुए उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया और इसके विरोध में
रक्षा-बंधन दिवस मनाते हुए विरोध-प्रदर्शन का आह्वान किया। उन्होंने स्वदेशी
आन्दोलन के दौरान सन् 1905 में ही ‘आमार सोनार बांग्ला’ लिखकर जन्मभूमि के प्रति
अपने प्रेम का इज़हार किया और बांग्ला एकता का आह्वान किया। जब रौलट एक्ट के
विरोध में आन्दोलन उठ खड़ा हुआ, तो उन्होंने
अपने भाषणों और लेखों के माध्यम से ब्रिटिश शासन और उसकी दमनकारी नीतियों की घोर
निंदा की। आगे चलकर उन्होंने
जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड,1919 की प्रतिक्रिया में ‘नाईटहुड’ का सम्मान त्यागते
हुए इस घटना के प्रति अपना विरोध-प्रदर्शन किया और ‘सर’ की उपाधि अंग्रेज़ी सरकार
को लौटा दी। लेकिन, सन् 1920 में जब असहयोग आन्दोलन के दौरान
स्वदेशी पर जोर देते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया गया, तो
उन्होंने विदेशी वस्त्रों को जलाये जाने की घटना की खुलकर आलोचना करते हुए कहा कि
यह ‘संसाधनों की निष्ठुर बर्बादी’ है। सन् 1930 में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन का
आह्वान किया गया, तो उन्होंने उसका समर्थन किया।
राष्ट्रीय
आन्दोलन को सशर्त समर्थन:
राष्ट्रीय आन्दोलन से उनकी दूरी निर्विवाद थी और इसके पीछे उनकी यह मान्यता थी कि:
1. अति-राष्ट्रवाद और स्वदेशी का प्रबल आग्रह पश्चिम एवं विदेशी के
पूरी तरह से नकार का आधार तैयार करेगा और ऐसी स्थिति में भारत खुद तक सीमित होकर रह जाएगा।
2. यह चाह सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं से भरे भारत
जैसे देश में ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम
धर्म के प्रति भी असहिष्णुता का माहौल सृजित करेगा, जबकि इन्होंने अलग-अलग समय पर भारतीय समाज एवं संस्कृति पर
अपनी ऐसी छाप छोड़ी है जो इनके अस्तित्व से अभिन्न हो चुकी है।
स्पष्ट है कि टैगोर आज़ाद
भारत की कल्पना करते थे और इसीलिए उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध किया, लेकिन आज़ादी
से जुड़े आंदोलनों को टैगोर का समर्थन बिना शर्त नहीं था। उन्होंने मानवतावाद को हमेशा देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद से ऊपर रखा, इसीलिए उन्होंने सशस्त्र विद्रोह एवं क्रांति सहित किसी भी प्रकार के हिंसक
आन्दोलन का खुलकर विरोध किया।
यहाँ तक कि उन्होंने अतिरेक राष्ट्रवादी
रुख की लगातार आलोचना की और राष्ट्रीय आन्दोलन के अतिरेकवादी राष्ट्रवाद के आग्रह
ने उन्हें समकालीन राजनीति से दूर रहने के लिए विवश किया। लेकिन, सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए भी उन्होंने आजादी
के आन्दोलन के वैचारिक आधार को तैयार करने और ज़रुरत पड़ने पर उसके एजेंडे के
निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जब अछूतों के मसले पर गाँधी
और अम्बेडकर के बीच मतभेद उभरकर सामने आये और ऐसा लगा कि उपनिवेशवाद-विरोधी
संयुक्त मोर्चा खतरे में है, तो उन्होंने दोनों के बीच के मतभेद को कम करते हुए
संकट के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दूसरे शब्दों में कहें, तो जब-जब राष्ट्रीय
आंदोलन पर संकट के बदल मँडराये, बतौर अभिभावक उन्होंने उसके प्रति सहानुभूति
प्रदर्शित करते हुए उस संकट के समाधान में अपनी भूमिका का निर्वाह किया।