आर्थिक
उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के बहाने पूँजीवाद, आर्थिक नव-उदारवाद और बाजारोन्मुखी
अर्थव्यवस्था के इस दौर में व्यावहारिक धरातल पर श्रमिकों के अधिकार सीमित एवं
सामाजिक सुरक्षा-संजाल कमजोर पड़ते चले गए, जबकि उनकी कीमत पर कॉर्पोरेट समूह एवं
कारोबारी वर्ग का मुनाफा बढ़ता चला गया। यहाँ तक कि श्रमिकों के अधिकारों के लिए
संघर्ष करने वाले ट्रेड यूनियन्स की गतिविधियाँ भी सीमित होती चली गईं और उनका
एजेंडा भी बदला। 2011-12 में संगठित क्षेत्र में अनौपचारिक रोजगार 2004-05 के 48%
से बढ़कर 54.6% के स्तर पर पहुँच गया। और, अब आर्थिक ठहराव के बहाने
श्रम-सुधार के नाम पर श्रमिकों के उन अधिकारों को सीमित करने की कोशिश हो रही है
जो उन्हें लम्बे संघर्ष के बाद मिला।
श्रम-सुधारों से आशय:
श्रम-सुधारों का मतलब
श्रम-बाजार का विभाजन करते हुए उसे संगठित एवं असंगठित क्षेत्र में बाँटकर देखना
और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के विरोध में खड़ा
करना नहीं है. इसका मतलब एक ओर संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के साथ-साथ असंगठित क्षेत्र
के श्रमिकों के हितों के संरक्षण एवं संवर्द्धन को सुनिश्चित करना है, दूसरी ओर
उद्यमियों की चिंताओं का समाधान करते हुए उद्यमता एवं निवेश के अनुकूल माहौल सृजित
करना है, ताकि आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया त्वरित हो जिससे रोजगार-अवसरों के
सृजन की संभावना को बल मिले. लेकिन, इस क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखने की
जरूरत है कि ऐसा कोई भी सुधार श्रमिक-विरोधी नहीं हो, अन्यथा ऐसे सुधारों के लिए
श्रमिक-संगठनों के साथ-साथ राजनीतिक दलों का समर्थन जुटा पाना मुश्किल हो जाएगा,
जैसा अबतक होता है. इस क्रम में यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि ट्रेड यूनियन और
श्रमिक-संगठन श्रम-सुधारों के विरोध में नहीं है, वरन् वे उन सुधारों के विरोध में
हैं जो उद्यमी एवं प्रबंधन के पक्ष में और श्रमिक-हितों के विरोध में हैं।
श्रम-सुधारों
की पृष्ठभूमि:
पिछले कई दशकों से जारी भारतीय
श्रम-नीति का समाजवादी रूझान जगजाहिर है जो उद्यमियों एवं फैक्ट्री-प्रबंधन की
तुलना में श्रमिकों के पक्ष में है। साथ
ही, श्रम-कानूनों की बहुलता
और जटिलता के कारण इनकी अनुपालन-लागत बहुत ज्यादा है। इतना ही नहीं, सख्त श्रम-कानूनों
के दायरे में आने से बचने के लिए भारतीय कंपनियाँ खुद को छोटे स्तर पर समेटकर रखना
पसंद करती हैं। फलतः उद्यमता एवं निवेश के साथ-साथ संवृद्धि
एवं रोजगार-अवसरों का सृजन प्रतिकूलतः प्रभावित होता है। इसीलिए यह आरोप
लगाया जाता है कि श्रम-कानूनों में श्रमिकों को निष्कासित होने से बचाने के लिए जो
तमाम प्रावधान किए गए हैं, वे वास्तव में अनुत्पादक और निष्क्रिय कर्मचारियों के
लिए अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ ढाल बन गए हैं। इसके बावजूद इससे अगर मजदूरों का भला होता, तो
इस स्थिति को स्वीकारा जा सकता था, पर इससे न तो मजदूरों का भला हो पा रहा है और न
उद्यमियों का। उद्यमियों
एवं उद्यमता के तो यह प्रतिकूल ही है। यह स्थिति विडम्बनात्मक ही कही जायेगी कि
श्रम-बाजार में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की (88-90)% हिस्सेदारी के बावजूद यह संगठित
क्षेत्र के श्रमिकों के पक्ष में है; जबकि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के सन्दर्भ
में रोजगार-सुभेद्यता भी ज्यादा है और सामाजिक सुरक्षा-संजाल भी अत्यंत कमजोर हैं।
लेकिन, इस मसले की जटिलता को समझे जाने की जरूरत है।
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vf/fu;e और छंटनी: देश में विद्यमान श्रम-प्रावधानों में सर्वाधिक
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2. उद्यमता एवं श्रम-बाज़ार की गतिशीलता पर प्रतिकूल असर: भारत में मौजूद
सूक्ष्म, लघु एवं माध्यम उपक्रमों में 95% इकाइयाँ सूक्ष्म इकाइयों की श्रेणी में
आती हैं, 4.5% इकाइयाँ लघु इकाइयों की श्रेणी में और 0.5% इकाइयाँ माध्यम श्रेणी
की इकाइयों में, जबकि जैसे-जैसे इकाइयों का आकार बढ़ता है, उसकी उत्पादकता भी बेहतर
होती जाती है और श्रमिकों की उत्पादकता भी, जिसके कारण श्रमिकों को बेहतर रिटर्न
मिलते हैं। इसका कारण यह है कि श्रम कानूनों की जकड़न और सरकार के द्वारा उपलब्ध कराई
जाने वाली सुविधाओं का लाभ उठाते रहने के लिए ये इकाइयाँ अपने आकार को छोटा ही
बनाये रखना चाहती हैं, अन्यथा छोटे आकार के कारण मिलने वाले लाभों एवं सुविधाओं से
उन्हें वंचित होना पड़ सकता है, जबकि इनसे यह अपेक्षा की जाती है कि ये गतिशीलता
प्रदर्शित करते हुए खुद को सूक्ष्म से लघु में, लघु से मध्यम में एवं मध्यम से
बृहत् उद्योगों में रूपांतरित करते हुए उद्यमता-बाजार में गतिशीलता सुनिश्चित करें। लेकिन, ऐसा न हो पाने का प्रतिकूल असर पूँजी
एवं श्रमिकों की उत्पादकता पर पड़ रहा है और अंततः यह अर्थव्यवस्था के साथ-साथ
श्रमिकों की बेहतरी की संभावना को बाधित करता है। संक्षेप में कहें, तो कठोर एवं
जटिल श्रम-कानूनों के कारण उद्यमता-बाज़ार के साथ-साथ श्रम-बाज़ार की गतिशीलता प्रतिकूलतः
प्रभावित हो रही है। साथ ही, इसके कारण संगठित क्षेत्र का विस्तार भी प्रभावित हो
रहा है। स्वाभाविक है कि इससे रोजगार-अवसरों के सृजन पर भी प्रतिकूल असर पड़े।
ध्यातव्य है कि श्रम-बाजार की गतिशीलता से आशय
श्रमिकों का अकुशल श्रम से कुशल श्रम की ओर, असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र की
ओर और सूक्ष्म से बृहत् उद्योगों की ओर प्रस्थान, जो श्रमिक-उत्पादकता में वृद्धि
की संभावनाओं को बल प्रदान करता है और निश्चय ही इससे श्रमिकों के लिए बेहतर
रिटर्न, बेहतर रोजगार-सुरक्षा और बेहतर सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।
3. निम्न एवं असमान वेतन-अनुपात: भारतीय श्रम-बाज़ार
में नियमित
एवं संविदा श्रमिक(Contract Labour)
का स्पष्ट
विभाजन दिखता
है। इनमें मजदूरी,
रोजगार-सुरक्षा, अन्य सुविधाओं और सामूहिक मोल-भाव की क्षमता
को लेकर
फर्क है। यदि इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया
जाय, तो नियमित एवं
अनियमित क्षेत्र के इन श्रमिकों के मूल में
मौजूद है संगठित एवं
असंगठित क्षेत्र का फर्क, श्रमिकों की निम्न श्रम-उत्पादकता, अपेक्षाकृत कम उत्पादकता वाली इकाइयों का बहुलांश में
होना और इन सब कारणों से मजदूरों के मेहनताने का कम होना है। भारत
की छह करोड़ औद्योगिक इकाइयों में
से केवल
12
लाख ही अनिवार्य सामाजिक सुरक्षा का भुगतान करती
हैं, जबकि इनमें
से केवल
18,000
इकाइयों की ही चुकता
पूँजी 10 करोड़ रुपये
से अधिक
है। विनिर्माण में लगी
इकाइयों में 90 फीसदी इकाइयों की उत्पादकता बाकी
10
फीसदी इकाइयों की तुलना
में 24 गुना कम है।
4. संविदा
श्रमिकों की समस्या: आज श्रम-बाज़ार में नियमित एवं अनुबंध श्रमिक का
स्पष्ट विभाजन दिखता है जिनमें मजदूरी, रोजगार-सुरक्षा, अन्य सुविधाओं और सामूहिक
मोल-भाव की क्षमता को लेकर फर्क है। संविदा श्रमिकों को
उन श्रमिक अनुबंधकर्ताओं (Labour Contractors) के द्वारा अनुबंधित किया जाता है जो
नियोक्ता से संविदा श्रमिकों के आपूर्तिकर्ता के रूप में सूचीबद्ध होते हैं और
इन्हीं के द्वारा उन्हें वेतन का भुगतान किया जाता है। इसीलिए संविदा श्रमिकों को नियोक्ता
न तो अपना कर्मचारी मानते हैं और न ही उनके मसले पर ट्रेड यूनियन से किसी भी
प्रकार की बातचीत के लिए तैयार होते हैं।
a. ट्रेड यूनियन अधिनियम और संविदा श्रमिक: ट्रेड यूनियन
अधिनियम,1926 के तहत् फैक्ट्री में काम करने वाला कोई भी श्रमिक ट्रेड यूनियन का
सदस्य हो सकता है। इस अधिनियम की धारा
2(g) विवादों के सन्दर्भ में उस उपक्रम में कार्यरत सभी श्रमिकों, चाहे उनका नाम
उस नियोक्ता की रोजगार-सूची में है अथवा नहीं, को ट्रेड यूनियन के सन्दर्भ में
‘कामगार’ के रूप में परिभाषित करती है। लेकिन, ट्रेड यूनियन प्रबंधन के साथ टकराव से बचने के लिए केवल स्थाई
श्रमिकों को ही अपना सदस्य बनाते हैं। अतः उनके द्वारा सामान्यतः संविदा श्रमिकों को सदस्यता एवं मताधिकार प्रदान करने से परहेज़ किया जाता है। दूसरी बात, ट्रेड यूनियनिस्ट और स्थाई श्रमिक
अपने प्रभाव कम होने की आशंका के कारण खुद ही अनुबंध श्रमिकों तक यूनियन की
सदस्यता का विस्तार नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि स्टील एवं कोयला-क्षेत्र से सम्बन्धित सार्वजनिक
उपक्रमों को छोड़कर भारतीय अनुबंध श्रमिक शोषित हैं, यूनियन-गतिविधियों से असम्बद्ध
हैं और ये दोनों एक-दूसरे को उत्प्रेरित कर रहे हैं।
b.संविदा श्रमिकों के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का
निर्णय: हाल में सुप्रीम
कोर्ट ने सार्वजानिक क्षेत्र में नियुक्त संविदा श्रमिकों को नियमित श्रमिकों के
समान वेतन दिए जाने की बात करते हुए कहा कि संविदा श्रमिकों, अस्थाई श्रमिकों,
दिहाड़ी मजदूरों एवं अनौपचारिक श्रमिकों को ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ न देना
उनका शोषण है और यह मानवीय गरिमा के प्रतिकूल है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का नियमित श्रमिकों
और अनुबंध श्रमिकों, चाहे वे सार्वजानिक क्षेत्र से सम्बद्ध हों या फिर निजी
क्षेत्र से, के बीच विद्यमान वैषम्य पर प्रहार करता है। इसका इस वैषम्य पर तत्काल एवं सकारात्मक प्रभाव
पड़ना चाहिए, लेकिन ऐसा होने की दूर-दूर तक संभावना नहीं है क्योंकि ट्रेड यूनियन
संविदा श्रमिकों की समस्या को लेकर उदासीन हैं।
c. संविदा श्रमिक (नियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम,1970: इस अधिनियम को स्थाई एवं नियमित श्रमिकों के
हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था। इसके मद्देनज़र यह अधिनियम सफाई, बागवानी और रखरखाव जैसे
अमहत्वपूर्ण कामों के लिए संविदा श्रमिकों (Contract Labour) के प्रयोग की तो अनुमति देता है, पर उत्पादन जैसी मुख्य
गतिविधियों के लिए संविदा श्रमिकों के प्रयोग पर रोक लगता है। इसके बावजूद संविदा श्रमिकों के आपूर्तिकर्ता
ठीकेदार संविदा श्रमिकों को सफाईकर्मी के रूप में फैक्ट्री में प्रवेश दिलाते हुए
आसानी से इस प्रावधान की अनदेखी करते हैं और एक बार फैक्ट्री-स्थल में प्रवेश के
बाद उन्हें उत्पादन के काम में लगा दिया जाता है। इसकी निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है।
स्पष्ट है कि यह
अधिनियम संविदा श्रम के उन्मूलन के लिए लाया गया था, लेकिन इसने इसके लिए लीगल
फ्रेमवर्क प्रदान कर उनके शोषण एवं उत्पीडन को संस्थागत मजबूती प्रदान की। व्यावहारिक धरातल पर यह कानून अप्रभावी बना रहा क्योंकि आरंभ में संविदा
श्रमिकों का प्रयोग सफाई, बागवानी और रखरखाव जैसे अमहत्वपूर्ण कामों के लिए हुआ,
पर अब तो उत्पादन-गतिविधियों के लिए भी इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा है। साथ ही, न तो इन्हें कानून के मुताबिक मजदूरी मिलती है और न ही समयावधि पर
मजदूरी का भुगतान होता है। दुगुनी दर से ओवरटाइम, कर्मचारी राज्य बीमा(ESI) और प्रोविडेंट
फण्ड (PF) जैसी सुविधाओं की तो बात ही छोड़ दें। इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम के पहले
तक स्थाई एवं अस्थाई श्रमिक, दोनों ट्रेड यूनियन के सदस्य के रूप में नियोक्ता के
समक्ष दावे और उनके साथ मोलभाव कर सकते थे, लेकिन इस अधिनियम ने नियोक्ता एवं मूल
नियोक्ता के बीच विभेद कर अनुबंधीकरण के विस्तार की संभावना को बनाये रखा।
5. श्रमिक
हितों का संरक्षण और मजदूर संगठन: ट्रेड यूनियन ऐक्ट,1926 के अधीन पंजीकृत देश के करीब 20,000 छोटे-बड़े मजदूर संगठन देश के पाँच प्रमुख केंद्रीय मजदूर संगठनों:
कांग्रेस से संबद्घ इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC), भाजपा से
सम्बद्ध भारतीय मजदूर संघ (BMS), भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्घ आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी(CPM) से संबंधित
सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (CITU) और स्वतंत्र संगठन हिंद मजदूर संघ(HMS) से
जुड़े हुए हैं। भारत में मजदूर संगठनों की सदस्यता का अनुपात अमेरिका(10%) और
ब्रिटेन(7%) जैसे समृद्ध देशों से भी अधिक है। भारत में कुल श्रम-शक्ति का 15
फीसदी हिस्सा मजदूर संगठनों से जुड़ा है, लेकिन इन संगठनों के
तकरीबन 90% सदस्य संगठित क्षेत्र से आते हैं। स्पष्ट है कि ये श्रमिक संगठन महज
संगठित क्षेत्र के श्रमिकों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए मजदूर संगठनों
में हिस्सेदारी के पैमाने पर भारत अमेरिका और ब्रिटेन से पीछे नजर आता है।
a. अप्रासंगिक होते मजदूर संगठन: पश्चिमी
देशों में ही नहीं, भारत में भी इन संगठनों को महत्ता पिछले तीन दशकों के दौरान
तेजी घटी है क्योंकि एक तो पिछले तीन-चार दशकों के दौरान दुनिया के विभिन्न देशों
में आर्थिक नीतियों को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच फर्क लगातार कम होता चला
गया है और दूसरे राष्ट्रीय सरकारों पर कॉर्पोरेट सेक्टर का शिकंजा लगातार कसता चला
गया है जिसके कारण इनके द्वारा हड़तालों को कानूनन हतोत्साहित करने की रणनीति
अपनायी गयी है। इतना ही नहीं, इन श्रमिक संगठनों के नेतृत्व ने भी श्रमिकों एवं
श्रमिक हितों को महत्व देने के बजाय कॉर्पोरेट सेक्टर एवं प्रबंधन को तरजीह देते
हुए अपने हितों को साधने में कहीं अधिक रुचि प्रदर्शित की जिसके कारण उनकी
विश्वसनीयता प्रभावित हुई और साथ ही, मजदूरों पर पकड़ भी। असंगठित क्षेत्र के
मजदूरों के साथ-साथ अनौपचारिक श्रमिक इनकी चिंता के दायरे में ही नहीं आते हैं। यही
कारण है कि भारतीय श्रमिक संगठन विश्वसनीयता के गंभीर संकट से गुजर रहे हैं और यही
संकट उनके अवसान एवं उसके अप्रासंगिक होने का महत्वपूर्ण कारण है जो चिंता का विषय
है, उस राष्ट्र के लिए भी और श्रमिकों के साथ-साथ उन मजदूर संगठनों के लिए भी।
वैश्वीकरण से इतर यह भी सच है कि एक दौर में अपने एजेंडे को लागू करने के बाद इन
श्रमिक संगठनों के पास मुद्दे शेष नहीं रह गए और ये खुद की भूमिका को
पुनर्परिभाषित करने में असफल रहे जिसके कारण इन्हें अस्तित्व की लडाई लडनी पड़ रही
है।
b. एक बार फिर से प्रासंगिक होते मजदूर संगठन: पश्चिमी देशों, विशेष रूप से पश्चिमी यूरोप में मजदूर संगठनों को सरकार पर
दबाव बनाकर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षित कार्य-परिस्थितियाँ, बेरोजगारी-भत्ता और पेंशन आदि को सुनिश्चित कर पाने में सफलता मिली है।
लेकिन, 1980 के दशक एवं उसके बाद आर्थिक नवउदारवाद ने इन्हें हासिये पर पहुँचा
दिया। यह जितना बड़ा सच पश्चिमी देशों का है, उतना ही बड़ा सच भारत और भारत जैसे
विकासशील देशों का भी। लेकिन, हाल में वैश्वीकरण के खिलाफ प्रतिक्रिया और इसकी
पृष्ठभूमि में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का तेजी से उभार कहीं-न-कहीं इन श्रमिकों की
निराशा एवं हताशा को दर्शाता है और इस बात का संकेत देता है कि एक बार फिर से इन
श्रमिकों को अप्रासंगिक हो चुके मजदूर संगठनों की शिद्दत से जरूरत है। लेकिन, इसके
लिए जरूरी है कि ये मजदूर संगठन श्रमिकों की चिंताओं एवं मुश्किलों को समझें और
बदले हुए समय एवं बदली हुई परिस्थितियों में अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करते
हुए श्रमिकों की अपेक्षाओं पर खड़ा उतरें। लेकिन, अबतक के अनुभवों के आलोक में दूर-दूर
तक ऐसा होता दिखाई नहीं पड़ रहा। आज श्रमिक आन्दोलन के पास ऐसे नेतृत्व का भाव दिख रहा है जिसके पास
श्रमिकों की समास्याओं की समझ हो और जो सम्बद्ध राजनीतिक दलों के बजाय श्रमिकों के
प्रति प्रतिबद्धता के साथ इन समास्याओं के समाधान देने के लिए संघर्ष करने को
तैयार हो। शायद यही कारण है कि श्रमिकों की नज़रों में इन श्रमिक संगठनों की विश्वसनीयता
शून्य के स्तर पर है और इसीलिए मीडिया भी इन्हें तवज्जो देने के लिए तैयार नहीं
हैं। वैसे, इसका एक महत्वपूर्ण कारण मीडिया पर कॉर्पोरेट हाउसों का कसता हुआ
शिकंजा भी है।
संक्षेप में
कहें, तो श्रमिक संगठनों का जड़ों से कटाव और इसकी पृष्ठभूमि में विश्वसनीयता का
संकट भारत की ही नहीं, विकसित देशों के श्रमिकों की भी समस्या है। विकसित देशों के
श्रमिकों की समस्या भारत के श्रमिकों से थोड़ी अलग है, पर 2008-09 के आर्थिक संकट
की पृष्ठभूमि में श्रमिकों से जुड़े हुए बुनियादी मुद्दे एक बार फिर से प्रासंगिक
हो उठे हैं। इसलिए आज इन संगठनों को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो संगठित एवं
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हुए श्रमिक-प्रतिरोध
को कमजोर करने की सरकार की रणनीति को बेनकाब कर सके और यह तभी संभव होगा जब वे
अपने एजेंडे में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों से सम्बद्ध मुद्दों एवं
उनकी चिंताओं को भी प्रमुखता से स्थान दें, ताकि वे असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों
का विश्वास हासिल कर सकें।
c. एजेंडे को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत: अगर इन श्रमिक
संगठनों को अपनी प्रासंगिकता बनाये रखनी है, तो उन्हें असंगठित क्षेत्र के
श्रमिकों को अपने एजेंडे में स्थान देना होगा ताकि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों तक
इनका प्रभाव बढे, अधिकतम श्रम-शक्ति को संगठित क्षेत्र के दायरे में लाने की
रणनीति अख्तियार करने के लिए दबाव बढ़ाना होगा, शहरों में रहने वाले मजदूरों और
उनके बच्चों के जीवन-स्तर में सुधार के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल, आवास
एवं परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं की आसान शर्तों पर उपलब्धता को सुनिश्चित कराने
के लिए सघन अभियान चलाना होगा और नवाचार, उच्च जीवन प्रत्याशा
एवं तीव्र तकनीकी विकास के वर्तमान दौर में श्रमिक-संगठनों को कौशल-विकास को भी
अपना एजेंडा बनाना होगा। अनुकूल निवेश एवं कारोबारी वातावरण के निर्माण की कोशिशों
के विरोध पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय इनका फोकस छंटनी के शिकार श्रमिकों के
लिए बेहतर मुआवजे, उनके पुनर्वास और इसके मद्देनज़र उनके कौशल-विकास को सुनिश्चित
करने पर होना चाहिए। मजदूरों को शिकायत-निवारण के लिए पेपरलेस, प्रेजेंसलेस और कैशलेस (पीपीसी) पोर्टल की माँग करनी चाहिए। साथ ही,
भविष्य-निधि एवं बीमा-सुविधाओं के आसान निपटारे पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
d. शहरीकरण-प्रबंधन: चूँकि भारत लोगों को
स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध करवा पाने की स्थिति में नहीं है और अधिक जन-घनत्व
वाले राज्य विकास के लिहाज से पिछड़े हुए हैं, इसीलिए आने वाले वर्षों में गाँवों
से शहरों की ओर, विकास की दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों से विकसित क्षेत्रों की ओर और
उत्तर एवं पूर्वी भारत से पश्चिम एवं दक्षिण भारत की ओर माइग्रेशन के तेज होने की
सम्भावना है। इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता कि अगले 20 वर्षों में देश की कुल जनसंख्या वृद्धि में उत्तर
प्रदेश, बिहार और ओडिशा का हिस्सा करीब 40 फीसदी रहने वाला है। इतना ही नहीं,
भारत के केवल 45 शहरों की आबादी 10 लाख से अधिक है जबकि कुल छह लाख में से दो लाख गांवों की औसत आबादी 200
से भी कम है। ऐसे में श्रम-संगठनों को ऐसी शहरी नीतियों के अमल पर
जोर देना चाहिए जो सम्मानित और असरदार तरीके से स्वैच्छिक ग्रामीण प्रवास को सुगम
बना सकें।
e. मारुति-सुजुकी विवाद: मारुति-सुजुकी विवाद,2012 उदारीकरण के
पिछले ढाई दशकों के दौरान होने वाले उन अपवाद संघर्षों में है जिसमें नियमित एवं
अस्थाई श्रमिकों ने ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ और अस्थाई श्रमिकों को नियमित
करने के प्रश्न पर रणनीति के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए अपनी लड़ाई लड़ी।
अक्टूबर,2012 में मारूति ने श्रमिक-अनुबंधकर्ताओं (Labour Contractors) के माध्यम
से संविदा श्रमिकों की जगह ‘कम्पनी अस्थाई’(Company Temp) के रूप में एक नयी
व्यवस्था की शुरूआत दिशा में पहल की, जिसके तहत् अस्थाई श्रमिक पाँच माह के लिए
काम करेंगे, फिर पाँच माह के लिए उनकी छुट्टी होगी और इस अवधि के बाद उन्हें अगले
छः महीने के लिए दुबारा रखा जा सकेगा। साथ ही, इन्हें कैंटीन भोजन,
कर्मचारी बीमा, प्रोविडेंट फण्ड आदि सारी सुविधायें मिलेंगी। दूसरी बात यह है कि
मारूति ने एक ऐसे मॉडल को प्रस्तुत किया जिसमें मध्यस्थ श्रमिक अनुबंधकर्ताओं को
दरकिनार करते हुए श्रमिकों की सीधी भर्ती की दिशा में पहल की और इसके जरिये सीधा
लाभ श्रमिकों तक पहुँचाने की कोशिश की; पर बाद में नियमित कर्मियों के वेतन में
वृद्धि के बाद जब अस्थाई श्रमिकों ने वेतन-वृद्धि की माँग की, तो उन्हें नियमित
मजदूरों का साथ नहीं मिला और इस तरह मजदूरी में यह एकता खंडित हुई।
श्रम आयोगों का गठन:
देश में श्रम कानूनों में बदलावों के प्रश्न पर
विचार के लिए 1966 में पहले श्रम आयोग का
गठन 1966 में किया गया, जिसकी सिफारिशें सामान्यत: श्रम-संरक्षण पर केंद्रित थीं और सन् 1999 में
रवींद्र वर्मा की अध्यक्षता में दूसरे श्रम आयोग का गठन किया गया जिसेs आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के आलोक में
अंतरराष्ट्रीय मानदंडों एवं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों को ध्यान में रखते
हुए बाजारोन्मुख भारतीय
अर्थव्यवस्थाओं की आवश्यकताओं के अनुरूप संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के साथ-साथ
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की दशा में सुधार हेतु सुझाव देना था। इस आयोग
ने नियोक्ताओं को छंटनी और तालाबंदी का अधिकार प्रदान किये जाने की सिफारिशें की,
जिन्हें स्वीकारे जाने का मतलब होगा श्रमिक हितों की कीमत पर कॉर्पोरेट हितों का
संवर्द्धन और यह स्थिति श्रमिकों के अनवरत् एवं निर्बाध शोषण का मार्ग प्रशस्त
करेगी।
यही वह
पृष्ठभूमि है जिसमें मानसून-सत्र,2015 में छह दशकों से चले आ रहे श्रम-कानूनों को
निवेश एवं विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने वाला मानते हुए नए प्रस्तावित
श्रम-कानूनों के जरिये कैबीनेट ने श्रम-कानूनों में कुल 54 संशोधनों को अनुमति देते हुए निवेश-अनुकूल वातावरण निर्मित करने की दिशा
में पहल की गयी। प्रस्तावित क़ानून एक ही काननून के अंतर्गत औद्योगिक विवाद
अधिनियम-1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम-1926 और औद्योगिक रोजगार अधिनियम-1946 के समेकन की बात
करता है। दी है। साथ ही, यह फैक्टरी एक्ट, 1948 अप्रेंटिसशिप
एक्ट, 1961; संविदा श्रमिक (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम-1970
और श्रम-कानून अधिनियम,1988 में संशोधन के जरिये में बदलाव का मार्ग प्रशस्त करता
है। प्रस्तावित सुधारों के अंतर्गत 44 मौजूदा कानूनों को वेतन-भत्तों, सामाजिक सुरक्षा,
सुरक्षा-नियम और श्रम-संगठनों से संबद्घ चार व्यापक संहिताओं में
बाँटा जाएगा। प्रस्तावित बदलावों से छोटी कंपनियों के कामकाज को लचीला बनाने,
छंटनी किए जाने वाले कार्मिकों को बेहतर हर्जाना देने, श्रम संगठनों को बेहतर प्रातिनिधिक स्वरूप देने और न्यूनतम वेतन भत्तों का
नया खाका तैयार करने में मदद मिलेगी।
प्रस्तावित संशोधनों की वर्तमान
स्थिति:
श्रम-सुधारों
का नया मसौदा कैबिनेट के बाद लोकसभा के द्वारा पारित किया जा चुका है और इसे
राज्यसभा से पारित किया जाना है, लेकिन श्रम-संगठनों के विरोध के
मद्देनज़र प्रस्तावित संशोधनों को
विचारार्थ स्टैडिंग कमेटी के पास भेजा गया है। साथ ही, श्रम सुधारों के प्रश्न पर
आम सहमति के मद्देनज़र सरकार ने श्रमिक संगठनों के साथ बातचीत करने के लिए
वित्तमंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयीय समिति
बनाई है। श्रम एवं रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, केन्द्रीय
मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान, पीयूष गोयल और जितेंद्र सिंह भी
इसमें शामिल हैं। ट्रेड यूनियन के साथ बैठक में सरकार ने उन्हें भरोसा दिलाया था
कि उनकी आपत्तियों पर गहराई से विचार करते हुए ही कोई निर्णय लिया जायेगा।
प्रस्तावित संशोधन:
1. औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947: प्रस्तावित
संशोधन छंटनी से सम्बंधित प्रावधान को उदार बनाते हैं। औद्योगिक विवाद अधिनियम ले
वर्तमान प्रावधान एक सौ या उससे अधिक कामगार वाले उपक्रमों में छंटनी के पूर्व
सरकार की अनुमति की अपेक्षित थी, लेकिन प्रस्तावित संशोधन इस सीमा को एक सौ से
बढाकर तीन सौ करते हैं। मतलब यह कि जिन कंपनियों में कर्मचारियों की संख्या तीन सौ
तक होगी, वैसी कंपनियों को कामगारों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की
ज़रुरत नहीं होगी। ध्यातव्य है कि करीब दो दशक पहले तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत
सिन्हा ने अपने बजट भाषण में बिना सरकार की मंजूरी के 300 से कम कामगारों वाली
कंपनी के परिचालन बंद करने के संकेत दिए थे, जिसे इन सुधारों का हिस्सा बनाया गया
है।
2. न्यूनतम वेतन अधिनियम,1948: अबतक सरकार अधिसूचित उद्योगों के सन्दर्भ में अधिसूचना के जरिये
श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण करती है और आवश्यकतानुसार समय-समय पर पर
उसकी समीक्षा की जाती रही है। सामान्यतः यह समीक्षा पाँच वर्षों पर होती है। इसके
अलावा मूल्य सूचकांक में होने वाली वृद्धि के अनुरूप हर छमाही महंगाई भत्तों की भी
समीक्षा भी की जाती है। संशोधन के बाद न्यूनतम वेतन से सम्बंधित प्रावधान को उदार
बनाया जायेगा और इसके सन्दर्भ में कारोबारी समूह को छूटें मिल जायेंगी।
3. फैक्ट्री अधिनियम,1948: फैक्ट्री
अधिनियम जिन कारखानों पर लागू होता है, उनके मानदंडों में भी बदलाव की दिशा में
पहल की गयी। अब तक दस कामगारों वाली पॉवर-चालित फैक्ट्रियाँ और बीस कामगारों वाली
गैर-पॉवर चालित फैक्ट्रियाँ पर इस अधिनियम के प्रावधान लागू होते हैं, लेकिन इसे
संशोधित कर क्रमशः बीस कामगार और चालीस कामगार करने का प्रस्ताव है। इसी प्रकार
ओवरटाइम की सीमा भी पचास घंटे से बढ़ा कर सौ घंटे करने का प्रावधान है और सवेतन
वार्षिक अवकाश की पात्रता को दो सौ चालीस दिनों से घटा कर नब्बे दिन कर दिया गया
है। ऐसे कदमों से छोटे कारखाना मालिक बड़ी संख्या कारखाना अधिनियम के दायरे से बाहर
हो जायेंगे और मजदूरों को इस कानून के तहत मिलने वाली सुविधायें प्रदान करने की कानूनी
बाध्यता भी समाप्त हो जायेगी।
4. लघु उद्योग अधिनियम: लघु उद्योग अधिनियम में बदलाव के जरिये प्रत्येक कारखानेदार को श्रमिक
पहचान संख्या(LAN) देने का प्रावधान किया गया है। अब हर कारखानेदार खुद ही एक
अनुपालन-रिपोर्ट दाखिल करके यह सत्यापित करेगा कि उसके प्रतिष्ठान में सभी कानूनों
का अनुपालन किया जा रहा है। मतलब यह कि अब कानूनों के क्रियान्वयन की निगरानी न
करके सरकार इसी बात से संतुष्ट होगी कि फैक्ट्री की नज़रों में कानूनों का अनुपालन
किया जा रहा है।
5. संविदा श्रमिक (नियमन और उन्मूलन)
अधिनियम-1971:
प्रस्तावित
संशोधन के जरिये इस अधिनियम को बीस या इससे अधिक मजदूरों वाली फैक्टरी की जगह पचास
या इससे अधिक मजदूरों वाली फैक्टरी पर प्रभावी बनाया जाना है जो पूरे अधिनियम को बहुत
हद तक अप्रभावी एवं अप्रासंगिक बना देगा।
6. अप्रेंटिसशिप एक्ट, 1961: इससे
पहले कपड़ा एवं परिधान उद्योग के कामकाज को लचीला बनाने से संबंधित और अप्रेंटिस
कानून में संशोधन आदि पारित किए जा चुके हैं। अप्रेंटिस कानून के तहत् कर्मचारियों
को काम सीखते हुए भी आय अर्जित करने का मौका मिलता है। उनके प्रशिक्षण के साथ ही
उनके वास्तविक रोजगार की संभावनायें जुड़ी रहती हैं। इसकी मदद से कौशल विकास को बल
मिलेगा और आने वाले दिनों में अप्रेंटिस करने वालों की संख्या में भी तेजी से
इजाफा होगा। अन्य चीजों के अलावा अप्रेंटिस के तौर पर कंपनी से जुडऩे वालों को
बेहतर भुगतान-व्यवस्था भी इसमें शामिल है।
बदलाव के पक्ष में तर्क:
प्रस्तावित सुधारों के बारे में
कहा जा रहा है कि इससे उद्यमता एवं निवेश पर भी अनुकूल प्रभाव पडेगा जो आर्थिक
संवृद्धि की प्रक्रिया को त्वरित करने में सहायक होगा और श्रमिक हितों को संरक्षित
करने में भी।
1.श्रमिक-हितों का बेहतर संरक्षण: प्रस्तावित संशोधन श्रमिकों की छंटनी की स्थिति
में उनके हितों के संरक्षण के लिए एक साल से अधिक कार्यरत रहने पर तीन माह पहले
नोटिस और तीन माह के मुआवजे का
प्रस्ताव करते हैं। ध्यातव्य है कि सन् 1990 के दशक में पहली बार छंटनी के शिकार लोगों के लिए
मुआवजे का प्रावधान किया गया। वर्तमान में ऐसे श्रमिकों को हर कार्य वर्ष के लिए 15
दिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है। इसके अतिरिक्त मातृत्व-अवकाश को तीन माह से बढाकर छह माह करने का प्रस्ताव है। जहाँ तक बोनस का प्रश्न है, तो इसके लिए
वेतन-सीमा दस हजार रुपये से बढ़ाकर उन्नीस हजार रुपये करने का प्रस्ताव है। अबतक दस
हज़ार रुपये तक की आय वाले कर्मचारी को (8.33-20)% तक बोनस मिलता है। साथ ही, बोनस
के लिए कैलकुलेशन सीलिंग को 3,500 रुपये से बढ़ाकर 6,600 रुपये करने का भी प्रस्ताव है।
बोनस और ग्रेच्युटी के फायदे के लिए 5 साल की नौकरी के नियम
में ढील का भी प्रस्ताव है।
2. इंस्पेक्टर-राज से मुक्ति: श्रम-कानूनों के अनुपालन के सन्दर्भ में
उपक्रमों के द्वारा हलफनामा (Affadavit) दायर किये जाने और श्रम-निरीक्षकों के
द्वारा निरीक्षण पर रोक लगाये जाने के कारण इंस्पेक्टर-राज से भी मुक्ति मिलेगी। इसी
प्रकार श्रम सुविधा-पोर्टल के लिए नियोजकों को एक-एक श्रम पहचान संख्या दी जाएगी, जिसके जरिए वे रिटर्न्स की ई-फाइलिंग कर सकेंगे। इसके
अलावा श्रम-कानूनों के सन्दर्भ में नियोक्ताओं को सोलह फ़ॉर्मों की जगह अब सिर्फ एक
फॉर्म भरना पड़ेगा।
3. आर्थिक
संवृद्धि पर असर: इससे
उद्यमता और निवेश हेतु अनुकूल वातावरण सृजित होगा जिससे औद्योगिक विकास को गति
मिलने के साथ-साथ रोजगार-अवसरों के सृजन की सम्भावना है। साथ ही, यह पूँजीगत
संसाधनों के इष्टतम दोहन को सुनिश्चित करेगा जिसका सकारात्मक असर अर्थव्यवस्था की
उत्पादकता एवं कार्यकुशलता पर पड़ेगा। इसी प्रकार बाल-श्रम संबंधी प्रावधान में ढील
से घरेलू एवं पारंपरिक कौशल पर आधारित पारंपरिक व्यवसाय में लगे लोगों को बल मिलने
की संभावना है।
प्रस्तावित संशोधनों का असर:
श्रम-सुधार
के प्रस्तावों और खासकर ठेका कर्मचारियों एवं न्यूनतम वेतन के मसले पर केंद्र
सरकार और श्रमिक संगठनों के बीच गहराते मतभेदों ने अन्ततः श्रम-सुधारों की
प्रक्रिया को ही अवरुद्ध कर दिया। केंद्र के द्वारा
प्रस्तावित संशोधन इस बात का संकेत देते हैं कि श्रम-सुधारों के नाम पर श्रमिकों
को कानूनन मिलने वाली उन सुविधाओं, लाभों और सुरक्षाओं से वंचित करने की कोशिश हो
रही है जिन्हें हासिल करने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ा। इतना ही नहीं, कोशिश यह
भी की जा रही है कि श्रमिक-संगठनों को इतना लुंजपुंज बना दिया जाय कि श्रमिक अपने
अधिकारों एवं हितों के संरक्षण के लिए संघर्ष की स्थिति में भी न रह जाएँ।
प्रस्तावित श्रम-सुधार ऐसे समय में श्रम-संरक्षण
को कमजोर करता है जब भारतीय अर्थव्यवस्था पर्याप्त रोजगार और सही प्रकार के सृजित
कर पाने में असमर्थ है। 2011-12 में रोजगार-संवृद्धि दर 2004-05 के 2.8% से कम होकर 0.5% रह गई। अप्रैल,2016 में IMF के द्वारा जारी वर्ल्ड इकनोमिक आउटलुक में कहा
गया है कि प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों का रोजगार-संवृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ने की संभावना है। ऐसी स्थिति में यदि श्रम-सुधारों की
प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाती है और उसे माँग बढाने के लिए राजकोषीय विस्तार से समर्थन
दिया जाता है, तो इस चुनौती से निबटा जा सकता है। भारत राजकोषीय समेकन की
प्रक्रिया से गुजरने के कारण इस स्थिति में नहीं है।
प्रस्तावित संशोधनों के असर को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. आर्थिक
संवृद्धि पर प्रतिकूल असर का तर्क उचित नहीं: जहाँ तक आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया में अवरोधक के रूप में
श्रम-क़ानून की भूमिका का प्रश्न है, तो इस तर्क की अपनी सीमायें हैं। भारत की तुलना में
फ्रांस में श्रम कानून कहीं अधिक कठोर हैं और सेज को छोड़ चीन में भी श्रम क़ानून
कहीं अधिक कठोर हैं, लेकिन वहाँ इनकी कठोरता आर्थिक विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध
नहीं कर रही हैं। भले ही, सरकार की नजर में विदेशी निवेशकों की
निवेश-संबंधी हिचक के मूल में मौजूदा श्रम-कानून के सन्दर्भ में उनकी यह मान्यता
है कि अक्सर श्रमिक-संगठनों के द्वारा इसका इस्तेमाल कंपनियों के हितों के खिलाफ
निवेशकों को प्रताड़ित करने के लिए किया जाता है; पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की
ताजा रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों के दौरान श्रम-सुधारों की दिशा में पहल
करने वाले लगभग 63 देशों में ये बदलाव
रोजगार-अवसरों के सृजन में समर्थ नहीं हुए हुए, लेकिन इससे कहीं भी रोजगार पैदा
नहीं हुए। दूसरी बात, ऑटो-मेशन के इस दौर में निवेश में वृद्धि रोजगार-अवसरों के सृजन की गारंटी नहीं है।
तीसरी बात, भारतीय सन्दर्भ में भूमि-अधिग्रहण एवं पर्यावरणीय क्लीयरेंस की जटिल
एवं विलंबनकारी प्रक्रिया आर्थिक सम्वृद्धि की प्रक्रिया में कहीं अधिक महत्वपूर्ण
अवरोध है। वैसे, वर्तमान सन्दर्भ में यह समस्या तात्कालिक है जिसका सम्बन्ध
वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनिश्चितता और माँग की कमी है। चौथी बात, यह भी कहा
जाता है कि श्रमिकों को व्यापक संरक्षण फर्म-केन्द्रित कौशल में निवेश को
प्रोत्साहित करता हुआ उत्पादकता-वृद्धि में मदद करता है।
2. ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर
प्रतिकूल असर: ऐसा माना जा रहा है कि अगर ये बदलाव व्यावहारिक
रूप लेते हैं, तो ट्रेड यूनियन गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित होंगी और इसके
परिणामस्वरूप प्रबंधन के समक्ष मोलभाव करने की श्रमिकों की क्षमता भी, जो अंततः
श्रमिक हितों के संरक्षण-तंत्र को कमजोर करता हुआ उन्हें कॉर्पोरेट मालिकों की
कृपा पर निर्भर बनाएगा। कारण यह कि प्रस्तावित संशोधन श्रमिक संघों के गठन के लिए
न्यूनतम दस प्रतिशत या न्यूनतम सौ कर्मचारियों की शर्त रखते हैं, जबकि अबतक किसी
कंपनी में न्यूनतम सात लोग मिल कर यूनियन बना सकते थे।
3. सामाजिक सुरक्षा-संजालों का कमजोर
होना: प्रस्तावित सुधारों के जरिए संगठित
क्षेत्र को प्राप्त सामाजिक सुरक्षा से सम्बंधित प्रावधानों को संशोधित कर सामाजिक
सुरक्षा-संजालों (Social Security-Network) को
कमजोर किया जा रहा है। सरकार कर्मचारी भविष्य निधि में विकल्प देने की तैयारी में
है। कर्मचारियों को कर्मचारी भविष्य निधि(EPF) और नई पेंशन योजना(NPS), दोनों में चुनाव का विकल्प दिया जाएगा। मतलब यह कि अब और बड़ी संख्या में
श्रमिकों को श्रम कानूनों के तहत मिलने वाले फायदे जैसे सफाई, पीने का पानी, सुरक्षा, बाल
श्रमिकों का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक
अवकाश, छुट्टियां, ओवरटाइम, सामाजिक सुरक्षा आदि सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा, या
इनके लिए सरकार पर निर्भर होना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इस कानून के लागू होने के बाद
विवाद की स्थिति या दुर्घटना होने की स्थिति में कंपनी मालिक या जिम्मेदार व्यक्ति
को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकेगी। जहाँ तक छंटनी का प्रश्न है, तो छंटनी को आसान
बनाया जाना चाहिए, लेकिन उसकी लागत अधिक होनी चाहिए ताकि कंपनियां इसे हल्के में न
लें।
4. श्रमिक स्वास्थ्य एवं
ओवरटाइम-संबंधी प्रावधान: वर्तमान
में कारखाना अधिनियम,1948 की धारा 64 के अनुसार किसी भी श्रमिक
से एक दिन में 9 घंटों से अधिक और एक सप्ताह में किसी भी
स्थिति में ओवरटाइम सहित 60 घंटे से अधिक काम नहीं कराया जा सकता है। 9 घंटों से अधिक के कार्य-दिवस की स्थिति में ओवरटाइम के लिए वह दोगुने वेतन
का अधिकारी होगा। विशेष स्थिति में मुख्य कारखाना निरीक्षक की अनुमति से ओवरटाइम
की अवधि एक तिमाही में 75 घंटों तक बढ़ाई जा सकेगी। लेकिन,
प्रस्तावित संशोधन तिमाही के दौरान ओवरटाइम की इस अवधि को 50 घंटे से बढ़ाकर 100
घंटा करना चाहता है। यह सच है कि इससे श्रमिकों को अधिक आर्थिक लाभ होगा, लेकिन यह
लाभ उनके स्वास्थ्य की कीमत पर होगा। प्रस्तावित
संशोधन सरकार को इस बात के लिए भी अधिकृत करता है कि वह अधिसूचना के जरिये
कार्य-दिवस का विस्तार 12 घंटे तक कर सकती
है।
5. जोखिमों का बढ़ना: विद्यमान प्रावधान महिला श्रमिकों और किशोरों को जोखिम भरे कामों में
लगाये जाने पर रोक लगाते हैं, पर अब संशोधन के द्वारा इस निषेध को केवल गर्भवती महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों तक
सीमित कर दिया गया है। मतलब यह है कि सरकार महिलाओं और किशोर श्रमिकों को
भी जोखिम भरे कार्यों में लगाने का इरादा रखती है। इसी
तरह का प्रस्ताव ट्रांसमिशन मशीनरी या मुख्य मूवर को साफ करने, तेल डालने या उसे एडजस्ट करने जैसे कार्यों
के लिए भी है। मतलब यह कि सरकार कॉर्पोरेट हितों के संवर्द्धन एवं निवेश-अनुकूल
वातावरण के सृजन के लिए श्रमिकों के जीवन एवं उनकी सुरक्षा को भी दाँव पर लगाने के
लिए तैयार है।
6. रोजगार अवसरों पर प्रतिकूल असर:
सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(FDI) को घरेलू फर्मों में
रोजगार को प्रतिस्थापित करने वाला माना जाता है क्योंकि इसके कारण घरेलू उद्योगों
का प्रदर्शन एवं उनकी संवृद्धि प्रतिकूलतः प्रभावित होती है।
श्रम-सुधारों को लेकर ट्रेड यूनियन
की आपत्तियाँ:
यही वह
पृष्ठभूमि है जिसमें ट्रेड यूनियन श्रम-सुधारों के विरोध में खड़े हैं। सितम्बर,2016
में दस ट्रेड यूनियन के द्वारा सरकार के द्वारा उनकी बारह सूत्री माँगों को
स्वीकार नहीं किये जाने के विरुद्ध श्रमिकों के हड़ताल का आयोजन किया गया, जिसमें
120 मिलियन श्रमिक शामिल हुए। इनकी
माँगों में मजदूरी में वृद्धि के अलावा प्रस्तावित श्रम-सुधारों, अनौपचारिक
श्रमिकों की बढ़ती संख्या, निजीकरण और विदेशी निवेश के लिए खुलेपन का विरोध शामिल
है।
प्रस्तावित सुधारों को लेकर श्रमिक
संगठनों की प्रमुख आपत्तियाँ इस बात को लेकर भी है कि यह ट्रेड यूनियन गतिविधियों
को हतोत्साहित करता है क्योंकि:
- अब ट्रेड
यूनियन बनाने के लिए सात की जगह न्यूनतम 100 या 10% कामगारों, जो भी कम हो,
की ज़रुरत होगी।
- प्रस्तावित
संशोधनों के लागू होने के बाद कामगारों एवं कार्यस्थल पर सुरक्षा और उनके
स्वास्थ्य से जुड़े मसलों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को मिल जाएगा,
जबकि अबतक ये अधिकार राज्यों के पास थे।
- ट्रेड
यूनियन में बाहरी लोगों की मौजूदगी पर रोक लगाई गयी है।
श्रमिक संगठनों को आपत्तियाँ इस बात को
लेकर भी है कि इस सन्दर्भ में पहल के पूर्व उनसे किसी भी प्रकार के विचार-विमर्श
से परहेज़ किया गया, जबकि वे एक महत्वपूर्ण स्टेकहोल्डर हैं। इतना ही नहीं,
उन्होंने राजस्थान और मध्य प्रदेश के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा के द्वारा
फैक्ट्रीज एक्ट और दूसरे श्रम-कानूनों में इकतरफा बदलाव की तैयारी को चिंताजनक
बतलाया। मजदूर संगठनों का कहना है कि श्रम-सुधारों का
रोजगार बाजार में कोई सकारात्मक असर देखने को नहीं मिला है। इन संगठनों को
आपत्तियाँ प्रस्तावित कानून के उस हिस्से से है जो उन कंपनियों को श्रम-कानून की
बंदिशों से छूट प्रदान करते हैं, जहाँ दस या दस से अधिक और पचास से कम कामगार काम करते हैं। उन्हें
ओवर-टाइम की मासिक-सीमा 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे करने को लेकर भी आपत्ति है
क्योंकि इसका भुगतान डबल रेट से न होकर सिंगल रेट से होता है। उन्हें आशंका है कि
इससे श्रमिकों के शोषण की प्रक्रिया तेज हो सकती है जिसका श्रमिकों के स्वास्थ्य पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
उनका
विरोध इस बात को लेकर भी है कि श्रम-सुधार के नाम पर प्रस्तावित संशोधन श्रमिकों
को कानूनी दायरे से बाहर रखते हुए कॉर्पोरेट समूह एवं निवेशकों के हितों को
संरक्षित एवं संवर्द्धित करने के लिए कम्पनी को श्रमिकों की भर्ती एवं छंटनी की
खुली छूट प्रदान करता है। इसी प्रकार सरकार के द्वारा श्रम-सुधारों के प्रस्तावित
मसौदे में अनुकूल कारोबारी वातावरण के निर्माण के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के
संशोधित प्रावधानों ने रोजगार-सुरक्षा एवं सामाजिक सुरक्षा के अन्य प्रावधानों के
सन्दर्भ में कामगारों की स्थिति को कमजोर करते हुए उन्हें राज्य सरकार के भरोसे
छोड़ दिया। दूसरी ओर नियोक्ताओं और कॉर्पोरेट घरानों को बिना किसी जवाबदेही के
बेहिसाब मुनाफे कमाने की छूट दे दी। इसीलिए इन संशोधनों के बाद श्रमिकों के अधिकार
सीमित होंगे और विवाद की स्थिति में उन्हें अदालत में अपना पक्ष रखने की भी अनुमति
नहीं होगी। श्रम-संगठनों ने सामाजिक सुरक्षा सहित वेतन और सेवा-शर्तों के सन्दर्भ
में नियमित और संविदा श्रमिकों के बीच विद्यमान विसंगतियों को समाप्त करने की माँग
की। साथ ही, बढती हुई मंहगाई के आलोक में राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम वेतन 15,000
रुपए प्रति माह करने की भी माँग की है। फिलहाल विभिन्न राज्यों में न्यूनतम वेतन
(5000-9000) रुपए तक है। उनकी माँगें अनुचित भी नहीं हैं क्योंकि समान कार्य एवं
समान जिम्मेदारियों के बावजूद नियमित एवं अनुबंध पर नियुक्त व्यक्ति के वेतन व सेवा-शर्तों
के अलावा रोजगार-सुरक्षा के मामले में कई बार बड़ा फासला होता है।
श्रम-सुधारों की बदली रणनीति:
मजदूर संघों के विरोध के
मद्देनजर केंद्र सरकार ने श्रम-सुधारों की दिशा में खुद पहल करने से परहेज़ करते
हुए सहकारी संघवाद की आड़ में राज्यों, विशेषकर भाजपा-शासित राज्यों के जरिये
श्रम-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढाने की रणनीति अपनायी है। केंद्र सरकार को यह
लगता है कि उसके द्वारा पहल की स्थिति में यह मसला राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन
सकता है और विपक्ष इसका राजनीतिक लाभ उठाते हुए सरकार की जन-विरोधी एवं कॉर्पोरेट-समर्थक
छवि बनाने की कोशिश कर सकता है, जबकि राज्य स्तर पर इस तरह की पहल को न तो मीडिया
में उतनी जगह मिलेगी और न ही उसका उतना राजनीतिक विरोध होगा। जरूरत पड़ने पर केंद्र
सरकार राज्यों से जुड़ा मसला बतलाकर इससे पल्ला झाड़ सकती है। इसीलिए राज्य स्तर पर
इस तरह की पहल अपेक्षाकृत आसान है। इसके मद्देनजर केंद्र सरकार ने फैक्ट्री
अधिनियम,1948 के मसौदे में परिवर्तन किया है, ताकि राज्यों को कर्मचारियों की
संख्या-निर्धारण के लिए अधिकृत किया जा सके।
राज्यों के द्वारा श्रम-सुधारों की
दिशा में पहल:
फिलहाल
देश में करीब 100 से अधिक श्रम-कानून हैं, जिनमें समवर्ती सूची
से सम्बद्ध होने के कारण राज्य भी इनमें संशोधन के लिए पहल कर सकता है, लेकिन यह
राष्ट्रपति की मंजूरी के पास ही प्रभावी हो सकता है। समवर्ती सूची में शामिल होने
के कारण भी श्रम-सुधारों को लेकर समस्या पैदा हुई है। कई राज्य अपने-अपने हिसाब से
इसमें संशोधन कर चुके हैं।
सन् 2004 में गुजरात ने श्रम-सुधारों की दिशा में पहल करते हुए औद्योगिक विवाद
अधिनियम में संशोधन के जरिये उसे लचीला बनाया और बिना
सरकार की अनुमति के एक माह की नोटिस पर श्रमिकों की छंटनी के लिए प्रबंधन को अधिकृत
किया। हाल में श्रम-सुधारों की दिशा में होने वाली पहल के मामले में राजस्थान सबसे
आगे है। उसने कारखाना कानून, औद्योगिक विवाद कानून, प्रशिक्षु अधिनियम और अनुबंध
श्रम अधिनियम के प्रावधानों में ढील दी है। इसी तरह मध्य प्रदेश ने औद्योगिक विवाद
अधिनियम, कारखाना अधिनियम, दुकान एवं
प्रतिष्ठान अधिनियम सहित 20 श्रम कानूनों को संशोधित किया
है। भाजपा शासित एक अन्य राज्य गुजरात ने श्रम कानून (गुजरात संशोधन) विधेयक, 2015
में बदलाव करके जनोपयोगी सेवाओं पर पाबंदी लगा दी है। अब यही पहल हरियाणा और महाराष्ट्र की सरकारों के द्वारा की जा रही है।
राजस्थान में श्रम-सुधार:
2014 में
राष्ट्रपति की अनुमति से राजस्थान सरकार ने श्रमिकों के
हितों के विपरीत औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947, कारखाना अधिनियम-1948 तथा
संविदा श्रमिक (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम-1970
में संशोधन करते हुए सरकार की अनुमति के बिना संस्थानों को बंद करने
के मानदंडों में संशोधन करते हुए 100 से कम कार्यरत श्रमिकों की सीमा को बढाकर 300
कर दिया। इससे सरकार की अनुमति की जरूरत के न रह जाने के कारण इन संस्थानों के
नियोजकों को छंटनी, ले-ऑफ तथा क्लोजर में आसानी होगी। इसी
प्रकार किसी भी उद्योग से किसी कामगार की छंटनी
की स्थिति में उसे तीन माह के नोटिस के साथ कामगार को तीन महीने के अतिरिक्त वेतन और
प्रति कार्य-वर्ष के लिए औसत 15 दिन
के वेतन के बराबर मजदूरी देनी होगी। साथ ही, इन
संशोधनों के जरिये औद्योगिक विवाद उठाने
के लिए तीन वर्ष की समय-सीमा निर्धारित कर दी गयी है और 45 दिन में कार्यवाही अपेक्षित होगी। ध्यातव्य है
कि 2010 में केंद्र सरकार ने भी शासन के द्वारा संदर्भित नहीं किये जाने की स्थिति
में औद्योगिक विवादों के लिए तीन वर्ष की समय-सीमा निर्धारित की थी, जबकि इसके पूर्व
तक ऐसी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं थी। राजस्थान सरकार ने ट्रेड यूनियन एक्ट के
अंर्तगत प्रतिनिधि यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए श्रमिकों के प्रतिशत को 15 से बढ़ाकर 35 कर दिया
है। इसी प्रकार संविदा श्रमिक (Contract Labour) अधिनियम के सन्दर्भ में न्यूनतम
मजदूरों की संख्या को 20 से बढ़ाकर 50 कर
दिया। सरकार ने सदन को यह आश्वस्त किया कि संशोधन के
बाद किसी ठेकेदार के द्वारा 49 के समूह बनाकर इस कानून से बच निकलना संभव नहीं हो
सकेगा। राज्य में निवेश बढ़ाने, रोजगार सृजित करने और
उद्योगों के लिए अच्छा माहौल तैयार करने की मंशा से कारखाना विधेयक में संशोधन के
जरिये शक्ति से संचालित कारखानों में श्रमिकों की संख्या को 10 से बढ़ाकर 20 करने
और बिना शक्ति से संचालित कारखानों में श्रमिकों की संख्या 20 से बढ़ाकर 40 करने का
प्रावधान किया गया है। इसके परिणामस्वरुप प्रभावित
मजदूर इस अधिनियम के अंर्तगत प्राप्त होने वाली सुरक्षा-सुविधाओं से वंचित हो
जायेंगे। इसी प्रकार प्रशिक्षु (राजस्थान संशोधन) विधेयक के तहत स्टेट
एप्रेंटिसशिप काउंसिल को विभिन्न उपक्रमों में एप्रेंटिस की संख्या के निर्धारण के
लिए अधिकृत किया गया। साथ ही, पाठ्यक्रम की अवधि तय करने और किसी विवाद को सुलझाने
का अधिकार भी इस काउंसिल के पास होगा। इस संशोधन के जरिये एप्रेंटिस के न्यूनतम
मजदूरी से जुड़े मसले को भी सुलझाने की कोशिश की गयी है। यह विधेयक युवाओं में कौशल
प्रशिक्षण बढ़ाने, रोजगार बढ़ाने सरकार ने छोटे और मँझोले
उद्योग खोलने की प्रक्रिया के सरलीकरण का भी आश्वासन देते हुए कहा कि इस विधेयक के
पारित होने से 3,000 छोटे, मँझोले और बड़े कारखानों को लाभ मिलेगा।
केंद्र सरकार पर
यह आरोप लगाया जाता है कि सीधे तौर पर राजस्थान में लागू किए गए श्रम-कानूनों को
हूबहू लागू करने की कोशिश में जुटी है, जिससे बहुत सारे
कामगार कानून के दायरे से बाहर हो जायेंगे। इसके अलावा मजदूर संगठनों को
निर्णय-प्रक्रिया में शामिल न करके राज्य सरकार अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन सम्मेलन
की धारा 144 का उल्लंघन कर रही है। राजस्थान के नए श्रम-कानूनों के मुताबिक
कारखाना अधिनियम के दायरे में महज 257 कारखाने आयेंगे, जबकि अबतक करीब 1400 कारखाने इसके दायरे में आते थे। राजस्थान मॉडल
का पालन करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने भी अध्यादेश के रूप में आठ श्रम-कानूनों
में संशोधन का प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास
भेजा है।
श्रम-कानून
(गुजरात संशोधन) विधेयक,2015:
2015 में राष्ट्रपति की संस्तुति के साथ गुजरात श्रम-कानून (संशोधन)
विधेयक प्रभावी हो गया। यह विधेयक ‘अपराधों और जुर्माने की अदायगी समझौता’ वाले प्रावधान के कारन काफी चर्चित रहा। इसके तहत् औद्योगिक
श्रमिक बिना अदालत गए औद्योगिक प्रबंधन के साथ सुलह कर सकते हैं। इसके लिए सरकार
जुर्माने के तौर पर नियोक्ता से 21,000 रुपए तक वसूल कर सकेगी और 75 प्रतिशत जुर्माने की राशि प्रभावित
कर्मचारी या कर्मचारियों को दे सकेगी।
महाराष्ट्र में श्रम-सुधार:
अब महाराष्ट्र ने भी
स्थानीय श्रम नियमों को लचीला बनाने की पहल शुरू की है। उसने अनुबंध श्रम (नियमन
एवं उन्मूलन) (CLRP) अधिनियम, 1970 में संशोधन करते हुए यह प्रावधान किया कि 20 कामगारों की जगह 50
कर्मचारियों वाली कंपनियों को ठेके पर कर्मचारी रखने की अनुमति दे दी है। इसका
मतलब यह है कि 49 कर्मचारियों वाली छोटी कंपनियों को सरकार में पंजीकरण कराने की जरूरत नहीं
है। इस संशोधन का मकसद नियामकीय जटिलतायें कम करना है ताकि राज्य में बड़ा निवेश
आए और रोजगार के अवसर पैदा हों। महाराष्ट्र सरकार के श्रम
विभाग की वेबसाइट से पता चलता है कि वहाँ काम करने वाली इकाइयों पर 47 तरह के
श्रम कानून लागू होते हैं। खास तौर पर महाराष्ट्र में लागू दुकान एवं प्रतिष्ठान
अधिनियम, 1948 काफी सख्त कानून है।