लाभ का पद
प्रमुख आयाम
1.
लाभ का
पद:
a. ‘लाभ
के पद’ की संकल्पना का आविर्भाव
b.
‘लाभ के
पद’ के कारण उत्पन्न समस्या
c.
संवैधानिक
नैतिकता का मसाला
d.
लाभ के पद को परिभाषित करने का प्रयास
e.
संवैधानिक
प्रावधान
f.
भूतलक्षी
प्रभाव
2.
लाभ का
पद-विवाद
a.
लाभ के
पद को लेकर विवाद
b.
हाल का
सन्दर्भ: आप का मसला
c.
राष्ट्रपति
के पास विकल्प:
d.
चुनाव
आयोग के आदेश को न्यायालय में चुनौती
e.
लाभ के
निर्धारण का आधार
f.
दिल्ली
विधानसभा-सदस्य (अयोग्यता-निवारण) अधिनियम,1997:भूतलक्षी प्रभाव का मसला
g.
समस्या
दिल्ली तक सीमित नहीं
h.
राष्ट्रपति की भूमिका
i.
चुनाव आयोग के निर्णय की युक्तिसंगतता
j. भविष्य में आप के राजनीतिक संकट के गहराने की उम्मीद
k.
विश्लेषण
|
लाभ का पद
भारतीय संविधान में लाभ के पद का तो उल्लेख मिलता है, पर न तो भारतीय
संविधान में “लाभ के पद” को परिभाषित किया गया
है और न ही संसद द्वारा निर्मित किसी अन्य विधि में भी। यहाँ तक कि कई मामलों में
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे परिभाषित करने की कोशिश की है, लेकिन अबतक कोई स्पष्ट और सर्वमान्य परिभाषा नहीं दे सका
है। अबतक न्यायपालिका के रुख के अनुसार, संसद या विधानमंडल को यह निर्धारित
करने का अधिकार है कि कोई पद लाभ का पद नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें, तो संसद
और विधानमंडल किसी पद को लाभ का पद होने के बावजूद निरर्हता के अपवाद के दायरे में
शामिल करने के लिए स्वतंत्र है और ऐसा भूतलक्षी प्रभाव से किया जा सकता है। इस
सन्दर्भ में संविधान में यह स्पष्टीकरण
ज़रूर दिया गया है कि “कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार
के या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि
वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।”
‘लाभ के पद’ की संकल्पना का
आविर्भाव:
अब प्रश्न यह उठता है कि ‘लाभ के पद’ पर रोक से
सम्बंधित मूल परिकल्पना क्या है? आखिर लाभ के पद’ से परहेज़ क्यों किया गया है?
दरअसल, यह संकल्पना ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से
ली गयी है जहाँ संवैधानिक राजतन्त्र की संकल्पना है और जहाँ राजशाही बनाम् संसद के
बीच टकराव का लंबा इतिहास रहा है जिसके आलोक में राजशाही की शक्तियों को नियंत्रित
कर संसद की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करने की कोशिश की गयी।
इस क्रम में राजशाही के द्वारा संसद की शक्ति को प्रति-संतुलित करने का
प्रयास किया गया। इसके लिए राजा के
द्वारा अपने प्रति हाउस ऑफ़ कॉमन्स के सदस्यों की निष्ठा को सुनिश्चित करने के लिए
कार्यपालक प्रकृति वाले पद और सुविधायें उपलब्ध करवाई जाती थी। इसके कारण जन-प्रतिनिधियों ने व्यक्तिगत हितों को
साधने के लिए अपने संसदीय दायित्वों की उपेक्षा की जिसका प्रतिकूल प्रभाव संसदीय
व्यवस्था के प्रकार्यण पर पड़ता था। इसी
आलोक में संसद-सदस्यों के संसदीय दायित्वों के साथ-साथ जनता के प्रति दायित्वों और
व्यक्तिगत हितों के टकराव की संभावनाओं को निरस्त करने तथा संसदीय व्यवस्था के
प्रभावी प्रकार्यण को सुनिश्चित करने के लिए ‘लाभ के पद’ की संकल्पना विकसित की
गयी और कहा गया कि संसद के सदस्य किसी भी प्रकार के लाभ का पद धारण नहीं करेंगे और
लाभ का पद धारण करने वाले संसद की सदस्यता के लिए निरर्ह अर्थात् अयोग्य होंगे।
अगर ‘लाभ के पद’ धारण करने के कारण उत्पन्न समस्याओं पर विचार
किया जाय, तो इसे निम्न परिप्रेक्ष्य में
देखा जा सकता है:
1. इससे संविधान में
अंतर्भूत शक्ति-पार्थक्य के साथ-साथ नियंत्रण एवं
संतुलन की संकल्पना कमजोर पड़ती है क्योंकि विधायिका के सदस्यों को
परोक्ष रूप से कार्यपालिका का हिस्सा बनाकर और उन्हें विभिन्न प्रकार की सुविधायें
उपलब्ध करवाकर इसके एवज में संसद एवं विधान-मंडल के भीतर उनके समर्थन को सुनिश्चित
किया जाता है।
2. इस प्रकार संसद और विधान-मंडल के सदस्यों के कार्यपालिका के प्रभाव
एवं दबाव में आने की संभावना रहती है और उनके लिए अपने संसदीय दायित्वों का निर्वाह मुश्किल हो जाता है। इसके कारण संसदीय
जवाबदेही की संकल्पना कमजोर पड़ती है और कार्यपालिका
पर प्रभावी संसदीय नियंत्रण कमजोर पड़ता है।
3.
91वें संविधान-संशोधन अधिनियम के जरिये भारतीय
संविधान में अनु. 164(1A) जोड़ते हुए राज्य
मंत्रिपरिषद के आकार की अधिकतम सीमा राज्य
विधान-मंडल की सदस्य-संख्या के अधिकतम 15% और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के
सन्दर्भ में 10% निर्धारित की गयी। चूँकि संसदीय सचिवों को राज्य-मंत्री के समक्ष
दर्ज़ा प्रदान किया गया है, इसीलिए देश के विभिन्न हिस्सों में कई उच्च न्यायालयों
ने संसदीय सचिवों की नियुक्ति को असंवैधानिक करार दिया। कलकत्ता हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि विधानसभा-सदस्यों की संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति जान-बूझकर
राज्य मन्त्रिपरिषद् के आकार के सन्दर्भ में संविधान के द्वारा आरोपित सीमाओं का
अतिक्रमण है।
4. यद्यपि दिल्ली सरकार
ने संसदीय सचिवों को वेतन एवं भत्तों के साथ राज्यमंत्री का दर्ज़ा नहीं दिया है,
तथापि संसदीय सचिवों की संख्या राज्य विधानसभा की
आकार के 30% तक है।
स्पष्ट है कि विधायकों और सांसदों को लाभ का कोई
पद लेने से रोकने का प्रावधान इसलिए किया गया था कि सदन के सदस्य के तौर पर अपनी
भूमिका का निर्वाह बिना किसी लोभ और बिना किसी दबाव के कर सकें। मंत्रियों को इस
प्रावधान से अलग रखा गया। जया बच्चन मामले में
चुनाव आयोग ने भी इस बात की ओर इशारा किया कि लाभ के पद से सम्बंधित
प्रावधानों का उद्देश्य कार्यपालिका के दबाव से विधायिका को मुक्त रखने
के लिए किया गया ताकि जन-प्रतिनिधियों के लिए जनता के प्रति अपने दायित्वों का
निर्वाह संभव हो सके और उनके लिए विचारों की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की
जा सके। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि ‘ऑफिस ऑफ
प्रॉफिट’ मसला कदाचार और असंवैधानिकता का नहीं, मसला है संवैधानिक नैतिकता का
है।
संवैधानिक नैतिकता का मामला:
अब प्रश्न यह उठता
है कि अगर यह संवैधानिक नैतिकता का मामला है, तो हर दल और हर राज्य के लिए
संवैधानिक नैतिकता के अलग-अलग मामले क्यों हैं? इस सन्दर्भ में पैमाना एक ही होना
चाहिए। लाभ के
पद के पीछे आदर्श कल्पना यह थी कि विधायक दूसरे काम न करें क्योंकि उसका काम सदन
में होना और जनता की आवाज़ उठाना है। वह सरकार के नियंत्रण में नहीं
होना चाहिए, वरना वह जनता की आवाज़ नहीं उठा पाएगा। कुल मिलाकर ऑफिस ऑफ प्रॉफिट की कोई एक मान्य
व्याख्या नहीं मिलती है।
लाभ के पद को परिभाषित करने का प्रयास:
लाभ के पद का मामला कई बार
सुप्रीम कोर्ट पहुँचा है और कोर्ट ने लाभ के पद क्या हैं, इसकी कई बार व्याख्या की है; फिर भी
अबतक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं विकसित हो सकी। अगस्त,1954 में लोकसभा के पहले स्पीकर जी. वी. मावलंकर ने
राज्यसभा के चेयरमैन से सलाह कर ठाकुर दास भार्गव
की अध्यक्षता में ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के लिए एक कमेटी बनाई। भार्गव समिति
ने यह सुझाव था कि एक बिल लाकर साफ किया जाए कि कौन-सा
पद लाभ का है और कौन-सा नहीं है। यह मसला सन् 1958 में
सुप्रीम कोर्ट के सामने भी आया जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने लाभ के पद को पहली बार
परिभाषित करने की कोशिश की। डॉ. देवराव लक्ष्मण बनाम् केशव लक्ष्मण बोरकर वाद,1958 के नाम से सामने आये इस न्यायिक
वाद में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सुनाये गये निर्णय के अनुसार, निम्नलिखित पद लाभ
के पद के दायरे में नहीं आयेंगे:
1.
मंत्री पदों के विपरीत गैर-लाभकारी
और बिना किसी तय वेतन के पद,
2.
पद/नियुक्ति के साथ कोई सुविधा न
जुड़ी हो,
3.
कोई निश्चित दफ्तर या ऑफिस सपोर्ट-सिस्टम
नहीं,
4.
जिनके पास कोई खास काम या
उत्तरदायित्व न हो और जो प्रभारी मंत्री को सरकारी कामकाज में सिर्फ मदद करते हों,
5.
सरकार के किसी मामले या मंत्री के
काम से जुड़े प्राधिकार पर कोई ओपिनियन देने का काम नहीं होगा, और
6.
सरकारी सूचना या कागजात तक इनकी कोई पहुँच
नहीं होनी चाहिए।
पिछले दशक के दौरान
लाभ के पद का मामला फिर गरमाया और इससे सम्बंधित समस्या के स्थाई समाधान की ज़रुरत
महसूस हुई। इसी आलोक में 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' की मुकम्मल परिभाषा के लिए 15
सदस्यीय संयुक्त संसदीय कमिटी गठित की गयी। आगे चलकर मई,2006 में लोकसभा में लाभ के पद की व्याख्या के लिए एक
विधेयक पारित किया गया जिसके तहत् राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष
सहित करीब 45 पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखा गया। लेकिन,
समस्या जस-की-तस बनी रही है। लाभ के पद संबंधी संसद की 15-सदस्यीय
संयुक्त संसदीय समिति में यह बात उठी कि किसी पद को
लाभ का मानने या न मानने के मामलों का निर्धारण जिन मानदंडों के आधार पर करती है,
उनमें यह देखा जाता है कि:
a. क्या उस पद पर किसी
व्यक्ति को नियुक्त करने और पद से हटाने के मामले
में तथा उस पद के कार्य-निष्पादन की समीक्षा के मामले में सरकार का नियंत्रण रहता
है;
b. क्या उस पद को धारण
करने वाले व्यक्ति को संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 की धारा 29(a) में परिभाषित ‘प्रतिपूरक भत्ता’ के
अतिरिक्त कोई पारिश्रमिक दिया जाता है;
c. क्या उस निकाय के
पास कार्यपालिका, विधायिका अथवा न्यायपालिका की शक्तियों का प्रयोग करने अथवा संसाधनों के वितरण,
भूमि के आवंटन, लाइसेंस आदि जारी करने की
शक्ति है;
d.
क्या उस पद को धारण करने से व्यक्ति संरक्षण के माध्यम से प्रभाव या शक्ति का प्रयोग कर सकता है?
यदि इनमें से किसी भी मानदंड का उत्तर सकारात्मक है, तो उस पद को धारण
करने वाला व्यक्ति संसद सदस्य बनने के लिए निरर्हत यानी अयोग्य है।
आगे चलकर यू. सी. रमण बनाम् पी. टी.
ए. रहीम वाद,2014 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:
1. जबतक उस
पद के एवज में कुछ मौद्रिक भुगतान सम्बद्ध नहीं है, या फिर वह पद मौद्रिक
लाभ को सुनिश्चित नहीं करता; तबतक इसे लाभ का पद
नहीं माना जाएगा, और
2. उन
दायित्वों के निष्पादन की क्रम में होनेवाले खर्चों की भरपाई के लिए प्रदान किये
जानेवाले पूरक भत्तों को लाभ नहीं माना जायेगा।
अबतक
इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों के आलोक में कहा जाय; तो कोई
भी पद लाभ का पद है अथवा नहीं, इसका निर्धारण उन पाँच सिद्धांतों के आधार पर किया
जाएगा जो वर्षों के दौरान विकसित हुए हैं:
a. क्या
सरकार के पास उस पद पर किसी को नियुक्त करने या हटाने का अधिकार है?
b. क्या
उस पद को धारण करने के एवज में सरकार के द्वारा वेतन एवं भत्तों का भुगतान किया
जाता है?
c. क्या उस पद को धारण
करने वाले व्यक्ति के द्वारा लाइसेंस, भूमि और संसाधनों के आवंटन जैसे सरकार के
कार्यों का निष्पादन किया जाता है?
d. क्या उन दायित्वों
के निष्पादन के क्रम में उस पर सरकार का नियंत्रण होता है?
e. क्या वह पद पद-धारण करने वाले व्यक्ति को संरक्षण
प्रदान करने में सक्षम बनाता है?
उपरोक्त
निर्णय के आलोक में यह कहा जा सकता है कि जबतक किसी पद के साथ वेतन या पारिश्रमिक
सम्बद्ध न हों या जो लाभ सृजित करने में सक्षम न हो, तब तक उसे लाभ का पद नहीं
माना जाएगा।
संवैधानिक प्रावधान:
1. अनुच्छेद
102 (1a) के अनुसार, “कोई व्यक्ति संसद् के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने
के लिए निरर्हित होगा यदि वह भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन,
ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का
निरर्हित न होना संसद् ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई
लाभ का पद धारण करता है।”
2. अनु. 102(1a) के तहत सांसद या विधायक ऐसे किसी और पद पर नहीं हो सकते हैं, जहाँ
अलग से वेतन, भत्ता या बाकी फायदे मिलते हों।
3. अनु. 191(1a) और जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 के सेक्शन 9(a)
के तहत् भी सासदों-विधायकों को अन्य पद लेने से रोकने का प्रावधान है। अनु. 191
और दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र
सरकार अधिनियम(GNCTD),1991 की धारा 15 के मुताबिक अगर कोई विधायक लाभ का पद धारण करता है, तो उसे अयोग्य घोषित
कर दिया जाएगा।
4. संविधान समीक्षा
आयोग,2002 के द्वारा सार्वजनिक संसाधनों के दुरूपयोग पर प्रभावी तरीके से अंकुश
लगाने के लिए की गयी अनुशंसाओं के आलोक में 91वें संविधान-संशोधन के जरिये भारतीय
संविधान में अनु. 164(1A) जोड़ा गया और
इसके जरिये यह प्रावधान किया गया कि राज्य
मंत्रिपरिषद् का आकार राज्य विधान-मंडल के आकार के 15% से अधिक और बारह से कम नहीं
होगा। इसका अपवाद केवल दिल्ली है।
5. अनु.
239AA के अनुसार
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में मंत्रिपरिषद
का आकार किसी भी स्थिति में राज्य
विधानसभा के आकार के 10% से अधिक नहीं होगा।
जुलाई, 2001 में शिबू सोरेन
मामले में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने अपने निर्णय में
लाभ के पद से सम्बंधित संवैधानिक उपबंधों की व्याख्या करते हुए कहा था कि अनु. 102(1a) तथा अनु. 191(1a) का उद्देश्य विधायिका के
सदस्यों के कर्तव्य और हित की बीच टकराव की आशंका को खत्म करना या उसे कम करना है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विधायिका के सदस्य व्यक्तिगत
स्वार्थ के कारण कार्यपालिका के प्रभाव और दबाव में न आयें कार्यपालिका से आर्थिक
लाभ पाने के कारण उसके अनुग्रह के अधीन नहीं आयें और न ही इसके कारण उनके लिए
संसदीय दायित्वों का निर्वहन मुश्किल हो। इस निर्णय से यह भी स्पष्ट हुआ कि यदि
किसी पद को विधि द्वारा स्पष्ट रूप से मंत्री-पद के समकक्ष घोषित किया गया हो, तो
उसे धारण करने वाले व्यक्ति को लाभ का पद धारण करने के आधार पर निरर्हत नहीं समझा
जाएगा।
भूतलक्षी प्रभाव(Retrospective
Effect):
सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों में यह स्पष्ट किया है कि संसद और राज्य
विधानसभाओं के पास भूतलक्षी प्रभाव से क़ानून बनाने का अधिकार है। कांता कथूरिया बनाम् मानक चाँद शर्मा वाद,1969
में सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को स्वीकार करते हुए राजस्थान सरकार के द्वारा भूतलक्षी
प्रभाव से बनाये गए क़ानून और इसके द्वारा कांता कथूरिया की सदस्यता को प्रदत्त
वैधानिक संरक्षण की वैधानिकता की पुष्टि की। इससे
पूर्व राजस्थान हाईकोर्ट ने ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के कारण उनकी सदस्यता
रद्द कर दी थी, जिसके कारण राजस्थान विधानसभा को कानून पास कर उनके पद को लाभ के
दायरे से ही बाहर करना पड़ा था। इस परिवर्तित स्थिति को स्वीकार करते हुए सुप्रीम
कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के निर्णय को पलटने वाली विधायी पहल की
वैधानिकता को स्वीकार किया और उनकी सदस्यता रद्द करने से परहेज़ किया। कोर्ट ने कहा कि अनु. 191
में ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि इससे सम्बंधित घोषणा रेट्रोस्पेक्टिव
इफेक्ट से लागू नहीं हो सकती।
अबतक
के व्यवहार भी इसी और इशारा करते हैं। समाजवादी पार्टी की सरकार ने भी उत्तर
प्रदेश के विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा उत्तर
प्रदेश विधायिका (निरर्हता निवारण) संशोधन विधेयक,
2006 को जनवरी, 2003 से प्रभावी
बनाते हुए पारित करा लिया है और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन शहरी विकास मंत्री और उत्तरप्रदेश
जल निगम के अध्यक्ष आज़म खान की
सदस्यता बचा ली। दिल्ली के सन्दर्भ में ही देखें, तो 2006
में शीला दीक्षित ने काँग्रेस के 19 विधायकों की संसदीय सचिव से लेकर ट्रांस यमुना एरिया डेवलपमेंट बोर्ड के
चेयरमैन एवं वाइस चेयरमैन के पद पर नियुक्ति के बाद चुनाव आयोग के नोटिस के
मद्देनज़र भूतगामी प्रभाव वाले विधेयक के जरिये 14 कार्यालयों
को ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे से बाहर कर दिया। शीला दीक्षित की तत्कालीन सरकार ने
राष्ट्रपति को विधेयक दोबारा भेजा और दस्तखत हो गया। संविधान-विशेषज्ञ
पी. डी. टी. आचार्य कहते हैं कि कई राज्यों ने पहले नियुक्ति की और फिर बाद
में कानून बनाकर उस पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर किया और अदालत ने भी माना।
लाभ का पद-विवाद
लाभ के पद को लेकर विवाद:
जुलाई, 2001 में उच्चतम न्यायालय
की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने शिबू सोरेन
की संसद-सदस्यता इस आधार पर रद्द कर दी थी कि राज्य-सभा में निर्वाचन हेतु
नामांकन-पत्र दाखिल करते समय वे झारखंड-सरकार द्वारा गठित अंतरिम झारखंड क्षेत्र
स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष के रूप में लाभ का पद धारण कर रहे थे। मार्च,2006 में उत्तरप्रदेश
फिल्म विकास परिषद की अध्यक्ष के रूप में लाभ का पद धारण करने के आधार पर जया बच्चन की राज्यसभा-सदस्यता रद्द कर दी गयी।
यूपीए-1 के समय 2006 में राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद् की अध्यक्षता के कारण 'लाभ के पद' को लेकर विवाद खड़ा होने की वजह से सोनिया
गाँधी को लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन, पिछले डेढ़ दशकों के दौरान बढ़ती हुई राजनीतिक
अवसरवादिता और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के समायोजन के प्रश्न ने लाभ के पद’ से
सम्बंधित विवाद को गहराने का काम किया। विशेष रूप से दिल्ली के आप
विधायकों के सन्दर्भ में यदि न्यायपालिका ने समय रहते हस्तक्षेप नहीं किया, तो यह
राजनीतिक-संवैधानिक संकट को जन्म दे सकता है।
हाल का सन्दर्भ: आप का
मसला:
मार्च,2015 को दिल्ली की केजरीवाल सरकार के द्वारा 21 विधायकों की नियुक्ति संसदीय सचिव के रूप में की गयी। मार्च,2015 में एक
गैर-सरकारी संगठन (NGO) की तरफ से दिल्ली हाईकोर्ट में इस नियुक्ति को चुनौती देते
हुए याचिकाकर्ता प्रशांत पटेल ने दिल्ली सरकार के द्वारा संसदीय सचिवों की
नियुक्ति असंवैधानिक बतलाया। याचिकाकर्ता
प्रशांत पटेल का यह कहना था कि:
1. मार्च,2015 में पारित दिल्ली सरकार के विधेयक में 21 संसदीय सचिवों को आधिकारिक कार्यों के लिए सरकारी गाड़ियों के इस्तेमाल और
इनके लिए मंत्रियों के ऑफिस में दफ्तर की सुविधा उपलब्ध करवाई
जा रही है। इसलिए ये लाभ के
पद के दायरे में आते हैं।
2. दिल्ली
विधानसभा ने संसदीय सचिव को लाभ के पद से बाहर नहीं रखा है। वर्तमान कानून के अंतर्गत केवल
मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव के पद लाभ के पद के दायरे से बाहर रखा गया
है।
3. अनु. 191 के तहत् और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम,1991 की
धारा 15 के मुताबिक
अगर कोई व्यक्ति लाभ के पद पर है, तो उसकी सदस्यता खत्म हो जाती है।
बाद में जून,2015 में वकील प्रशांत पटेल ने इसी आधार पर इनकी सदस्यता रद्द करने के लिए राष्ट्रपति के समक्ष
याचिका प्रस्तुत की। तत्कालीन राष्ट्रपति ने निर्वाचन आयोग की राय
जानने के लिए याचिका उसके पास भेज दी। इसी आलोक में चुनाव आयोग के समक्ष यह मसला सामने आया कि क्या दिल्ली
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार अधिनियम,1991 के तहत संसदीय
सचिवों का पद लाभ के पद में आता है?
इस याचिका के ठीक बाद
जून,2015 में दिल्ली विधानसभा ने विधानसभा-सदस्यों की निरर्हता की समाप्ति से सम्बंधित
संशोधन विधेयक,2015 पास करते हुए अनुमति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा,
ताकि भूतलक्षी
प्रभाव (Retrospective Effective) से संसदीय सचिवों को ‘लाभ के पद’
(Office of Profit) मामले में छूट दी जा सके, लेकिन जून,2016 में राष्ट्रपति ने इसे अनुमति देने से इन्कार किया।
इस मसले पर विचार करते हुए सितंबर,2016 में दिल्ली हाईकोर्ट ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के दिल्ली सरकार के
फैसले को निरस्त कर दिया। अदालत ने इस आधार पर इन नियुक्तियों को ख़ारिज कर
दिया कि इन विधायकों की नियुक्ति का आदेश उप-राज्यपाल
की सहमति के बिना दिया गया था। उधर सितंबर,2016 को चुनाव आयोग ने 21 विधायकों को कारण-बताओ नोटिस जारी किया। आप
विधायकों ने आयोग को लिखा कि:
a.
शिकायतकर्ता ने इस तथ्य को छुपा लिया
कि दिल्ली प्रदेश में सचिव का पद 'ऑनररी' है जिसके साथ कोई वित्तीय लाभ नहीं जुड़ा हुआ है।
b.
सचिव पद पर रहते विधायकों को किसी
प्रकार की सुविधा नहीं मिलती।
मसलन-दफ्तर के लिए जगह, गाड़ी, ऑफिस स्टाफ,
आवास, टेक्नीकल सपोर्ट, ट्रेवेलिंग
अलाउंस और अन्य किसी प्रकार का लाभ नहीं लेते।
आयोग के नोटिस पर आप-विधायकों ने लिखित में जवाब
भेजते हुए व्यक्तिगत सुनवाई की माँग की, जिसे
आयोग ने सिरे से खारिज कर दिया। और, अंततः 19 जनवरी,2018 को चुनाव आयोग ने ‘ऑफिस
ऑफ प्रॉफिट’ के मामले में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की
सदस्यता रद्द करने के सन्दर्भ में अपनी सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेज दी है। चुनाव आयोग का कहना है कि जब हाई कोर्ट ने विधायकों की नियुक्ति को
असंवैधानिक बताकर उन्हें दरकिनार कर दिया था, तब ये विधायक 13 मार्च 2015 से आठ सितंबर 2016 तक
‘अघोषित तौर पर’ संसदीय सचिव के पद पर
थे। सवाल यह उठता है कि अगर ये नियुक्तियाँ
ही अवैध थीं, तो फिर ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ का मामला कैसे बनता है।
राष्ट्रपति के पास
विकल्प:
अब प्रश्न यह उठता है कि निर्वाचन आयोग के द्वारा
इन 20 सदस्यों की सदस्यता को समाप्त करने की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति के पास
क्या विकल्प है और आप के पास क्या विकल्प है? राष्ट्रपति के पास चुनाव आयोग की
सिफारिश को स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। राष्ट्रपति इसके लिए
संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। अनु. 103
में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि लाभ का पद-धारण करने के कारण संसद और दिल्ली
विधानसभा की सदस्यता से निरर्हता का प्रश्न उठने पर
राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होगा और इस सन्दर्भ में निर्णय लेने के
पूर्व वह चुनाव आयोग की सलाह लेगा तथा
उस सलाह के अनुरूप काम करेगा।
राष्ट्रपति ने 21 जनवरी को आयोग की अनुशंसा को स्वीकार कर लिया और इसी के साथ
निरर्हता प्रभावी हो गयी, बशर्ते हाईकोर्ट चुनाव आयोग के इस फैसले पर रोक न लगा दे।
जहाँ तक प्रभावित पक्ष और आप का प्रश्न है, तो
चुनाव आयोग के इस फैसले के खिलाफ अदालत की शरण लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अगर
अदालत के द्वारा पार्टी को कोई राहत नहीं मिलती है, तो इन सदस्यों की सदस्यता रद्द हो जायेगी और रिक्त हुई इन सीटों पर
उपचुनाव होंगे। स्पष्ट है कि इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
चुनाव आयोग के आदेश को न्यायालय
में चुनौती:
‘आप’ को दोबारा झटका तब लगा जब दिल्ली हाईकोर्ट
ने प्रभावित विधायकों को अंतरिम राहत देने से मना कर दिया। कोर्ट के मुताबिक, जब
पार्टी चुनाव आयोग के पास गई ही नहीं, तो वह कैसे कह सकती है कि उसकी इस मामले में
सुनवाई नहीं हुई। आम आदमी
पार्टी का तर्क है कि:
1. इस मामले में चुनाव आयोग को फैसला लेने का अधिकार ही नहीं
था।
2. उसका पक्ष सुने बगैर
ही निर्वाचन आयोग ने अपना फैसला सुना दिया, जो कि नैसर्गिक न्याय
के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है।
3. संसदीय
सचिव बनाए गए विधायक अलग से कोई पारिश्रमिक, वेतन-भत्ते और अन्य सुविधायें नहीं ले
रहे थे, इसलिए उन्हें लाभ के
पद का दोषी नहीं माना जा सकता।
4.
हाईकोर्ट ने काफी पहले इन
नियुक्तियों को रद्द घोषित कर दिया है, तो फिर इस मामले में उन पर कैसे कार्रवाई हो सकती है।
इस पूरे प्रकरण में आप की चूक यह रही कि उसके नोटिस का जवाब तक देने
की आवश्यकता नहीं समझी और उसने चुनाव आयोग की
अधिकारिता पर प्रश्न खड़ा करते हुए उससे व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर देने की अपील की,
जिस आरंभिक हिचकिचाहट के बाद स्वीकारने के संकेत चुनाव आयोग की तरफ से दिए गए।
लाभ के निर्धारण का
आधार:
अब सवाल यह उठाता है कि आप के इन विधायकों ने वास्तव में कोई लाभ लिया है अथवा नहीं, और
इसके निर्धारण का आधार क्या हो? सदस्यता रद्द करने के पक्ष में तर्क यह दिया
जाता है कि इन्हें कमरा मिला था और कमरे के रख-रखाव पर खर्च हुआ था, लेकिन इस
सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का रुख कुछ अलग है। सुप्रीम
कोर्ट के कई फैसलों में साफ-साफ कहा गया है कि लाभ का पद यानी विधायक को लाभ मिल
रहा हो।
दिल्ली विधानसभा-सदस्य (अयोग्यता-निवारण) अधिनियम,1997:
दिल्ली विधानसभा-सदस्य (निरर्हता की समाप्ति) अधिनियम,1997 के जरिये
तत्कालीन भाजपा सरकार ने खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड और दिल्ली महिला आयोग के
अध्यक्ष पद को लाभ के पद की सूची से बाहर रखा था। बाद में सन् 2006 में इसमें भूतलक्षी प्रभाव के साथ इसमें संशोधन
करते हुए तत्कालीन शीला दीक्षित की सरकार ने मुख्यमंत्री के संसदीय
सचिव, जिला विकास समितियों के अध्यक्ष और ट्रांस यमुना
डेवलपमेंट बोर्ड आदि सहित कई पदों को लाभ के पद से बाहर रखा। इसके परिणामस्वरुप
कुल-मिलकर तेरह पद लाभ के पद की श्रेणी से बाहर हो गए। इन पदों की सूची, जो लाभ के पद के दायरे में नहीं आते हैं, में संसदीय
सचिवों और रोगी कल्याण केंद्र या समितियों का जिक्र तो नहीं है, पर इससे यह स्पष्ट होता है कि अन्य राज्यों की विधानसभाओं की तरह दिल्ली विधानसभा को भी
लाभ के पद को परिभाषित करने और कोई पद लाभ का पद है अथवा नहीं, यह निर्धारित करने
एवं इसके सन्दर्भ में विधायन का अधिकार है।
लेकिन, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विशिष्ट स्थिति के मद्देनज़र
दिल्ली विधानसभा के द्वारा पारित कोई प्रस्ताव तबतक पारित क़ानून का रूप नहीं लेगा
जबतक इसे लेफ्टिनेंट गवर्नर की अनुमति नहीं मिल जाती है।
स्पष्ट है कि दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों से
भिन्न है और इसके मद्देनज़र किसी भी बिल के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर की
सहमति अपेक्षित है और अगर वे असहमत हैं, तो राष्ट्रपति की सहमति अपेक्षित है।
अब समस्या यह है कि
जून,2015 में संसदीय सचिव को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखने के लिए दिल्ली
विधानसभा के द्वारा जो पहल की गयी, उसे राजनीतिक
कारणों से केंद्र में सत्तारूढ़ दल टकराव की राजनीति के कारण न तो लेफ्टिनेंट
गवर्नर की अनुमति मिल सकी और न ही राष्ट्रपति की। इसी तकनीकी खामियों का लाभ उठाकर चुनाव
आयोग ने इन सदस्यों की विधानसभा सदस्यता को ख़ारिज करने की सिफ़ारिश राष्ट्रपति से
की। इस क्रम में चुनाव आयोग की भूमिका भी कम विवादास्पद और पूर्वाग्रहपूर्ण नहीं
रही।
भूतलक्षी प्रभाव का
मसला:
चुनाव आयोग का यह कहना है कि दिल्ली हाईकोर्ट के द्वारा संसदीय सचिवों
की नियुक्ति को असंवैधानिक ठहराए जाने के बावजूद मार्च,2015 से निर्णय के प्रभावी
होने तक इन सदस्यों ने लाभ का पद धारण किया जिसके कारण उसकी सदस्यता रद्द की जानी
अपेक्षित थी। चुनाव आयोग के इस कदम से सहमत काँग्रेस और
बीजेपी के अनुसार चूँकि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार ने भूतलक्षी
प्रभाव से संशोधनों को लागू कर नव-नियुक्त संसदीय सचिवों की विधानसभा-सदस्यता
बचानी चाही, इसीलिए उसे उचित ही लेफ्टिनेंट गवर्नर या राष्ट्रपति की अनुमति नहीं
मिली। साथ ही, दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सरकार के इस कदम को असंवैधानिक करार दिया,
इसलिए चुनाव आयोग के पास इनकी सदस्यता को
समाप्त करने की सिफारिश के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। इनका यह भी कहना है
कि दिल्ली सरकार के पास भूतलक्षी प्रभाव से क़ानून लागू करने का विकल्प नहीं है। लेकिन,
अनु. 191 में कहीं इस बात का उल्लेख नहीं है कि
राज्य विधानसभायें भूतलक्षी प्रभाव से कानून नहीं बना सकती हैं। यहाँ
तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों में यह स्पष्ट किया है कि संसद और राज्य
विधानसभाओं के पास भूतलक्षी प्रभाव से क़ानून बनाने का अधिकार है।
समस्या दिल्ली तक सीमित
नहीं :
दिल्ली का मसला कोई अपवाद
नहीं है। जुलाई,2017 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने हरियाणा में संसदीय सचिव के पद पर चार विधायकों की नियुक्ति
रद्द कर दी, लेकिन वेतन एवं भत्तों के
रूप में 1.5 लाख रुपये
से ज़्यादा मिलने के बावजूद उनकी सदस्यता बनी रही। नवंबर,2017 में दस संसदीय सचिवों की नियुक्ति
करते हुए उन्हें राज्य मंत्री का दर्ज़ा प्रदान किये जाने के मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने वहाँ के मुख्य सचिव, प्रधान सचिव और कैबिनेट सचिव को नोटिस
जारी किया है। ममता बनर्जी ने दोबारा सत्ता में आने से पहले 24 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया था,
लेकिन 2013 में दायर
जनहित याचिका पर विचार अक्र्ते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने ममता बनर्जी सरकार के इस नियुक्ति
को रद्द कर दिया, लेकिन उनकी सदस्यता बची रही। मार्च,2015 को दिल्ली सरकार के द्वारा 21 विधायकों की संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति के महज दो महीने बाद
छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार के द्वारा 11 विधायकों की संसदीय
सचिव के रूप में नियुक्ति की गयी। सितंबर 2016 में अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री
पेमा खांडू के द्वारा 26 विधायकों को संसदीय सचिव के रूप में
नियुक्त किया गया और फिर मई,2017 में 5 और विधायकों की संसदीय सचिव के रूप
में नियुक्ति की गयी।
अगस्त,2017 में इस मसले पर छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट
ने कहा कि अगर इनकी नियुक्ति गर्वनर से नहीं हुई है, तो इनकी नियुक्ति वैध नहीं मानी जाएगी और इसीलिये इनके सारे
अधिकार रद्द किये जाते हैं। इसी तरह का फैसला
तो दिल्ली के विधायकों के बारे में कोर्ट ने दिया था, लेकिन चुनाव आयोग ने उसके
विरुद्ध फैसला लिया। जून,2017 में आम आदमी पार्टी की शिकायत पर चुनाव आयोग ने मध्य प्रदेश सरकार
से जवाब माँगा है कि क्या 109 विधायक और 9 मंत्री
जनभागीदारी समिति के सदस्य, स्काउट एंड गाइड का आयुक्त और अन्य जैसे लाभ के पद
धारण करते हैं? ये तमाम मसले राजनीतिक दलों के ही नहीं, वरन् चुनाव आयोग के रवैये
को भी प्रश्न के दायरे में लाकर खड़ा कर देते हैं।
राष्ट्रपति की भूमिका:
इस मसले पर तत्कालीन राष्ट्रपति की भूमिका को लेकर भी प्रश्न उठते हैं। राष्ट्रपति ने इस बिल को अनुमति न देकर कुछ गलत तो नहीं किया, पर उनका यह निर्णय संसदीय व्यवस्था में संविधान की मूल
भावनाओं और संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। कारण यह कि दिल्ली
विधानसभा के द्वारा पारित बिल को अनुमति देने या
नहीं देने के लिए राष्ट्रपति स्वतंत्र हैं; लेकिन इस बिल के विभिन्न
पहलुओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति से यह
अपेक्षित था कि वे इस बिल को अनुमति प्रदान करें। संभव है कि
राष्ट्रपति ने केन्द्रीय मंत्रिपरिषद के साथ टकराव से बचने के लिए इस बिल को
अनुमति न देने का निर्णय लिया हो, जैसा कि केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से वे
संवैधानिक रूप से बँधे हुए हैं और इस कारण कहीं-न-कहीं उनपर भी दबाव हो।
चुनाव आयोग के निर्णय की युक्तिसंगतता:
जून,2017 में चुनाव आयोग ने अपने आदेश में यह स्पष्ट किया कि उसे आप
के विधायकों की सदस्यता के बारे में जानकारी तय करने का अधिकार उसके न्यायिक
क्षेत्र में है। इसी फैसले में आयोग ने कहा है कि इस मामले की आगे सुनवाई की
जायेगी और इस सन्दर्भ में समय एवं तारीख तय करने के बाद सूचित किया जाएगा, लेकिन
आयोग ने बिना इस मसले पर सुनवाई किये ही फैसला सुना दिया। इस आदेश पर तत्कालीन
वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी और वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त ए. के. जोती
के हस्ताक्षर हैं। तीसरे चुनाव-आयुक्त ओ. पी. रावत ने इस मामले से खुद को अलग कर
लिया। नए चुनाव-आयुक्त विपिन अरोड़ा ने अबतक इस मामले में कोई सुनवाई नहीं की है।
जून के बाद चुनाव आयोग के मुख्य कानूनी सलाहकार एस. के. मेंदिरत्ता को भी इस मामले
में कोई जानकारी नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह फैसला केवल मुख्य चुनाव
आयुक्त ए. के. जोती का है और इसमें निर्दिष्ट प्रक्रिया का पालन किया गया है? क्या
यह निर्णय तर्कसंगत और युक्तिसंगत है? कम-से-कम प्रथमदृष्टया तो ऐसा नहीं लगता है।
भविष्य
में आप के राजनीतिक संकट के गहराने की उम्मीद:
चुनाव आयोग के इस फैसले और राष्ट्रपति के द्वारा इसकी स्वीकृति के बाद
आप के लिए राजनीतिक संकट गहराता नजर आ रहा है क्योंकि आप के उन 27 विधायकों, इसमें
से 10 विधायक संसदीय सचिव मामले में शामिल हैं, की सदस्यता खतरे में है जिनकी नियुक्ति रोगी
कल्याण समिति के अध्यक्ष पद पर की गयी। विभोर आनंद की शिकायत पर यह मामला राष्ट्रपति के पास भेजा गया था और
फिर वहाँ से यह मामला चुनाव आयोग के पास पहुँचा। यद्यपि रोगी कल्याण
समिति के सदस्य के रूप में इन विधायकों को वेतन नहीं मिलता है, पर पानी-बिजली जैसी
सुविधाओं के नाम पर खर्च मिलते हैं। अस्पताल-प्रबंधन से जुडी इस समिति
के अध्यक्ष के पास डॉक्टर सहित अस्थाई
कर्मचारियों की भर्ती का अधिकार, दो लाख रुपये तक का निर्माण-कार्य और अस्पताल-परिसर में दुकान किराए या लीज पर देने का अधिकार है। इससे
सम्बंधित मामला भी चुनाव आयोग के पास विचाराधीन है और चुनाव आयोग के वर्तमान रुख
को देखते हुए फौरी राहत की कोई उम्मीद नहीं है। अगर
इस मामले में भी सदस्यता रद्द करने की सिफारिश की जाती है, तो आप सरकार खतरे में
पड़ जायेगी क्योंकि ऐसी स्थित में विधानसभा में ‘आप’ के केवल 29 सदस्य शेष रह
जायेंगे, जबकि बहुमत के लिए 36 सदस्य
जरूरी हैं। अबतक इस समिति में कोई भी विधायक केवल सदस्य के तौर पर शामिल किया
जाता था, लेकिन आप सरकार ने नियमों की अनदेखी करते हुए उन्हें अध्यक्ष के पद पर
नियुक्त किया।
विश्लेषण:
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में विचार करें, तो ‘लाभ के पद’ के मामले में
राष्ट्रीय स्तर पर समेकित नज़रिए को अपनाया जाना चाहिए, न कि अपनी सुविधा के हिसाब
से सेलेक्टिव एप्रोच को अपनाते हुए इसका राजनीतिकरण करना चाहिए। दिल्ली अकेला राज्य नहीं जिसने संसदीय सचिवों की नियुक्ति की है,
वरन् भारत के विभिन्न हिस्सों में ऐसे कई राज्य हैं जहाँ ऐसे पद मौजूद हैं और इन
राज्यों में भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलों की
सरकारें नहीं हैं। उनमें कई ऐसे राज्य हैं जिन्होंने इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं
के समायोजन के साधन में तब्दील कर दिया है। जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का
मंत्रिपरिषद् में समायोजन संभव नहीं हो पाता है, उन्हें विभिन्न जगहों पर समायोजित
करते हुए मंत्री न होने के बावजूद मंत्रिस्तरीय वेतन-भत्ते और सुविधायें प्रदान की
जाती हैं। इसी के मद्देनज़र संसदीय सचिवों को राज्य-मंत्री का दर्ज़ा प्रदान करते
हुए मंत्री जैसी सुविधायें प्रदान की गयी हैं। दिल्ली की स्थिति उन राज्यों से
भिन्न है जिनके सन्दर्भ में अबतक विभिन्न उच्च न्यायालयों का फैसला आया है।
कम-से-कम दिल्ली की सरकार न तो संसदीय सचिवों की नियुक्ति करने वाली पहली सरकार है
और न ही उसने उन्हें राज्य-स्तरीय मंत्री वाली सुविधायें प्रदान की हैं।
इससे इतर, प्रश्न संस्थागत सत्यनिष्ठा का भी है, सन्दर्भ चाहे
राष्ट्रपति का हो या चुनाव आयोग का, जिसका हर स्थिति में ख्याल रखा जाना चाहिए।
सरकारें आती-जाती रहती हैं, पर ये संस्थायें हैं जो देश को मजबूती प्रदान करती हैं।और
इसीलिए हर स्थिति में इसे कमजोर करने से बचना चाहिए और इसकी विश्वसनीयता की रक्षा
की जानी चाहिए।
जहाँ तक अनु. 239AA(4) के उल्लंघन का प्रश्न है, तो न तो
संसदीय सचिवों को राज्यमंत्री का दर्ज़ा प्रदान किया गया है और न ही इनके लिए
वेतन-भत्तों का प्रावधान किया गया। न तो इनकी
नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की गयी है और न ही राष्ट्रपति ने इनका शपथ-ग्रहण
करवाया है। वे स्वतंत्र निर्णय लेने में भी समर्थ
नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य और ब्रिटिश राजनीतिक
परिदृश्य में फर्क को भी समझा जाना चाहिए और यह भी कि पिछले 70 वर्षों के दौरान
भारत में संसदीय राजनीतिक के मूल्यों का निरंतर क्षरण दिखाई पड़ता है। किसी एक मसले
पर सेलेक्टिव तरीके से अपनाये गए रूख के जरिये क्षरण की इस प्रक्रिया को रोका नहीं
जा सकता है। अगर सरकार और राजनीतिक दल के साथ-साथ विभिन्न संवैधानिक संस्थायें
वाकई इस क्षरण को रोकने को लेकर गंभीर हैं, तो उन्हें ऐसे मसलों पर राजनीतिक
आम-सहमति कायम करते हुए बदलाव की दिशा में पहल करनी चाहिए। जो पहल दिल्ली के
सन्दर्भ में असंवैधानिक है और जिसके आधार पर दिल्ली विधानसभा-सदस्यों की सदस्यता
रद्द हो सकती है, वही पहल मध्यप्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश
से लेकर गोवा, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश तक के सन्दर्भ में कैसे सही हो सकती है और
कैसे इन राज्यों के सन्दर्भों में केवल पहल पर रोक लगाकर सदस्यता रद्द करने के
प्रश्न पर चुप्पी साधी जा सकती है?
लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि दिल्ली सरकार ने संसदीय सचिवों की
नियुक्ति कर सर्वथा उचित पहल की। दिल्ली हाईकोर्ट ने इस पहल को ख़ारिज कर उचित ही
किया। यह सन्देश है उन राजनीतिक दलों के लिए, जो राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के
समायोजन एवं इसकी तुष्टि के लिए संविधान और संवैधानिक मूल्यों के साथ छल करते हैं।
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