Wednesday, 17 April 2019

बेगूसराय-नामा भाग 7 बेगूसराय की बदलती हवा: ज़मीन खोते तनवीर


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बेगूसराय-नामा भाग 7
बेगूसराय की बदलती हवा: ज़मीन खोते तनवीर  
चुनावी विश्लेषकों के लिए कब्रगाह बन सकता है बेगूसराय
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जब महागठबंधन ने बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से सीपीआई एवं कन्हैया कुमार को समर्थन देने की बजाय अपने उम्मीदवार के रूप में तनवीर हसन को उतारने का निर्णय लिया, तो यह निर्णय कन्हैया कुमार एवं सीपीआई के साथ-साथ उन लोगों के लिए बहुत बड़ा झटका था जो यह चाहते थे कि मोदी-विरोधी महागठबंधन अपनी पूरी ताक़त से चुनौती दे। निश्चित तौर पर राजद के इस निर्णय ने क्षेत्र में पहले से ही सक्रिय कन्हैया कुमार को बैकफुट पर धकेला और उसकी तुलना में तनवीर हसन को मनोवैज्ञानिक बढ़त प्रदान की। लेकिन, यह पूरा आकलन सन् 2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते किया गया और आज भी किया जा रहा है, जबकि 2019 का चुनावी परिदृश्य पूरी तरह से बदला हुआ है। तब से लेकर अबतक के घटनाक्रमों पर गौर करें, तो बेगूसराय का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदला है।    
बढ़त बनाते तनवीर:
आरंभ में तनवीर हसन को गंभीरता से लिया गया और कन्हैया की चुनावी संभावनाओं को खारिज करने की कोशिश की गयी। न केवल विरोधियों और राजनीतिक पंडितों ने कन्हैया कुमार की चुनावी संभावनाओं को खारिज किया, वरन् उनके समर्थक भी इसको लेकर आशंकित थे। आरंभिक नाकर-नुकर के बाद गिरिराज भी माने, उन्होंने धमाकेदार एंट्री की, और इस प्रकार हासिल मोमेंटम को अपने नामांकन के पहले तक बनाये रखा। पर, वे नामांकन वाले दिन ही मोमेंटम लूज करते दिखे और गिरिराज की रैली के बाद 8 अप्रैल को महागठबंधन की ओर से राजद-प्रत्याशी के रूप में डॉ. तनवीर हसन ने नामांकन दाखिल किया और माना जाता है कि तनवीर की रैली में गिरिराज की तुलना में दोगुनी भीड़ थी। इसके साथ मोमेंटम तनवीर की तरफ शिफ्ट करता दिखाई पड़ा और ऐसा लगा कि भले ही सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तनवीर हसन को खारिज कर रहा हो, पर उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए। वैसे भी, जमीनी राजनीति की समझ रखने वाले तनवीर को खारिज करने की गलती कभी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि गिरिराज सिंह कभी भोला सिंह नहीं हो सकते। कन्हैया कुमार जीतें तब भी और हारें तब भी, गिरिराज को उतना डैमेज कर जायेंगे कि वो तनवीर से पिछड़ जाएँ। इसलिए भी कि पिछले चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की फूट का सीधा लाभ भोला बाबू को मिला था, और तब भी प्रचंड मोदी-लहर के बावजूद वे महज 58 हज़ार वोटों से जीत पाए थे। इस प्रकार का विश्लेषण तनवीर के पक्ष में माहौल बनाता दिखा और परसेप्शन की लड़ाई में तनवीर आगे निकलते दिखाई पड़े। लेकिन, यह माहौल ज्यादा समय तक नहीं बना रह पाया। इससे पहले कि तनवीर इसका लाभ उठाने की दिशा में पहल कर पाते, कन्हैया के नामांकन के साथ सब कुछ बदलता दिखा। इसके बाद से अबतक तनवीर मोमेंटम लूज करते दिखाई पड़े, और उनकी कीमत पर कन्हैया बढ़त बनाते दिखाई पड़े।      
तनवीर की बढ़ती मुश्किलें:
दरअसल तनवीर की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि वे राजद के परम्परागत वोटबैंक कहाँ तक बचाए रख पाते हैं, और कहाँ तक उसे सुदृढ़ कर पाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में राजद ने एक ओर ‘माय’ (मुस्लिम+यादव) समीकरण को ‘मुनिया’ (मुस्लिम+निषाद+यादव) समीकरण में बदलते हुए और दूसरी ओर जीतन राम माँझी एवं उपेन्द्र कुशवाहा को इसे अपने साथ जोड़कर उस समीकरण को सुदृढ़ करते हुए तनवीर हसन के साथ-साथ अपने अन्य उम्मीदवारों के लिए मज़बूत किलेबंदी की। लेकिन, बेगूसराय में आकर इस समीकरण के ध्वस्त होने की सम्भावना प्रबल होती दीख रही है।
दलितों एवं पिछड़ों के बीच दरकता जनाधार:
अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा कैसे संभव हो पा रहा है? सबसे पहले यह कि कन्हैया कुमार पिछले करीब साल-डेढ़ साल से क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं, और उनकी यह सक्रियता बेगूसराय के उन क्षेत्रों में कहीं अधिक रही है जो बेगूसराय का पिछड़ा एवं दलित-बहुल इलाका है और यह इलाका पारंपरिक रूप से सीपीआई का गढ़ रहा है जो सामाजिक न्याय की राजनीति के जोर पकड़ने के साथ उससे छिटकता चला गया। इसके लिए कन्हैया ने गुजरात से अपने मित्र विधायक एवं दलित नेता जिग्नेश मेवानी को भी बुलवाया और वे लगातार कैम्प कर रहे हैं, और दलितों के बीच जाकर कन्हैया के पक्ष में माहौल बनाने में लगे हैं।  
इतना ही नहीं, कन्हैया को मालूम है कि लालू यादव जेल में हैं, और पारिवारिक अंतर्कलह एवं टिकेट-वितरण को लेकर पार्टी के भीतर उपजे असंतोष के कारण राजद के नेतृत्व की ऊर्जा सही दिशा में नहीं लग पा रही है। उन्हें लगातार असंतुष्ट गतिविधियों का सामना करना पड़ रहा है और वे अबतक इसे सम्भाल पाने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी स्थिति में तनवीर के लिए चीजें आसान नहीं होने जा रही हैं।
इस बात को ध्यान में रखते हुए कन्हैया ने दबाव की राजनीति को बनाये रखने की दिशा में पहल की है और अपनी इमेज की परवाह किये बिना पप्पू यादव को समर्थन देते हुए युवा यादव मतदाताओं के अपने प्रति आकर्षण को सुदृढ़ करने और उसे वोट में तब्दील करने की रणनीति अपनायी है। ऐसा लग रहा है कि कन्हैया इन वोटों को कुछ हद तक अपनी तरफ खींच पाने में सफल होते दिख रहे हैं, और इसका सीधा मतलब राजद के वोट-बैंक में सेंध लगना है। तनवीर हसन और उनके समर्थकों की प्रतिक्रिया भी इस ओर इशारा कर रही है।     
छिटकते मुसलमान:
जहाँ तक मुस्लिम वोट-बैंक के रुझानों का प्रश्न है, तो आरम्भ में मुसलमानों का रुझान तनवीर हसन की ओर था और भूमिहारों का वोट बँटते देखकर उन्हें इस बात की खुशी थी कि इस बार उनके समुदाय को बेगूसराय का प्रतिनिधित्व करने का मौक़ा मिलेगा। दरअसल राजद ने बिहार से पाँच मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया है और यह मैसेज देने की कोशिश की कि सीपीआई और कन्हैया कुमार ऐसे दौर में मुसलमानों का हक़ मारने की कोशिश कर रहे हैं जब कोई पार्टी मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन, राजद से यहीं पर चूक हुई, क्योंकि उसके पाँचों मुस्लिम उम्मीदवार मुस्लिम अभिजात समूह से आते हैं, जो पसमांदा मुसलमानों को नागवार लगा और पहली बार बेगूसराय के मुसलमान पसमांदा एवं गैर-पसमांदा लाइन पर बँटते दिखाई पड़े। समस्या सिर्फ इतनी नहीं रही, समस्या यह भी रही कि जैसे ही तनवीर हसन ने कन्हैया कुमार को खतरे के रूप में महसूस किया, उन्होंने एवं उनके समर्थकों ने कन्हैया कुमार की सवर्ण पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए उसे भूमिहार के रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया और उस पर हमला तेज़ किया, तो तनवीर की भी सामाजिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए उन पर हमले शुरू हुए।
आरम्भ में मुस्लिम दुविधा में दिखे, लेकिन धीरे-धीरे मुस्लिम युवा और पिछड़े मुसलमान खुलकर कन्हैया के पक्ष में आने लगे। उन्होंने इस बात को समझा कि:
1.     तनवीर की जीत मुश्किल होगी, और
2.     अगर तनवीर जीत भी गए, तो बेगूसराय को .महज एक सांसद मिलेगा;
3.     अगर कन्हैया कुमार जीते, तो मोदी-विरोधी एक सशक्त आवाज़ संसद तक पहुँचेगी क्योंकि पिछले तीन वर्षों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर कन्हैया मोदी-विरोध के प्रतीक में तब्दील हो गए हैं।
इतना ही नहीं, धीरे-धीरे पिछड़े मुसलमान कन्हैया के पक्ष में सामने आने लगे, और उन्होंने यह महसूस करना शुरू किया कि कन्हैया का साथ देकर ही गिरिराज की हार को सुनिश्चित किया जा सकता है। भूतपूर्व सांसद डॉ. एजाज अली ने खुलकर तनवीर हसन की आलोचना करते हुए मुसलमानों से कन्हैया कुमार के पक्ष में सामने आने की अपील की। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें एक ओर जाति एवं धर्म से परे बेगूसराय के युवाओं में, दूसरी ओर मुस्लिम वोटरों में कन्हैया के प्रति बढ़ता हुआ आकर्षण राजद और तनवीर के इस समीकरण को भेदता हुआ लग रहा है।
काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा:
तनवीर हसन की मुश्किलें यहीं तक सीमित नहीं है। मुश्किल यह भी है कि एक ओर काँग्रेस के कार्यकर्ता धीरे-धीरे खुलकर कन्हैया के पक्ष में सामने आने लगे हैं, और दूसरे, शायद विश्वास के अभाव के कारण तनवीर हसन अपने चुनाव-अभियान में गठबंधन सहयोगी काँग्रेस का सक्रिय सहयोग नहीं ले रहे हैं। इस कारण काँग्रेस का स्थानीय नेतृत्व और उसके कार्यकर्ता खुद को उपेक्षित एवं तिरस्कृत महसूस कर रहा है जिसके कारण इस बात की पूरी संभावना है कि चुनाव के करीब आते-आते या तो काँग्रेस का स्थानीय नेतृत्व चुप बैठ जाए, या फिर गिरिराज सिंह की हार सुनिश्चित करने के लिए कन्हैया के पक्ष में खुलकर सामने आ जाए। इस क्रम में भूमिहार-फैक्टर का प्रभाव भी सामने आ रहा है।
तनवीर की वापसी नामुमकिन नहीं:
संक्षेप में कहें, तो तनवीर की वापसी मुश्किल तो है, पर नामुमकिन नहीं। स्थिति के स्पष्ट होने के लिए अन्त तक और विशेष कर आखिरी जुमे तक प्रतीक्षा करनी होगी। अगर आने वाले समय में चुनाव के ठीक पहले वाले आखिरी जुमे की नमाज़ के दिन तनवीर के पक्ष में कोई फतवा जारी किया गया, तो फिर कन्हैया की मुश्किलें बढ़ सकती हैं, क्योंकि यह स्थिति तेजी से धर्म एवं सम्प्रदाय-आधारित ध्रुवीकरण की ओर ले जायेंगी, और ऐसी स्थिति में कुछ भी कह पाना मुश्किल हो जाएगा। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी यही हुआ था, और अंतिम समय तक बढ़त के बावजूद भूमिहार वोटों के ध्रुवीकरण ने बाजी भोला सिंह के पक्ष में पलट दी। लेकिन, इस बार स्थिति थोड़ी अलग है। न कन्हैया राजेंद्र सिंह हैं और न ही इस बार कम्युनिस्ट पार्टी पिछली बार की तरह विभाजित है। उसके कैडरों की उत्साह एवं ऊर्जा जोरों पर है। उधर गिरिराज भी भोला सिंह नहीं हैं और न ही इस बार भाजपा पिछली बार की तरह ऊर्जा एवं उत्साह से लैश है। इतना ही नहीं, वे बाहरी उम्मीदवार भी हैं।` उन्हें राज्य भाजपा नेतृत्व से अपेक्षित सहयोग भी नहीं मिल रहा है और प्रान्तीय नेतृत्व की रूचि उनकी हार सुनिश्चित करने में है। उधर, यह भी संभव है कि आने वाले समय में राजद लालू के बहाने विक्टिमहुड कार्ड खेलें, और ऐसी स्थिति में कन्हैया की परेशानी बढ़ सकती है क्योंकि लालू लम्बे समय से बीमार हैं, उन्हें जमानत नहीं लेने दिया गया और ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने स्वास्थ्य का हवाला देते हुए अपने वोटर्स से मार्मिक अपील करें   
स्पष्ट है कि अबतक मुसलमानों का रुझान कन्हैया की ओर भी दिखाई पड़ रहा है, लेकिन अंतिम समय तक यह बढ़त बनी रहे, इसकी कोई गारन्टी नहीं है। ऐसा नहीं कि कन्हैया कुमार इस खतरे से वाकिफ नहीं हैं। इसीलिए शेहला रशीद और नजीब की अम्मी तो कैम्प कर ही रही हैं, इसके अलावा भूतपूर्व संसद डॉ. एजाज अली भी कन्हैया के पक्ष में प्रचार के लिए तीन दिनों के लिए बेगूसराय आ रहे हैं और इस बात की भी संभावना है कि जावेद अख्तर एवं शबाना आज़मी जैसे सेलेब्रिटी भी अंत-अंत तक कन्हैया के प्रचार के लिए बेगूसराय आयें। ये तमाम तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि कन्हैया इस मामले में कोई रिस्क लेने के लिए तैयार नहीं है। वे यह भी जानते हैं कि गिरिराज सिंह इस लड़ाई को हिन्दू बनाम् मुस्लिम की लड़ाई का रूप देने की कोशिश करेंगे, और कहीं-न-कहीं तनवीर को भी गिरिराज की यह रणनीति सूट करती है। इस स्थिति में कन्हैया के तीसरे स्थान पर फिसलने का खतरा उत्पन्न हो सकता है और इस संभावना को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है, यद्यपि यह भी सच है कि समय बीतने के साथ इस बात की सम्भावना क्षीण पड़ती जा रही है।   

Tuesday, 16 April 2019

बेगूसराय-नामा भाग 6बेगूसराय की बदलती हवा: गिरिराज का पिछड़ना

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बेगूसराय-नामा भाग 6
बेगूसराय की बदलती हवा: गिरिराज का पिछड़ना
चुनावी विश्लेषकों के लिए कब्रगाह बन सकता है बेगूसराय
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गिरिराज के आगमन के साथ बदलती हवा:

पिछले दिनों गंगा से बहुत पानी गुजर चुका है। धीरे-धीरे बेगूसराय का चुनावी परिदृश्य साफ़ होता जा रहा है। गिरिराज के बेगूसराय आने के लिए राजी होने से पहले तक मोमेंटम सीपीआई उम्मीदवार डॉ. कन्हैया कुमार के पक्ष में था, लेकिन गिरिराज के मानने और बेगूसराय आने के बाद यह मोमेंटम गिरिराज की ओर शिफ्ट करता दिखाई पड़ा और ऐसा लगा कि गिरिराज अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे हैं। लेकिन, गिरिराज के पक्ष में जो मोमेंटम था, वह मोमेंटम नामांकन तक आते-आते टूटता दिखा। 6 अप्रैल को गिरिराज सिंह द्वारा राजग-गठबंधन की ओर से भाजपा-प्रत्याशी के रूप में नामांकन दाखिल किया गया, लेकिन भीड़ न जुट पाने के कारण यह बतलाया गया कि गिरिराज ने 5 अप्रैल को सड़क-दुर्घटना में आठ लोगों की मौत के कारण ग़मगीन माहौल को ध्यान में रखते हुए अपने नामांकन-समारोह को सादा-साडी रखने का निर्णय लिया, जबकि सुबह तक भाजपा नेताओं के द्वारा लोगों से यह अपील की गयी कि वे नामांकन-रैली में अधिक-से-अधिक संख्या में शामिल हों। लेकिन, जब विरोधियों ने इसको मुद्दा बनाना चाहा, तो यह दावा किया जाने लगा कि नामांकन के दौरान होने वाली रैली में लोग भारी संख्या में शामिल थे। इसके बाद बेगूसराय लाइव और बेगूसराय टुडे जैसे वेबसाइट गिरिराज के पक्ष में माहौल बनाने में जुट गए, और ऐसा लगा कि उन्होंने पेड चैनल की भाँति गिरिराज सिंह के पक्ष में माहौल बनाने में जुट गए है, और इसके लिए उन्होंने कन्हैया के विरुद्ध दुष्प्रचार एवं घृणा फ़ैलाने का सघन अभियान चला रखा है। सोशल मीडिया के साथ मिलकर इसने गिरिराज को परसेप्शन की लड़ाई में आगे कर दिया। यहाँ तक कि प्रिंट मीडिया में भी कन्हैया के स्पेस सिकुड़ता दिखाई पड़ा और गिरिराज के लिए स्पेस बढ़ता चला गया।पिछड़ते गिरिराज:
कन्हैया के नामांकन और रोड-शो की सफलता के बाद ऐसा लगा कि गिरिराज और उनके समर्थकों का विश्वास डोल गया। अचानक वे परिदृश्य से गायब होते दिखे और पूरा बेगूसराय कन्हैयामय होता दिखा। लेकिन, गहराई से विचार करें, तो गिरिराज का चुनाव-अभियान शुरू होते ही अपनी रफ़्तार खोता दिखा और इसके कारण हैं बेगूसराय भाजपा का अंतर्कलह, गुटबाजी के कारण गिरिराज को भाजपा के स्थानीय नेतृत्व का समुचित एवं पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पाना, और इसकी पृष्ठभूमि में उत्प्रेरक का काम कर रहा है उनका एर्रोगेन्स, जिसे स्थानीय नेतृत्व एवं कार्यकर्ताओं के लिए पचा पाना आसान नहीं है। इसका कारण यह है कि:
1.     दरकता भूमिहार वोट-बैंक: गिरिराज स्थानीय नहीं है, वे बाहरी हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही कन्हैया ने ‘नेता नहीं, बेटा’ का नारा दिया, और धीरे-धीरे ही सही, कन्हैया का यह नारा परवान चढ़ाता दिखायी पड़ रहा है। युवा भूमिहार मतदाताओं के बीच तो वे पहले से ही लोकप्रिय थे और उन्हें तो वे पहले से ही अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे, इस नारे के सहारे उन्होंने बुजुर्गों एवं विशेष रूप से महिलाओं को अपनी ओर खींचा। इसमें कन्हैया की निम्न वर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सहायक है, और लोगों को लग रहा है कि एक गरीब परिवार का बच्चा उनके दुःख-दर्द को कहीं अधिक बेहतर तरीके से समझेगा, और उनका कहीं बेहतर प्रतिनिधित्व करेगा। कुल-मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कन्हैया गिरिराज की अपेक्षाओं के विरुद्ध भूमिहार वोट-बैंक में सेंध लगाने में सफल होता दिखाई पड़ रहा है, और इसके कारण गिरिराज की चिंताओं का बढ़ना स्वाभाविक ही है।      
2.     ‘बेगूसराय के लिए बेगूसराय का उम्मीदवार’ का नारा बुलंद करते हुए स्थानीय नेतृत्व ने लम्बे समय तक बाहरी उम्मीदवार दिए जाने का विरोध करते हुए उनके विरुद्ध सघन अभियान चलाया है। इसीलिए स्थानीय नेतृत्व के लिए गिरिराज को स्वीकार कर पाना मुश्किल है, क्योंकि उनकी जीत का मतलब होगा एक पीढ़ी के राजनीतिक भविष्य पर पूर्ण विराम लग जाना।
3.     आनेवाले समय में बेगूसराय में अगर प्रधानमन्त्री के द्वारा घोषित योजनाएँ अमल में लाई जाती हैं, तो ठीकेदारी को लेकर टकराहटों के तेज़ होने की संभावना प्रबल होगी, और गिरिराज के सांसद होने का मतलब होगा ठीकेदारी से सम्बंधित इन मसलों में उनका दखल, जो यहाँ के कई लोगों के हितों को प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा। इसीलिए ऐसे लोग भले ही पार्टी के दबाव में गिरिराज के साथ निकालें, पर वे पूरे मन से उन्हें सहयोग देंगे, इसको लेकर आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं।  
4.     गिरिराज के रवैये से ऐसा लग रहा है कि वे उम्मीदवार कम, केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री के रूप में कहीं अधिक पेश आ रहे हैं, और उनका कार्यकर्ताओं से लेकर वोटर तक से मिलने का अंदाज़ वही है लोगों को खल रहा है। इसकी प्रतिक्रिया में धीरे-धीरे वे घर बैठ रहे हैं। बलिया-दौरे के क्रम में जद(यू) के कार्यकर्ता के साथ गिरिराज के दुर्व्यवहार, या द क्विंट के पत्रकार के साथ दुर्व्यवहार का वायरल हुआ वीडियो इसकी पुष्टि करता है।
5.     हाल में बेगूसराय में बजरंग दल एवं एबीवीपी की बढ़ती सक्रियता ने समाज में कई स्तरों पर परेशानियाँ उत्पन्न की हैं, और इनकी गतिविधियों के कारण लोग आजिज़ आने लगे हैं। इतना ही नहीं, एक दौर में थाना और ब्लॉक की जिस दलाली ने वामपंथ के अवसान का मार्ग प्रशस्त किया था, आज वही स्थिति बीजेपी के छुटभैये नेताओं की है। ऐसे लोग गिरिराज सिंह की सोच के कहीं अधिक करीब हैं, और ऐसी आशंका है कि गिरिराज की जीत ऐसे लोगों के लिए टॉनिक का काम करेगी। इसका असर बेगूसराय के सामाजिक-धार्मिक सौहार्द्र पर पर सकता है और इन लोगों से उसे खतरा हो सकता है।
6.     यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि गिरिराज नीतीश-विरोधी खेमे से आते हैं और उन्होंने भाजपा में रहते हुए नीतीश कुमार का खुलकर विरोध किया है। नीतीश कुमार का रवैया भी बहुत कुछ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी वाला है और वह यह कि वे माफ़ करना नहीं जानते हैं। इसीलिए पहले तो उन्होंने भाजपा के अपने घनिष्ठ मित्रों के माध्यम से गिरिराज सिंह को नवादा से साइडलाइन किया और फिर बेगूसराय में लाकर मुश्किल परिस्थितियों में उलझा दिया। नीतीश कुमार की दिली इच्छा है कि वे चुनाव हार जाएँ, और ज़रुरत पड़ने पर वे परदे के पीछे से इसे सुनिश्चित करने का काम भी कर सकते हैं।
कन्फ्यूज्ड गिरिराज:         
इतना ही नहीं, गिरिराज बेगूसराय को लेकर आरम्भ से ही कन्फ्यूज्ड दिखे। पहले कम्युनिस्ट पार्टी से कन्हैया की उम्मीदवारी कन्फर्म होते ही उनका विश्वास हिलाता हुआ दिखा, और वे नवादा से बेगूसराय आने को लेकर नाकर-नुकर करते दिखे। फिर, जब वे बेगूसराय आने के लिए तैयार हुए, तो वे इस बात को लेकर कन्फ्यूज्ड दिखे कि अपनी रणनीति का निर्धारण वे किसको ध्यान में रखकर करें: कन्हैया को ध्यान में रखकर, या फिर तनवीर हसन को ध्यान में रखकर। उन्होंने एक ओर कन्हैया की संभावनाओं को खारिज करते हुए तनवीर को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी बतलाया, दूसरी ओर देशभक्ति-देशद्रोह के विमर्श से अपने चुनाव-अभियान की शुरुआत की जो उनके मानस-पटल पर कन्हैया के खौफ को दर्शाता है। लेकिन, नामांकन तक आते-आते उन्हें यह महसूस होने लगा कि इस राजनीतिक विमर्श में वे पिछड़ते जा रहे हैं, तो वे तनवीर को टारगेट करते हुए उग्र हिंदुत्व के फायर-ब्रांड वाली अपनी छवि की ओर वापस लौटते दिखे। ‘गिरिराज सिंह हिन्दुओं का शेर है’ का नारा और आज़म खान को टारगेट करने की कोशिश इसी ओर इशारा करती है। उन्हें यह पता है कि अगर चुनाव-अभियान हिन्दू बनाम् मुसलमान की तर्ज़ पर आगे बढ़ता है, तो इसका फायदा उन्हें और तनवीर को मिलेगा और ऐसी स्थिति में इस सीट को निकलना उनके लिए अपेक्षाकृत आसान होगा। इसीलिए ऐसा लग रहा था कि रामनवमी के बहाने हो सकता है कि गिरिराज इस रणनीति को अमल में लाने की दिशा में पहल करें, पर प्रतिपक्षी कन्हैया की चाल ने उनकी एक न चलने दी। कन्हैया ने एनडीटीवी के रवीश कुमार को दिए इंटरव्यू में इसको लेकर न केवल अपनी आशंका प्रदर्शित की, वरन् इसको काउंटर करने की अपनी रणनीति का भी खुलासा कर दिया जिसके कारण दबाव वापस गिरिराज एवं भाजपा की तरफ शिफ्ट करता दिखा। ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी बदनामी का कारण बन सकती थी और उसके परिणाम घातक हो सकते थे।
कमबैक करने में सक्षम गिरिराज:
लेकिन, इन तमाम आशंकाओं एवं कयासों के बीच इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि भूमिहार एवं भाजपा की जुगलबंदी को तोड़ पाना कन्हैया के लिए आसान नहीं होने जा रहा है, क्योंकि भूमिहारों का एक बड़ा तबका वर्चस्व की राजनीति में विश्वास करता है और उसके फ्रेमवर्क में जितना गिरिराज फिट बैठते हैं, उतना कन्हैया नहीं; इसीलिए वह गिरिराज के पक्ष में खुलकर सामने आ चुका है। इस प्रक्रम को कन्हैया कुमार के गाँव बीहट से लेकर रामदीरी एवं सिहमा तक देखा जा सकता है, इसीलिए गिरिराज किसी भी समय कमबैक कर सकते हैं। वे जरूरत पड़ने पर इसके लिए पानी की तरह पैसा भी बहा सकते हैं, देशभक्ति-देशद्रोह का उन्माद खड़ा कर सकते हैं, और हिन्दू-मुस्लिम लाइन पर भी बढ़ सकते हैं। इतना ही नहीं, जिस तरह से बेगुसराय की सीट भाजपा और स्वयं प्रधानमंत्री के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन गयी है, उसे देखते हुए इस बात की पूरी संभावना है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और स्वयं प्रधानमंत्री इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि बेगूसराय से गिरिराज की जीत हो और कन्हैया की हार, अन्यथा कन्हैया आने वाले समय में प्रधानमंत्री मोदी के लिए परेशानियाँ सृजित करने वाला साबित होगा, बशर्ते वे दोबारा सरकार का नेतृत्व करें। इसीलिए अंत-अंत तक गिरिराज को हल्के में लेना खतरे से खाली नहीं होगा।  


Monday, 1 April 2019

बेगूसराय-नामा भाग 5 तनवीर हसन साबित हो सकते हैं डार्क हॉर्स


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बेगूसराय-नामा भाग 5
तनवीर हसन साबित हो सकते हैं डार्क हार्स!
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पिछले 68 वर्षों की संसदीय राजनीति के इतिहास में बेगूसराय को कभी राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आने का मौक़ा नहीं मिला था, लेकिन इस बार की स्थिति अलग है। इस बार बेगूसराय संसदीय क्षेत्र देश के दस सर्वाधिक चर्चित संसदीय क्षेत्रों में तब्दील हो चुका है और इसका श्रेय जाता है भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी और उनकी रणनीति को, जिन्होंने कन्हैया कुमार के बहाने लेफ्ट को टारगेट करने की कोशिश की और संयोग से कन्हैया कुमार की जन्मभूमि होने के कारण उसकी तरह बेगूसराय को भी विक्टिमाइजेशन का शिकार होना पड़ा। पिछले तीन वर्षों के दौरान मेरी तरह ही अन्य अप्रवासी बेगूसराइट्स(NRB) को भी हिकारत भारी नज़रों से देखा गया: “अच्छा, आप भी उसी बेगूसराय से हैं जहाँ से कन्हैया कुमार है!”; मानो बेगूसराय से होना कोई अपराध हो। अब यह बात अलग है कि बेगूसराय से होना हमेशा से यहाँ के लोगों के लिए गर्व का विषय रहा है और इसका इजहार करने से भी उन्हें परहेज़ नहीं रहा है। चाहे शिक्षा की बात की जाय, या बौद्धिक सक्रियता की; इतिहास, कला, साहित्य, संस्कृति एवं खेल: इन तमाम क्षेत्रों में बिहार के भीतर ही नहीं, वरन् बिहार के बाहर भी बेगूसराय की अपनी भिन्न एवं विशिष्ट पहचान रही है। इस पृष्ठभूमि में कन्हैया कुमार और बेगूसराय से उनके चुनाव लड़ने के बहाने बेगूसराय को एक बार फिर से राष्ट्रीय क्षितिज़ पर उभरने अपने धमक को महसूस कराने का मौक़ा मिला।
बेगूसराय का गरमाता चुनावी माहौल:
बेगूसराय का चुनावी माहौल अब गरमाने लगा है और यह देश के 543 लोकसभा सीटों में दस सर्वाधिक चर्चित सीटों में तब्दील हो चुका है। वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, जो बिहार के नवादा संसदीय क्षेत्र के निवर्तमान सांसद हैं और जिन्हें इस चुनाव में बेगूसराय शिफ्ट करते हुए यहाँ से एनडीए गठबंधन की ओर से भाजपा उम्मीदवार बनाया गया है, के द्वारा इस सीट से चुनाव-लड़ने में आना-कानी ने भी इसे चर्चा में बनाये रखने का काम किया और कहीं-न-कहीं इसका मनोवैज्ञानिक लाभ कन्हैया कुमार मिलता दिखा। लेकिन, अब उग्र-हिंदुत्व और उग्र-राष्ट्रवाद के फायरब्रांड के रूप में बिहार की भाजपा में अपनी भिन्न एवं विशिष्ट पहचान बनाने वाले गिरिराज पूरे दम-खम के साथ चुनावी मैदान में उतर चुके हैं। वामपंथी मोर्चे की ओर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(CPI) की ओर से घोषित उम्मीदवार कन्हैया कुमार ने तो पिछले छह महीने से इस क्षेत्र में अपना सघन जन-संपर्क अभियान चला रखा है और इसका उन्हें लाभ भी मिलता दिखा रहा है, लेकिन उनके सामने मुश्किलें खड़ी कर रहें हैं राजद उम्मीदवार एवं पिछले संसदीय चुनाव में दूसरे स्थान पर रहने वाले तनवीर हसन।
तनवीर हसन होने के अपने फायदे और नुकसान:
कन्हैया कुमार की तरह तनवीर हसन भी छात्र राजनीति से होते हुए संसदीय राजनीति में आये हैं। उनकी तुलना में कन्हैया कुमार संसदीय राजनीति के लिए नए-नवेले हैं। भले ही अपनी उम्र की तुलना में उनके पास अपेक्षाकृत अधिक अनुभव एवं परिपक्वता हो, पर तनवीर के मुकाबले उनके पास संसदीय राजनीति का अनुभव अपेक्षाकृत कम है। तनवीर की छवि भी साफ़-सुथरी है और वे कन्हैया कुमार की तरह बाहरी बनाम् भीतरी विवाद में धरती-पुत्र की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। उनकी तैयारी भी अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बेहतर है क्योंकि उनके पास राजद के रूप में एक मज़बूत दल का साथ है जिसके पास एक मज़बूत वोट-बैंक है और जिसने कुशवाहा, मुसहर एवं साहनी मतदाताओं को अपने माय(मुस्लिम+यादव) समीकरण के साथ जोड़ते हुए अपनी चुनावी संभावनाओं को बल प्रदान किया है। अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के विपरीत तनवीर हसन का राजनीतिक जीवन लो-प्रोफाइल रहा है और वे लो-प्रोफाइल जीवन जीते हुए लाइमलाइट से दूर रहे हैं जिसके अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी। इनके वोट-बैंक में सेंध लगा पाना कन्हैया के लिए आसान नहीं होने जा रहा है और बिना इसमें सेंध लगाये कन्हैया की जीत बहुत ही मुश्किल है। जिस तरह इन्हें हल्के में लिया जा रहा है, वह जमीनी हकीक़त से भिन्न है और संभव है कि गिरिराज और कन्हैया की लड़ाई में तनवीर चुनावी सफलता अपने नाम कर लें।
तनवीर के पक्ष में एक बात यह भी है कि अगर गिरिराज सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की दिशा में बढ़ते हैं, इसका लाभ उन्हें भी मिलेगा। गिरिराज के सन्दर्भ में बेगूसराय में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की सीमा यह है कि यह भूमिहार वोटों के उनके पक्ष में ध्रुवीकरण को सुनिश्चित तो करेगा, पर बिहार में जाति की राजनीति के धर्म की राजनीति के ऊपर हावी रहने के कारण इस बात की संभावना कम है कि यह उनके पक्ष में हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण को सुनिश्चित करेगा और वे इसकी बदौलत राजद के माय-समीकरण को ध्वस्त कर पायेंगे। इसके उलट यह तनवीर के पक्ष में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण को सुनिश्चित करेगा जिसका सीधा लाभ तनवीर को हो सकता है और यह राजनीति कन्हैया के मुकाबले तनवीर की राह को आसान कर सकती है, यद्यपि इस विश्लेषण की भी अपनी सीमा है जिस पर चर्चा आगे की जायेगी। इतना ही नहीं, तनवीर को काँग्रेस का साथ भी मिल रहा है और ऐसी स्थिति में उन्हें काँग्रेस के परंपरागत वोट-बैंक का लाभ मिलेगा, चाहे वह कितना भी सीमित क्यों न हो, और उन लोगों का भी जो काँग्रेस के प्रति सहानुभूति रखते हैं’। इसके अतिरिक्त तनवीर  उन सवर्ण मतदाताओं को भी एक विकल्प उपलब्ध करा रहे हैं जो न तो भाजपा के साथ जाना पसंद करते हैं और न ही कन्हैया की तथाकथित ‘देशद्रोही वाली छवि’ एवं अपनी कम्युनिस्ट-विरोधी मानसिकता के कारण कन्हैया के साथ।    
तनवीर के लिए एक्स-फैक्टर:
लेकिन, ऊपर की चर्चा के आलोक में यह निष्कर्ष निकलना कि तनवीर के लिए आगे की राह आसान होगी, भारी भूल होगी। तनवीर का राजनीतिक व्यक्तित्व, और उनकी अबतक की राजनीतिक उपलब्धि उनकी सफलता के रास्ते में रोड़ा साबित हो सकती है क्योंकि तनवीर एक खामोश राजनेता रहे हैं। एक ऐसे दौर में, जब प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति और उसके प्रति प्रतिक्रिया अपने चरम पर पहुँची, तनवीर हसन आगे आकर उस सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ खड़ा होने और उसके दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध की कोशिश करते नहीं दिखाई पड़े। उनकी छवि एक सॉफ्ट राजनेता की रही है, इसके विपरीत पिछले तीन वर्षों के दौरान देश में ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हुई जिनमें कन्हैया कुमार मोदी-विरोधी खेमे में अपनी जगह बनाते चले गए और उन्होंने खुद को मोदी-विरोध के प्रतीक में तब्दील कर लिया। उनकी यही छवि तनवीर के लिए खतरा साबित हो सकती है क्योंकि कन्हैया कुमार की रणनीति इसी के इर्द-गिर्द निर्धारित हो रही है और जिस तरीके से जाति एवं धर्म से परे हटकर युवाओं के बीच वे लोकप्रिय हो रहे हैं, वह तनवीर के माय-समीकरण के लिए खतरे की घंटी है। इस समुदाय का एक तबका, जो प्रधानमंत्री मोदी को बड़े खतरे के रूप देख रहा है और उनके विरुद्ध की लड़ाई लड़ने के लिए कन्हैया की राष्ट्रीय छवि को भुनाना चाहता है। उसे लगता है कि कन्हैया उनकी इस लड़ाई को राष्ट्रीय स्तर पर लड़ेगा और इसीलिए वह कन्हैया के हाथ को मज़बूत करना चाहता है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह समुदाय कभी कम्युनिस्ट पार्टी का वोट-बैंक हुआ करता था और कन्हैया की भी इस पर नज़र है, इसीलिए वह देश के विभिन्न हिस्से से मुस्लिम बुद्धिजीवियों एवं लोकप्रिय चेहरों को चुनाव-प्रचार से जोड़ने की कोशिश में लगा हुआ है।
अब तनवीर के साथ समस्या यह है कि उनके लिए अपने दल के सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरे लालू यादव, जो अभी जेल में हैं और जिनके सहारे इस रणनीति को काउंटर किया जा सकता है, के बिना कन्हैया की इस रणनीति को काउंटर कर पाना असंभव नहीं, तो बहुत ही मुश्किल अवश्य है। इसके अतिरिक्त, कन्हैया ने उनके माय समीकरण में सेंध लगाने के लिए ही मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे पप्पू यादव, जिनकी युवा यादवों के बीच लड़ाका छवि है और ठीक-ठाक पैठ है, को समर्थन देने की घोषणा की। दरअसल यह समर्थन देने से कहीं अधिक समर्थन लेना है और इसका उद्देश्य यादव समुदाय के युवा मतदाताओं को आकर्षित करना एवं उनके बीच पैठ बनाना है। इसके अतिरिक्त पिछले छः महीने के दौरान कन्हैया कुमार की उन क्षेत्रों में सक्रियता भी भाजपा के साथ-साथ राजद के अत्यंत पिछड़ी जाति के वोट-बैंक में सेंध लगा सकती है जो तनवीर की मुश्किलों को बढ़ाने वाला साबित होगा।   
तनवीर के लिए कन्हैया ही नहीं, गिरिराज की रणनीति भी भारी पड़ सकती है। भले ही अबतक गिरिराज यह कहते रहे हों कि उनकी सीधी लड़ाई कन्हैया कुमार से नहीं, वरन् तनवीर हसन से है, पर क्षेत्र में आते ही पिछले दो दिनों के दौरान उनका चुनावी नैरेटिव बदला है और उन्होंने चुनावी नैरेटिव देशभक्ति बनाम् देशद्रोह की ओर ले जाने की कोशिश की है जो कन्हैया कुमार की कमजोर कड़ी साबित हो सकती है। यह दर्शाता है कि कन्हैया कुमार को चाहे उनके विरोधी जितना भी नकारें, पर ज़मीनी वास्तविकता कुछ और कहती है। हो सकता है कि यह गिरिराज की चुनावी रणनीति का हिस्सा हो और आगे कन्हैया को कमजोर करने के बाद वे अपने चिर-परिचित उग्र हिंदुत्व के चुनावी नैरेटिव की तरफ वापस लौंटे, पर इसमें दो खतरे हैं: एक तो यह कि यह रणनीति गिरिराज के लिए भी काउंटर-प्रोडक्टिव साबित हो सकती है क्योंकि ऐसी स्थिति में एन्टी-भाजपा वोटों का ध्रुवीकरण कन्हैया कुमार के पक्ष में हो सकता है और तनवीर कमजोर पड़ सकते हैं; और दूसरे, फिर ऐसी स्थिति में तनवीर के वापसी मुश्किल होगी।