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बेगूसराय-नामा भाग 7
बेगूसराय की बदलती हवा: ज़मीन
खोते तनवीर
चुनावी विश्लेषकों के लिए
कब्रगाह बन सकता है बेगूसराय
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जब महागठबंधन ने बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से सीपीआई एवं कन्हैया कुमार
को समर्थन देने की बजाय अपने उम्मीदवार के रूप में तनवीर हसन को उतारने का निर्णय लिया, तो यह निर्णय कन्हैया कुमार एवं सीपीआई के
साथ-साथ उन लोगों के लिए बहुत बड़ा झटका था जो यह चाहते थे कि मोदी-विरोधी
महागठबंधन अपनी पूरी ताक़त से चुनौती दे।
निश्चित तौर पर राजद के इस निर्णय ने क्षेत्र में पहले से ही सक्रिय कन्हैया कुमार
को बैकफुट पर धकेला और उसकी तुलना में तनवीर हसन को मनोवैज्ञानिक बढ़त प्रदान की।
लेकिन, यह पूरा आकलन सन् 2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते किया गया और आज
भी किया जा रहा है, जबकि 2019 का चुनावी परिदृश्य पूरी तरह से बदला हुआ है। तब से
लेकर अबतक के घटनाक्रमों पर गौर करें, तो बेगूसराय का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से
बदला है।
बढ़त बनाते तनवीर:
आरंभ में तनवीर हसन को गंभीरता से लिया गया और
कन्हैया की चुनावी संभावनाओं को खारिज करने की कोशिश की गयी। न केवल विरोधियों और
राजनीतिक पंडितों ने कन्हैया कुमार की चुनावी संभावनाओं को खारिज किया, वरन् उनके
समर्थक भी इसको लेकर आशंकित थे। आरंभिक नाकर-नुकर के बाद गिरिराज भी माने, उन्होंने
धमाकेदार एंट्री की, और इस प्रकार हासिल मोमेंटम को अपने नामांकन के पहले तक बनाये
रखा। पर, वे नामांकन वाले दिन ही मोमेंटम लूज करते दिखे और गिरिराज की रैली के बाद
8 अप्रैल को महागठबंधन की ओर से राजद-प्रत्याशी के रूप में डॉ. तनवीर हसन ने
नामांकन दाखिल किया और माना जाता है कि तनवीर की रैली में गिरिराज की तुलना में
दोगुनी भीड़ थी। इसके साथ मोमेंटम तनवीर की तरफ शिफ्ट करता दिखाई पड़ा और ऐसा लगा कि
भले ही सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तनवीर हसन को खारिज कर रहा हो, पर
उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए। वैसे भी, जमीनी राजनीति की समझ रखने वाले तनवीर
को खारिज करने की गलती कभी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि गिरिराज सिंह कभी भोला सिंह
नहीं हो सकते। कन्हैया कुमार जीतें तब भी और हारें तब भी, गिरिराज को उतना डैमेज कर
जायेंगे कि वो तनवीर से पिछड़ जाएँ। इसलिए भी कि पिछले चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी
की फूट का सीधा लाभ भोला बाबू को मिला था, और तब भी प्रचंड मोदी-लहर के बावजूद वे
महज 58 हज़ार वोटों से जीत पाए थे। इस प्रकार का विश्लेषण तनवीर के पक्ष में माहौल
बनाता दिखा और परसेप्शन की लड़ाई में तनवीर आगे निकलते दिखाई पड़े। लेकिन, यह माहौल
ज्यादा समय तक नहीं बना रह पाया। इससे पहले कि तनवीर इसका लाभ उठाने की दिशा में
पहल कर पाते, कन्हैया के नामांकन के साथ सब कुछ बदलता दिखा। इसके बाद से अबतक
तनवीर मोमेंटम लूज करते दिखाई पड़े, और उनकी कीमत पर कन्हैया बढ़त बनाते दिखाई पड़े।
तनवीर की बढ़ती मुश्किलें:
दरअसल तनवीर की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर
करती है कि वे राजद के परम्परागत वोटबैंक कहाँ तक बचाए रख पाते हैं, और कहाँ तक
उसे सुदृढ़ कर पाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य
में राजद ने एक ओर ‘माय’
(मुस्लिम+यादव) समीकरण को ‘मुनिया’ (मुस्लिम+निषाद+यादव) समीकरण में बदलते हुए और
दूसरी ओर जीतन राम माँझी एवं उपेन्द्र कुशवाहा को इसे अपने साथ जोड़कर उस समीकरण को
सुदृढ़ करते हुए तनवीर हसन के साथ-साथ अपने अन्य उम्मीदवारों के लिए मज़बूत किलेबंदी
की। लेकिन, बेगूसराय में आकर इस समीकरण
के ध्वस्त होने की सम्भावना प्रबल होती दीख रही है।
दलितों एवं पिछड़ों के बीच दरकता जनाधार:
अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा कैसे संभव हो पा
रहा है? सबसे पहले यह कि कन्हैया कुमार पिछले करीब साल-डेढ़ साल से क्षेत्र में
सक्रिय रहे हैं, और उनकी यह सक्रियता बेगूसराय के
उन क्षेत्रों में कहीं अधिक रही है जो बेगूसराय का पिछड़ा एवं दलित-बहुल इलाका
है और यह इलाका पारंपरिक रूप से सीपीआई का गढ़ रहा है जो सामाजिक न्याय की राजनीति के
जोर पकड़ने के साथ उससे छिटकता चला गया। इसके लिए कन्हैया ने गुजरात से अपने मित्र
विधायक एवं दलित नेता जिग्नेश मेवानी को भी
बुलवाया और वे लगातार कैम्प कर रहे हैं, और दलितों के बीच जाकर कन्हैया
के पक्ष में माहौल बनाने में लगे हैं।
इतना ही नहीं, कन्हैया को मालूम है कि लालू यादव जेल में हैं, और पारिवारिक अंतर्कलह एवं टिकेट-वितरण
को लेकर पार्टी के भीतर उपजे असंतोष के कारण राजद के नेतृत्व की ऊर्जा
सही दिशा में नहीं लग पा रही है। उन्हें लगातार असंतुष्ट गतिविधियों का सामना करना
पड़ रहा है और वे अबतक इसे सम्भाल पाने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी स्थिति में
तनवीर के लिए चीजें आसान नहीं होने जा रही हैं।
इस बात को ध्यान में रखते हुए कन्हैया ने दबाव
की राजनीति को बनाये रखने की दिशा में पहल की है और अपनी इमेज की परवाह किये बिना पप्पू यादव को समर्थन देते हुए युवा यादव मतदाताओं के अपने
प्रति आकर्षण को सुदृढ़ करने और उसे वोट में तब्दील करने की रणनीति
अपनायी है। ऐसा लग रहा है कि कन्हैया इन वोटों को कुछ हद तक अपनी तरफ खींच पाने
में सफल होते दिख रहे हैं, और इसका सीधा मतलब राजद के वोट-बैंक में सेंध लगना है। तनवीर
हसन और उनके समर्थकों की प्रतिक्रिया भी इस ओर इशारा कर रही है।
छिटकते मुसलमान:
जहाँ तक मुस्लिम वोट-बैंक के रुझानों का प्रश्न
है, तो आरम्भ में मुसलमानों का रुझान तनवीर हसन की ओर था और भूमिहारों का वोट
बँटते देखकर उन्हें इस बात की खुशी थी कि इस बार उनके समुदाय को बेगूसराय का
प्रतिनिधित्व करने का मौक़ा मिलेगा। दरअसल राजद ने बिहार से पाँच मुसलमानों को अपना
उम्मीदवार बनाया है और यह मैसेज देने की कोशिश की कि सीपीआई और कन्हैया कुमार ऐसे
दौर में मुसलमानों का हक़ मारने की कोशिश कर रहे हैं जब कोई पार्टी मुसलमानों को
उम्मीदवार बनाने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन, राजद से यहीं पर चूक हुई, क्योंकि
उसके पाँचों मुस्लिम उम्मीदवार मुस्लिम अभिजात
समूह से आते हैं, जो पसमांदा मुसलमानों को नागवार लगा और पहली बार बेगूसराय के
मुसलमान पसमांदा एवं गैर-पसमांदा लाइन पर बँटते दिखाई पड़े। समस्या
सिर्फ इतनी नहीं रही, समस्या यह भी रही कि जैसे ही तनवीर हसन ने कन्हैया कुमार को
खतरे के रूप में महसूस किया, उन्होंने एवं उनके समर्थकों ने कन्हैया कुमार की
सवर्ण पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए उसे भूमिहार के रूप में प्रस्तुत करना शुरू
किया और उस पर हमला तेज़ किया, तो तनवीर की भी सामाजिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि का
हवाला देते हुए उन पर हमले शुरू हुए।
आरम्भ में मुस्लिम दुविधा में दिखे, लेकिन धीरे-धीरे मुस्लिम युवा और पिछड़े मुसलमान खुलकर कन्हैया के
पक्ष में आने लगे। उन्होंने इस बात को समझा कि:
1.
तनवीर
की जीत मुश्किल होगी, और
2.
अगर
तनवीर जीत भी गए, तो बेगूसराय को .महज एक सांसद मिलेगा;
3.
अगर
कन्हैया कुमार जीते, तो मोदी-विरोधी एक सशक्त आवाज़ संसद तक पहुँचेगी क्योंकि पिछले
तीन वर्षों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर कन्हैया मोदी-विरोध के प्रतीक में तब्दील
हो गए हैं।
इतना ही नहीं, धीरे-धीरे
पिछड़े मुसलमान कन्हैया के पक्ष में सामने आने लगे, और उन्होंने यह
महसूस करना शुरू किया कि कन्हैया का साथ देकर ही गिरिराज की हार को सुनिश्चित किया
जा सकता है। भूतपूर्व सांसद डॉ. एजाज अली ने खुलकर तनवीर हसन की आलोचना करते हुए
मुसलमानों से कन्हैया कुमार के पक्ष में सामने आने की अपील की। यही वह पृष्ठभूमि
है जिसमें एक ओर जाति एवं धर्म से परे बेगूसराय के युवाओं में, दूसरी ओर मुस्लिम
वोटरों में कन्हैया के प्रति बढ़ता हुआ आकर्षण राजद और तनवीर के इस समीकरण को भेदता
हुआ लग रहा है।
काँग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की
उपेक्षा:
तनवीर हसन की मुश्किलें यहीं तक सीमित नहीं है।
मुश्किल यह भी है कि एक ओर काँग्रेस के कार्यकर्ता धीरे-धीरे खुलकर कन्हैया के
पक्ष में सामने आने लगे हैं, और दूसरे, शायद विश्वास के अभाव के कारण तनवीर हसन
अपने चुनाव-अभियान में गठबंधन सहयोगी काँग्रेस का सक्रिय सहयोग नहीं ले रहे हैं।
इस कारण काँग्रेस का स्थानीय नेतृत्व और उसके कार्यकर्ता खुद को उपेक्षित एवं
तिरस्कृत महसूस कर रहा है जिसके कारण इस बात की पूरी संभावना है कि चुनाव के करीब
आते-आते या तो काँग्रेस का स्थानीय नेतृत्व चुप बैठ जाए, या फिर गिरिराज सिंह की
हार सुनिश्चित करने के लिए कन्हैया के पक्ष में खुलकर सामने आ जाए। इस क्रम में
भूमिहार-फैक्टर का प्रभाव भी सामने आ रहा है।
तनवीर की वापसी नामुमकिन नहीं:
संक्षेप में कहें, तो तनवीर की वापसी मुश्किल तो
है, पर नामुमकिन नहीं। स्थिति के
स्पष्ट होने के लिए अन्त तक और विशेष कर आखिरी जुमे तक प्रतीक्षा करनी होगी। अगर
आने वाले समय में चुनाव के ठीक पहले वाले आखिरी जुमे की नमाज़ के दिन तनवीर के पक्ष
में कोई फतवा जारी किया गया, तो फिर कन्हैया की मुश्किलें बढ़ सकती हैं, क्योंकि यह
स्थिति तेजी से धर्म एवं सम्प्रदाय-आधारित ध्रुवीकरण की ओर ले जायेंगी, और ऐसी
स्थिति में कुछ भी कह पाना मुश्किल हो जाएगा। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान
भी यही हुआ था, और अंतिम समय तक बढ़त के बावजूद भूमिहार वोटों के ध्रुवीकरण ने बाजी
भोला सिंह के पक्ष में पलट दी। लेकिन, इस बार स्थिति थोड़ी अलग है। न कन्हैया
राजेंद्र सिंह हैं और न ही इस बार कम्युनिस्ट पार्टी पिछली बार की तरह विभाजित है।
उसके कैडरों की उत्साह एवं ऊर्जा जोरों पर है। उधर गिरिराज भी भोला सिंह नहीं हैं
और न ही इस बार भाजपा पिछली बार की तरह ऊर्जा एवं उत्साह से लैश है। इतना ही नहीं,
वे बाहरी उम्मीदवार भी हैं।` उन्हें राज्य भाजपा नेतृत्व से अपेक्षित सहयोग भी
नहीं मिल रहा है और प्रान्तीय नेतृत्व की रूचि उनकी हार सुनिश्चित करने में है। उधर,
यह भी संभव है कि
आने वाले समय में राजद लालू के बहाने विक्टिमहुड कार्ड खेलें, और ऐसी स्थिति में
कन्हैया की परेशानी बढ़ सकती है क्योंकि लालू लम्बे समय से बीमार हैं, उन्हें जमानत
नहीं लेने दिया गया और ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने स्वास्थ्य का हवाला
देते हुए अपने वोटर्स से मार्मिक अपील करें।
स्पष्ट है कि अबतक मुसलमानों का रुझान कन्हैया की
ओर भी दिखाई पड़ रहा है, लेकिन अंतिम समय तक यह बढ़त बनी रहे, इसकी कोई गारन्टी नहीं
है। ऐसा नहीं कि कन्हैया कुमार इस खतरे से वाकिफ नहीं हैं। इसीलिए शेहला रशीद और नजीब की अम्मी तो कैम्प कर ही रही
हैं, इसके अलावा भूतपूर्व संसद डॉ. एजाज अली भी
कन्हैया के पक्ष में प्रचार के लिए तीन दिनों के लिए बेगूसराय आ रहे हैं और इस बात
की भी संभावना है कि जावेद अख्तर एवं शबाना आज़मी जैसे
सेलेब्रिटी भी अंत-अंत तक कन्हैया के प्रचार के लिए बेगूसराय आयें। ये तमाम तथ्य
इस ओर इशारा करते हैं कि कन्हैया इस मामले में कोई रिस्क लेने के लिए तैयार नहीं
है। वे यह भी जानते हैं कि गिरिराज सिंह इस लड़ाई को हिन्दू बनाम् मुस्लिम की लड़ाई का
रूप देने की कोशिश करेंगे, और कहीं-न-कहीं तनवीर को भी गिरिराज की यह रणनीति सूट
करती है। इस स्थिति में कन्हैया के तीसरे स्थान पर फिसलने का खतरा उत्पन्न हो सकता
है और इस संभावना को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है, यद्यपि यह भी सच है कि
समय बीतने के साथ इस बात की सम्भावना क्षीण पड़ती जा रही है।