Friday, 8 October 2021

#65thBPSCResult: बीपीएससी चला यूपीएससी की राह

 

#65thBPSCResult:

बीपीएससी चला यूपीएससी की राह

इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि और अंग्रेज़ी माध्यम का बढ़ता वर्चस्व:

हाल के वर्षों में यूपीएससी से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं तक के रिजल्ट में इंजीनियरिंग बैकग्राउंड और अंग्रेज़ी माध्यम के छात्रों के वर्चस्व में निरन्तर वृद्धि हुई है, और इसकी पृष्ठभूमि में हिन्दी माध्यम के छात्र निरन्तर हाशिये पर पहुँचते चले गए। यह स्थिति बीपीएससी के रिजल्ट में भी देखी जा सकती है। 7 दिसम्बर को जारी बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) की 65वीं संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा के परिणाम में शीर्ष के 13 स्थानों में दस स्थानों पर इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के छात्रों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी। इनमें से 3 छात्र तो आईआईटी बैकग्राउंड से हैं। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के अधिकांश छात्र माध्यम के रूप में अंग्रेजी और वैकल्पिक विषय के रूप में मानविकी विषय को चुनते हैं। टॉप 20 में मौजूद नौ अभ्यर्थियों ने भूगोल को और दो अभ्यर्थियों ने अर्थशास्त्र को अपने वैकेल्पिक विषय के रूप में चुना है।

हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए चिन्ता का विषय:

संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग तक सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले हिन्दी माध्यम के छात्रों की कम होती भागीदारी चिन्ता का विषय है, इन छात्रों के लिए भी और समाज एवं प्रशासन के लिए भी। आने वाले समय में यह समाज के सामने नयी मुश्किलें खड़ी करेगा। इसके कारण हिन्दी माध्यम के छात्र भी दबाव में हैं और कोचिंग संस्थान भी। इसलिए इन दोनों ने इस दबाव से निबटने का सुविधाजनक रास्ता ढूँढ लिया है, और वह है सारी जिम्मेवारी को बीपीएससी या यूपीएससी के मत्थे मढ़ देना। यही कारण है कि लोक सेवा परीक्षाओं के रिजल्ट-प्रकाशन के ठीक बाद हिन्दी माध्यम के छात्र से लेकर कोचिंग संस्थान तक माध्यम और इसको लेकर होने वाले भेदभाव का रोना रोने लगते हैं हिन्दी माध्यम के प्रति जमकर प्रेम प्रदर्शित किया जाता है और उसके खिलाफ होने वाले भेदभाव जोर-शोर से की जाती हैऐसा नहीं है कि ये संस्थाएँ निर्दोष हैं या इनमें कोई कमी नहीं है, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस समस्या के मूल में कहीं-न-कहीं हमारी शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षक और छात्र मौजूद हैं। लेकिन, इस से सम्बद्ध मूल प्रश्नों की अनदेखी करते हुए इस पूरे मसले को रोमांटिसाइज़ कर दिया जाता है। इसके कारण मूल प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, और उस पर सार्थक विचार-विमर्श संभव नहीं हो पाता है। यह स्थिति हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए भी सुविधाजनक है, और उन कोचिंग संस्थानों के लिए भी, जो हिन्दी माध्यम में कोचिंग उपलब्ध करवाते हैं, पर अपनी जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

अंग्रेजी माध्यम की ओर छात्रों एवं अभिभावकों का बढ़ता रुझान:  

सबसे पहले, मैं पिछले दो दशकों के दौरान शिक्षा-व्यवस्था में आने वाले बदलावों की चर्चा करना चाहूँगा। इस दौरान:

1.    सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था ध्वस्त होती चली गयी, और उसकी कीमत पर निजी शिक्षण संस्थानों के विकास को प्रोत्साहित किया गया।

2.    जो भी अभिभावक सक्षम थे या तमाम मुश्किलों के बावजूद जो निजी शिक्षण-संस्थानों का खर्च वहन करने के लिए तैयार थे, उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी शिक्षण संस्थानों के बजाय निजी शिक्षण संस्थानों को प्राथमिकता दी।

3.    इनमें जो भी बच्चे पढ़ने में अच्छे थे, उनमें से अधिकांश ने अंग्रेजी माध्यम की ओर रुख किया। स्वाभाविक है कि अच्छे बच्चे अंग्रेजी माध्यम की ओर शिफ्ट करते चले गए, और हिन्दी माध्यम में छँटे हुए बच्चे रह गए। मेरा आग्रह होगा कि मेरी इन बातों को अन्यथा नहीं लिया जाए। मैं सामान्य सन्दर्भों में बात कर रहा हूँ, विशिष्ट सन्दर्भों की नहीं।

तैयारी करने वाले बच्चों की पृष्ठभूमि:

सामान्यतः जो अच्छे बच्चे होते हैं, उनमें से अधिकांशतः बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग या मेडिकल की रुख करते हैं और इन्हीं में से कुछ प्रोफेशनल डिग्री हासिल करने के बाद सिविल सेवा की तैयारी में लग जाते हैं। जो बच्चे उधर नहीं जा पाते हैं, वे ग्रेजुएशन के बाद या तो प्रबंधन, लॉ और एकेडेमिक्स की तरफ बढ़ जाते हैं, या फिर अंग्रेज़ी एवं मैथ्स ठीक-ठाक होने की स्थिति में बैंक पी.ओ. और अन्य वनडे एग्जाम की तैयारी में लग जाते हैं। वही लोग सिविल सेवा की तैयारी में लगते, जो या तो पूरी तरह से इसके प्रति प्रतिबद्ध हैं, या फिर इस दिशा में प्रयास कर एक चांस लेना चाहते हैं। अधिकांश रिजल्ट इन्हीं के बीच से मिलता है, विशेष रूप से प्रोफेशनल बैकग्राउंड के बच्चों के बीच से, या फिर प्रतिबद्ध बच्चों के बीच से। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो दशकों के दौरान शिक्षा की गुणवत्ता की दृष्टि से अन्तराल बढ़ता चला गया है और इस बढ़ते हुए अन्तराल ने हिन्दी माध्यम के छात्रों को बैकफुट पर ले जाने का काम किया है। यहाँ तक कि अब तो यह अन्तराल अंग्रेजी माध्यम में भी मुखर होने लगा है।   

माध्यम का फर्क और माइंडसेट का फर्क:

सिविल सेवा परीक्षा का कोई भी विश्लेषण तब अटक अधूरा है, अजब तक हिन्दी माध्यम एवं अंग्रेजी माध्यम के बच्चों के माइंडसेट के फर्क को नहीं समझा जाए सामान्यतः हिन्दी माध्यम के बच्चे भावुक प्रकृति के होते हैं, विषय के प्रति उनका नजरिया भावुक होता है और इसी बह्वुक मनःस्थिति में वे निर्णय भी लेते हैं जो सिविल सेवा में उनकी संभावनाओं को प्रभावित करता है। इसके विपरीत, सामान्यतः अंग्रेजी माध्यम के छात्रों का एप्रोच प्रोफेशनल होता है, विषय के प्रति भी और तैयारी के प्रति भी। इसीलिए उनके निर्णयों में प्रोफेशनलिज्म की झलक दिखाई पड़ती है जो सफलता की सम्भावनाओं को बाधा देती है। यह प्रोफेशनलिज्म पुस्तकों और कोचिंग संस्थानों के चयन से लेकर विषय-वस्तु के प्रति रवैये तक में परिलक्षित होता है। यही कारण है कि मानविकी विषयों, जो उनके लिए नया होता है, में भी मानविकी पृष्ठभूमि के छात्रों की तुलना में इंजीनियरिंग बैकग्राउंड वाले छात्रों का प्रदर्शन बेहतर होता है, अंकों के संदर्भ में भी और अन्तिम चयन में भी।

माइंडसेट के इसी फर्क के कारण सिविल सेवा परीक्षा के डायनामिज्म और इसके कारण उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के प्रति हिन्दी और अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के रेस्पोंस भी अलग-अलग होते हैं। यह फर्क उनके द्वारा प्रश्नों को दिए गए रेस्पोंस के स्तर पर भी देखा जा सकता है।

कोचिंग संस्थानों का नजरिया:

यह पूरी चर्चा अधूरी रह जायेगी, यदि कोचिंग संस्थानों की भूमिका पर चर्चा नहीं की जाए। आज हिंदी माध्यम के अधिकांश कोचिंग संस्थानों पर निदा फ़ाज़ली का यह शेर लागू होता है:

कभी-कभी हमने यूँ ही अपने जी को बहलाया है;

जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

मुझे कहना तो नहीं चाहिए क्योंकि मैं खुद भी इसी व्यवसाय से जुड़ा हूँ, पर खुद को यह कहने से रोक पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है कि उनके टीचिंग, टीचिंग कम, क्लास-मैनेजमेंट कहीं ज्यादा है। और, इस सन्दर्भ में अगर सही एवं उपयुक्त शब्दों का चयन करें, तो यह मदारी के खेल’ में तब्दील हो चुका है। बच्चे भी कोचिंग में मदारी का खेल ही देखने जाते हैं, और टीचर भी मदारी का खेल दिखाने ही जाते हैं। न बच्चों को इस बात से मतलब है कि उन्हें जो पढ़ाया जा रहा है, वहाँ से प्रश्न कवर होते हैं या नहीं; और न ही शिक्षक को इस बात से मतलब है। चूँकि बच्चे मज़ा लेने के लिए जाते हैं, इसीलिए शिक्षक का फोकस भी इसी बात पर रहता है कि कैसे बच्चों को मज़ा आये। ऐसा नहीं अहि कि अंग्रेजी माध्यम की स्थिति बहुत बेहतर है, पर चूँकि वहाँ बच्चों की गुणवत्ता अपेक्षाकृत बेहतर है और वे अपने कैरियर को लेकर कहीं अधिक कंसर्न्ड हैं, इसीलिए वहाँ स्थिति थोड़ी-सी बेहतर है। लेकिन, जैसे-जैसे वहाँ भी भीड़ बढ़ रही है, फर्क कम होता जा रहा है। ऐसा नहीं कि हिन्दी माध्यम में अच्छे कोचिंग संस्थान और अच्छे शिक्षक नहीं हैं, पर उनमें से अधिकांश या तो हाशिये पर खड़े हैं, या फिर बाज़ार के दबाव में उन्हें अपने को बदलना पड़ रहा है।

गुणवत्ता-पूर्ण अध्ययन-सामग्री की उपलब्धता:

अगर अध्ययन-सामग्री की दृष्टि से देखा जाए, तो हिन्दी माध्यम की तुलना में अंग्रेजी माध्यम में गुणवत्ता-पूर्ण अध्ययन-सामग्री कहीं अधिक सहजता एवं सरलता से उपलब्ध है। यह फर्क न्यूज-पेपर और मैगज़ीन से लेकर कोचिंग संस्थानों द्वारा उपलब्ध करवायी जा रही अध्ययन सामग्रियों तक में देखा जा सकता है। आज हिन्दी में द हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस सरीखे कौन-सा समाचार-पत्र उपलब्ध है और हिन्दी समाचार-पत्रों में किसके कवरेज में इतनी गहरायी एवं व्यापकता है, इस सवाल का जवाब कोई दे सकता है? अगर ऐसा कोई भी समाचार-पत्र हिन्दी माध्यम में उपलब्ध नहीं है, तो क्यों और इसके लिए कौन जिम्मेवार है? इसके अतिरिक्त, अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के समक्ष आसानी से विकल्प उपलब्ध होते हैं जिनके कारण उपयुक्त विकल्पों का चयन उनके लिए आसान होता है। कहीं-न-कहीं यह भी दोनों माध्यमों में परिणामों के फर्क को जन्म दे रहा है।

सार्वजनिक क्षेत्र का बढ़ता आकर्षण:

पिछले दशक के दौरान, विशेष रूप से सन् 2008-09 की आर्थिक मन्दी के बाद निजी क्षेत्र में रोजगार की दृष्टि से अनिश्चितता भी बढ़ी है और वेतन एवं सुविधाओं की दृष्टि से आकर्षण भी कम हुआ है। उधर, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद वेतन एवं सुविधाओं की दृष्टि से निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र का फर्क भी कम हुआ है जिसके कारण सार्वजानिक क्षेत्र ने व्यावसायिक पृष्ठभूमि वाले छात्रों को कहीं अधिक आकर्षित किया है। फलतः सिविल सेवा की ओर उनका रुझान बढ़ा और प्रतिस्पर्धा मुश्किल होती चली गयी।

इस पूरी चर्चा के क्रम में इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि अहम् माध्यम नहीं है, अहम् है सिविल सेवा परीक्षा की माँग के अनुरूप अपने आपको ढ़ालना और उसकी ज़रूरतों को पूरा करना। इस सन्दर्भ में हिन्दी माध्यम के छात्रों के समक्ष मुश्किलें थोड़ी ज्यादा हैं, पर ऐसा नहीं है कि अगर नज़रिए को सकारात्मक रखा जाए और सकारात्मक नज़रिए से इन चुनौतियों से मुकाबले की कोशिश की जाए, टिन तमाम चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। (60-62)वीं बीपीएससी परीक्षा में हिन्दी माध्यम के डॉ. संजीव कुमार सज्जन का शीर्ष स्थान हासिल करना इसका प्रमाण है।    

वक़्त की ज़रुरत को समझें हिन्दी माध्यम के छात्र:

आज हिन्दी माध्यम के बच्चे यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि यूपीएससी या फिर बीपीएससी उनके हिसाब से बदलने नहीं जा रही है, उन्हें इसके हिसाब से खुद को बदलना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि जहाँ वे विकल्पहीन हैं, वहीँ इन संस्थानों के पास पर्याप्त विकल्प है। जहाँ इन्हें बेहतर विकल्प दिखेगा, वे उसको प्राथमिकता के आधार पर चुनेंगे। इतना ही नहीं, उन्हें यह भी समझना होगा कि तैयारी के क्रम में मुश्किलें तो आनी ही हैं, अब चुनना उन्हें है कि वे क्लासरूम की मुश्किलों का सामना करना चाहते हैं या फिर एग्जाम-हॉल की मुश्किलों का। अगर वे क्लास रूम की मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार हैं, तो एग्जाम हॉल में मुश्किलों से वे बच भी सकेंगे और चयन की सम्भावना भी प्रबल होगी; अन्यथा रिजल्ट के बाद एक-दो दिन जम कर बीपीएससी या यूपीएससी को गाली देकर भड़ास निकाल लें, इससे न तो कुछ फर्क पड़ने वाला है और न ही रिजल्ट बदलने वाला है। अगर इन्होने खुद को नहीं बदला, तो कोचिंग संस्थान क्लास-रूम में उन बिन्दुओं की चर्चा से परहेज़ करते रहेंगे, जिनको समझने में मुश्किलें आ सकती हैं, पर जो एग्जाम की दृष्टि से उपयोगी हैं और जिनकी आपके चयन में अहम् भूमिका होगी। इसलिए हिन्दी माध्यम के छात्रों को मेरा एक ही सन्देश है: सवालों का सामना करें और अपने शिक्षकों से भी सवाल पूछें। इन सवालों के बिना न तो अपने प्रति आपकी जवाबदेही निर्धारित हो सकती है और न ही आपको पढ़ने वाले शिक्षकों की जवाबदेही; और जवाबदेही के बिना सफलता मुश्किल है। जहाँ यूपीएससी या बीपीएससी की सीमा है, वहाँ आप या हम कुछ नहीं कर सकते, पर खुद को बदलकर उस सीमा की कैजुअलिटी का शिकार होने से खुद को बचाया तो जा ही सकता है। अगर समय रहते नहीं संभले, तो आने वाले समय में बीपीएससी परीक्षा के परिणामों में हिन्दी माध्यम के छात्र भी उसी तरह से हाशिये पर पहुँचते चले जायेंगे जिस तरह यूपीएससी की परीक्षा में पिछले एक दशक के दौरान हाशिये पर पहुँचते चले गए और आज उनकी भागीदारी तीस के आसपास तक सिमट चुकी है  

(लेखक पिछले दो दशकों से सिविल सर्विसेज परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों की मेंटरिंग कर रहे हैं।)      

नोट: इस आलेख का उद्देश्य न तो किसी को नीचा दिखाना है और न ही किसी को आहत करना, पर सच को स्वीकारे बिना और उस पर हमला बोले बिना इस आलेख के उद्देश्यों के साथ न्याय कर पाना संभव नहीं था इसीलिए इस आलेख से अगर किसी की भावना को ठेस पहुँची हो, तो लेखक क्षमाप्रार्थी है

Wednesday, 6 October 2021

कन्हैया कुमार: बहुत कठिन है डगर पनघट की

 

कन्हैया कुमार: बहुत कठिन है डगर पनघट की

 

न मैं वामपंथी हूँ और न ही काँग्रेसी हूँ, लेकिन मेरी नज़रों में वामपंथी या काँग्रेसी होना गुनाह नहीं है, उसी प्रकार जिस प्रकार भाजपायी और संघी होना गुनाह नहीं है। गुनाह है इनके कुकर्मों के खिलाफ आवाज़ न उठाना। इसी प्रकार, न व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति में मेरा विश्वास है और न ही मैं किसी मुक्तिदाता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हाँ, दक्षिणपंथियों की विभाजनकारी राजनीति के ख़िलाफ़ हूँ, इसमें सन्देह की कोई गुँजाइश नहीं है। मेरी सहानुभूति लेफ़्ट के प्रति भी है और काँग्रेस के प्रति भी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं लेफ्ट या काँग्रेस की हर बात से सहमत हूँ, या फिर इन्हें निर्दोष मानता हूँ: सन्दर्भ चाहे मुस्लिम-तुष्टिकरण का हो, या फिर इनकी नकारात्मक राजनीति का। आलोचनात्मक विवेक के बिना समर्थन या विरोध मुमकिन नहीं है। यही स्थिति कन्हैया के सन्दर्भ में भी है। मेरा यह मानना है कि जब मुद्दों और समस्याओं को रोमांटिसाइज़ किया जाता है या फिर राजनीति में मुद्दों की जगह व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को अहमियत दी जाती है, तो समस्याओं के समाधान की संभावना धूमिल पड़ती चली जाती है।

यही भूल भारतीय जनमानस ने सन् 1977 में की थी, और यही भूल 1989 में दोहरायी गयी। यही चूक अन्ना आन्दोलन के दौरान हुई और यही चूक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में हुई। यही चूक सन् 2019 में कन्हैया कुमार के संदर्भ में वामपंथियों से हुई, और यही चूक आज कन्हैया कुमार के काँग्रेस में प्रवेश से उत्साहित काँग्रेसजन या कन्हैया-समर्थक कर रहे हैं। सच तो यही है कि वामपंथ और कन्हैया कुमार एक दूसरे को सँभाल नहीं पाए, और परिणाम सामने है, कन्हैया कुमार का काँग्रेस के पक्ष में खड़ा होना। यह स्थिति काँग्रेस के लिए बेहतर है क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, उसे पाना-ही-पाना है, थोडा ज्यादा या फिर थोडा कम। यह स्थिति कन्हैया कुमार के लिए बेहतर हो सकती है और बेहतर प्रतीत हो रही है, पर कितनी बेहतर होगी, यह भविष्य के गर्भ में छुपा है जिसे आने वाला समय बताएगा। पर, वामपंथ और विशेष रूप से सीपीआई के लिए यह स्थिति किसी त्रासदी से कम नहीं है। रही बात मुझ जैसों की, तो उन्हें पता था की देर-सबेर यह तो होना ही था। पिता के श्राद्ध में बाल मुंडवाने से इनकार और चुनाव के वक़्त मंदिर में मत्थे टेकना, नोटबन्दी के समय माँ को लाइन में लगवाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना और खुद चुनावी लाभ के लिए माँ के इस्तेमाल की हरसंभव कोशिश, युवाओं की ऐसी टोली को तैयार करना जो उनके प्रति वफादार हो: ये तमाम बातें ऐसी आशंकाओं को जन्म ही नहीं दे रहे थे, बल्कि उसे पुष्ट भी कर रहे थे।       

काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं:

सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि अपने भविष्य को लेकर चिन्तितकन्हैया का काँग्रेस में शामिल होने का निर्णय गलत नहीं है। हाँ, अब वह आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति का दावा नहीं कर सकता है। मेरी नज़रों में तो पहले भी नहीं कर सकता था। लेकिन, उसका काँग्रेस में जाना निस्संदेह जनवादी आन्दोलन के लिए एक झटका है, ऐसा झटका जिससे संभल पाना आसान नहीं होगा। यह उसके लिए एक सपने के टूटने की तरह है जिसकी कसक लम्बे समय तक बनी रहेगी। पर, अगर वामपंथ इस घटना को सकारात्मक नज़रिए से ले, तो यह उसके लिए आत्ममूल्यांकन का अवसर भी है कि क्या उसने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर व्यक्ति को तरजीह देकर सही किया था। ऐसे हज़ारों-लाखों कन्हैया फ़ील्ड में सक्रिय रहते हुए जनवादी आन्दोलन को मज़बूती दे रहे हैं। मेरी नज़रों में उनकी अहमियत और उनकी उपलब्धियाँ कन्हैया से कहीं अधिक मायने रखती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि वे कन्हैया की तरह मीडिया-डार्लिंगनहीं हैं।

कन्हैया कुमार की ज़रुरत:

हर राजनीतिक दल की अपनी विशिष्ट संरचना और विशिष्ट प्रकृति होती है। जिस प्रकार संघ-परिवार के बिना भाजपा की कल्पना नहीं की जा सकती है और नेहरु-गाँधी परिवार के बिना काँग्रेस की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार वामपंथी दलों की भी अपनी विशिष्ट प्रकृति है। एक तो यह उन अपवाद राजनीतिक दलों में है जिसमें आतंरिक लोकतंत्र मौजूद है और जहाँ पार्टी संगठन में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़कर ऊपर जाना होता है; और दूसरे पार्टी-संगठन बुज़ुर्ग वहाँ पर भी कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं। जहाँ तक बेगूसराय की बात है, तो सीपीआई अब भी बिहार में कहीं पर बची हुई है और थोड़ा-बहुत प्रभाव रखती है, तो बेगूसराय में। वहाँ ट्रेड यूनियन भी मज़बूत है, और यह पार्टी की आय का प्रमुख स्रोत भी है जिस पर वामपंथी नेताओं की नज़र है। 

यद्यपि पार्टी ने कन्हैया कुमार को एडजस्ट करने की हर संभव कोशिश की और उसकी महत्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने का प्रयास करते हुए पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्थान भी दिया, तथापि कन्हैया कुमार की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने में वह असफल रही। इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि बेगूसराय के बुज़ुर्ग वामपंथी कन्हैया कुमार को वाकओवर देने के लिए तैयार नहीं थे, और कन्हैया कुमार फ्रीहैंड से कम पर मानने के लिए तैयार नहीं। अगर कन्हैया ने लोकसभा-चुनाव के समय उन्हें और पार्टी के कैडरों को साइडलाइन करने की हरसंभव कोशिश की, तो उन्होंने भी कन्हैया कुमार की हार को सुनिश्चित करने में कहीं कोर-कसर नहीं उठा रखा। दोनों के बीच यह अदावत विधानसभा-चुनाव के दौरान देखने को मिली। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि न तो कन्हैया पार्टी एवं उसके बुजुर्गों के साथ सहज रह गए और न ही पार्टी एवं उसके बुजुर्ग कन्हैया कुमार के साथ। 

दूसरी बात यह कि कन्हैया ने आरम्भ से ही ऐसा लाइन लिया जो गैर-वामपंथी विपक्ष के साथ सहज महसूस कर सके और उसका स्टैंड गैर-वामपंथी विपक्ष के लिए असहज करने वाला न हो। इसे इस बात से भी बल मिला कि पिछले चुनाव के दौरान कन्हैया को अक्रॉस द पार्टी लाइन जाकर सहयोग एवं समर्थन मिला। साथ ही, कई लोगों को व्यक्तिगत रूप से कन्हैया को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन वामपंथी दल से उसकी उम्मीदवारी के कारण उन्होंने कन्हैया को समर्थन देने और उसके लिए वोट करने से परहेज़ किया। इससे कन्हैया कुमार को यह लगा कि अगर वह सीपीआई का उम्मीदवार न होकर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ता, तो जीत सकता था। अब यह बात अलग है कि यह खुशफहमी ऐसी स्थिति पैदा होने पर टिक पाती अथवा नहीं, लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि कन्हैया कुमार को एक बड़े प्लेटफ़ॉर्म की तलाश है जैसे ही इसके लिए उपयुक्त समय और उपयुक्त अवसर आया, कन्हैया कुमार सीपीआई का दामन छोड़कर काँग्रेस के नाव पर सवार हो गए। इससे इतना तो हो ही जाएगा कि कन्हैया कुमार को एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल जाएगा जहाँ से निकट भविष्य में शायद राज्यसभा का रास्ता भी खुले और काँग्रेस के प्रवक्ता के रूप में वे मीडिया कवरेज भी हासिल कर पाने में सफल हों। राजनीतिक भविष्य को लेकर जो अनिश्चितता उन्हें परेशान कर रही है और सत्ता का एक डर, जो उनके अन्दर कहीं गहरे स्तर पर विद्यमान है, वह डर दूर होगा अलग से।

वामपंथियों को लुभाता रहा है काँग्रेस:

ऐसा नहीं है कि यह स्थिति बेगूसराय में ही देखने को मिलती है। इस सन्दर्भ में वामपंथियों का लम्बा-चौड़ा इतिहास है। काँग्रेस तो वामपंथियों की सहोदर ही है। वामपंथियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन उसे हमेशा मिलता रहा है, और जेएनयू के वामपंथियों की तो काँग्रेस आश्रय-स्थली ही रही है। जैसा कि पुष्परंजन जी अपने आलेख ‘हिटलर के मुल्क में मार्क्सवादियों की जीत’ में लिखते हैं सन् (1975-76) में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी ने एसएफआई से काँग्रेस और फिर काँग्रेस से एनसीपी तक की यात्रा तय की, तो जेएनयू में एसएफआई राजनीति से निकले डॉ. उदितराज (पूर्व नाम रामराज) ने भाजपा होते हुए काँग्रेस तक की यात्रा। इसी प्रकार चाहे शकील अहमद ख़ान (1992-93) की बात करें, या बत्ती लाल बैरवा की, या फिर नासिर अहमद की, इन लोगों ने जेएनयू के भीतर एसएफआई की राजनीति करते हुए अध्यक्ष के रूप में जेएनयू छात्रसंघ को नेतृत्व प्रदान किया, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इन्होंने काँग्रेस का दमन थामते हुए अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने का काम किया। वहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता इन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पायी। अब, सवाल यह उठता है कि जब अल्ट्रा लेफ्ट सोच वाली आइसा से जेएनयू छात्रसंघ-अध्यक्ष रहे संदीप सिंह (2007-08) और मोहित के. पाण्डेय काँग्रेस में जा सकते हैं, तो कन्हैया कुमार तो फिर भी एआईएसएफ, जो वामपंथी संगठनों में सबसे अधिक उदारवादी सोच वाला छात्र संगठन है जो सीपीआई से सम्बद्ध है, से जुड़े रहे हैं।

काँग्रेस की ज़रुरत:

दरअसल, अगर काँग्रेस ने कन्हैया को प्राथमिकता दी है, तो इसका कारण यह है कि वह कन्हैया कुमार की मोदी-विरोधी छवि, उनकी वाकपटुता, पढ़े-लिखे युवाओं के बीच उसके क्रेज़ और उसकी अखिल भारतीय अपील को भुनाना चाहती है। साथ ही, कन्हैया कुमार के आने से काँग्रेस को नयी पीढ़ी का ऐसा नेता मिलेगा जिसकी मास-अपील है और जिसके सहारे काँग्रेस बिहार में अपने मृतप्राय संगठन में जान फूँकना चाहती है। इतना ही नहीं, काँग्रेस कन्हैया कुमार के सहारे एक बार फिर से सवर्ण मतदाताओं पर नज़र गराए हुए है और उसे लगता है कि पिछले तीन दशकों से हाशिये पर खड़े सवर्ण समुदाय के लिए कन्हैया कुमार उनके राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्स्थापना में सहायक साबित हो सकते हैं। इससे ऐसा लगता है कि काँग्रेस बिहार में अपने रिवाइवल को लेकर गम्भीर है, लेकिन उसकी दुविधा महागठबंधन की ज़रुरत और काँग्रेस एवं कन्हैया कुमार को लेकर राजद के रवैये को लेकर है।

काँग्रेस देश की ज़रुरत:

मैं कन्हैया की इस बात से सहमत हूँ, यह कहना तो उचित नहीं है क्योंकि मैं ये बातें लम्बे समय से कह रहा हूँ। मेरा मानना है कि देश को बचाने के लिए काँग्रेस को बचाना होगा।जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो मेरे लिए काँग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं होता। अपनी तमाम कमियों के बावजूद, मेरे लिए काँग्रेस भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है, उस सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा का, जिसके केन्द्र में सहिष्णुता और समन्वय का भाव मौजूद है, जो भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के प्रति संवेदनशील है तथा जो अपनी मूल प्रकृति में समावेशी है। आज सत्ता-प्रायोजित असहिष्णुता और उसकी पृष्ठभूमि में भारतीय समाज एवं राजनीति के साम्प्रदायीकरण ने भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता के समक्ष ऐसे चुनौतियाँ उपस्थित की हैं जो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता पर भी भरी पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में इस सोच के खिलाफ ज़ंग किसी भी देशभक्त की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

विचारधारा की राजनीति के भ्रम से मुक्त हो वामपंथ:

कन्हैया कुमार के इस निर्णय से वामपंथी सकते में हैं, और आलम यह है कि उन्होंने कन्हैया के विरुद्ध मोर्चा तक खोल दिया है। उसे समझौतावादी से लेकर अवसरवादी तक साबित करने की हरसंभव कोशिश हो रही है। वामपंथियों को अगर इस बात की गलतफहमी हो कि वे और उनकी विचारधारा से जुड़े लोग ‘विचारधारा की राजनीति’ करते हैं, वे इस गलतफहमी को अपने दिमाग से बाहर निकल दें। इस प्रकार की सोच अतिवाद की ओर ले जाती है। इसी सोच का परिणाम है कि जब बेगूसराय के रास्ते कन्हैया कुमार का राजनीति में प्रवेश हुआ, तो उन्होंने कन्हैया के चरित्र एवं व्यक्तित्व को रोमांटिसाइज़ करते हुए उसे ‘मोदी के वामपंथी अवतार’ में तब्दील ही कर दिया और मुद्दों को दरकिनार करते हुए व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति की दिशा में ठोस पहल की; और अब जब कन्हैया कुमार वामपंथ का दामन छोड़कर काँग्रेस में शामिल हो चुका है, तो उसे खलनायक साबित करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। आखिर इस बात की अनदेखी क्यों की जा रही है कि आज के दौर की राजनीति विचारधारा से परे जा चुकी है, और जो भी लोग विचारधारा की राजनीति कर रहे हैं, वे या तो हाशिये पर धकेले जा चुके हैं या धकेले जा रहे हैं। यह खुद वामपंथी राजनीति की भी वास्तविकता है, अन्यथा शत्रुघ्न प्रसाद सिंह की अनदेखी कर लोकसभा-चुनाव,2014 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह और लोकसभा-चुनाव,2019 में कन्हैया कुमार को उम्मीदवार नहीं बनाया जाता। क्या यह सच नहीं है कि शत्रुघ्न बाबू की जगह राजो दा को टिकट दिलवाने में सूरजभान, शत्रुघ्न बाबू के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता और उसकी धन-बल की राजनीति की अहम् भूमिका रही? क्या यह सच नहीं है कि पिछले चुनाव में सीपीआई कैडर की उपेक्षा करने की कन्हैया कुमार को खुली छूट दी गयी? खुद बेगूसराय की राजनीति में भोला बाबू और सुरेन्द्र मेहता जैसे लोगों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सीपीआई का दामन नहीं छोड़ा? क्या यह सच नहीं है कि हालिया सम्पन्न बिहार विधानसभा-चुनाव में मटिहानी से सीपीएम उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह की हार में पूर्व सीपीआई विधायक राजेन्द्र राजन जी के चकवार-प्रेम और बछवाड़ा से सीपीआई उम्मीदवार अवधेश राय की हार में सीपीएम के रामोद कुँवर के भाजपा उम्मीदवार सुरेन्द्र मेहता के प्रति प्रेम की अहम् भूमिका रही? उस समय तो वैचारिक प्रतिबद्धता का ख्याल नहीं रहा। अब सवाल यह उठता है कि यह दोगलापन कब तक चलेगा कि जब तक कोई सीपीआई में है, तो उदार, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील है; और अगर किसी दूसरे दल में, तो प्रतिक्रियावादी, समझौतावादी और कम्युनल?

बदलते परिवेश और बदलती सोच को समझने की ज़रुरत:

दरअसल, वामपंथी विचारधारा से काँग्रेस की निकटता और उसके भीतर पारंपरिक रूप से मज़बूत सेंटर लेफ्ट की मौजूदगी, जो पिछले तीन दशकों के दौरान कमजोर पड़ी है, अपनी भूलों के कारण वामपंथ का निरन्तर कमजोर पड़ते चला जाना, वामपंथी दलों पर बुजुर्गों के वर्चस्व के कारण युवाओं के सीमित स्पेस, छात्र नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इसकी पृष्ठभूमि में अखिल भारतीय उपस्थिति एवं प्रभावशीलता के कारण काँग्रेस में बेहतर राजनीतिक भविष्य की सम्भावना इस प्रवृत्ति को उत्प्रेरित करती है। वामपंथी दलों को भी इस सच्चाई को स्वीकारना होगा और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वे बदलते हुए हालात और बदलती हुई सोच को समझने के लिए तैयार नहीं हो जाते। उन्हें समाज में मूल्यों एवं वैचारिकता के क्षरण को भी समझना होगा और इस बात को भी समझना होगा कि प्रबल राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार युवा अपनी बारी की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उनके पास समय नहीं है और उन्हें कम समय में बहुत कुछ हासिल करना है। वे विचारधारा के नाम पर अपनी भविष्य की संभावनाओं से समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। इन सबके मूल में मौजूद है वह दबाव, जो पिछली तीन दशकों के दौरान पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण सृजित हुआ है और जिसने भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों और नैतिकताओं को तहस-नहस कर दिया है। इतना ही नहीं, वामपंथ को लोचशीलता प्रदर्शित करते हुए सत्ता की राजनीति की बजाय दबावकारी समूह की राजनीति को प्राथमिकता देनी चाहिए, और उन लोगों एवं उन दलों को भी भरोसे में लेना चाहिए जिनकी प्रतिबद्धता भले ही वामपंथी विचारधारा के प्रति नहीं है, पर जो वामपंथी सरोकारों से इत्तफाक रखते हैं। इस मोर्चेबन्दी को मज़बूत करते हुए वामपंथ को सड़क की राजनीति पर और अधिक फोकस करना चाहिए क्योंकि एक तो अन्य गैर-भाजपा दल सुविधाभोगी होने के कारण सड़क की राजनीति भूल चुके हैं और दूसरे, डॉ. लोहिया ने कहा है: “जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है।” तमाम सीमाओं के बावजूद वामपंथ की खासियत इस बात में है कि यह कैडर-आधारित पार्टी है और इसके अधिकांश कैडर, कुछ हद तक वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध होने के साथ-साथ सड़क की राजनीति में विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में नियति ने भारतीय वामपंथियों पर ऐतिहासिक दायित्व के निर्वाह की जिम्मेवारे सौंपी है जिससे वे मुँह नहीं मोड़ सकते हैं।

बहुत कठिन है डगर पनघट की:

जहाँ तक कन्हैया कुमार के राजनीतिक भविष्य का प्रश्न है, तो कन्हैया के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होने जा रहा है। इसका कारण यह है कि उन्होंने वामपंथी दलों की अदावत मोल ली है जिसके लिए शायद वामपंथी उन्हें माफ़ नहीं करें, और इसकी कीमत देर-सबेर उन्हें चुकानी पड़ सकती है। लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में कन्हैया ने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता गँवाते हुए अपनी राजनीतिक पूँजी को दाँव पर लगाया है। इस क्रम में उनकी छवि अवसरवादी राजनेता वाली बनी है और इसके कारण यह सन्देश गया है कि वे भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह ही हैं। इसके कारण वे लोग उनसे दूर छिटकेंगे जो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से मुक्त रहते हुए वैकल्पिक संभावनाओं की पड़ताल कर रहे थे।

टिपिकल राजनीतिज्ञ हैं कन्हैया कुमार:

यह कहने, कि कन्हैया कुमार टिपिकल राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर हैं, की तुलना में यह कहना कहीं अधिक उचित है कि कन्हैया कुमार में आरम्भ से ही टिपिकल राजनीतिज्ञ के लक्षण मौजूद रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में उनकी जीत ही संभव नहीं हो पाती। सन् 2016 में ही क़रीब जेएनयू वाली घटना के 6-7 माह बाद बाप्सा के नौ सदस्यों को, जो दलित समुदाय से आते थे, को जेएनयू से निलम्बित किया गया था, कन्हैया सहित तमाम तथाकथित प्रगतिशील और उदारवादी ताक़तों ने निलम्बन के मसले पर उनका साथ देने से इनकार करते हुए जय भीम, लाल सलामनारे को सार्थकबनाया। कुछ ऐसे ही हालात बेगूसराय में दिखे, जब पूर्व एमएलसी उषा साहनी को कोई पूछने वाला तक नहीं था, जबकि वे उस सभा में सीपीआई की वरिष्ठतम नेत्री थीं और उस सेमीनार में प्रमुख वक्ता के रूप में कन्हैया कुमार मंच पर विराजमान थे। लोकसभा-चुनाव के बाद होने वाली हिंसा में तीन वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, लेकिन कन्हैया कुमार ने मृतकों के घर जाकर उनके प्रति संवेदना प्रकट करने की आवश्यकता नहीं महसूस की। ये सारे प्रकरण एक दौर में रूमानी नायक में तब्दील हो चुके कन्हैया कुमार के टिपिकल राजनीतिज्ञ होने की ओर इशारा करते हैं।

कन्हैया की समस्या:

श्याम विज सही ही लिखते हैं, “लोग कहते हैं कि कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी है, लेकिन मुझे यह लगता है कि कन्हैया कुमार की समस्या यही है कि वह महत्वाकांक्षी नहीं है।” अगर कन्हैया कुमार महत्वाकांक्षी होते, तो इससे देश एवं समाज का भी भला होता, और खुद उनका भी भला होता। दरअसल, कन्हैया की समस्या यह है कि उसकी महत्वाकांक्षा का दायरा अत्यन्त सीमित है। वह येन-केन-प्रकारेण संसद तक पहुँचने की चाह रखता है, उससे अधिक कुछ नहीं; जबकि उसके सामने खुला मैदान है। लेकिन, इसके लिए उसे मीडिया की चकाचौंध से और इसके द्वारा मिलने वाली सस्ती लोकप्रियता की चाह से मुक्त होना होगा। उसे व्हाट्स एप्प, फेसबुक और ट्वीटर की मायावी दुनिया से बाहर निकलकर ज़मीन पर उतरकर राजनीति करनी होगी, अपने कोम्फोर जोन से बाहर निकलना होगा और अनकम्फर्ट जोन में प्रवेश के लिए तैयार होना होगा। लेकिन, अबतक इसके लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ते हैं। अबतक उसने बने-बनाये प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल किया है, हर वह काम किया है जो मीडिया में फुटेज दिला सके और इस काम में उसे सवर्णवादी मीडिया का पूरा-पूरा साथ मिला है। यहाँ तक कि उसने उस मूल एजेंडे से समझौते भी किए हैं और उन लोगों की अनदेखी करते हुए उनकी उपेक्षा की है, उनका तिरस्कार तक किया है जो संघर्ष के दिनों में उसके साथी रहे हैं और जिन्होंने उस समय उसका साथ दिया जिस समय कन्हैया कुमार के साथ लोग खड़े होने से परहेज़ कर रहे थे। जेएनयू से लेकर बेगूसराय तक, एआईएसएफ से लेकर सीपीआई तक के उसके साथी एवं कैडर इसके साक्षी हैं। 

एर्रोगेंस से मुक्ति पाने की ज़रुरत:

इतना ही नहीं, कन्हैया कुमार की छवि भी उनकी मुश्किलों को बाधा रही है। दिल्ली से बेगूसराय और पटना तक, छात्र-जीवन से राजनीतिक जीवन तक कन्हैया के एर्रोगेंस की किस्से सुने जा सकते हैं। दरअसल, कन्हैया जितना डिजर्व करता था, उसे उससे कहीं बहुत अधिक मिला। वह अपनी इस सफलता को पचा नहीं पा रहा है। इसने उसे एर्रोगेंट बनाया, और उस एर्रोगेंस के कारण उसने बहुत कम समय में अपने दोस्तों और शुभचिंतकों को खोया है। आज कन्हैया के प्रति सहानुभूति एवं समर्थन रखने वालों को सुदर्शन की हार की जीतकहानी के बाबा भारती की बात याद आ रही होगी, और एक ही प्रश्न उनके मानस-पटल पर बार-बार कौंध रहा होगा: अब कोई किसी कन्हैयापर कैसे विश्वास करेगा? अब इस तरह से विश्वास करना मुश्किल होगा।

मुस्लिम-परस्त छवि से छुटकारा पाने की चुनौती:

अबतक कन्हैया की छवि प्रो-मुस्लिम की रही है, और उन्होंने बेगूसराय चुनाव के दौरान जो रवैया अपनाया, उससे उनकी यह छवि और भी अधिक मज़बूत हुई है। उनकी इस छवि को मज़बूत करने में उनके विरोधियों की भी अहम् भूमिका रही, और सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मसले पर होने वाले आन्दोलन में उनकी सक्रियता ने इसे और अधिक पुष्ट किया है। उन्हें ये बातें समझनी होंगी कि सिर्फ मुसलमानों एवं दलितों के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। दलित वोटबैंक के तो पहले से ही कई दावेदार हैं, और अब तो यह बिखर चुका है। रही बात मुस्लिम वोटबैंक की, तो दक्षिणपंथी हिंदुत्व के उभार, इसके कारण मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़, समाज एवं राजनीति में मुस्लिमों के हाशिये पर चले जाने के अहसास और इसकी पृष्ठभूमि में ओवैसी के राजनीतिक उभार के कारण आने वाले समय में उसमें भी बिखराव आने जा रहा है।  आने वाले समय में उन्हें ज़मीनी स्तर पर राजनीति करते हुए अपना जनाधार भी विकसित करना होगा और काँग्रेस संगठन को मजबूती प्रदान करते हुए बिहार में मृतप्राय काँग्रेस में जान भी फूँकनी होगी, अन्यथा वे इतिहास के बियाबान में कहाँ खो जायेंगे, पता भी नहीं चलेगा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें, और इस बात को पुष्ट करें कि उन्होंने अपनी पिछली गलतियों से कुछ सीखा भी है। काँग्रेस में जाने का निर्णय उनकी राजनीतिक परिपक्वता की ओर भी इशारा करता है और इस बात की ओर भी कि वे फूँक-फूँक कर कदम रख रहे हैं, लेकिन इसी दौरान उन्होंने ऐसे काम भी किये हैं जो उनकी राजनीतिक परिपक्वता पर सवालिया निशान लगते हैं। अब, जब कन्हैया काँग्रेस के साथ जुड़कर अपनी नयी राजनीतिक पारी शुरू करने जा रहे हैं, उन्हें इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए कि वे अब राजनीति के नौसिखुआ नहीं हैं।  

इतना ही नहीं, समस्या कन्हैया कुमार की छवि, उसके रवैये और उसकी कार्यशैली के कारण भी है। पहली बात यह कि कन्हैया कुमार की कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि, ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा और उनकी मुस्लिम-परस्त छवि इसमें बाधक बन सकती है। इतना ही नहीं, बड़े सलीके से उनकी सवर्ण-विरोधी छवि और हिन्दू-विरोधी छवि भी निर्मित की गयी। उसके पिता के श्राद्ध में बाल नहीं मुंडवाने को मुद्दा बनाया गया। लोकसभा-चुनाव के समय कोरई गाँव की घटना को अंजाम दिया गया और इसका इस्तेमाल उन्हें सवर्ण-विरोधी साबित करने के लिए किया गया। पिछले लोकसभा-चुनाव में यही छवि बेगूसराय से कन्हैया कुमार की जीत में बाधक बनी थी। दूसरी बात यह कि सीपीआई का सदस्य रहते हुए कन्हैया कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे ऐसा लगता हो कि संगठन को मजबूती प्रदान करने में उसकी कोई रूचि है, जबकि उसके पास इसके बेहतर अवसर उपलब्ध थे। तीसरी बात यह कि कन्हैया कुमार अहमन्यता के शिकार हैं, और इसी कारण उन्हें यह लगता है कि उनका मुकाबला सिर्फ और सिर्फ मोदी से है। यह अहसास उन्हें ज़मीनी स्तर की राजनीति से दूर रख रहा है जिसके बिना न तो कन्हैया कुमार की महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती है और न ही वे काँग्रेस की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। अब देखना यह है कि कन्हैया कुमार कहाँ तक पूर्व की अपनी गलतियों से सीखते हुए राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हैं और अपनी राजनीतिक स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं? इसकी अपेक्षा तो नहीं के बराबर है, पर तब तक कन्हैया को उनके उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के लिए शुभकामनाएँ तो दी ही जा सकती हैं।  

Friday, 1 October 2021

गाँधी को तुम मार न सकोगे

 

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गाँधी: भारतीयता के पर्याय!

(गाँधी जयन्ती पर विशेष आलेख)

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मैं इतिहास का छात्र रहा हूँ, और साहित्य में मेरी स्वाभाविक रूचि रही है। इस नाते इतिहास ने वस्तुनिष्ठता दी, तो साहित्य ने विषयनिष्ठ बनाया। इन सबके बीच मेरी संवेदनशील आलोचना-दृष्टि आकार ग्रहण करती चली गयी, और व्यावहारिक तक़ाज़ों के दबावों के बावजूद आज यही संवेदनशील आलोचना-दृष्टिमेरे व्यक्तित्व की पहचान बन चुकी है। मुझे लगता है कि इस संवेदनशील आलोचना-दृष्टिके बिना गाँधी को जानना और समझना मुश्किल है। जब में इतिहास ऑनर्स का छात्र था, तो ग्रेजुएशन के उन दिनों गाँधी और गाँधीवाद की समझ न होने के कारण उसकी नकारात्मक आलोचना ऊर्जा और उत्साह का संचार करती रही, पर जैसे-जैसे गाँधी को जाना-समझा, उनसे प्यार होता चला गया। और अब तो इस प्यार का यह आलम है कि मेरी नज़रों में गाँधी और गाँधीवाद भारतीयता का पर्याय है।

गाँधी होने के मायने:

गाँधी से प्रेम का मतलब है भारत से प्रेम करना, भारतीयता से प्रेम करना। गाँधी से प्रेम किए बिना भारत से प्रेम नहीं किया जा सकता है और गाँधीवाद की समझ के बिना भारतीयता की समझ मुश्किल है। और, गाँधी से नफ़रत करके तो भारत से प्रेम किया ही नहीं जा सकता है। ऐसा कोई भी दावा ढ़कोसला है और ऐसा दावा करने वाले देश को खोखला कर रहे हैं। इसलिए गोडसेवादियों को मेरा दो-टूक सन्देश है: “गाँधी को तुम मार न सकोगे, और गोडसे को तुम जिला न सकोगे। मारा व्यक्ति को जा सकता है, विचार को नहीं; और तुमने ‘गाँधी’ नाम के व्यक्ति को मारकर यह सुनिश्चित कर दिया कि विचार के रूप में गाँधी मरेगा नहीं, मर ही नहीं सकता, क्योंकि यह रामत्व और रावणत्व के प्रश्न से जाकर सम्बद्ध हो गया। तुमने रावणत्व का पक्ष लेकर गाँधी को मजबूती से राम के पाले में ले जाकर खड़ा कर दिया। अगर गाँधी को मारना सम्भव होता, तो 30 जनवरी,1948 को गाँधी की हत्या के बावजूद गाँधी का भूत तुम्हें इस कदर डरा नहीं रहा होता और गाँधी तुम्हारी छाती पर चढ़कर मूँग नहीं दल रहे होते।”   

गाँधी भारतीयता के पर्याय:

गाँधी और गाँधीवाद को लेकर मेरी इस समझ को विकसित करने में इतिहास की भूमिका नहीं रही, ऐसा तो मैं नहीं कहूँगा क्योंकि गाँधी को समझने की यात्रा ही इतिहास से शुरू हुई; पर यह ज़रूर कहूँगा कि इस समझ को विकसित करने में साहित्य ने कहीं अधिक एवं निर्णायक भूमिका निभायी। मैंने गौतम बुद्ध, कबीर और तुलसी से लेकर मैथिली शरण गुप्त, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, दिनकर, नागार्जुन और रेणु के साहित्य के ज़रिए भारतीय परम्परा, भारतीय समाज और भारतीय संस्कृति को भी समझने की कोशिश की तथा इसके सापेक्ष गाँधी और गाँधीवाद को रखकर देखा। मुझे इनके बीच का फर्क मिटता हुआ दिखा, और फिर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन सारे चिन्तकों ने युगीन चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परम्परा की पुनर्व्याख्या की। बुद्ध ने ‘मध्यमा प्रतिपदा’ के ज़रिये अपनी युगीन चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया, तो तुलसी ने समन्वयवादी चेतना के धरातल पर। गाँधी ने यही काम सर्वधर्मसमभाव और अहिंसक सत्याग्रह के ज़रिये किया। इसने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचाया कि भारत की सामासिक संस्कृति के केन्द्र में वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कार मौजूद है, सहिष्णुता एवं समन्वय जिसके प्राण-तत्व हैं, लेकिन इसका दायरा यहीं तक सीमित नहीं है। इसीलिए न तो वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कारों तक सीमित रहकर भारत और भारतीयता को समझा जा सकता है और न ही इसको नकार कर।

द्वंद्व और तनाव:

न तो भारतीय समाज कोई समरूप समाज रहा हो और न ही भारतीय संस्कृति समरूप संस्कृति। विविधता से भरे समाज और संस्कृति में में समरूपता सम्भव भी नहीं है। स्वाभाविक है कि यह विविधता विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक समूहों के बीच हितों के टकराव को जन्म दे। निश्चय ही यह स्थिति भारतीय समाज और संस्कृति में द्वंद्व एवं तनाव को जन्म देती है, और इस द्वंद्व एवं तनाव का लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन, यह द्वंद्व और तनाव भारतीय समाज और संस्कृति का अंतिम सत्य कभी नहीं रहा।

द्वंद्व और तनाव: अंतिम सत्य नहीं:

इस द्वंद्व और तनाव की भूमिका भारतीय समाज एवं संस्कृति को अधिक समावेशी और अधिक मानवीय बनाने में रही है, और इस रूप में द्वंद्व एवं तनाव एक समावेशी, न्यायोचित और मानवीय समाज के निर्माण के साधन में तब्दील हो जाता है। इसी बात को भारतीय वामपंथी अबतक या तो समझ नहीं पाए, या फिर अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों के कारण समझते हुए भी वे इसे न समझते हुए दिखे। कबीर ने इस बात को समझा, इसीलिए वे असहमति एवं विरोध तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने अपने असहमति एवं विरोध को एक न्यायपूर्ण मानवीय समाज के निर्माण के साधन में तब्दील कर दिया। इसीलिए वे घृणा और विध्वंस तक नहीं रुके, वरन् प्रेम की बात करते हुए समन्वय के ज़रिये सृजन की प्रस्तावना की और इसी के कारण दुनिया ने उन्हें युगान्तर की क्षमता से लैस युग-प्रवर्तक एवं क्रान्तिकारी के रूप में सैल्यूट किया। तुलसी ने तो उनकी इसी समन्वयवादी चेतना को अपनी रचना-दृष्टि के केन्द्र में रखा। इस बात को गाँधी ने भी समझा, और उनके युग के साहित्यकारों ने भी। इसी समझ ने उन्हें तुलसी के करीब लाने का काम किया, और इसी समझ के कारण रूसी क्रान्ति, मार्क्स और मार्क्सवाद के प्रति तमाम आकर्षण के बावजूद प्रेमचन्द गाँधी और गाँधीवाद के प्रति अपने मोह को अन्त-अन्त तक छोड़ नहीं पाए। इसी मोह ने साम्यवाद के प्रति आकर्षण के बावजूद प्रसाद को भारतीय परम्परा एवं संस्कृति से दृढ़तापूर्वक जोड़े रखा। इसी मोह के कारण रेणु को भी समाजवाद और साम्यवाद भारतीय मसलों का हल दे पाने में असमर्थ लगा और इसकी क्रान्तिधर्मी चेतना के प्रति तमाम आकर्षण के बावजूद इसके लिए उन्हें गाँधी और गाँधीवाद की शरण लेनी पड़ी। और, इसी मोह के कारण राष्ट्रकवि दिनकर को यह कहना पड़ा:

अच्छे लगते हैं मार्क्स, किन्तु प्रेम अधिक है गाँधी से!

दरअसल गाँधी को कहावतों में तब्दील करते हुए भले ही हम कहते रहे हों कि ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी’, पर वास्तविकता यह है कि गाँधी हमारी मजबूरी भी हैं और मजबूती भी। यह गाँधी और गाँधीवाद की मजबूती है जो उन्हें हमारी मजबूरी में तब्दील कर देती है और इसी मजबूती के कारण दक्षिणपंथियों के खिलाफ अपनी लड़ाई में वामपंथ भी गाँधी की शरण में जाने के लिए विवश होता है, और दक्षिणपंथियों को भी भारत के भीतर से लेकर भारत के बाहर तक अपनी स्वीकार्यता सुनिश्चित करने के लिए गाँधी के दरवाज़े पर मत्थे टेकने होते हैं। पर, गाँधी और गाँधीवाद की विडंबना यह है कि उनके समर्थकों से लेकर उनके विरोधियों तक में उन्हें भुनाने और बेचने की होड़ लगी हुई है, और यही उसकी त्रासदी है।    

गाँधीवाद: अपार धैर्य की माँग:

दरअसल गाँधी में कुछ ऐसा है जो हमें गाँधी से पूरी तरह से जुड़ने नहीं देता है। मार्क्स और मार्क्सवाद में जो क्षणिक आकर्षण है, उस क्षणिक आकर्षण का गाँधी और गाँधीवाद में अभाव है। कारण यह कि गाँधीवाद बदलाव की जिस प्रक्रिया की प्रस्तावना करता है, बदलाव की वह प्रक्रिया अत्यन्त धीमी एवं क्रमिक है, और इसीलिए थकाऊ एवं उबाऊ भी। और, उसकी यह कमी कई बार हमें विचलित करती है क्योंकि हममें इतना धैर्य नहीं होता है, बदलाव के लिए जितने धैर्य की अपेक्षा गाँधी और गाँधीवाद हमसे करता है। यह स्थिति हमें मोहभंग की ओर ले जाती है और यह मोहभंग वैकल्पिक संभावनाओं की तलाश की ओर। इसके विपरीत, मार्क्सवाद में गजब का आकर्षण है। यह क्रान्ति के ज़रिये त्वरित बदलाव की बात करता है जिसकी परिकल्पना मात्र हमें रोमांचित करती है। इसीलिए गाँधी एवं गाँधीवाद से मोहभंग ने अक्सर भारतीय साहित्यकारों एवं चिन्तकों को मार्क्सवाद की ओर धकेलने का काम किया।

मार्क्सवाद की खामियाँ:

तमाम खूबियों के बावजूद मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण टिक नहीं पाया। दरअसल, मार्क्स से भारतीय समाज एवं संस्कृति, या फिर भारतीय की सोच एवं मानसिकता को समझने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। तब तो और भी नहीं, जब एशियाई समाज को लेकर मार्क्स के अपने पूर्वाग्रह हैं, और अधिकांश भारतीय वामपन्थी तक इसे समझ पाने में असफल रहे। राम विलास शर्मा, नामवर सिंह से लेकर मुक्तिबोध और बाबा नागार्जुन तक जिन वामपंथियों ने इसे समझने की कोशिश की, उन्हें ‘अपनों’ के बीच ही उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा। कभी उन्हें समग्रता में नहीं अपनाया गया, अपनी सुविधा के हिसाब से उन्हें टुकड़ों में लेने और समझने की कोशिश की गयी। इसीलिये मार्क्सवाद का भारतीय परम्परा और संस्कृति से मेल नहीं है। इसके विपरीत, गाँधी का शनै:-शनै बदलाव परम्परा और संस्कृति की अवहेलना नहीं करता, वरन् उसके दायरे में रहते हुए ही बदलाव की प्रस्तावना करता है और व्यवस्था को मानवीय रूप प्रदान करता हुआ उन तमाम मसलों का हल सुझाता है जिनसे हमारा युग, समय, समाज और परिवेश जूझ रहा है। इसके विपरीत, मार्क्स और मार्क्सवाद आमूलचूल बदलाव की बात करता है और बदलाव की इस प्रक्रिया में समाज एवं संस्कृति की अवहेलना छुपी हुई है। साथ ही, गाँधी और गाँधीवाद समझने की ज़रूरत पर बल देता है, जबकि मार्क्स एवं मार्क्सवाद समझाने की ज़रूरत पर बल। एक स्वत:स्फूर्त चेतना की परिस्थितियों को निर्मित करने में विश्वास करता है, तो दूसरा उस चेतना को आरोपित करने में।

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें इसीलिये मैं यह महसूस करता हूँ कि गाँधी को तुम मार नहीं सकोगे:

मिट जाओगे, पर मिटा न सकोगे,

नाम हमारे गाँधी का।

कुछ भी कर लो, जी उठेगा,

भूत हमारे गाँधी का!

जितना मारोगे, उतना ही

मर न सकेगा गाँधी रे;

पल-पल अपने कब्र से

जी-जी उठेगा गाँधी रे!

गाँधी हमारी रगों में समाहित हैं, आवश्यकता है उसे महसूसने की, आवश्यकता है उन धड़कनों को सुनने-समझने की और इसके ज़रिए यह जानने की कि वे हमें क्या कहना चाहती हैं। निष्कर्ष यह है कि गाँधीवाद भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन परम्परा की आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में की गयी पुनर्व्याख्या है। गाँधी और गाँधीवाद से प्रेम किए बिना भारत से प्रेम नहीं किया जा सकता है। इसीलिए आज भारत और भारतीयता संकट के जिस दौर से गुजर रही है, उसमें एक बार फिर से गाँधी को देखने और समझने की ज़रुरत है। इस संकट का समाधान उसी में अन्तर्निहित है, पर लकीर का फ़कीर बनकर नहीं, 21वीं सदी की चुनौतियों के अनुरूप उन्हें ढ़ालते हुए।