पार्ट 4: नागरिकता-संशोधन
अधिनियम: विवाद
प्रमुख आयाम
1. विवाद की पृष्ठभूमि
2.
राजनीतिक
दलों का रुख
3. गाँधी और नागरिकता
कानून
4. नेहरु-लियाकत पैक्ट और
संशोधन अधिनियम
5.
हिन्दू-तुष्टिकरण की नीति
6.
अल्पसंख्यक
मुस्लिम समुदाय का विरोध
7.
विरोध
का आधार:
a.
संविधान
की मूल भावनाओं के अनुरूप नहीं
b.
विधि सम्यक् प्रक्रिया की अनदेखी
c.
भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परम्परा के
भी प्रतिकूल
d.
मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों के बीच भेदभाव
e.
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का
उल्लंघन
f.
मानवाधिकार
का प्रश्न: उत्पीड़न की समझ नहीं
g.
धार्मिक
उत्पीड़न की भ्रामक धारणा: अन्य पड़ोसी देशों
के अल्पसंख्यकों के प्रति उदासीन
h.
इस्लामिक
राज्यों की भ्रामक धारणा
i.
बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति दोहरा रवैया
j.
मनमानापूर्ण
k.
असम-समझौते
का उल्लंघन
l.
कटऑफ
तिथि को लेकर विवाद
m. बांग्लाभाषी
भारतीय नागरिकों के हितों का प्रतिकूलतः प्रभावित होना:
विवाद की पृष्ठभूमि:
अबतक की
चर्चा से यह स्पष्ट है कि प्रथमदृष्ट्या यह अधिनियम एक ऐसे विधायन का उदाहरण
प्रतीत होता है जो केंद्र सरकार की मानवीय पहल का भी संकेत देता है और पूर्वोत्तर
की चिंताओं के प्रति उसकी संवेदनशीलता का भी; लेकिन इसका लाभ केवल अफगानिस्तान,
पाकिस्तान और बांग्लादेश से वैध या अवैध रूप से आने वाले छह गैर-मुस्लिम
अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को ही मिल सकेगा। लेकिन, गहराई से विचार करने पर इसके
पीछे की राजनीति समझ में आती है। सत्तारूढ़ दल भाजपा की हिन्दुत्व पर आधारित
राजनीति और एनआरसी से इसका सम्बंध वह बिंदु है जहाँ संशोधित अधिनियम समस्याजनक
प्रतीत होता है। अगर नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019 संविधान की मूल भावनाओं के
अनुरूप न होने के कारण समस्याजनक है, तो नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC)
से इसका सम्बन्ध इसे अल्पसंख्यक मुसलमानों के साथ-साथ समाज के हाशिये पर के समूह
के लिए, जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर एवं पिछड़े हुए हैं, खतरनाक एवं मारक बना देता
है। इसीलिए इसके निहितार्थों को केवल मुसलमानों और बांग्लादेशी घुसपैठियों तक
सीमित कर देखना भूल साबित होगी। इसकी पुष्टि असम में राष्ट्रीय नागरिकता
रजिस्टर(NRC) से सम्बंधित अबतक के अनुभवों से होती है। शायद इसीलिए इस अधिनियम ने
देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध-प्रदर्शनों को जन्म दिया है; यद्यपि हर
विरोध-प्रदर्शन के पीछे अलग-अलग कारण हैं। अगर असम के लोग अपनी विशिष्ट
भाषायी-सांस्कृतिक पहचान के लोप के साथ-साथ आर्थिक हितों पर प्रतिकूल प्रभाव की
आशंका में इस अधिनियम का विरोध कर रहे हैं, तो दक्षिण भारत और विशेषकर तमिलनाडु
में श्रीलंकाई तमिलों की उपेक्षा के कारण इसका विरोध हो रहा है। अगर अल्पसंख्यक
मुस्लिम समुदाय एनआरसी से इसके अंतर्संबंध के कारण आशंकित हैं, तो पढ़े-लिखे युवा
एवं बुद्धिजीवी समुदाय संविधान एवं संवैधानिक मूल्यों के क्षरण को लेकर चिंतित हैं।
यही वह
पृष्ठभूमि है जिनमें इस अधिनियम के प्रावधानों का मूल्यांकन निम्न संदर्भों में किया जाना चाहिए:
1. सरकार के द्वारा दिए गए तर्कों के
आलोक में, और
2. भारतीय संविधान के उपबंधों के आलोक
में।
राजनीतिक दलों का रुख:
जहाँ तक राजनीतिक दलों के
रुख का प्रश्न है, तो सन् 2003 में नागरिकता क़ानून को लेकर होने वाली संसदीय बहस
में काँग्रेस और वामपंथी राजनीतिक दलों के साथ-साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल
बिहारी वाजपेयी और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी
ने भी धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की बात की थी। राज्यसभा
के आधिकारिक
रिकॉर्ड के मुताबिक मनमोहन सिंह ने कहा था, “हमारे
देश के विभाजन के बाद, बांग्लादेश जैसे
देशों के अल्पसंख्यकों को प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है और यह हमारी नैतिक
जिम्मेदारी है कि अगर परिस्थितियाँ ऐसे अभागे लोगों को हमारे देश में शरण माँगने
पर मजबूर करती हैं, तो इन अभागे लोगों को नागरिकता प्रदान करने
को लेकर हमारा रवैया ज्यादा उदार होना चाहिए।” यहाँ पर नजरिया मानवीय है और इस आलोक में विभाजन-जन्य त्रासदी से
पीड़ित समूह को राहत दिलाने का प्रयास है। इस बहस में सरकार की ओर
से जवाब देते हुए तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री लाल
कृष्ण आडवाणी ने मनमोहन सिंह की बातों से सहमति प्रदर्शित करते हुए अवैध
आप्रवासियों एवं वैध शरणार्थियों के बीच अंतर किया और वैध प्रवासी को ‘धार्मिक प्रताड़ना के कारण भागनेवाले व्यक्ति’ के तौर
पर परिभाषित किया। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो: “हम
हमेशा कहते हैं कि धार्मिक प्रताड़ना के कारण भागने पर मजबूर होनेवाला एक शरणार्थी, एक वैध शरणार्थी है और उसे अवैध आप्रवासियों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता
है, जो किसी भी कारण से, यहाँ तक कि आर्थिक कारणों से आए हुए
हो सकते हैं।” यहाँ
तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने पर विचार करने के पक्ष
में थे।
उस
समय वामपंथी दलों ने भी मनमोहन सिंह की
इस माँग का समर्थन किया था। सन् 2012 में कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ़ इण्डिया (मार्क्सिस्ट) के तत्कालीन महासचिव प्रकाश करात ने तत्कालीन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सन् 2003 में हुई बहस के दौरान
उनके द्वारा अपनाये गए रुख की याद दिलाते हुए उनसे ‘अल्पसंख्यक
समुदायायों के शरणार्थियों’ को आसानी से नागरिकता देने के
लिए जरूरी संशोधन लाने की माँग की थी।
लेकिन, चूँकि सत्ता-पक्ष
और विपक्ष के बीच होने वाली इस पूरी बहस में इनमें से किसी ने भी खास धार्मिक
समुदायों का जिक्र नहीं किया था, इसीलिए
नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019 का उस बहस से कोई मेल नहीं है। जहाँ सन् 2019 में पारित अधिनियम
में चुनिंदा पड़ोसी (इस्लामिक) देशों और चुनिंदा धार्मिक समूहों के नामों का स्पष्ट
उल्लेख किया गया है, जबकि उस समय बिना ऐसी किसी शर्त के पड़ोसी देशों के सभी प्रताड़ित
अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने पर विचार
करने की बात की गयी थी। यही कारण है कि वर्तमान में जहाँ सत्तारूढ़ दल भाजपा
सेलेक्टिव तरीके से विपक्षी दल के नेताओं के पुराने पत्रों एवं भाषणों का हवाला
देते हुए इस अधिनियम के औचित्य को सिद्ध करने की कोशिश में लगी और अब उन पर
अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण एवं अवसरवादी राजनीति करने का आरोप लगा रही है, वहीं
काँग्रेस सहित अधिकांश विरोधी दल इस अधिनियम को भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेंडे से
जोड़कर देख रहे हैं और उसे संविधान की मूल भावनाओं के प्रतिकूल मानते हुए उसका
विरोध कर रहें। बस फर्क यह है कि कुछ राजनीतिक दल इस विरोध को लेकर मुखर हैं, और
कुछ राजनीतिक दल हिन्दू मतदाताओं की नाराज़गी के मद्देनज़र महज विरोध की औपचारिकता
पूरी कर रहे हैं।
नागरिकता
कानून और गाँधी:
केंद्र सरकार नागरिकता-संशोधन अधिनियम के औचित्य को सिद्ध
करने के लिए गाँधी का हवाला देते हुए यह कह रही है कि उसने इसके जरिये गाँधी के
अधूरे सपनों को पूरा करने की कोशिश की। अशोक वाजपेयी द्वारा
सम्पादित गाँधी की सारी प्रार्थना-सभाओं के प्रवचन के संकलन (अप्रैल,1947 से लेकर जनवरी,1948) में 5 जुलाई के प्रवचन
के सन्दर्भ में कहा गया है: “मगर पाकिस्तान की असली परीक्षा तो यह होगी कि वह अपने यहाँ रहने वाले
राष्ट्रवादी मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और हिन्दुओं आदि
के साथ कैसा बर्ताव करते हैं? इसके अलावा, मुसलमानों में भी तो अनेक फिरके हैं।
शिया और सुन्नी तो प्रसिद्ध हैं और भी कई फिरके हैं जिनके साथ देखते हैं, कैसा
सलूक होता है? हिन्दुओं के साथ वे लड़ाई करेंगे या दोस्ती के साथ चलेंगे?” स्पष्ट है कि
गाँधी की चिन्ता केवल अल्पसंख्यक हिन्दुओं को लेकर नहीं थी, वरन् उनकी चिंताओं के
केंद्र में शिया एवं अहमदिया सहित इस्लाम के वे संप्रदाय भी थे जिनकी हैसियत
सुन्नी-बहुल पाकिस्तान में इस्लाम से सम्बद्धता के बावजूद अन्य धार्मिक
अल्पसंख्यकों से बहुत अलग नहीं थी और उन्हें भी धार्मिक आधार पर ज्यादतियों का
शिकार होना पड़ता था।
इस प्रवचन में गाँधी
नए पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों के साथ राष्ट्रवादी मुसलमानों का भी ज़िक्र
करते हैं। आगे
10 जुलाई के प्रवचन में एक बार फिर से पाकिस्तान
में रहने वाले राष्ट्रवादी मुसलमानों का जिक्र
करते हुए गाँधी कहते हैं: “यदि सिंध
या और जगहों से लोग डरके मारे अपने घर-बार छोड़ कर यहाँ आ जाते हैं, तो क्या हम
उनको भगा दें? यदि हम ऐसा करें, तो अपने को हिन्दुस्तानी किस मुँह
से कहेंगे? हम कैसे जय हिन्द का नारा लगाएँगे? यह कहते हुए उनका स्वागत करें कि आइये यह भी आपका मुल्क है और वह भी आपका
मुल्क है। इस तरह से उन्हें रखना चाहिए। यदि
राष्ट्रीय मुसलमानों को भी पाकिस्तान छोड़कर आना पड़ा, तो वे भी यहीं रहेंगे। हम
हिन्दुस्तानी की हैसियत से सब एक ही है। यदि
यह नहीं बनता, तो हिन्दुस्तान बन नहीं सकता।” 12 जुलाई को गाँधी कहते हैं: “मेरे पास इन दिनों काफी मुसलमान मिलने आते
हैं। वे
भी पाकिस्तान से काँपते हैं। ईसाई, पारसी और दूसरे ग़ैर-मुसलमान डरें, यह तो समझ में आ सकता है, मगर मुसलमान क्यों डरें? वे कहते हैं कि हमें
देशद्रोही ‘क्वीसलिंग’ (यानि गद्दार) माना जाता है। पाकिस्तान
में हिन्दुओं को जो तकलीफ होगी, उससे ज्यादा हमें होगी।
पूरी सत्ता मिलते ही हमारा काँग्रेस के साथ रहना शरियत से गुनाह माना जाएगा।
इस्लाम के ये मानी है, तो इसे मैं नहीं मानता।
राष्ट्रीय मुसलमानों को कैसे क्विसलिंग कहा जा सकता है? मुझे आशा है कि जिन्ना साहब जहाँ ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की रक्षा
करेंगे, वहाँ इन मुसलमानों को भी पूरा संरक्षण देंगे।” इन राष्ट्रवादी
मुसलमानों की बार-बार बात करते हुए गाँधी कहते हैं कि “पाकिस्तान में अगर
राष्ट्रवादी मुसलमान सताए गए, तो हिन्दुस्तान आकर बस सकते हैं।” 26 सितंबर की सभा में गाँधी कहते हैं: “अगर पाकिस्तान में हिन्दू को और
भारत में मुसलमानों को पंचम स्तम्भ (वे लोग, जो दुश्मन की मदद करते हैं) यानी
गद्दार समझा जाए, भरोसे के काबिल न समझा जाए, तो यह
चलने वाली बात नहीं हैं। अगर वे पाकिस्तान में रहकर पाकिस्तान
से बेवफाई करते हैं, तो हम एक तरफ से बात नहीं कर सकते। अगर
हम यहाँ जितने मुसलमान रहते हैं, उनको पंचम स्तम्भ बना देते हैं; तो वहाँ
पाकिस्तान में जो हिन्दू, सिख रहते हैं, क्या उन सबको भी
पंचम स्तम्भ बनाने वाले हैं? यह चलनेवाली बात नहीं है। जो
वहाँ रहते हैं, अगर वे वहाँ नहीं रहना चाहते, तो यहाँ खुशी से आ जाएँ।
उनको काम देना, उनको आराम से रखना हमारी यूनियन सरकार का परम धर्म हो जाता है। लेकिन,
ऐसा नहीं हो सकता कि वे वहाँ बैठे रहें, और छोटे जासूस बनें,
काम पाकिस्तान का नहीं, हमारा करें। यह
बननेवाली बात नहीं है, और इसमें मैं शरीक नहीं हो सकता।”
गाँधी ने
पाकिस्तान में रहने वाले सभी लोगों से कहा: “वे पाकिस्तान में रहें और पाकिस्तान
का काम करें। पाकिस्तान में छोटे जासूस न बनें।
नहीं रहना है, तो सीधे आ जाएँ।” गाँधी ने उनसे यहाँ तक कहा: “वहाँ
से आने की ज़रूरत नहीं है, वहाँ रहकर इंसाफ की लड़ाई लड़ी
जानी चाहिए। 26 सितंबर के प्रवचन के
आखिर में गाँधी कहते हैं: “जो भी हिन्दू हों, सिख
हों, पारसी हों, क्रिस्टी हों, अगर
हिन्दुस्तान में बसना चाहें तो उनको हिन्दुस्तान के लिए लड़ना है, मरना है।” 15 सितंबर को गाँधी ने
अपनी दिल्ली-डायरी में लिखा था: “हिंदू और सिख सही कदम उठाएँ और उन मुसलमानों
को लौटने के लिए आमंत्रित करें जिन्हें अपने घरों से भागना पड़ा था। अगर
वो ये साहसिक कदम उठा पाते हैं जो कि हर तरह से सही है, तो उसी समय वो शरणार्थी-समस्या के हल की ओर बढ़ जाएँगे। उन्हें
सिर्फ़ पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया से मान्यता मिलेगी। वो
दिल्ली और भारत को बदनामी और बर्बादी से बचाएँगे।” 18 सितंबर को गाँधी ने यह भी कहा: “अगर मान लिया जाए कि पाकिस्तान में सब
मुसलमान गंदे हैं, तो उससे हमको क्या? मैं तो आपको कहूँगा
कि हिन्दुस्तान को समुंदर ही रखें, जिससे सारी गंदगी बह जाए। हमारा
यह काम नहीं हो सकता कि कोई गंदा करे, तो हम भी गंदा करें।”
स्पष्ट है कि गाँधी ने पाकिस्तान के राष्ट्रवादी मुसलमानों को भी भारत में बसाने
की बात की थी।
नेहरु-लियाकत पैक्ट और संशोधन
अधिनियम:
नागरिकता-संशोधन
कानून के समर्थन में जिस नेहरू-लियाकत समझौते का ज़िक्र किया जा रहा है, वह समझौता 8 अप्रैल,1950 को
सम्पन्न हुआ था। यह समझौता भारत और पाकिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यकों की
सुरक्षा से सम्बंधित था, और इसके जरिये दोनों देशों के अल्पसंख्यकों को यह आश्वस्त
करने का प्रयास किया गया कि उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं होगा। इसी आलोक में
इस समझौते में दोनों पक्षों ने इस बात पर सहमति जताई थी: “दोनों अपने-अपने
मुल्क में अल्पसंख्यकों को बराबर मानेंगे...उनका सम्मान करेंगे, उनकी
सुरक्षा करेंगे, उन्हें स्वतंत्रता देंगे।” इस समझौते की शुरूआत इन पंक्तियों से होती है: “भारत और
पाकिस्तान की सरकार प्रतिबद्धता से इस बात पर सहमत है कि दोनों अपने-अपने क्षेत्र
में रहने वाले अल्पसंख्यकों, चाहे उनका धर्म कुछ भी क्यों न हो, के लिए
नागरिकता के सन्दर्भ में पूर्ण समानता को सुनिश्चित करेंगे।” यहाँ पर
दो बातों को ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता है:
1. इस समझौते में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का
उल्लेख है। यह स्पष्ट किया गया है कि उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया
जाएगा, चाहे उनका धर्म कुछ भी क्यों न हो।
2. न तो इसमें कहीं भी ‘धार्मिक
अल्पसंख्यक’ या ‘हिन्दू अल्पसंख्यक’ या ‘मुस्लिम अल्पसंख्यक’ शब्द का उल्लेख है और
न ही भारत का संविधान अल्पसंख्यकों को धर्म एवं संप्रदाय विशेष के चश्में से देखता
है। भारतीय संविधान अल्पसंख्यकों को भाषायी एवं धार्मिक परिप्रेक्ष्य में देखता है।
लेकिन,
वर्तमान सरकार जिस कानून का बचाव कर रही है, उसमें धर्म के आधार पर नागरिकता देने
की बात है। इतना ही नहीं, नागरिकता-अधिनियम,1955 के
अस्तित्व में आने पर नागरिकता के प्रश्न को धर्म से परे रखने की कोशिश की गयी। इस
कानून में इस बात का उल्लेख है कि यदि कोई व्यक्ति स्वतंत्रता के समय पाकिस्तान
चला गया हो और वह 19 जुलाई,1948 के पहले पाकिस्तान से भारत वापस लौट आया हो, तो वह
भारत का नागरिक होगा। इतना ही नहीं, इस्लामिक राष्ट्र होने के बावजूद अफगानिस्तान,
पाकिस्तान या बांग्लादेश धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं देता है, जबकि भारत एक
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
हिन्दू-तुष्टिकरण की नीति:
इस बिल के जरिये प्रस्तावित संशोधनों का सम्बन्ध
असम में भाषाई एवं नृजातीय विभाजन से परे जाकर
हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीति से जाकर जुड़ता है। इस बिल के प्रावधान से इन
देशों के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक और विशेष रूप से अल्पसंख्यक हिन्दू लाभान्वित
होंगे। चूँकि केवल हिन्दुओं के लिए नागरिकता का
प्रावधान विभेदकारी होता और न्यायिक प्रक्रिया में उसका टिक पाना मुश्किल होता, इसीलिए सरकार ने इसके दायरे में अन्य अल्पसंख्यक समूहों को भी शामिल
किया है। यही कारण है कि केंद्र सरकार के इस कदम को
उसके हिन्दुत्ववादी एजेंडे और हिन्दू-तुष्टिकरण की नीति से सम्बद्ध करके देखा जा
रहा है।
अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय का विरोध:
अल्पसंख्यक मुस्लिम
समुदाय अपनी आशंकाओं के कारण इस अधिनियम के विरोध में है। इसका कारण यदि इस
अधिनियम का धर्मनिरपेक्षता की उन मूल भावनाओं के प्रतिकूल होना है जिस पर
अल्पसंख्यक समुदाय का भविष्य निर्भर करता है, तो एनआरसी के साथ इसके अंतर्सम्बंध
को लेकर उसकी आशंकाएँ भी। भले ही यह कहा जा रहा हो कि इस अधिनयम का भारतीय मुसलमानों से कोई
संबंध नहीं है और ना ही यह अधिनियम उनके अधिकारों को किसी भी तरीके से कम करता है;
लेकिन ये बातें कुछ हद तक ही सच हैं, पूरी तरह से
नहीं। असम एनआरसी के अनुभव इसकी पुष्टि करते हैं।
असम में जो 19 लाख
से अधिक लोग एनआरसी से बाहर रह गए हैं, उनमें केवल बांग्लादेशी घुसपैठिये ही शामिल
नहीं हैं, वरन् वे भारतीय हैं जो अपने नागरिकता-दावों के पक्ष में मान्य
दस्तावेजों को प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ रहे। ऐसी
स्थिति में एनआरसी से बाहर रह गए भारतीय, अगर वे हिन्दू हैं, तो उन्हें इस अधिनियम
के जरिये भारत की नागरिकता प्राप्त होगी; लेकिन अगर वे मुसलमान हैं, तो उनके लिए
ये नागरिकता सुलभ नहीं होगी। इस प्रकार यह अधिनियम उन 13 लाख हिंदुओं के लिए
भारतीय नागरिकता का मार्ग प्रशस्त करता है जो असम में एनआरसी से बाहर रह गए हैं और
जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि वे बांग्लादेश से आए हैं, जबकि करीब 5
लाख मुसलमान नागरिकता की सूची से बाहर हो जायेंगे। कहा यह जा रहा है कि ऐसे लोगों
को या तो डिटेंशन सेंटर भेजा जाएगा, या फिर वापस बांग्लादेश भेजा जाएगा। लेकिन,
वापस बांग्लादेश भेजने की संभावना न तो व्यावहारिक है और न ही मुमकिन। स्पष्ट है
कि असम के मामले में संशोधित अधिनियम एवं एनआरसी का अंतर्सम्बंध मुसलमानों के साथ
भेदभाव करता हैं। इसीलिए जब सरकार में शामिल लोग एनआरसी की बात करते हैं, तो
स्वाभाविक है कि भारतीय मुसलमानों के मन में मौजूद यह आशंका गहराए कि इस अधिनियम
की पृष्ठभूमि में एनआरसी के जरिये उन्हें अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए कहा
जायेगा, इस प्रक्रिया में उनके साथ भेदभाव किया जाएगा और उन्हें तरह-तरह से परेशान
करते हुए भारतीय नागरिकता से वंचित किया जाएगा।
इतना ही नहीं, इस
अधिनियम का सीधा सम्बन्ध भारत में रह रहे
व्यक्तियों, चाहे वे नागरिक
हों या विदेशी, से जुड़ता है। ये बातें तब और स्पष्ट हो जाती हैं जब भारत के
गृहमंत्री इस अधिनियम की क्रोनोलॉजी समझाते हुए इसे नागरिकों के लिए राष्ट्रीय
रजिस्टर(NRC) से सम्बद्ध करके देखते हैं। भले ही प्रधानमंत्री इसका खंडन कर रहे
हों, पर भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र के साथ-साथ राष्ट्रपति के अभिभाषण में न केवल राष्ट्रीय
रजिस्टर(NRC) का उल्लेख किया गया है, वरन् उसे लागू करने के प्रति प्रतिबद्धता की
घोषणा भी की गयी है।
अब, जबकि नागरिकों
के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) की संभावनाओं को नकारते हुए राष्ट्रीय जनसंख्या
रजिस्टर(NPR) की बात की जा रही है एवं एनआरसी से एनपीआर के अंतर्संबंधों को लेकर
सरकार की ओर से विरोधाभासी सूचनाएँ आ रही हैं, एनपीआर के लिए प्रश्नों का जो
फ़ॉर्मेट जारी किया गया है और उन सूचनाओं के वेरिफिकेशन की जो बात की गयी है, वह इस
बात को पुष्ट करता है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि इस अधिनियम के आगे भी एनआरसी
है और इसके पीछे भी एनआरसी है, और यह इस अधिनियम से जुडी सबसे बड़ी समस्या है।
जहाँ तक इस तर्क का
प्रश्न है कि एनआरसी के लिए निर्धारित नागरिकता-मानक पूरे भारत में हिंदुओं और
मुसलमानों के लिए एक-से होंगे, तो इस तर्क की भी अपनी सीमायें हैं:
1. संस्थागत पूर्वाग्रह: इस तर्क की सीमा ‘संस्थागत पूर्वाग्रह’
(अल्पसंख्यकों के प्रति पुलिस एवं प्रशासन का पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार) के रूप में
की जा सकती है जो इन दिनों विरोध-प्रदर्शनों के दौरान मुसलमानों के प्रति भारतीय
राज्य एवं प्रशासन, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के पुलिस एवं प्रशासन के व्यवहार के
माध्यम से परिलक्षित हो रहा है।
2. गैर-हिन्दू गरीब भी इसकी ज़द में: इस अधिनियम के शिकार केवल मुसलमान नहीं होंगे,
वरन् वे हिन्दू भी होंगे जो आर्थिक वंचना के शिकार हैं और जिन्हें मजदूरी के भरोसे
गुजरा करना पर रहा है।
दरअसल
धर्मनिरपेक्षता एवं उदारवाद की ओर रुझान रखने वाले बुद्धिजीवी समूह के साथ-साथ
मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इस सरकार के दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी रुझान की
पृष्ठभूमि में हिन्दुत्ववादी एजेंडे को आक्रामक तरीके से बढ़ाने की कोशिशों से
आशंकित भी हैं और नाराज़ भी। तुरंत ट्रिपल तलाक, सबरीमाला, कश्मीर और अयोध्या मसले
पर हालिया प्रगति ने इन्हें आक्रोशित किया। इसकी पृष्ठभूमि में इस अधिनियम ने उनके
आक्रोश को सतह पर लाने का काम किया। इन्हें अब ऐसा लग रहा है कि अगर समय रहते इन
पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो ये धीरे-धीरे भारतीय संविधान को अप्रासंगिक बनाते हुए
मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील कर रख देंगे।
विरोध का आधार:
इसके अतिरिक्त,
नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019 के विरोध को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. संविधान की मूल भावनाओं के
अनुरूप नहीं: इस अधिनियम की संवैधानिकता को लेकर प्रश्न
उठाये गए हैं और इसे संविधान के मूल ढाँचे के प्रतिकूल बतलाया गया है। इसे अनु. 14
के तहत् प्रदत्त विधि के समक्ष समानता के भी प्रतिकूल है और धर्मनिरपेक्षता की मूल
संकल्पना के प्रतिकूल भी। इसलिए मानवाधिकारवादियों और सिविल सोसायटी का तर्क यह है
कि यह अधिनियम बाहर से आए हुए मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है और उनके
मानवाधिकारों को गैर-मुस्लिमों की तुलना में ज्यादा तरजीह देता है, इसीलिए यह भारत
की बहुलवादी लोकतांत्रिक मानवाधिकारों की संकल्पना के साथ संगत नहीं है। मुसलमानों और
यहूदियों को जानबूझकर इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है और जिन छह धर्मों के
लोगों को इसके दायरे में रखा गया है, उनमें चार धर्म के लोग हिन्दू पर्सनल लॉ के
दायरे में आते हैं। इसलिए इस बिल में विदेशियों का किया गया वर्गीकरण
अयुक्तियुक्त (Unreasonable)
है। यह अधिनियम धार्मिक समुदाय
विशेष के लोगों को लक्षित करता हुआ अनु. 14, अनु. 19, अनु. 21 और अनु. 29 का उल्लंघन करता
है। थोड़ी देर के लिए,
अगर इसकी संवैधानिकता की बात को स्वीकार भी किया जाता है, तो यह अधिनियम
‘संवैधानिक नैतिकता’ (Constitutional Morality), जिसका उल्लेख समलैंगिकता वाद में
निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने किया था, की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।
2. विधि सम्यक् प्रक्रिया की अनदेखी: यह अधिनियम विधि
द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तो अनुरूप है और इसे ध्यान में रखते हुए ही इसका
विधायन किया गया है, लेकिन यह विधि सम्यक् प्रक्रिया की अनदेखी करता है। मतलब यह कि इस
विधि के औचित्य और युक्तियुक्तता को लेकर प्रहसन उठा रहे हैं क्योंकि यह धर्म के
आधार पर भेदभाव करता हुआ व्यक्ति के अधिकारों की भी अनदेखी करता है।
3. भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परम्परा के भी प्रतिकूल: न तो यह अधिनियम भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन
परम्परा के अनुरूप है और न ही भारत की गंगा-जमुनी तहजीब के अनुरूप। महोपनिषद् में कहा गया है:
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम्।।
मतलब यह कि यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु
नहीं है, इस
तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो
सम्पूर्ण धरती ही परिवार है। आगे इसे ही पुष्ट किया गया ‘अतिथि देवो भवः’, शरणागतवत्सलता,
‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः।’ के आदर्शों को प्रचारित-प्रसारित कर। इसीलिए
यह अधिनियम भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परम्परा के मूल्यों के प्रतिकूल है।
4. मुस्लिमों और
गैर-मुस्लिमों के बीच भेदभाव: सरकार का यह कहना है कि:
a. यह
कानून सन् 2014 के बाद भारत आने वाले लोगों के संदर्भ में मुस्लिमों और
गैर-मुस्लिमों में किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं करता है। यह सच है, लेकिन यह भी
सच है कि यह अधिनियम उसके पहले इन तीन पड़ोसी देशों से वैध या अवैध रूप से भारत आने
वाले लोगों के बीच नागरिकता प्रदान करने में भेदभाव करता है, इसीलिए इसका
सामान्यीकरण उचित नहीं है।
b.
यह अधिनियम न तो किसी को नागरिकता प्रदान करता है
और न ही किसी की नागरिकता छीनता है, वरन् सन् 1971 के बाद आने
वाले गैर-मुस्लिम आव्रजकों को देशीयकरण के द्वारा नागरिकता प्रदान करने का विधायी
उपबंध करता है। लेकिन, इस उपबंध के बावजूद
भविष्य में सरकारें नागरिकता-अधिनियम की धारा 14 के अंतर्गत नागरिकता प्रदान करने
से इन्कार कर सकती हैं।
इस आलोक में सवाल
यह उठता है कि जब पुराने क़ानून के अनुसार बाहरी व्यक्ति: मुसलमानों और
ग़ैर-मुसलमानों, दोनों के लिए भारतीय नागरिकता हासिल करने की उपलब्ध सुविधाओं का
लाभ इन तीनों देशों के गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी उठाने दिया गया, तो
उनके लिए अलग से व्यवस्था क्यों की गयी?
5.
सुप्रीम कोर्ट के
निर्देशों का उल्लंघन: यह बिल सुप्रीम
कोर्ट के उस रुख की भी अवहेलना करता है जिसमें उसने बांग्लादेश से अबाधित आव्रजन
की मात्रा को देखते हुए उसे असम के सन्दर्भ में बाह्य आक्रमण के समान करार दिया और
दिसम्बर,2014 में अवैध घुसपैठियों की बांग्लादेश-वापसी की प्रक्रिया शुरू
करने सम्बंधित केंद्र सरकार को निर्देश दिए। साथ
ही, अगर यह विधेयक पारित होता है, तो
इससे उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का उल्लंघन होगा, जिनमें
कहा जा चुका है कि संविधान के अनु. 14 और अनु. 25 के
अनुसार धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जा सकती।
6.
मानवाधिकार का प्रश्न: संशोधित
अधिनियम एनआरसी से बाहर रह गए मुसलमानों के भविष्य एवं उनके मानवाधिकारों को लेकर
भी चिंताओं को जन्म देता है। एक ओर भारत सरकार बांग्लादेश को आश्वस्त करने की
कोशिश करती है कि एनआरसी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के आलोक में चलने वाली आतंरिक
प्रक्रिया है जिसका द्विपक्षीय संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा और इसीलिए
बांग्लादेश का इससे कोई लेना-देना नहीं है, दूसरी ओर सत्तारूढ़ दल के प्रतिनिधि
पूरे देश में घूम-घूम कर लोगों को यह सन्देश देने की कोशिश में लगे हुए हैं कि
सारे बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों को देश से बाहर करते हुए वापस बांग्लादेश
भेजा जाएगा। अब बांग्लादेशी घुसपैठियों की अनुमानित संख्या और घुसपैठियों को वापस
भेजने की जटिल एवं विलम्बनकारी वैधानिक प्रक्रिया को देखते हुए उन्हें वापस भेजा
जाना व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि
इन अवैध घुसपैठियों के साथ क्या सलूक किया जायेगा और उन्हें कहाँ रखा जायेगा? क्या
राज्य उस वित्तीय बोझ को वहन करने के लिए तैयार है जो इन लोगों को डिटेंशन
सेन्टरों में रखे जाने के कारण उत्पन्न होगा? साथ ही, प्रश्न यह भी उठता है कि जो
लोग भारत में पिछले चालीस-पचास वर्षों से भारत में रह रहे हैं, उन्हें अचानक उनकी
जड़ों से अलगाना कहाँ तक उचित है? पिछली सरकारों की गलती का खामियाजा उन्हें आज
क्यों भुगतना पड़े? इस आलोक में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर भी पुनर्विचार किये
जाने की ज़रुरत है जिसके सहारे इस अधिनियम के औचित्य को साबित करने का प्रयास किया
जा रहा है। सितम्बर,2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के चकमा शरणार्थियों के लिए नागरिक अधिकारों
से सम्बंधित समिति बनाम् अरुणाचल राज्य वाद में केंद्र सरकार एवं अरुणाचल
सरकार को यह निर्देश दिया कि इस समुदाय के अर्हत लोगों को नागरिकता प्रदान करने की
दिशा में पहल करे, ताकि उनके जीवन के अधिकार
और उनकी स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए उनके विरुद्ध होने वाले भेदभाव पर अंकुश
लगाया जा सके। कल ऐसी ही स्थिति
इनके सन्दर्भ में भी उत्पन्न हो सकती है।
7.
उत्पीड़न की समझ नहीं: यह
विधेयक इस भ्रामक मान्यता पर आधारित प्रतीत होता है कि
उत्पीड़न केवल धार्मिक आधार पर ही होते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि
उत्पीड़न का स्वरुप धार्मिक भी हो सकता है और राजनीतिक, भाषिक एवं नृजातीय भी।
उत्पीड़न के आधार राजनीतिक भी हो सकते हैं और इन सबसे इतर कुछ अन्य भी। उदाहरण के
रूप में, श्रीलंका में तमिलों का उत्पीड़न धार्मिक के साथ-साथ भाषिक एवं नृजातीय
आधार पर होता है और जैसे ही उन्हें राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने की कोशिश की
गयी, इसने राजनीतिक उत्पीड़न का रूप धारण कर लिया।
8.
धार्मिक उत्पीड़न की भ्रामक धारणा: अन्य पड़ोसी देशों के
अल्पसंख्यकों के प्रति उदासीन: यह अधिनियम इस भ्रामक धारणा पर आधारित प्रतीत
होता है कि धार्मिक उत्पीड़न केवल उन देशों का प्रक्रम है जो इस्लामिक राज्य हैं और
जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं। अगर ऐसा होता, तो बांग्लादेश में नास्तिक, श्रीलंका
में तमिल, म्यांमार में रोहिंग्या एवं काचिन समुदाय के लोग और भूटान में ईसाई
समुदाय के लोग धार्मिक उत्पीड़न के शिकार नहीं होते और उन्हें अपने मूल देश को
छोड़कर अन्य सीमावर्ती देशों में जाकर शरण नहीं लेनी पड़ती। इसीलिए यह कहा जा रहा है कि यह अधिनियम तमिलनाडु के विभिन्न इलाकों में रह
रहे उन तमिलों के प्रति भी असंवेदनशील है
जो जातीय उत्पीड़न के शिकार होकर पलायन और उसके परिणामस्वरूप शरणार्थी जीवन जीने के
लिए विवश हुए। इसके अतिरिक्त, म्याँमार के रोहिंग्या
मुसलमानों, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ दुनिया का सबसे पीड़ित अल्पसंख्यक समूह मानता
है, और भूटानी ईसाइयों की भी इसमें उपेक्षा की गयी है।
9.
इस्लामिक राज्यों की भ्रामक धारणा: यह अधिनियम इस भ्रामक मान्यता पर आधारित है कि
इस्लामिक राज्यों में मुसलमानों का उत्पीड़न संभव नहीं है। अगर ऐसा होता, तो इस्लामिक
देश होने के बावजूद सुन्नी-बहुल पाकिस्तान में शिया, अहमदिया एवं हजारा धार्मिक
समुदाय के लोग धार्मिक भेदभाव, वैमनस्य एवं उत्पीड़न के शिकार नहीं होते और इससे
बचने के लिए उन्हें अपने मूल देश को छोड़कर बाहर पनाह नहीं लेनी पड़ती। पाकिस्तान
में जनरल जिया उल हक़ के समय अहमदिया संप्रदाय के लोगों को तो औपचारिक रूप से
धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्ज़ा भी दिया गया, फिर भी वे इस अधिनियम के दायरे से बाहर
हैं और उन्हें इसका संरक्षण नहीं मिल पायेगा।
10.
बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति
दोहरा रवैया: बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति भाजपा का
रवैया दोहरा है। ध्यातव्य है कि संघ परिवार के साथ-साथ भाजपा
बांग्लादेश से भारतीय सीमा में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले हिन्दुओं को ‘अप्रवासी’ मानती है और
मुसलमानों को ‘घुसपैठिया’। भाजपा इसके माध्यम
से:
a.
एक तो असम में सांप्रदायिक धरातल पर वोटों के
ध्रुवीकरण को सुनिश्चित करना चाहती है और
b.
दूसरे, हिन्दू राष्ट्र के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते
हुए यह सन्देश देना चाहती है कि भारत दुनिया भर के हिन्दुओं के लिए शरण-स्थली है।
इसीलिए वह असमिया
लोगों को यह समझाने में लगी हुई है कि बांग्लाभाषी हिन्दू असम के उन नौ जिलों में
मुसलमानों की राजनीतिक-आर्थिक आक्रामकता से संरक्षण प्रदान करने में सहायक होंगे, जो बांग्लाभाषी
मुस्लिम-बहुल इलाके हैं।
11.
मनमानापूर्ण: यह
कानून मनमाना है क्योंकि इसमें इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता है कि किन
कारणों से इसके अंतर्गत अफगानिस्तान के हिंदुओं एवं सिखों को शामिल किया गया है। अगर
सरकार धार्मिक उत्पीड़न के शिकार इस्लामिक राज्यों के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को
नागरिकता देना चाहती थी, तब तो इसके दायरे में सभी इस्लामिक राज्यों के गैर-मुस्लिम
अल्पसंख्यकों को लाया जाना चाहिए था; और अगर इसके दायरे में भारत से अलग हुए
पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को ही लाया जाना था, तब इस
सूची में अफगानिस्तान को रखे जाने का कोई औचित्य नहीं था।
12.
असम-समझौते का उल्लंघन:
चूँकि यह अधिनियम अवैध गैर-मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों के सन्दर्भ में
असम-समझौते के द्वारा निर्धारित कटऑफ तिथि 25 मार्च,1978 को पुनर्निर्धारित करता
हुआ 31 दिसम्बर,2014 करता है, इसीलिए यह दो सन्दर्भों में असम-समझौते को
अप्रासंगिक बनता है: अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ पर अंकुश के प्रश्न को अवैध
गैर-मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रश्न में तब्दील करता हुआ, और इस समझौते
द्वारा निर्धारित कट-ऑफ तिथि को परिवर्तित करता हुआ। लेकिन, सरकार यह बतलाने को
तैयार नहीं है कि इसके बाद असम-समझौते का क्या होगा? असम में नाराज़गी
इस बात को लेकर भी है कि असम-समझौते के प्रावधान से परिचित होने और अपने चुनावी
घोषणा-पत्र में इसके सम्मान के वादे के बावजूद वर्तमान सरकार ने लोकसभा में
नागरिकता (संशोधन) अधिनयम,2019 पेश
कर दिया। ध्यातव्य है कि भाजपा ने असम विधानसभा चुनाव के दौरान वहाँ
के लोगों को यह आश्वस्त किया था कि सत्ता में आने पर वह असम-समझौते की धारा 6 के
प्रावधानों को लागू करते हुए उनके संवैधानिक, सामाजिक, आर्थिक
और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, लेकिन
अब वह अपने वादे से मुकर रही है। इनका तर्क है कि पहले से ही राज्य में सत्तर लाख बांग्लादेशी बसे हुए
हैं और असम नए सिरे से अब और भी बांग्लादेशियों का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं
है। ऐसी स्थिति में उन्हें यह भय सता रहा है कि जिस तरह त्रिपुरा के
मूल निवासी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन कर जीने के लिए विवश हो गए, उसी तरह वे भी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन
सकते हैं। इससे उनकी भाषा-संस्कृति खतरे में पड़
जाएगी और ऐसी स्थिति में राज्य की जनजातियों की भाषा-संस्कृति नष्ट हो सकती है।
13.
कटऑफ तिथि को लेकर विवाद: केंद्र सरकार ने
इस अधिनियम में 31
दिसम्बर,2014 की तिथि को कटऑफ तिथि के रूप में निर्धारित तो किया है, पर यह नहीं
बतलाया कि आखिर 31 दिसम्बर,2014 को डेडलाइन के रूप में निर्धारित करने का आधार एवं
औचित्य क्या है? नयी कटऑफ तिथि का विरोध इस आधार पर भी हो रहा है कि यह असम-समझौते
को भी दरकिनार करती है।
14.
बांग्लाभाषी
भारतीय नागरिकों के हितों का प्रतिकूलतः प्रभावित होना: यह बिल असमियों को भी आशंकित कर रहा है और असम के विभिन्न हिस्सों में
रहने वाले बांग्लाभाषी भारतीय नागरिकों को भी। असमिया
लोगों के लिए धार्मिक विभेद से परे सभी बांग्लाभाषी बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं और
उनकी इस सोच के कारण वे बांग्लाभाषी, जो
बांग्लादेशी नहीं हैं, उनके लिए भी जीने की परिस्थितियाँ
मुश्किल होती चली गयी। इसीलिए यह बिल कहीं-न-कहीं
बांग्लाभाषी भारतीय मुसलमानों की परेशानियों को बढ़ानेवाला साबित होगा क्योंकि निकट
भविष्य में बड़ी आसानी से उन पर भी बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का आरोप चस्पा किया
जा सकता है और ऐसी स्थिति में अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेवारी उन पर होगी,
जो संस्थाओं के भेदभावपूर्ण नज़रिए के कारण मुश्किल होगा।
नोट: इस श्रृंखला के अगले आलेख
में इस अधिनियम का विश्लेषण भारत के संविधान के विविध उपबंधों और अंतर्राष्ट्रीय
संविदाओं, जिनसे भारत बँधा हुआ है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह उनका अनुपालन
करे, के आलोक में किया जाएगा।