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अरुणाचल प्रदेश: राजनीतिक संकट से संवैधानिक संकट की ओर
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2014 में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में बयालीस स्थानों पर जीत के साथ काँग्रेस साठ सदस्यीय अरुणाचल विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई और नबाम तुकी के नेतृत्व में सरकार का गठन किया गया।बाद में पाँच सदस्यीय पीपुल्स पार्टी आॅफ अरूणाचल प्रदेश(PPA) के कांग्रेस में विलय के साथ कांग्रेस विधायकों की संख्या बढ़कर सैं़तालीस हो गई।
जैसा कि काँग्रेस में "हाईकमान संस्कृति" के कारण अक्सर प्रांतीय नेतृत्व को ऊपर से थोपा जाता है, इस कारण आंतरिक स्तर पर दलगत गुटबंदी की समस्या हमेशा बनी रही है। यही समस्या दिसम्बर,2014 में तब उभरकर सामने आई जब कांग्रेस के वरिष्ठ असंतुष्ट नेता कालिखो पूल ने सरकार की वित्तीय अनियमितताओं को लेकर प्रश्न उठाया। इसकी प्रतिक्रिया में पहले पुल को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त किया गया और फिर अप्रैल,2015 में पार्टी-विरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप में छह वर्ष के लिए पार्टी से बाहर कर दिया गया। लेकिन, मई,2015 में उन्होंने पार्टी से अपने निष्कासन के विरूद्ध अदालत से स्थगन-आदेश हासिल किया। अक्टूबर,2015 यह राजनीतिक संकट गहराता चला गया। कालिखो पूल ने मुख्यमंत्री नबाम तुकी के विरूद्ध पार्टी के असंतुष्ट विधायकों को एकजुट करते हुए उन्हें अपदस्थ करने के लिए कांग्रेस हाईकमान से सम्पर्क करने की कोशिश की जो व्यर्थ रही।
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काँग्रेस का आंतरिक राजनीतिक संकट:
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अक्टूबर,2015 में मुख्यमंत्री नबाम तुकी ने मंत्रिपरिषद के तीन वरिष्ठ सदस्यों को बर्खास्त किया। इसके बाद एक नेशनल डेली में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें दावा किया गया कि भूतपूर्व वित्त मंत्री कलिखो पूल के नेतृत्व में छह मंत्री समेत सैंतीस विधायक नेतृत्व-परिवर्तन के प्रयासों में लगे हैं। उस समय इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया गया, लेकिन नवम्बर,2015 में गहराते राजनीतिक संकट के समाधान के लिए काँग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गई। इस बैठक में इक्कीस विधायकों ने यह कहते हुए शिरकत करने से इंकार किया कि नबाम तुकी के नेतृत्व में होने वाली किसी भी बैठक
में वे शामिल नहीं होंगे। काँग्रेस-नेतृत्व इस
संकट की गंभीरता का अनुमान लगा पाने में विफल रहा। उसकी विफलता इस बात में रही कि वह इस राजनीतिक संकट को गहराने और संवैधानिक संकट का रूप धारण कर पाने से रोक पाने में असफल रहा।
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राजनीतिक संकट का संवैधानिक संकट में रूपांतरण
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भाजपा, जिसके अरूणाचल विधानसभा में ग्यारह सदस्य हैं, ने काँग्रेस के आंतरिक राजनीतिक संकट का फ़ायदा उठाते हुए उसे तूल देने की कोशिश की। ऐसा माना जाता है कि भाजपा ने नबाम तुकी सरकार को अपदस्थ कर नई सरकार के गठन की रणनीति तैयार की। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने विधानसभा-अध्यक्ष पर पद के दुरूपयोग का आरोप लगाया और इस सन्दर्भ में विधानसभा सचिवालय को सूचना दी। दिसम्बर,2015 में काँग्रेस के ये इक्कीस असंतुष्ट सदस्य भाजपा के ग्यारह सदस्यों के साथ राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा से मिले और राज्यपाल ने मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरा के बिना विधानसभा-सत्र को प्रस्तावित 14-15 जनवरी 2016 की जगह पूर्व-स्थगित(pre-pond) करते हुए 16-17 दिसम्बर 2016 को बुलाने का निर्णय लिया। उन्होंने इसके लिए 18 नवम्बर को भाजपा द्वारा दिए गए उपरोक्त नोटिस का हवाला देते हुए नौ दिसम्बर को निर्देश दिया कि विधानसभा प्राथमिकता के आधार पर स्पीकर की बर्खास्तगी के प्रश्न पर विचार करे।संवैधानिक उपबंधों के मुताबिक़ यह अपेक्षित था कि स्पीकर की बर्खास्तगी से चौदह दिन पहले उन्हें इस बात की सूचना दी जाती, लेकिन इस औपचारिकता का निर्वाह नहीं किया गया। अगर यह नोटिस अठारह नवम्बर को ही दिया गया, तो क्यों नहीं चौदह दिन की औपचारिकता पूरी होने के बाद ही कार्यवाही की गई?
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काँग्रेस की प्रतिक्रिया :
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काँग्रेस ने राज्यपाल पर केन्द्र के इशारों पर काम करने का आरो़प लगाते हुए प्रस्तावित विधानसभा सत्र को पूर्व-निर्धारित किए जाने के फ़ैसले को असंवैधानिक क़रार दिया और राज्यपाल के उस निर्णय के विरोध में विधानसभा भवन में तालाबंदी कर दी। उधर विधानसभा- अध्यक्ष नबाम रेबिया ने पंद्रह दिसम्बर को चौदह बाग़ी काँग्रेस विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी।
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प्रस्तावित बैठक में लिए गए फ़ैसले
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सोलह दिसम्बर को प्रस्तावित बैठक की अध्यक्षता असंतुष्ट विधायकों में शामिल तथा अयोग्य ठहराए जा चुके विधानसभा उपाध्यक्ष टी. नोरबू ठोंगडोक ने की। विधानसभा सत्र का आयोजन विधानसभा-भवन में न होकर राजधानी स्थित एक होटल में हुआ जिसमें बीस असंतुष्ट काँग्रेसी विधायक, ग्यारह भाजपा विधायक और दो स्वतंत्र विधायक शामिल हुए। इस बैठक में स्पीकर नबाम रफ़िया को बर्खास्त किया। सत्रह दिसम्बर को तुकी सरकार के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जिसे स्वीकार किया गया और कालिखो पूल को सदन का नया नेता चुना गया।
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मामला कोर्ट में:
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बर्खास्त विधानसभाध्यक्ष ने इस निर्णय को गुवाहाटी हाईकोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने सोलह-सत्रह दिसंबर की सम्पन्न सत्र को रद्द तो किया, पर विधानसभाध्यक्ष द्वारा प्रस्तुत याचिका को ख़ारिज कर दी। इस फ़ैसले के विरूद्ध स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
उधर अयोग्य क़रार दिए गए विधायकों ने नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के उल्लंघन और सुनवाई का अवसर नहीं दिए जाने के आधार पर स्पीकर के फ़ैसले को चुनौती दी। फलत: उच्च न्यायालय ने चौदह विधायकों को अयोग्य ठहराने से संबंधित स्पीकर के निर्णय पर रोक लगा दी।
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राष्ट्रपति शासन से नई सरकार के गठन तक:
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इससे पहले कि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अपनी ओर से कोई निर्णय दिया जाता, राज्यपाल ने इक्कीस जनवरी और पुनः चौबीस जनवरी को अरूणाचल में राष्ट्रपति-शासन लगाए जाने की सिफ़ारिश की। इसी आलोक में केन्द्र सरकार ने सत्ताइस जनवरी को अरूणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा की।
केन्द्र सरकार के इस फ़ैसले के विरूद्ध काँग्रेस के विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। इस याचिका के ज़रिए अनु• 356 के तहत् राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा और इस संदर्भ में राज्यपाल के विवेकाधिकार को चुनौती दी गई। इसी बीच पंद्रह फ़रवरी को कालिखो पूल ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और सत्रह फ़रवरी को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रपति-शासन हटाने की सिफ़ारिश की। काँग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में नई याचिका दायर करते हुए बाग़ी विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के प्रश्न पर अंतिम फ़ैसला होने तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश हासिल किया, लेकिन अठारह फ़रवरी को गुवाहाटी न्यायालय के फ़ैसले से संतुष्ट होकर सुप्रीम कोर्ट ने सत्रह फ़रवरी के अपने आदेश को निरस्त करते हुए सरकार गठन का मार्ग प्रशस्त किया। इसके बाद राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति शासन हटाने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी, जिसे काँग्रेस ने चुनौती दी, पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे ख़ारिज करते हुए विधानसभा शक्ति-परीक्षण का निर्देश दिया। इन निर्देशों के अनुरूप उन्नीस फ़रवरी को पूल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और पच्चीस फ़रवरी को विधानसभाध्यक्ष वांगकी लोवांग को छोड़कर चालीस सदस्यों के समर्थन से अपना बहुमत साबित किया।
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सम्बद्ध मसले:
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अरूणाचल की यह घटना कई प्रश्नों को लेकर उपस्थित होती है जो निम्न मसलों से संबंधित हैं:
1. दल-बदल से सम्बंधित मसला
2. स्पीकर की भूमिका
3. राज्यपाल की भूमिका
4. केन्द्र सरकार की भूमिका
5. अनु• 356 का प्रयोग
6. संघवाद से जुड़े प्रश्न
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राज्यपाल की भूमिका:
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यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल द्वारा विधानसभा के सत्र को पूर्व-निर्धारित करने और स्पीकर की बर्खास्तगी के प्रश्न पर विचार करने के संदर्भ में दिए गए निर्देश को कहाँ तक उचित माना जा सकता है?
इस प्रश्न पर विचार से पहले संवैधानिक उपबंधों को देखे जाने की आवश्यकता है। अनुच्छेद 174(1) विधानसभा या विधानपरिषद का सत्र बुलाने, स्थगित करने और सत्रावसान की घोषणा के लिए राज्यपाल को अधिकृत करता है। अनुच्छेद 175(2) राज्यपाल को सदन को संदेश भेजने और किसी विशेष मसले पर विचार करने का निर्देश देने के लिए अधिकृत करता है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या राज्यपाल अनु• (174-175) द्वारा प्रदत्त शक्ति का स्वविवेक से इस्तेमाल कर सकता है या फिर उसे अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर करना है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर विचार के क्रम में यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल के स्वविवेक का दायरा असीमित नहीं, सीमित है। वह स्वविवेक का इस्तेमाल उन्हीं संदर्भों में कर सकता है जिसका संविधान में स्पष्ट उल्लेख हुआ है। साथ ही, वह मनमाने तरीक़े से अपनी इच्छा और पसंद के मुताबिक़ स्वविवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकता है। यह अनिवार्यत: संवैधानिक सिद्धांतों आधारित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त अगर मुख्यमंत्री विधानसभा का विश्वास खो चुका है या फिर उसके विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया है, लेकिन वह सत्र को पूर्व-निर्धारित करने के पक्ष में नहीं है; वैसी स्थिति में भी राज्यपाल स्वविवेक का इस्तेमाल कर सकता है।
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पूँछी कमीशन और राज्यपाल:
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केंद्र-राज्य सम्बंध पर गठित दूसरे आयोग: पूँछी कमीशन ने विधानसभा के सत्र बुलाने, उसे स्थगित करने और सत्रावसान की करने से संबंधित राज्यपाल के अधिकार को स्पष्ट करते हुए कहा कि राज्यपाल के लिए मंत्रिपरिषद की सलाह तब तक अपेक्षित है और वह उस सलाह से तब तक बँधे हुआ है जब तक मंत्रिपरिषद को विधानसभा का विश्वास हासिल है और यह सलाह असंवैधानिक नहीं है। राज्यपाल तभी इस सलाह की अनदेखी कर सकता है जब मंत्रिपरिषद ने विधानसभा के विश्वास को खो दिया हो या यह सलाह संविधान का अतिक्रमण करती हो या फिर जहाँ राज्यपाल को स्वविवेक से काम करने की अनुमति हो। सरकारिया कमीशन के मुताबिक़ यदि मुख्यमंत्री विश्वास मत के परीक्षण ( Floor Test) हेतु विधानसभा का सत्र आहूत करने से इन्कार करता है, वैसी स्थिति में भी राज्यपाल इस उद्देश्य से विधानसभा का सत्र आहूत कर सकता है।अगर अविश्वास प्रस्ताव से संबंधित सूचना दी गई है और मंत्रिपरिषद सत्रावसान की सलाह दे, तो राज्यपाल इस सलाह को सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करेगा।अगर राज्यपाल को यह लगता है कि अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष की ओर से मिलने वाली वैधानिक चुनौती का प्रतिनिधित्व करता है, तो वह मुख्यमंत्री को सत्रावसान का विचार त्याग कर अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने का निर्देश दे सकता है।
जहाँ तक विधानसभा भंग करने का प्रश्न है, तो पूँछी कमीशन ने सरकारिया आयोग की अनुशंसाएँ को ही दुहराया है।राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह से बँधा हुआ है। लेकिन, विधानसभा का विश्वास खो चुके मुख्यमंत्री की सलाह को स्वीकारने की बजाए वह वैकल्पिक सरकार गठन की संभावनाओं का पता लगाएगा और ऐसा संभव न हो पाने पर विधानसभा भंग करेगा।
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राज्यपाल का विवेकाधिकार और पूँछी कमीशन
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राज्यपाल के विवेकाधिकार के सन्दर्भ में सामान्य धारणा यह है कि राज्यपाल के विवेकाधिकार का दायरा अपरिभाषित और अत्यंत व्यापक है। वह उन परिस्थितियों में भी विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर सकता है जिनका संविधान में उल्लेख नहीं हुआ है।ध्यातव्य है कि अनु• 163 (1) स्वविवेक से भिन्न मामलों में राज्यपाल से मुख्यमंत्री एवं मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा करता है। अनु• 163 (2) स्वविवेक से संबंधित मामलों में गवर्नर के निर्णय को अंतिम घोषित करता है जिसे किसी भी आधार पर प्रश्नांकित नहीं किया जा सकता है। अनु• 163 (3) मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह को न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर रखता है।
इस आलोक में पूँछी कमीशन का मानना है कि इस धारणा को ख़ारिज किया जाना चाहिए कि राज्यपाल को व्यापक संदर्भों में स्वविवेक का अधिकार है। इसकी दृष्टि में अनु• 163(2) राज्यपाल को सीमित परिप्रेक्ष्य में स्वविवेक से काम करने का प्रावधान करता है।यह राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह की अनदेखी कर या इस सलाह के बिना काम करने का विशेषाधिकार नहीं प्रदान करता है। जिन संदर्भों में राज्यपाल को विवेकाधिकार प्रदान भी करता है, वहाँ भी वह इसका इस्तेमाल अपनी पसन्द-नापसन्द के अनुसार या मनमाने तरीक़े से नहीं कर सकता है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुरूप तार्किक तरीक़े से सावधानीपूर्वक करे।
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राज्यपाल की भूमिका को लेकर उठते प्रश्न:
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उपरोक्त तथ्यों के आलोक में अगर अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल की भूमिका के प्रश्न पर विचार करें, तो इस संदर्भ में निम्न बातें कहीं जा सकती हैं:
1.राज्यपाल ने अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर बिना मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद से विचार-विमर्श किए विधानसभा की प्रस्तावित सत्र को पूर्व-निर्धारित करने का जो निर्णय लिया, उससे बचा जा सकता था। वे मुख्यमंत्री के साथ विचार-विमर्श करने के बाद भी ऐसा निर्णय ले सकते थे। ऐसी स्थिति में अवांछित स्थिति को टाला जा सकता था और उन पर प्रश्न उठा पाना मुश्किल होता।
2. राज्यपाल ने विधानसभाध्यक्ष की बर्खास्तगी के प्रस्ताव पर विचार करने के पूर्व चौदह दिन की पूर्व-सूचना की संवैधानिक अपेक्षा को पूरा नहीं किया जो संवैधानिक रूप से ग़लत है, यद्यपि राज्यपाल इस बात से इन्कार करते हैं। 3.राज्यपाल द्वारा सत्र के एजेंडे के संदर्भ में जो स्पष्ट दिशानिर्देश दिए गए, वे भी ग़लत थे। संसदीय परम्परा के अनुसार सत्र से संबंधित कोई भी सूचना और विधानसभा की कार्यवाही के संदर्भ में एजेंडे के निर्धारण में संसदीय कार्य मंत्रालय की भूमिका होती है और उसी के द्वारा इस संदर्भ में सूचनाएँ प्रेषित की जाती हैं।
4. काँग्रेस के सोलह विधायकों ने असंतुष्ट सदस्यों में शामिल विधानसभा-उपाध्यक्ष को उनके पद से हटाने के संदर्भ में सूचना दी जिसकी अनदेखी करते हुए उन्हें ही सोलह-सत्रह दिसम्बर की प्रस्तावित बैठक की अध्यक्षता की ज़िम्मेवारी सौंपी गई। यह ग़लत था।
5. अरूणाचल के राज्यपाल ने बोम्मई केस,1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए उस निर्देश की भी अनदेखी की जिसमें यह गया गया कि बहुमत का निर्धारण विधानसभा के फ़्लोर पर होगा, न कि राजभवन में विधायकों के पैरेड के ज़रिए या फिर किसी अन्य तरीक़े से।
6.राज्यपाल की भूमिका को देखकर प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल स्वयं भी प्रमुख विपक्षी दल भाजपा और असंतुष्ट काँग्रेसी विधायकों के साथ मिलकर मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद को अपदस्थ करने की कोशिश में लगे थे।
इसे इस संदर्भ में भी देखा जा सकता है। मार्च, 2016 में अरूणाचल जैसी परिस्थिति ही उत्तराखंड में भी उत्पन्न हुई है, लेकिन उत्तराखंड के राज्यपाल ने विपक्षी दल और असंतुष्टों के खेल में शामिल होने की बजाय मुख्यमंत्री हरीश रावत को 28 मार्च तक अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया।
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दल-बदल क़ानून और स्पीकर की भूमिका :
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1985 में दल-बदल पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाने और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता की चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए बावनवें संविधान- संशोधन के ज़रिए भारतीय संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके तहत् दसवीं अनुसूची के दल-बदल से संबंधित प्रावधानों को अनु• 102(2) और अनु• 191(2), जिसे बावनवें संशोधन के ज़रिए ही संविधान में जोड़ा गया था, के साथ जोड़कर पढ़े जाने का प्रावधान किया गया।
दलबदल से अाशय:
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इस अधिनियम के ज़रिए दल-बदल को परिभाषित करते हुए कहा गया कि किसी व्यक्ति की संसद या विधान मंडल की सदस्यता समाप्त हो जाएगी यदि वह:
1• संसद या विधान मंडल का कोई सदस्य स्वेच्छा से अपनी पार्टी से त्यागपत्र दे देता है या फिर
2• किसी मसले पर वोटिंग के मद्देनज़र पार्टी-ह्विप का उल्लंघन करता है और इसके पंद्रह दिनों के भीतर उसे पार्टी की ओर से माफ़ी नहीं मिल जाती है
3• निर्दलीय सदस्य के रूप में चुने जाने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है
4• मनोनीत सदस्य है और मनोनयन के छह माह बाद, जब उसे पार्टी या निर्दलीय सदस्य के रूप में मान्यता मिल जाती है, किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न निर्णयों और आदेशों के ज़रिए यह स्पष्ट किया कि सार्वजनिक रूप से अपने राजनीतिक दलों का विरोध या फिर किसी दूसरे राजनीतिक दल के प्रति समर्थन का इज़हार करता है, तो इसे "दल से त्यागपत्र" माना जाएगा।
दल-बदल क़ानून के अपवाद:
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यदि कोई व्यक्ति दो स्थितियों में अपने मूल राजनीतिक दल को छोड़ता है, तो उस पर न तो दल-बदल क़ानून लागू होगा और न ही उसकी सदस्यता ही समाप्त होगी। ये स्थितियाँ हैं:
1• यदि किसी व्यक्ति को स्पीकर, डिप्टी स्पीकर, सभापति या उपसभापति चुना जाता है और चुने जाने के बाद वह अपने मूल राजनीतिक दल से इस्तीफ़ा देता है तथा पद छोड़ते ही वह दुबारा अपने मूल राजनीतिक दल में शामिल होता है। ऐसा प्रावधान स्पीकर या डिप्टी स्पीकर के पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान करने के लिए किया गया है ताकि इन पदों की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके।
2•अगर किसी राजनीतिक दल के न्यूनतम दो-तिहाई या उससे अधिक सदस्य किसी दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होते हैं, तो इसे विलय माना जाएगा और ऐसी स्थिति में दल-बदल क़ानून प्रभावी नहीं होगा।
3• विलय की स्थिति में यदि कोई सदस्य अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध बनाए रखना चाहता है, तो उसकी सदस्यता अप्रभावित रहेगी।
4• मूल अनुसूची में एक-तिहाई सदस्यों अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध-विच्छेद को विभाजन माना गया और इसे भी दल-बदल क़ानून के दायरे से बाहर माना गया। लेकिन,91वें संविधान संशोधन अधिनियम,2003 के ज़रिए विभाजन वाले प्रावधान को हटा दिया गया। मतलब अब दल-बदल क़ानून इस संदर्भ में प्रभावी होगा।
पारा 7 और सुप्रीम कोर्ट :
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इस अधिनियम का पारा 7 दल-बदल से संबंधित मामलों में स्पीकर के निर्णय को अंतिम मानता था और इसे न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे से बाहर रखता था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे मूल ढाँचे की संकल्पना के प्रतिकूल मानते हुए असंवैधानिक घोषित किया। अब न्यायालय द्वारा स्पीकर के निर्णय की समीक्षा संभव है। लेकिन, स्पीकर के निर्णय के आने के पहले न्यायिक हस्तक्षेप से परहेज़ किया जा सकता है। एक बार स्पीकर का फ़ैसला आ जाता है, तो उसके फ़ैसले के विरूद्ध अनु• 136 और अनु• 226-227 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट में अपील की जा सकती है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी और दल-बदल क़ानून :
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यह अधिनियम संसद और विधानमंडल के सदस्यों को पार्टी-ह्विप से बाँधता है और उसके उल्लंघन की स्थिति में उनकी सदस्यता को ख़तरे में डालता है जिसके कारण कोई व्यक्ति अपने दल से भिन्न विचार न तो रख सकता है और न ही प्रकट कर सकता है। इससे सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होती है। इसी आलोक में किहोतो होल्लोहान बनाम् जाचिल्हू एवं अन्य विवाद,1992 में पाँच सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिनियम किसी अधिकार, आज़ादी या संसदीय लोकतंत्र के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करता है।
दल-बदल क़ानून से संबंधित प्रमुख सुझाव:
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1•1990 में चुनाव-सुधार के प्रश्न पर विचार के लिए गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने यह सुझाव दिया कि दल-बदल क़ानून से संबंधित प्रावधानों को केवल विश्वास या अविश्वास प्रस्ताव तक सीमित किया जाय जिससे सरकार की स्थिरता और अस्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
2•अपने वर्तमान स्वरूप में दल-बदल क़ानून व्यक्तिगत स्तर पर दल-बदल पर तो रोक लगाता है, लेकिन सामूहिक दल-बदल के संदर्भ में अप्रभावी है। इसी प्रकार यह छोटे राज्यों और छोटे राजनीतिक दलों के संदर्भ में अप्रभावी है, जैसा हाल में अरूणाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मामले में देखने को मिला। इसके मद्देनज़र दल-बदल क़ानून में संशोधन करते हुए इसे हर स्थिति में प्रभावी बनाया जाए। मतलब यह कि दल-बदल की स्थिति में सदस्यों की सदस्यता समाप्त हो जाए।
3• दल-बदल क़ानून उस स्थिति में भी अप्रभावी है जब संसद या विधानसभा भंग होने वाली है या आम चुनाव सालभर के अंदर प्रस्तावित है। ऐसी स्थिति में सदस्यता की समाप्ति नाममात्र के दंड में तब्दील हो जाती है। इस संदर्भ मेंँ विधान समीक्षा पर गठित वेंकटचेलैय्या राष्ट्रीय आयोग ने यह सुझाव दिया कि दल-बदलुओं को सदन के शेष कार्यकाल तक मंत्रिपद या अन्य कोई भी लाभ का पद धारण करने से रोका जाए। साथ ही, विश्वास या अविश्वास प्रस्ताव के संदर्भ में दल-बदलुओं के वोट की गणना न की जाए।
4•पार्टी-ह्विप के कारण कई बार सदस्य अपने विचारों और अपने क्षेत्र के मतदाताओं के हितों से संबंधित मुद्दों पर भी खुलकर स्टैंड नही ले पाते हैं। 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में यह सुझाव दिया कि राजनीतिक दल तभी ह्विप जारी करें जब सरकार ख़तरे में हो।
5•विधि आयोग ने यह सुझाव दिया कि अगर चुनाव-पूर्व गठबंधन के सहयोगी दल चुनाव के पहले चुनाव आयोग को ऐसे गठबंधन के बारे में सूचना देते हैं, तो दल-बदल क़ानून को चुनाव-पूर्व गठबंधन के संदर्भ में भी प्रभावी बनाया जा सकता है। इसके पीछे तर्क यह है कि जनप्रतिनिधियों का चुनाव पार्टी के उन कार्यक्रमों के आधार पर होता है जिनका विस्तार चुनाव-पूर्व गठबंधन के उन सहयोगियों तक होता है।
6• दल-बदल से संबंधित मामलों में निर्रहर्ता के प्रश्न पर विचार के लिए स्पीकर को अधिकारिता दी गई है। लेकिन, समस्या यह है कि न तो इसके लिए किसी समय-सीमा का निर्धारण किया गया है और न ही स्पीकर का पद अराजनीतिक पद है। इसीलिए अक्सर स्पीकर पर राजनीतिक पक्षपात का आरोप लगता है। इसी आलोक में दिनेश गोस्वामी समिति,1990 और वेंकटचेलैय्या संविधान समीक्षा आयोग,2002 के साथ-साथ चुनाव आयोग ने एकाधिक अवसरों पर यह सुझाव दिया कि दल-बदल से संबंधित मामलों में भी निर्रहर्ता के प्रश्न पर विचार की प्रक्रिया लाभ के पद के आधार पर निर्रहर्ता पर विचार-प्रक्रिया के समान हो। यह अधिकारिता स्पीकर से लेकर राष्ट्रपति या राज्यपाल को सौंपी जाए और वे चुनाव आयोग की सलाह पर इस संदर्भ में निर्णय दें।विधि आयोग का मानना है कि जनप्रतिनिधियों को मतदाताओं को धोखा देने का अधिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि मतदाता उम्मीदवार के साथ-साथ राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र के आधार पर भी मतदान करते हैं। विधि आयोग का यह भी सुझाव है कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को सांविधिक मान्यता प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे घोषणापत्र की उपेक्षा नहीं कर सके और जनादेश के अनुरूप काम कर सके।
अबतक का अनुभव :
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अबतक संसद और विधानमंडल के स्तर पर दल-बदल क़ानून के क्रियान्वयन को देखा जाए, तो 2008-09 तक लोकसभा और राज्यसभा में दल-बदल से संबंधित क्रमश: बासठ और चार मामले सामने अाए। इनमें लोकसभा के छब्बीस सदस्यों को अयोग्य घोषित किया गया, लोकसभा और राज्यसभा के अन्य सभी मामलों में आरोपित सदस्यों की सदस्यता को बरक़रार रखा गया। जहाँ तक राज्य विधानसभा का प्रश्न है, तो 2004 तक दल-बदल से संबंधित 262 मामले स्पीकर के समक्ष सामने आए जिनमें 113 मामलों में सदस्यता बरक़रार रखी गई और अन्य मामलों में सदस्यता समाप्त कर दी गई। राज्य विधानसभा के मामलों में यह देखा गया कि स्पीकर के द्वारा दिए गए निर्णय स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की बजाय उनकी दलीय प्रतिबद्धता और राजनीतिक पक्षधरता की ओर इशारा करते हैं। किसी मामले में स्पीकर ने नैसर्गिक न्याय की संकल्पना का उल्लंघन करते हुए प्रभावित व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का मौक़ा दिए बग़ैर जल्दबाज़ी में उनकी सदस्यता रद्द कर दी, तो किसी मामले में जान-बूझकर अपने फ़ैसले को लटकाए रखा ताकि उनके दल को फ़ायदा हो। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में स्पीकर का पद अराजनीतिक नहीं रह जाता है। स्पीकर का पद ग्रहण करने के बावजूद उनका अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध बना रहता है और वे राजनीतिक गतिविधियों में अपनी सक्रियता बनाए रखते हैं। समस्या की जड़ यही है और समाधान की संभावना भी इसी में निहित है।
दल-बदल क़ानून और स्पीकर :
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संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत स्पीकर को संसदीय लोकतंत्र के अभिभावक के रूप में देखा गया है। शायद इसीलिए वरीयता-क्रम में स्पीकर को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बाद सबसे ऊपर स्थान दिया गया है। दल-बदल अधिनियम स्पीकर की इस भूमिका को विस्तार भी देता है और मज़बूती भी प्रदान करता है। यह अधिनियम स्पीकर को दल-बदल से संबंधित निर्रहर्ता के मामलों में अर्द्ध-न्यायिक शक्तियाँ प्रदान करता है, लेकिन वह इसका इस्तेमाल मनमाने तरीक़े से या स्वविवेक से नहीं कर सकता है। उसे अपने इन अधिकारों का इस्तेमाल दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुरूप तथ्यों के आलोक में करना होता है। स्पीकर की यह शक्ति न्यायिक प्रकृति की हैऔर इसीलिए यह निर्णय न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होता है। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि स्पीकर ऐसे मामलों की स्वेच्छा से सुनवाई नहीं कर सकता है। वह तभी इस मामले पर विचार करेगा जब दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुरूप निर्रहर्ता के संदर्भ में उसके पास शिकायतें आयेंगीं।
अगर स्पीकर दल-बदल से संबंधित शिकायतों के निबटारे में असफल रहता है, तो यह केवल प्रक्रियागत अवैधानिकता नहींं है, वरन् यह क्षेत्राधिकारगत अवैधानिकता है और संवैधानिक अपेक्षाओं के विपरीत भी है।अत: सुप्रीम कोर्ट अनु• 136 के प्रावधानों के तहत् क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटियों के आधार पर विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) को अनुमति दे सकता है।हरियाणा विधानसभा ( दल-बदल के आधार पर सदस्यों की निर्रहर्ता ) नियम, 1986 प्राकृतिक न्याय की संकल्पना पर ज़ोर देता है, लेकिन यह केस की तथ्यात्मकता पर निर्भर करता है। यहाँ पर इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि स्पीकर को अपने निर्णय की समीक्षा का अधिकार नहीं है।
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में देखा जाय, तो दल-बदल क़ानून के संदर्भ में दो विकल्प हैं:
1• या तो दल-बदल से संबंधित निर्रहर्ता के निर्धारण की प्रक्रिया लाभ के पद से संबंधित निर्रहर्ता के समान की जाय और इस संदर्भ में स्पीकर की अधिकारिता राष्ट्रपति और राज्यपाल को सौंपी जाय जो चुनाव आयोग की सलाह पर काम करें
2• या दल-बदल क़ानून से संबंधित मामलों के निष्पादन के लिए एक स्वतंत्र मैकेनिज़्म को विकसित किया जाए
3• या फिर स्पीकर के पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान किया जाए ताकि वे पूर्वाग्रह-मुक्त रहकर अपने दायित्वों का निष्पादन कर सकें। पहले दोनों विकल्पों की भी अपनी सीमाएँ हो सकती हैं। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि दल-बदल के संदर्भ में स्पीकर की अधिकारिता को राष्ट्रपति और राज्यपाल को सौंपने से इससे जुड़ी हुई समस्याओं का समाधान तो हो जाएगा, पर स्पीकर पद से जुड़ी हुई समस्याएँ बनी रहेंगीं। हाल में सामान्य विधेयकों को स्पीकर की सहायता से धन विधेयक के रूप में पेश करने एवं इसके अनुमोदन से संबंधित विवादों के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जा सकता है।
ब्रिटिश स्पीकर से भारतीय स्पीकर की तुलना:
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स्पीकर पद के अबतक के अनुभवों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश अनुभवों के आलोक में भारत में भी स्पीकर पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान किया जाना समाधान के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है। इस आलोक में भारतीय स्पीकर की ब्रिटिश स्पीकर से तुलना रोचक हो सकती है:
1• ब्रिटेन में स्पीकर चुने जाने के साथ मूल राजनीतिक दल से सम्बंध विच्छेद करने की परिपाटी रही है जिसके कारण स्पीकर का पद दलगत राजनीति से परे होता है और उसके राजनीतिकरण की संभावना भी नहीं होती है। इसके विपरीत भारत में ऐसी परिपाटी का अभाव है।आज़ादी के पहले विट्ठल भाई पटेल और आज़ादी के बाद नीलम संजीव रेड्डी(1967) ही ऐसे स्पीकर रहे हैं जिन्होंने अपने मूल राजनीतिक दल से सम्बंध तोड़ा है। 2008 में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तो उसने तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी पर स्पीकर पद छोड़ने या पार्टी से त्यागपत्र देने के लिए दबाव डाला और उनके द्वारा ऐसा करने से इन्कार करने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया। सोमनाथ चटर्जी प्रकरण स्पीकर पद के राजनीतिक स्वरूप और इस संदर्भ में राजनीतिक दलों की सोच को सामने लाता है। इससे स्पीकर पद की गरिमा और निष्पक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
2• ब्रिटिश संसदीय परम्परा में " वन्य द स्पीकर, आॅलवेज द स्पीकर" की संकल्पना है। मतलब यह कि यदि किसी व्यक्ति को स्पीकर चुना जाता है, तो वह हमेशा के लिए स्पीकर बन जाता है।इसीलिए ब्रिटेन में कई लोगों को तीन या उससे भी अधिक बार स्पीकर बनने का मौक़ा मिला है। लेकिन, भारत में अब तक किसी व्यक्ति को तीसरी बार स्पीकर बनने का मौक़ा नहीं मिला है।
3• ब्रिटेन में स्पीकर निर्वाचित होने पर सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की परम्परा रही है। मतलब यह कि स्पीकर चुनाव-अभियान में शामिल नहीं होता है, किसी राजनीतिक मसले पर स्टैंड नहीं लेता है और उसके चुनाव में उम्मीदवार होने पर उसके विरूद्ध कोई राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार नहीं देता है, यद्यपि इस संदर्भ में कोई संवैधानिक या वैधानिक उपबंध नहीं है। भारत में अब तक ऐसी परम्परा विकसित नहीं हो पाई है।
4• ब्रिटिश हाउस आॅफ कामन्स में स्पीकर किसी प्रस्ताव के प्रस्तावकों को अपने विवेक से बुला सकते हैं, पर भारत में स्पीकर को स्वविवेक से किसी प्रस्ताव को पेश करने की अनुमति देने का अधिकार नहीं है। प्रस्तावक संसद की कार्यवाही सूची के अनुरूप ही प्रस्ताव पेश कर सकता है। उन्हें प्रस्ताव पेश करते हुए स्पीच नहीं दे सकता है। भारत में स्पीकर पद का उम्मीदवार स्पीकर पद स्वीकारने की अपनी इच्छा का इज़हार करते हुए स्पीच नहीं देता है।
5• ब्रिटेन में स्पीकर पद हेतु किसी व्यक्ति का नाम प्रस्ताव और उस प्रस्ताव का समर्थन करने वाला व्यक्ति अनिवार्यत: ग़ैर-सरकारी सदस्य होना चाहिए। इसके विपरीत भारत में सरकारी और ग़ैर-सरकारी, कोई भी सदस्य स्पीकर पद हेतु नाम प्रस्तावित कर सकता है।
6• ब्रिटिश हाउस आॅफ कामन्स में नवनिर्वाचित व्यक्ति को चेयर अर्थात् निर्धारित स्थान तक प्रस्तावक और समर्थक के द्वारा ले जाया जाता है, जबकि भारत में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा नवनिर्वाचित स्पीकर को उसके लिए निर्धारित स्थान तक ले जाया जाता है।
7• भारत में पहले नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ पहले दिलाई जाती है और स्पीकर का चुनाव बाद में होता है। नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाने और स्पीकर के चुनाव हेतु ही प्रोटें स्पीकर की परिकल्पना की गई है। इसके विपरीत ब्रिटेन में स्पीकर का चुनाव पहले होता है और फिर नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाई जाती है।
8• ब्रिटेन में यह परम्परा रही है कि स्पीकर पद से मुक्त होते ही उसे हाउस आॅफ लार्ड्स का सदस्य नामांकित किया जाता है, लेकिन भारत में ऐसी कोई परम्परा नहीं है।
स्पीकर पद को अराजनीतिक स्वरूप प्रदान करने से संबंधित सुझाव:
***********************************************स्पष्ट है कि ब्रिटेन में स्पीकर की गरिमा और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने लिए संसदीय परम्पराओं का पर्याप्त विकास हुआ है। इसके लिए भविष्य में स्पीकर के हितों को भी सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त उपबंध किए गए हैं। लेकिन, भारत में अबतक ऐसा संभव नहीं हो सका है। भारत में स्पीकर के हितों के संरक्षण के लिए विशेष प्रावधान किए बिना ही उससे यह अपेक्षा की गई है कि वह राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त रहकर अपने दायित्वों का निष्पादन करे, जबकि ऐसा तबतक संंभव नहीं है जबतक राजनीतिक दलों पर उसकी निर्भरता समाप्त नहीं की जाती है,, उसके साथ उनका संबंध-विच्छेद नहीं होता है और उसके हितों के संरक्षण को सुनिश्चित नहीं किया जाता है।
अरूणाचल में राष्ट्रपति-शासन:
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अरूणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने 21 जनवरी और पुनः: 24 जनवरी को केंद्र सरकार को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में राज्य में संवैधानिक संकट और संवैधानिक मशीनरी की विफलता का हवाला देते हुए राष्ट्रपति-शासन लागू करने की अनुशंसा की। उन्होंने अपने पक्ष में निम्न तर्क दिए:
1• उन्होंने राज्य में क़ानून एवं व्यवस्था की ख़राब स्थिति का हवाला दिया। इस क्रम में राजभवन के प्रवेश द्वार पर राज्यपाल के विरूद्ध विरोध-प्रदर्शन और गोकुशी का उल्लेख किया।
2• उन्होंने अपनी सुरक्षा और अपने जीवन को ख़तरे का भी उल्लेख किया।
3• उन्होंने उग्रवादी समूह के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री के संबंध की ओर भी इशारा किया जो अरूणाचल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर महत्वपूर्ण भू-सामरिक अवस्थिति के मद्देनज़र राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए ख़तरनाक है।
4• उन्होंने अपनी रिपोर्ट में राज्य में संवैधानिक मशीनरी के पूरी तरह से ठप्प होने की बात भी की।
उनकी इस रिपोर्ट को आधार बनाकर संघीय कैबिनेट ने चौबीस जनवरी को राष्ट्रपति शासन लागू करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी। राष्ट्रपति की मंज़ूरी के बाद सत्ताइस जनवरी से राष्ट्रपति शासन लागू हुआ।
"संवैधानिक मशीनरी की विफलता" से आशय:
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 365 संवैधानिक मशीनरी की विफलता को परिभाषित करता है। इसके अनुसार संविधान के विभिन्न उपबंधों के अधीन रहते हुए यदि केन्द्र सरकार के द्वारा राज्य सरकार को निर्देश दिया जाता है और राज्य सरकार उन निर्देशों के अनुपालन में असमर्थ रहती है, तो माना जाएगा कि राज्य में संवैधानिक मशीनरी पूरी तरह से विफल है। भारतीय संविधान के निम्न उपबंधों के अनुरूप केन्द्र सरकार के द्वारा राज्य सरकार को निर्देश दिया जा सकता है:
1• अनु• 256 के अधीन रहते हुए केंद्र सरकार अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दे सकती है।
2• अनु• 257 के अधीन केन्द्र सरकार राष्ट्रीय महत्व के संचार, रेलवे,हाइवे और वाटर वे के निर्माण एवं रखरखाव हेतु राज्यों को निर्देश दे सकती है।
3• अनु• 355 केन्द्र से यह अपेक्षा करता है कि वह बाह्य आक्रमण एवं आंतरिक उपद्रव से राज्य की रक्षा करेगा और संवैधानिक उपबंधों के अनुरूप राज्य के शासन का चलाया जाना सुनिश्चित करेगा। ज़रूरत पड़ने पर वह इस संदर्भ में राज्य सरकार को निर्देश भी दे सकती है।
इसके अलावा त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किसी भी राजनीतिक समूह के द्वारा सरकार-गठन में विफलता, सरकार द्वारा विधानसभा का विश्वास खोना, वैकल्पिक सरकार का गठन संभव नहीं हो पाना, गठबंधन में बिखराव, दल-बदल आदि जैसे राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारण भी संवैधानिक मशीनरी के अनुरूप शासन के संचालन की संभावना को मुश्किल बनाते हैं।
राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा और इससे संबंधित प्रक्रिया:
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ऐसी स्थिति में राज्यपाल संवैधानिक मशीनरी की विफलता के संदर्भ में राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा और उनसे अनु• 365 को अनु• 356 से जोड़ते हुए राज्य में राष्ट्रपति-शासन लागू किए जाने की अनुशंसा करेगा। यहाँ पर यह ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि ऐसी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए राज्यपाल स्वविवेक का सहारा लेगा। इसके लिए उसे कैबिनेट की सलाह की ज़रूरत नहीं है। यह अनुच्छेद स्पष्ट करता है कि राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा के लिए राष्ट्रपति का समाधान महत्वपूर्ण है। इसके लिए राज्यपाल की रिपोर्ट को भी आधार बनाया जा सकता है और बिना इस रिपोर्ट के भी राष्ट्रपति अन्य स्रोतों से इस निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं। राज्यपाल के विपरीत राष्ट्रपति संघीय कैबिनेट की सलाह से बँधे होते हैं। हाँ, अनु• 74(1परंतुक) के प्रावधानों के तहत् वे संघीय कैबिनेट से पुनर्विचार की अपेक्षा कर सकते हैं और इस संदर्भ में संघीय कैबिनेट से स्पष्टीकरण की अपेक्षा कर सकते हैं।
राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा से संबंधित प्रस्ताव को दो माह के भीतर संसद के दोनों सदनों से सामान्य बहुमत से अलग-अलग पारित करवाया जाना आवश्यक है। यदि दूसरा सदन सत्र में नहीं है, तो दूसरे सदन के सत्र शुरू होने के तीस दिनों के भीतर इस प्रस्ताव को पारित करवाया जाना आवश्यक है। दूसरी बात यह कि राष्ट्रपति कभी भी इसे वापस ले सकते हैं। वापस लेने के लिए संसदीय अनुमोदन की ज़रूरत नहीं पड़ती है। राष्ट्रपति शासन की अवधि छह माह की होती है। इसके अागो राष्ट्रपति शासन को जारी रखने के लिए इससे संबंधित प्रस्ताव को दुबारा संसद से पारित करवाया जाना आवश्यक होता है। यदि राष्ट्रपति-शासन को एक साल से आगे बढ़ाया जा ना है, तो इसकी दो शर्तें हैं:
1• या तो पूरे देश या पूरे राज्य या फिर राज्य के किसी हिस्से में आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो।
2• चुनाव आयोग ने यह लिख कर दिया हो कि वर्तमान परिस्थितियों में राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवा पाना संभव नहीं है।
राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा का प्रभाव:
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राष्ट्रपति-शासन की स्थिति में राज्यपाल की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के हाथों संकेंद्रित हो जाती है और राष्ट्रपति किसी व्यक्ति या प्राधिकार के माध्यम से अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार विधानमंडल की अधिकारिता संसद में संकेंद्रित हो जाती है। राष्ट्रपति राज्य की किसी संस्था या प्राधिकार के संदर्भ में संविधान के किसी प्रावधान को निलम्बित करने की घोषणा कर सकता है ताकि उद्घोषणा के प्रभावी प्रवर्तन को सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन, इस उद्घोषणा का न्यायपालिका की शक्ति और प्राधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जहाँ तक राष्ट्रपति शासन के दौरान बनाए गए क़ानूनों का प्रश्न है, तो सामान्य स्थिति की पुनर्बहाली के साथ राज्य विधानसभा द्वारा उसमें संशोधन किया जा सकेगा।
भारत शासन अधिनियम,1935 से संविधान सभा की बहस तक :
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राष्ट्रपति-शासन की संकल्पना 1935 के भारत शासन अधिनियम से ली गई है जिसे उस दौर में राष्ट्रवादियों ने अलोकतांत्रिक क़रार दिया था।इस प्रावधान के अनुसार यदि कोई प्रांतीय गवर्नर इस बात से संतुष्ट होता कि प्रांतीय सरकार का संचालन अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप संभव नहीं हो पा रहा है, तो वह प्रांतीय सरकार की सारी शक्तियाँ अपने हाथों में ले लेता। उदार लोकतांत्रिक संविधान वाले देशों में पाकिस्तान और भारत ऐसे अपवाद देश हैं जहाँ पर इस तरह के प्रावधान मौजूद हैं जो संघीय व्यवस्था की मौजूदगी के बावजूद लोगों के द्वारा लोकतांत्रिक तरीक़े से निर्वाचित प्रांतीय सरकार के अस्तित्व एवं भविष्य को अनिर्वाचित राज्यपाल और केंद्र के हवाले कर देते हैं। दुनिया में अन्यत्र कहीं भी ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है।
अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आज़ादी के पहले राष्ट्रवादियों ने जिन प्रावधानों को अलोकतांत्रिक बताकर ख़ारिज कर दिया था, उन्हीं प्रावधानों को उन्होंने संविधान सभा में शामिल क्यों किया? इसे तदयुगीन परिप्रेक्ष्य में देखें जाने की ज़रूरत है । उस समय भारत आज़ाद भर हुआ था। सरदार पटेल के नेतृत्व में पाँच सौ से अधिक देसी रियासतों को मिलाकर इसे भौगोलिक इकाई का रूप दिया गया था। इस भौगोलिक एकीकरण के राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया के ज़रिए सुदृढ़ीकरण की चुनौती भारत के नीति-निर्माताओं के समक्ष थी और विघटनकारी शक्तियों के सिर उठाने का ख़तरा मौजूद था। ऐसी स्थिति में मज़बूत केंद्रीय शक्ति की ज़रूरत थी जो विघटनकारी तत्वों पर अंकुश रखने में सक्षम हो सके। इसी आलोक में अनु• 356 के विशेष प्रावधान के ज़रिए मज़बूत केंद्र की बुनियाद रखी गई, लेकिन इसके दुरूपयोग की आशंका संविधान-निर्माताओं को भी थी जिसकी पुष्टि संविधान सभा की बहसों से होती है। अबतक सौ से अधिक बार इस प्रावधान का इस्तेमाल, न्यायमूर्ति जीवनरेड्डी के अनुसार अधिकांश मामलों में इसकी संवैधानिकता को लेकर संदेह और इसका संघ-राज्य संबंध के सर्वाधिक विवादास्पद मसले के रूप में उभरना इस बात की पुष्टि करता है कि ये आशंकायें निराधार नहीं थीं।यदि भारतीय संविधान के किसी प्रावधान का सर्वाधिक दुरूपयोग हुआ है, तो वह अनु• 356 है।
जब संविधान सभा की बहस में राजनीतिक लाभों के लिए अनु• 356 के दुरूपयोग की आशंका जताई गई, तो प्रारूप समिति के अध्यक्ष डाॅ• अम्बेडकर ने इसे "संविधान का मृतप्राय" हिस्सा (A Dead Letter Of Constitution) बतलाते हुए यह उम्मीद जताई थी कि " संविधान के इस अनुच्छेद के प्रयोग की कभी ज़रूरत नहीं पड़ेगी
और यह अप्रचल्त क़ानून बना रहेगा।अगर कभी इसके प्रयोग की ज़रूरत भी पड़ी, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि राष्ट्रपति, इस प्रकार की शक्ति से लाश किया गया है, प्रांतीय प्रशासन को निलम्बित करने से पूर्व समुचित सावधानियाँ बरतेंगे। मैं अाशा करता हूँ कि पहले वे उस प्रांतीय सरकार को चेतावनी देंगे, जिसने ग़लती की है, कि संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुरूप प्रांतीय शासन का संचालन नहीं हो पा रहा है। अगर यह चेतावनी कारगर नहीं रहती है, तो वे राज्य में नए सिरे से चुनाव का आदेश देंगे ताकि उस प्रांत के लोगों को अपने स्तर पर उस मसले को निपटाने दिया जाय। अगर इन दोनों विकल्पों को आज़माना संभव नहीं रह जाता है, तभी वे इस अनुच्छेद का सहारा लेंगे।" स्पष्ट है कि डाॅ• अम्बेडकर ने अनु• 355 के तहत् दी जाने वाली चेतावनी और फिर चुनाव की संभावनाओं को अनु• 356 से बेहतर विकल्प और उसके पूर्व शर्त्त के रूप में देखा, यह बात अलग है कि पिछले छियालीस साल का अनुभव इसके कहीं विपरीत रहा।
विभिन्न आयोगों की सिफ़ारिशें:
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केन्द्र-राज्य संबंध पर विचार के लिए गठित आयोगों से लेकर संविधान समीक्षा आयोग तक ने अनु• 356 के सन्दर्भ में अपने-अपने सुझाव दिए। राजमन्नार समिति ने यदि इस प्रावधान को समाप्त किए जाने की सिफ़ारिश की, तो आर• एस• सरकारिया की अध्यक्षता में गठित केन्द्र-राज्य संबंध पर प्रथम आयोग ने डाॅ• अम्बेडकर के रूख को दुहराते हुए इसे अंतिम विकल्प बतलाया। साथ ही, यह सुझाव दिया कि पारदर्शिता के मद्देनज़र राज्यपाल की रिपोर्ट संसद के समक्ष रखी जाए, राष्ट्रपति की उद्घोषणा में अनु• 356 के प्रयोग के कारणों का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए तथा उद्घोषणा के संसद द्वारा अनुमोदन से पहले विधानसभा को भंग करने से परहेज़ किया जाए। फिर एम• एन• वेंकटचेलैय्या की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा पर गठित राष्ट्रीय आयोग ने जहाँ इन्हीं सुझावों को दुहराया, वहीं मदन मोहन पूँछी की अध्यक्षता में केन्द्र-राज्य संबंध पर गठित दूसरे आयोग ने 1994 में बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों को संविधान-संशोधन के ज़रिए संवैधानिक स्वरूप प्रदान करने का सुझाव दिया।
सुप्रीम कोर्ट और अनु• 356 :
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यदि केन्द्र-राज्य सम्बंध को लेकर कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो यह अनु• 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की मूल अधिकारिता के अंतर्गत आता है। इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट अनु• 137 के प्रावधानों के अंतर्गत रहते हुए संसद के द्वारा बनाए गए किसी क़ानून और अनु• 145 के प्रावधानों के कहते जारी आदेशों की समीक्षा कर सकता है। अप्रैल,1989 में जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस• आर• बोम्मई की सरकार को बहुमत साबित करने का मौक़ा दिए बग़ैर बर्खास्त कर दिया गया, तो उन्होंने इसे न्यायालय में चुनौती दी। एस• आर• बोम्मई बनाम् भारत संघ वाद,1994 में सुप्रीम कोर्ट के नौ सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने अनु• 356 और केन्द्र-राज्य संबंध की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु है। इससे पूर्व राजस्थान राज्य बनाम् भारत संघ मामला, 1977 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि राष्ट्रपति का समाधान दुर्भावनापूर्ण हो या असम्बद्ध आधारों पर निर्भर हो, तो वह न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आएगा। 1994 के बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अनु• 356 के अंतर्गत कार्यपालिका को दी गई शक्तियाँ पूर्ण तथा निरपेक्ष नहीं हैं, वरन् सशर्त्त हैं। अनु• 356(3) संसद द्वारा अनुमोदन की उन शर्तों का उल्लेख करता है जिसकी अपेक्षा संविधान कार्यपालिका से करता है। षो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को निम्न संदर्भों में देखा जा सकता है:
1• अनु• 356 का प्रयोग केवल संवैधानिक मशीनरी की विफलता की स्थिति में किया जाना चाहिए, न कि प्रशासनिक मशीनरी की विफलता की स्थिति में। यह क़ानून एवं व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति को दुरुस्त करने का उपकरण नहीं हो सकता है।
2• अनु• 356 के प्रयोग के पहले राज्य सरकार को चेतावनी दी जानी चाहिए और उसका जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाना चाहिए।
3• जब तक संसद राष्ट्रपति शासन से संबंधित उद्घोषणा को अनुमति नहीं दे देती है, तब तक विधानसभा को निलंबित रखा जाय। प्रस्ताव के संसद द्वारा अनुमोदन के बाद ही उसे भंग किया जाय।
4• किसी भी निर्वाचित सरकार को बहुमत का समर्थन प्राप्त है अथवा नहीं, इसका परीक्षण राजभवन के सामने विधायकों की पैरेड और राज्यपाल के सामने विधायकों की गिनती के ज़रिए न हो। बहुमत का परीक्षण विधानसभा के पटल पर हो। बहुमत-परीक्षण का अन्य कोई भी विकल्प अस्वीकार्य है। ऐसी ही अनुशंसा सरकारिया आयोग ने भी की थी।
5• संघीय कैबिनेट ने राष्ट्रपति को क्या सलाह दी, न्यायपालिका इसकी समीक्षा नहीं कर सकती है। अनु• 74(2) इस सलाह को न्यायपालिका के दायरे से बाहर रखता है।लेकिन, रिपोर्ट में जिन तथ्यों के आलोक में संवैधानिक मशीनरी की विफलता की बात करते हुए राष्ट्रपति-शासन की अनुशंसा की गई है और जिन तथ्यों पर राष्ट्रपति का समाधान आधारित है, उन तथ्यों की न्यायपालिका के द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
6• इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन के क्रम में निम्न प्रश्नों पर विचार किया जाएगा:
a• क्या राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा के
पीछे कोई तथ्य मौजूद है?
b• क्या वह तथ्य प्रासंगिक है?
c• कहीं शक्ति का दुरूपयोग तो नहीं
किया गया है?
7• अगर अनु• 356 का अनुचित इस्तेमाल हुआ है और राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा ग़लत तथ्यों पर आधारित है, तो न्यायालय के द्वारा उस उद्घोषणा को रद्द किया जा सकता है।समाधान दिया जाएगा।
8• अनु• 356(3) राष्ट्रपति की शक्तियों को मर्यादित करता है। एक तो राष्ट्रपति का समाधान राज्यपाल की रिपोर्ट या फिर अन्य स्रोतों से प्राप्त सूचना पर आधारित हो, दूसरा इस उद्घोषणा का संसद द्वारा अनुमोदन अपेक्षित है। प्रासंगिक सामग्री की उपलब्धता ही राष्ट्रपति-शासन का ही आधार हो सकती है। इसीलिए राष्ट्रपति को ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए जिसे पलटा न जा सके।
9• सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अगर उद्घोषणा असंवैधानिक है, तो न्यायालय बर्खास्त सरकार की पुनर्बहाली का निर्देश दे सकता है।अगर ज़रूरत पड़ी, तो न्यायालय उद्घोषणा की वैधानिकता के परीक्षण के संदर्भ में अंतिम निर्णय आने तक नए सिरे से विधानसभा चुनाव पर रोक का अंतरिम आदेश भी जारी कर सकता है।
9• इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस, 1992 के बाद केन्द्र सरकार द्वारा चार भाजपा शासित राज्य सरकारों की बर्खास्तगी को उचित ठहराते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता मूल ढाँचे का हिस्सा है जिसे संरक्षित कर पाने में भाजपा सरकारें असफल रही।
10• सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अनु• 356 का प्रयोग अपवादस्वरूप ही किया जाना चाहिए अन्यथा यह केंद्र और राज्य के बीच की संवैधानिक संरचना को ध्वस्त कर देगा।
स्पष्ट है कि बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट ने जो गाईडलाइंस जारी किए, उसने अनु• 356 के दुरूपयोग पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाते हुए केंद्र-राज्य संबंध के बीच संतुलन की पुनर्बहाली को सुनिश्चित किया। इसे एक महत्वपूर्ण प्रस्थानबिन्दु माना जाना चाहिए।
झारखण्ड मामला,2005 :
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जब झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी ने सरकारिया आयोग के सुझावों की अनदेखी करते हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में बहुमत के क़रीब सबसे बड़े गठबंधन के उभरकर आनेवाले एनडीए गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की बजाय यूपीए गठबंधन, जिसमें राजद बाद में शामिल हुआ, को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। राज्यपाल के इस निर्णय के विरूद्ध एनडीए ने न्यायपालिका की शरण ली और न्यायपालिका ने राज्यपाल की गतिविधियों को संविधान के साथ धोखाधड़ी क़रार देते हुए विधानसभा के पटल पर बहुमत परीक्षण हेतु अंतरिम, किन्तु विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए। साथ ही, राज्यपाल को विधानसभा हेतु एंग्लो-इंडियन सदस्य के मनोनयन से तबतक के लिए रोका जबतक बहुमत-परीक्षण के पश्चात् वैधानिक सरकार के गठन की पुष्टि नहीं हो जाती है।
अक्टूबर,2014 में दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के प्रश्न पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि " लोकतंत्र में हमेशा के लिए राष्ट्रपति शासन की अनुमति नहीं दी जा सकती है। लेफ़्टिनेंट गवर्नर को पहले ही सरकार के गठन की दिशा में पहल करनी चाहिए थी। इसमें पाँच महीने का लम्बा समय नहीं लेना चाहिए था।"
बिहार विधानसभा-भंग वाद,2006:
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मई,2005 में जब बिहार की त्रिशंकु विधानसभा में बहुमत हासिल करने और सरकार बनाने के क़रीब पहुँच रहे एनडीए गठबंधन को सरकार बनाने से रोकने के लिए बिहार के तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त की आशंका जताते हुए राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा की, तो एनडीए की ओर से बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित केन्द्र सरकार के इस निर्णय को चुनौती दी गई। रामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम् भारत संघ वाद,2006 (बिहार विधानसभा भंग करने से संबंधित मामला के रूप में लोकप्रिय) में सुप्रीम कोर्ट के पाँच सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने जो निर्णय दिया, उसे बोम्मई वाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी गाईडलाइंस के बतौर पूरक देखा जा सकता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा, उसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1• सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कार्यपालिका के प्रति सख़्त शब्दों का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति-शासन की उद्घोषणा के लिए राज्यपाल के साथ-साथ संघीय मंत्रिपरिषद को भी ज़िम्मेवार माना।
2• सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बिहार के गवर्नर ने केंद्र सरकार को ग़लत सूचना देकर भ्रमित किया। गवर्नर ने जल्दबाज़ी में दुर्भावनाओं के साथ बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा की।
3• गवर्नर निरंकुश राजनीतिक लोकपाल नहीं है। की सनक और पसन्द के आधार पर अनु• 356 के तहत् की जाने वाली अतिवादी कार्रवाई का औचित्य साबित नहीं किया जा सकता है।मंत्रिपरिषद से यह अपेक्षित है कि वह राज्यपाल की रिपोर्ट की समीक्षा करें और इसकी पुष्ट करे।
4• गृह मंत्रालय उस नोडल एजेंसी की तरह काम करती है जो गवर्नर की रिपोर्ट को कैबिनेट के अनुमोदन के लिए भेजती है। अत: इसकी यह ज़िम्मेवारी बनती है कि वह इस रिपोर्ट को शब्दश: स्वीकार करने की बजाय़ सच्चाई की पड़ताल करे।
5• गवर्नर महज़ इस आधार पर बहुमत के दावे को ख़ारिज और सरकार के गठन से इन्कार नहीं कर सकता है कि अवैधानिक एवं अनैतिक तरीक़े से बहुमत का प्रबंध किया गया है।
6• अनु• 164 मुख्यमंत्री की नियुक्ति और सरकार के गठन के संदर्भ में राज्यपाल की संवैधानिक ज़िम्मेवारी निर्धारित करता है। राज्यपाल को इस बात की अनुमति नहीं दी जा सकती है कि कोई सरकार गठित न की जा सके, तबतक जबतक सभी संभव विकल्पों को खँगाल नहीं लिया जाता है।
7• सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर,2005 में अंतरिम आदेश देते हुए कहा कि चूँकि विस्तार से निर्णय देने में कुछ और समय लगेगा तथा नए सिरे से विधानसभा चुनाव के लिए प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, इसीलिए भंग विधानसभा को पुनर्बहाल नहीं किया जा सकता है।
8• अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नर की भूमिका पर फ़ोकस किया और किस व्यक्ति को गवर्नर नियुक्त किया जाय एवं किसको नहीं, इस संदर्भ में पूर्व की अनुशंसाओं को दुहराया।
स्पष्ट है कि बिहार मामला इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि इसने राष्ट्रपति-शासन के संदर्भ में राज्यपाल के साथ-साथ संघीय कैबिनेट की समान रूप से ज़िम्मेवारी निर्धारित की तथा उन्हें यह दिशानिर्देश दिया कि वे राज्यपाल की रिपोर्ट को आँख मूँदकर स्वीकार करने की बजाय अपने स्तर पर उसकी सत्यता का परीक्षण करायें और फिर निर्णय लें। इस निर्णय के कारण संभावना इस बात की है कि केन्द्र सरकार किरकिरी से बचने के लिए राष्ट्रपति शासन की दिशा में पहल करने से पहले अतिरिक्त सावधानियाँ बरतेगी।
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अरूणाचल प्रदेश में संवैधानिक संकट: ज़िम्मेवार कौन ?
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अब अगर अरूणाचल प्रदेश के उपरोक्त घटनाक्रमों पर विभिन्न आयोगों की रिपोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों एवं निर्णयों के आलोक में पुनर्विचार किया जाय, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस संकट के लिए हर पक्ष ज़िम्मेवार है। सबसे पहले कांग्रेस अपने आंतरिक कलह को पार्टी के स्तर पर सुलझा पाने में असफल रही। उसकी इस असफलता ने विपक्षी दल भाजपा को सत्तारूढ़ दल के आंतरिक कलह का लाभ उठाने के लिए उत्प्रेरित किया। उसने केंद्र में अपनी मौजूदगी का लाभ उठाया। राज्यपाल ने अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने की बजाय अपने विवेकाधिकार का मनमाने तरीक़े से दुरूपयोग किया तथा तत्कालीन नबाम तुकी सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने का अवसर दिए बग़ैर राजभवन को भी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा बना दिया, मनमाने तरीक़े से विधानसभा के सत्र को पूर्व-निर्धारित किया और उन क्षेत्रों में जाकर स्वविवेक की संभावनाओं को तलाशा जहाँ संविधान इसकी अनुमति नहीं प्रदान करता है। उधर स्पीकर ने भी नैसर्गिक न्याय की संकल्पना की अवहेलना करते हुए अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के अनुरूप अपने दलीय हितों को साधने की कोशिश की। इन सबके बीच केंद्र सरकार ने भी अपने राजनीतिक हितों को साधने की कोशिश की। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का संवैधानिक बैंच इस मसले पर विचार कर रहा है। उम्मीद की जा रही है कि अरूणाचल की जटिल परिस्थितियों के बीच सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आएगा, वह बोम्मई वाद और बिहार वाद की ही तरह ऐतिहासिक साबित होगा तथा राज्यपाल एवं स्पीकर से संबंधित कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालेगा।