Tuesday, 28 November 2017

त्रिपुरी संकट,1939: गाँधी बनाम् सुभाष

त्रिपुरी संकट,1939
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित होने के कारण ‘इंडियन स्ट्रगल (1920-1934) ने सुभाष को अपार लोकप्रियता प्रदान की और इसकी पृष्ठभूमि में 1930 के दशक के मध्य में अपने यूरोपीय प्रवास के दौरान आज़ादी के संघर्ष को विदेशों में फैलाने के उद्देश्य से सुभाष चंद्र बोस ने कई यूरोपीय देशों की यात्रायें की। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें हरिपुरा अधिवेशन,1938 में गाँधी ने पटेल के विरोध और आपत्तियों को ख़ारिज करते हुए सुभाष को काँग्रेस का अध्यक्ष बनवाया, लेकिन सुभाष के अध्यक्षीय भाषण ने गाँधी को निराश किया। लेकिन, यह उनका उग्र संघ-विरोधी रूख था जिसके कारण उनके संबंधों में तल्खी आई और अंततः उसकी परिणति त्रिपुरी अधिवेशन,1939 में देखने को मिली। और फिर, उनके सम्बन्ध कभी मधुर नहीं हो पाए।

गाँधी और सुभाष के बीच गहराते मतभेद:
1939 तक आते-आते गाँधी को अपने और अपनी कार्यशैली के बारे में ‘इंडियन स्ट्रगल’ में बोस के द्वारा की गयी टिप्पणियों को जानकारी मिल चुकी थी। गाँधी को जर्मनी और जापान के दूतों के साथ सुभाष की गोपनीय मुलाकात की भी जानकारी मिली। इससे पूर्व 1937 ई. में प्रांतीय विधानसभा चुनाव में भागीदारी और सरकार के गठन के प्रश्न पर पटेल सहित काँग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ सुभाष के मतभेद सामने आ चुके थे। जहाँ सुभाष सत्ता में भागीदारी के विरोध में थे और अविलम्ब ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध छेड़े जाने के पक्ष में थे, वहीं पटेल सत्ता में भागीदारी के पक्ष में थे। ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध के प्रश्न पर न तो पटेल सुभाष से सहमत थे और न ही गाँधी। राजमोहन गाँधी लिखते है कि “पटेल को यह भी लगता था कि सुभाष बाबू गाँधी की महत्ता को कम, लगभग नगण्य ही समझते थे।” यह मतभेद तब और गहराया जब काँग्रेस के नियमों के मुताबिक राष्ट्राध्यक्ष के कार्यालय का पता सुभाष के गृह-शहर कलकत्ता  के बजाय आनंद भवन, इलाहाबाद को ही बनाये रखा गया क्योंकि आचार्य जे. बी. कृपलानी राष्ट्राध्यक्ष, काँग्रेस का कार्यालय मात्र एक साल के लिए कलकत्ता लाये जाने के पक्ष में नहीं थे।
त्रिपुरी तक आते-आते मतभेद का संकट में तब्दील होना:
1.  दूसरा विश्वयुद्ध और राष्ट्रीय आंदोलन: 1939 में दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में गाँधी न तो ब्रिटिश साम्राज्य की कमजोरियों का फायदा उठाने के पक्ष में थे और न ही उसके विरुद्ध अभी किसी भी नए आन्दोलन की शुरूआत के पक्ष में थे क्योंकि इसका मतलब हिटलर और मुसोलिनी के हाथ को मज़बूत करना होता, जबकि अबतक फासीवाद-विरोध को लेकर काँग्रेस दृढ हो चुकी थी।
2.  मनपसंद अध्यक्ष के निर्वाचन का प्रश्न: द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में गाँधी और उनके समर्थक उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलन के मसले पर नरम रूख रखने वाले किसी दक्षिणपंथी को राष्ट्राध्यक्ष बनवाना चाहते थे, लेकिन यह स्थिति सुभाष को मंज़ूर नहीं थी। इसके विपरीत, सुभाष ऐसा राष्ट्रीय अध्यक्ष चाहते थे जो ब्रिटिश साम्राज्य के संकट का फायदा उठाते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को जुझारूपन प्रदान करते हुए आज़ादी के आन्दोलन को गति प्रदान करे। इसी के मद्देनज़र सुभाष या तो खुद पुनः राष्ट्राध्यक्ष बनना चाहते थे, या फिर अपनी विचारधारा वाले किसी अन्य व्यक्ति को राष्ट्राध्यक्ष बनवाना चाहते थे।
3.  सुभाष के द्वारा गाँधी के दक्षिणपंथी अनुयायियों पर अंग्रेजों के साथ साँठ-गाँठ का आरोप: दक्षिणपंथियों के लिए सुभाष को बर्दाश्त करना तब और भी मुश्किल हो गया जब सुभाष और उनके समर्थकों, जो काँग्रेस के वामपंथी धड़े का प्रतिनिधित्व करते थे, ने उनपर अंग्रेजों के साथ साँठ-गाँठ और ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर षड़यंत्र करने का आरोप लगाते हुए कहा कि इन्होंने केंद्र में वायसराय और आर्मी चीफ के नीचे भारतीयों का संघीय मन्त्रिमण्डल बना रखा है जो अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली है। सुभाष के अनुसार, इस समझौते के अनुसार मंत्रियों के नाम तक तय हो चुके थे। सुभाष ने अपनी आत्मकथा ‘द इंडियन स्ट्रगल,1920-42’ में गांधीवादियों पर आरोप लगते हुए लिखा, “कांग्रेस के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में अंग्रेजों के साथ किसी भी तरह के समझौते के विरोध को मज़बूत करने हेतु मैंने भरसक प्रयत्न किए जिसकी वजह से वो गाँधीवादी चिढ़ गए थे जो बर्तानिया हुकूमत के साथ समझौता करना चाहते थे। गाँधी और उनके अनुयायी अपने संसदीय एवं मंत्रालय के कामों में किसी प्रकार का अड़ंगा नहीं चाहते थे। इस आरोप से दक्षिणपंथी कितने आहत थे, उसका पता फरवरी,1939 में सरदार पटेल के द्वारा नेहरु को लिखे पत्र के इस अंश से होती है: “हमारे शत्रुओं ने भी हमारी ईमानदारी का श्रेय हमें दिया है, परन्तु हमारे अध्यक्ष ने नहीं। जो भी हो, हमें कोई संदेह नहीं है कि हमें क्या करना है और हमने सुभाष को लिख दिया है कि हम उनकी सुविधा के अनुसार सदस्यता छोड़ने को तैयार हैं।”
4.  बिना काँग्रेस कार्यसमिति को विश्वास में लिए सुभाष के द्वारा अपने पुनर्निर्वाचन के पक्ष में की जा रही लॉबीइंग: सुभाष स्वयं का पुनर्निर्वाचन तो चाहते थे, पर उन्होंने कांग्रेस की कार्यकरिणी समिति के समक्ष कभी इसका ज़िक्र नहीं किया। उधर दक्षिणपंथी काँग्रेसी सुभाष के रवैये और उनके क्रियाकलापों से नाराज़ थे। अपनी आत्मकथा में राजेंद्र प्रसाद ने सुभाष पर कांग्रेस के अंदर संकट उत्पन्न करने का आरोप लगाते हुए कहा कि, “ऐसा लगता है कि यदि अभी भी उन्होंने यह सुझाव गाँधीजी और हमारे समक्ष रखा होता, तो इस पर विचार किया जा सकता था। आगे उन्होंने लिखा है कि जब हम गाँधी से बारदोली में मिले, तो हमने अनौपचारिक रूप से इस विषय पर पुनः चर्चा की थी जिसमें हम सबने मौलाना आज़ाद का नाम सर्वसम्मति से अनौपचारिक तौर पर सहमति जताई थी। हमने यह बात सुभाष चंद्र बोस को नहीं बताई थी और न ही कभी सुभाष के समक्ष इस मुद्दे को उठाया था। परन्तु, हमने सुना था कि जहाँ भी सुभाष जाते हैं, वो ख़ुद को पुनः निर्वाचित करवाए जाने की वकालत करते हैं। सुभाष के द्वारा अपने पुनर्निर्वाचन के पक्ष में की जा रही लॉबीइंग ने दक्षिणपंथियों को और ज्यादा चिढ़ाने का काम किया और इस सन्दर्भ में पटेल ने अपने क्षोभ को खुलकर प्रदर्शित किया।
5.  सुभाष के द्वारा अपने पुनर्निर्वाचन को वैचारिक संघर्ष और राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्यक्रमों के प्रश्न से जोड़ने की कोशिश: सुभाष अपने पुनर्निर्वाचन को वैचारिक संघर्ष और राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्यक्रमों के प्रश्न का रूप देना चाह रहे थे। उन्होंने यह घोषणा करते हुए, कि कांग्रेस में नरम दल और गरम दल के दोनों गुट अब एक दूसरे के ख़िलाफ़ हैं, माँग की थी कि अब कांग्रेस को अंग्रेजी हुकूमत को देश को पूर्णतया आज़ाद करने हेतु एक आखिरी चेतावनी दे देनी चाहिए। लेकिन दक्षिणपंथी गाँधीवादी इससे सहमत नहीं थे। इसी आलोक में राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, जे बी कृपालानी तथा काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के चार अन्य सदस्यों ने साझा बयान जारी करते हुए यह स्पष्ट किया कि, राष्ट्राध्यक्ष के चुनावों को विचारधारा, कार्यक्रम एवं नीति के आधार पर लड़ा जाना ग़लत है क्योंकि अखिल भारतीय काँग्रेस समिति व कार्यकारिणी समिति के साथ-साथ काँग्रेस के सभी अंग इन्हीं को आरम्भ से प्रतिपादित करते आ रहे हैं। साथ ही, काँग्रेस का राष्ट्राध्यक्ष उस एक संवैधानिक प्रमुख की तरह है जो देश की एकता एवं अखंडता को चिन्हित करता है। स्पष्ट है कि विचारधारा और राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्यक्रमों के प्रश्न पर काँग्रेस के अध्यक्ष के निर्वाचन को दक्षिणपंथी राष्ट्रीय आन्दोलन की एकता एवं साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा के मद्देनज़र सुभाष के विरोध में थे। उन्हें आशंका थी कि यह राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाली साबित हो सकती है।
6.  सुभाष का रवैया काँग्रेस की क्रियाप्रणाली के विरुद्ध: गाँधी के आने के बाद से अबतक की परिपाटी के अनुसार काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के पास गाँधी के द्वारा अनुशंसित नाम ही भेजे जाते थे और सामान्यतः गाँधी के फैसले का विरोध करते हुए किसी दूसरे नाम का प्रस्ताव नहीं किया जाता था। समिति इस अनुशंसित नाम को एक वोट से विजयी घोषित किया जाता था।
काँग्रेस के दोनों गुट आमने-सामने:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें गाँधी ने सुभाष की जगह किसी अन्य प्रभावशाली नेता को नए काँग्रेस-अध्यक्ष के रूप में लाये जाने की योजना बनाई। नेहरु गाँधी की आरंभिक पसंद थे, पर उन्होंने चुनाव लड़ने से मना करते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम का सुझाव दिया। पट्टाभि सीतारमैया ने अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन नैशनल कांग्रेस वॉल्यूम-II (1935-1947) में लिखा, “सुभाष बाबू के पुनः राष्ट्राध्यक्ष बनने में कुछ भी गलत नहीं था। लेकिन, गाँधी चाहते थे कि साम्प्रदायिकता के उभार पर अंकुश लगाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय से मौलाना आज़ाद का चुना जाना ही सही होगा।” लेकिन, सुभाष को मैदान में डटे देखकर मौलाना आज़ाद ने आरंभिक स्वीकृति के बावजूद चुनाव लड़ने से मना कर दिया। अंततः गाँधी ने पट्टाभि सीतारमैय्या को अपना उम्मीदवार बनाया। अब यह सीधे सुभाष चंद्र बोस और सीतारमैया के मध्य का ही चुनावी मुक़ाबला बन गया था। गाँधी की इच्छा के मद्देनज़र सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, और जे. बी. कृपालानी ने अबतक की काँग्रेसी परंपरा को ध्यान में रखते हुए सुभाष से पुनर्निर्वाचन के अपने निर्णय का पुनर्विचार का अनुरोध किया। लेकिन, सुभाष ने इनके इस आग्रह को ठुकराते हुए काँग्रेस के प्रतिनिधियों को अपनी पसंद के अध्यक्ष चुनने का अवसर प्रदान करने का आग्रह किया। काँग्रेस कार्यकारिणी समिति में दक्षिणपंथियों का वर्चस्व था और जनवरी,1939 में उनकी ओर से सरदार पटेल ने यह बयान जारी करते हुए अपना इरादा स्पष्ट कर दिया कि भले ही सुभाष चंद्र बोस जीत जाएँ, कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति उनकी नीतियों का पुनर्निरीक्षण करेगी और आवश्यकता हुई, तो उन नीतियों को वीटो से रद्द कर दिया जाएगा।”
त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष का रूख:
अपने अध्यक्षीय भाषण में सुभाष ने हाल की घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि म्यूनिख समझौता,1938 जर्मनी के समक्ष फ्रांस एवं ब्रिटेन के समर्पण और यूरोप में फ्रांसीसी प्रभुत्व की समाप्ति का संकेत लेकर आया और इससे ब्रितानी साम्राज्यवाद की शक्ति एवं सम्मान को गहरा आघात पहुँचा है। उन्हें लगता था कि यह उचित समय है जब निष्क्रियता छोड़ते हुए काँग्रेस स्वराज के प्रश्न को उठाते हुए इस सम्बंध में ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम दे क्योंकि:
1.  संभव है कि 1935 ई. के अधिनियम के संघ से सम्बंधित प्रावधान के लागू होने . की प्रतीक्षा यूरोप में शांति स्थापित होने तक करनी पड़े, और
2.  यह भी संभव है कि शांति-स्थापना के बाद ब्रिटेन एक बार फिर से कठोर साम्राज्यवादी नीति की राह पर वापस लौट जाय।
ऐसी स्थिति में इसका मतलब होगा हाथ में आये हुए अवसर को गँवाना, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा। इसीलिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकट का फायदा उठाते हुए उसके समक्ष अपनी माँगें रखी जायें, और यदि निर्धारित समय-सीमा के भीतर ये माँगें नहीं मानी जातीं, तो असहयोग और सत्याग्रह के उपाय को अजमाया जाय। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन लम्बे समय तक किसी भी अखिल भारतीय सत्याग्रह आन्दोलन का सामना करने की स्थिति में नहीं है। उन्होंने गाँधी और गाँधीवादियों के इस तर्क, कि अभी भारत में सत्याग्रह के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ नहीं हैं और भारत ऐसे किसी आन्दोलन के लिए अभी तैयार नहीं है, से असहमति प्रदशित करते हुए कहा कि मुझे इस बात का दुख है कि काँग्रेस में कुछ ऐसे निराशावादी व्यक्ति हैं, जो यह सोचते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य पर किसी शक्तिशाली आघात के लिए यह समय अनुकूल नहीं हैइसके विपरीत उन्होंने:
1.  आठ प्रांतों में काँग्रेसी सरकार होने के कारण राष्ट्रीय संगठन के रूप में काँग्रेस की शक्ति और प्रतिष्ठा में होने वाली वृद्धि,
2.  देशी रियासतों में अभूतपूर्व जन-जागरण और
3.  ब्रिटिश भारत में जनान्दोलन की प्रगति को ध्यान में रखते हुए भारतीय परिस्थितियों को अगले आन्दोलन के लिए अत्यंत उपयुक्त पाया। 
लेकिन, उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि इसके लिए यथेष्ठ तैयारी करनी  होगी, पर ऐसा तबतक संभव नहीं है जबतक:
1.  काँग्रेसी कार्यकर्ता एवं नेता अपने तमाम मतभेदों को भुलाकर अपनी सारी शक्ति एवं ऊर्जा इस संघर्ष में झोंकने के लिए तैयार नहीं हो जाते। साथ ही, देश की सभी साम्राज्यवाद-विरोधी शक्तियों के निकट समन्वय एवं सहयोग ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत की आखिरी कील साबित होगा। 
2.  फरवरी,1938 में हरिपुरा अधिवेशन में काँग्रेस के द्वारा पारित उस प्रस्ताव में संशोधन के जरिये उन प्रतिबंधों को वापस लेने की आवश्यकता पर बल दिया जिसके जरिये देशी रियासतों में काँग्रेस के नाम पर होने वाली कार्रवाइयों और आंदोलनों पर प्रतिबंधित किया गया। 
3.  साथ ही, देशी रियासतों में होने वाले जन-जागरण के मददेनज़र कार्यकारिणी समिति अपने दायित्वों को स्वीकार करते हुए प्रो-एक्टिव भूमिका निभाये और व्यवस्थित रूप से रियासतों में नागरिक स्वतंत्रता तथा उत्तरदायित्व पूर्ण सरकार के लिए चलाये जाने वाले जन-आंदोलनों का मार्गदर्शन एवं संचालन करे। इसके लिए उप-समिति के गठन, गाँधी के मार्गदर्शन और आल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांफ्रेंस के सहयोग हासिल करने की दिशा में पहल की जानी चाहिए।
4.  उन्होंने सत्ता में भागीदारी और सत्ता के लोभ के कारण पनप रहे भ्रष्टाचार को स्वीकारते हुए उसे कठोरता से दूर करने की आवशयकता पर बल दिया।
अंत में, उन्होंने 1922 में गया अधिवेशन का हवाला देते हुए यह उम्मीद जताई  कि अंत-अंत तक काँग्रेस के सदस्य विवेक से काम लेंगे और आसन्न संकट ताल जाएगा। इसी आलोक में उन्होंने गाँधी से अपील करते हुए कहा कि “महात्मा गाँधी धी, जो हमारे हैं, राष्ट्र का मार्गदर्शन एवं सहायता कर कांग्रेस को इस उलझन से उबारें।”
त्रिपुरी,1939 में सुभाष की निर्णायक जीत:
बी. आर. टॉमलिंसन ने कहा कि यह चुनाव वैचारिक मुद्दों पर दक्षिण बनाम् वाम, संघ-समर्थन बनाम् संघ-विरोध, मंत्रिमंडल-समर्थन बनाम् मंत्रिमंडल-विरोध के नाम पर लड़ा गया। ऐसा लगा कि काँग्रेस एक बार फिर से 1907 ई. के सूरत अधिवेशन और 1922 ई. के गया-अधिवेशन वाली सतही में पहुँच चुकी है।   अधिवेशन सत्र में स्वागत समिति के अध्यक्ष सेठ गोविन्द दास ने अपने भाषण में कांग्रेस के आंतरिक कलह पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि, “जब हमारे सिर पर दूसरे विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे हों, तब हमें एकजुट होकर रहना चाहिए नाकि अपने नेताओं पर ऊँगली उठाकर उनके निर्णयों पर शक करना चाहिए।दोनों पक्षों में कोई भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हुआ। अध्यक्षीय भाषण देने में असमर्थ सुभाष सबके सामने मंच पर स्ट्रेचर पर लेटे हुए थे और सुभाष के द्वारा लिखित अध्यक्षीय भाषण मौलाना आज़ाद ने पढ़ा था। इसमें कहा गया था, काँग्रेस को ब्रिटेन को 6 माह में देश छोड़ने की अंतिम चेतावनी देनी चाहिए और ऐसा ना कर पाने पर एक राष्ट्रवयापी पूर्ण स्वराज्यके लिए आंदोलन चलाया जाना चाहिए।
अंततः आमने-सामने के इस दोतरफा मुकाबले में सुभाष को निर्णायक जीत हासिल हुई। और वे पट्टाभि सीतारमैया को 1,377 मत के मुकाबले 1,580 मत प्राप्त कर 203 मतों से मात देने में सफल रहे। इस प्रकार पिछले करीब-करीब दो दशकों में पहली बार किसी ने काँग्रेस के भीतर गाँधी के नेतृत्व को चुनौती दी और गाँधी को पटखनी देने में भी कामयाब रहे। इस हार से गाँधी व्यक्तिगत तौर पर आहत हुए और 31 जनवरी,1939 को जारी बयान में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया की हार को अपनी हार की संज्ञा देते हुए कहा कि श्री सुभाष चंद्र बोस ने अपने प्रतिद्वंद्वी डॉ० सीतारमैया पर एक निर्णायक विजय प्राप्त की है। मुझे स्वीकार करना होगा कि शुरुआत से ही मैं निश्चित तौर पर उसके पुनर्निर्वाचन के कुछ ऐसे कारणों की वजह से विरुद्ध था जिनके बारे में अब मैं ज़िक्र नहीं करना चाहता। मैं उसके घोषणापत्र के तथ्यों और तर्कों से सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है कि अपने साथियों के लिए उनके सन्दर्भ अनुचित और महत्वहीन हैं। लेकिन, काँग्रेस-संविधान के हिसाब से न तो राष्ट्राध्यक्ष को हटाया जा सकता था और न ही प्रतिनिधियों के मतों को उलटाया जा सकता था।
मतलब यह कि जीत के बावजूद सुभाष इस स्थिति में नहीं थे कि वे अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को लागू कर सकें क्योंकि इसके लिए उन्हें हर कदम पर काँग्रेस कार्यकारिणी समिति की अनुमति लेनी पड़ती, जबकि इसके तेरह सदस्य सुभाष के विरोध में थे और इस बात की पूरी सम्भावना थी कि वे कदम-कदम पर सुभाह्स की नीतियों एवं कार्यक्रमों का विरोध करते। इस जीत पर गाँधी के द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया से यह भी स्पष्ट हो गया कि यह मसला यहीं पर समाप्त नहीं होने जा रहा है। उन्होंने सुभाष को जीत के लिए शुभकामनाएँ देते हुए कहा समर्थकों को सन्देश देते हुए कहा किमुझे सुभाष की जीत पर ख़ुशी है। आख़िरकार सुभाष हमारे राष्ट्र के शत्रु नहीं है। उन्होंने इस राष्ट्र के लिए काफ़ी कष्ट उठाए हैं। उनके विचार से, उनकी नीति सबसे ज़्यादा अग्रवर्ती और विनयपूर्ण है। अल्पमत वाले उन्हें केवल शुभकामनायें ही दे सकते हैं। राजेंद्र प्रसाद ने इस हार को गाँधी की विचारधारा की हार मानी और उन लोगों की जीत के रूप में देखा जो गाँधी और गाँधी की विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे। इतना ही नहीं, सीतारमैया की इस हार ने गाँधीवादी दक्षिणपंथियों के खेमे में भी दरार उत्पन्न कर दिए जिसका संकेत राजेंद्र बाबू की इस टिप्पणी से मिलता है: यदि मौलाना आज़ाद लड़ने हेतु खड़े होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वो एक बड़े बहुमत से जीतकर वापस आते क्योंकि आम कांग्रेस कार्यकर्त्ता उनको पसंद करता और गाँधीवादी कार्यक्रम को नहीं तोड़ता। परन्तु, वर्तमान हालात में लोग सीतारमैया में गाँधीजी का अक्स नहीं देख सके, जिससे सीतारमैया की हार हुई और सुभाष ने बड़ी जीत दर्ज की। पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने एक प्रस्ताव पेश किया जो उस कार्यकारिणी समिति में अपना विश्वास व्यक्त किया गया जिसने पिछले एक साल के दौरान काम किया, इसके किसी भी सदस्य पर आक्षेप पर खेद जताया, राष्ट्राध्यक्ष से गाँधी की सम्मति से कार्यकारिणी के सदस्यों को नामित करने का अनुरोध किया और  गाँधी के दिशा-निर्देश में गाँधीवादी रणनीतियों के अनुरूप भविष्य के कार्यक्रमों के निर्धारण एवं सञ्चालन का सुझाव दिया गया। पन्त का यह प्रस्ताव पारित हुआ और इसके पारित होने का मतलब सुभाष की निर्णायक जीत का हार में तब्दील हो जाना था।
काँग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों का इस्तीफ़ा:
जब सुभाष ने जीतने के बाद गाँधी और गाँधीवादियों पर अंग्रेज़ों के साथ भारत में एक केंद्रीय संघीय ढाँचे के बारे में साज़िश रचने और केंद्र में बनने वाली अपनी सरकार के संभावित मंत्रियों की सूची तैयार करने का आरोप दोहराया, तो यह टकराव निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया। राजेंद्र प्रसाद, कृपालानी एवं पटेल सहित तमाम गाँधीवादियों ने बयान जारी करते हुए कहा, “सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के अधीन संघ की योजना के खिलाफ अपना विरोध जताया है, जबकि यह एक काँग्रेस नीति है जिस पर कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के लगभग सभी सदस्यों ने सहमति जताई है। सरदार पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को लिखे पत्र में यह संकेत दिया कि सुभाष के साथ काम करना एकदम असम्भव होगा। लेकिन, बीमार सुभाष चाह रहे थे कि गाँधी अपनी इच्छा के अनुसार कार्यकारिणी का गठन करें। उन्होंने इस सन्दर्भ में गाँधी से अनुरोध भी किया और सुभाष के इस रवैये ने गाँधीवादियों को और भी उत्तेजित कर दिया। सात फरवरी,1939 को सुभाष को लिखे पत्र में सरदार पटेल ने इस समाचार का खंडन किया कि सुभाष के निर्वाचन के तुरंत बाद उनसे नाराज़ सदस्यों ने काँग्रेस कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने बारदोली में भी इस रिपोर्ट का प्रतिवाद किया। मौलाना आज़ाद ने पटेल सहित कार्यसमिति के सदस्यों को संयुक्त रूप से त्यागपत्र की सलाह दी थी, लेकिन पटेल ने यह सोचते हुए कि निर्वाचन के तुरंत बाद त्यागपत्र के कारण गलत सन्देश जाएगा, इससे ग़लतफ़हमी पैदा हो सकती है और यह सुभाष की उलझनें भी बढ़ाने वाला साबित हो सकता है; इस्तीफे के पहले सुभाष को विश्वास में लेना चाहा। पटेल ने सुभाष को सूचित करते हुए लिखा कि “हम सब त्यागपत्र देने को तैयार हैं, जैसे ही आप हमें सूचित करते हैं कि आपको इससे कोई परेशानी नहीं होगी। यदि आप चाहते हैं कि हम थोड़ा इंतज़ार करें, तो हम आपकी बात मानेंगे; लेकिन उतना ही जितना आपके लिए सुविधाजनक हो। इस विषय पर अपनी इच्छा तार द्वारा सूचित करें।” सुभाष को लिखे इस पत्र से इस बात का भी संकेत मिलता है कि सुभाष की सुविधा को ध्यान में रखते हुए पटेल थोड़ी प्रतीक्षा करने के लिए तैयार थे, लेकिन ये चीजें भी स्पष्ट हैं कि अब यहाँ से वापस लौटना पटेल के लिए संभव नहीं था। लेकिन, ऐसा प्रतीत होता है कि सुभाष भी सुलह के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे। कुछ तो अपनी अस्वस्थता के कारण और कुछ इग्नोरेंस के कारण सुभाष ने पटेल के इस पत्र पर अपनी और से प्रतिक्रिया नहीं दी।
अंततः 22 फरवरी को वर्धा में प्रस्तावित कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक के ठीक एक दिन पहले समिति के नब्बे सदस्यों में से बारह प्रमुख सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया। नेहरु ने औपचारिक रूप से इस्तीफ़ा तो नहीं दिया, पर उन्होंने अपने वक्तव्य के जरिये ऐसा माहौल सृजित किया जिसमें यह सन्देश गया कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया है। राजेंद्र प्रसाद ने इस्तीफों का कारण देते हुए आत्मकथा में लिखा, हम सुभाष को कार्यकारिणी समिति में अपनी उपस्थिति से परेशान नहीं करना चाहते थे। साथ ही, यह अनुचित होता जब हम सबके सामने सत्र में आधिकारिक प्रस्तावों का विरोध करते। हम बोस को मुक्त रूप से काम करने देना चाहते थे और चाहते थे कि उन्हें अपने नियम बनाने चाहिए और अपने हिसाब से अपनी कार्यकारिणी गठित करनी चाहिए। हमें लगा कि हमें लोकतांत्रिक वातावरण बनाए रखना चाहिए। उनका कहना था कि अंतिम क्षण तक कार्यसमिति में बने रहना अनुचित होगा क्योंकि काँग्रेस-संविधान के अनुसार निवर्तमान कार्यसमिति विषय-समिति का कार्यक्रम तय करती है और इस प्रक्रिया से अगले वर्ष के लिए सुभाष को कार्यक्रम तय करने में परेशानी होती। इनका मानना था कि काँग्रेस-अध्यक्ष होने के नाते सुभाष को अपने अनुसार काँग्रेस के अगले कार्यक्रम तय करने का अधिकार होना चाहिए और इस समय इस्तीफे से उनके लिए ऐसा कर पाना संभव हो सकेगा।
पटेल के इस्तीफे को दुःख के साथ स्वीकार करते हुए सुभाष ने 26 फरवरी 1939 को पटेल को लिखा कि “सामान्यतया मुझे आपसे अपने निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कहना चाहिए था और त्रिपुरी में मिलने तक इस त्यागपत्र को रोकना चाहिए था, लेकिन मैं जनता हूँ कि आपने खूब सोच-विचार कर निर्णय लिया है और निर्णय लेने के पहले आपने सभी परिस्थितियों पर विचार किया होगा। यदि इस समय मुझे जरा भी संभावना होती कि आप अपने त्यागपत्र पर पुनर्विचार करेंगे, तो मैं आपसे इस्तीफ़ा वापस लेने की अनुनय-विनय करता; लेकिन वर्तमान परिस्थिति में औपचारिक प्रार्थना से काम नहीं बनेगा, अतः मैं आपका त्यागपत्र बहुत दुःख के साथ स्वीकार करता हूँ। फिर भी, मैं मानता हूँ कि आपके त्यागपत्र का मतलब मेरे कर्तव्य-पालन में आपके सहयोग एवं सहायता वापस लेना नहीं है। यह बताना मेरे लिए ज़रूरी है कि आपका सहयोग एवं सहायता मेरे लिए अमूल्य होंगे। मुझे आशा है और विश्वास भी कि त्रिपुरी काँग्रेस में हमारी सहमति के बिंदु असहमति के बिंदुओं से अधिक होंगे और भविष्य में हम दल को अधिक मज़बूत बनाये रख सकेंगे।” 
सुभाष के इस्तीफे के बाद स्थिति का बिगड़ता चला जाना:
उधर काँग्रेस के मतभेद कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे थे। शरत चन्द्र बोस ने पटेल पर सुभाष के खिलाफ अभियान चलाने का आरोप लगाया और उन्हें अलोकतांत्रिकबताया। सुभाष ने अपने भतीजे अमिय नाथ बोस को लिखे पत्र में इस स्थिति के लिए नेहरू को जिम्मेवार ठहराया: मुझे निजी से रुप से किसी ने इतना नुकसान नहीं पहुँचाया है जितना मेरा नुकसान जवाहर लाल नेहरु ने किया है। यदि वह हमारे साथ होता तो हम बहुमत से जीतते। लेकिन, त्रिपुरी में वो वयस्क रक्षक (ओल्ड गार्ड) के साथ थे। बारह दिग्गजों की गतिविधियों से ज्यादा नुकसान नेहरु ने मेरे खिलाफ प्रचार करके किया है। अब सुभाष जिस मोड़ पर खड़े थे, वहाँ पर सोशलिस्ट का भी उन्हें साथ नहीं मिला। जयप्रकाश नारायण ने यह स्पष्ट किया कि काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) ने सुभाष को बेहतर उम्मेदवार मानते हुए उनके लिए वोट किया, न कि लेफ़्ट विंग और राइट विंग के मध्य विवाद को ख़त्म करने के लिए। कहीं-न-कहीं उन्होंने भी इस स्थिति के लिए सुभाष को जिम्मेवार माना: हमने पहले सुभाष बाबू से बयान जारी कर स्थिति साफ़ करने के लिए कहा, मगर उनके द्वारा दिया गया बयान संतोषजनक नहीं था।” उनका भी यह मानना था कि “गाँधी की सहमति से कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की नियुक्त से इस समस्या का हल संभव है।”
अब सुभाष बैकफुट पर थे और उन्होंने पत्र के जरिये काँग्रेस को गुटबाजी से बाहर निकलने हेतु आग्रह करते हुए गाँधी से कहा कि, “आप काँग्रेस की आत्मा हो, आपके बिना काँग्रेस कुछ नहीं कर पाएगी। अभी द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन बहुत कमजोर है, हमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन जैसा एक बड़ा आन्दोलन चलाना चाहिए जिससे आज़ादी जल्दी मिल जाएगी। दरअसल सुभाष गाँधी और उनकी अहमियत को समझ रहे थे और वे इस बात को जानते थे कि उनके सहयोग के बिना उनके लिए किसी भी आन्दोलन को शुरू कर पाना और उसे सफलता की परिणति तक पहुँचा पाना उनके लिए संभव नहीं होगा। इसीलिए वे चाहते थे कि आन्दोलन की रणनीति एवं कार्यक्रम का निर्धारण उनके द्वारा हो और इसके अनुरूप निर्धारित आन्दोलन का नेतृत्व गाँधी करें। लेकिन,:
1.  जिस रणनीति और कार्यक्रम में गाँधी का विश्वास नहीं था, उसके आधार पर शुरू किये गए आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करना नैतिक दृष्टि से गाँधी के लिए संभव नहीं था और सुभाष की ऐसी अपेक्षा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती है।
2.  सुभाष इस बात को भी समझ नहीं पाये कि गाँधी के लिए साध्य की पवित्रता ही महत्वपूर्ण नहीं है, वरन् वे साधन की पवित्रता पर भी बल देते थे और उनका मानना था कि पवित्र साधन के जरिये ही पवित्र साध्य तक पहुँचा जा सकता है। इसके विपरीत सुभाष के लिए साध्य महत्वपूर्ण था और साधन गौण। उन्हें आजादी के लिए हिटलर और मुसोलिनी से भी हाथ मिलाने तथा उनसे समर्थन हासिल करने से परहेज़ नहीं था।    
3.  सुभाष दरअसल बंगला भावुकता के शिकार हुए। इसी कारण उनका अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रहा और वे गाँधीवादी दक्षिणपंथियों के सन्दर्भ में ऐसे टिप्पणी कर बैठे जिसके कारण वे अपमानित महसूस कर रहे थे।
4.  सुभाष और उनकी आशंकायें गलत नहीं थीं, पर उनका तरीका गलत था। उनके तर्कों की अपनी जगह पर अहमियत से इन्कार नहीं किया जा सकता, पर गाँधी और उनकी आशंकाओं को भी ख़ारिज करना आसन नहीं था। सुभाष से चूक यहाँ पर हुई कि उन्होंने टकराव का रास्ता चुना और एक बार उस रस्ते को चुना, तो फिर उस पर बढ़ते चले गए। वापस लौटने का विकल्प शेष नहीं रह गया।
5.  इस प्रकरण में सुभाष के व्यक्तित्व की कमजोरियाँ भी सामने आती हैं और वह यह कि वे अपने व्यक्तित्व की दृढ़ता प्रदर्शित करते हुए दक्षिणपंथी गाँधीवादियों की चुनौती का मुकाबला कर पाने में असमर्थ रहे
इस पृष्ठभूमि में समझौते की सम्भावना धूमिल थी। गाँधी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थे और सुभाष अपनी इच्छा के अनुरूप कार्यसमिति के गठन से सम्बंधित गाँधीवादियों की इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसी स्थिति में सुभाष के पास इस्तीफे के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं रह गया। गाँधी का समर्थन न मिलने पर फरवरी,1939 में सुभाष ने यह घोषणा की थी कि “यदि वे देश के महानतम व्यक्ति का समर्थन हासिल नहीं कर सके, तो उनकी चुनावी जीत निरर्थक है।” अंतत अप्रैल,1939 में सुभाष ने इस्तीफ़ा दे दिया और जुलाई,1939 में कलकत्ता अधिवेशन में उनकी जगह डॉ. राजेंद्र प्रसाद नए अध्यक्ष चुने गयी।
सुभाष का निष्कासन:

त्यागपत्र देने के बाद सुभाष ने काँग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया और देशभर में आन्दोलन एवं विद्रोह आयोजित करने का निर्णय लिया, लेकिन उन्हें बंगाल के बाहर कोई समर्थन नहीं मिला। सुभाष के इस रवैये ने उनके विरोधियों को उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई का अवसर उपलब्ध करवाया। पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को यह सुझाव दिया कि “सुभाष बाबू को अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के निर्णयों के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन और विद्रोह आयोजित करने के उनके निर्णय के स्पष्टीकरण के लिए एक नोटिस दिया जाय क्योंकि बंगाल काँग्रेस प्रांतीय कार्यपालिका के अध्यक्ष होने के नाते उन निर्णयों के आदर करने और कार्यान्वयन करने को वे बाध्य हैं। जहाँ तक बंगाल प्रांतीय कार्यपालिका का सम्बन्ध है, तो बेहतर होगा कि उसे भी ऐसा नोटिस दिया जाय। उन्होंने आपकी सलाह की उपेक्षा की है, अनुशासन-भंग किया है। उन्हें अपना स्पष्टीकरण भेजने दीजिये, और अगली बैठक में हम उनपर कार्रवाई करने के प्रश्न पर विचार करेंगे। इस समय हमारी ओर से कमजोरी दिखने से अनुशासनहीनता फैलेगी और हमारा संगठन कमजोर होगा। आपने बम्बई सरकार की मद्यनिषेध नीति पर सुभाष के बयान को देखा होगा। उन्होंने हमारे शत्रुओं से भी बुरा व्यवहार किया है।” जब उन्होंने प्रांतीय काँग्रेस कमिटी की अनुमति के बिना काँग्रेस वालों के सविनय अवज्ञा में भाग लेने पर रोक लगाने के बारे में अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के निर्णय का विरोध किया, तो उन्हें उनकी अनुशासनहीनता के लिए दण्डित करते हुए काँग्रेस के सभी पदों से हटा दिया गया और तीन साल तक किसी भी पद-ग्रहण पर रोक लगा दी। बाद में गाँधी ने दीनबंधु एंड्रयूज को लेखे पत्र में सुभाष को ‘मेरा बेटा’ कहकर संबोधित किया और ‘परिवार का एक बिगड़ैल बच्चा’ कहा जिसको उसके भले के लिए सबक सिखाया जाना ज़रूरी था। काँग्रेस के इसी अधिवेशन में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन के साथ हरसंभव सहयोग की बात की गयी। 
मतभेद, पर मनभेद नहीं:
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि इससे गाँधी और सुभाष के व्यक्तिगत सम्बन्ध अप्रभावित रहे। गाँधी को सुभाष की मंशा को लेकर किसी प्रकार का संदेह नहीं था, उनकी आपत्ति सुभाष के तरीके को लेकर थी; तभी तो जब विमान दुर्घटना में सुभाष की मृत्यु का समाचार मिला, तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि “हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति अब नहीं रहा।” सुभाष ने भी गाँधी को लेकर कभी अपना रुख मलिन नहीं किया और उन्हें ‘बापू’ कहकर संबोधित किया। 6 जुलाई,1944 को सुभाष ने सिंगापुर से आज़ाद हिन्द रेडियो के माध्यम से गाँधी
को संबोधित करते हुए कहा,
"भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका हैराष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद एवं शुभकामनायें चाहते हैं।" 
पटेल ने भी उनके न रहने पर आज़ाद हिन्द फौज जाँच एवं राहत समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार सँभाला। आजाद हिन्द फौज में सुभाष ने नेहरु के नाम पर भी एक ब्रिगेड बनाया। स्पष्ट है कि इनके राजनीतिक मतभेद से इनके व्यक्तिगत संबंध बहुत हद तक अप्रभावित रहे। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के द्वारा बंदी बनाये गए ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को आजाद हिन्द फौज के गाँधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड के रूप में संगठित किया गया जो इस बात को दर्शाता है कि राजनीतिक धरातल पर गाँधी एवं नेहरू से तमाम मतभेदों के बावजूद उनके प्रति सुभाष के मन में अपार सम्मान एवं श्रद्धा का भाव था
     

Monday, 13 November 2017

गाँधी से गुजरते हुए

गाँधी से गुजरते हुए 
          -डाॅ. संजय सिंह(जेएनयू)
कुमार सर्वेश

प्रमुख आयाम
1.  दक्षिण अफ्रीका गाँधीवाद के लिए प्रयोगशाला के रूप में
2.  राजनीतिक विचारधारा के रूप में गाँधीवाद
3.  गरमपंथियों का प्रभाव
4.  स्वराज की संकल्पना
5.  अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना
6.  संघर्ष-तैयारी-संघर्ष की गाँधीवादी रणनीति
7.  राष्ट्रीय आन्दोलन को जनांदोलन में तब्दील कर देना
8.  गाँधीवादी आन्दोलन और इसकी लोकप्रियता
9.  गाँधीवादी आंदोलनों का मूल्यांकन


गाँधी और गाँधीवाद और कुछ नहीं, तद्युगीन परिदृश्य में आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सांस्कृतिक चिंतन परंपरा की पुनर्व्याख्या है जिसके केंद्र में वैष्णव धर्मं एवं वैष्णव संस्कार है, सहिष्णुता एवं समन्वय जिसका प्राण-तत्व है। गाँधी ने स्वयं इसे स्वीकारते हुए कहा है: ''गाँधीवाद जैसी कोर्इ वस्तु नहीं है... मैं इस बात का दावा नहीं करता कि मैंने किसी मौलिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। मैंने प्राचीन सिद्धान्तों को ही नए ढंग से दोहराने की चेष्टा की है।” इसी को एक ओर सर्वधर्मसमभाव के जरिये अभिव्यक्ति मिली है, तो दूसरी ओर ट्रस्टीशिप की थ्योरी के जरिये। इन दोनों के बिना उपनिवेशवाद-विरोधी मोर्चे का निर्माण संभव नहीं हो पाता और बिना इसके राष्ट्रीय आन्दोलन को जनान्दोलन के रूप में परिणत करते हुए सार्थक परिणति तक पहुँचा पाना संभव नहीं था। स्पष्ट है कि गाँधी परम्परागत अर्थ में न तो राजनीतिक चिन्तक थे और न ही सिद्धांत-निर्माता, फिर भी उन्हें इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को नयी भाषा और नया तेवर प्रदान करते हुए औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न की जिसकी उसके पास कोई काट नहीं थी।
दक्षिण अफ्रीका गाँधीवाद के लिए प्रयोगशाला के रूप में:
इस क्रम में दक्षिण अफ्रीका उसी तरह गाँधी के लिए प्रयोगशाला का काम करता है जिस प्रकार अंग्रेजों के लिए बंगाल। जिस प्रकार अंग्रेजों ने बंगाल में प्रयोग करते हुए फिर उसके अनुभवों के आलोक में उसे शेष भारत में लागू किया, ठीक उसी प्रकार गाँधी ने रंगभेद के खिलाफ अभियान के क्रम में दक्षिण अफ्रीकी ज़मीन पर विकसित जनांदोलन के साधनों को भारत में अपनाया। इस परिप्रेक्ष्य में गाँधीवाद के सन्दर्भ में दक्षिण अफ्रीका का महत्व दो सन्दर्भों में है: एक तो इसने एक प्रयोगशाला के रणनीति एवं कार्यक्रमों के स्वरुप-निर्धारण में अहम् भूमिका निभाते हुए भारत में गाँधी के प्रयोग की आधारशिलायें निर्मित की, और दूसरे दक्षिण अफ़्रीकी सफलताओं ने भारत में गाँधी को अपर लोकप्रियता प्रदान कर उनकी भावी सफलता की पृष्ठभूमि निर्मित की, जिस पर विस्तार से चर्चा पहले ही की जा चुकी है
राजनीतिक विचारधारा के रूप में गाँधीवाद:
गाँधीवाद एक सांस्कृतिक चिन्तन ही नहीं है, वरन् यह एक राजनीतिक विचारधारा भी है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में भी गाँधी ने नया कुछ नहीं दिया, वरन् भारतीय राष्ट्रवादी चिंतन परंपरा में मौजूद नरमपंथियों और गरमपंथियों की रणनीति एवं कार्यक्रमों को संश्लेषित करते हुए अपनी रणनीति एवं कार्यक्रमों का निर्धारण किया। गाँधीवादी आंदोलनों की शुरुआत पर अगर गौर करें, तो हम पाते हैं कि इसकी शुरूआत उदारवादियों की तरह प्रतिवेदन, प्रार्थना और प्रतिरोध (PPP) से होती थी और ये भी उदारवादियों की तरह ही औपनिवेशिक सत्ता पर दबाव बनाकर रियायतें प्राप्त करने में विश्वास करते थे। इस प्रकार गाँधी की रणनीति भी उदारवादियों की तरह दबाव और समझौते की रणनीति थी और इनके आन्दोलन भी उदारवादियों की तरह अहिंसक ही हुआ करते थे। लेकिन, एक सीमा के बाद अगर यह रणनीति परिणाम तक ले जा पाने में समर्थ नहीं है, तो गाँधी को आन्दोलन को संवैधानिक दायरे से बाहर ले जाकर उसे असहयोग एवं सविनय अवज्ञा का रूप देने से भी परहेज़ नहीं था। इन्होंने गरमपंथियों की तरह स्वदेशी और बहिष्कार का रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए औपनिवेशिक सत्ता के मूल पर प्रहार की रणनीति अपनायी। साथ ही, इसके जरिये स्वाबलंबन की दिशा में पहल करते हुए भारतीय जनमानस को सीधा सन्देश दिया।
गरमपंथियों का प्रभाव
गाँधी के आन्दोलन की रणनीति पर तिलक और गरमपंथियों का भी गहरा असर रहा। तिलक की तरह ही गाँधी भी अपने आन्दोलन को संवैधानिक दायरे में सीमित नहीं रखना चाहते थे, वरन् वे ज़रुरत पड़ने पर इसे संविधान और क़ानून के दायरे से बाहर ले जाने के पक्ष में भी थे। वे केवल असहयोग की बात ही नहीं करते थे, वरन् सविनय अवज्ञा की बात करते हुए गिरफ्तारी देने और जेल जाने के पक्ष में भी थे। इतना ही नहीं, तिलक की तरह गाँधी ने भी आन्दोलन के दौरान जनता को इकठ्ठा करने और राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दू धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया, अब वह चाहे राम-राज्य की संकल्पना हो या मानस की चौपाइयों को उद्धृत करना या फिर गाँधी के प्रिय भजन के रूप में ‘रघुपति राघव राजा राम’ एवं “वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे का गायन। हाँ, यह ज़रूर है तिलक वाला हिंदुत्ववादी आग्रह गाँधी में नहीं था, यद्यपि तिलक भी सांप्रदायिक नहीं थे। गाँधी का रूझान सर्वधर्मसमभाव की ओर कहीं अधिक था।
स्वराज की संकल्पना:
1905 ई. में बाल गंगाधर तिलक ने यह घोषणा की थी कि ''स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” आरम्भ में तिलक ने ‘स्वराज’ शब्द का अस्पष्टता के साथ स्वशासन के अर्थ में प्रयोग किया, लेकिन होमरूल आन्दोलन के दौरान उन्होंने स्वशासन एवं स्वराज की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए इसे न केवल आयरलैंड की तर्ज़ पर डोमिनियन स्टेटस की माँग से, वरन् क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा और भाषाई राज्यों की माँग से सम्बद्ध करके देखा। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हमारा उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना नहीं है गाँधी भी तिलक की तरह स्वराज्य की बात करते हैं, लेकिन, उनके स्वराज की संकल्पना तिलक के स्वराज से भिन्न है। सन् 1920 में गाँधी ने अपने स्वराज की तस्वीर प्रस्तुत करते हुए कहा कि ''मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की माँग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा।” स्पष्ट है कि गाँधी का स्वराज जन-प्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था है जो जन-आवश्यकताओं, उसकी अपेक्षाओं तथा जनाकांक्षाओं के अनुरूप हो। इतना ही नहीं, उनके स्वराज की संकल्पना स्थिर न होकर विकसनशील थी और गाँधी हिंसा के विरोध में होने के बावजूद तिलक की तुलना में कहीं अधिक आक्रामक थे। उन्होंने औपनिवेशिक सत्ता के प्रति अपने विरोध को असहयोग और सविनय अवज्ञा तक ले जाने का काम किया और असहयोग आन्दोलन का आह्वान करते हुए साल भर के अन्दर स्वराज्य की प्राप्ति की बात की और अगस्त,1942 में तो उन्होंने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा देते हुए ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। स्पष्ट है कि गाँधी का स्वराज आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता की माँग पर बल देता था। साथ ही, गाँधी जके स्वराज की संकल्पना कहीं अधिक व्यापक है। वे केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी पराधीनता से मुक्ति नहीं चाहते थे, वरन् सांस्कृतिक एवं नैतिक स्वाधीनता के भी पक्षधर थे। उनके स्वराज का स्वरुप कहीं अधिक मानवीय होता और यह दीन-दुखियों के पक्ष में कहीं अधिक होता क्योंकि यह आत्म-सयंम, ग्राम-राज्य एवं सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है।
अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना:
साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता पर बल देने वाले गाँधी धर्म और ईश्वर को सत्य के रूप में देखते हैं और उनकी आस्तिकता सत्य के लिए संघर्ष हेतु उन्हें प्रेरित करती है। यही उनमें सत्य के लिए आग्रह को जन्म देता है और उसे ये असत्य एवं अन्याय के खिलाफ संघर्ष के उपकरण में तब्दील आकर देते हैं। लियो टॉलस्टॉय से प्रभावित होकर गाँधी ने अहिंसा को सत्याग्रह का आधार बनाया। उन्होंने हिंसा का सहारा लेने वाले क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों के हश्र को देखा और यह भी देखा कि किस प्रकार औपनिवेशिक सत्ता एवं प्रशासन में ऐसे आंदोलनों को निर्ममतापूर्वक कुचल डाला। उन्होंने इन अनुभवों के आलोक में अपने आन्दोलन को इस परिणति से बचाने के लिए अहिंसा को सत्याग्रह का आधार बनाया और इसके जरिये राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापकता देते हुए जन-सहभागिता को विस्तार दिया।
अहिंसात्मक सत्याग्रह की यह संकल्पना दुनिया को गाँधी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन है जिसकी याद में उनके जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है और जिसे अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ अपने संघर्ष में अपनाते हुए अपने संघर्ष को सफलता के मुकाम तक पहुँचाया
गाँधी ने सत्याग्रह के लिए हड़ताल, असहयोग, सविनय अवज्ञा और उपवास या भूख-हड़ताल को साधन बनाया। असहयोग अहिंसक सत्याग्रह का एक महत्वपूर्ण साधन है। इसके तहत् आन्दोलनकारी ऐसी सरकार के साथ किसी भी प्रकार के सहयोग से इन्कार करते हैं जो भ्रष्ट है और जनाकांक्षाओंके अनुरूप काम नहीं कर रही है सविनय अवज्ञा की संकल्पना से गाँधी दक्षिण अफ्रीका में जेल-प्रवास के दौरान परिचित हुए जब उन्हें हेनरी डेविड थोरो की पुस्तक ‘ऑन सिविल डिसओबिडियेंस’ (On Civil Disobidience) पढने का अवसर मिला और इस क्रम में उनके सविनय अवज्ञा के सिद्धांत से प्रभावित होकर उन्होंने इसे सत्याग्रह की तकनीक के रूप में आजमाया इसके तहत् आन्दोलनरत् जनता अपने प्रतिरोध को असहयोग से आगे ले जाती है और अहिंसक तरीकों से सरकारी कानूनों और नीतियों को मानने से इन्कार करती हुई उसका उल्लंघन करती है यदि 1920 ई. में गाँधी ने असहयोग को आजमाया, तो 1930 ई. में सविनय अवज्ञा को जहाँ उपवास का प्रश्न है, तो यह सत्याग्रह का अंतिम उपकरण है। यह आत्मशुद्धिकरण का जरिया भी है और आत्मोत्पीड़न के जरिये अपनी वाजिब माँगों को मनवाने हेतु सरकार पर नैतिक दबाव सृजित करने का जरिया भी।
अहिंसात्मक सत्याग्रह की निष्क्रिय प्रतिरोध से भिन्नता:
गाँधी का सत्याग्रह पर जोर था उनके अनुसार सत्य की रक्षा के लिए स्वयं कष्ट सहते हुए अपने प्रतिपक्षी को अपनी बात मानने के लिए राजी कर लेना, या विवश कर देना ही सत्याग्रह है चूँकि गाँधी ने अहिंसा को इसका आधार बनाया,, इसीलिए इसे अहिंसक सत्याग्रह कहा गया गाँधी द्वारा प्रस्तुत अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना कोई मौलिक संकल्पना नहीं है यह तिलक के निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive Resistance) का ही विकसित रूप है। बस फर्क यह है कि तिलक का निष्क्रिय प्रतिरोध एक नकारात्मक संकल्पना है जिसमें प्रतिक्रिया-भाव की प्रधानता होती है और जिसे गाँधी निर्बलों का अस्त्र मानते थे, जबकि अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना एक सकारात्मक संकल्पना है जिसमें प्रतिक्रिया भाव के लिए कोई जगह नहीं होती है। साथ ही, इसके लिए आत्मबल की ज़रुरत होती है। यही कारण है कि गाँधी अहिंसक सत्याग्रह को सबलों का अस्त्र मानते थे। इसके पीछे यह सोच मौजूद है कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।
अहिंसक सत्याग्रह की संकल्पना कोई स्थिर संकल्पना नहीं है, वरन् निरंतर विकसनशील संकल्पना है। सन् 1906 में दक्षिण अफ्रीका में अनिवार्य पंजीकरण क़ानून के विरोध के क्रम में गाँधी ने इस संकल्पना को विकसित किया था और प्रवासी भारतीयों के अधिकारों एवं सम्मान के लिए उनके खिलाफ होनेवाले भेदभाव एवं रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के क्रम में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया था। ऊपर से गाँधी भले ही आदर्शवादी राजनीतिज्ञ लगते हों, पर अहिंसा और आंदोलनों को लेकर उनका नजरिया बहुत ही व्यावहारिक था। वे अहिंसा और कायरता में फर्क करते थे। उनका स्पष्ट रूप से यह मानना था कि जहाँ अहिंसा कायरता का रूप लेने लगे, वहाँ मैं हिंसक हो जाना पसंद करूँगा। उन्हीं के शब्दों में, “अगर केवल कायरता और हिंसा में मुझे किसी एक को चुनना पड़े, तो मैं हिंसा को चुनना पसंद करूँगा।” फरवरी,1922 में चौरी-चौरा में जब असहयोग आन्दोलन ने हिंसक रूप ग्रहण किया, तो उन्हें आन्दोलन को वापस लेने में तनिक भी देर नहीं लगी और इस सन्दर्भ में निर्णय लेते हुए न तो उन्होंने काँग्रेस की परवाह की और न ही काँग्रेस के भीतर आन्दोलन को वापस लेने के अपने निर्णय का विरोध करने वालों की परवाह की। लेकिन, समय के साथ उन्होंने यह महसूस किया कि ऐसे जनांदोलन पूरी तरह से अहिंसक हों, किसी भी जन-नेता के लिए यह सुनिश्चित कर पाना मुमकिन नहीं है क्योंकि जनता की प्रतिक्रिया बहुत हद तक स्वतः-स्फूर्त होती है और समय एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती है। उन्होंने बहुत करीब से देखा कि देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के विभिन्न हिस्सों ने कैसे उनको अपने तरीके से देखा और कैसे उनकी व्याख्या अपने तरीके से की। यही कारण है कि जब 1930-31 ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान चटगाँव, पेशावर और शोलापुर में हिंसा भड़की, तो गाँधी ने आन्दोलन को वापस लेने के बजाय जारी रखना उचित समझा। इसी प्रकार जब अगस्त,1942 ई. में ब्रिटिश दमन की पृष्ठभूमि में उनके ‘करो या मरो’ के आह्वान की परिणति भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान व्यापक हिंसा के रूप में हुई, तो अंग्रेजों ने उनपर इस हिंसा की आलोचना के लिए दबाव बनाना शुरू किया। उन्होंने अँग्रेज पत्रकार लुई फिशर के साथ साक्षात्कार के क्रम में न केवल भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान होने वाली हिंसा की आलोचना से इन्कार किया, वरन् इससे एक कदम आगे बढ़कर इसे ब्रिटिश दमन से उपजी हुई हिंसा बतलाते हुए इसे उचित ठहराया।
सन् 1917 से सन् 1947 तक अहिंसात्मक सत्याग्रह का गाँधी ने अकाट्य रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया। भारत में चंपारण सत्याग्रह के दौरान इसका राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए गाँधी ने अंग्रेज़ी सरकार के समक्ष दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न की क्योंकि उन्हें यह पता था कि अत्यंत शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता को शक्ति की बदौलत चुनौती नहीं दी जा सकती थी। अगर ऐसा किया जाता, तो ब्रिटिश सत्ता को आन्दोलन के बलपूर्वक दमन का अवसर मिल जाता और इसके आधार पर वह अपनी दमनात्मक कार्रवाईयों का औचित्य सिद्ध करने में सक्षम होती। इसके विपरीत यदि आन्दोलन का स्वरुप अहिंसक होता, तो ब्रिटिश सत्ता के सामने यह दुविधा होती कि वह आन्दोलन का दमन करे, या शांतिपूर्ण अहिंसक आन्दोलन को अनुमति प्रदान करे। यदि आन्दोलन का दमन किया जाता, तो इससे ब्रिटिश शासन के नैतिक स्वरुप पर प्रश्न उठता और यदि आन्दोलन का दमन नहीं किया जाता, तो आन्दोलन आगे बढ़ता एवं भारतीयों के मानस-पटल पर औपनिवेशिक सत्ता का जो भय विद्यमान था, वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाता और ऐसी स्थिति में औपनिवेशिक सत्ता का लम्बे समय तक बना रहना मुश्किल होता। गाँधी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिये औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष जो दुविधापूर्ण स्थिति सृजित की, अंत-अन्त तक उसकी काट नहीं ढूँढी जा सकी और अंग्रेजों को महज तीन दशक के अन्दर भारत छोड़कर जाना पड़ा।
जहाँ तक आन्दोलन की रणनीति के रूप में अहिंसात्मक सत्याग्रह का प्रश्न है, तो इसने आन्दोलन के अहिंसक स्वरुप को सुनिश्चित करते हुए इसमें महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित की। अगर आन्दोलन का स्वरुप हिंसक होता, तो शायद इनकी इस स्तर पर भागीदारी संभव नहीं हो पाती। इतना ही नहीं, किसी भी हिंसक आन्दोलन को लम्बे समय तक चलाना और उसके लिए जनता के उत्साह एवं ऊर्जा को बनाये रख पाना आसान नहीं होता। इस प्रकार अगर गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार का विस्तार संभव हो सका और इसका जनांदोलन में रूपांतरण संभव हो सका, तो इसमें सत्याग्रह की रणनीति की अहम् एवं निर्णायक भूमिका रही।
संघर्ष-तैयारी-संघर्ष की गाँधीवादी रणनीति:
इतना ही नहीं, जन-नेता होने के कारण गाँधी जनांदोलन की सीमा से वाकिफ थे। वे जानते थे कि एक समय के बाद आन्दोलन में शामिल जनता की ऊर्जा चूकने लगती है और ऐसी स्थिति में आन्दोलन बिखरने लगता है। इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि इससे पहले जनता की ऊर्जा चूकने लगे और आन्दोलन बिखरने लगे, नेतृत्व को चाहिए कि सत्ता से मोलभाव करते हुए जहाँ तक संभव हो सके, रियायतें हासिल करते हुए आन्दोलन को वापस ले ले। इससे आन्दोलनकारी जनता के मनोबल को भी बनाये रखना संभव होगा और अगले आन्दोलन के लिए बेहतर तैयारी भी संभव हो सकेगी। यही कारण है कि जब भी आन्दोलन चरम पर रहा, गाँधी ने मोलभाव करने का बेहतर समय जान सरकार से बातचीत शुरू की और इससे पहले कि आन्दोलन में बिखराव आये, उसे वापस ले लिया: जिसके कारण कुछ लोगों या समूहों को गाँधी का फैसला नागवार लगा और उन्होंने उनपर मनमाने तरीके से आन्दोलन शुरू करने एवं वापस लेने के आरोप लगाये। इस सन्दर्भ में स्वयं गाँधी ने कहा है कि “मैं एक जननेता हूँ और जननेता होने के नाते मुझे पता है कि जनता के दिमाग में क्या चल रहा है।“ आन्दोलन वापस लेने के बाद अक्सर गाँधी चरखा, छूआछूत, स्वच्छता, शिक्षा आदि से जुड़ी रचनातमक गतिविधियों में लग जाते थे, ताकि जनता की ऊर्जा को संयोजित करते हुए उसे एक बार फिर से अगले आन्दोलन के लिए तैयार किया जा सके और राष्ट्रीय चेतना का प्रचार-प्रसार करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार को भी विस्तार दिया जा सके। इसीलिए बिपनचंद्रा ने गाँधी की राष्ट्रीय आन्दोलन की रणनीति की व्याख्या संघर्ष-तैयारी-संघर्ष की रणनीति के रूप में की है। यही कारण है कि पूरे गाँधीवादी चरण के दौरान या तो आन्दोलन चल रहा होता, या फिर रचनात्मक कार्यक्रम के बहाने राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार के जरिये अगले आन्दोलन की तैयारी चल रही होती। विशेष रूप से रचनात्मक कार्यक्रमों के साथ-साथ धरना, विरोध-सभा, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, प्रभात-फेरी आदि को सफल बनाने में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण एवं निर्णायक रही
क्रम
सम्बद्ध क्षेत्र
रचनात्मक कार्यक्रम
1.

2.

3.
समाज-सुधार
आर्थिक कार्यक्रम
सांस्कृतिक कार्यक्रम 
हिन्दू-मुस्लिम एकता,महिला-उत्थान, हरिजन-उत्थान
चरखा और खादी
मूल्य, मर्यादा, नैतिकता एवं अनुशासन पर जोर, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वच्छता आदि   
राष्ट्रीय आन्दोलन को जनांदोलन में तब्दील कर देना:
यह राष्ट्रीय आन्दोलन का जुझारू तेवर और इसकी निरंतरता है जो गाँधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आन्दोलन को नरमपंथियों एवं गरमपंथियों के नेतृत्व में चलने वाले पूर्व के राष्ट्रीय आंदोलनों से अलग करती है। गाँधी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के मुद्दों और टाइमिंग का अत्यंत सावधानीपूर्वक निर्धारण करते हुए इसके अहिंसक स्वरुप को सुनिश्चित किया और इसके जरिये इसमें समाज के सभी समूहों की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए इसे जनांदोलन में तब्दील कर दिया। इसमें खिलाफत और नमक जैसे मुद्दों की अहम् एवं निर्णायक भूमिका रही। साथ ही, इन्होंने राजनीतिक को पूर्णकालिक गतिविधियों में तब्दील कर दिया। अब राष्ट्रीय आन्दोलन सालों भर चलने वाले आन्दोलन में तब्दील हो गया। यह सब संभव हो सका उन संगठनात्मक बदलावों के कारण, जिन्हें 1920 ई. में नागपुर अधिवेशन के दौरान मंजूरी दी गयी और जिनकी दिशा में 1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन के दौरान तिलक ने असफल कोशिश की थी।
गाँधीवादी आन्दोलन और इसकी लोकप्रियता :
गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार का विस्तार हुआ और इसने जनांदोलन का रूप धारण कर लिया। यह इतिहासकारों के बीच आश्चर्य का विषय है कि गाँधी लगभग तीन दशकों तक जनता के बीच लोकप्रिय बने रहे, इस तथ्य के बावज़ूद कि उनके नेतृत्व में होने वाले किसी भी आन्दोलन ने लक्ष्य हासिल करने में सफलता नहीं पायी। इस विरोधाभास की व्याख्या निम्न सन्दर्भों में की जा सकती है:
1.  गाँधी बेहतर पर्यवेक्षक (Observer) थे और उनका अनुभव-संसार भी कहीं अधिक व्यापक था। इसने गाँधी को भारतीय समाज और भारतीय जनता की मनोदशा को समझने में सक्षम बनाया। अपनी इस क्षमता और अपनी इस समझ की बदौलत न केवल गाँधी ने खुद भारतीय राजनीति के शीर्ष पर स्थापित किया, वरन् जनता की नब्ज़ पर बेहतर पकड़ के कारण यह जानने में भी सफल रहे कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है और इसने उन्हें जनता के साथ कनेक्ट करने में सक्षम बनाया। इसने ही उन्हें जननेता बनाया और उन्होंने जनता की शक्ति में अपनी आस्था प्रदर्शित की।
2.  गाँधी ने काँग्रेस का एक ऐसा राष्ट्रीय ढाँचा खड़ा किया जो सालों भर सक्रिय रहता था, जिसके माध्यम से स्थानीय स्तर पर उभर रहे नेतृत्व से भी लगातार संपर्क बनाये रखा जा सकता था और जो जनता से जुड़ी हुई चिंताओं एवं समस्याओं के प्रति सकारात्मक अनुक्रिया कर पाने में समर्थ था। और, इन सबसे महत्वपूर्ण इस संघर्ष की जो भी उपलब्धियाँ होनी थीं, उस सबका श्रेय गाँधी को ही मिलना था।
3.  गाँधी का मानना था कि जनांदोलन का विकास नैतिक संघर्ष के रूप में होना चाहिए। साथ ही, इसमें विचारधारा एवं क्रिया-प्रणाली के बीच कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए। इस आलोक में गाँधी केवल जनता की बात करते ही नहीं थे, वरन् जनता की भाषा में उन्हीं की तरह दिखते हुए उनकी बात करते थे। उनके रूप में भारतीय जनता ने एक ऐसा नेता देखा जिसकी कथनी एवं करनी में कोई अंतर नहीं है और जो सिर्फ मूल्य, नैतिकता एवं अनुशासन पर जोर ही नहीं देता है, वरन् जो उन्हें अपने जीवन में उतारता भी है। ये चीजें गाँधी को सहज ही भारतीय संस्कृति से गहरे स्तर पर सम्बद्ध कर देती थीं और उसे उनसे जुड़ाव महसूस होता था।
4.  गाँधी के रूप में लोगों ने पहली बार एक ऐसा नेतृत्व देखा जो उनके दुःख-दर्द एवं पीड़ा-वेदना को समझता भी है और उसे दूर करने को तत्पर भी है। उन्हें इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्र के हित को जनता के हित से सम्बद्ध करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को जनांदोलन में तब्दील कर दिया। यह स्वाभाविक भी था कि जब जनता खुद से जुड़े मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दे में तब्दील होते देख राष्ट्रीय आन्दोलन की ओर जनता के रुझान का बढ़ना स्वाभाविक ही था।
5.  गाँधी ने आन्दोलन के लिए मुद्दों के चयन में भी सावधानियाँ बरतीं। असहयोग के लिए खिलाफत का प्रश्न हो, या फिर सविनय अवज्ञा के लिए नमक का, या फिर भारत छोड़ो आन्दोलन के लिए ‘करो या मरो’ का: ये सारे मुद्दे जनता के बीच से उठाये गए और इनके आधार पर उन्हें इकठ्ठा करने की कोशिश की गयी।
6.  गाँधी की कार्य-शैली ने भी उन्हें जनता के बीच अपर लोकप्रियता प्रदान की। चाहे गाँधी के द्वारा बार-बार राम-राज्य का उल्लेख हो, या मानस के उद्धरणों का प्रयोग; चाहे उनके द्वारा लंगोट धारण करना हो, या फिर    रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा करना; चाहे जनता से जनता की भाषा में बात करने का हो, या फिर लोकजीवन से जुड़े प्रतीकों का प्रयोग; और इन सबसे बढ़कर गाँधी का रोमांटिक करिश्माई व्यक्तित्व एवं उनके सन्दर्भ में प्रचलित मिथक के साथ-साथ किंवदंतियाँ: इन सबने गाँधी को जीते-जी मिथक में तब्दील कर दिया और जनता उनसे जुड़ती चली गयी।
7.  गाँधी एक कुशल प्रबंधक भी थे और उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये अपने जनाधार को मजबूती प्रदान करने की कोशिश निरंतर जारी रखी। रचनात्मक कार्यक्रमों में उन्होंने महिलाओं एवं हरिजनों से जुड़े हुए मुद्दों को तरजीह दी और इन मुद्दों ने इन दोनों समूहों के बीच गाँधी की पैठ निरंतर बढ़ाई। हिन्दू-मुस्लिम एकता तो उनके एजेंडे में हमेशा से शीर्ष पर रहा है।
8.  गाँधी के नेतृत्व में चलने वाला आन्दोलन भले ही अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को हासिल कर पाने में समर्थ नहीं रहा, लेकिन उनके हर आन्दोलन के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन एक कदम आगे बढ़ा और कुछ-न-कुछ उपलब्धियाँ भी उसके नाम रही। इसी कारण गाँधी के नेतृत्व में जनता की आस्था बनी रही। अंततः उनके नेतृत्व में और उनके नक्शेकदम पर चलते हुए ही भारत को आज़ादी मिली।
आन्दोलन के विभिन्न तत्वों के आलोक में गाँधीवादी आंदोलनों का मूल्यांकन:
राष्ट्रीय राजनीति में गाँधी के आविर्भाव के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वरुप, विचारधारा, सामाजिक आधार एवं दिशा में निर्णायक परिवर्तन आता है और यह परिवर्तन राष्ट्रीय आन्दोलन को तार्किक परिणति तक पहुँचाता है। शायद यही कारण है कि सन् 1919, जबसे गाँधी का राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश होता है, से लेकर सन् 1947, जब भारत को आज़ादी मिली, तक के कालखंड को भारतीय इतिहास में राष्ट्रीय आन्दोलन का गाँधीवादी चरण माना जाता है।
यदि उद्देश्यों के आलोक में देखा जाय, तो गाँधी के नेतृत्व में चाहे क्षेत्रीय स्तर पर होने वाले आन्दोलन हों अथवा राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले आन्दोलन; उनमें उद्देश्यों के स्तर पर स्पष्टता दिखाई पड़ती है। 1920 ई. में शुरू असहयोग आन्दोलन के ले सन्दर्भ में गाँधी ने एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्ति का लक्ष्य रखा, तो 1930 के दशक के आरम्भ में शुरू होनेवाले सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति को और 1940 के दशक के आरम्भ में होनेवाले भारत छोड़ो आन्दोलन के सन्दर्भ में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ एवं इसके लिए ‘करो या मरो’; यद्यपि यह भी सच है कि अगर भारत छोड़ो आन्दोलन को छोड़ दें, तो इन उद्देश्यों को लेकर गाँधी ने आग्रहशीलता नहीं प्रदर्शित की। उन्होंने लोचशीलता प्रदर्शित करते हुए औपनिवेशिक सत्ता के साथ मोल-भाव की सम्भावना को बनाये रखा।
गाँधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को न केवल सांगठनिक ढाँचा प्रदान किया, वरन् इसके जरिये स्थानीय स्तर पर नेतृत्व के उभार की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करते हुए स्थानीय नेतृत्व एवं राष्ट्रीय नेतृत्व के बीच बेहतर तालमेल को सुनिश्चित किया। इसने काँग्रेस को सही मायने में एक अखिल भारतीय संगठन में तब्दील करते हुए अखिल भारतीय आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करने की स्थिति में ला दिया। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन का भौगोलिक आधार भी विस्तृत हुआ और सामाजिक आधार भी। अबतक बंगाल और महारष्ट्र राष्ट्रीय आन्दोलन के गढ़ रहे, लेकिन गाँधी के नेतृत्व में यह फोकस बिहार और गुजरात की ओर शिफ्ट करता दिखाई पड़ता है जन-शक्ति में उनकी आस्था और जनता की नब्ज़ पर उनकी पकड़ ने ऐसे मुद्दों को पहचानने, जो जनता के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे, और इसके आधार पर आम लोगों को संगठित करते हुए आन्दोलन की प्रभावशीलता को सुनिश्चित करने में उनकी मदद की। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि समाजवादियों और वामपंथियों के तमाम दबाव के बावजूद 1939 ई. में गाँधी किसी आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार नहीं हुए और गाँधी की मर्जी के विरुद्ध काँग्रेस ने अध्यक्ष के रूप में गाँधी द्वारा समर्थित पट्टाभिसीतारमैया के बजाय सुभाष चन्द्र बोस को चुना, फिर भी सुभाष किसी आन्दोलन को खड़ा कर पाने में असमर्थ रहे। इसी प्रकार 1942 ई. में काँग्रेस कार्यसमिति ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के गाँधी के प्रस्ताव को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं थी, तो काँग्रेस को धमकी देते हुए गाँधी ने कहा था कि ‘अगर काँग्रेस उनके प्रस्ताव का समर्थन नहीं करती है, तो वे देश के बालू से काँग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा करेंगे।’ गाँधी के दबाव में काँग्रेस कार्यकारिणी समिति को उनका प्रस्ताव पारित करना पड़ा और इसका परिणाम भारत छोड़ो आन्दोलन के रूप में हुआ जो गाँधी के नेतृत्व में होने वाले आन्दोलनों में सबसे अधिक प्रभावी एवं निर्णायक साबित हुआ। इसके अतिरिक्त, इसमें दो आंदोलनों के बीच की अवधि में चलाये जाने वाले रचनात्मक कार्यक्रमों ने भी अहम् एवं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई भर नहीं रहने दिया, वरन् सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मुक्ति की लड़ाई में तब्दील करते हुए इसमें व्यापक जन-भागीदारी को सुनिश्चित किया।
गाँधी के पहले तक राष्ट्रीय आन्दोलन में जन-भागीदारी सीमित स्तर पर था। नरमपंथियों के समय राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रकृति अगर अभिजातवर्गीय थी और उसका एजेंडा भी उसी के अनुरूप निर्धारित हुआ, तो गरमपंथियों के समय इसका आधार उच्च मध्यवर्ग तक फैला और राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रकृति अभी भी बहुत हद तक अभिजातवर्गीय ही बनी रही। इसीलिए यह औपनिवेशिक सत्ता पर एक सीमा से अधिक दबाव उत्पन्न कर पाने में असमर्थ रहा। लेकिन, गाँधी के आगमन के साथ इसकी मूल प्रकृति में भी परिवर्तन आता है और इसके एजेंडे में भी। चंपारण एवं खेड़ा के जरिये अगर किसानों को इससे जोड़ने में मदद मिली, तो अहमदाबाद के जरिये मजदूरों को। खिलाफत के मसले पर मुसलमानों को इससे जोड़ा गया, तो मंदिर-प्रवेश आंदोलनों के जरिये दलितों को। आन्दोलन के अहिंसक स्वरुप को सुनिश्चित करते हुए इसमें बच्चों, बूढ़ों एवं महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। स्पष्ट है कि गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के संगठन, विचारधारा एवं कार्यक्रम के स्तर में बुनियादी बदलाव आये और इसने राष्ट्रीय आन्दोलन की दशा एवं दिशा को परिवर्तित कर दिया।