Tuesday, 23 June 2020

पड़ोसी देशों के प्रति भारतीय नीति: पंचशील


पड़ोसी देशों के प्रति भारतीय नीति: पंचशील
प्रमुख आयाम
1. पंचशील फिर से चर्चा में
2.  पंचशील की पृष्ठभूमि
3.  पंचशील से आशय
4.  पंचशील का आविर्भाव
5.  पश्चिमी कूटनीतिक वर्चस्व में एशियाई दखल
6.  पंचशील-विवाद: चीनी दावा और उसकी अहमियत
7.  पंचशील: नेहरु का रुख
8.  भारत और पंचशील
9.  पंचशील की भ्रूण-ह्त्या
10.  नेहरुवादी विदेश-नीति का पुनर्परिभाषित होना: 1990’s

पंचशील फिर से चर्चा में:
मई,2014 में भारत का प्रधानमंत्रित्व सँभालने के बाद नरेन्द्र मोदी ने क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में जो सक्रियता दिखलायी, उसने कइयों को हतप्रभ कर दिया। नेहरु के बाद शायद ही किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में इतने कम समय में अपने धमक महसूस करवाई हो। इस क्रम में उन्होंने ‘पड़ोस प्रथम’ की बात करते हुए नेपाल और भूटान को कहीं अधिक तवज्जो दिया। साथ ही, उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा चीन पर केन्द्रित करते हुए उसके साथ भारत के संबंधों में सुधार को प्राथमिकता दी। ऐसा लगा कि भारत-चीन द्विपक्षीय सम्बन्ध एक बार फिर से 1950 के दशक के पूर्वार्द्ध में ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ वाली मनोदशा में पहुँच चुका है। आर्थिक कूटनीति और इसके परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित होती भू-राजनीति के इस दौर में यह अस्वाभाविक नहीं था, अस्वाभाविक था उस सबक को भूलना जो सन् 1962 में चीन के हाथों मिला। इसलिए देर-सबेर इसकी सजा तो मिलनी ही थी और वो मिली भी, जून,2020 में पूर्वी लद्दाख स्थित गलवान घाटी में, जहाँ चीनी सैनिकों के हाथों भारत के बीस सैनिक अत्यन्त बर्बर तरीके से शहीद हुए। उसके बाद पूरे देश में एक ऐसा माहौल सृजित हुआ जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चीन को लेकर अत्यन्त उदार एवं नरम रुख अपनाने के लिए आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू हुई। लेकिन, इसी की पृष्ठभूमि में बायकॉट चाइना ने चीन-विरोधी माहौल सृजित करते हुए उत्तेजना का जो वातावरण निर्मित किया, उसमें सीमा-विवाद के हल के लिए एक बार फिर से पंचशील की चर्चा शुरू हुई और इस चर्चा ने मृतप्राय पंचशील को एक बार फिर से पुनर्जीवित किया, यद्यपि बदले हुए रूपों में पंचशील पिछले सत्तर वर्षों के दौरान अपना कायांतरण करता रहा है, कभी गुजराल डॉक्ट्रिन के रूप में, तो कभी नेवरहुड फर्स्ट पॉलिसी के रूप में। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें ‘पंचशील’ के प्रश्न पर एक बार फिर से विचार और इसकी प्रासंगिकता का पुनर्निर्धारण अपेक्षित हो जाता है।         
पंचशील की पृष्ठभूमि:
सन् 1947 में आज़ाद होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में भारत ने अपने समक्ष मौजूद जटिल चुनौतियों को समझा और उन चुनौतियों से निबटने के लिए बाह्य मोर्चे पर उलझने से बचने की आवश्यकता महसूस की। उसने महसूस किया कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर एवं शांतिपूर्ण सम्बन्ध को सुनिश्चित किये बिना ऐसा संभव नहीं है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत ने उन चुनौतियों, जो करीब दो सौ वर्षों के औपनिवेशिक शोषण एवं उत्पीड़न शीत-युद्ध  से उपजी हुई थीं और जिनसे तत्काल निपटना किसी भी ऐसे देश के लिए अत्यन्त आवश्यक था जो अभी-अभी स्वतंत्र हुआ है, से निपटने के लिए घरेलू मोर्चे पर ध्यान केन्द्रित करने की रणनीति अपनायी। इसी रणनीति के तहत् गुटों में बँटी और शीत-युद्ध का दंश झेल रही दुनिया की चुनौतियों से भारत को बचाने के लिए गुट-निरपेक्षता की रणनीति अपनायी और पड़ोसी देशों के साथ उलझने से बचने के लिए एवं बेहतर सम्बन्ध को सुनिश्चित करने के लिए पंचशील के सिद्धांतों का अनुसरण किया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत ने पंचशील एवं गुट-निरपेक्षता को अपनी विदेश-नीति का आधार बनाया।
पंचशील से आशय:
वामपंथी चिन्तक भगवान प्रसाद सिन्हा ने ‘पंचशील’ शब्द की व्युत्पत्ति की ओर इशारा करते हुए लिखा है, “दरअसल, पंचशील शब्द मूलतः बौद्ध साहित्य एवं दर्शन से जुड़ा शब्द है। चौथी-पाँचवी शताब्दी के बौद्ध दार्शनिक बुद्धघोष की पुस्तक ‘विशुद्धमाग्गो’ में ‘पंच-शील’ की विस्तृत चर्चा है जिसके अनुसरण की अपेक्षा बौद्ध-धर्म के अनुयायियों से की गयी।” 20वीं सदी में इंडोनेशिया के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के क्रम में डॉक्टर अहमद सुकर्णो ने बौद्ध-परंपरा से इस शब्द को उठाते हुए इन्हीं पाँच सिद्धांतों की बुनियाद पर डच अधिपतियों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी, और जून,1945 में इन्हीं पाँच सिद्धांतों के आधार पर अपने राष्ट्र की बुनियाद खड़ा करने का उद्घोष किया। उस समय उसे वहाँ की भाषा में ‘पंत्ज-सील’ (Five Principles) की संज्ञा दी गयी और उसके अंतर्गत राष्ट्रवाद, मानवतावाद, स्वाधीनता, सामाजिक न्याय और ईश्वर-आस्था की स्वतंत्रता को स्थान दिया गया।
पंचशील का आविर्भाव:
बाद में, सन् 1950 के दशक के मध्य में भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन के चाऊ एन लाई और म्याँमार के तत्कालीन प्रधानमंत्री यू नू के साथ मिलकर पंचशील की प्रस्तावना की बौद्ध-दर्शन के इतिहास और इंडोनेशिया के राष्ट्रीय परिदृश्य से अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में इस शब्द को लाने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को जाता है जब 29 अप्रैल,1954 को पीकिंग में भारत और चीनी तिब्बत क्षेत्र के बीच व्यापार एवं पारस्परिक मेल-जोल पर (नोटों के आदान-प्रदान के साथ) समझौता सम्पन्न हुआ। इस समझौते में द्विपक्षीय संबंधों के साथ-साथ अन्य देशों के साथ पारस्परिक संबंधों में भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया और इन्हें ‘पंचशील’ का नाम दिया गया। पंचशील का स्वरुप इसी समझौते से उभर कर सामने आया जिसमें निम्न बातें की गईं:
1.  एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता, अखंडता एवं संप्रभुता के प्रति सम्मान का भाव;
2.  शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व: अर्थात् एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारते हुए शांति बनाये रखना
3.  अहस्तक्षेप की नीति: अर्थात् एक-दूसरे के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना
4.  अनाक्रामकता: अर्थात् एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करना, और
5.  पारस्परिक लाभ के लिए समानता-पूर्ण सहयोग
और दोनों देशों से यह अपेक्षा की गयी कि वे पंचशील के इन सिद्धांतों का पालन करेंगे। आगे चलकर, पंचशील के इस सिद्धांत ने गुटनिरपेक्षता की नीति के रूप में तार्किक परिणति प्राप्त की और उसका मार्गदर्शक आधारभूत सिद्धांत बन गया। दूसरे शब्दों में कहें, तो गुटनिरपेक्षता की नीति वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पंचशील की नीति का ही विस्तारित रूप है और इस रूप में इसने शीतयुद्ध काल में उपनिवेश के चँगुल से मुक्त हुए तीसरी दुनिया के नव-स्वतंत्र देशों की संप्रभुता एवं अखंडता के लिए रक्षा-कवच का काम किया।
पश्चिम के कूटनीतिक वर्चस्व में एशियाई दखल:
भगवान प्रसाद सिन्हा ने ‘पंचशील’ की संकल्पना को पश्चिम के वर्चस्व वाले अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक परिवेश में एशियाई दखल के रूप में देखा है और इसे एशियाई अस्मिताबोध, जिसके भाव पंडित नेहरु से लेकर चाउ एन लाई और डॉ. सुकर्णों तक में मौजूद थे, से सम्बद्ध किया है। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो “इस रूप में इस शब्द का ओरियंटल मूल पश्चिम के वर्चस्व वाली दुनिया में गौरवान्वित करनेवाले सांस्कृतिक अस्मिताबोध का एहसास कराता है। भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लिए यह शब्द विश्व सभ्यता को भारतीय संस्कृति का तोहफ़ा था। चीन के लिए यह शब्द बौद्ध- मूल का था जो चीन के इतिहास से अभिन्न रूप से उसी तरह जुड़ा था जैसे भारत की संस्कृति के साथ। इंडोनेशिया के लिए यह उसकी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा था। पहली बार नेहरू ने इंटरनेशनल डिप्लोमेसी में न केवल नए मुहावरे दिए, वरन् उसके दर्शन को परिभाषित भी किया।”
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि सन् 1954 में इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री अली शास्त्रोमिद्ज्स्जो के दिल्ली-आगमन पर उनके सम्मान में दिये भोज के अवसर पर पंडित नेहरू ने पंचशील की चर्चा करते हुए कहा, “इंडोनेशिया के राष्ट्रीय अस्मिता का यह शब्द अब नये अवतार में अभी अस्तित्ववान हुआ है। ..... संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की यह ख़ास संदर्भ में पुनर्अभिव्यक्ति है।” इसी प्रकार अप्रैल,1955 में इंडोनेशिया में आयोजित अफ्रो-एशियाई देशों के बांडुंग सम्मेलन में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने ‘पंचशील-सिद्धांत’ के ‘एशियाईपन’ पर जोर देते हुए इसके सार्वभौमिक महत्व पर बल दिया था, और इसमें शामिल 23 अफ्रीकी-एशियाई देशों ने पंचशील के सिद्धांत की बुनियाद पर प्रत्येक देश को स्वयं एवं सामूहिक रूप से प्रतिरक्षा करने के अधिकार की मान्यता को अंगीकार किया था।
पंचशील-विवाद: चीनी दावा और उसके लिए इसकी अहमियत  
स्पष्ट है कि लोकप्रिय एवं स्वीकृत मान्यताएँ भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को ‘पंचशील’ के प्रतिपादक के रूप में देखती हैं, लेकिन चीन का यह दावा है कि पंचशील की प्रस्तावना चाऊ एन लाई के द्वारा की गयी थी और उन्हीं के आग्रह पर पंचशील को इस समझौते हिस्सा बनाया गया। ऐसा माना जाता है कि चीन की नज़र में पंचशील तिब्बत पर चीनी संप्रभुता को सुनिश्चित करने का साधन था और उसने इसके माध्यम से भारत को यह संदेश देने की कोशिश की कि वह तिब्बत से दूर रहे और चीन की क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता का सम्मान करे। आज भी चीन के लिए पंचशील का मतलब यह है कि भारत तिब्बत और तिब्बती शरणार्थियों के साथ अपने संबंधों को समाप्त करे। ध्यातव्य है कि ब्रिटिश-राज का उत्तराधिकारी होने के नाते भारत को तिब्बत में कई विशेषाधिकार प्राप्त थे जिसे चीन स्वीकारने एवं मान्यता देने के लिए तैयार नहीं था।
इस तरह, अगर देखें, तो पंचशील तिब्बत के मसले पर रणनीतिक दृष्टि से महत्व रखने के अलावा तीन तरीके से चीनी कूटनीतिक हितों को साधने में सहायक था और आज भी है, इस तथ्य के बावजूद कि व्यावहारिक रूप से अब इसकी बहुत अहमियत नहीं रह गयी है,:
1.  एक तो लोकतंत्र एवं मानवाधिकार से लेकर इन्टरनेट एवं गवर्नेंस के मुद्दे पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ चीन के वैचारिक संघर्ष में विरोध में जाने से भारत को रोकना,
2.  दूसरे, भारतीय उपमहाद्वीप में प्रभुत्व स्थापित करने की भारतीय आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना, और
3.  तीसरे, इसके जरिये चीनी खतरे की आशंका को निर्मूल करते हुए एशियाई देशों के उस भय को दूर करने का प्रयास किया गया जो चीन के तेजी से उभार और उसकी बढ़ती हुई आक्रामकता के कारण उनमें प्रवेश कर गया था, ताकि एशिया में शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।
इस रूप में अगर देखा जाए, तो चीन के लिए सामरिक दृष्टि से पंचशील की ज़रुरत आज उससे कहीं अधिक है, जितनी 1950 के दशक में थी; अब यह बात अलग है कि चीन ने अपने कूटनीतिक व्यवहार में पंचशील के आदर्शों का न तो तब अनुसरण किया था और न ही यह उन आदर्शों का अब ही अनुसरण करने के लिए तैयार है।
पंचशील: नेहरु का रुख
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरु और वी. पी. मेनन की बातचीत से इस बात का संकेत मिलता है कि आरम्भ में नेहरु पंचशील को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे और उनके लिए इसकी अहमियत आदर्शवादी सदिच्छाओं के माफिक थी, पर समय के साथ इसके प्रति उनका और भारत का भी नज़रिया बदला। कहा यह जाता है कि जब कृष्णमेनन ने सन् 1954 के समझौते के उस अंश, जिसमें पंचशील का उल्लेख था, को लेकर अपनी ओर से आपत्ति दर्ज की, तो नेहरु ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा था, “यह महज प्रस्तावना है, न कि कोई समझौता। अतः इसमें बहुत कुछ न तलाशा जाय। यह न तो भारतीय विदेश-नीति का हिस्सा है और न ही आधारभूत सिद्धांत।” लेकिन, यह भी सच है कि इसका स्वरुप उभर कर सामने आने के बाद भारत ने चीन के साथ-साथ अपने निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ संबंधों के निर्धारण में पंचशील को मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में अपनाया। इसी का परिणाम था कि भारत ने उस दौर में ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया। साथ ही, आगे चलकर जब गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का आविर्भाव हुआ, तो उसने इसे उसमें भी तवज्जो दिया।  
भारत और पंचशील:
अब पंचशील के मसले पर चीन का दावा चाहे कुछ भी क्यों न हो, पर पंचशील को नेहरु-युग की भारतीय विदेश-नीति की महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा जाता है और इसका श्रेय नेहरु को दिया जाता है। शायद इसका कारण यह है कि
1.  चीन ने इसको लेकर कभी गम्भीरता प्रदर्शित नहीं की,  
2.  भारत ने अपनी विदेश-नीति को और विशेष रूप से पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधों को पंचशील पर आधारित बनाया, और  
3.  अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज़ पर नेहरु का कद और उनकी विश्वसनीयता उनके चीनी समकक्षों पर भारी पड़ती थी।
ऐसा माना जाता है कि गुटनिरपेक्षता की नीति भी पंचशील का ही विस्तारित रूप है जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक लोकप्रियता मिली और स्वीकृति भी। आगे चलकर इसे ही 1990 के दशक के मध्य में देवगौड़ा-सरकार के द्वारा ‘गुजराल-डॉक्ट्रिन’ (Gujral Doctrine) के रूप में और सन् 2014 में मोदी-सरकार के द्वारा इसे ही ‘प्रथम पड़ोस की नीति’ (Neighbourhood First Policy) के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया।
पंचशील की भ्रूण-ह्त्या:
कूटनीति में सदाशयता के लिए जगह नहीं होती है। इसकी जगह नीतियाँ राष्ट्रीय हितों से निर्देशित होती हैं। इसकी पुष्टि सन् 1954 की संधि से भी होती है जिसके जरिये भारत ने तिब्बत पर चीनी संप्रभुता को स्वीकारा और चीन में तिब्बत के विलय को औपचारिक मान्यता दी। भारत तिब्बत के सन्दर्भ में कई विशेषाधिकारों को छोड़ने पर भी राजी हुआ और व्यापारियों एवं तीर्थयात्रियों के लिए सीमा तक आसान पहुँच सुनिश्चित की। स्पष्ट है कि इस संधि के जरिये हिमालयी-क्षेत्र में वाणिज्यिक एवं सांस्कृतिक संपर्क को मान्यता प्रदान किया गया।
फिर भी, चीन की इतनी शर्तों को स्वीकार इतनी सारी न तो चीन की शिकायतें दूर नहीं हुईं और न ही चीन ने अपनी विदेश-नीति के निर्धारण में पंचशील को कभी गंभीरता से ही लिया। इससे पहले कि पंचशील व्यावहारिक रूप ले पाता और कूटनीतिक व्यवहार के धरातल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा पाता, यह जन्मदाताओं के लिए बोझ बन गया और उन्होंने उसे उतार फेंकने में ही अपनी भलाई समझी। 1960 के दशक के आरम्भ में भारत और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु चीन और चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई से गुहार लगते रहे और पंचशील की दुहाई देकर सीमा-विवाद के समाधान की अपील करते रहे, पर उनकी एक नहीं सुनी गयी। परिणाम यह हुआ कि भारत-चीन युद्ध,1962 ने पंचशील का मृत्यु घोषणा-पत्र लिख दिया, यद्यपि सैद्धांतिक रूप से भारत ने इसे अपनी विदेश नीति का हिस्सा बनाये रखा।
भले ही सन् (1954-1991) के दौरान भारत ने पंचशील की नीति को अपने विदेश-नीति का आधार बनाया हो, पर इस दौरान दो ऐसे मौके आये जब इसने इसके प्रतिकूल आचरण किया:
a.  सन् 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के मसले पर इसने बांग्लादेश-मुक्ति संग्राम में विद्रोहियों के पक्ष में हस्तक्षेप किया जिसकी परिणति बंगलादेश के उदय के रूप में हुई, और
b.  सन् 1987 में भारतीय शांति-सैनिकों को श्रीलंका भेजा जाना एवं तमिल विदोहियों के खिलाफ उनकी कार्रवाई, जिसकी परिणति लिट्टे से शत्रुता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या के रूप में हुई
चीन ने भी इसका इस्तेमाल अपने रणनीतिक हितों को साधने के लिए किया और अपनी सुविधा के हिसाब से पंचशील को अपनाया, या फिर ठण्डे बस्ते में डाल दिया। अबतक उसने पंचशील का सहारा लेते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के अंतर्गत आने वाले दक्षिण एशियाई देशों में उस राजनीतिक नेतृत्व को समर्थन दिया है जो भारतीय दबाव के विरुद्ध खड़ा होना चाहते हैं। शायद इसीलिए भारत भी तिब्बत के जरिये चीन पर अपने दबाव को बनाये रखना चाहता है। इसीलिए अक्सर चीन भारत पर तिब्बत के मामले में हस्तक्षेप का आरोप लगाता रहा है और भारत ने भी चीन पर पूर्वोत्तर भारत में उपद्रवियों एवं नक्सलियों के समर्थन का आरोप लगाटा रहा है। इसे हाल के सन्दर्भों में भी देखा जा सकता है: मसला चाहे मालदीव में भूतपूर्व राष्ट्रपति मो. नशीद के विरुद्ध अब्दुल्ला यामीन के खुलकर समर्थन का हो, या फिर भूटान में लोटे शिरींगे के नेतृत्व वाले समाजवादी रुझान रखने वाले मध्यमार्गी राजनीतिक दल के समर्थन का; मसला चाहे नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (एमाले) एवं के. पी. ओली के समर्थन का हो, या फिर श्रीलंका में रनिल विक्रमसिंघे के विरुद्ध महिन्दा राजपक्षे के समर्थन का। पाकिस्तान की तो बात ही छोड़ दी जाए। म्याँमार और बंगलादेश भी इसके अपवाद नहीं हैं।    
नेहरुवादी विदेश-नीति का पुनर्परिभाषित होना
सन् 1990 में सोवियत संघ के विघटन और साम्यवादी ब्लॉक के बिखराव के साथ भारत के समक्ष यह चुनौती उत्पन्न हुई कि वह बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित करने की कोशिश करे और इसके कारण जो नवीन चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं, उनसे निबटने की कोशिश करे। इसके लिए आवश्यकता थी भारतीय विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करने की। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि अबतक:
1.  भारत की विदेश-नीति पश्चिम के बड़े देशों की ओर उन्मुख थी,
2.  उसका रुझान यथार्थ की बजाय आदर्शों की ओर कहीं अधिक था, और
3.  उसमें अबतक इसके छोटे पड़ोसी देशों को अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया था।

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सन् 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारतीय विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करते हुए नेहरु-युग की विदेश-नीति से दूर ले जाने की कोशिश शुरू हुई, ताकि:
1.  इसे यथार्थ पर आधारित बनाया जा सके,
2.  बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित किया जा सके, और
3.  राष्ट्रीय हितों को बेहतर तरीके से संरक्षित किया जा सके।
इसी आलोक में पहले नरसिंहा राव की सरकार ने लुक ईस्ट पॉलिसी (Look East Policy) की घोषणा करते हुए भारत के दक्षिण-पूर्व एशियाई पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार किया और फिर, सन् 1996-97 के दौरान देवगौड़ा-सरकार में विदेश-मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल ने गुजराल-डॉक्ट्रिन के जरिये भारत के दक्षिण एशियाई छोटे पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार करते हुए भारतीय विदेश-नीति को उनकी और कहीं ज्यादा अभिमुख किया।      

Sunday, 21 June 2020

‘बॉयकॉट चाइना’: मिथक या यथार्थ


‘बॉयकॉट चाइना’: मिथक या यथार्थ
(भारत पर कसता चीनी शिकंजा)
प्रमुख बिंदु
1.बायकॉट चाइना’ से आशय
2.हालिया सन्दर्भ
3.बायकॉट चाइना’ की दिशा में हालिया पहल
4.‘बॉयकॉट चाइना’ अभियान की असलियत
5.अभियान की आर्थिक व्यवहार्यता
6.तात्कालिक सन्दर्भों में मुश्किलें
7.तकनीकी अवरोध
8.विशेषज्ञों की राय
9.दीर्घकालीन रणनीति की आवश्यकता
10.         
राजीव गाँधी के नेतृत्व में भारत की चीन-नीति में परिवर्तन के बाद सीमा-विवाद को पृष्ठभूमि में रखते हुए आर्थिक-व्यापारिक धरातल पर भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध बेहतर होते चले गए और इसके परिणामस्वरूप पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान चीन करीब 96 बिलियन अमेरिकी डॉलर (सन् 2018) के द्विपक्षीय व्यापार के साथ भारत के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार रूप में उभरकर सामने आया। यह बतलाता है कि पिछले तीन दशकों के दौरान भारत की चीन पर आर्थिक एवं व्यापारिक निर्भरता बढ़ती चली गयी है। अगर द्विपक्षीय व्यापार की प्रकृति पर गौर करें, तो भारत के निर्यात की तुलना में आयात करीब ढ़ाई गुना है, व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है और भारत जहाँ तैयार माल का आयात कर रहा है, वहीं कच्चे माल का निर्यातचीन के साथ बढ़ता हुआ व्यापार-घाटा और चीन से बढ़ता हुआ निवेश इस बात का प्रमाण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर चीनी शिकंजा कसता चला जा रहा है। इससे इस बात का भी संकेत मिलता है कि इसके कारण आने वाले समय में भारतीय संप्रभुता पर चीनी खतरे बढ़ने की संभावना है। यह चिंता वाज़िब ही है और भारत को देर-सबेर इस चिंता का समाधान ढूँढना ही होगा, अन्यथा उसके लिए एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में व्यवहार करना मुश्किल होता चला जाएगा। इसीलिए भारत में इसके विरोध लगातार आवाजें उठती रहती हैं और जब-जब भारत-चीन के राजनीतिक संबंधों में तनाव उत्पन्न होते हैं, तब-तब ‘बायकॉट चाइना’ की माँग तेज़ होती चली जाती है।
बायकॉट चाइना’ से आशय:
‘बायकॉट चाइना’ से आशय है चीनी उत्पादों के बहिष्कार से। पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक अंतराल पर ‘बायकॉट चाइना’ की अपील की जाती है और इसके नाम पर चीनी उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चलाया जाता है। यह अभियान कुछ तो भारत की आर्थिक ज़रुरत है और कुछ हमारी सरकार की राजनीतिक ज़रुरत। चीन से बढ़ते हुए आयात और बढ़ता हुआ व्यापार-घाटा इसे आर्थिक औचित्य प्रदान कर रहा है। इसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रवाद के उभार और सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक ज़रूरतों ने ‘बायकॉट चाइना’ अभियान के राजनीतिकरण को संभव बनाया। व्यावहारिक धरातल पर इसकी अहमियत सिर्फ इतनी थी कि इसके जरिये चीन पर दबाव बनाकर चीन को भारत से आयात को प्रोत्साहित करते हुए व्यापार-घाटे को थोड़ा कम करने की कोशिश की जाती, पर इस मसले के राजनीतिकरण ने इसकी इस अहमियत को भी समाप्त कर दिया। इसके उलट, इसने चीन की प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई की सम्भावना को बल प्रदान किया। मतलब यह कि इसके फायदे हों अथवा नहीं, पर इसने इसके घाटे की सम्भावना को ज़रूर जन्म दिया।
हालिया सन्दर्भ:
जून,2020 में पूर्वी लद्दाख के पेंगोंग झील के भारतीय हिस्से की गलवान घाटी वाले इलाके में चीनी घुसपैठ का दुखद एवं त्रासद अंत हुआ जिसमें भारतीय सेना के 20 जवान चीनी सैनिकों के हाथों अत्यन्त बर्बर तरीके से शहीद हो गए। इस घटना ने पूरे भारत को उद्वेलित किया और चीन के विरुद्ध जनाक्रोश अपने चरम पर पहुँच गया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसने ‘बायकॉट चाइना’ अभियान को एक बार फिर से हवा दिया है और इसके बहाने चीन के विरुद्ध आर्थिक मोर्चा खोलते हुए व्यापारिक युद्ध का शंखनाद किया गया। बचा-खुचा काम राजनीति ने कर दिया। उसने यह धारणा सृजित की, मानो चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से उसकी आर्थिक कमर टूट जाएगी और वह घुटनों के बल झुककर भारत की शर्तों पर सीमा-विवाद का हल स्वीकार करेगा। शायद यह अबतक की सबसे तेज़ आवाज़ है जिसकी अनदेखी आसान नहीं होगी। लेकिन, भले ही आबादी का एक हिस्सा समय-समय पर इसके पक्ष में खड़ा होता रहा हो और उसका यह मानना हो कि भारतीय नागरिकों को चीन का माल खरीदने से बचना चाहिए, पर प्रश्न यह उठता है कि चीन कई साथ होने वाले हर विवाद के साथ ‘बायकाट चाइना’ की बात करना कहाँ तक उचित है? जिस तरह से नई दिल्ली और बीजिंग के बीच कारोबारी रिश्ते मजबूत हैं और हम पारस्परिक निर्भरता के जिस दौर में जी रहे हैं, उसमें ‘बायकॉट चीन’ को ज़मीनी धरातल पर उतारना क्या सम्भव है? क्या सरकार वाकई इसको लेकर गंभीर है? इस आलेख में इन्हीं प्रश्नों पर विचार किया जाएगा।
‘बायकॉट चाइना’ की दिशा में हालिया पहल:
‘बायकॉट चीन’ की मजबूत होती जनभावना के बीच केंद्र सरकार ने दूरसंचार क्षेत्रों में चीनी कम्पनियों पर पूर्ण पाबन्दी की दिशा में पहल करते हुए बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को यह निर्देश जारी किया कि वे 4जी के लिए चीन की कंपनियों को टेंडर जारी न करें। टेलीकॉम विभाग का कहना है कि चीन के उपकरणों से नेटवर्क की सुरक्षा ख़तरे में रहेगी। सूत्रों का ये भी कहना है कि भारत के नेटवर्क अपग्रेड योजना में चीन की ज़ेडटीई और ख़्वावे कंपनी के बने उपकरण विवाद की वजह बन सकते हैं। साथ ही, निजी क्षेत्र की कम्पनियों से भी अपेक्षा की कि वे चीन पर अपनी निर्भरता को कम करें। इसी प्रकार रेल-मंत्रालय ने भी चीनी इंजीनियरिंग कम्पनी के साथ करीब 500 करोड़ रुपये के बड़े करार को रद्द करने का निर्णय लिया। हाल में सरकार ने टायर्स के आयात पर प्रतिबन्ध भी आरोपित किया है। इससे पहले, हाल ही में में भारतीय प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम’ के तहत् ‘वोकल फॉर लोकल’ अभियान चलाये जाने का आह्वान किया। इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार चीन से होने वाले निम्न गुणवत्ता वाले 370 गैर-ज़रूरी उत्पादों की सूची तैयार कर रही है जिनके आयात पर अंकुश लगाए जाने की रणनीति बनाई जा रही है और इसके लिए सुरक्षा एवं गुणवत्ता मानकों को आधार बनाया जाएगा। इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार उन विदेशी कम्पनियों से भी संपर्क कर रही है जो चीन के बाहर वैकल्पिक ग्लोबल सप्लाई चैन की स्थापना को इच्छुक हैं लेकिन, सरकार की यह कोशिश प्रतीकात्मक कहीं अधिक प्रतीत होती है, ताकि चीनी सैनिकों के हाथों शहीद हुए भारतीय जवानों की मौत और इसको लेकर केंद्र सरकार के रवैये से उपजे आक्रोश का सुरक्षित तरीके से प्रबंधन करते हुए उसके प्रतिकूल राजनीतिक परिणामों की संभावनाओं को निरस्त किया जा सके और इसके कारण अपने ऊपर सृजित दबावों को कम किया जा सके।
‘बॉयकॉट चाइना’ अभियान की असलियत:
अगर सरकार इसको लेकर गम्भीर होती, तो पिछले छः वर्षों के दौरान इसने इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति तैयार करते हुए उन्हें व्यावहारिक धरातल पर उतारने की गंभीर पहल की होती। लेकिन, वर्तमान सरकार के पिछले छः वर्षों के कार्यकाल में भारतीय आयात में चीन की हिस्सेदारी बढती चली गयी और भारत का व्यापार-घाटा भी बढ़ता चला गया। वित्त-वर्ष (2019-20) में भारतीय आयात में चीन की हिस्सेदारी 14.5 प्रतिशत के स्तर पर थी और वित्त-वर्ष (2018-19) में 4.92 लाख करोड़ के साथ 13.7 प्रतिशत के स्तर पर, जबकि वित्त-वर्ष (2013-14) में यह  3.09 लाख करोड़ के साथ 11.3 प्रतिशत के स्तर पर। अगर भारतीय निर्यात में चीन की हिस्सेदारी की बात करें, तो विवेच्य अवधि वित्त-वर्ष (2013-14:2019-20) के दौरान यह 4.8 प्रतिशत से बढ़कर 5.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गयी। वित्त-वर्ष (2018-19) में 90,809 करोड़ 1.17 लाख करोड़ रुपये (5.1%) का निर्यात चीन को किया गया, जबकि वित्त-वर्ष (2013-14) में यह 90,809 हज़ार करोड़। मतलब यह कि वित्त-वर्ष (2013-14) और वित्त-वर्ष (2018-18) के दौरान चीन के साथ भारत का व्यापार-घाटा 2.19 लाख करोड़ से बढ़कर लगभग 3.74 लाख करोड़ हो गया। जहाँ तक जनता के रुख का प्रश्न है, तो उसे सस्ते उत्पादों से मतलब है। उनके लिए यह बात मायने नहीं रखती है कि वे घरेलू उत्पाद हैं या फिर विदेशी, और विदेशी में ही वे चीनी उत्पाद हैं या फिर अन्य देशों के। स्पष्ट है कि भारत का चीन से बढ़ता हुआ आयात और बढ़ता हुआ व्यापार घाटा ‘बॉयकॉट चाइना’ अभियान को चला रही जनता और इस अभियान को राजनीतिक रूप से भुनाने के लिए तैयार सरकार की असलियत को सामने लाता है।
अगर यह आसान और व्यावहारिक रास्ता होता, तो अमेरिका के खिलाफ चीन भी इस विकल्प को आजमाता दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ पुष्परंजन ने इसकी ओर इशारा करते हुए अमेरिकी-चीन द्विपक्षीय संबंधों का हवाला दिया, “अगर ऐसा होता, तो चीन में भी ‘बायकॉट अमेरिकन’ अभियान चलाया जाता और इसके बहाने अमेरिकी वस्तुओं का बहिष्कार करते हुए अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी जाती जिससे खुद को वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका के समानांतर स्थापित करने का चीनी सपना साकार हो सकता था। चीन को इसके लिए इससे बेहतर मौका नहीं मिलता, क्योंकि वर्तमान में अमेरिका कोरोना की चुनौती का सामना करने में बुरी तरह से उलझा हुआ है और ‘तथाकथित ‘वुहान वायरस’ की प्रतिक्रिया में अमेरिकी शहरों में चीनी नागरिकों पर लगातार हमले हुए हैं। लेकिन, चीन में इसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई पड़ती है। बहुराष्ट्रवाद की डोर थामे चीन में अमेरिकी कम्पनियाँ सुरक्षित कारोबार कर रही हैं। अप्रैल,2020 तक पूरे चीन में विश्व-प्रसिद्ध अमेरिकी कंपनी वालमार्ट वालमार्ट के 402 सुपर सेंटर, और 436 रिटेल यूनिट बिना किसी बाधा के कारोबार कर रहे थे। इतना ही नहीं, (1979-2019) के दौरान चीन में निवेश करने वाली विदेशी कम्पनियों की संख्या सौ से बढ़कर साढ़े तीन लाख से अधिक हो चुकी थीं।”
अभियान की आर्थिक व्यवहार्यता:
निश्चय ही, ‘बायकॉट चाइना’ चीनी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचा पाने में समर्थ है और इसके कारण चीन की मुश्किलें ऐसे समय में बढेंगी, जब चीनी अर्थव्यवथा मुश्किल दौर से गुजर रही है इसकी पुष्टि चीन के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के द्वारा जारी आँकड़ों से भी होती है इसके मुताबिक़, वैश्विक महामारी कोविड-19 के बीच सन् 2020 की पहली तिमाही में चीनी जीडीपी में 6.8% की गिरावट आई है जो सन् 1976 की सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद से चीनी जीडीपी में सर्वाधिक गिरावट है। लेकिन, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ऐसे किसी भी कदम के चीन के सन्दर्भ में प्रभाव सीमित होंगे, जबकि भारत के सन्दर्भ में इसके प्रभाव व्यापक एवं बहुस्तरीय होंगे इसे निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. जहाँ चीनी निर्यात में भारत की भागीदारी महज 3 प्रतिशत के स्तर पर है, वहीं भारतीय निर्यात में चीन की भागीदारी करीब 5.5 प्रतिशत से अधिक के स्तर पर। सन् 2019 में 74.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के साथ भारत की भागीदारी चीन के कुल निर्यात में 3 प्रतिशत रही और यह सातवें स्थान पर था। इसीलिए अगर चीन भारत के ‘बायकॉट चाइना’ की प्रतिक्रिया में अपने नागरिकों और कॉर्पोरेट्स से ‘बायकॉट इण्डिया’ की अपील करता है, तो भारत मुश्किलों में पड़ सकता है, यद्यपि इसकी संभावना कम है क्योंकि चीन इस बात को जानता है कि ऐसे भावनात्मक अपीलों की बहुत अहमियत नहीं है। साथ ही, उसका कारोबारी नजरिया यथार्थपरक है। वह इस बात से वाकिफ है कि अगर इस दिशा में पहल की भी जाती है, तो चीनी सामान रास्ता बदलकर भारत तक पहुँचेगा, और वह इस रणनीति पर पहले से काम कर रहा है।  
2. चीन और चीन के साथ कारोबारी संबंधों की अहमियत उससे कहीं अधिक है जो आँकड़े प्रदर्शित करते हैं क्योंकि चीन से आयात में कमी सीधे-सीधे भारतीय विनिर्माण उद्योंगों के ग्रोथ और उसकी निर्यात संभावनाओं को परोक्षतः ही सही, पर प्रतिकूलतः प्रभावित करेंगी।
स्पष्ट है कि चीन पर भारत की आर्थिक निर्भरता के कारण ‘बायकॉट चाइना’ अभियान की आर्थिक व्यवहार्यता के सन्दर्भ में स्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर फ़र्टिलाइजर्स तक भारत चीन पर निर्भर है और इन क्षेत्रों में ‘मेड इन चाइना’ ‘मेक इन इण्डिया’ का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। सेलफोन, टेलिकॉम, पॉवर, प्लास्टिक के खिलौने एवं औषधि सामग्री के क्षेत्र में चीन प्रमुख आपूर्तिकर्ता है चूँकि भारत चीन से पूँजीगत वस्तुओं एवं मध्यवर्ती वस्तुओं का भी आयात करता है, इसीलिए ऐसा कोई भी प्रयास घरेलू-विनिर्माण उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा और अंततः इसका असर भारतीय निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता पर पड़ेगा जिसके परिणामस्वरूप निर्यात-बाज़ार से भारतीय उत्पादों के पैर उखड़ सकते हैं। इसीलिए ‘बायकॉट चाइना’ को व्यावहारिक रूप देने के लिए चाहे टैरिफ बैरियर का इस्तेमाल किया जाए या नन-टैरिफ बैरियर (NTB) का, लेकिन इसकी कीमत भारतीय उपभोक्ताओं को भी चुकानी होगी और ‘मेक इन इण्डिया’ को भी।
इन पहलुओं पर थोड़े विस्तार में जाने की ज़रुरत है। दूरसंचार-क्षेत्र में 51% बाज़ारों पर चीन का कब्जा है, तो भारतीय घरों में चीनी इलेक्ट्रिकल एवं इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों की भरमार है। वर्तमान में पूरा भारतीय बाज़ार चीनी खिलौनों से पटा है क्योंकि भले ही उनका जीवन-काल भारतीय खिलौनों की तुलना में कम हों और लेड की मौजूदगी के कारण वे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खतरनाक हों, पर अपेक्षाकृत काफी सस्ते होने के कारण इनकी माँगें बहुत अधिक हैं चीन पर भारतीय आर्थिक निर्भरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस औषधि-क्षेत्र की भारतीय निर्यात में अहम् भूमिका है और जिस औषधि-क्षेत्र ने विकसित देशों के औषधि-उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करते हुए वैश्विक स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान कायम की है, वह अपने 70 प्रतिशत रॉ मैटेरियल, जिनका आयातित मूल्य करीब ढ़ाई अरब डॉलर है, के लिए चीन पर निर्भर हैभारतीय औषधि उद्योग के सन्दर्भ में इस आयात की अहमियत की ओर इशारा करते हुए पुष्प रंजन ने लिखा है, “चीनी रॉ मैटेरियल से दवा बनाकर ही भारतीय कंपनियाँ 24 प्रतिशत अमेरिका और 26 फीसद यूरोपीय संघ के देशों में सप्लाई करती हैं।” इसी प्रकार ऊर्जा-क्षेत्र में भारत की हालिया प्रगति में भी चीनी उत्पादों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वर्तमान में भारत के विभिन्न हिस्सों में चलायी जा रही कई बिजली परियोजनाएँ चीनी उपकरणों के भरोसे हैं साथ ही, वर्तमान में जिन इलेक्ट्रॉनिक मीटरों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वे सब चीन से आयातित हैं इतना ही नहीं, भारतीय दूरसंचार-क्षेत्र के विकास में भी चीनी उपकरणों की अहम् भूमिका है। अबतक इस क्षेत्र टेक्नोलॉजिकल अपग्रेडेशन में भी चीनी उपकरणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी तरह वैश्विक स्तर पर मोबाइल फ़ोन बनाने वाली पाँच शीर्ष कम्पनियों में चार कम्पनियाँ चीन से सम्बद्ध हैं इनके सस्ते उत्पादों ने भारत में मोबाइल रिवोल्यूशन और इसके जरिये सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति में अहम् भूमिका निभाई है। चीन से आयातित हार्डवेयर की बदौलत ही भारत दुनिया में कंप्यूटर हार्डवेयर असेम्बलिंग के बड़े सेंटर के रूप में उभरकर सामने आया है।
‘बायकॉट चाइना’ की आर्थिक व्यवहार्यता के प्रश्न पर विचार के क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि चीन केवल वैश्विक विनिर्माण केंद्र नहीं है, वरन् दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार भी है जिससे भारत भी लाभान्वित होता है। वित्त-वर्ष (2018-19) में भारत ने भी तो करीब 16.75 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात (भारत के कुल निर्यात का 5.1 प्रतिशत) चीन को किया। ऐसी स्थिति में ‘बायकॉट चाइना’ के प्रति चीनी प्रतिक्रिया ट्रेड वॉर की जिस स्थिति को जन्म देगी, उसका प्रत्यक्ष असर तो भारत के चीनी निर्यात पर भी पड़ेगा। इसलिए इस अभियान के कारण भारत का सप्लाई चैन बाधित हो सकता है और इससे भारत के हाथों से विदेशी बाज़ारों के निकलने का खतरा भी बढ़ जाएगा।
समस्या सिर्फ इतनी नहीं है, समस्या चीनी निवेश भी है। पिछले दो दशकों के दौरान भारत क्रमिक रूप से चीनी पूँजी एवं निवेश के लिए एक गंतव्य के रूप में महत्वपूर्ण होता चला गया। इसी आलोक में मुंबई में पहले चेंबर ऑफ चाइनीज़ इंटरप्राइजेज़ इन इंडिया (CCEI) और फिर इंडो-चाइनीज़ चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (ICCCI) की स्थापना हुई जिनका काम भारत में कम कर रही चीनी कम्पनियों के हितों का संरक्षण एवं संवर्द्धन और इसके लिए लॉबीइंग करना था। सन‍् 2000 के उत्तरार्द्ध में भारत में चीन की 32 बड़ी कंपनियाँ पैर जमा चुकी थीं और वर्ष (2014-2019) के दौरान भारत में चीनी एफडीआई पाँच गुणा बढ़कर 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच गया। आनेवाले समय में ज़ोमैटो, पेटीएम, बायजू, ओला कैब और अन्य भारतीय स्टार्ट अप में अलीबाबा और टेंसेंट जैसी चीनी कम्पनियों में निवेश से सम्बन्धित मसले को सुलझाना आसान नहीं होगा। उच्च तकनीक, इंटरकॉम, कंप्यूटर, धातु विज्ञान, स्टील आदि जैसे क्षेत्रों से सम्बद्ध हुआवेई, जेड टी ई, लेनोवो, श्याओमी, सीएसआईटीईसी, सीएमआईईसी, हायर, टीसीएल, जिआंगसु ओवरसीज ग्रुप कम्पनियाँ और फाइबरहोम टेक्नोलॉजीज जैसी कम्पनियाँ चीनी सरकार और उसकी आक्रामक कूटनीति के सहारे भारत में जड़ें जमा चुकी हैं। स्पष्ट है कि ‘बायकॉट चाइना’ का असर चीनी निवेश पर भी पड़ेगा और यह चीनी पूँजी एवं निवेश की उपलब्धता को भी प्रतिकूलतः प्रभावित करता हुआ भारतीय आर्थिक विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर सकता है।  
इसीलिए यह कहा जा रहा है कि बायकॉट चाइना की बात करना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है इसे अमल में लाना। यह जितना चीन को डैमेज करेगा, उससे कहीं अधिक भारत को, क्योंकि इस विकल्प के अपने खतरे भी हैं। चीन ही नहीं, भारत की अर्थव्यवस्था भी मुश्किल दौर से गुजर रही है। चीन की तुलना में इसकी मुश्किलें कहीं अधिक बड़ी है जिसके मूल में है आर्थिक कुप्रबंधन। ऐसे समय में अगर चीन भी प्रतिक्रिया देता हुआ भारतीय उत्पादों के आयात पर अंकुश लगाने की कोशिश करता है और भारत में निवेश से भी परहेज़ करता है, तो भारत का यह कदम काउन्टर-प्रोडक्टिव साबित हो सकता है। इसी आलोक में आशंका यह भी जाहिर की जा रही है कि तात्कालिक परिप्रेक्ष्य में भी यह कदम आत्मघाती साबित हो सकता है। और, इसीलिए इसके मद्देनज़र सरकार को कुछ भी करने के पहले इससे सम्बद्ध तमाम पहलुओं और इसके परिणामों पर लागत-लाभ आकलन (Cost-Benefit Analysis) के आलोक में विचार करना चाहिये। साथ ही, इसके लिए भारत को दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में इसके लिए रणनीति बनानी होगी और उसे अमल में लाना होगा, अन्यथा ‘बायकॉट चाइना’ थोथी नारेबाजी में तब्दील होकर रह जाएगा।

तात्कालिक सन्दर्भों में मुश्किलें:

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि दीर्घकालिक योजना बनाए बिना भारत चीन का मुकाबला नहीं कर सकता। मगर, तात्कालिक सन्दर्भों में भी चीन को नुकसान तभी पहुँचाया जा सकता है, जब आम जनता इसके लिए एकजुट हो। पर, तात्कालिक सन्दर्भों में भी इसकी अपनी सीमाएँ हैं। ये मुश्किलें तब और भी बढ़ जाती है जब कोरोना-संकट एवं प्रवासी मजदूरों के पलायन की पृष्ठभूमि में भारतीय विनिर्माण-क्षेत्र श्रमिकों के संकट से जूझता हुआ दिखाई पड़ता है। और, जिस तरह से भारत में कोरोना के मामलों में तेजी की स्थिति दिख रही है, आनेवाले समय में समुचित एवं पर्याप्त मात्रा में श्रमिकों की आपूर्ति पुनर्बहाल हो पायेगी, इसमें सन्देह है। इसके विपरीत, चीन ने श्रमिकों का बेहतर प्रबंधन किया है और इसीलिए वह इस तरह की चुनौतियों से मुक्त है। कोरोना काल में भारत और चीन की फैक्टरियों के प्रबंधन की तुलना करते हुए दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ पुष्परंजन अपने आलेख में लिखते हैं, “दुनिया के दिग्गज मज़दूर संगठनों में से एक ऑल चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन (ACFTU) के सवा तीस करोड़ सदस्य, चीनी फैक्टरियों की सप्लाई-चेन को टूटने नहीं देते हैं। एसीएफटीयू के नेता वहाँ की मल्टीनेशनल कंपनियों को ख़ूब सुहाते हैं। लेबर उन्हें इसलिए कोसते हैं, क्योंकि भयानक शोषण और श्रम-क़ानून के उल्लंघन से उनका सरोकार नहीं होता।” इस क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि मेडिकल सप्लाई कंपनियों की गड़बड़ियों के बावजूद चीनी मास्क और रैपिड टेस्टिंग किट ने करोना के खिलाफ लड़ाई में भारत एवं भारतीयों की खूब मदद की और आज भी चीन के इस सहयोग के बिना भारत इस लड़ाई को लड़ने की कल्पना नहीं कर सकता है।
तकनीकी अवरोध:
‘बायकॉट चाइना’ को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के रास्ते में सिर्फ व्यावहारिक कठिनाइयाँ ही नहीं हैं, वरन् तकनीकी कठिनाइयाँ भी हैं। यह अभियान वैश्वीकरण की उस संकल्पना के प्रतिकूल है जिसके रास्ते पर भारत पिछले तीन दशकों से चलता रहा और जिसकी उपलब्धियों की बदौलत आज भारत चीन को चुनौती देने की सोच ही नहीं रहा है, वरन् उसे चुनौती देने में कुछ हद तक सक्षम भी है। अब, समस्या यह है कि विश्व व्यापार संगठन(WTO) के द्वारा निर्देशित एवं नियमित वैश्विक व्यापार-व्यवस्था में यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है कि पूरे दुनिया के लिए खुली भारतीय अर्थव्यवस्था को चीन के लिए बन्द कर दिया जाए। हाँ, यह ज़रूर है कि डब्ल्यूटीओ द्वारा रेगुलेटेड वैश्विक व्यापारिक व्यवस्था में अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के दायरे में रहते हुए भारत इस दिशा में पहल कर सकता है। साथ ही, वह उसकी कमियों (LoopHoles) का लाभ भी उठा सकता है इसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1.विश्व व्यापार संगठन से सम्बद्ध अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं के मद्देनज़र भारत को औसतन 48.5 प्रतिशत से अधिक आयात कर नहीं आरोपित करना है। इस दृष्टि से भारत औसतन 13.8 प्रतिशत आयात कर के वर्तमान स्तर में वृद्धि के जरिये चीनी आयात को हतोत्साहित करने की दिशा में पहल कर सकता है।
2.इसे व्यावहारिक रूप प्रदान करने का एक तरीका नन-टैरिफ बैरियर को आरोपित करना है। भारत जिन विकल्पों पर विचार कर रहा है, उनमें नन-टैरिफ बैरियर शीर्ष पर है। सरकार के द्वारा ऐसे 370 मदों की पहचान की जा रही है जिनका आयात गैर-ज़रूरी है और जिनके आयात को सुरक्षा एवं गुणवत्ता मानकों के आधार पर हतोत्साहित किया जाएगा।  
3.समस्या यह है कि ऐसी कोई भी कोशिश वैश्विक व्यापार-व्यवस्था में असंतुलन पैदा करेगी, और उस स्थिति में विश्व व्यापार संगठन मूकदर्शक नहीं बना रह सकता है। साथ ही, यह स्थिति चीन को प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही के लिए उकसायेगी, और फिर ट्रेड वॉर की ओर ले जायेगी, और ऐसी स्थिति में भारत को यह डब्ल्यूटीओ के प्लेटफ़ॉर्म पर चीन के साथ व्यापारिक विवादों में उलझा सकती है।
लेकिन, यह स्थिति एक साथ कई समस्याओं को जन्म देगी। अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं के कारण सरकार के स्तर पर ‘बायकॉट चीन’ की अपनी सीमाएँ हैं वह प्रतीकात्मक तो हो सकती है, पर इतनी असरकारी नहीं कि वह चीन की सरकार को दबाव में ला सके इसी कारण भारत न तो सीमा-शुल्कों में अचानक एवं एक सीमा से अधिक वृद्धि कर सकता है और न ही अकारण चीन से होने वाले आयातों पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध ही आरोपित कर सकता है। इसलिए भी कि आयात का मसला विदेशी निवेश के मामले से सम्बद्ध है जिनके जरिये पूँजी के साथ-साथ तकनीक की उपलब्धता संभव हो पाती है। ऐसी स्थिति में आयात को हतोत्साहित करने की कोशिश का असर पूँजी-निवेश एवं तकनीक की उपलब्धता पर भी पड़ेगा। साथ ही, अगर वह डब्ल्यूटीओ से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं के दायरे में रहते हुए भी कोई कदम उठता है, तो उसकी अपनी कीमत होगी जिसको चुकाना भारत के लिए आसान नहीं होगा।
इसके अतिरिक्त, इस बात की भी सम्भावना होगी कि वही चीनी सामान रास्ता बदलकर किसी अन्य देश के माध्यम से भारत पहुँचे और उसके लिए भारतीय उपभोक्ताओं को कहीं अधिक कीमत चुकानी पड़े, जैसा भारतीय माल के साथ पाकिस्तान में होता है जो रास्ता बदलकर खाड़ी देशों से होते हुए पाकिस्तान पहुँचता है और जिसके लिए पाकिस्तानियों को कहीं अधिक कीमत चुकानी पड़ती है।
इसमें एक समस्या यह भी है कि सस्ते चीनी उत्पादों की उपलब्धता के प्रभावित होने की स्थिति में मध्यम वर्ग पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा और इससे उपजे राजनीतिक असंतोष की एक कीमत होगी जिसे कोई भी राजनीतिक दल या कोई भी सरकार चुकाने के लिए तैयार नहीं होगी। इसलिए कोई भी सरकार चीनी आयात को प्रत्यक्षतः या परोक्षतः प्रभावित कर मध्य वर्ग की नाराज़गी, जिसकी बड़ी राजनीतिक कीमत है, नहीं मोल लेना चाहेगी।  
स्पष्ट है कि चीनी आयात पर प्रतिबन्ध लगाने या उसे हतोत्साहित करने हेतु पहल करने में भारत के हाथ बहुत हद तक बंधे हुए हैं। वह या तो नन-टैरिफ बैरियर जैसे तरीकों का सहारा लेकर इसे प्रभावित करने की कोशिश कर सकती है, या फिर जनता को जागरूक करते हुए उन्हें चीनी उत्पादों के प्रयोग को कम करने के लिए प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः प्रोत्साहित भी कर सकती है। लेकिन, कई कारणों से इस रणनीति के कारगर होने की संभावना अपेक्षाकृत कम है। यह रणनीति तभी कारगर होगी जब राष्ट्रवाद की भावना उनके भीतर इतनी मजबूती से पैठ जाए कि वे उसके लिए हर प्रकार की तकलीफ उठाने के लिए भी तैयार रहें और वैकल्पिक उत्पादों की अधिक कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहें। 

विशेषज्ञों की राय:

शायद यही कारण है कि इसको लेकर आर्थिक एवं अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक के विशेषज्ञों की राय बँटी हुई दिख रही है, लेकिन अगर गहराई से विचार करें, तो उनकी रायों में मूलभूत समानताएँ हैं। जो ‘बायकॉट चाइना’ अभियान के पक्ष में भी हैं, वे भी कुल-मिलकर भारतीय विनिर्माण की सीमाओं से बखूबी परिचित हैं और वे इस अभियान को रेस्पोंड कर पाने की भारतीय विनिर्माण की क्षमता को लेकर आशंकित हैं। इन्हीं आशंकाओं के कारण वे सीमित एवं प्रतीकात्मक स्तर पर ‘बायकॉट चाइना’ की बात कर रहे हैं और इसके द्वारा निर्मित दबाव का फायदा उठाकर भारत के सामरिक-कूटनीतिक हितों के संरक्षण एवं संवर्द्धन की बात कर रहे हैं। दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ पुष्परंजन तो ऐसे अभियानों को ही अव्यावहारिक करार देते, लेकिन आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अरुण कुमार और भारत-चीन द्विपक्षीय सम्बन्ध से सम्बंधित मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी सीमित सन्दर्भों में इसकी उपादेयता को स्वीकार करते हैं।    

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अरुण कुमार का कहना है, चीन के साथ हमारा कारोबार कई रूपों में होता है जिनमें ज़रूरी एवं गैर-ज़रूरी, दोनों प्रकार के उत्पाद शामिल हैं। गैर-जरूरी उत्पादों के विकल्प हमारे पास मौजूद हैं, लेकिन जरूरी वस्तुओं के आयात तब तक नहीं रोके जा सकते, जब तक उसके वैकल्पिक स्रोतों, चाहे वे घरेलू हों या विदेशी, की तलाश न कर ली जाए।” उनके मुताबिक, ऐसी स्थिति में भारत के पास दो ही विकल्प हैं:

1.नॉन-टैरिफ बैरियर के जरिये चीनी उत्पादों के प्रवाह को बाधित करने का प्रयास, और

2.गैर-जरूरी उत्पादों के आयात से परहेज।

इन दोनों पहलों के जरिये चीन को चार-पाँच बिलियन अमेरिकी डॉलर तक का आर्थिक नुकसान पहुँचाया जा सकता है। उनके अनुसार, “इसके माध्यम से चीन को यह सख्त सन्देश दिया जा सकता है कि यदि वह सीमा पर आक्रामक रुख अपनाता है, तो उसे आर्थिक तौर पर इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है और ऐसी स्थिति में भारत जैसे बड़े बाज़ारों में उसकी पहुँच प्रभावित हो सकती है।”

यद्यपि भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ‘बायकॉट चाइना’ के पक्ष में नहीं हैं, पर ये इस बात को लेकर चिन्तित अवश्य हैं कि पिछले छः वर्षों के दौरान चीन का ट्रेड सरप्लस दोगुना होता हुआ 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच चुका है जो भारत के रक्षा-खर्च के बराबर है और जिसका इस्तेमाल  भारत के विरुद्ध करते हुए चीन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में लगा है। इनका मानना है कि चीन से होने वाले भारतीय आयात की प्रकृति पर अगर गौर करें, तो इन्हें दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है: ज़रूरी आयात और गैर-ज़रूरी आयात। आर्थिक रूप से जरूरी आयात के विकल्प या तो नहीं है या बहुत मँहगे हैं और इसीलिए बहिष्कार की रणनीति को यहाँ पर अपनाया जाना संभव नहीं है, लेकिन चीन से होनी वाले 60 प्रतिशत भारतीय आयात गैर-जरूरी उत्पादों से सम्बंधित हैं, जिन्हें चेक किया जा सकता है और जिन्हें चेक किया जाना चाहिए क्योंकि ये भारत के विनिर्माण-क्षेत्र की संभावनाओं को आहत कर रहे हैं। इसीलिए इनका मानना है कि अगर हम कूटनीतिक रूप से सक्षम नहीं हैं, तो लक्षित आर्थिक प्रतिबन्धों आरोपित करते हुए गैर-ज़रूरी आयात को हतोत्साहित कर चीन को स्पष्ट मैसेज दिया जाना चाहिए कि अगर वह सीमावर्ती इलाकों में भारत के लिए अनावश्यक परेशानियाँ उत्पन्न करेगा, तो इसकी एक आर्थिक कीमत होगी जो उसे चुकानी होगी। यह बात चीन को भी मालूम है, तभी तो चीनी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ अपने सम्पादकीय में लिखता है: “भारत चीन से अधिक-से-अधिक सामान आयात कर रहा है जिसके कारण चीन के साथ व्यापार-घाटे में प्रतिवर्ष करीब दस बिलियन अमेरिकी डॉलर की बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसा इसलिए कि न तो भारत कई चीनी उत्पादों का उत्पादन कर सकता है और न ही इसी कीमत पर वह इसे पश्चिम से खरीद सकता है।”  

दीर्घकालीन रणनीति की आवश्यकता:
स्पष्ट है कि तमाम मतभेदों के बावजूद विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि ‘बायकॉट चाइना’ को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए दीर्घकालीन रणनीति की आवश्यकता है। इनका यह मानना है कि ऐसी किसी भी पहल से पहले विनिर्माण-क्षेत्र में घरेलू क्षमता-निर्माण को प्राथमिकता दिए जाने की आवश्यकता है यह तबतक संभव नहीं है जबतक कि इसके लिए चिर-प्रतीक्षित विधायी सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए उन संरचनात्मक अवरोधों को दूर नहीं किया जाता है जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को जकड़ रखा है और जो घरेलू उत्पादों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रतिकूलतः प्रभावित कर रहे हैं
साथ ही, दीर्घकालिक रणनीति का निर्धारण करते वक़्त इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि तकनीक और प्रौद्योगिकी की तरफ खासा ध्यान के कारण ही चीन भारत की तुलना में कहीं अधिक विकसित है। कोठारी आयोग ने अरसे पहले सार्वजनिक शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के छह प्रतिशत खर्च की सिफारिश की थी, लेकिन कहीं-न-कहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण न तो आज तक सार्वजनिक शिक्षा पर खर्च को जीडीपी के चार प्रतिशत से अधिक के स्तर पर ले जाना संभव हो पाया है और न ही अनुसंधान एवं विकास को प्राथमिकता दे पाना संभव हो पाया है। बिना शिक्षा एवं विशेष रूप से अनुसन्धान एवं विकास को प्राथमिकता दिए भारतीय विनिर्माण-क्षेत्र के रूपांतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण बहुत ही मुश्किल है और इसे भी उपयुक्त नीतिगत पहलों के जरिये समर्थन दिए जाने की ज़रुरत होगी। इससे घरेलू विनिर्माण-उद्योग की प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाई जा सकेगी, भारतीय विनिर्माण-क्षेत्र को चीनी उत्पादों को प्रतिस्थापित कर पाने में सक्षम बनाया जा सकेगा और वैश्विक व्यापार में उसकी भागीदारी भी बढ़ाई जा सकेगी
निष्कर्ष:
यदि वाकई भारत की सरकार और भारतीय जनता ‘बॉयकॉट चाइना’ को लेकर गम्भीर है और उसे व्यावहारिक धरातल पर उतरना चाहती है, तो उसे चीनी उत्पादों के घरेलू विकल्पों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा तबतक संभव नहीं होगा, जबतक कि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र का पूरी तरह से कायापलट नहीं होता है, लेकिन न तो इसको लेकर सरकार गंभीर है और न ही जनता। सरकार को पता है कि जनता थोथे नारों से खुश हो जायेगी और इसीलिए कभी वह ‘मेड इन इण्डिया’ की बात करती है, तो कभी ‘मेक इन इण्डिया’ की और कभी ‘आत्मनिर्भर भारत’ की; और इन सबके परिणाम वही ‘ढ़ाक के तीन पात’। आज भी, भारत की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान लगभग 16 प्रतिशत के उसी स्तर पर विद्यमान है जहाँ पर यह सन् 2011 में राष्ट्रीय विनिर्माण-नीति की शुरुआत के समय था। रही बात जनता की, तो उसे सस्ते उत्पादों से मतलब है। अब वे उत्पाद भारत के हों अथवा चीन के या फिर इंग्लैंड के, इससे उसे बहुत मतलब नहीं है। उनकी देशभक्ति, उनका राष्ट्रवाद महज फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्विटर आदि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर थोथी नारेबाजी के ज़रिये टाइमपास तक सीमित है; और उसके लिए भी उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के आईटी सेल की उत्प्रेरणा की ज़रुरत होती है।
स्रोत-सामग्री:
1. चीनी उत्पाद बहिष्कार के किंतु-परंतु: पुष्प रंजन (दैनिक ट्रिब्यून, 16 जून)
2.  भारतीय अर्थव्यवस्था के रिसते जख्म: भरत झुनझुनवाला (दैनिक ट्रिब्यून, 16 जून)
3. आत्मनिर्भर भारत ही असली जवाब: विवेक काटजू (दैनिक हिन्दुस्तान, 17 जून)
4. आर्थिक मोर्चे पर मुकाबला संभव: अरुण कुमार (दैनिक हिन्दुस्तान, 18 जून)
5. Easier Said: Indian Express Editorial
6. Indian nationalists should stop using ‘boycott Chinese products’ to please themselves: Global Times Editorial