बढ़ता ऑयल इन्फ्लेशन
पेट्रोलियम उत्पादों के उपभोग हेतु भारत की आयात पर निर्भरता निरंतर
बढती जा रही है। सन् 1998-99 में भारत अपने कुल उपभोग का 69 प्रतिशत आयात के ज़रिये
पूरा करता है, जबकि 2020-21 में यह आँकड़ा लगभग 95 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच चुका
है। देश के अधिकांश राज्यों में पेट्रोल की कीमतें शतक लगा चुकी हैं, जबकि डीजल की
कीमतें कई जगहों पर शतक लगा चुकी हैं और कई जगहों पर शतक लगाने के करीब हैं। देश
की वितीय राजधानी मुंबई में अगर पेट्रोल 120 रुपये प्रति लीटर से भी अधिक के स्तर
पर पहुँच चुका है, तो डीजल करीब 105 रुपये प्रति लीटर के स्तर पर। देश की राजधानी
दिल्ली में अगर पेट्रोल 105 रुपये प्रति लीटर से भी अधिक के स्तर पर पहुँच चुका
है, तो डीजल करीब 96.7 रुपये प्रति लीटर के स्तर पर।
बिहार में पेट्रोल एवं डीजल की
कीमतें:
बिहार की राजधानी पटना में अगर पेट्रोल 116 रुपये प्रति लीटर से भी
अधिक के स्तर पर पहुँच चुका है, तो डीजल करीब 101 रुपये प्रति लीटर से अधिक के
स्तर पर। अक्टूबर, 2021 की स्थिति के अनुसार, बिहार में पेट्रोल पर 26 प्रतिशत
बिक्री कर या 16.65 रुपये प्रति लीटर (दोनों में से जो अधिक है), लगाया जाता है और
इसके अतिरिक्त उस पर 30 प्रतिशत सरचार्ज भी लगाया जाता है। बिहार सरकार डीजल पर 19
प्रतिशत बिक्री कर या 12.33 रुपये प्रति लीटर (दोनों में से जो अधिक है), लगाया
जाता है और इसके अतिरिक्त उस पर 30 प्रतिशत सरचार्ज भी लगाया जाता है।
ऑयल इन्फ्लेशन और मुद्रास्फीतिक दबाव:
जहाँ तक मुद्रास्फीतिक दबाव का प्रश्न है,
तो पेट्रोल एवं डीजल की बढ़ती कीमतें ऊर्जा-लागत के साथ-साथ परिवहन-लागत को बढ़ाने
का काम करती हैं और इसका असर पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इसे निम्न चार्ट के सहारे भी देखा जा सकता है:
थोक मूल्य सूचकांक में भारांश
क्रम |
मद |
भारांश |
1. |
डीजल |
3.10% |
2. |
पेट्रोल |
1.60% |
3. |
एलपीजी |
0.64% |
सरकार
का दावा:
वित्त-मन्त्री
निर्मला सीतारमण का यह कहना है कि यूपीए सरकार द्वारा ऑयल बांड्स जारी किये जाने
के कारण सरकार को उस पर ब्याज और मूलधन का भुगतान करने की जिम्मेवारी है, इसीलिए
टैक्स में कटौती के ज़रिये पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों को नियंत्रित करने का विकल्प
सरकार नहीं अपना सकती है। इस सन्दर्भ में
निर्मला सीतारमण ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को उद्धृत किया
जिन्होंने सन् 2008 में राष्ट्र के नाम सन्देश में
कहा था, “मैं राष्ट्र को याद दिलाना चाहूँगा कि ऑयल बांड्स जारी
करना और इसके ज़रिये तेल-विपणन कम्पनियों पर घाटों को आरोपित करना तेल की ऊँची
कीमतों के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। इसके ज़रिये हम अपने बोझ को अपने बच्चों पर
ट्रान्सफर कर रहे हैं और उन्हें भविष्य में इसका पुनर्भुगतान करना होगा।” वित्त-मन्त्री ने
ऑयल इन्फ्लेशन को नियंत्रित करने की जिम्मेवारी राज्य सरकारों पर थोपते हुए कहा कि
अगर राज्य सरकारें उपभोक्ताओं पर से इसके बोझ को कम करना चाहें, तो वे ऐसा करने के
लिए स्वतंत्र हैं। इस तरह उन्होंने तेल की बढ़ती कीमतों की
जिम्मेवारी लेने से इनकार किया। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया कि एक ओर यूक्रेन-संकट
और इसके परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय
बाज़ार में कच्चे तेल की आपूर्ति के अवरुद्ध होने के कारण हाल के दिनों में तेल की
कीमतों के उछाल आयी है, तो दूसरी ओर पेट्रोल एवं डीजल की कीमत-निर्धारण व्यवस्था
के विनियन्त्रित होने के कारण वह इसमें हस्तक्षेप कर पाने में असमर्थ है।
यूपीए-सरकार
द्वारा जारी बांड्स की जिम्मेवारी की वास्तविकता:
दरअसल, मई,2014 में
जब एनडीए सत्ता में आयी थी, उस समय 1.34 लाख करोड़ रुपये के ऑयल बांड्स
उसे विरासत में मिले जिस पर उसे सन् 2026 तक ब्याज और बांड
के परिपक्व होने पर बांड-राशि का भुगतान करना था। सन् 2021 तक एनडीए सरकार ने कुल 13,500 करोड़ रुपये के बांड्स का भुगतान किया है, और इसके अलावा वित्त-वर्ष
(2021-22) तक सरकार को 80,186 करोड़ ब्याज-भुगतान भी करना पड़ रहा है। इस तरह सन् (2014-22) के
दौरान अबतक सरकार ने ब्याज और मूलधन सहित कुल 93,686 करोड़
रुपये का भुगतान किया है। आने वाले समय में
सन् 2026 तक सरकार को 1,20,923.17 करोड़ के ऑइल बांड्स का भुगतान करना है। इसके अतिरिक्त, केन्द्र सरकार को ऑयल बांड्स पर
ब्याज का भी भुगतान करना है। इसके कारण केन्द्र
सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ सृजित हो रहा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, यह इस विमर्श का महज एक पक्ष है,
एकमात्र पक्ष नहीं।
इस पूरे विमर्श के क्रम में ‘गोदान’ उपन्यास के ड्यूटी वाले प्रसंग में प्रेमचन्द द्वारा की गयी टिप्पणी को उद्धृत करना
प्रासंगिक होगा, “यदि ड्यूटी बढ़ाए पाँच रुपये का नुक्सान रहा, तो मजदूरी में कटौती
से दस रुपये का फायदा।” कुछ ऐसी ही स्थिति यहाँ पर भी देखने को मिलती है क्योंकि
ऑयल बांड्स के कारण जो वित्तीय बोझ सृजित हो रहा है, वह उस तेल-राजस्व का महज एक
छोटा-सा हिस्सा है जो इस वित्तीय बोझ के नाम पर केन्द्रीय उत्पाद कर में वृद्धि के
कारण प्राप्त हो रहा है। इसे आँकड़ों के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रुरत है।
पेट्रोल एवं डीजल पर केन्द्रीय कर में निरंतर वृद्धि:
मई,2014
से अबतक एनडीए सरकार ने तेल पर लेवीज (Auto Fuel Levies) में 12 बार वृद्धि की है
जिसमें सर्वाधिक तीव्र वृद्धि मार्च-मई,2020 में हुई। मई,2020 में केन्द्र सरकार ने पेट्रोल पर
केन्द्रीय उत्पाद कर 19.98 रुपये/लीटर से बढ़ाकर 32.98
रुपये/लीटर और डीजल पर 15.83 रुपये/लीटर
से बढ़ाकर 31.83 रुपये/लीटर कर दिया। ध्यातव्य है कि वित्त-वर्ष 2015 में पेट्रोल एवं डीजल पर केन्द्रीय कर क्रमशः
9.48 रुपये/लीटर और 3.56 रुपये/लीटर था। अगस्त,2021 में केंद्र एवं राज्य के द्वारा आरोपित कर
पेट्रोल की खुदरा कीमतों का 55.4 प्रतिशत और डीजल की खुदरा कीमतों का 50 प्रतिशत है। केवल केन्द्र के
द्वारा आरोपित कर पेट्रोल की खुदरा कीमतों का 32.3
प्रतिशत और डीजल की खुदरा कीमतों का 35.4 प्रतिशत है।
पेट्रोल
एवं डीजल पर बढ़ता केन्द्रीय कर एवं उपकर
वर्ष |
पेट्रोल पर केन्द्रीय कर |
डीजल पर केन्द्रीय कर |
वित्त-वर्ष 2015 |
9.48 रुपये/लीटर |
3.56 रुपये/लीटर |
मई,2020 |
32.98 रुपये/लीटर |
31.83 रुपये/लीटर |
खुदरा
कीमतों में केन्द्रीय कर का शेयर |
32.3 प्रतिशत |
35.4 प्रतिशत |
वित्त-वर्ष (2019-20) में केन्द्र सरकार
को पेट्रोल एवं डीजल पर केन्द्रीय उत्पाद शुल्क से कुल 1.78 लाख करोड़ रुपये के
तेल-राजस्व की प्राप्ति हुई, जबकि वित्त-वर्ष (2020-21) में 3.35 लाख करोड़ रुपये
के तेल-राजस्व की प्राप्ति। मतलब
यह कि कोविड-संकट
और इसकी पृष्ठभूमि में आरोपित लॉकडाउन के कारण जिस वित्त-वर्ष के दौरान आर्थिक
विकास दर नकारात्मक रही, उसी वित्त-वर्ष में केन्द्र को प्राप्त तेल-राजस्व में 88
प्रतिशत की वृद्धि हुई। और, वह सब संभव
हुआ पेट्रोल एवं डीजल पर आरोपित करों की दरों में वृद्धि के कारण, और वह भी ऐसे
समय में जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड ऑयल की कीमतें न्यूनतम स्तर पर थीं।
वित्त (राज्य) मन्त्री अनुराग ठाकुर के लोकसभा में दिए गए जवाब के
अनुसार, जहाँ वित्त-वर्ष (2014-15) में पेट्रोल से 29,279 करोड़ रुपये और डीजल से 42,881 करोड़ रुपये केन्द्रीय
उत्पाद कर प्राप्त हुए, वहीं वित्त-वर्ष (2020-21) में अप्रैल,2020 से जनवरी,2021 के दौरान पेट्रोल से 89,575 करोड़ रुपये और डीजल से 2,04,906 करोड़ रुपये केन्द्रीय
उत्पाद कर प्राप्त हुए। जहाँ केन्द्र सरकार की कमाई में उत्पाद-शुल्क का हिस्सा
वित्त-वर्ष (2013-14)
में 4.3 प्रतिशत के स्तर पर था, वहीं वित्त-वर्ष (2016-17) में 13.3 प्रतिशत और
वित्त-वर्ष (2020-21) में 12.2 प्रतिशत के स्तर पर।
तेल-राजस्व की
मात्रा:
सन् (2014-22) के दौरान केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने करीब 43 लाख करोड़ से अधिक राजस्व
प्राप्त किया, और इस दौरान ऑइल बांड्स से सम्बद्ध देयता कुल प्राप्त राजस्व के महज
2.2 प्रतिशत के स्तर पर रही। वित्त-वर्ष (2014-15) और वित्त-वर्ष
(2020-21)
के बीच पिछले सात वर्षों के दौरान अकेले केन्द्र सरकार ने पेट्रोल एवं डीजल पर
करों में बढ़ोत्तरी के ज़रिये करीब 22.34 लाख करोड़ रुपये का
अतिरिक्त राजस्व प्राप्त किया है। अकेले सड़क अवसंरचना उपकर(RIC) के मद में केन्द्र
सरकार को जहाँ वित्त-वर्ष (2019-20) के दौरान महज 67,371 करोड़ रुपए प्राप्त हुए,
वहीं वित्त-वर्ष (2020-21) के दौरान 1,23,596 करोड़ रुपए और वित्त-वर्ष (2021-22):
2,03,235 करोड़ रुपए। मतलब यह कि महज
तीन वर्षों के दौरान इस मद में प्राप्त तेल-राजस्व तीन गुना हो गया। केवल
वित्त-वर्ष (2020-21)
में 4,53,812 करोड़ की राशि पेट्रोल एवं डीजल पर वसूले गए
करों से प्राप्त हुई। सन् (2014-15) में सरकार ने कुल तेल-राजस्व का महज 7 प्रतिशत भुगतान ऑयल बांड्स पर
किया, और जैसे-जैसे समय बीतता गया, बढ़ते तेल-राजस्व के साथ यह अनुपात कम होता गया। मतलब यह कि सरकार के
द्वारा ऑइल बांड्स मद में किया गया भुगतान इस क्षेत्र से हासिल राजस्व की तुलना
में कुछ भी नहीं है। वह राशि इतनी बड़ी
नहीं है कि इस तरह के तर्कों का कोई औचित्य बनता हो।
पेट्रोल एवं डीजल की कीमत-निर्धारण
प्रक्रिया: ट्रेड पैरिटी प्राइसेज की डायनामिक प्राइसिंग व्यवस्था:
सन् 2010 के पहले तक पेट्रोल और सन् 2014 के पहले तक डीजल की कीमतों का निर्धारण सरकार के द्वारा किया जाता था और
इसकी समीक्षा पाक्षिक आधार पर की जाती थी। लेकिन, सन् 2002 में एविएशन
टरबाइन फ्यूल(ATF) की कीमतों को विनियंत्रित किया गया, तो सन् 2010 में पेट्रोल की
कीमतों को और सन् 2014 में डीजल की कीमतों को। इसी के साथ पेट्रोल एवं डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से जुड़
गयीं और उनकी कीमतों का निर्धारण बाज़ार-कारकों के आधार पर होने लगा। इस प्रकार सन्
2010 से पेट्रोल और सन् 2014 से डीजल के दाम सरकारी
नियंत्रण से छूटकर सरकारी तेल-कम्पनियों के द्वारा तय होने लगे हैं।
पेट्रोल की प्राइस-संरचना (दिल्ली)
सन्दर्भ |
मई,2014 (कुल कीमत में शेयर) |
मई,2021 (कुल कीमत में शेयर) |
क्रूड ऑयल |
109.5 डॉलर/बैरल |
68.5 डॉलर/बैरल |
पेट्रोल-कीमत |
71.4 रुपये/लीटर |
92.6 रुपये/लीटर |
बेस प्राइस |
47.1 रुपये/लीटर (66 प्रतिशत) |
34.2 रुपये/लीटर (37 प्रतिशत) |
केन्द्रीय उत्पाद कर |
10.4 रुपये/लीटर (14 प्रतिशत) |
32.9 रुपये/लीटर (36 प्रतिशत) |
डीलर-कमीशन |
2 रुपये/लीटर (3 प्रतिशत) |
3.78 रुपये/लीटर (4 प्रतिशत) |
राज्य-कर |
11.9 रुपये/लीटर 17 प्रतिशत |
21.4 रुपये/लीटर (23 प्रतिशत) |
केन्द्र सरकार द्वारा पेट्रोल पर आरोपित कर (जुलाई2021)
क्रम |
कर/उपकर |
केन्द्र द्वारा आरोपित कर की दर |
1 |
बेसिक एक्साइज ड्यूटी(BED) |
1.40 रुपये/लीटर |
2. |
स्पेशल एडिशनल एक्साइज ड्यूटी(SAED) |
11 रुपये/लीटर |
3. |
रोड इंफ्रास्ट्रक्चर सेस(RIC) |
18 रुपये/लीटर |
4. |
एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट
सेस(AIDC) |
2.5 रुपये/लीटर |
वर्तमान में भारत में पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों का निर्धारण क्रूड ऑयल, रिफाइनिंग एवं विपणन-लागत को ध्यान में रखते हुए नहीं की जाती है, वरन् इसके लिए ट्रेड पैरिटी प्राइसेज (Trade Parity Prices) को आधार बनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भारत 80 प्रतिशत पेट्रोल एवं डीजल का आयात करता है और 20 प्रतिशत पेट्रोल एवं डीजल का निर्यात करता है। इसी आलोक में यहाँ पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों का निर्धारण अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमतों के आलोक में किया जाता है, न कि क्रूड ऑयल की कीमतों को ध्यान में रखकर। सामान्यतः अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमतें भी क्रूड ऑयल की कीमतों में बदलाव के आलोक में प्रभावित होती हैं, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है क्योंकि माँग एवं आपूर्ति के आयाम भिन्न हो सकते हैं। साथ ही, ट्रेड पैरिटी प्राइसेज को पहले डॉलर से रुपये में बदला जाता है और फिर तेल कम्पनियों की अन्य लागत (जिसमें रिफाइनिंग एवं परिवहन-लागत भी शामिल है), उनके प्रॉफिट मार्जिन, डीलर-कमीशन और करों को समेकित करते हुए तेल की कीमत निर्धारित की जाती है। मतलब यह कि अगर क्रूड ऑयल की कीमतें स्थिर भी हों, तब भी रुपये के विनिमय-दर में उतार-चढ़ाव, कर की दरों में परिवर्तन और डीलर के कमीशन में बदलाव पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों में बदलाव का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसके अलावा, जून,2017 के मध्य से इसकी कीमत के निर्धारण के लिए ‘डेली प्राइसिंग मैकेनिज्म’ को अपनाया गया है और इसके लिए रॉलिंग बेसिस पर पेट्रोल एवं डीजल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के पिछले 15 दिनों के औसत मूल्यों को आधार बनाया जाता है। इसीलिए भारत में इसकी कीमतों पर टाइम लैग का भी असर होता है।
कीमत-निर्धारण
की अस्पष्ट एवं अपारदर्शी प्रक्रिया:
सरकार द्वारा यह दावा किया जाता है कि भारत ने डायनामिक प्राइसिंग की
व्यवस्था को अपनाया है, इसके तहत् ऑयल मार्केटिंग कम्पनियाँ अंतरराष्ट्रीय कीमतों
के आधार पर पेट्रोल-डीजल की कीमतों की घोषणा प्रतिदिन करती हैं और सरकार का मूल्य-निर्धारण
की प्रक्रिया में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं है या फिर इस पर कोई नियंत्रण
नहीं है। लेकिन, अबतक के अनुभव यह बतलाते हैं कि आज भी टैक्स की दरों में बदलावों
के अलावा पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों के निर्धारण की प्रक्रिया में सरकार का
हस्तक्षेप बना हुआ है, अन्यथा अक्सर चुनावों के समय पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों
में बदलाव थम कैसे जाता है? अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में उतार-चढ़ाव के बावजूद
समय-समय पर कीमतों में उतार-चढ़ाव का थमना भारत में पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों के
निर्धारण की प्रक्रिया को अस्पष्ट एवं अपारदर्शी बनाता है, और इसीलिए ट्रेड पैरिटी
प्राइसिंग मैकेनिज्म की अक्सर आलोचना की जाती है। यह भिन्न लागत और भिन्न दक्षता
के बावजूद तेल-विपणन से सम्बद्ध तीन सार्वजनिक उपक्रमों: इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम द्वारा
करीब एक ही कीमतों की वसूली कार्टेलाइजेशन की ओर इशारा करता है। ध्यातव्य है कि इन
तीनों कम्पनियों के पास करीब 58,000 पेट्रोल
पम्प हैं, अर्थात तेल-वितरण में इनकी हिस्सेदारी 95 प्रतिशत से ज्यादा है।
जहाँ तक पेट्रोल-डीजल
की कीमतों के विनियंत्रण की वास्तविकता का प्रश्न है, तो अबतक का अनुभव यह बतलाता
है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों में कमी का लाभ भले ही भारतीय
तेल-उपभोक्ताओं को नहीं मिला हो, पर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों
में वृद्धि का वित्तीय बोझ हमेशा वहन करना पड़ा है। सन् 2021-22 में पेट्रोल की कीमतें 39 बार बढ़ाई गयी हैं,
जबकि इसमें कमी केवल 1 बार हुई है, जबकि डीजल की कीमतें 36 बार बढ़ाई गयी हैं, जबकि
इसमें कमी केवल 2 बार हुई है। सन् 2020-21 में पेट्रोल की कीमतें 76 बार बढ़ाई गयी हैं, जबकि
इसमें कमी केवल 10 बार हुई है, जबकि डीजल की कीमतें 73 बार
बढ़ाई गयी हैं, जबकि इसमें कमी केवल 24 बार हुई है।
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड ऑयल vs भारत में पेट्रोल-डीजल की
कीमत
सन्दर्भ |
जुलाई,2008 |
अक्टूबर,2021 |
क्रूड ऑयल |
132 डॉलर प्रति बैरल |
82 डॉलर प्रति बैरल |
पेट्रोल |
50 रुपये प्रति लीटर |
110 रुपये प्रति लीटर |
डीजल |
34 रुपये प्रति लीटर |
---- रुपये प्रति लीटर |
राज्यों
से करों में कटौती की अपेक्षा का औचित्य:
केन्द्र सरकार का यह
कहना कि राज्य अगर चाहें, तो वे पेट्रोल एवं डीजल पर बिक्री करों/वैट में कटौती के
ज़रिए आमलोगों को ऑयल इन्फ्लेशन से राहत दे सकते हैं, उचित नहीं प्रतीत होता है। कारण यह कि:
1. संसाधनों
का वितरण केन्द्र के पक्ष में: पहले से ही संसाधनों का वितरण केन्द्र के पक्ष
में है, जबकि अधिकांश उत्तरदायित्व राज्यों के जिम्मे है।
2. कुल
कर-राजस्व में उपकर एवं अधिभार का बढ़ता योगदान और इसमें राज्यों का शेयर नहीं: पिछले आठ वर्षों के
दौरान केन्द्र सरकार ने विभाजनीय करों में वृद्धि के बजाए उपकरों और अधिभारों में
वृद्धि का विकल्प चुना है जिसमें राज्यों का कोई शेयर नहीं है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि वित्त-वर्ष 2020-21
में केन्द्र के कुल कर-राजस्व में उपकर एवं अधिभार का योगदान 2011-12 के 10.4 प्रतिशत से बढ़कर 19.9 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच चुका है। इसीलिए लगातार यह माँग की जा रही है कि उपकार एवं अधिभार को भी
विभाजनीय करों की श्रेणी में लाया जाए।
3. कर-राजस्व
के वितरण के सन्दर्भ में राज्यों की स्थिति: यद्यपि 14वें
वित्त-आयोग की अनुशंसा के कारण केन्द्रीय कर-राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी 32
प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गयी, लेकिन इस वृद्धि को अन्य प्रकार के सशर्त
अन्तरण में आने वाली कमी ने प्रति-संतुलित किया। इस कारण यह वृद्धि मामूली ही रही, उतनी नहीं है जितनी आँकड़ों में दिखा रही है। राज्यों को मुख्या रूप से फायदा यह हुआ कि अब
वे केन्द्र से प्राप्त संसाधनों को अपनी प्राथमिकता के अनुसार खर्च कर सकते हैं।
4. केन्द्रीय
तेल-राजस्व में वृद्धि से मुख्य रूप से केन्द्र लाभान्वित: सन् (2020-21) में केन्द्र सरकार को क्रूड ऑइल और पेट्रोलियम प्रोडक्ट से प्राप्त
राजस्व 45.6 प्रतिशत की उछाल के साथ 4.18 लाख करोड़ के स्तर पर पहुँच गया और पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद करों से
प्राप्त राजस्व 74 प्रतिशत की उछाल के साथ 3.45 लाख करोड़ के स्तर पर।
वित्त-वर्ष (2016-17) और वित्त-वर्ष (2019-20) के बीच पेट्रोलियम उत्पादों पर प्राप्त राजस्व
में केन्द्र सरकार की हिस्सेदारी 2.73 लाख करोड़ से बढ़कर 2.87
लाख करोड़ हो गया, जबकि वित्त-वर्ष (2019-20) और वित्त-वर्ष (2020-21) के बीच राज्यों की हिस्सेदारी 2.20 लाख करोड़ से 1.6 प्रतिशत घटकर 2.17 लाख करोड़ रह गयी। वित्त-वर्ष 2015 में केंद्र सरकार डीजल से प्राप्त 41 प्रतिशत
केन्द्रीय राजस्व राज्यों के साथ शेयर करती थी, जबकि वर्तमान में केवल 5.7 प्रतिशत
राजस्व शेयर करती है। इसका
मतलब यह है कि कर की पुनर्रचना से मुख्य रूप से केन्द्र लाभान्वित हुआ है।
5. जीएसटी-क्षतिपूर्ति
विवाद: इतना ही नहीं, कोविड-संकट और लॉकडाउन की पृष्ठभूमि में जीएसटी संग्रह
में आने वाली गिरावट का हवाला देते हुए केन्द्र ने राजस्व-हानि की स्थिति में
भरपाई के अपने वादे को पूरा करने में आना-कानी की, और अन्ततः राज्यों को केन्द्र
की शर्तों पर राजस्व-क्षतिपूर्ति की भरपाई के लिए सहमत होना पड़ा। इसने भी राज्यों पर दबाव बढ़ाया, वह भी उस समय
जब पब्लिक हेल्थ के मद में राज्यों पर अतिरिक्त खर्च का दबाव था।
ऐसी स्थिति में
राज्यों से यह अपेक्षा करना कि वे कर में कटौती के ज़रिये लोगों को ऑयल इन्फ्लेशन
से राहत प्रदान करें, उनके साथ ज्यादती है और इसीलिए उचित नहीं है।
ऑयल बांड्स जारी करने की परिपाटी:
जहाँ तक ऑयल बांड्स के सन्दर्भ में यूपीए की
जिम्मेवारी का प्रश्न है, तो आरम्भ में केन्द्र सरकार तेल-विपणन कम्पनियों(OMC) को
कम कीमत पर पेट्रोल एवं डीजल की बिक्री से होने वाले घाटे की भरपाई नकद राशि
प्रदान कर करती थी, लेकिन सन् 2002 में अटल-सरकार द्वारा पहली बार कैश की जगह 9,000
करोड़ रूपये के ऑयल बांड्स जारी किया गया और ऑइल बांड्स जारी कर
घाटे की भरपाई करने की परिपाटी शुरू की गयी। यह बांड मनमोहन सिंह की सरकार के समय परिपक्व हुआ और
उनकी सरकार ने ब्याज के साथ-साथ मूलधन का भी भुगतान किया। ध्यातव्य है कि उस समय तेल-विपणन कम्पनियों को
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से क्रूड ऑयल अपेक्षाकृत अधिक कीमत पर खरीदी पड़ती थी और
सरकार द्वारा निर्धारित खुदरा कीमत पर ग्राहकों को उपलब्ध करवानी होती थी जिसके
कारण उन्हें घाटा होता था। इस घाटे की भरपाई सरकार द्वारा सब्सिडी देकर की
जाती थी जो सरकार के राजकोष पर दबाव को बढ़ाने वाला साबित होता था। इस तरह आम जनता
को तेल की बढ़ती कीमतों के दबाव से मुक्त रखा जाता था।
आगे चलकर, एक ओर सन् 2008-09 के वित्तीय संकट के
कारण यूपीए सरकार पर राजकोषीय दबाव बढ़ने लगा, दूसरी ओर मध्य-पूर्व संकट के कारण
क्रूड ऑइल की कीमतों में तीव्र वृद्धि ने इसमें उत्प्रेरक का काम किया और
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड ऑयल की कीमतें 142 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर जा
पहुँची, तो सरकार के लिए तेल कम्पनियों को नकदी में भुगतान करना मुश्किल होता चला
गया क्योंकि सरकार को आर्थिक मन्दी की चुनौती से निबटने के लिए अतिरिक्त संसाधन भी
उपलब्ध करवाने थे और राजकोषीय अनुशासन के मद्देनज़र राजकोषीय घाटे (Fiscal Deficit)
को भी नियंत्रित रखना था।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें मनमोहन-सरकार ने (2005-06) और (2009-10) के बीच 1.4 लाख करोड़ के ऑयल बांड्स जारी किये। इसने सरकार पर लायबिलिटी बढ़ाई और पिछले दो
दशकों से यूपीए एवं एनडीए, दोनों ही सरकारों के द्वारा ऑयल बांड्स का भुगतान करना
पड़ रहा है। यूपीए द्वारा (2009-10) से (2013-14) तक 53,163 करोड़ रुपये का भुगतान ऑयल बांड्स पर
ब्याज के रूप में किया गया। सार्वजानिक
बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए पुनर्पूंजीकरण बांड्स:
वर्तमान एनडीए सरकार
ने भी सार्वजानिक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए पुनर्पूंजीकरण बांड्स जारी कर 3.1 लाख
करोड़ की राशि जुटाई है जो (2028-35) के दौरान परिपक्व होगा और जिस पर ब्याज एवं
मूलधन का भुगतान 2035 तक किया जाना है। ध्यातव्य है कि अक्टूबर,2017 में तत्कालीन वित्त-मंत्री अरुण जेटली
ने इसे अपवाद स्वरूप वन-टाइम मानक (one-time measure) के रूप में
अपनाते हुए 1.35 लाख करोड़ के पुनर्पूंजीकरण बांड्स जारी किया
था, लेकिन बाद में यह राजकोषीय घाटे से बचने के नियमित अभ्यास में तब्दील हो गया। कारण यह कि इसके कारण सरकार पर तत्काल
ब्याज-भुगतान की जिम्मेवारी आती है और राजकोषीय घाटे के आकलन में केवल यही दबाव
परिलक्षित होता है।
यहाँ तक कि अधिकांश
सरकारें फिस्कल डेफिसिट की भरपायी तो बाज़ार में बांड्स जारी करके ही करती हैं,
जिसका मतलब है उधारी लेकर अपनी ज़रूरतों को पूरा करना। इसका भी तो वही मतलब है जो मतलब आयल बांड्स जारी करने का है और यह भी
तो आने वाली सरकारों पर वित्तीय बोझ को बढ़ाता है।
विश्लेषण:
उपरोक्त तथ्यों के
आलोक में यह कहा जा सकता है कि न तो वित्त-मंत्री का यह कहना उचित प्रतीत होता है
कि बढ़ती हुई कीमतों के लिए यूपीए सरकार जिम्मेवार है और न ही तेल की बढ़ती कीमतों
को कम करने की जिम्मेवारी राज्यों के ऊपर थोपना ही उचित प्रतीत होता है। बेहतर यह होता कि वित्त-मन्त्री करों में कटौती
के ज़रिये कुछ समय के लिए तेल की बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगाने की कोशिश करतीं, और इस
मसले पर जनता के साथ-साथ विपक्ष को भी विश्वास में लेते हुए एक सीमा से ज्यादा
कटौती में असमर्थता प्रदर्शित करतीं। दरअसल नोटबन्दी, जीएसटी और कोविड-संकट एवं
लॉकडाउन से त्रस्त भारतीय अर्थव्यवस्था मुश्किलों में है, और इसका केन्द्र के
कर-राजस्वों पर प्रतिकूल असर पड़ा है, जबकि खर्च का दबाव अब भी बना हुआ है। सरकार
की राजकोषीय स्थिति बिगड़ी हुई है, और बेरोजगारी की चुनौती से निबटने और माँग को
सृजित करने आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अधिक खर्च करे। यह स्थिति निकट भविष्य
में बदलती हुई नहीं दिख रही है, इसलिए सरकार राजस्व के मोर्चे पर राहत देने के लिए
तैयार नहीं है। सरकार इसके प्रतिकूल राजनीतिक परिणामों से भी बचना चाहती है, इसलिए
पेट्रोल एवं डीजल की बढ़ती कीमतों की जिम्मेवारी को लेना के बजाय इसका ठीकरा
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार और विशेष रूप से विरोधी दलों के द्वारा शासित राज्य
सरकारों पर फोड़ना चाहती है। साथ ही, पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों के मेनुपुलेशन की
स्थिति को भी बनाए रखना चाहती है, ताकि ज़रुरत पड़ने पर अपने राजनीतिक हितों को साधा
जा सके।
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