Tuesday, 11 December 2018

सरकार-रिज़र्व बैंक टकराव : रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता


सरकार-रिज़र्व बैंक टकराव
रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता
1.  सरकार-रिज़र्व बैंक मतभेद:
a.  सरकार एवं रिज़र्व बैंक की भिन्न प्राथमिकता
b.  वित्त मंत्रालय और रिज़र्व बैंक के बीच बढ़ता मतभेद
c.  मतभेद के प्रमुख बिंदु
d.  सूक्ष्म, लघु एवं माध्यम उपक्रमों(MSME’s) को आसान शर्तों पर ऋण-उपलब्धता बढ़ाने हेतु दबाव
e.  रिज़र्व बैंक के लिए अधिक शक्तियों की माँग
f.   रिज़र्व बैंक बोर्ड में नियुक्ति के प्रश्न पर टकराव
g.  पेमेंट रेगुलेटर के प्रश्न पर भी मतभेद
h.  रिज़र्व बैंक बनाम् रिज़र्व बैंक बोर्ड
i.   गैर-बैकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) का सन्दर्भ
j.   आर्थिक विशेषज्ञों का नज़रिया  
2.  रिजर्व बैंक सर्कुलर,फरवरी,2018:
a.  सर्कुलर से विवाद की शुरूआत
b.  सर्कुलर के कारण गर्माता माहौल
c.  रिजर्व बैंक की प्रतिक्रिया
d.  रिज़र्व बैंक के रुख में नरमी
e.  बैड बैंक और एनपीए की समस्या
3.  रिज़र्व बैंक का रिज़र्व और सरकार:
a.  रिज़र्व फण्ड से आशय
b.  वार्षिक लाभांश को लेकर बदलता नज़रिया
c.  सरकार की नज़र रिज़र्व फण्ड के अधिशेष पर
d.  सरकार की दुविधा
4.  रिज़र्व बैंक अधिनियम,1934 की धारा 7 और सरकार
5.  आरबीआई की बोर्ड मीटिंग,नवंबर,2018:
a.  विवाद के समाधान की दिशा में पहल
b.  मतभेद की परिणति RBI गवर्नर के इस्तीफे के रूप में
c.  पटेल के इस्तीफे के राजनीतिक निहितार्थ
d.  रिजर्व बैंक बोर्ड के राजनीतिकरण का परिणाम
e.  पहली बार नहीं है रिज़र्व बैंक के गवर्नर का इस्तीफा

सरकार-रिज़र्व बैंक मतभेद
रिजर्व बैंक वह सर्वोच्च निकाय और विशेषज्ञ नियामक संस्था है, जो देश के बैंकिंग तंत्र को नियंत्रित करता है। इसे अपने काम में सरकार के हस्तक्षेप से बहुत हद स्वायत्तता प्राप्त है। शायद यही कारण है कि उसने जिस तरीके से भारतीय वित्तीय व्यवस्था का ऐसे समय में नियमन किया जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ संकट की ओर बढ़ रही थीं और सन् 2008-09 का वित्तीय संकट गहराता जा रहा था, उसकी दुनिया भर में तारीफ हुई और उसे दुनिया भर के केन्द्रीय बैंकों के लिए रोल-मॉडल के रूप में देखा गया। इस पृष्ठभूमि में ऐसे समय में, जब भारतीय अर्थव्यवस्था अनिश्चितता एवं अस्थिरता के माहौल से गुजर रही है, सरकार के साथ रिज़र्व बैंक का टकराव उसकी स्वायत्तता के साथ-साथ भारतीय वित्तीय व्यवस्था और अर्थव्यवस्था के लिए नकारात्मक साबित हो सकता है और इससे पूरी दुनिया को नकारात्मक सन्देश जा रहा है। 
सरकार एवं रिज़र्व बैंक की भिन्न प्राथमिकता:
दरअसल सरकार अक्सर विकास को लेकर चिंतित होती है और इसके मद्देनज़र वह अर्थव्यवस्था, नकदी और ऋण की कमी को लेकर चितिंत होती है ताकि तात्कालिक चुनौतियों एवं तात्कालिक चिंताओं से निबटा जा सके। इसीलिए कई बार उसके कदम अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक हितों को प्रतिकूलतः प्रभावित करने की स्थिति में होते हैं। इसके विपरीत रिज़र्व बैंक इन तात्कालिक चिंताओं की तुलना में अर्थव्यवस्था के वित्तीय स्वास्थ्य और दीर्घकालिक हितों को कहीं अधिक अहमियत देती है, इसीलिए वह अर्थव्यवस्था की तात्कालिक जरूरतों एवं दीर्घकालिक हितों के बीच सामंजस्य को प्राथमिकता देती है और जरूरत पड़ने पर दीर्घकालिक हितों के संरक्षण की ओर उसका झुकाव कहीं अधिक होता है। शायद यही कारण है कि वर्तमान में रिज़र्व बैंक वित्तीय-प्रबंधन और प्रबंधन मानकों को कहीं अधिक अहमियत दे रही है जिसके कारण सर्कार के साथ उसके टकराव की परिस्थितियाँ निर्मित हो रही हैं।
वित्त मंत्रालय और रिज़र्व बैंक के बीच बढ़ता मतभेद:
किसी भी देश में संस्थाओं की टकराहट कोई नई बात नहीं है और न ही हमेशा इसे नकारात्मक नज़रिए से ही देखा जाना चाहिए। यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी भी है, बशर्ते यह टकराहट एक हद में रहे। इसी पहले भी कई बार रिज़र्व बैंक और तत्कालीन वित्त मंत्री के बीच मतभेद की बातें सामने आती रही हैं: कभी मसला सुपर नियामक संस्था के रूप में वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद्(FSDC) के गठन का हो, या फिर ब्याज दर एवं नकदी के प्रबंधन का; मसला चाहे मौद्रिक नीति समिति(MPC) फ्रेमवर्क के निर्धारण का हो, या फिर बैंकिंग क्षेत्र के प्रबंधन का। लेकिन, ऐसे तमाम मसलों पर मतभेद कई बार हद के बाहर जाते दिखे, पर हद के बाहर गए नहीं। रिज़र्व बैंक और सरकार, दोनों ने समय रहते परिपक्वता का परिचय देते हुए अपने मतभेद सुलझा लिए।      पर, इस बार मतभेद उस हद को लाँघता हुआ दिखाई पड़ रहा है। यह उस स्तर पर पहुँच चुका है जहाँ से रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता खतरे में दिखाई पर रही है और इसके कारण 10 दिसम्बर,2018 को अंततः रिज़र्व बैंक के गवर्नर को इस्तीफ़ा देना पड़ा।
मतभेद के प्रमुख बिंदु:
अगर रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच मतभेद की शुरुआत के प्रश्न पर विचार किया जाय, तो इसके बीज नोटबंदी में दिखाई पड़ते हैं। नोटबन्दी की घोषणा के महज कुछ घंटे पहले रिज़र्व बैंक ने नोटबन्दी के विरुद्ध राय देते हुए कहा था कि इससे कुछ हासिल नहीं होनेवाला है, पर उसकी राय की अनदेखी करते हुए न केवल नोटबन्दी की घोषणा की गयी, वरन् लम्बे समय तक रिज़र्व बैंक की राय भी लोगों के सामने नहीं आने दी गयी, जिससे उसकी एवं उसके गवर्नर की छवि प्रतिकूलतः प्रभावित भी हुई और इसके लिए उसकी व्यापक स्तर पर आलोचना भी हुई। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि इस पूरी प्रक्रिया में रिज़र्व बैंक हाशिये पर दिखा और वित्तीय तंत्र की कमान वित्त-मंत्रालय के हाथों में दिखी। लेकिन, तमाम फजीहत झेलते हुए भी रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने चुप्पी साधना बेहतर समझा। पर, इससे सबक लेते हुए रिज़र्व बैंक और उसके गवर्नर ने देश की वित्तीय स्थिरता और दीर्घकालिक आर्थिक हितों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था एवं वित्त-व्यवस्था के स्वास्थ्य को अहमियत देनी शुरू की। नवम्बर,2016 के बाद सरकार एवं पूरा वित्तीय तंत्र नोटबन्दी की चुनौतियों से निबटने में लगा रहा, जबकि 2017 के उत्तरार्द्ध से यह वस्तु एवं सेवा-कर(GST) के द्वारा उत्पन्न चुनौतियों से निबटने में। इन दोनों कदमों ने देश की अर्थव्यवस्था को जो झटका दिया, उसने वित्तीय तंत्र और बैंकिंग व्यवस्था को झकझोरकर रख दिया और इस चुनौती से निबटने के क्रम में रिज़र्व बैंक ने जो कदम उठाये, उसने सरकार के साथ उसका टकराव बढ़ा और फरवरी,2018 में रिज़र्व बैंक के द्वारा जारी सर्कुलर के साथ यह मतभेद बढ़ता चला गया। इसके अलावा सरकार एवं रिज़र्व बैंक के बीच ब्याज दरों के निर्धारण को लेकर विवाद शुरू हुआ और सरकार ने ब्याज दरों में कटौती करने की बजाय वृद्धि को लेकर अपनी नाखुशी का इजहार किया। इसी के साथ यह प्रश्न भी उठने लगा कि ब्याज दरों में परिवर्तन की अधिकारिता किसके पास है। जहाँ रिज़र्व बैंक ब्याज दरों के निर्धारण में पूरी अधिकारिता अपने पास रखना चाहती है, लेकिन सरकार को इस बात को लेकर आपत्ति है।     इसके अतिरिक्त मतभेद के बिन्दुओं में निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1.  फरवरी,2018 में रिज़र्व बैंक के द्वारा जारी एनपीए से सम्बंधित सर्कुलर,
2.  सूक्ष्म, लघु एवं माध्यम उपक्रमों(MSME’s) को आसान शर्तों पर ऋण
3.  सरकार की ओर से रिज़र्व बैंक के रिज़र्व फण्ड से 3.6 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त रकम की माँग,
4.  वित्तीय दबाव झेल रहे बिजली क्षेत्र को राहत,
5.  सार्वजनिक क्षेत्र के कमज़ोर बैंकों का प्रबंधन,
6.  गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के समक्ष नकदी समस्या का समाधान, और
7.  रिज़र्व बैंक से स्वतंत्र भुगतान नियामक प्राधिकरण का गठन
रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की इस टिप्पणी के बाद केंद्रीय बैंक और सरकार के बीच मतभेद खुलकर सतह पर आ गए कि जो सरकारें अपने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करतीं उन्हें देर-सबेर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। उन्होंने इस विवाद के आलोक में सन् 2010 में अर्जेंटीना के वित्तीय संकट का हवाला देते हुए कहा कि केंद्रीय बैंक और सरकार के बीच विवाद ने वहाँ के केंद्रीय बैंक के गवर्नर को इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया जिसकी परिणति आर्थिक तबाही के रूप में हुई।
सूक्ष्म, लघु एवं माध्यम उपक्रमों(MSME’s) को आसान शर्तों पर ऋण-उपलब्धता बढ़ाने हेतु दबाव:
नोटबंदी एवं जीएसटी ने पहले ही सूक्ष्म, लघु एवं माध्यम उपक्रमों की कमर तोड़कर रख दी, और बचा-खुचा काम इन्हें मिलने वाले क़र्ज़ को लेकर रिज़र्व बैंक के सख्त रवैये ने कर दिया जिसके कारण इन्हें क़र्ज़ मिलने में तमाम तरह की परेशानियाँ आ रही हैं आरबीआई का तर्क है कि बैंकों के लगातार बढ़ते हुए एनपीए के कारण एमएसएमई को कर्जे देते वक्त कड़े वित्तीय अनुशासन का पालन करने की जरूरत है और इसी आलोक में केंद्रीय बैंक ने व्यावसायिक बैंकों पर इन उद्योगों को कर्ज देने के मामले में सख्ती कर दी थी, इस वजह से अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता दिखा। इसी आलोक में जुलाई,2018 में सरकार ने रिजर्व बैंक पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वह सूक्ष्म, लघु एवं माध्यम उपक्रमों(MSME’s) को आसान शर्तों पर भारी मात्रा में ऋण उपलब्ध करवाये, ताकि इनके प्रदर्शन में सुधार हो और नये रोजगार-अवसरों का सृजन हो।
लेकिन, बैंकिंग प्रणाली के सामने अहम् बुनियादी क्षेत्रों में सिर्फ 10 बड़े औद्योगिक घरानों के पास संभावित एनपीए का करीब 40 प्रतिशत अर्थात् करीब 4 लाख करोड़ रुपये के लगभग न चुकाए जाने के करीब पहुँच चुके ऋणों से निपटने की चुनौती है, इसीलिए इसका समाधान किए बगैर इन्हें फिर से कर्ज देने की प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकती हैं। इसीलिए वित्तीय संकट के कारण रिज़र्व बैंक खुद को इस स्थिति में नहीं पा रहा है कि वह इस दिशा में कुछ कर सके।
रिज़र्व बैंक के लिए अधिक शक्तियों की माँग:
जब वित्त-मंत्री ने पीएनबी घोटाले की जिम्मेवारी रिज़र्व बैंक पर डालते हुए प्रश्न किया, तो मार्च,2018 में वित्त-मंत्री के द्वारा उठाये गए सवाल का जवाब देते हुए रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने कहा कि बैंकों को नियंत्रित करने के रिज़र्व बैंक के अधिकार बेहद सीमित हैं क्योंकि वह बैंकों पर निगरानी तो करता है, पर सरकारी बैंकों में 80 फीसदी हिस्सेदारी होने के कारण असली नियंत्रण सरकार का है। गवर्नर उर्जित पटेल ने दृढ़ता से यह मुद्दा उठाया कि निजी बैंकों की तुलना में सरकारी बैंकों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में रिज़र्व बैंक के पास सीमित शक्तियाँ हैं, इसीलिए उन्होंने सरकार से रिज़र्व बैंक के लिए अधिक अधिकार की माँग की। अप्रैल,2018 में डिप्टी गवर्नर एनएस विश्वनाथन ने भी कहा था कि बैंकों के लोन का सही मूल्यांकन न करना बैंक, सरकार और बक़ायदारों को सूट कर रहा है क्योंकि इस बहाने बैंक अपना बही-खाता साफ सुथरा कर लेते हैं और बकायेदार डिफॉल्टर का टैग लगने से बच जाते हैं। बैंकों के एनपीए की पड़ताल कर रही मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसद की आकलन समिति को रघुराम राजन ने यह बताया कि फरवरी,2015 को उन्होंने उन कंपनियों की सूची प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त-मंत्रालय को दी थी जो लोन नहीं चुका रही थीं तथा जिनके विरुद्ध RBI जाँच चाहती थीं, पर सरकार ने इस पूरे मसले पर चुप्पी साध ली। ये कम्पनियाँ लोन का हिसाब किताब इधर-उधर करने के लिए फर्ज़ीवाड़ा कर रही हैं जिसकी जाँच के लिए अलग-अलग एजेंसियों की ज़रूरत है क्योंकि रिज़र्व बैंक अकेले नहीं कर सकता है।
रिज़र्व बैंक बोर्ड में नियुक्ति के प्रश्न पर टकराव:
सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच मतभेद का एक महत्वपूर्ण कारण रिज़र्व बैंक बोर्ड में नियुक्तियाँ भी हैं। यह विवाद उस समय गहराता नज़र आया जब सरकार ने सरकार के रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता के प्रबल हिमायती और रिज़र्व बैंक के काम-काज में सरकार के दखल के प्रबल आलोचक नचिकेत मोर को बिना किसी सूचना के रिज़र्व बैंक बोर्ड के निदेशक मंडल से हटाते हुए एस. गुरुमूर्ति समेत चार अन्य निदेशकों की नियुक्ति की। नचिकेत मोर को हटाए जाने के तरीके ने रिज़र्व बैंक के प्रबंधन को भी नाराज किया। एस. गुरुमूर्ति छोटे और मध्यम कारोबारियों को आसानी से कर्ज बाँटने के समर्थक हैं और जानकार बताते हैं कि आरबीआई की बैठक में उन्होंने फरवरी,2018 के सर्कुलर और ऋण-वितरण को लेकर रिज़र्व बैंक की सख्ती को लेकर गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के रूख के प्रति खुलकर अपनी नाराजगी जताई थी।
रिज़र्व बैंक से पृथक भुगतान-नियामक बोर्ड के प्रश्न पर मतभेद:
सरकार और आरबीआई के बीच नए भुगतान नियामक (Payment Regulator) की स्थापना को लेकर भी मतभेद है। अंतर-मंत्रालयी समिति ने रिज़र्व बैंक से पृथक भुगतान-नियामक बोर्ड की स्थापना की सिफारिश की। अक्टूबर,2018 में रिज़र्व बैंक ने देश में भुगतान-व्यवस्था की निगरानी एवं नियमन के लिए स्वतंत्र भुगतान-नियामक बोर्ड(PRB) की स्थापना के प्रस्ताव का सार्वजनिक रूप से विरोध करते हुए कहा कि वह किसी अन्य नियामक की जरूरत नहीं महसूस करता है क्योंकि वर्तमान में भारत की भुगतान-व्यवस्था दक्ष एवं प्रभावी नहीं है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। अगर ऐसे नियामक बोर्ड का गठन किया जाता है, तो:
a.  उसकी निगरानी एवं नियमन का काम RBI के जिम्मे हो।
b.  इसके मद्देनज़र प्रस्तावित बोर्ड रिज़र्व बैंक के अधीन हो, और
c.  रिज़र्व बैंक के गवर्नर को इसका नेतृत्व करें।
स्पष्ट है कि रिज़र्व बैंक भुगतान-नियमन का काम अपने हाथों में रखना चाहता है। इससे पहले भी पृथक सार्वजानिक ऋण-प्रबंधन संस्था की स्थापना के सरकार के प्रस्ताव का विरोध किया जिसके कारण यह प्रस्ताव लंबित है।  
इस आलोक में कहा जा रहा है कि सरकार नए भुगतान नियामक (Payment Regulator) की स्थापना को इच्छुक है ताकि ज़रुरत पड़ने पर भुगतान बैंक से सम्बंधित नियमों में बदलाव कर इसका दायरा बढ़ाया जा सके और उन औद्योगिक घरानों को उपकृत किया जा सके जिन्हें भुगतान बैंक के लाइसेंस मिले हैं। ऐसा भी कहा जा रहा है कि पेमेंट बैंक और पेमेंट नियामक के जरिये सरकार कुछ कारोबारी घरानों को बैंकिंग लाइसेंस दिलवाना चाहती है, जो तबतक मुश्किल है जबतक इसका नियमन रिज़र्व बैंक के जिम्मे है।
रिज़र्व बैंक बनाम् रिज़र्व बैंक बोर्ड:
रिज़र्व बैंक के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक के रूप में एस. गुरुमूर्ति के शामिल होने के बाद से सरकार का हस्तक्षेप तेजी से बढ़ा है। सरकार के साथ रिज़र्व बैंक के मतभेद के प्रश्न पर वे दृढ़तापूर्वक सरकार के साथ रहे हैं और उन्होंने कई मौकों पर रिज़र्व बैंक के रुख की आलोचना भी की है। हाल में रिज़र्व बैंक के गवर्नेंस के मुद्दे पर उन्होंने कहा था कि आरबीआई एक्ट के मुताबिक रिज़र्व बैंक का सर्वेसर्वा उसका बोर्ड होता है, गवर्नर नहीं, और नीतिगत मामलों में भी गवर्नर बोर्ड की बातों को मानने के लिए बाध्य हैं। अब अगर उनके इस तर्क को स्वीकार किया जाए, तो रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता को बचाए रख पाना मुश्किल हो जाएगा जिससे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचेगा क्योंकि सामान्यतः सरकारें, चाहे किसी की भी हों, बोर्ड में राजनीतिक झुकाव वाले लोगों की नियुक्तियाँ करती हैं और उनके माध्यम से रिज़र्व बैंक पर दबाव बनाने, उसे प्रभावित करने एवं अपने राजनीतिक हितों को साधने का स्कोप बनाये रखना चाहती हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह प्रक्रिया और भी तेज हुई है। वित्त मंत्री यह कहते हुए रिज़र्व बैंक पर लगातार दबाव निर्मित करने की कोशिश कर रहे हैं कि आरबीआई निर्वाचित लोगों की उपेक्षा नहीं कर सकती है। इसका मतलब बहुत ही स्पष्ट है और वह यह कि रिज़र्व बैंक को अपनी नीतियाँ सरकार की इच्छा के अनुरूप रखनी चाहिए।

इसके विपरीत अबतक का अनुभव और अबतक का अभिसमय यह बतलाता है कि आरबीआई बोर्ड उसके सामान्य प्रबंधन और प्रशासन का काम-काज देखता है, जबकि नीतिगत मामलों में विशेषाधिकार गवर्नर और मौद्रिक नीति समिति (MPC) के पास होता है। बोर्ड केंद्रीय बैंक को आर्थिक और मौद्रिक मसलों पर सलाह देने का काम करता है। इसीलिए यह आशंका जतायी जा रही है कि एस. गुरुमूर्ति के माध्यम से सरकार रिज़र्व बैंक के काम-काज में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रही है ताकि वह उसे दिशानिर्देशित कर सके।

गैर-बैकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) का सन्दर्भ:
आसान शर्तों पर ऋण-उपलब्धता बढ़ाने हेतु दबाव:
जहाँ तक गैर बैकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) का प्रश्न है, तो बैंकों से कर्ज लेकर बाजार में बाँटने वाली इन कम्पनियों का संकट भी उतना ही गंभीर हो चला है जितना बैंकों के कर्ज का इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश से जुड़ी सरकारी क्षेत्र की कंपनी ईएल एंड एफएस को क़र्ज़-वापसी बंद हुई, तो उसके लिए बैंकों से लिए गए क़र्ज़ लौटा पाना मुश्किल हो गयाइसका कारण यह रहा कि नोटबंदी और जीएसटी ने माइक्रो-फाइनेंसिंग सेक्टर को झटका दिया जिसके परिणामस्वरुप इस क्षेत्र से कर्ज की वापसी मुश्किल होती चली गई फलतः इससे सम्बद्ध बड़े बैंक संकट में पड़ गए और प्रोविडेंट फंड-पेंशन फंड में लगा पैसा भी दाँव पर लग गया शायद इसी कारण फिलहाल सरकार ने इसे अपने नियंत्रण में ले लिया आईएल एड एफएस, जिसके पास 91,000 करोड़ रुपये का बकाया है, संकट के सन्दर्भ में रिज़र्व बैंक ने किसी भी राहत या किसी भी प्रकार के उपचार को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने से परहेज़ किया और इसकी जिम्मेवारी उस प्रबंधन पर छोड़ी, जिसने इस कंपनी को इस हालत में पहुँचाया है। गैर-बैकिंग वित्तीय कंपनियों(NBFC) से जुड़ी हुई समस्यायें यहीं तक सीमित नहीं रहीं। अन्य गैर-बैकिंग वित्तीय कंपनियों की बिगड़ती हालत ने इस आशंका को जन्म दिया कि ये गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ कई ऐसे म्यूचुअल फंड्स की स्थिति बिगाड़ सकती हैं, जिन्होंने इन कंपनियों में भारी निवेश किया है। इसीलिए सरकार ने इन पुनर्वित्त संस्थाओं में पैसे डालने के लिए रिज़र्व बैंक पर दबाव डालना शुरू किया, ताकि इन संस्थाओं को भी राहत मिले और इनके जरिये नकदी की किल्लत झेल रहे बड़े उद्योपतियों को भी आसान शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराया जा सके। इसके लिए सरकार चाहती थी कि:
1.  रिज़र्व बैंक इन गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को इस सर्कुलर के दायरे से बाहर रखे, और
2.  इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए नकदी की चुनौती से निबटने एवं नकदी-संकट से उबरने में इन कम्पनियों की मदद करे
शायद इसी के मद्देनज़र सरकार का इरादा भाँपते हुए रिज़र्व बैंक ने अगस्त,2018 में इन संस्थाओं पर भी फरवरी,2018 वाले सर्कुलर को लागू करने की बात कही। स्पष्ट है कि रिज़र्व बैंक ने सरकार की इच्छा के विपरीत रूख अपनाया:
a.  उसने इन गैर-बैकिंग वित्तीय कंपनियों पर सख्ती बरती,
b.  उसने कई गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लाइसेंस रद्द कर उन्हें भी नए सर्कुलर के दायरे में लाने का संकेत दिया, और
c.  उन्हें किसी भी प्रकार की राहत देने से परहेज़ किया
आर्थिक विशेषज्ञों का नज़रिया:
केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के बीच उभरने वाले विवादों के आलोक में  पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि देश में लोकतंत्र को मजबूत करने और शासन को सुचारु रूप से चलाने वाली संस्थाएँ अगर किसी तरह के तनाव में आती है, तो इससे उनकी विश्वसनीयता प्रभावित होती है। इसीलिए लोकतान्त्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि इन संस्थाओं की विश्वसनीयता की पुनर्बहाली सुनिश्चित की जाय। पूर्व राष्ट्रीय आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने इन घटनाक्रमों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि:
a.  रिज़र्व बैंक का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिये, और  
b.  उसकी अतिरिक्त पूँजी का इस्तेमाल बैंकों के लिये होना चाहिए, न कि सरकार के बजट घाटे को पूरा करने के लिए।
नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच जारी गतिरोध पर कहा कि:
a.  आरबीआई को अमेरिका के फेडरल रिज़र्व बैंक की तरह वैधानिक स्वतंत्रता नहीं है, पर व्यावहारिक रूप में यह फ़ेडरल रिज़र्व बैंक की तरह ही स्वतंत्र है।
b.  सरकार और रिज़र्व बैंक, दोनों को कुछ नरमीदिखाते हुए राष्ट्रहित में मिल-जुलकर साथ चलने की कोशिश करनी चाहिए।
केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान किए जाने की बात कहते हुए रघुराम राजन ने कहा कि:
a.  सरकार अगर आरबीआई पर लचीला रुख अपनाने का दबाव डाल रही हो, तो केंद्रीय बैंक के पास नाकहने की आजादी है।
b.  आरबीआई बोर्ड का लक्ष्य संस्था की रक्षा करना होना चाहिए, न कि दूसरों के हितों की सुरक्षा।
रघुराम राजन की इस टिप्पणी में जो इशारा मौजूद है, उसे समझे जाने की ज़रुरत है।
रिजर्व बैंक सर्कुलर,फरवरी 2018
RBI सर्कुलर से विवाद की शुरूआत:
पिछले दशक के दौरान बैंकों के द्वारा जिन आसान शर्तों पर आधारभूत संरचना क्षेत्र से जुड़ी निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए जिन आसान शर्तों पर ऋण उपलब्ध करवाए गए, वे परियोजनाएँ भूमि-अधिग्रहण एवं पर्यावरणीय क्लीयरेंस से लेकर आर्थिक अनिश्चितता एवं बाज़ार में गिरावट के कारण अवरुद्ध होती दिखाई पड़ी जिसके कारण उनके लिए दिए गए ऋण फँसते हुए दिखायी पड़े और उन ऋणों की वापसी मुश्किल होती चली गयी। इसके कारण बैंकों में एनपीए की स्थिति बिगड़ती चली गयी और इसने वित्तीय व्यवस्था और बैंकों के बृहत्तर स्वास्थ्य को प्रभावित किया। स्थिति इतनी बिगड़ती चली गयी कि रिज़र्व बैंक को गंभीर उपचारात्मक कार्यवाही की दिशा में पहल करते हुए फरवरी,2018 में सर्कुलर जारी करना पड़ा। ऐसा माना जा रहा है कि इस सर्कुलर ने रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच के मतभेद को गहराने का काम किया। रिजर्व बैंक के द्वारा जारी इस सर्कुलर में बैंकों को यह निर्देश दिया गया कि:
1.  डिफ़ॉल्ट की स्थिति में एनपीए: अगर कर्ज़दार लोन चुकाने में एक दिन की भी देरी करता है, तो उसे गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (NPA) घोषित कर दिया जाए।
2.  डिफ़ॉल्टर्स को नए बड़े ऋण की मनाही: रिज़र्व बैंक ने बैंकों को उन कम्पनियों को अब और बड़े कर्ज़ न देने के निर्देश दिए, जिनका एनपीए निर्धारित सीमा को लाँघ चुका है।
3.  पुनर्भुगतान-संबंधी विवाद के निपटारे के लिए छह माह का समय: इन कंपनियों को बैंकों के साथ पुनर्भुगतान-संबंधी मसलों को सुलझाने के लिए मार्च,2018 से छह महीने (180 दिन) का वक्त दिया गया। साथ ही, यह निर्देश दिया गया कि अगर वे निर्धारित अवधि के भीतर इस मसले को नहीं सुलझा पाते हैं, तो फिर तत्संबंधित कंपनियों के खातों को दिवालिया घोषित किए जाने की प्रक्रिया में शामिल होना होगा और उन्हें इसके लिए बाध्य किया जा सकेगा।
4.  सर्कुलर के दायरे में एनबीएफसी को भी लाने का संकेत: अगस्त,2018 में रिज़र्व बैंक ने फरवरी,2018 में जारी सर्कुलर के दायरे में एनबीएफसी को भी लाने पर का संकेत दिया जिसने कॉर्पोरेट जगत के साथ-साथ सरकार की बेचैनी बढ़ा दी। इस प्रकार रिज़र्व बैंक का सर्कुलर बड़े कारोबारी समूहों को जवाबदेह ठहराकर उनको नुकसान पहुँचाता है।
स्पष्ट है कि रिज़र्व बैंक का यह सर्कुलर इस बात की स्पष्ट घोषणा करता है कि सभी बड़े कॉरपोरेट समूह, जो बैंकों से लिए गए ऋण की पुनअर्दायगी करने में नाकाम रहते हैं, उन्हें न तो नए ऋणों का आवंटन होगा और न ही उनके साथ कोई नरमी बरती जायेगी। इस सर्कुलर के कारण इन्हें नया कर्ज़ मिलना बंद हो गया और इन्हें पुराने कर्ज़ को चुकाने पर 18 फीसदी के करीब ब्याज़ पर ऋण लेना पड़ रहा था। इतना ही नहीं, उनके दिवालिया घोषित किए जाने की प्रक्रिया में शामिल होने की आशंका प्रबल हो गयी जिसने उनकी साख एवं विश्वसनीयता को भी खतरे में डाल दिया।
सर्कुलर के कारण गर्माता माहौल:
रिज़र्व बैंक की इस सख़्ती से अवसंरचना क्षेत्र, विशेष रूप से स्टील एवं बिजली-उत्पादन से जुड़ी कंपनियाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित हुईं। इनमें स्टील-उत्पादन कम्पनियों के प्रदर्शन में तो पिछले कुछ महीनों से सुधार का रुझान दिखता है, पर बिजली-उत्पादन से जुड़ी कंपनियों की स्थिति तो अब भी चिंताजनक है। इन बिजली-उत्पादन कंपनियों पर करीब एक लाख करोड़ का बकाया है जो गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति(NPA) में तब्दील हो चुका है। इसीलिए पावर सेक्टर की कंपनियों ने अदालत की शरण लीं, पर वहाँ से भी उन्हें चन्द दिनों की मोहलत के अलावा विशेष राहत न मिली।
इस सर्कुलर ने अम्बानी और अडानी सहित उन कारोबारी समूहों के लिए परेशानियाँ खड़ी की जो राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं और अबतक अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए दिवालिया-प्रक्रिया एवं दिवालिया अदालतों (Bankruptcy Court) से बचते रहे हैं। अब उनके सामने समस्या यह आ रही है कि उनके लिए इस प्रक्रिया से बच पाना मुश्किल होगा और उन्हें न चुकाए गये बिजली-क्षेत्र के ऋणों का समाधान करने के लिए एनसीएलटी में जाना होगा जिससे उनकी प्रतिष्ठा और बाजार में उनकी क्रेडिट रेंटिंग को नुकसान की सम्भावना है। इसने केंद्र सरकार को भी काफी असहज स्थिति में ला दिया है, इसीलिए सरकार रिज़र्व बैंक के एनपीए-संबंधी दिशा-निर्देशों में नरमी की संभावनाओं की तलाश कर रही है, ताकि डिफॉल्टिंग कंपनियों को इसकी अदायगी के लिए अपेक्षाकृत अधिक समय दिया जा सके। इसी पृष्ठभूमि में तत्कालीन बिजली मंत्री आर. के. सिंह ने RBI के इस कदम की आलोचना करते हुए कहा कि रिज़र्व बैंक का यह कदम ग़ैर-व्यवहारिक और वह इसमें बदलाव करे। जून,2018 में अस्थायी रूप से वित्त-मंत्री का कार्यभार संभाल रहे पीयूष गोयल ने भी यह अपेक्षा व्यक्त की कि रिजर्व बैंक फरवरी,2018 में जारी अपने सर्कुलर में नरमी लाए। इन ख़बरों से लगता है कि सरकार रिज़र्व बैंक पर दबाव डाल रही है। इसके लिए सरकार बिजली क्षेत्र में गंभीर नीतिगत समस्याओं का हवाला दे रही है जिनके कारण निजी क्षेत्र की बिजली-उत्पादन कम्पनियों पर प्रतिकूल असर पड़ा है और उनका वित्तीय प्रदर्शन प्रभावित हुआ है।
रिजर्व बैंक की प्रतिक्रिया:
रिजर्व बैंक ने सरकार के दबाव को नकारते हुए सिर्फ बिजली क्षेत्र की कंपनियों को रियायत देने से साफ़ इन्कार किया है क्योंकि उसे इस बात की आशंका है कि ऐसा करने की स्थिति में अन्य क्षेत्र की कम्पनियाँ अपने साथ होनेवाले भेद-भाव का हवाला देती हुई रियायत की माँग कर सकती हैं और ज़रुरत पड़ने पर अदालत की ओर भी रूख कर सकती हैं। इसी इन्कार के बाद से सरकार की ओर से एक बार फिर से बैड बैंक की स्थापना की माँग को तूल दिया जा रहा है। उधर अक्तूबर,2018 में डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने फिर से इस सर्कुलर का बचाव करते हुए कहा कि बैंकों पर अंकुश लगाने से बुरे लोन पर असर पड़ा है और बैंकों की हालत बिगड़ने से बची है, इसलिए इसका जारी रहना बहुत ज़रूरी है।
रिज़र्व बैंक के रुख में नरमी:
रिज़र्व बैंक के तमाम प्रतिरोधों के बावजूद सरकार ने निरंतर उस पर दबाव को बनाये रखा और उस दबाव ने समय के साथ रंग दिखाना शुरू किया। फलतः सरकार के दबाव के समक्ष रिज़र्व बैंक को झुकना पड़ा जिसे रिज़र्व बैंक बोर्ड की नवम्बर,2018 में सम्पन्न बैठक में लिए गए निर्णय के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। इसके अलावा:
1.  केंद्रीय बैंक ने 9 प्रतिशत की पूँजी-पर्याप्तता अनुपात(CAR) के अनुपालन के लिए निर्धारित समयावधि में भी इजाफा किया है जिसको लेकर क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने प्रश्न उठाये हैं और कहा है कि बेसल-3 मानक के लिए बैंकों को अतिरिक्त समय देने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
2.  इसके अतिरिक्त मूडीज ने एनपीए के 25 करोड़ रुपए तक के जोखिम वाले लोन से भी भारतीय बैंकों पर असर पड़ने की आशंका जताई है।
इस परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी देखी जा सकती है। सरकार बड़े बकाये वाले बड़े कारोबारी समूहों के लिए अलग नियम चाहती है और इस मसले पर उसे बढ़ते एनपीए की चुनौती का सामना कर रहे भारतीय स्टेट बैंक जैसे कुछ बैंकों का भी साथ मिल रहा है। स्टेट बैंक के द्वारा बिजली क्षेत्र की कंपनियों के लिए राहत पैकेज की सरकार की माँग का समर्थन किया जा रहा है, जबकि उसे फरवरी,2018 के सर्कुलर के हिसाब से कर्ज-मुक्ति के लिए या स्वामित्व में बदलाव के लिए नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में जाना चाहिए था। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने विद्युत विनियामकों और अन्य हितधारकों के लिए सशर्त राहत पैकेज का संकेत दिया है कि अगर बढ़े हुए दर का बोझ आम आदमी पर डाला जाता है, तो उपभोक्ता फोरमों को अदालतों का दरवाजा खटखटाने की आजादी होगी। इसीलिए यह कहा जा रहा है कि कि सुप्रीम कोर्ट भी नए नियमों पर नरम रुख अपनाकर अनजाने में बड़े प्रमोटरों की मदद कर रही है।
बैड बैंक और एनपीए की समस्या:
ध्यातव्य है कि बैड बैंक, सरकारी पूँजी द्वारा समर्थित नेशनल असेट रीकंस्ट्रक्शन कंपनी(NARC’s) की ही तरह है, जिसका इस्तेमाल बैंकिंग प्रणाली के एनपीए को अलग करने के लिए किया जाता है और इस तरह शेष बैंकिंग प्रणाली को एनपीए के दबाव से मुक्त रहकर काम करने में सक्षम बनाया जाता है। इसके बाद यह कंपनी पेशेवरों की मदद से इन परिसंपत्तियों का प्रबंधन करने या उन्हें बेचने की कोशिश करती है। स्पष्ट है कि
1.  बैड बैंक बिजली क्षेत्र के एनपीए की समस्या से निपटने के लिए केंद्र सरकार को स्पेस उपलब्ध कराएगा, ताकि वह अपने विवेक से फैसला कर सके, जबकि नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) में जाने की स्थिति में कंपनियों को तय प्रक्रियाओं का पालन करना होता है और फिर उसके पास स्पेस नहीं रह जाता है।
2.  एनसीएलटी में जाने की स्थिति में ऋणग्रस्त बिजली उत्पादक कंपनियों के लिए खरीददार मिलने में परेशानी आ सकती है, जबकि बैड बैंक सीधे तौर पर कंपनियों से या नए निवेशक से समस्या के समाधान के लिए सौदेबाजी कर सकता है।
3.  ऐसी स्थिति में इन कंपनियों के प्रमोटरों को एनसीएलटी में जाने की बजाय सरकार से डील कर पायेगी और दिवालियेपन की शर्मिंदगी भरी सार्वजनिक प्रक्रिया से बच जायेगी।
4.  इसीलिए यह कहा जा रहा है कि एनसीएलटी की तुलना में बैड बैंक के द्वारा अपनाई गयी प्रक्रिया में पारदर्शिता की सम्भावना अपेक्षाकृत कम है जिसके कारण ऐसे मामलों के राजनीतिकरण की सम्भावना भी बढ़ जायेगी।  
यह मसला इस तथ्य के कारण और भी ज्यादा उलझ गया है कि बिजली क्षेत्र के उपकरणों के आयात में बड़े पैमाने पर की गयी ओवर-इनवॉयसिंग के आरोपों को लेकर इनमें से कुछ कॉरपोरेट समूहों की जाँच ऊर्जा मंत्रालय के द्वारा ही की जा रही है और आरोपों के सही होने की स्थिति में इन कंपनियों को जानबूझकर कर्ज न चुकानेवालोंकी श्रेणी में रखा जा सकता है जो ज्यादा कठोर सजा को निमंत्रण देगा।
रिज़र्व बैंक का रिज़र्व और सरकार

रिज़र्व फण्ड से आशय:
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर रिजर्व बैंक रिजर्व फंड के एक हिस्से को सरकार को सौंपने से क्यों बच रही है? दरअसल दुनिया के अन्य केन्द्रीय बैंकों की तरह रिज़र्व बैंक भी सरकारी प्रतिभूतियों को जारी करने और उनमें निवेश करने का काम करता है। उस पर विदेशी मुद्रा भंडार को बनाये रखने की जिम्मेवारी होती है जिसे उसके द्वारा विदेशों में निवेश किया जाता है और इस निवेश से उसे आय प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त वह अल्पावधि और दीर्घावधि जरूरतों के मद्देनज़र बैंकों को भी ब्याज पर संसाधन उपलब्ध कराता है। इन सबसे जो आय प्राप्त होती है, उसके हिस्से को आकस्मिक परिस्थितियों से निबटने के लिए सुरक्षित रखा जाता है जिसे रिजर्व फंड के रूप में जाना जाता है, और इसका आकार इकॉनोमिक कैपिटल फ्रेमवर्क(ECF) के तहत् निर्धारित किया जाता है। पिछले एक वर्ष में आरबीआई का यह फंड 7.58 लाख करोड़ से बढ़कर 9.69 लाख करोड़ रुपए हो गया है। इसका उद्देश्य है वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारी उथल-पुथल और विदेशी मुद्रा भंडार में तीव्र गिरावट के मद्देनज़र उत्पन्न होनेवाले संकट से निबटाने में रिज़र्व बैंक को सक्षम बनाना।
वार्षिक लाभांश को लेकर रिज़र्व बैंक का बदलता नज़रिया:
अबतक का अनुभव यह बताता है कि आकस्मिकता निधि को लेकर रिज़र्व बैंक की सोच बदलते हुए समय और बदलती हुई ज़रूरतों के आलोक में लोचशील रही है:
1.  1990 के दशक के अन्त में तत्कालीन डिप्टी गवर्नर वाई. वी. रेड्डी के द्वारा न्यूनतम आकस्मिकता निधि के सवाल पर गठित समिति ने सिफारिश की थी कि रिज़र्व बैंक को बाजार से प्राप्त लाभांश के जरिये अपनी परिसंपत्तियों का 12 प्रतिशत आकस्मिकता निधि के रूप में बनाये रखना चाहिए।
2.  इसके बाद यूपीए सरकार के समय गठित वाई. एच. मालेगाम समिति ने एक निश्चित न्यूनतम आवश्यकता का निर्धारण तो नहीं किया, मगर उसने आकस्मिकता निधि के आकार को देखते हुए लगभग पूरे वार्षिक लाभांश को केंद्र सरकार के साथ साझा करने का सुझाव दिया। सन् 2013-14 में मालेगाम समिति ने रिज़र्व बैंक के द्वारा आकस्मिकता निधि और परिसम्पत्ति विकास रिज़र्व (Asset Development Reserve) के मद में लाभांश अंतरण की परिपाटी को समाप्त करने की सिफारिश की। इन्हीं सिफारिशों के आलोक में इस टकराव का समाधान सरकार के पक्ष में हुआ और सन् 2013-14 से रिज़र्व बैंक ने वार्षिक लाभांश की लगभग सारी राशि सरकार को अंतरित करने पर रजामंदी जतायी।
3.  इस आलोक में तबसे रिज़र्व बैंक के द्वारा लाभांश मद की लगभग (50-60) हज़ार करोड़ की राशि प्रति वर्ष सरकार को अंतरित की जाती है। पहले इसका एक हिस्सा ही रिज़र्व बैंक को अंतरित किया जाता था। रघुराम राजन के आरबीआई गवर्नर बनने के बाद भी यह जारी रहा, जब आकस्मिकता निधि आरबीआई की कुल परिसंपत्तियों का 8 प्रतिशत थी।
4.  इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि आरबीआई की कुल परिसंपत्तियों के हिसाब से आकस्मिकता निधि क्रमबद्ध तरीके से नियमित अंतराल पर घटते हुए सन् 2008 के 12 प्रतिशत से घटकर आज 6 प्रतिशत रह गई है।
सरकार की नज़र रिज़र्व फण्ड के अधिशेष पर:
अब सरकार की नज़र रिज़र्व बैंक के पास मौजूद साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक के आरबीआई के अतिरिक्त रिजर्व फंड (Economic Capital Framework) पर है। आरबीआई के द्वारा जारी वार्षिक रिपोर्ट (जुलाई,2017-जून,2018) के मुताबिक, यह राशि अभी 9.69 लाख करोड़ रुपए की है। रिजर्व बैंक के बोर्ड में सरकार के प्रतिनिधि के अनुसार रिजर्व बैंक का मुद्रा भंडार बाजार में चलन में मौजूद कुल करेंसी का (12.0-18.7) फीसदी के बीच होना चाहिए, जबकि मौजूदा समय में यह भंडार (27-28) फीसदी है। इस तरह रिजर्व बैंक की तिजोरियों में 3.6 लाख करोड़ की अतिरिक्त रकम पड़ी हुई है। सरकार चाहती है कि यह रकम रिजर्व बैंक उसे लाभांश के रुप में दे दे, ताकि उसे विकास कार्यों पर खर्च किया जा सके। इसी आलोक में वित्त मंत्रालय की ओर से रिज़र्व बैंक को भेजे प्रस्ताव के जरिये रिज़र्व फण्ड में से लगभग एक तिहाई रकम (3.6 लाख करोड़ रुपये) की माँग की गई। यहाँ पर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि रिज़र्व बैंक की बैलेंस शीट पर वास्तविक आकस्मिकता निधि 2.5 लाख करोड़ रुपये है, जो केंद्रीय बैंक की परिसंपत्तियों का करीब 6.5 प्रतिशत है, लेकिन सरकार का कहना है कि रिज़र्व बैंक का रिज़र्व फण्ड वैश्विक मानकों के हिसाब से करीब 3.6 लाख करोड़ रुपये ज्यादा है
अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आखिर सरकार रिज़र्व फण्ड से पैसे की माँग क्यों कर रही है और उसे इसकी ज़रुरत क्यों है, तो इसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
a. लोकसभा का चुनाव निकट हैं और इसे जीतने के लिए सरकार पर खर्च का दबाव है। नोटबन्दी की घोषणा करते समय सरकार की अपेक्षा थी कि करीब ढ़ाई-तीन लाख करोड़ के पुराने नोट्स वापस नहीं लौटेंगे और ऐसी स्थिति में उसके द्वारा इस राशि का इस्तेमाल अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए किया जा सकता है, लेकिन 99 प्रतिशत से अधिक की पुरानी मुद्राओं की वापसी के कारण यह अपेक्षा पूरी नहीं हो पाई। जहाँ तक कर-राजस्व में वृद्धि का प्रश्न है, तो प्रत्यक्ष कर का कराधार विकसित तो हुआ, पर तदनुरूप कर-राजस्व में वृद्धि अपेक्षा के अनुरूप नहीं रही।
b. इसी प्रकार सरकार को जीएसटी से जो अपेक्षाएँ थी, वो भी पूरी नहीं हुईं। इस पर आर्थिक सुस्ती का भी असर पड़ा। इसके परिणामस्वरूप सरकार का राजकोषीय घाटा आरंभिक सात महीने के दौरान ही 110 प्रतिशत से अधिक पर पहुँच चुका है और अब समस्या यह है कि चुनावी वर्ष में सरकार को शिद्दत के साथ संसाधनों की जरूरत है, अन्यथा आगामी लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। इसलिए सरकार की नज़र रिज़र्व बैंक के रिज़र्व फण्ड पर है।
c.  वित्त मंत्रालय के अधीन आर्थिक मामलों के विभाग (DEA) ने लिखा है कि वित्तीय स्थिति अभी भी नाज़ुक है और इसका असर गंभीर पड़ने वाला है। उसे डर है कि अगर गैर-वित्तीय बैंकिंग और हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों को अतिरिक्त पैसा नहीं मिला, तो छह महीने के भीतर ये भी लोन चुकाने की हालत में नहीं रहेंगी।
सरकार की दुविधा:          
सरकार इस मसले पर सार्वजानिक रूप से खुलकर सामने आने से बचना भी चाहती है और यह भी चाहती है कि रिज़र्व बैंक उसके अलिखित निर्देशों के अनुरूप काम करे। अगर ये बातें, सार्वजानिक होती हैं, तो ऐसा देश की अर्थव्यस्था के लिए अच्छा नहीं होगा और इससे यह संकेत जाएगा कि सरकार का ख़ज़ाना खाली हो चुका है। साथ ही, यह भी गलत संदेश जाएगा कि सरकार RBI की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करना चाहती है। यह स्थिति सरकार के लिए और भी मुफीद नहीं होगी, विशेषकर तब, जबकि सीबीआई के आतंरिक विवाद के कारण पहले ही सरकार की बहुत किरकिरी हो चुकी है। और, अगर रिज़र्व बैंक ऐसा नहीं करता है, तो संसाधनों का अभाव चुनावी साल में उसकी मुश्किलें बढ़ाने वाला साबित होगा।
लेकिन, सरकार के इस प्रस्ताव को रिज़र्व बैंक की ओर से नामंज़ूर कर दिया गया। रिजर्व बैंक के पास रिजर्व फंड के आकार के मसले पर उसके पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि इसका आकार कम-से-कम 10 लाख करोड़ रुपया होना चाहिए, उसके बाद ही रिजर्व बैंक सरकार को लाभांश के रुप में राशि दे सकती है। उन्होंने इस ओर भी इशारा किया कि अगर रिज़र्व बैंक के द्वारा सरकार की इस माँग को मान भी लिया जाता है, तो यह बाज़ार में नकदी की उपलब्धता को बढ़ायेगा जिसके परिणामस्वरूप मुद्रास्फीतिक दबाव और चालू खाते के घाटे में वृद्धि हो सकती है तथा रुपया और भी कमजोर हो सकता है। इसीलिए उनकी नज़रों में सरकार की यह माँग व्यावहारिक भी नहीं है।  
वैसे भी, रिज़र्व बैंक का रिज़र्व समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि  एनबीएफसी/ एचएफसी को दिसंबर तक 2 लाख करोड़ रुपये का बकाया चुकाना है और उसके बाद जनवरी-मार्च,2019 तक 2.7 लाख करोड़ के कमर्शियल पेपर और नॉन-कन्वर्टेबिल डिबेंचर का भी भुगतान करना है। मतलब यह कि समस्या कहीं अधिक गंभीर है. रिज़र्व बैंक का रिज़र्व थोड़ी देर के लिए राहत तो दे सकता है, पर समस्या का स्थाई समाधान नहीं दे सकता।
इसके बाद सरकार ने अर्थव्यवस्था में विद्यमान सुस्ती को दूर करने के लिए एनपीए नियमों में ढील देकर क़र्ज़ सुविधा बढ़ाने सहित कई मुद्दों के समाधान के लिए आरबीआई अधिनियम के उस प्रावधान (धारा 7) का इस्तेमाल किया है, जिसका उपयोग पहले कभी नहीं किया गया था ताकि वृद्धि दर तेज़ की जा सके।
रिज़र्व बैंक अधिनियम,1934 की धारा 7 और सरकार
यह अत्यंत विडंबनात्मक स्थिति को दर्शाता है कि केंद्र सरकार एक ओर रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता पर जोर देती हुई उसकी स्वायत्तता के सम्मान का वादा करती है, दूसरी ओर रिज़र्व बैंक के 83 साल के इतिहास में पहली बार सेक्शन 7 का इस्तेमाल करते हुए रिज़र्व बैंक को निर्देश देने का संकेत देती है जो रिज़र्व बैंक और वित्त मंत्रालय के बीच टकराव को उत्प्रेरित करता है। अधिनियम की धारा 7(2) और धारा 7(3) के अनुसार बैंक के कारोबार और मामलों का सामान्य अधीक्षण एवं निर्देशन की शक्ति केन्द्रीय निदेशक बोर्ड (Central Board of Directors) को सौंपी जा सकती है और RBI बोर्ड के द्वारा उन सारी शक्तियों का इस्तेमाल किया जाएगा जिसका इस्तेमाल सामान्य स्थिति में रिज़र्व बैंक के द्वारा किया जाता है और केन्द्रीय बोर्ड के द्वारा बनाये गए विनियमों के जरिये उसे सौंपा जाता है इसके मुताबिक केंद्र सरकार जनहित को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय बैंक को निर्देश जारी कर सकती है और इसके लागू होने की स्थिति में रिजर्व बैंक के कारोबार से जुड़े फ़ैसले गवर्नर के बजाय रिज़र्व बैंक का निदेशक मंडल (Board of Directors) लेगा इस पृष्ठभूमि में जहाँ वित्त मंत्रालय निर्वाचित संस्थाओं की जवाबदेही पर जोर देते हुए रिज़र्व बैंक पर दबाव बनाने की कोशिश में लगा है, वहीं रिज़र्व बैंक के गवर्नर रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता का हवाला दे रहे हैं।
इसी आलोक में केंद्र सरकार ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया अधिनियम,1934 की धारा 7 के तहत् विचार-विमर्श के लिए रिज़र्व बैंक को तीन पत्र के जरिये करीब एक दर्जन माँगें रखी जिसने दोनों के बीच के मतभेद को गहराया। इसमें आकस्मिकता निधि का एक बड़ा हिस्सा सरकार को हस्तांतरित करने का मसला भी शामिल है। ध्यातव्य है कि इस धारा के तहत् सरकार रिज़र्व बैंक को निर्देश दे सकती है और रिज़र्व बैंक सरकार के उन निर्देशों को मानने के लिए बाध्य है। धारा 7 के लागू होने के बाद बैंक कारोबार से जुड़े फैसले में सरकार के हस्तक्षेप के बढ़ने की संभावना होगी और रिजर्व बैंक के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के माध्यम से सरकार अपनी बात मनवाने की कोशिश करेगी। दूसरे शब्दों में कहें, तो धारा 7 कहीं न कहीं आरबीआई गवर्नर के अधिकारों को कमजोर करता है। आरबीआई के कामकाज और स्वायत्तता में सरकार की ऐसी दखल उस पर शिकंजा कसना ही है, ताकि केंद्रीय बैंक सरकार की इच्छानुरूप ही फैसले करे।
आरबीआई की बोर्ड मीटिंग,नवंबर,2018: विवाद के समाधान की दिशा में पहल:
आखिरकार आरबीआई और केंद्र सरकार के विवाद के बीच आरबीआई बोर्ड की बहुप्रतीक्षित बैठक 19 नवंबर को संपन्न हुई दरअसल सीबीआई विवाद और इसमें सरकार की होनेवाली किरकिरी ने इस बैठक के दौरान सरकार को बैकफुट पर ले जाने का काम किया और उसे अपना रुख नरम करना पड़ा इस परिदृश्य में नवम्बर,2018 में रिज़र्व बैंक के बोर्ड की मीटिंग और इसमें जिन मसलों पर सहमति बनी, वह अगर इस विवाद का निपटारा नहीं करता है, तो कम-से-कम इस तनाव को कम करता हुआ इस विवाद के समाधान की संभावना को बल अवश्य प्रदान करता है। इस बैठक में मतभेद के चार बिन्दुओं पर विचार किया गया:
1.  आरबीआई का आर्थिक पूँजी ढ़ाँचा (Economic Capital Framework),
2.  घाटे और फँसे कर्ज की समस्या से जूझ रहे बैंकों के लिए तात्कालिक सुधारात्मक कदम ढ़ाँचा (Prompt Corrective Action),
3.  संकटग्रस्त मझोले, छोटे और सूक्ष्म उपक्रमों के लिए ऋण पुनर्गठन की योजना, और
4.  बैंकों के लिए बेसिक नियामकीय पूँजी ढ़ाँचा।
इस बैठक में उर्जित पटेल के सख्त रवैये के कारण सरकार न तो अतिरिक्त पैसे हासिल कर पायी और न ही उसे नीतिगत हस्तक्षेप की ही छूट मिल पायी। इस बैठक के निर्णयों को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1.  रिज़र्व फण्ड पर सरकार की दावेदारी पर विचार के लिए टेक्निकल कमेटी के गठन का निर्णय: इस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि रिज़र्व बैंक के अतिरिक्त रिज़र्व  में से सरकार को कुछ दिया जाय या नहीं, इस प्रश्न पर विचार के लिए एक टेक्निकल कमेटी का गठन किया जाएगा और यही कमिटी इससे सम्बंधित फार्मूला तय करेगी समिति में रिज़र्व बैंक एवं वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के अलावा बाहर के कुछ विशेषज्ञों को भी शामिल किए जाने की सम्भावना है। समिति की सिफारिशों पर अंतिम फैसला आरबीआई गवर्नर ही करेंगे, क्योंकि रिज़र्व बैंक की तरफ से गठित हर समिति की सिफारिशों पर अंतिम फैसला करने या नहीं करने का अधिकार गवर्नर के पास ही होता है।
अभी तो रिज़र्व बैंक और सरकार को मिलकर इस कमेटी का गठन करना है जो अपने आप में चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इस कमिटी की संरचना और इसमें शामिल किये जाने वाले लोगों पर बहुत हद तक यह निर्भर करेगा कि इसका निर्णय क्या होगा और किसके पक्ष में होगा। इसीलिए एक धारणा यह भी है कि आरबीआई और सरकार का टकराव अभी समाप्त नहीं हुआ है, इसीलिए यह स्थायी नहीं, बल्कि अस्थायी युद्ध-विराम है।
2.  रिज़र्व बैंक आंतरिक कमेटी के द्वारा क्रेडिट फ्लो बढ़ाने के प्रश्न पर विचार को राजी: बोर्ड की बैठक का एक एजेंडा गहराते एनपीए संकट के आलोक में प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (PCA) के तहत् आरबीआई के द्वारा 11 सार्वजनिक बैंकों और एक निजी क्षेत्र के बैंक के द्वारा कर्ज दिए जाने, नयी ब्रांच खोलने और लाभांश वितरण पर आरोपित रोक पर विचार करना भी था, ताकि क्रेडिट फ्लो को दुरुस्त किया जा सके। वर्तमान में ये बैंक त्वरित सुधार कार्रवाई के नियमों के कारण कर्ज नहीं दे सकते हैं, क्योंकि उनका एनपीए उनके द्वारा दिए गए कर्ज का 10 प्रतिशत से ज्यादा हैं, जिसका नतीजा उनकी इक्विटी पूँजी में क्षरण के तौर पर निकलता है। रिज़र्व बैंक का तर्क यह है कि ये बैंक उसी सूरत में कर्ज देने का काम शुरू कर सकते हैं, जब सरकार द्वारा उनका समुचित पुनर्पूंजीकरण (Recapitalisation) कर दिया जाए। इस आलोक में बोर्ड की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि रिज़र्व बैंक की आंतरिक कमेटी के द्वारा क्रेडिट फ्लो बढ़ाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।
3.  यद्यपि रिज़र्व बैंक ने संकट में फँसी ऋण-ग्रस्त नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (NBFC) को संकट से बाहर निकालने के लिए विशेष व्यवस्था की सरकार की माँग के प्रति उदासीनता प्रदर्शित की है, तथापि के बाजार में नगदी संकट से सम्बंधित सरकार के तर्क के आलोक में उसने ओपेन मार्केट ऑपरेशन(OMO) के जरिये 8000 करोड़ रुपए की नकदी बढ़ाने पर सहमति प्रदर्शित की है। 
4.  रिज़र्व बैंक के बोर्ड ने रिज़र्व बैंक के प्रबंधन को यह सलाह दिया कि वह एमएसएमई के कर्जदारों की ऋणग्रस्त मानक परिसंपत्तियों के पुनर्गठन की योजना पर विचार करे। यह सुविधा 25 करोड़ रुपए तक की ऋण सुविधा वाले संस्थानों के लिए तैयार की जानी है। सूत्रों के मुताबिक रिज़र्व बैंक लघु और मध्यम कारोबारियों को 25 करोड़ तक के कर्ज से सम्बंधित मामलों में ढ़ील दे सकती है, जिसको लेकर मूडीज ने भारतीय बैंकों पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका जताई है।
मतभेद की परिणति RBI गवर्नर के इस्तीफे के रूप में:
नवम्बर,2018 में रिज़र्व बैंक के बोर्ड की बैठक के बाद ऐसा लग रहा था कि सरकार और आरबीआई के बीच टकराव का हल निकल चुका है, या फिर यह टकराव कम-से-कम कुछ महीनों के लिए टल चुका है; लेकिन RBI बोर्ड की प्रस्तावित बैठक के महज़ चार दिन पूर्व 10 दिसम्बर को गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे के साथ यह अनुमान भी गलत साबित हुआ और अब रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता ही नहीं, वरन् उसकी साख एवं विश्वसनीयता भी खतरे में है। सबसे महत्वपूर्ण इस्तीफे की टाइमिंग है: एक ओर संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होनेवाला है, दूसरी ओर चार दिन बाद ही रिज़र्व बैंक बोर्ड की बैठक होने वाली थी। साथ ही, 11 दिसम्बर को पाँच राज्यों की विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आनेवाले हैं। यद्यपि उर्जित पटेल ने अपने इस्तीफे में निजी कारणों को इस्तीफे की वज़ह बतायी है, पर ऐसा माना जा रहा है कि प्रस्तावित बैठक में RBI बोर्ड का बहुमत सर्कुलर एवं ऋण-वितरण को लेकर सख्ती को कम किये जाने और रिज़र्व बैंक के गवर्नेंस में बदलाव के जरिये बोर्ड को अपेक्षाकृत अधिक सशक्त बनाने के पक्ष में था जिसकी सूचना गवर्नर उर्जित पटेल के पास थी। अबतक बोर्ड की भूमिका सलाहकारी होती थी और रिज़र्व बैंक के गवर्नर के पास अंतिम रूप से निर्णय लेने का अधिकार होता था, लेकिन सरकार बोर्ड को रिज़र्व बैंक पर प्रभावी निगरानी में सक्षम बनाने की दिशा में बदलावों पर विचार कर रही थी।   
इतना ही नहीं, इस प्रकरण ने सरकार की विश्वसनीयता एवं कार्य-शैली को भी प्रश्न के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है और वह यह कि आखिर क्यों सरकार एवं वित्त-मंत्रालय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और उर्जित पटेल से लेकर नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया और मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम तक के साथ तालमेल बिठा पाने में असफल रहा और अंततः उन्हें सरकार से दूरी बनानी पड़ी। और, वह भी तब, जब रघुराम राजन को छोड़कर अन्य सबों की नियुक्ति खुद इस सरकार के द्वारा की गयी थी।
जहाँ तक गवर्नर की नियुक्ति-प्रक्रिया का प्रश्न है, तो यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और कुछ अन्य पश्चिमी देशों के विपरीत भारत में रिज़र्व बैंक के गवर्नर के चयन एवं नियुक्ति की कोई स्पष्ट एवं पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है। इसके लिए औपचारिक रूप से आवेदन माँगने की कोई परम्परा नहीं है। वर्तमान में प्रधानमंत्री और वित्त-मंत्री शार्टलिस्टेड नाम में से किसी व्यक्ति को रिज़र्व बैंक को गवर्नर नियुक्त किया जाता है।
पटेल के इस्तीफे के राजनीतिक निहितार्थ:
उर्जित पटेल के इस्तीफे को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि यह न केवल रिज़र्व बैंक के काम-काज में सरकार के बेज़ा हस्तक्षेप का परिणाम है, वरन् यह राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ सरकार एवं इसकी संस्थाओं के कामकाज में संघ एवं इसकी सहयोगी संस्थाओं के बढ़ते दखल का भी परिणाम है। ध्यातव्य है कि सरकार एवं रिज़र्व बैंक के बीच गहराते मतभेद के बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की आर्थिक शाखा   स्वदेशी जागरण मंच के प्रमुख ने चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि रिज़र्व बैंक के गवर्नर या तो केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करें, या फिर गवर्नर पद से इस्तीफा दे दें क्योंकि सरकार जनता के प्रति जवाबदेह है, रिज़र्व बैंक नहीं। उन्होंने रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता की बात खारिज करते हुए कहा कि उसके पास राजकोषीय व्यवस्था पर विशेषज्ञता नहीं है और इसे सरकार के साथ समन्वयित करना चाहिए। इसे महज संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि इस चेतावनी को जरी किये जाने के महज डेढ़ माह के भीतर पटेल को जाना पड़ा।
रिजर्व बैंक बोर्ड के राजनीतिकरण का परिणाम है यह इस्तीफ़ा:
नीति आयोग में राजीव कुमार को लाकर और भारतीय रिजर्व बैंक में गुरुमूर्ति को लाकर संघ ने आर्थिक नीतियों में अपना दखल बढ़ाने की कोशिश की है, यद्यपि रिजर्व बैंक में अंशकालिक निदेशक के तौर पर होने के कारण रिजर्व बैंक की नीतियों के निर्धारण में एस. गुरुमूर्ति की भूमिका आधिकारिक तौर पर नहीं है, लेकिन सरकार और संघ के करीब होने के कारण उनकी राय को दरकिनार करना केंद्रीय बैंक के लिए मुश्किल हो रहा है। यही कारण है कि अगस्त,2018 में भारतीय रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल में एस. गुरुमूर्ति के शामिल होने के साथ रिजर्व बैंक एवं सरकार के बीच मतभेद गहराते चले गए और इसी के साथ रिजर्व बैंक में सरकार के हस्तक्षेप को लेकर विरोध भी तेज होता चला गया। दरअसल रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल के सदस्य होने के नाते एस. गुरुमूर्ति, जो पहले स्वदेशी जागरण मंच के भी प्रमुख रह चुके हैं, ने निम्न मसलों पर रिज़र्व बैंक पर दबाव बनाना शुरू किया:
1.  सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों(MSME’s) एमएसएमई को कर्ज दिए जाने की शर्तें आसान की जाएँ और इनके लिए एमएसएमई कर्ज की उपलब्धता में भी वृद्धि की जाए। उनका मानना है कि देश के 5 करोड़ के करीब लघु एवं सूक्ष्म उद्यमों में रोज़गार-निर्माण करने  और देश का कायापलट करने की पूरी क्षमता है।
2.  एस. गुरुमूर्ति यह भी चाहते हैं कि कुछ बैंकों को रिजर्व बैंक के प्रॉम्पट करेक्टिव एक्शनमें थोड़ी छूट दी जाए।
उनके इन प्रस्तावों को सरकार द्वारा नियुक्त दूसरे निदेशकों सतीश मराठे, रेवती अय्यर और सचिन चतुर्वेदी से समर्थन मिला है, लेकिन रिजर्व बैंक के पूर्णकालिक निदेशकों की राय इनसे अलग है। स्पष्ट है कि यह लड़ाई रिजर्व बैंक बनाम् केंद्र सरकार का रूप लेते जा रही है और गुरुमूर्ति इसमें सरकार की ओर से अहम किरदार बनकर उभरे हैं।
इसीलिए ऐसा माना जा रहा है कि यह पूरा विवाद सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच नीतिगत टकराव से ज्यादा है। हालात कहीं अधिक गंभीर एवं अनिश्चित हैं। इसकी पुष्टि इस बात से भी हो रही है कि सरकार को भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम की धारा 7 के इस्तेमाल के सन्दर्भ में सोचने के लिए विवश होना पड़ रहा है। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि दुनिया में भारत अकेला ऐसा देश नहीं है और रिज़र्व बैंक अकेला ऐसा केन्द्रीय बैंक नहीं है जो सरकार के साथ टकराव का सामना कर रहा है और जिस पर सरकार पर अवांछित दबाव है। ऐसी स्थिति अमेरिका से लेकर टर्की, न्यूजीलैंड एवं यूनाइटेड किंगडम तक देखने को मिल रही है।
पहली बार नहीं है रिज़र्व बैंक के गवर्नर का इस्तीफा:
उर्जित पटेल केंद्र सरकार के साथ मतभेदों के कारण रिज़र्व बैंक के गवर्नर के पद से इस्तीफ़ा देने वाले दूसरे गवर्नर बने। यद्यपि सन् 1977 में के. आर. पुरी और सन् 1990 में आर. एन. मल्होत्रा को भी समय से पहले अपने पड़ से इस्तीफ़ा देना पड़ा, लेकिन इसके पीछे कारण के रूप में केंद्र में सत्ता-परिवर्तन था। दिसम्बर,1990 में एस. वेंकिटारामणन को भी अपने पड़ से इस्तीफ़ा देना पड़ा, लेकिन संभवतः उसका कारण प्रतिभूति घोटाला के कारण उत्पन्न दबाव था। उर्जित पटेल से पहले सन् 1957 में तत्कालीन वित्त-मंत्री टी. टी. कृष्णामाचारी के साथ मतभेदों और इस विवाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के द्वारा वित्त-मंत्री का पक्ष लिए जाने के कारण आहत बेनेगल रामा राउ ने गवर्नर पद से इस्तीफ़ा दिया था। तत्कालीन वित्त-मंत्री रिज़र्व बैंक को वित्त-मंत्रालय की अधीनस्थ संस्था के रूप में देखते थे और उन्होंने सार्वजानिक रूप से रिज़र्व बैंक की सोच सकने की क्षमता को प्रश्नांकित किया था। उस समय प्रधानमंत्री नेहरु ने पत्र के जरिये सख्त लहजे में उनसे कहा था कि “केन्द्रीय बैंक सरकार के विभिन्न प्रकार्यण का हिस्सा है और उसे केंद्र सरकार को नीतिगत मसलों पर सलाह देने का तो अधिकार है, पर यह असंगत होगा कि रिज़र्व बैंक अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ही काम करे।” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि रिज़र्व बैंक सरकार से असंगत नीतियों को नहीं अपना सकती है। राउ से भी पहले सन् 1937 में सर ओसबोर्ने स्मिथ ने विनिमय दर एवं ब्याज दर के मसले पर सरकार के साथ मतभेद के कारण समय से पहले अपने पद से इस्तीफ़ा दिया था। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जिस समय रिज़र्व बैंक के गवर्नर पद से बेनेगल रामा राउ ने इस्तीफ़ा दिया, उस समय एक संस्था के रूप में रिज़र्व बैंक उभर रही थी, लेकिन पिछले 84 वर्षों के दौरान इसने अपनी साख दुनिया भर में स्थापित की है और आज इसे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ केन्द्रीय बैंकों में से एक माना जाता है।