"मैं निराशावादी हूँ"
(स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री
के राष्ट्र के नाम संदेश पर एक प्रतिक्रिया)
दोस्तों,आप सबको स्वतंत्रता दिवस की,देर से ही सही, ढेर सारी शुभकामनाएँ। कल लालक़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौक़ा मिला। इस संबोधन ने सुकून भी दिया और दुविधापूर्ण मन:स्िथति में पहुँचा दिया।फिर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं भी निराशावादियों में ही हूँ।
खैर,सबसे पहले मैं प्रधानमंत्री को बधाई देना चाहूँगा। पहली बार उनके लंबे स्पीच को धैर्यपूर्वक सुनने की हिम्मत जुटा सका। अच्छ लगा यह देखकर कि अब हमारे प्रधानमंत्री हवा-हवाई घोषणाओं से परहेज़ की अहमियत को धीरे-धीरे ही सही समझ रहे हैं।वे यथार्थवाद के कहीं ज्यादा क़रीब दिखे। अपने स्पीच में प्रधानमंत्री जब देश को नई कार्य-संस्कृति देने की बात कर रहे हैं, जब देश को निराशा और हताशा की मनोदशा से बाहर निकालकर आशा और विश्वास के संचार की बात कर रहे हैं,जब जातिवाद के ज़हर एवं संप्रदायवाद के ज़ुनून के लिए जगह न होने की बात करते हुए देश की सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी को संरक्षित करने की बात कर रहे हैं, जब लोकतंत्र में जनभागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क-संवाद स्थापित करने की आवश्यकता पर बल एवं इस संदर्भ में स्वयं अपने द्वारा की जाने वाली पहल की बात कर रहे हैं,वित्तीय समावेशन की दिशा में पहल करते हुए जन-धन, अटल पेंशन,सुरक्षा बीमा एवं जीवन ज्योति बीमा का अपनी उपलब्धि के रूप में उल्लेख कर रहे हैं, तो निश्चय ही वे प्रभावी भी हैं और उनसे असहमति की सीमित गुंजाइश ही बनती है।इसी प्रकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए विशेष पहचान संख्या का प्रावधान उनके लिए सामाजिक सुरक्षा योजना के लाभ को भी सुनिश्चित करेगा और उनकी बचतों की उनके लिए उपलब्धता को भी। अपने भाषण में उन्होंने उचित ही क़ानूनों की बहुलता और जटिलताएँ की ओर इशारा करते हुए चार आचार संहिताओं के ज़रिए उनके सहजीकरण-सरलीकरण की बात की।लेकिन, यहीं पर अन्य निराशावादियों की तरह मेरे मन में भी कुछ प्रश्न उठते हैं।
A.जनधन का संदर्भ
यह सच है कि महज़ साल भर से भी कम समय में सत्रह करोड़ खाते का खुलना और इसके ज़रिए बीस हज़ार करोड़ के आस-पास की राशि का मिलना उपलब्धि है, पर इस संदर्भ में कुछ प्रश्न :
१. क्या नये खाताधारक में बड़ी संख्या में वे लोग भी शामिल हैं जो पहले से वित्तीय ढाँचे की पहुँच में हैं और उन्होंने इस स्कीम का लाभ उठाने के लिए जनधन खाते खुलवाए।
२. क्या लगभग छियालीस प्रतिशत से अधिक खाते निष्क्रिय और शून्य बैलेंस की िस्थति में नहीं हैं? लेकिन , मैं भी प्रधानमंत्री की तरह भविष्य में इनकी भूमिका को महत्वपूर्ण और निर्णायक मानता हूँ।
३.क्या जनधन खातों के समर्थन के सिए हमारे पास पर्याप्त वित्तीय ढाँचा मौजूद है?
४. क्या महज़ खाता खोलने से वित्तीय समावेशन का उद्देश्य पूरा होगा? क्या बैंकिंग साख तक इनकी पहुँच को सुनिश्चित करने की कोशिश की गई?
B.सामाजिक सुरक्षा संजाल:
तीनों सामाजिक सुरक्षा योजनायें, जिन्हें मोदी जी अपनी उपलब्धि बतला रहे हैं, क्या वाक़ई उपलब्धि हैं?-इस प्रश्न पर विचार अपेक्षित है।इनकी सार्वभौमिक प्रकृति इनकी उपलब्धि है। साथ ही, पूर्ववर्ती योजनाओं की तुलना में बीमा कवर राशि का अधिक होना और मिशन मोड अप्रोच में इन्हें चलाया जाना इन्हें विशिष्ट बनाता है, लेकिन इनमें सर्वाधिक प्रगतिशील प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना है जो महज़ बारह रूपए में दो लाख रूपए तक का बीमा कवर प्रदान करता है। पर, अटल पेंशन योजना अनाकर्षक है। जीवन ज्योति बीमा योजना कुछ मामलों में अपनी पूर्ववर्ती की तुलना में प्रगतिशील है और कुछ मामलों में प्रतिगामी। स्पष्ट है कि इन तीनों योजनाओं में दुर्घटना बीमा योजना ही मोदी सरकार के लिए यूएसपी बन सकती है।
C.स्वच्छता:
मोदी भले ही इसे अपना यूएसपी बनाने की कोशिश में लगे हों, पर इस दिशा में अब तक जो भी प्रयत्न हुए हैं,वे प्रचारात्मकता तक सीमित रहे हैं। अब तक इन्हें ज़मीनी धरातल पर उतारने की कोशिश नहीं हुई है और न ही इसके लिए अवसंरचनात्मक संस्थागत ढाँचे को विकसित किया गया है। साथ ही,बिना मनोवृत्ति और सोच के स्तर पर बदलाव के सफलता के मुक़ाम तक पहुँचा पाना मुश्किल है।इस संदर्भ में मोदी जी ने सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए टाॅयलेट के संदर्भ में जिस उपलब्धि की बात की गई , उसमें संदेह है।
अब प्रश्न उठता है कि स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग ४.१९ लाख टाॅयलेट- निर्माण के लक्ष्य का, तो प्रधानमंत्री का यह दावा कि ४अगस्त २०१५ तक ३.६४ लाख टाॅयलेट का निर्माण किया जा चुका है, संदेह से परे नहीं है क्योंकि मई २०१५ तक महज़ १.२१ लाख शौचालयों का निर्माण ही संभव हो पाया था।इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न इनके रखरखाव और इनके चालू होने का है।
सर, अगर स्वच्छता अभियान को निष्कर्ष तक पहुँचाना है, तो स्थानीय संस्थाओं को ज़िम्मेवारी सौंपनी होगी,उन्हें फ़ंड उपलब्ध करवाने होंगे और क्षमता-निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। लेकिन, दुर्भाग्य से आपकी सरकार ने राजीव गाँधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान को बंद करने का निर्णय लिया जिससे पंचायतों के क्षमता-निर्माण का काम बुरी तरह से प्रभावित होगा।
D.महँगाई को कम करना:
निश्चित तौर पर थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति माइनस चार प्रतिशत और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर चार से पाँच प्रतिशत के बीच है जो यूपीए-२ के अधिकांश हिस्से में दहाई अंकों के आसपास रही।लेकिन, इस प्रश्न पर दो कोणों से विचार किया जाना चाहिए:
१. क्या सरकार उन पाँच क़दमों के बारे में बतला सकती है जो उसने महँगाई कम करने के लिए उठाए हैं और जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि महँगाई आगे नियंत्रित ही रहेगी?
२. महँगाई में कमी का एक महत्वपूर्ण कारण अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड आॅयल की क़ीमतों में ज़बरदस्त गिरावट है जिसपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। इसी कारण चालू खाता घाटे में भी गिरावट की िस्थति भी दिखाई पड़ती है, नहीं तो निर्यात के मोर्चे पर हमारा प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा है और उसमें निरंतर गिरावट जारी है।
साथ ही, चीज़ों का सस्ता होना और महँगाई वृद्धि दर में गिरावट दो चीज़ें हैं। क्या वह गिरावट रोज़मर्रा की वस्तुओं में हो रही है जिन्हें ख़रीदने के लिए हमें अक्सर बाज़ार जाना होता है या फिर मुख्य रूप से उन विनिर्मित उत्पादों की क़ीमतों में, जिन्हें ख़रीदने हम कभी-कभी बाज़ार जाते हैं?
E."जातिवाद का ज़हर और
संप्रदायवाद का जुनून"
प्रधानमंत्री जी ने यह सही ही कहा कि "बंधुत्व, भाईचारा और सद्भाव सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी है" जिसकी हर क़ीमत पर रक्षा होनी चाहिए क्योंकि इसके बिना राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा कर पाना मुमकिन नहीं होगा। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि इसे ख़तरा किससे है? इसी के साथ यह प्रश्न उठता है कि भाजपा और प्रधानमंत्री सही मायने में नई प्रकार की राजनीति करते हुए जातिवाद और सम्प्रदायवाद के लिए "नो स्पेस" के अपने रूख पर अटल है? अगर हाँ, तो गिरिराज सिंह और साध्वी निरंजन ज्योति जैसों के लिए मंत्रिमंडल में स्पेस कैसे? कैसे जनवरी- मई २०१४ की तुलना में जनवरी-मई २०१५ के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में चौबीस प्रतिशत का उछाल अाया और मरने वालों की संख्या छब्बीस से बढ़कर तैंतालीस हो गई? सर, "घर वापसी", "लव जेहाद" धर्मांतरण आदि के मसले पर आपकी चुप्पी ने आहत किया है। यह चुप्पी पवन दीक्षित की इन पंक्तियों की याद दिलाती है:
बुरे लोगों से दुनिया को ख़तरा नहीं,
शरीफ़ों की चुप्पी ख़तरनाक है ।
प्रधानमंत्री जी, आपको अति पिछड़ा वर्गके नेता के रूप में प्रचारित किया जाना, आपको तेली समुदाय का बतलाया जाना, नवनियुक्त राज्यपाल की नियुक्ति का नीतीश जी के द्वारा संघवाद के आधार पर विरोध को महादलित की नियुक्ति के विरोध के रूप में प्रचारित कर इसका राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास, राष्ट्रकवि दिनकर को भूमिहार के रूप में प्रचारित करना, एक दौर में माँझी के लिए जेल की माँग करने वाले तथा माँझी के राज को जंगलराज बताने वालों का आज अचानक माँझी के साथ गलबाँहियाँ डाले घूमना, पप्पू यादव के प्रति प्रेम, जो रामविलास और रामकृपाल कल तक पानी पी-पीकर आपको कोसते थे, आज आपके मंचों पर शोभायमान होते: ये बातें "नो स्पेस" वाली सोच के साथ हज़म नहीं होतीं। ऐसा नहीं कि आपके विरोधी दूध के धुले हों:अब बात चाहे नीतीश और लालू की हो या फिर काँग्रेस की; पर प्रश्न आप से विशेष रूप से इसलिए है कि आपने नई प्रकार की राजनीति का आश्वासन दिया था और आप देश के प्रधानमंत्री हैं, यद्यपि मैंने् आपको वोट नहीं दिया और न ही दूँगा, पर महज़ इस बात से मेरे आप पर अधिकार कम नहीं हो जाते हैं क्योंकि आप उनहत्तर प्रतिशत उन मतदाताओं की तरह मेरे भी प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने आपको वोट नहीं दिया, पर जिनकी अपने प्रधानमंत्री से अपेक्षाएँ हैं।
F. कालाधन और भ्रष्टाचार:
माननीय प्रधानमंत्री जी, आपने कालेधन के संदर्भ में यह दावा किया कि देश में कालेधन का सृजन रूक चुका है। आपके इस दावे में कितनी सच्चाई है, इस बात को मुझसे बेहतर आप समझते हैं। जहाँ तक काले धन पर विशेष जाँच दल के गठन की बात है, तो निश्चय ही आपने इस मसले पर तत्परता दिखाई, जिसके लिए आप तारीफ़ के हक़दार हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या आप सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों से बँधे हुए नहीं थे? G-20 में इस मसले को उठाने की बात को निरंतरता में देखा जाना चाहिए।ऐसा नहीं कि आपने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार पहल नहीं की। इसके पहले भी पिछले कुछ वर्षों से इस दिशा में प्रयास जारी हैं। यह कहना कि अब कोई भी देश से बाहर कालाधन भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, यह अतिरंजना है। आपने पैंसठ सौ करोड़ के कालाधन घोषित किए जाने का हवाला दिया, जो ऊँट के मुँह में ज़ीरा के समान है।जहाँ तक काले धन पर नए क़ानून की बात है, तो यह अचानक नहीं हुआ । इस पर पहले से प्रयास चल रहे थे। इसे इसी निरंतरता में देखा जाना चाहिए।
जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, तो प्रधानमंत्री जी सिर्फ़ यह कह देने मात्र से कि पिछले पन्द्रह महीने के दौरान मेरी सरकार पर एक भी पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है,आपकी बातें स्वीकार्य नहीं हो जातीं। ललित गेट मसले पर सुषमा स्वराज का अनुचित और अनैतिक आचरण पर आपको अपनी िस्थति स्पष्ट करनी चाहिए। मध्यप्रदेश में व्यापम, वसुंधरा राजे सिंधिया की ललित मोदी के साथ साँठगाँठ , छत्तीसगढ़ में पीडीएस घोटाला : इन तमाम मसलों पर चुप्पी और सहिष्णुता क्यों? क्या आपको नहीं लगता कि भ्रष्टाचार जो भाजपा का यूएसपी था और भाजपा ने इस मसले पर बढ़त बनायी भी थी,आज उस बढत को भाजपा लूज़ कर चुकी है।कैग की रिपोर्ट कहती है कि मध्य प्रदेश में व्यापम से भी कई गुना बड़े घोटाले का मसला प्रकाश में आया है। इस स्कैम के बारे में सीबीआई का कहना है कि उसके पास इतने मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं कि वह इस मामले की जाँच को आगे बढ़ा सके।अभी-अभी गोवा के मुख्यमंत्री के साले को रंगे हाथ घूस लेते देखें जाने का मामला प्रकाश में आया है।ऐसी िस्थति में भ्रष्टाचार के संदर्भ में आपके उपरोक्त निष्कर्ष को स्वीकारना मेरे लिए कम-से- कम मुश्किल है।
G. किसानों का संदर्भ :
सर, आपने कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया जो निश्चय ही स्वागतयोग्य क़दम है। जहाँ तक मेरा ख़्याल है, इसकी अनुशंसा काफ़ी पहले एम एस स्वामीनाथन आयोग ने की थी। आपकी इस बात के लिए भी प्रशंसा करनी होगी कि प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में फ़सल-मुआवज़ा हेतु न्यूनतम मानदंड को आपने पचास प्रतिशत से घटाकर तैंतीस प्रतिशत कर दिया, अब यह बात अलग है कि इसका लाभ ज़रूरतमंदों तक पहुँचा या नहीं और यदि पहुँचा, तो किस हद तक। इसके लिए आपको ज़िम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिए तत्संबंधित राज्य सरकारें ज़िम्मेवार हैं, चाहे वे कांग्रेस की हों, भाजपा की या फिर स्थानीय दलों की। पर, सर , आपने न्यूनतम समर्थन मूल्य में पचास प्रतिशत की वृद्धि का वादा किया था, उस वादे का क्या हुआ? कहीं अगले पाँच सालों में पचास प्रतिशत वृद्धि की बात तो नहीं की गई थी? कई बार जब आपके समर्थक तर्क देते हैं और कहते हैं कि पैंसठ साल का हिसाब नहीं माँगा और हमसे पैंसठ दिन या तीन सौ पैंसठ दिन का हिसाब माँगते हो( ये वही लोग हैं जो अरविन्द केजरीवाल से उनकी जीत के बाद और सत्ता सँभालने के ठीक पहले से हिसाब माँग रहे हैं), तो लगता है कि ये पैंसठ साल तक हिसाब नहीं माँगने देंगे( यह बात अलग है कि इन पैंसठ वर्षों के दौरान (१९७७-७९),(१९८९-९०) और (१९९६-२००४) तीन बार में दो बार कुल दो बार भाजपा कुल आठ वर्षों तक प्रत्यक्षत: सत्ता में भागीदार रही। तो सर, पहले हम न तो हिसाब माँगना जानते थे और न हिसाब करना जानते थे, कांग्रेस के राजतंत्र में जीने वाली निरीह प्रजा थे हम; पर सर, आपने और केजरीवाल जी ने ही हिसाब माँगना और करना सिखाया। सर, अब हम हिसाब माँगेंगे भी और लेंगे भी, आपके तरीक़े से नहीं,अपने तरीक़े से और मानक कांग्रेस नहीं, मानक होंगे आपके द्वारा किए गए वादे और हमारी अपेक्षाएँ ।
लोकतंत्र और जनभागीदारी :
प्रधानमंत्री जी ने लालक़िले की प्राचीर से भागीदारी लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करने की बात की, लेकिन लोकसभा के चुनाव प्रचार अभियान से लेकर अगर अब तक की उनकी गतिविधियों पर ग़ौर किया जाय, तो हम पाते हैं कि :
१. लोकतंत्र की प्रधानमंत्री की अपनी परिभाषा है, तभी तो सोलहवीं लोकसभा का चुनाव लंबे समय के बाद संसदीय चुनाव की बजाय राष्ट्रपतीय व्यवस्था के चुनाव पर लड़ा जा रहा है।
२.तब से लेकर अब तक लगभग सारे विधानसभा चुनाव व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर लड़े गए। कल तक कांग्रेस इसी तरह चुनाव लड़ती थी।
३. आपकी और केजरीवाल जी, दोनों की राजनीति की सीमा यह है कि दोनों की राजनीति मुद्दों से शुरू होती है और व्यक्तित्व के मंडन पर समाप्त होती है।
आपने "मन की बात" के ज़रिए जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क संवाद स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन इसकी सीमा यह रही कि यह एकतरफ़ा सम्पर्क संवाद का माध्यम बनकर रह गया।दूसरी बात यह कि आपके दौर में श्री मती गाँधी के समय प्रचलित राजनीतिक मुहावरे एक बार फिर से लोकप्रिय होने लगे।प्रधानमंत्री कार्यालय इतना हावी है कि कैबिनेट सचिवालय अप्रासंगिक प्रतीत होने लगा।इतना ही नहीं, एक ओर आप भागीदारी लोकतंत्र की बात करते हैं, दूसरी ओर पंचायतों के क्षमता-निर्माण के लिए चलाए जा रहे राजीव गाँधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान को रोक देते हैं।
प्रधानमंत्री जी, आपकी कुछ चीज़ें भारत का ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे काफ़ी परेशान करती है:
१. विपक्ष के प्रति सम्मान का अभाव
२.अपने आलोचकों के प्रति असहिष्णुता और अपनी आलोचना सुनने को तैयार न होना, जैसा कि आपने लालक़िले की प्राचीर से अपने आलोचकों पर "निराशावादी" कहकर निशाना साधा।
३.आत्ममुग्धता की मनोदशा में अबतक की सरकारों की उपलब्धियों को नकारना
प्रधानमंत्री महोदय,बस इतनी अपेक्षा है आपसे कि बीच-बीच में आत्ममूल्यांकन का अवसर निकालें। निश्चित तौर पर गवर्नेंस आपका यूएसपी हो सकता है, पर तभी जब आप गिरिराजों, नरेन्द्र तोमरों, साक्षी महाराजों और साध्वी निरंजन ज्योतियों पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाएँ तथा भ्रष्टाचार को लेकर अपने स्टैंड में कनसिस्टेंसी को मेनटेन करें।रही बात निराशावादी होने की, तो मैं निदा फाजली की इस शायरी से इस आलेख का अंत करना चाहूँगा:
हम ग़मज़दा हैं गाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत,
देंगे वही जो इस दुनिया से पायेंगे हम।