बिहार: सामाजिक न्याय के सहारे करवट लेती लेफ़्ट
राजनीति
(बेगूसराय के विशेष सन्दर्भ में)
अब तो उतनी भी
मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में,
जितनी हम छोड़ दिया
करते थे पैमाने में।
दिवाकर राही का यह
शेर वर्तमान भारत में वामपंथ की वास्तविक राजनीतिक स्थिति को बयाँ करता है। एक वह
भी दौर था जब पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के अलावा उत्तर भारत और विशेष रूप
से बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश में लेफ़्ट की मज़बूत एवं प्रभावशाली उपस्थिति
थी। एक समय था, जब बिहार में मुंगेर, बांका, बेगूसराय, बलिया, मधुबनी, मोतिहारी,
पटना, आरा, सीवान आदि ऐसे संसदीय क्षेत्र से कभी-न-कभी वामपन्थी उम्मीदवारों को
चुनावी सफलता मिली है। इनमें से कई लोकसभा क्षेत्रों से तो वामपन्थी उम्मीदवारों
ने कई बार जीत हासिल की है। लेकिन, आज ये वामपंथी दल स्थानीय
एवं क्षेत्रीय दलों के पिछलग्गू बन चुके हैं। आज वे अपने मूल्यों एवं सिद्धान्तों
की तिलांजलि देकर कर स्थानीय एवं क्षेत्रीय दलों और उनके नेतृत्व की कृपा पर
निर्भर हैं। और, आलम यह है कि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्ष
करना पड़ रहा है। लेकिन, हाल के वर्षों में वामपन्थ को
लेकर सकारात्मक रुझान देखने को मिल रहे हैं। यह आलेख वामपंथ के अवसान से लेकर उसकी
संभावनाओं की पड़ताल करता है। इस आलेख में हम इस प्रश्न पर विचार के बहाने बेगूसराय
के साथ-साथ बिहार में लेफ़्ट के एक महत्वपूर्ण घटक दल सीपीआई के राजनीतिक अवसान के
कारणों की पड़ताल करेंगे और लोकसभा-चुनाव, 2024 के बहाने
लेफ़्ट के भविष्य की संभावनाओं पर भी विचार करेंगे।
बिहार
में लेफ्ट का अवसान:
लेफ्ट का यह अवसान
बेगूसराय, बिहार और भारत तक सीमित नहीं है, वरन् यह वैश्विक प्रक्रम है। सवाल यह उठता है कि आख़िर किन चीज़ों ने 1990
के दशक में और उसके बाद लेफ़्ट को अप्रासंगिक बनाते हुए उन्हें
हाशिये पर धकेलने का काम किया? दरअसल, 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में आर्थिक परिदृश्य में आने वाले बदलावों ने और इसके
परिणामस्वरूप पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के उभार ने लेफ्ट के मार्जिनलाइजेशन
में अहम् भूमिका निभायी।
इसके अलावा, मण्डल आन्दोलन के साथ ज़ोर पकड़ती सामाजिक न्याय की
राजनीति की पृष्ठभूमि में राजनीतिक परिदृश्य में आने वाले बदलावों ने
लेफ़्ट के सामने ऐसी चुनौतियाँ उत्पन्न की, जिनको रेस्पांड करने के लिए
लेफ़्ट राजनीति और उसके सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक
एजेंडों को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत थी। लेकिन, लेफ़्ट
ऐसा कर पाने में असमर्थ रहा। परिणामत: पिछड़ा, दलित, शोषित-उत्पीड़ित एवं वंचित समाज पर पहचान की राजनीति हावी होती चली गयी और
धीरे-धीरे लेफ़्ट का यह पारम्परिक वोटबैंक उससे दूर छिटकता चला गया। आज यही तबका
राजद, जदयू, लोजपा, सपा, और बसपा का पारम्परिक वोटबैंक है। इतना ही नहीं,
यह वह दौर था जब सामाजिक न्याय की राजनीति न केवल राजनीतिक एजेंडे
को, वरन् नेतृत्व की प्रकृति को भी पुनर्परिभाषित कर रही थी, पर लेफ़्ट का नेतृत्व इससे बेख़बर बना रहा।
यहाँ पर इस बात को
भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि इसमें सुप्रीम
कोर्ट के उन निर्णयों की भी अहम् भूमिका रही जिसके परिणामस्वरूप बन्द और
हड़ताल की संभावनाएँ कमजोर पड़ती चली गयीं। इसने ट्रेड यूनियन गतिविधियों को
प्रतिकूलतः प्रभावित किया और मज़दूरों पर लेफ़्ट की पकड़ भी ढ़ीली पड़ती चली गयी।
इस दौर में समस्याएँ और चुनौतियाँ बदलीं, पर लेफ़्ट के नेतृत्व वाला ट्रेड
यूनियन आन्दोलन पुराने एजेंडे को
पुनर्परिभाषित कर पाने और नये एजेंडे को गढ़ पाने में असफल रहा।
साथ ही, यह
वह दौर है जिस दौर में आर्थिक चिन्तकों और
मीडिया ने मिलकर लेफ़्ट की नकारात्मक एवं विकास-विरोधी छवि गढ़ी, और इस छवि को गढ़ने में गढ़ों और मठों की वामपंथी राजनीति ने भी अहम्
भूमिका निभायी। स्पष्ट है कि पिछले तीन दशकों के दौरान पूरी दुनिया में पहचान की
राजनीति ने और वैश्वीकरण की तेज होती प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में पश्चिमी
उपभोक्तावादी संस्कृति के उभार ने सोच, मानसिकता और एजेंडे
के स्तर पर वामपंथी राजनीति को सशक्त चुनौती दी है।
लेफ्ट
का दरकता क़िला बनकर रह गया है बेगूसराय:
एक समय में बेगूसराय
लेफ़्ट के गढ़ के रूप में जाना जाता था और यह बिहार के मास्को और लेनिनग्राड के
रूप में लोकप्रिय था। लेकिन, अब लेफ़्ट का यह क़िला ढ़ह चुका है, और ढ़हा ही नहीं
है, वरन् हिन्दुत्व के अखाड़े में तब्दील चुका है। अगर हम इस बात को स्वीकार न भी
करना चाहें, तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि लेफ़्ट का यह क़िला दरक चुका है। आलम
यह है कि सन् (1977-96) के दौरान छह लोकसभा चुनावों में बलिया से
लेफ़्ट को चार बार सफलता मिली, लेकिन उसके बाद से
लेफ़्ट/सीपीआई दूसरे और तीसरे नम्बर पा आने के लिए संघर्ष कर रहा है।
बेगूसराय:
लेफ़्ट के अवसान के कारण:
अब, सवाल
यह उठता है कि बेगूसराय में लेफ़्ट की इस दुर्गति का कारण क्या है? इस सन्दर्भ में देखें, तो 1990 के दशक तक आते-आते
वह नेतृत्व राजनीतिक परिदृश्य से विदा होता है जिसने बेगूसराय में वामपंथी आंदोलन
की मजबूत नींव रखी थी और जिसकी जमीनी धरातल पर सक्रियता थी। अब वे चाहे चंद्रशेखर
सिंह हों, या सूर्य नारायण सिंह, या
फिर रामेश्वर सिंह। इस दौर में जो नया नेतृत्व उभार कर सामने आया, उसकी सत्ता की राजनीति में कहीं अधिक
रुचि थी। परिणामतः वैचारिक एवं बौद्धिक पहलू उपेक्षित होते चले गए। अपनी
इस रुचि के कारण उसने वामपंथी एजेंडे को भी
दरकिनार किया और शोषित-उत्पीड़ित
वर्गों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की भी उपेक्षा की। इतना ही नहीं,
बेगूसराय में पिछड़ों, दलितों और
शोषित-उत्पीड़ितों ने वामपंथी आन्दोलन को मजबूती तो प्रदान की, पर स्थानीय स्तर की वामपन्थी राजनीति में भूमिहारों के वर्चस्व के कारण इन्हें
नेतृत्व के स्तर पर समुचित एवं पर्याप्त
भागीदारी नहीं मिल पायी। उनकी भूमिका झंडा धोने तक सीमित रही। वामपंथी
आन्दोलन एवं संगठन का नेतृत्व भूमिहारों के जिम्मे रहा और नेतृत्व के स्तर पर वही
काबिज रहे। इसका इन्हें हमेशा मलाल रहा और इसने कम्युनिस्ट आन्दोलन से इनके मोहभंग
का आधार तैयार किया।
यही वह पृष्ठभूमि है
जिसमें 1990 के दशक में जोर पकड़ती सामाजिक न्याय की राजनीति ने इन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया और
धीरे-धीरे ये कम्युनिस्ट पार्टी से सामाजिक न्याय की हिमायत करनेवाले राजनीतिक
दलों: राजद, जनता दल (यूनाइटेड) और लोजपा की ओर बढ़ते चले
गए। फलतः कम्युनिस्ट आन्दोलन का जनाधार कमजोर होता चला गया और इसने कम्युनिस्ट
आन्दोलन की नींव को हिलाकर रख दिया। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना
चाहिए कि परवर्ती कम्युनिस्ट नेतृत्व की जितनी प्रतिबद्धता सत्ता की राजनीति के
प्रति थी, उतनी प्रतिबद्धता कम्युनिस्ट आन्दोलन को मज़बूत करने और उसके भीतर अगली
पीढ़ी के नेतृत्व को विकसित कर पाने के प्रति नहीं। वे गढ़ों एवं मठों की राजनीति में उलझते चले गए और उनकी पूरी ऊर्जा
अपनी मठाधीशी को बरक़रार रखने में खर्च होती रही।
इतना ही नहीं, बेगूसराय
में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया के अवसान का कारण कम्युनिस्ट पार्टी की नकारात्मक छवि भी है। उसकी यह नकारात्मक छवि उसके
कृत्यों के कारण निर्मित भी हुई है और उसके विरोधियों द्वारा बनायी भी गयी है। एक
तो भूमि-सुधार के मसले पर होने वाले संघर्ष हिंसक होते चले गए, और दूसरे, इस संघर्ष ने काँग्रेस बनाम् कम्युनिस्ट
के राजनीतिक संघर्ष का आधार तैयार किया। फलतः राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला चल पड़ा
और इसके लिए कम्युनिस्टों को जिम्मेवार ठहराया गया, जबकि
वास्तविकता यह है कि इस राजनीतिक संघर्ष में काँग्रेस ने अपराधियों, माफियाओं और तस्करों तक को संरक्षण प्रदान किया। इसके अलावा, ट्रेड यूनियन गतिविधियों के कारण विकासात्मक गतिविधियों के अवरुद्ध होने
और इसके लिए कम्युनिस्टों को जिम्मेदार ठहराने का चलन शुरू हुआ। और, इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी है। इतना ही नहीं, इस
नकारात्मक छवि को निर्मित करने में स्थानीय स्तर पर कम्युनिस्ट नेताओं की दबंगई की
भी अहम् भूमिका रही। एक दौर वह भी था जब कम्युनिस्टों का भय एवं आतंक आम जनता के
मानस-पटल पर इस कदर विद्यमान था कि कोई इनके खिलाफ आवाज़ उठाने की सहस नहीं कर पाता
था, और अगर किसी ने आवाज़ उठायी, तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ती थी । आलम यह रहा कि
कम्युनिस्टों से आजिज आ चुके लोगों ने सूरजभान सिंह जैसे अपराधियों को सिर-माथे पर
लिया और उसके पक्ष में खुलकर सामने आये। इसका नतीज़ा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव,2004
में सूरजभान की उम्मीदवारी कम्युनिस्टों के लिए ताबूत की आखिरी कील
साबित हुई। उन्होंने हर तरीके से कम्युनिस्ट आन्दोलन की जड़ें खोद डालीं। दूसरे
शब्दों में कहें, तो कम्युनिस्टों के मनोबल को तोड़ने और उनके जनाधार को
छिन्न-भिन्न करने में सूरजभान सिंह की भूमिका अहम् एवं निर्णायक रही। तब से लेकर
अबतक कम्युनिस्टों को होश नहीं हुआ, और वे अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा हासिल कर पाने
में असफल रहे। हाँ, शत्रुघ्न बाबु ने अपने तई सीना
तानकर सूरजभान का प्रतिकार किया, जिसकी कीमत उन्हें लोकसभा-चुनाव,2014 में चुकानी
पड़ी।
लेफ़्ट के रिवाइवल का संकेत:
अब तक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि लोकसभा-चुनाव,2004 बेगूसराय में लेफ़्ट के भविष्य के मद्देनज़र एक महत्वपूर्ण
प्रस्थान-बिन्दु के रूप में सामने आया, और इसने लेफ़्ट के
मार्जिनलाइजेशन की प्रक्रिया को तार्किक परिणति तक पहुँचाया। लेकिन, लोकसभा-चुनाव,2019
ने लेफ़्ट को वह अवसर उपलब्ध करवाया, जिसका
लाभ उठाकर वह खुद को रिवाइव कर सके। इस दृष्टि से लोकसभा-चुनाव,2019 बेगूसराय में लेफ़्ट राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु बनने की
संभावना है। लेकिन, कन्हैया कुमार की राजनीतिक अपरिपक्वता और
लेफ़्ट के स्थानीय नेतृत्व की दिशाहीनता के कारण इस अवसर को भुना पाना संभव नहीं
हो सका। इस चुनाव में लेफ़्ट ने अपने मुद्दों और एजेंडों पर व्यक्ति-केन्द्रित
राजनीति को तरजीह दी, और पार्टी संगठन को दरकिनार करते हुए कन्हैया कुमार में ‘मोदी’ के वामपन्थी अवतार की संभावनाओं को तलाशने का
प्रयास किया और इस क्रम में सब कुछ उसके हवाले कर दिया। लेकिन, ‘राजनीतिक अपरिपक्वता’ के कारण कन्हैया कुमार ने इस
अवसर को ज़ाया हो जाने दिया, जिसकी कीमत उसे भी चुकानी पड़ी
और सीपीआई को भी। बची-खुची कसर ‘उनके काँग्रेस में शामिल
होने’ ने पूरी कर दी।
इन सबके बावजूद, उसके
आविर्भाव ने युवा पीढ़ी को लेफ़्ट से जोड़ने का काम किया और इससे लेफ़्ट के कैडर
में ऊर्जा एवं उत्साह का संचार हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि जब बिहार
विधानसभा-चुनाव,2020 के दौरान लेफ़्ट ने बेगूसराय की सात विधानसभा सीटों में से चार
सीटों पर चुनाव लड़ा, तो उसे दो विधानसभा क्षेत्रों: तेघड़ा और बखरी में जीत हासिल
हुई, और दो विधानसभा क्षेत्रों: बछवाड़ा और मटिहानी में वह महज़ कुछ सौ वोटों से
जीत दर्ज करने से चूक गया। निश्चय ही इससे लेफ़्ट को ताक़त मिली, और लेफ़्ट
के कैडर के बीच ऊर्जा एवं उत्साह का संचार हुआ। आगे चलकर, लेफ़्ट ने सत्रह महीने
के महागठबंधन सरकार के दौरान मिली अनुकूल परिस्थितियों को अपने पक्ष में भुनाने की
हरसंभव कोशिश की।
निर्णायक मोड़ पर लेफ़्ट राजनीति:
कन्हैया के काँग्रेस
ज्वाइन करने के बाद लेफ़्ट को जो झटका लगा, अब लेफ़्ट उस झटके से उबरने की
कोशिश में लगा हुआ है, यद्यपि यह भी सच है कि कन्हैया के
जाने से जो रिक्ति आयी, उसकी भरपाई लगभग असंभव है। अगर यह
कोशिश जारी रही, तो लेफ़्ट बेगूसराय में मज़बूत वापसी कर
सकता है। लेकिन, इसके लिए उसे अतीत की अपनी ग़लतियों से सबक़
लेना होगा। इस दृष्टि से लोकसभा-चुनाव,2024 लेफ़्ट के लिए स्वर्णिम अवसर है। सवाल उठता है, ऐसा
क्यों? इसे निम्न संदर्भों में देखा जा सकता है:
1.
अंतर्विरोधों
का प्रभावी प्रबंधन: लेफ्ट
ने जो गलती लोकसभा-चुनाव,2014 में की थी, उससे सबक लिया और इस बार
उस गलती को दुहराने से परहेज़ किया है। इस बार सुनिश्चित किया गया कि उम्मीदवारी के
मसले पर मतभेद आत्मघाती रूप न ले सकें। शत्रुघ्न बाबू, जिनकी
दावेदारी अत्यन्त मज़बूत थी, ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है,
ताकि महागठबंधन के उम्मीदवार अवधेश राय की जीत सुनिश्चित की जा सके।
इस बार पार्टी एकजुट है।
2.
महागठबंधन
की एकजुटता: लेफ़्ट और महागठबंधन ने लोकसभा-चुनाव,2019
में की गयी गलती से सबक़ लेते हुए उसे सुधारने की कोशिश की है। इस
बार महागठबंधन एकजुट है और उसने अपनी ओर से सीपीआई के अवधेश राय को उम्मीदवार
बनाया है। इस कारण अपने अंतर्विरोधों से उबरते हुए महागठबंधन इस बार भाजपा
उम्मीदवार गिरिराज सिंह को मज़बूत चुनौती दे पाने की स्थिति में है। महागठबंधन के
घटक दल अपनी पूरी ताक़त झोंक रहे हैं और यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा
है कि घटक दलों के बीच बेहतर सहयोग एवं समन्वय हो, इस स्तर
पर कोई दिक़्क़त न हो। लेकिन, परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि सीपीआई और उसके
उम्मीदवार संसाधनों के स्तर पर मौजूद चुनौतियों का कहाँ तक प्रभावी समाधान दे पाते
हैं।
3.
लेफ्ट
उम्मीदवार का पिछड़ी जाति से होना: इस बार सीपीआई ने अवधेश राय को
अपना उम्मीदवार बनाया है, जिनके पास ज़मीनी राजनीति का लम्बा
अनुभव भी है और जिनकी पार्टी संगठन पर पकड़ भी है। साथ ही, पार्टी
के बड़े नेताओं से उनके तालमेल भी बेहतर हैं। वे बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से
लगातार चुनाव लड़ते रहे हैं, और वहाँ से तीन बार विधायक भी
रह चुके हैं। बिहार विधानसभा-चुनाव,2020 में वे अत्यन्त
नज़दीकी मुक़ाबले में महज़ कुछ सौ वोट से चुनाव हारे हैं।
4.
नये
सामाजिक-राजनीतिक समीकरण गढ़ने की कोशिश: इस
बार सीपीआई ने जिस अवधेश राय को अपना उम्मीदवार बनाया है, वे पिछड़ी जाती से आते
हैं। वे समाज के शोषित, उत्पीड़ित और वंचित समूह की आवाज़ हैं,
और उनके बीच उनकी गहरी पैठ है। अबतक बेगूसराय में सीपीआई इसी समूह
के समर्थन की बदौलत चुनाव जीतती रही है, और जबसे इस समूह ने
पार्टी की ओर से मुँह फेरा है, उसकी स्थिति कमजोर पड़ती चली
गयी है। संसदीय चुनाव में उनकी उम्मीदवारी के जरिये नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरण
गढ़ने की कोशिश की है। यह बात महागठबंधन के उम्मीदवार के पक्ष में जाती है।
सामाजिक न्याय और समावेशी राजनीति के प्रतीक अवधेश राय:
बेगूसराय संसदीय
क्षेत्र में अवधेश राय की उम्मीदवारी बेगूसराय ही नहीं, वरन्
बिहार में भी लेफ़्ट की राजनीति में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु है। अबतक यह
धारणा रही है कि बेगूसराय की वामपंथी राजनीति में भूमिहारों का वर्चस्व है। और, यह
भी सच है कि बेगूसराय के भूमिहार अपने राजनीतिक वर्चस्व को लेकर आग्रहशील हैं। यह
धारणा बेगूसराय के संदर्भ तक ही सीमित नहीं है, वरन् बिहार
में सीपीआई की राजनीति के सन्दर्भ में भी यह धारणा लागू होती है। ऐसी स्थिति में
किसी ग़ैर-भूमिहार को उम्मीदवार की कल्पना ही नहीं की जा सकती। लेफ़्ट की इसी
कमजोरी का फ़ायदा उठाते हुए लोकसभा-चुनाव,1998 में लालू जी
की राजद ने राजवंशी महतो को बलिया संसदीय क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया था,
और उनका यह प्रयोग सफल भी रहा था। उस चुनाव में राजवंशी महतो ने
लेफ़्ट के उम्मीदवार और उस समय सांसद रहे शत्रुघ्न बाबू को हराया था। लेकिन,
इस बार लेफ़्ट ने इस मिथक को तोड़ा है। पार्टी और संगठन में
भूमिहारों के वर्चस्व के बावजूद अवधेश राय को उम्मीदवार बनाया जाना इस बात का
प्रमाण है कि बेगूसराय के वामपंथी सामाजिक न्याय और समावेशी राजनीति को लेकर
संवेदनशील भी हैं और अनुक्रियाशील (Responsive) भी। लेफ़्ट
को यह काम 1990 के दशक में ही करना चाहिए था, लेकिन ऐसा न हो पाया। इसका लाभ लेफ्ट के विरोधियों और मुख्या रूप से राजद
ने उठाया, और उसकी इस कमजोरी को जमकर भुनाया। पिछले तीन
दशकों के दौरान चाहे विधानसभा-चुनाव हो, या फिर लोकसभा-चुनाव: दोनों में लेफ़्ट को
इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। ख़ैर, देर से ही सही, लेफ़्ट ने
अपनी गलती सुधरने की कोशिश तो की। देर आये, दुरुस्त आये।
ध्यातव्य है कि
अवधेश राय यादव समुदाय से आते हैं, पर पिछड़ों और दलितों के बीच वे काफ़ी
लोकप्रिय हैं। ऐसी स्थिति में राजद का समर्थन उनके लिए X-फैक्टर का काम करेगा। यह न
केवल क़रीब 2.8 लाख मुसलमान और क़रीब डेढ़ लाख यादव मतदाताओं
के बीच उनकी पैठ सुनिश्चित करेगा, वरन् इससे उन्हें साढ़े
तीन लाख महादलित, ढ़ाई लाख कोरी-कुर्मी-क़ानू और 60 हज़ार मल्लाह मतदाताओं के बीच भी समर्थन मिलने की उम्मीद की जा सकती है।
इसके अलावा, लेफ़्ट के सवर्ण कैडर का सहयोग एवं समर्थन तो
मिलेगा ही।
यहाँ पर इस बात को
भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लेफ़्ट ने जिन पाँच संसदीय सीटों पर अपने
उम्मीदवारों की घोषणा की है, उनमें दो यादव, दो कुशवाहा और
एक तेली समुदाय से आते हैं। इसका मतलब यह है कि सामाजिक न्याय की जिस राजनीति के
प्रति लेफ़्ट के उदासीन रवैये ने लेफ़्ट को हाशिये पर पहुँचाया था, अब सामाजिक न्याय की उस राजनीति के सहारे लेफ़्ट अपने को फिर से खड़ा करने
की कोशिश कर रहा है।
सामाजिक न्याय और लेफ़्ट:
जहाँ
तक सामाजिक न्याय और लेफ़्ट की बात है, तो वास्तविकता यह है कि लेफ़्ट सामाजिक
न्याय के मोर्चे पर तब से काम कर रही है, जब भारतीय जन-मानस
‘सामाजिक न्याय’ के मुहावरे से परिचित
नहीं था और ‘सामाजिक न्याय’ का टकसाली
मुहावरा उनकी जुबाँ पर चढ़ा नहीं था। बाद में, समाजवादियों ने
‘सामाजिक न्याय’ के इस मुहावरे को
लोकप्रिय बनाया और सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत पहचान की राजनीति को तवज्जो दी।
फिर, 1990 के दशक के आरम्भ में मण्डल आन्दोलन की पृष्ठभूमि में सामाजिक न्याय की
राजनीति जन-जन तक पहुँची और उसने पिछड़े, दलित, शोषित, उत्पीड़ित एवं वंचित समूह को
अपनी गिरफ़्त में लिया। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखे जाने
की ज़रूरत है कि 1990 के दशक में समाजवादियों के नेतृत्व में
जोर पकड़ी सामाजिक न्याय की राजनीति का दायरा अत्यन्त संकुचित रहा। वह जातिगत पहचान
की राजनीति के दायरे में सिमट कर रह गयी, आर्थिक न्याय के बुनियादी प्रश्न से खुद
को सम्बद्ध कर पाने में असफल रही। परिणामत: राजनीतिक और सामाजिक समावेशन की
प्रक्रिया तेज तो हुई, पर आर्थिक समावेशन का प्रश्न उपेक्षित
ही रहा। यहाँ तक कि उसके राजनीतिक-सामाजिक समावेशन का दायरा भी बहुत हद तक
मध्यवर्ती पिछड़ी जातियों और दलितों की प्रभु जातियों तक सीमित रहा। उसकी सीमा यह
भी रही कि वह वंशवाद, परिवारवाद और राजनीतिक भ्रष्टाचार के
दायरे में सिमट कर रह गयी, और उसके सहारे नेतृत्व में शीर्ष
पर बैठे लोगों ने अपने संकीर्ण स्वार्थों को साधने की कोशिश की। परिणामतः इसका लाभ
यादव, कोइरी, कुर्मी जैसी मध्यवर्ती,
किन्तु प्रभु पिछड़ी जातियों और दुसाध जैसी प्रभु दलित जातियों तक
सीमित रहा। उसकी इस असफलता को आज भाजपा प्रभावी तरीक़े से भुना रही है और उसे पुनर्परिभाषित
करने के नाम पर उसे अप्रासंगिक बनाया जा रहा है।
लेकिन, लेफ़्ट के लिए सामाजिक न्याय का मसला महज़ जातिगत पहचान तालमेल नहीं है।
आरम्भ से ही लेफ़्ट
के सामाजिक न्याय का दायरा कहीं अधिक व्यापक रहा
है। उसने हमेशा सामाजिक न्याय के प्रश्न को आर्थिक न्याय के प्रश्न से सम्बद्ध
करके देखा है, इतिहास इस बात का साक्षी है। बेगूसराय
में लेफ़्ट ने ज़मीन के मसले को तवज्जो देते हुए भूमि-सुधार के लिए संघर्ष की नींव
रखी और जातिगत उत्पीड़न के प्रश्न को शिद्दत के साथ उठाया। लेफ़्ट को इसका
राजनीतिक लाभ भी मिला और इसने बिहार के मास्को के रूप में अपनी पहचान बनायी।
परिणामत: एक समय में बछवाड़ा से बिखरी तक की धरती लाल हो गयी और लेफ़्ट के खाते
में बेगूसराय ज़िला की सारी विधानसभा सीटें आ गयीं। लेकिन, सामाजिक
न्याय की वामपंथी राजनीति की सीमा यह रही कि पिछड़ी जातियों और दलितों के बीच
व्यापक जनाधार के बावजूद बेगूसराय की संसदीय राजनीति पर वामपंथी रूझान वाले
भूमिहारों का वर्चस्व बना रहा। इसके कारण वामपंथी राजनीति को जितना समावेशी होना
चाहिए था, वह उतनी समावेशी नहीं हो पायी: कम-से-कम बेगूसराय
में नेतृत्व के स्तर पर ऐसा देखा जा सकता है। इतना ही नहीं, महिलाओं के सन्दर्भ में
भी इसकी इस सीमा को नोटिस लिया जा सकता है। स्पष्ट है कि काँग्रेस की तरह लेफ़्ट भी
मौक़े की नज़ाकत को समझ पाने में असफल रहां और इसने अपने दरवाज़े को शोषित,
उत्पीड़ित एवं वंचित समूह के लिए खोलने से परहेज़ किया। परिणामतः
शोषित, उत्पीड़ित एवं वंचित समूह के उस तबके का लेफ़्ट से
मोहभंग हुआ, जो वामपंथ की ओर रूझान रखता था। इसने बेगूसराय की वामपंथी राजनीति को
उस मोड़ पर पहुँचा दिया जहाँ से या तो वह खुद को पुनर्परिभाषित करे, या फिर खुद को अप्रासंगिक हो जाने दे। इतना ही
नहीं, इस बात को भी ध्यान में रक्षा जाना चाहिए कि यद्यपि लेफ़्ट के सामाजिक न्याय का
दायरा राजद और जदयू के सामाजिक न्याय की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और कही अधिक
समावेशी है, पर महिलाओं को प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सन्दर्भ में यह अभी भी
हाशिये पर है।
भविष्य की संभावनाएँ:
इसे
बेगूसराय में सवर्णों के नेतृत्व वाली वामपंथी राजनीति की उदारता और सदाशयता कहें, या फिर मजबूरी, प्रस्तावित लोकसभा-चुनाव में इसने
अपनी संसदीय राजनीति के दरवाजों को पिछड़ों और दलितों के लिए खोल दिया है। इससे
वामपंथी राजनीति में पिछड़ों और वंचितों की पॉलिटिकल मेनस्ट्रीमि्ग की प्रक्रिया
तेज होगी और लेफ़्ट के राजनीतिक एजेंडे में एक बार फिर से उनको प्रत्यक्षतः या
परोक्षतः प्रभावित करने वाले मसलों को जगह मिलेगी। इससे लेफ़्ट के लिए पिछड़ों,
शोषितों, उत्पीड़ितों और वंचितों के बीच अपने
खोये हुए जनाधार को वापस हासिल कर पाना संभव हो सकेगा। अब आवश्यकता इस बात की है
कि लेफ़्ट सामाजिक न्याय के एजेंडे को लेकर जनता के बीच जाये और शिद्दत के साथ खेती
एवं किसानी से सम्बद्ध मसलों को उठाते हुए उसे आर्थिक न्याय के प्रश्न से सम्बद्ध
करे। इतना ही नहीं, लेफ्ट को शहरों और गाँवों के बीच बढ़ते
अन्तरालों से सम्बद्ध मुद्दों को भी एड्रेस करना होगा। साथ ही, आवश्यकता इस बात की भी है कि लेफ़्ट शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के
बाज़ारीकरण के इस दौर में सार्वजनिक शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के मसले जनता
तक ले जाते हुए जनता को यह बतलाने की कोशिश करें कि उसे हर माह पाँच किलोग्राम
मुफ़्त राशन, झुनझुने की तरह आयुष कार्ड और पीएम किसान
मान-धन की राशि के साथ-साथ हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद,
भारत-पाकिस्तान और नेशनल-एंटी नेशनल की राजनीति के बदले कितनी बड़ी
क़ीमत चुकानी पड़ रही है। अगर लेफ़्ट ऐसा करने में समर्थ रहा, तो न केवल आगामी लोकसभा चुनावों में इसकी जीत की संभावनाएँ प्रबल होंगी,
वरन् वह बेगूसराय के साथ-साथ बिहार की राजनीति में एक बार फिर से खुद
को मज़बूती से पुनर्स्थापित करने में सफल होगा। अगर लेफ़्ट ने ऐसा नहीं किया, तो
लेफ़्ट की राजनीति का ‘राम नाम सत्य’ मानिये।
(नोट:
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति में उनकी विशेष रूचि रही है।)